Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड़ जयाचाये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड़ जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : ग्रन्थ १४ भगवती-जोड़ खण्ड १ प्रवाचक युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी प्रधान संपादक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन / अनुवाद साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) अर्थ-सौजन्य : जयाचार्य निर्वाण शताब्दी समारोह समिति प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द रामपुरिया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) प्रथम संस्करण : १६८१ मूल्य : १०० रुपये मुद्रक : भारती प्रिण्टर्स दिल्ली- ३२ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जयाचार्य निर्वाण-शताब्दी समारोह के इस पावन अवसर पर जैन विश्व भारती की ओर से जय वाङ्मय के चतुर्दश ग्रन्थ 'भगवती-जोड़' को जनता के हाथों में सौंपते हुए हमारा हृदय हर्षोत्फुल्ल हो रहा है। श्रीमज्जयाचार्य का जन्म-नाम जीतमलजी था। आपने अपनी कृतियों में अपना उपनाम 'जय' रखा, इसलिए आप जयाचार्य के नाम से प्रख्यात हुए। आप श्वेताम्बर तेरापंथ धर्म-संघ के चतुर्थ आचार्य थे। श्रीमज्जयाचार्य की जन्मभूमि मारवाड़ का रोयट ग्राम था। आपका जन्म सं० १८६० की आश्विन शुक्ला १४ की रात्रिवेला में हुआ था। आप ओसवाल थे। गोत्र से गोलछा थे। आपके पिताश्री का नाम आईदानजी गोलेछा और मातुश्री का नाम कलूजी था। आप तीन भाई थे। दो बड़े भाइयों का नाम सरूपचन्दजी और भीमराजजी था। ____ आपके ज्येष्ठ भ्राता सरूपचन्दजी ने सं०१८६६ की पौष शु०६ के दिन साधु-जीवन ग्रहण किया। आपने उसी वर्ष माघ कृष्णा ७ के दिन प्रव्रज्या ग्रहण की। दूसरे बड़े भाई भीमराजजी की दीक्षा आपके बाद फाल्गुन कृष्णा ११ के दिन सम्पन्न हुई और उसी दिन माता कलूजी ने भी दीक्षा ग्रहण की। इस तरह सं० १८६९ पौष शुक्ला ८ एवं फाल्गुन कृष्णा १२ को पौने दो माह की अवधि में माता सहित तीनों भाई द्वितीय आचार्यश्री भारमलजी के शासन-काल में दीक्षित हुए। साधु-जीवन ग्रहण करने के समय जयाचार्य नौ वर्ष के थे। दीक्षा के बाद आप शिक्षा के लिए मुनि हेमराजजी को सौंपे गए । वे ही आपके विद्या-गुरु रहे। आगे जाकर आप एक महान् आध्यात्मिक योगी, विश्रुत इतिहास-सर्जक, विचक्षण साहित्य-स्रष्टा एवं सहज प्रतिभा सम्पन्न कवि सिद्ध हुए। सं० १६०८ माघ कृष्णा १४ के दिन तृतीय आचार्य ऋषिराय का छोटी रावलिया में देहान्त हुआ। आप चतुर्थ आचार्य हुए। आचार्य ऋषिराय के देवलोक होने का समाचार माघ सु० ८ के दिन बीदासर पहुंचा, जहां युवाचार्य जीतमलजी विराज रहे थे । सं० १६०८ माघ सुदी १५ को प्रातःकाल पुष्य नक्षत्र के समय आप पदासीन हुए और बड़े हर्ष के साथ पट्टोत्सव मनाया गया। आचार्य ऋषिराय ने ६७ साधुओं एवं १४३ साध्वियों की धरोहर छोड़ी। आपने श्वेताम्बर तेरापंथ धर्म-संघ के चतुर्थ आचार्य पद को ३० वर्षों तक सुशोभित किया । आपका निर्वाण सं० १९३८ की भाद्र कृष्णा १२ के दिन जयपुर में हुआ। सं० २०३८ भाद्र कृष्णा ११ के दिन आपको निर्वाण प्राप्त हुए १०० वर्ष पूरे हुए हैं। जयाचार्य बड़े कुशल संघ-व्यवस्थापक और दूरदर्शी आचार्य थे। आपके आचार्यत्व काल में संघ का बहुविध विकास हुआ। श्रीमज्जयाचार्य ने अपने जीवन-काल में लगभग ३३ लाख प्रद्य-प्रमाण साहित्य की रचना की। आपकी साहित्यिक रुचि बहुविध थी। तेरापंथ धर्म-संघ के संस्थापक आदि-आचार्य श्रीमद् भिक्षु के बाद आपकी साहित्य-साधना बेजोड़ है । आप महान् तत्त्वज्ञानी थे । जन्मजात कुशल इतिहास-लेखक थे। सजीव Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्मरणात्मक जीवन चरित्र लिखने की आपकी प्रवीणता अनोखी थी। आपकी कृतियों का सौष्ठव, गांभीर्य एवं संगीतमयता - ये सब मनोमुग्धकारी हैं। 'भगवई' अंग-ग्रंथों में सबसे विशाल अंग है। विषयों की दृष्टि से वह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रंथ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी साहित्य का सबसे बड़ा ग्रंथ माना गया है। इसमें मूल के साथ टीका-ग्रंथों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें विभिन्न लय में ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं । ४१ ढालें केवल दोहों में हैं । ग्रन्थ में ३९२ रागिनियां प्रयुक्त हैं। साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रंथों पर आपने जो कार्य किया, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया, जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है । प्रथम आचारांग की जोड़, निशीथ की जोड़, ज्ञाता की जोड़, उत्तराध्ययन की जीड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़ ये कृतियां इस दिशा में उनके विस्तृत कार्य का परिचय देती हैं। इसमें ४६६३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छंद, १८८४ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा पर्याय आदि ७४४६ पद्य परिमाण ११६० गीतिकाएं, ६३२६ पद्य - परिमाण ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुपू पद्य परिमाण ग्रंथाग्र ६०९०६ है । प्रस्तुत प्रकाशन 'भगवती-जोड़' उक्त कृति के चार शतकों को समाविष्ट करता हुआ उसका प्रथम खण्ड है । मूल राजस्थानी कृति के साथ सम्बन्धित आगम पाठ और टीका की व्याख्या गाथाओं के समकक्ष में दे दी गई हैं, जिससे पाठकों को समझने की सहूलियत के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी। इस ग्रंथ का कार्य वाचक युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया और आचार्यश्री के शब्दों में ही घोर परिश्रम किया है । इसका सम्पादकीय प्रधान सम्पादक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा प्रस्तुत है । ऐसे ग्रंथ रत्न को प्रकाशित करते हुए जैन विश्व भारती अपने को अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव कर रही है। श्री जयाचार्य जैसे पुनीत पुरुष की निर्वाण शताब्दी के अवसर पर जय वाङ्मय एवं तत् सम्बन्धित अन्य महत्वपूर्ण साहित्य प्रकाशित करने की विशाल योजना जैन विश्व भारती के सम्मुख है और हमें पूरा विश्वास है कि आप सबके सहयोग से यह संस्था उसे पूरा कर पाएगी। श्री जयाचार्य निर्वाण शताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में मित्र परिषद्, कलकत्ता ने जैन विश्व भारती प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना हेतु दो लाख रुपयों की राशि प्रदान करने की कृपा की है। उक्त मुद्रणालय जैन विश्व भारती को साहित्य - प्रकाशन के क्षेत्र ने द्रुतगति से बढ़ने में सहायक होगा। इस अवसर पर हम मित्र परिषद् के पदाधिकारियों एवं सदस्यों के प्रति हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करते हैं । श्री जयाचार्य निर्वाण शताब्दी समारोह समिति को भी उनके आर्थिक सौजन्य के लिए हम अनेक धन्यवाद ज्ञापित करते हैं । लाडनूं ( राज० ), सितम्बर, १९८१ श्रीचन्द रामपुरिया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जयाचार्य में मति, बुद्धि और प्रज्ञा की त्रिवेणी प्रवाहित थी। केवल मनन और केवल बुद्धि यथार्थता का स्पर्श करती है, पर उसके पार तक नहीं पहुंच पाती। पार-दर्शन का माध्यम है अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा। जयाचार्य ने अपनी प्रज्ञा से सत्य का अनुभव किया और उसे वाङ्मय में नियोजित किया। उनकी अन्तर्भाषा है प्रज्ञा और बाहर की भाषा है राजस्थानी। उन्होंने बहुत लिखा। सत्य को बहुत अभिव्यक्ति दी। कोई भी व्यक्ति जितना जानता है, जितना देखता है, उतना उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता । अनुभूति और अभिव्यक्ति-ये दो स्तर भिन्न-भिन्न हैं। जयाचार्य की अनुभूति प्रबल थी, इसलिए अभिव्यक्ति में भी प्रबलता आ गई। अब तक उनकी वाणी बहुत कम प्रकाश में आई थी। वह केवल हस्तलिपियों के भंडार में सुरक्षित पड़ी थी। वह जन-जन तक पहुंच सके, ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकी। हम उपादान और निमित्तदोनों में विश्वास करते हैं। उपादान होने पर भी यदि निमित्त न मिले तो क्रियान्विति नहीं हो सकती। जयाचार्य की निर्वाण-शताब्दी एक निमित्त बना उनके साहित्य को जनता तक पहुंचने का। लगभग तीन दशकों से हमारे धर्मसंघ में साहित्य की अजस्र धारा बही है। उसमें चार बड़े कार्य संपन्न हुए हैं १. आगम साहित्य का सम्पादन २. तेरापंथ द्विशताब्दी का साहित्य ३. कालूगणी की जन्म शताब्दी का साहित्य ४. जयाचार्य का साहित्य आचार्यश्री तुलसी के सुदीर्घ शासनकाल में मेरुदंड जैसे कार्य सम्पन्न हुए और हो रहे हैं। आचार्यश्री प्रेरणा के स्रोत हैं । वे नए-नए आयाम उद्घाटित करना चाहते हैं । ये सारे कार्य अधिकांशतया साधु-साध्वियों के श्रम से सम्पन्न हुए हैं। किंचित् मात्रा में गृहस्थ विद्वानों का भी योग रहा है। हमारा साधु-साध्वी समाज अध्ययननिष्ठ होने के साथ-साथ अनुशासननिष्ठ और श्रमनिष्ठ भी है। यही हमारे कार्य की सुविधा है। इस सुविधा के अभाव में ये सारे श्रमसाध्य सम्पादन के कार्य अल्प अवधि में सम्पन्न नहीं किये जा सकते थे। जयाचार्य के साहित्य सम्पादन का कार्य बहुत बड़ा है। उनके साहित्य की सूची काफी बड़ी है १. जयाचार्य-वाङमय चयनिका १. जय अनुशासन (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती) साधना २. आराधना साहित्य ३. उपदेशरत्नकथाकोश (अनुमानित दस खण्ड) ४. आख्यान-संग्रह (दोखण्ड) ५. संस्मरण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जीवन-वृत इतिहास ६. तेरापंथ के तीन आचार्य ७. कीर्ति गाथा ८. अमर गाथा ( दो खण्ड ) fafir (Law) ६. तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था आगम-भाष्य १०. उत्तराध्ययन की जोड़ ११. आचारांग की जोड़ १२. आचारांग को टब्बो १३. ज्ञाता की जोड़ १४. भगवती की जोड़ (अनुमानित आठ खण्ड) १५. आगम: प्रकीर्ण बिन्दु तत्व-दर्शन १६, तत्त्व-चर्चा १७. चर्चा - रत्नमाला १८. भिक्खु कृत हुंडी की जोड़ (भिक्खु कृत हुंडी सहित ) १२. भ्रम-विध्वंसनम् २०. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध ( बृहत् ) २१.