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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व वक्ता-श्रोता दोनों पक्षों की योग्यता-अयोग्यता को तर्क की कसौटी पर कसा है । वक्ता-श्रोता सम्बन्धी विनार यद्यपि परम्परागत हैं फिर भी वह इन दोनों के सम्बन्ध में अपना विशिष्ट दृष्टिकोण रखते हैं। कहना न होगा इस दृष्टिकोण में उनके व्यक्तित्व और लेखनशैली की झलक मिलती है। उदाहरण के लिए वक्ता श्रद्धावान होना चाहिए, वह विद्याभ्यासी हो और अपने वक्तव्य के लक्ष्य को ठीक से जानता हो । उसे अपने स्वीकृत मत के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। उसका शास्त्रचितन. ग्राजीविका का साधन न हो। यदि वह कोई लौकिक उद्देश्य रखता है तो सम्भव है कि श्रोताओं के प्रभाव में आकर उनके अनुसार शास्त्र की व्याच्या कार दे । उन्होंने लिखा है :..
बहुरि वक्ता कैसा होना चाहिए, जाकं शास्त्र बांचि आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की इच्छा न होय । जाते जो प्राशावान् होइ तो यथार्थ उपदेश देइ सके नाहीं, बाकै सौ कि श्रोतानिका अभिप्राय के अनुसार व्याख्यान बार अपने प्रयोजन साधने का ही साधन रहै पर श्रोतानित वक्ता का पद ऊंचा है परन्तु यदि वक्ता लोभी होय तौ वक्ता प्राप ही हीन हो जाय, श्रोता ऊंचा होय । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जाकै तीव्र क्रोध मान न होय जाते तोत्र क्रोधी मानी की निंदा होय, श्रोता तिसते डरते रहैं, तब तिसतै अपना हित कैसे करें । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जो आप ही नाना प्रश्न उठाय पाप ही उत्तर कर अथवा अन्य जीव अनेक प्रकार करिवहत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचननि करि जैसे उनका संदेह दूर होय में समाधान करें। जो आपके उत्तर देने की सामर्थ्य न होय तो या कहै, याका मौकों ज्ञान नाहीं, किसी विशेष ज्ञानी से पूछ कर तिहारे ताईं उत्तर दूंगा, अथवा कोई समय पाय विशेष ज्ञानी तुम सौं मिले तो पुछ कर अपना सन्देह दूर करना और मौत ह बताय देना' ।"
वक्ता का सबसे बड़ा और मौलिक गुण है -- सत्य के प्रति सच्ची जिज्ञासा और अनुभूत सत्य की प्रामारिगक अभिव्यक्ति । स्पष्ट है कि वक्ता अपनी सीमा में ही उत्तर दे, यदि उसे नहीं आता है तो स्पष्ट
'मो. मा० प्र०, २२-२३