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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व
किया है। पंडित टोडरमल की भाषा पर अंतिम दोनों बातें विशेष रूप से लागू हैं, यद्यपि उनका झुकाव क्षेत्रीय भाषा - ढूंढाड़ी मिश्रित ब्रजभाषा की ओर विशेष है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पंडितजी की भाषा प्रधान रूप से ढूंढाड़ी मिश्रित ब्रज है जिसमें यत्र-तत्र खड़ी बोली के रूप भी प्रयुक्त हुए हैं ।
यों तो खड़ी बोली और ब्रजभाषा के नमूने हिन्दी के आदिकालीन साहित्य में मिलते हैं, किन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी से उनके अपेक्षाकृत प्रौढ़ नमूने प्राप्त होते हैं । श्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ब्रजभाषा का नमूना दिया है, जो इस प्रकार है :
"श्री गुरु परमानन्द तिनको दंडवत है । हैं कैसे परमानन्द, आनन्द स्वरूप हैं सरीर जिन्हि को, जिन्हिके नित्य गाए तें सरीर चेतन्नि अरु श्रानन्दमय होतु हैं । मैं जु हों गोरिष सो मछंदरनाथ को दण्डवत करत ह । हैं कैसे वे मछंदरनाथ ? आत्मज्योति निश्चल है अंत करन जिनके अरु मूलद्वार तैं छह चक्र जिनि नीकी तरह जानें " । "
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार गोरखपंथ से सम्बन्धित पुस्तकों का काल विक्रम की दशमी शती है और इस प्रकार ब्रजभाषा गद्य के प्राचीनतम लेखक गोरखनाथ माने जा सकते हैं, किन्तु प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल और मिश्रबन्धु ने इन्हें गोरखनाथ की लिखी न मान कर उनके शिष्यों द्वारा लिखी माना है । इसीलिए वे उसका समय १४वीं शती के आसपास मानते हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा तो इसे इसके भी बाद का मानते हैं * ।
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डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि गोरखबानी' में संग्रहीत सभी रचनाएँ गोरल रचित नहीं हैं तथा
" हि० सा० इति०, ४०३
वही, ४०३
मिश्रन्धु विनोद प्र० भा०, २४२
४ हि० सा० प्रा० इति०, १११
# जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य - भाग १, २ : डॉ० हीरालाल माहेश्वरी
गोरखबानी : संपादक - डॉ० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल
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