मंडन, कुमतिविन २२. सन्देहविषौषधि प्रश्नोत्तरार्द्धशतक २३. तत्त्व चर्चापिटक २४. भिक्षु ग्रन्थ : आगम समन्वय न्याय, व्याकरण, काव्य २५. न्याय, व्याकरण और काव्य जीवन-वृत्त २६. प्रज्ञापुरुष जयाचार्य २७. जय सुजश २८. श्रद्धांजलि-संस्मरण साहित्य-समीक्षा २. जयाचार्य के जीवन और साहित्य से सम्बद्ध प्राच २६. जयाचा साहित्य मूल्यांकन जयाचार्य स्मृति ग्रन्थ ३०. आगम मंथन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना ३१. लोचन और आत्मालोचन जीवनवृत्त ३२. चित्रावली ३. आचार्य भिक्ष और तेरापंथ से सम्बद्ध ग्रन्थ जीवन-वृत्त ३३. आचार्य भिक्षु : जीवन-कथा ३४. आचार्य भिक्षु : धर्म-परिवार इतिहास ३५. शासन-समुद्र तत्त्व-दर्शन ३६. जय तत्त्वबोध ये सब मिलकर ३६ ग्रन्थ हो जाते हैं। इतना बड़ा कार्य बहुत थोड़े वर्षों में सम्पादित और कुछ मात्रा में अनूदित होकर प्रस्तुत हो रहा है। यह श्रमनिष्ठा का एक निदर्शन है । जयाचार्य के ग्रन्थों के मूलपाठ शोधन में सबसे अधिक श्रम आचार्यश्री ने किया है । नाना प्रकार की संघीय प्रवृत्तियों और साहित्यिक रचनाओं में संलग्न एक आचार्य अपने पूर्वज आचार्य के साहित्य-सम्पादन में इतने श्रम और शक्ति का नियोजन करे, यह कृतज्ञता और श्रद्धा का महान् निदर्शन है। प्रस्तुत रचना एक महाग्रन्थ है। इसके सम्पादन का कार्य भी गुरुतर है । इस गुरुतर कार्य को आचार्यप्रवर ने गुरुतम बना दिया। जयाचार्य ने मूलपाठ तथा वृत्ति के जिन स्थलों का अनुवाद किया, उन सबकी जोड (पद्यानुवाद) के सामने नियोजित करने से ग्रन्थ की उपयोगिता बढ़ी, पर साथ-साथ सम्पादन कार्य की जटिलता भी बढ़ी। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना में जयाचार्य ने बहुत परिश्रम किया था। उनके परिश्रम में हाथ बंटाया था साध्वीप्रमुखा गुलाबसती ने। इसके सम्पादन में आचार्यप्रवर ने भी कम परिश्रम नहीं किया है। पाठ-शोधन से लेकर सम्पादन की सारी प्रकृतियों और प्रवृत्तियों के दायित्व का निर्वाह किया है। इस कार्य में हाथ बंटाया साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने। उन्होंने अत्यधिक समय और शक्ति का नियोजन कर इसे गति दी और दीर्घकाल साध्य कार्य को अल्पकाल साध्य बना दिया। इस महान ग्रंथ को 'सम्पादन के कीर्तिमान' के रूप में उपलब्ध कर साहित्यिक और दार्शनिक जगत् में हमारा धर्मसंघ गौरव-मंडित होगा और चिरकाल तक आचार्यप्रवर एवं साध्वीप्रमुखा के काम का मूल्यांकन करता रहेगा। इस सम्पादन में अन्य साध्वियोंकल्पलताजी, जिनप्र भाजी का भी योगदान रहा है। उनका उल्लेख साध्वीप्रमुखा की सम्पादकीय टिप्पणी में किया गया है। संदर्भ की खोज में मुनि हीरालालजी तथा प्रस्तावना लेखन में मुनि श्रीचन्दजी का सहयोग रहा है। प्रकाशन-कार्य में प्रबन्ध-सम्पादक श्रीचन्दजी रामपुरिया तथा उनके सहयोगी जनों का पूरा श्रम लगा है। अनेक उंगलियों के समन्वय से समन्वित होकर अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण एक महान् ग्रन्थ जनता के हाथों में आ रहा है, यह हम सबके लिए उल्लास और गौरव का विषय है। अणुव्रत भवन, नई दिल्ली १ अगस्त, १९८१ ---युवाचार्य महाप्रज्ञ Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन का इतिवृत्त आगम साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है भगवती, जो विआहपण्णत्ति या व्याख्याप्रज्ञप्ति के नाम से भी पहचाना जाता है। यह एक बृहत्तम आकर ग्रन्थ है। आकार में यह सब आगमों से वृहत् है, उसी प्रकार इसका प्रतिपाद्य भी सर्वाधिक बहु-आयामी है। भगवती के व्याख्या-ग्रन्थों में वृत्ति, टब्बा, चूर्णि यन्त्र, जोड आदि कई उल्लेखनीय व्याख्याएं हैं । वृत्ति मुद्रित है और उसकी प्रतियां सुलभ हैं। टब्बा, चूर्णि और यन्त्र उपलब्ध हैं, पर मुद्रित नहीं है, इसलिए सहज सुलभ नहीं है। भगवती जोड की हस्तलिखित प्रतियां तेरापन्थ धर्मसंघ के भंडार में सुरक्षित है। भगवती जी के रचयिता है तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद जयाचा उन्होंने अपने जीवन में साहित्य की जो जल धारा बहाई र साहित्यकार ही वहा सकते हैं। उनकी साहित्यिक चेतना का मूल केन्द्र राजस्थानी भाषा रहा है। उन्होंने साढ़े तीन लाख पद्य परिमाण साहित्य का सृजन कर राजस्थानी साहित्य को समृद्ध ही नहीं बनाया, एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया । जयाचार्य की साहित्यिक कृतियों में 'भगवती जो सर्वाधिक बड़ी कृति है। भगवती सूत्र का राज स्थानी भाषा में पद्यानुवाद कोई सरल काम नहीं है, पर जयाचार्य ने उसे जिस सहजता से सम्पादित किया है, आश्चर्य का विषय है। लगभग सोलह हजार ग्रन्थाग्र वाले भगवती सूत्र को उन्होंने साठ हजार पद्यों में विश्लेषित कर भगवती सूत्र के मूल प्रतिपाद्य को तो सुबोध बनाया ही, यत्र-तत्र आलोच्य विषयों पर छोटीबड़ी समीक्षाएं लिखकर हर विषय को स्पष्ट और संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास किया। जिन तथ्यों के सम्बन्ध में वृत्तिकार के साथ उनकी सहमति नहीं थी, उसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया और असहमत