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डिल टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृरव
विट्ठलनाथजी के 'श्रृंगार रस मंडन'' का गद्य आचार्य शुक्ल के अनुसार अपरिमार्जित और अव्यवस्थित है । 'चौरासी वैष्णवों की बार्ता' के गद्य में साहित्यिकता और निपुणता नहीं है । उसमें बोलचाल का सीधा-सादा गद्य है । नाभादास का गद्य भी इतिवृत्तात्मक है । इस काल की प्रालोचना का निष्कर्ष शुक्लजी के अनुसार यह है कि वैष्णव वार्ताओं में ब्रजभाषा गद्य का जैसा परिष्कृत और सुव्यवस्थित रूप दिखाई पड़ा, वैसा फिर आगे चल कर नहीं । काव्यों की टीकानों आदि में जो थोड़ा बहुत गद्य देखने में आता है वह बहुत ही अव्यवस्थित और अशक्त था । इस प्रकार आचार्य शुक्ल का अन्तिम निष्कर्ष यह है कि जिस समय मद्य के लिए खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य खड़ा नहीं या था, इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ ।
श्राचार्य शुक्ल 'के उक्त कथन पर विचार करने के पूर्व जैन गद्यों के नमूनों का विश्लेषण कर लेना आवश्यक है ।
जैन गद्य में पांडे राजमल की भाषा आदर्श ब्रज गद्य नहीं है । 'है' की जगह 'छै' का प्रयोग उसके राजस्थानी - गुजराती प्रभाव को सूचित करता है । 'पीवाइ करि श्रविकल कीजे ले' जैसे प्रयोग ब्रज गद्य के लिए अपरिचित हैं । उसे परिमार्जित और शुद्ध नहीं माना जा सकता ।
बनारसीदास मुख्य रूप से कवि हैं, गद्य उन्होंने बहुत कम लिखा है । अतः उनके गद्य के आधार पर ब्रजभाषा गद्य सम्बन्धी कोई निश्चित धारणा नहीं बनाई जा सकती। दूसरे उसमें क्रिया में 'ता' वाले रूप जैसे - 'जानतो, करतो, नाहीं जानतो मानतु है, दिखायतु' आदि अधिक हैं, जो ब्रज की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं ।
दीपचंद शाह का गद्य परिमार्जित गद्य है, परन्तु परिमाण की दृष्टि से अधिक नहीं है ।
२.
श्रृंगार रस मंडन के कर्ता और काल के विषय में डॉ० प्रेमप्रकाश गौतम ने असहमति व्यक्त की है। हि० ० वि०, ६०
हि०
० सा० इति०, ४०६