पक्ष पर तर्क प्रस्तुत कर अपने मन्तव्य का प्रतिपादन किया है। कुल मिलाकर भगवती-जोड़ एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी तुलना में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं आ सकता । आचार्यवर के सान्निध्य में जयाचार्य के साहित्य पर काम करने की दृष्टि से गोष्ठियां चलीं। काम का विभाजन हुआ। अनेक साधु-साध्वियों और विद्वानों को कार्यभार सौंपा गया। मैं उस समय 'भगवती' का हिन्दी अनुवाद कर रही थी। इस दृष्टि से मुझे भगवती का काम सौंपा गया। क्या काम करना है? कैसे करना है ? इस सम्बन्ध में उस समय कुछ निर्णय नहीं हुआ। कुछ समय बाद आचार्यश्री ने कहा- "भगवतीजोड़ का सम्पादन करना है।" इस निर्देश के बाद मैंने एक दिन भगवती-जोड़ की हस्तलिखित प्रति देखी, काम दुरूह लगा। इस सम्बन्ध में आचार्यवर से निवेदन किया तो आपने कहा- यह काम तुम मेरे साथ बैठकर करना । मेरी समस्या समाप्त हो गई। द्वितीय ज्येष्ठ कृष्ण नवमी वि० सं० २०३७ को प्रवचन सम्पन्न होने के बाद 'भगवती-जोड़' का वाचन शुरू किया। उस दिन आचार्यश्री और युवाचार्य श्री दोनों का युगपत सान्निध्य प्राप्त हुआ । वाचन शुरू करने के साथ ही आचार्यवर ने चिन्तन दिया--जोड़ जिस रूप में है, उसी रूप में वह जनता के हाथों में पहुंचेगी तो अधिक उपयोगी नहीं हो सकेगी। जोड़ के सामने आगम और वृत्ति के उन स्थलों को, जिनके आधार पर जोड़ की गई है, उत कर दिया जाए तो जगत् में इसकी उपयोगिता बहुगुणित हो सकती है। अभी हम प्रथम शतक को इस रूप में प्रस्तुत कर देख लें कि यह काम कैसा होता है। आचार्यश्री का यह चिन्तन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्यश्री को बहुत अच्छा लगा। उसी समय उस दृष्टि से कार्य प्रारम्भ कर दिया। इस कार्य में सबसे पहला काम था 'जैन विश्व भारती' द्वारा अधिगृहीत भगवती-जोड़ की शुद्धता को प्रमाणित करना। इसके लिए भी आचार्यवर का सान्निध्य अपेक्षित था। क्योंकि इस प्रकार की कृतियों का अध्ययन न होने के कारण स्वतन्त्र काम करने में पग-पग पर अवरोध संभावित था। आचार्यवर ने अनुग्रह किया और अधिगृहीत ग्रन्थ को मिलाने के लिए अपना पूरा समय दिया। उस समय मेरे सामने केवल एक फाइल थी और आचार्यश्री के आसपास अंगसुत्ताणि भाग २, भगवती की वृत्ति, केशर भगवती, पंचांगी भगवती आदि कई प्रतियां थीं। जहां कहीं तथ्य स्पष्ट नहीं होते, आचार्यश्री मूल आगम और वृत्ति को सामने रखकर उस स्थल में संशोधन कर देते। आचार्य की मर्यादा आचार्य के हाथ में, यह तेरापंथ धर्मसंघ के संविधान का निर्देशक तत्त्व है। इसी के आधार पर आचार्य की कृतियां भी भावी आचार्यों की अपनी कृतियां बन जाती हैं। इस बात को ध्यान में रखकर आचार्यश्री ने पचासों स्थलों पर शब्दों और मात्राओं की दृष्टि से पद्यों में परिवर्तन किया। परिवर्तन करते समय आचार्यवर के मुंह से सहज श्रद्धा और विनम्रता के साथ शब्द निकलते-जयाचार्य की हर रचना पूर्ण है, अपूर्व है और अनाग्रहबुद्धि से संदृब्ध है। फिर भी हम अपनी ओर से जयाचार्य की किचित् भी आशातना न करते हुए, उनकी दृष्टि का अतिक्रमण न करते हुए शुद्ध भाव से यत्र-तत्र अपेक्षित परिवर्तन करते हैं, इसके लिए संभवतः वे हमें अपनी अनुमति दे रहे हैं।" कितना उदार और ऋजु दृष्टिकोण है आचार्यप्रवर का। आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को प्रथम शतक का काम पूरा हुआ। तयांलीस दिन का समय काफी लम्बा समय होता है, पर आचार्यश्री दिन-भर कई कामों में संलग्न रहते थे। समय के अनुपात को देखते हए काम अच्छा हुआ। एक शतक का व्यवस्थित काम देखकर आचार्यवर ने दूसरे शतक को भी उसी रूप में सम्पादित करने का निर्णय ले लिया। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को दूसरे शतक का काम प्रारम्भ किया और भाद्र शुक्ला तृतीया को पूरा हो गया। इस बार बीच-बीच में कुछ अवरोध भी आ गए। काम की गति को देखते हुए काफी समय की अपेक्षा थी, पर आचार्यवर ने संकल्प कर लिया कि संवत्सरी से पहले-पहले काम पूरा करना है। अतिरिक्त परिश्रम कर आचार्यवर ने तृतीया तक काम पूरा कर दिया। भगवती-जोड़ प्रकाशन की पहली शृखला में दो ही शतक के मुद्रण का चिन्तन था। इस दृष्टि से जोड़ का काम पूरा हो गया। 'जैन विश्व भारती' की ओर से उसके अधिग्रहण का काम भी चातुर्मास की सम्पन्नता तक पूरा हो गया। अधिगृहीत प्रति को मिलाने का काम साध्वियों से करवा लिया। ___आचार्यवर के जयपुर प्रवास काल में जयाचार्य निर्वाण समिति की एक गोष्ठी हुई। साहित्य विभाग की मांग थी कि मुद्रण की पहली शृंखला में आने वाले ग्रन्थों की पांडुलिपियां अविलम्ब मिल जानी चाहिए। भगवती-जोड़ की पांडुलिपि अन्तिम रूप से देखकर देने का प्रसंग आया तो ज्ञात हुआ कि उसमें कई स्थलों पर जोड़ का संवादी पाठ पूरा व्यवस्थित नहीं है। एक बार फिर आचार्यवर के सान्निध्य में उसका पूरा पारायण किया और मूल तथा वृत्ति का पाठ विभक्त कर उसे जोड़ का संवादी बनाया। यत्र-तत्र पाद-टिप्पण लिखने की अपेक्षा अनुभव हुई, वे आचार्यश्री और युवाचार्यश्री लिखाते रहे। प्रथम दो शतक के फर्म मुद्रित होकर आने लगे। तीन सौ सवा तीन सौ पृष्ठ की सामग्री का अनुमान लगाया गया। पुस्तक के आकार को देखते हुए पृष्ठ कुछ कम लगे। अगले दो शतकों को इसी प्रकार सम्पादित करने का चिन्तन आया और आचार्यवर ने अपनी स्वीकृति दे दी। ये शतक कुछ छोटे भी थे, और प्रेस वालों की ओर से शीघ्रता की मांग भी थी। दिन-रात में सात-सात घंटा इस काम में लगाया और ग्यारह दिनों में काम पूरा हो गया। भगवती-जोड़ के प्रथम चार शतकों के सम्पादन में आचार्यवर का पूरा समय और श्रम लगा। यदि आचार्यश्री इतना अनुग्रह नहीं करते तो भगवती-जोड़ को इस रूप में मुद्रण के योग्य बनाना संभव नहीं था। आचार्यश्री की निर्मल प्रज्ञा में सैद्धान्तिक ज्ञान की जितनी गहराई है, व्यावहारिक ज्ञान और भाषा-जान भी Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतना ही विशद है। इसके साथ भगवती-जोड़ में प्राचीन रागिनियों का भी बहुत उपयोग हुआ। केवल चार शतकों में ७१ रागिनियां हैं। उनका बोध न हो तो भी काम में कठिनाई उपस्थित होती है। आचार्यवर का रागिनी-बोध भी अपने-आप में पूर्ण है। इसलिए आपके सान्निध्य में काम करने से यह बाधा भी निरस्त हो गई। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आचार्यश्री इस काम में इतनी रुचि नहीं लेते तो इस ग्रन्थ का सम्पादन मेरे वश की बात नहीं थी। इन सब कार्यों के साथ अन्तिम रूप से प्रूफ-निरीक्षण के कार्य में भी आचार्यवर ने अपना पूरा समय लगाया। ऐसा नहीं होता तो इस ग्रन्थ में कुछ ऐसी भूलें रह जाती, जिन्हें पकड़ना भी कठिन था और उसके अभाव में सम्बन्धित सन्दर्भ का सम्यक् अर्थ-बोध भी नहीं हो पाता। भगवती-जोड़ की पहली शृंखला में चार शतकों का सम्पादन हो पाया है। प्रथम शतक में उनतीस गीत हैं, दूसरे शतक में सतरह गीत हैं, तीसरे शतक में छब्बीस गीत हैं और चौथा शतक बहुत छोटा है-उसमें केवल एक गीत है। चारों शतकों की संयुक्त संख्या तिहत्तर है। जयाचार्य के पद्य-साहित्य को सम्पादित करने के सन्दर्भ में आचार्यवर द्वारा कुछ मानक निश्चित किए गए, वे इस प्रकार हैं १. ढाल, दोहों और सोरठों की संख्या एक। २. क्रमांक पद्यों की आदि में लगाए जाएं। ३. ढाल की लय नीचे पादटिप्पण में दी जाएं। ४. वातिका के बाद चालू ढाल की लय या दोहों, सोरठों को पुनरुक्त करने की अपेक्षा नहीं है। ५. ढाल का 'ध्रुवपद' पहले लिया जाए। जहां एक ढाल में कई ध्रुवपद आ गए, वहां उनको उस पद्य की आदि में ले लिया जाए अथवा उनको कोष्ठक में रखा जा सकता है। ६. रागिनी में आने वाले हो, जी, काई, रे, लाल, प्रभुजी आदि शब्दों को प्रायः ध्रुवपद और एक पद्य में प्रतीक रूप में रखकर शेष स्थानों से हटा दिया जाए। जहां कहीं सन्देह उत्पन्न होने की स्थिति है, वहां गोयम, प्रभुजी आदि शब्दों को पूर्ण या अपूर्ण रूप में रखा जा सकता है। उपर्युक्त मानकों के अतिरिक्त भगवती-जोड़ में जो विशेष क्रम रखा गया है, उसकी सूचना के बिना पाठक असमंजस में आ सकता है । इस दृष्टि से कुछ आवश्यक सूचनाएं संकलित कर दी गई हैं १. भगवती की जोड़ के समानान्तर अंगसुत्ताणि भाग २ का पाठ उद्धृत किया गया है। २. यत्र-तत्र जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर है और अंगसुत्ताणि में पाठ पूरा किया हुआ है, वहां पाद-टिप्पण में दिए गए संक्षिप्त पाठों का उपयोग किया गया है। ३. कहीं अंगसुत्ताणि के पाद-टिप्पण में विस्तृत वाचना का पाठ लिया गया है और मूल में संक्षिप्त पाठ रखा है। ऐसे प्रसंग में, जहाँ जोड़ विस्तृत वाचना के आधार पर है, पाद-टिप्पण का पाठ उद्धृत किया गया है। ४. पाद-टिप्पण के पाठों में प्रमाण उन्हीं सूत्रों का दिया गया है, जिनके वे पाद-टिप्पण हैं। ५. सूत्र-संख्या का प्रमाण प्रायः वहां दिया गया है, जहां सूत्र पूरे होते हैं। पर कहीं-कहीं सूत्र के बीच में टीका या बड़ी समीक्षा के कारण लम्बा अन्तराल प्रतीत हुआ, वहां सूत्र के खंडित पाठ पर भी प्रमाण दिया गया है। ६. जयाचार्य की स्वतन्त्र समीक्षाओं को उद्धरण-चिह्नों में बांधकर उसके नीचे कोष्ठक में (ज.स.) लिखा गया है, जिसका अर्थ है—जयाचार्य की समीक्षा। ७. जोड़ के पारिभाषिक शब्दों और विशेष संज्ञावाचक नामों को परिशिष्ट में दिया गया है। ८. इस ग्रन्थ में कुछ सांकेतिक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जैसे Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उद्देशक ढाल वा० वार्तिका वृ०-५० वृत्ति-पत्र सम्पादन और मुद्रण के मध्य का एक काम है 'प्रूफ-निरीक्षण'। सामान्यतः हर प्रेस में प्रूफ-निरीक्षकों की व्यवस्था होती है, पर भगवती-जोड़ के प्रूफ-निरीक्षण का काम हमने अपने हाथ में रखा; क्योंकि जोड़ की भाषा राजस्थानी है और उसके सामने मूल पाठ और वृत्ति पाठ आने से प्राकृत और संस्कृत भाषाएं भी इसमें आ गई। पाद-टिप्पण हिन्दी भाषा में लिखे गए हैं। इस दृष्टि से प्रूफ-निरीक्षक को राजस्थानी, हिन्दी, प्राकृत और संस्कृत--इन चार भाषाओं का जानकार होना आवश्यक था। एक बार प्रफ देखने मात्र से पूरा संशोधन हो जाए, यह संभव नहीं था। समय कम था और काम जल्दी पूरा करना था। इस दृष्टि से साध्वी जिनप्रभाजी और साध्वी कल्पलताजी ने भी कठिन परिश्रम किया। साध्वी जिनप्रभाजी ने तो अपने अन्य काम गौण कर सारा समय इसी काम में लगा दिया। इनके अतिरिक्त साध्वी सूरजकुमारीजी (थैलासर), सोमलताजी, विमलप्रज्ञाजी, चित्रलेखाजी, शारदाश्रीजी आदि साध्वियों के श्रम-सीकरों का भी इसमें यथासंभव उपयोग हुआ है । इनके इस थम-दान को प्रज्ञापुरुष जयाचार्य के प्रति इनकी विनम्र श्रद्धाञ्जलि के रूप में स्वीकृत करना ही अधिक उपयुक्त रहेगा। प्रज्ञापुरुष जयाचार्य ने अपनी साहित्यिक चेतना से तेरापंथ धर्मसंघ में साहित्य की नई विधाओं का प्रयोग कर अपनी भावी पीढ़ी का पथ प्रशस्त कर दिया। उनकी निर्वाण-शताब्दी के पुण्य अवसर पर उनको एक महान् साहित्यकार के रूप में उजागर करने वाले उनके साहित्य से संपृक्त होने में मुझे सात्विक गौरव का अनुभव हो रहा है। उनकी साहित्यिक चेतना को अन्तहीन नमन। परम श्रद्धास्पद आचार्यवर के सान्निध्य में बैठकर उनके अमोघ मार्गदर्शन में मैं अपनी साहित्यिक यात्रा निर्बाध रूप से करती रहूं, यही मुझे अभीष्ट है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भगवान महावीर की वाणी का संकलन अंग सूत्रों में मिलता है। वे बारह हैं। इस समय बारहवां अंग-दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है। शेष ग्यारह अंगों में पांचवां अंग सबसे बड़ा अंग है। उसका नाम हैव्याख्याप्रज्ञप्ति और भगवती। वर्तमान में भगवती नाम अधिक प्रचलित है। प्रस्तुत आगम में ३६ हजार प्रश्नों के व्याकरण उपलब्ध थे। वर्तमान आकार में वे सब उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी सैकड़ो-सैकड़ों प्रश्नों के व्याकरण आज भी उपलब्ध हैं। तत्त्व-विद्या और दार्शनिक दृष्टि से यह अनुपम ग्रन्थ है। जीव-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान, सृष्टि-विद्या, रहस्यवाद, अध्यात्म-विद्या आदि अनेक दृष्टिकोणों से इसका गंभीर अध्ययन, अन्वेषण और अनुसंधान अपेक्षित है। विभाग और अवान्तर विभाग समवायांग और नंदीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम के सौ से अधिक अध्ययन, दस हजार उद्देशक और दस हजार समुद्देशक हैं। इसका वर्तमान आकार उक्त विवरण से भिन्न है। वर्तमान में इसके एक सौ अड़तीस शत या शतक और उन्नीस सौ पच्चीस उद्देशक मिलते हैं। प्रथम बत्तीस शतक स्वतंत्र हैं। तेतीस से उनचालीस तक के सात शतक बारह-बारह शतकों के समवाय हैं। चालीसवां शतक इक्कीस शतकों का समवाय है। इकचालीसवां शतक स्वतंत्र है। कुल मिलाकर एक सौ अड़तीस शतक होते हैं। उनमें इकचालीस मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं । शतकों में उद्देशक तथा अक्षर परिणाम इस प्रकार हैं शतक उद्देशक शतक उद्देशक अक्षर परिमाण ३३८४१ २३८१८ अक्षर परिणाम ३२८०० २१६१४ ० ० ० ३६७०२ ० Moro-or~ ० ० ३६८१२ १५६३६ ८४१२ २२४४३ ८०२७ १६८७१ ० २५६६१ १८६५२ २४६३५ ४८५३४ ४५८५६ ६६०७ ३२३३८ ० ० m . ० W १. समवाओ, सूत्र ६३ : नंदी सू० ८५ Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 X 2 v w ♡ a m २० २३ २४ २५ २६ २७ २८ ३० ३१ ३२ ५० २४ १२ ११ ११ ११ ११ ११ २८ २८ ७१५ ३६६२६ ४५१०३ ४४५५ भगवतीवृत्ति पत्र १ श्लोक ३ : १६० ६६४ १०२७ ४७६४ २३४४ ३६३ २. (क) भगवतीवृत्ति पत्र १२ ३३ (१२) ३४ (१२) २५ (१२) ३६ (१२) २७ (१२) ३८ (१२) ३९ (१२) ४० (२१) ४१ कुल १३८ एतट्टी का चूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमङ्ग विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥ १२४ १२४ १३२ १३२ १३२ १३२ १३२ टीकाकार व्याख्यातम् । ३. भगवती जोड श० १० १० ११ २३१ व्याख्या ग्रन्थ भगवती के दो प्राचीन व्याख्या ग्रन्थ मिलते हैं- चूर्णि और वृत्ति । चूर्णि अभी मुद्रित नहीं है। वह हस्तलिखित मिलती है, उसकी पत्र संख्या ८० है । उसका ग्रन्थमान ३५६० श्लोक परिमाण है। उसके प्रारंभ में मंगलाचरण नहीं है और अन्त में प्रशस्ति नहीं है। रचनाकार और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है । चूर्णि की भाषा प्राकृत प्रधान है। इसे प्राकृत प्रधान चूर्णियों नंदिचूर्ण, अनुयोगद्वारचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, आचारांगचूर्णि सूत्रकृतांगचूर्णि और जीतकल्पचूर्णि की कोटि में रखा जाता है। वृत्ति- इसके रचनाकार हैं अभयदेव सूरि । उनका अस्तित्व काल वि० सं० (१०७५ से ११५० ) माना जाता है। इसका रचना काल वि० सं० ११२८ है । रचना स्थल है अणहिलपाटन इसका ग्रन्थमान अठारह हजार छह सौ सोलह (१६६१६) श्लोक परिमाण है। इसकी भाषा संस्कृत है। वृत्तिकार ने अपने से पूर्ववर्त्ती टीका और चूर्णि का उल्लेख किया है।' उनके सामने चूणि और टीका दोनों रहे हैं। उन्होंने टीकाकार के लिए मूल टीकाकृत और टीकाकार शब्द का प्रयोग किया है। १६६ १६२३ आधुनिक व्याख्याएं प्रस्तुत आगम की एक गद्यात्मक व्याख्या मिलती है। उसका नाम है टब्बा (स्तबक) वह वृत्ति के आधार पर किया हुआ संक्षिप्त विवरण है। जयाचार्य ने धर्मसी कृत यंत्र का बार-बार उल्लेख किया है। भगवती सूत्र की सबसे बड़ी है-भगवती की जोड़। इसके की जाचार्य तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य । इसकी भाषा है राजस्थानी। यह पद्यात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे जोड़ कहा जाता है। भगवती की जोड़— इसका अर्थ है भगवती की पद्यात्मक व्याख्या । आचार्यवर ने पंच परमेष्ठी तथा अपने आचार्यों को नमस्कार कर प्रस्तुत जोड़ की रचना का संकल्प किया है ऊं पंच परमेष्ठि नमि, भिक्षु भारीमाल । नृपति-दंदु प्रणमी र भगवद जोड़ विज्ञान' ॥१॥ ३०८६ ८६६४ ४१८१ ७३१ ११५ ८७ १३६ २७३४ ३५१६ ६१८,२२४ मूलटीकाकृता तु 'उच्छूडसरीरसंखित्तविउलतेय लेस्स' त्ति कर्म्मधारयं कृत्वा व्याख्यातमिति । (ख) भगवतीवृत्ति पत्र ६८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ इस रचना में उन्होंने अपने आगम-ज्ञान का पूरा उपयोग किया है। पांच सौ एक गीतिकाओं में निबद्ध इस जोड़ का आकार ही विशाल नहीं है, इसका प्रकार भी विशाल है । जयाचार्य ने इसकी रचना में अभयदेवसूरि की वृत्ति, टब्बा, धर्मसिंह मुनि के यंत्र को आधार बनाया था। सबसे अधिक आधार उन्होंने आगम सूत्रों का लिया। प्रस्तुत रचना का अध्ययन तीन दृष्टिकोणों से करना हमें इष्ट है— (१) सहायक ग्रन्थ और भगवती की जोड़ । (२) आगम सूत्र और भगवती की जोड़ । (३) जयाचार्य का स्वतंत्र दृष्टिकोण और भगवती की जोड़। प्रस्तुत रचना को समझने से पूर्व रचनाकार को समझना बहुत जरूरी है । जयाचार्य विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के एक महान् जैन आचार्य हैं। वे तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य और आचार्य भिक्षु के महान् भाष्यकार हैं। वे बहुश्रुत हैं। संस्कृत और प्राकृत के अनेक ग्रन्थों के अध्येता हैं । अध्ययन से भी अधिक उनकी प्रतिभा है। वे अपनी प्रतिभा से नए अर्थ खोजते हैं और अनेक विरोधावभासों का परिहार करते हैं। उनका प्रमुख विषय है-आगम मन्थन और आगम दोहन । आगमों के विषय में मन्थन और दोहन करने वाले विरल आचार्यों में विरलतर हैं जयाचार्य । प्रस्तुत रचना उन जयाचार्य की लेखनी से प्रसूत है। इस कार्य में उन्हें लेखनी और सरस्वती दोनों का उत्तम प्रसाद मिला है। द्रव्यलिपि बन्दनीय नहीं है भगवती सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार की श्रृंखला में 'नमो बंभीए लिबीए' पाठ मिलता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'ब्राह्मी लिपि को नमस्कार' किया है। जयाचार्य ने इसका अर्थ 'ऋषभ को नमस्कार' किया है। भगवान ऋषभ ब्राह्मी लिपि के प्रवर्तक थे एवंभूत नय की दृष्टि से लिपिकर्ता को भी लिपि कहा जा सकता है। इसके समर्थन में आचार्यवर ने प्रस्थक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। प्रस्थक के अर्थ को जानने वाला व्यक्ति प्रस्थक कहलाता है, वैसे ही ब्राह्मी लिपि को जानने वाले व्यक्ति को ब्राह्मी लिपि कहा जा सकता है । जिसके द्वारा प्रस्थक निष्पन्न होता है उसे प्रस्थक कहा जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा ब्राह्मी लिपि प्रवर्तित है उसे ब्राह्मी लिपि कहा जा सकता है। ब्राह्मी लिपि का अभिधात्मक अर्थ ब्राह्मी लिपि हो सकता है किन्तु सर्वत्र केवल अभिधा से ही काम नहीं चलता। किसी भी वाक्य का अर्थ करते समय पौर्वापर्य परंपरा और प्रसंग का ध्यान रखना होता है। लिपि और भाषा ये ज्ञान के साधन हैं, इसलिए इनके दो रूप बन जाते हैं- द्रव्यलिपि और भावलिपि । द्रव्यभाषा और भावभाषा । जयाचार्य की स्थापना है कि द्रव्यलिपि अचेतन है, इसलिए वह नमस्कार के योग्य नहीं है। इस स्थापना का उन्होंने सयुक्तिक समर्थन किया है १. नमो वंभीए लिवीए लिपि कर्त्ता नाभेय । चरण सहित धुर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥ २. पाथा ना कर्ता भणी, पाथी कहिये एवंभूत नय नै मते अनुयोगद्वार ३. अथवा लिपि ते भावलिपि जे मुनि नैं नमस्कार छँ तेहने एहवं दीसे ४. तीर्थ नाम जिम सूत्र नो, ते संघ ने आधार । तिण सूं संघ ने तीर्थ का तिम भावे लिपि सार ॥ ताहि । मांहि ॥ आधार । सार ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ २. वृत्तिकारयतिथि कही ते लिपि गुणशून्य । नमस्कार तेहने करी ते तो बात जबून्य ॥ ६. द्रव्य निक्षेपो गुण रहित, वंदन योग्य न ताम । समवायंगे देख लो, द्रव्य भाव जिन नाम ॥ ७. भरत एरवत क्षेत्र नां, अनागत जिनराय । चउबीसी नां नाम पिण, वंदे पाठ न ताय ॥ ८. बलि एरवत क्षेत्र नी, चउबीसी वर्तमान । ठांमठांम बंदे कह्यो, ए गुण-सहित ६. वर्तमान चउवीसी ए, भरत क्षेत्र नीं ठांम-ठांम वंदे को, जोवो लोगस्स १०. ते माटे द्रव्यलिपि भणी, द्रव्य सूत्र नैं नमस्कार किम कीजिये, हिये विमासी जोय ॥ सोय । ११. वृत्तिकार द्रव्यलिपि भणी, थाप्यो छँ नमस्कार । सूत्र थकी मिलतो नथी, ते अर्थ अवधार ॥ इसी प्रकार जयाचार्य ने 'नमो सुयस्स' इस पाठ पर भी अपनी समीक्षा प्रस्तुत की है। श्रुत के भी दो प्रकार होते हैं - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । शब्द की आकृति और उसका उच्चारण ये दोनों द्रव्यश्रुत हैं । शब्द से होने वाला अर्थ-बोध भावश्रुत है । पारिभाषिक शब्दावली में शब्द की आकृति या लिपि को संज्ञाक्षर, उसके उच्चारण को व्यंजनाक्षर और उससे होने वाले अर्थ-बोध को लब्ध्यक्षर कहा जाता है। लिपि और उच्चारण ये दोनों ज्ञान के निमित्त होते हैं। जयाचार्य निमित्तों को नमस्कार करने के पक्ष में नहीं हैं। उनकी दृष्टि में भावलिपि और भावश्रुत ही नमस्करणीय है। उन्होंने लिपि और श्रुत का भेद अपनी दृष्टि से किया है । लिपि शब्द देशश्रुत वाले संयमी का सूचक है और श्रुत शब्द सर्वश्रुत वाले संयमी का सूचक है' सुजान ॥ ताहि । मांहि ॥ नमोश्रुत ते भावश्रुत, चरण युक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ॥ इस विषय की वार्तिका में उन्होंने विस्तार से चर्चा की है ।" मंगल-सूत्र प्रस्तुत आगम के प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र, ब्राह्मीलिपि को नमस्कार और श्रुत को नमस्कार- - ये तीन मंगल सूत्र मिलते हैं । आगम रचनाकाल में ग्रंथ के प्रारंभ में मंगल - विन्यास करने की पद्धति नहीं थी । यह पद्धति आगम रचना के उत्तर काल में प्रारंभ हुई। अभयदेवसूरि ने स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया हैअधिकृत शास्त्र स्वयं मंगल है फिर मंगल- विन्यास का क्या प्रजोजन ? इससे अनवस्था दोष प्राप्त होगा। इस प्रश्न के उत्तर में टीकाकार ने लिखा है - यह तर्क सही है, फिर भी शिष्य मति को मंगलमय बनाने तथा शिष्टसमय परिपालन के लिए शास्त्र के प्रारंभ में मंगल - विन्यास किया गया है। टीकाकार ने यदि ऐतिहासिक १. भगवती जोड़ श० १ ० १ ० ११६६-१७९ २. नंदी सूत्र, ५६-५ε ३. भगवती जोड़ श० १ ४. भगवती जोड़ श० १ ५. भगवतीवृत्ति पत्र ५ ननु अधिकृत शास्त्रस्यैव मंगलत्वात् कि मंगलेन ? अनवस्थादिदोष प्राप्तेः सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थं मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति । ० १ डा० ११२० ० १ डा० १।१२० से आगे की वार्तिका । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि से विचार किया होता तो स्वयं द्वारा प्रस्तुत प्रश्न का समाधान दूसरा ही होता। तीनों मंगलसूत्र रचनाकालिक नहीं हैं, वे उत्तरकाल में जुड़े हैं, इसीलिए चूणि और मूल टीका में इनकी व्याख्या नहीं मिलती। अभयदेवसूरि ने स्वयं लिखा है-वृत्तिकार ने पूर्व व्याख्यात नमस्कार आदि ग्रन्थ की व्याख्या नहीं की है, उनके सामने इसका कोई कारण रहा है।' अभयदेवसूरि ने उस कारण को स्पष्ट नहीं किया है, किन्तु वह कारण उनके इस वाक्य में स्पष्ट है कि अधिकृत-शास्त्र स्वयं मंगल है, फिर उसके लिए नमस्कार मंगल का कोई प्रयोजन नहीं है। जयाचार्य ने अभयदेवसूरि के मत का अनुवाद मात्र किया है, उसकी कोई समीक्षा नहीं की है।' नमस्कारादिक ताहि, रचना पूर्व कही तिका। मूल वृत्ति रै मांहि, न कही किण कारण थकी।। ब्राह्मीलिपि नमस्कार, मूल वृत्ति में ना कीयो। तास न्याय जे सार, बुद्धिवंत हिये विचारजो।। प्रस्तुत आगम पांचवां अंग है। उपलब्ध ग्यारह अंगों में प्रस्तुत आगम को छोड़कर किसी भी अंग सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार मंगल उपलब्ध नहीं है। सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एव मक्खायं (आयारो १११११) बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा, बंधणं परिजाणिया । (सूयगडो १।१।१) मुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खायं । (ठाणं १११) सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं । (समवाओ १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । (नायाधम्मकहाओ १६१११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । (उवासगदसाओ ११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी । पुण्णभद्दे चेइए (अंतगडदसाओ १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। (अणुत्तरोबवाइयदसाओ १४१) जंबू ! इणमो अण्हय-संवर-विणिच्छयं पवयणस्स निस्संदं । (पण्हावागरणाई १११) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था । (विवागसुयं १।१।१) आचारांग आदि अंगों के प्रारंभ सूत्रों का अध्ययन करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवल प्रस्तुत अंग के प्रारंभ में ही नमस्कार मंगल का विन्यास क्यों? इसका उत्तर पाना कठिन नहीं है। रचनाकाल में प्रस्तुत आगम का प्रारंभ भी "तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था" इस वाक्य से होता था किन्तु लिपिकारों द्वारा लिखित नमस्कार मंगल मूलसूत्र के साथ जुड़ गए और उन्हें मौलिक अंग मान लिया गया। अनुवाद प्रस्तुत ग्रन्थ अनुवाद ग्रन्थ है । जयाचार्य ने मूल पाठ का अनुवाद किया है, साथ-साथ अभयदेवमूरि कृत वृत्ति के मुख्य-मुख्य अंशों का भी अनुवाद किया है। इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ भगवती सूत्र तथा उसकी टीका इन दोनों का अनुवाद ग्रन्थ है। इसमें वृत्ति की व्याख्या बहुत सरलता के साथ प्रस्तुत हुई है। उदाहरण के लिए कुछेक स्थल द्रष्टव्य हैं--- १. मूल पाठ-संक्खित्तविउलतेयलेसे वृत्ति---संक्षिप्ता-शरीरान्तीनत्वेन ह्रस्वतां गता विपुलाविस्तीर्णा अनेक योजनप्रमाणक्षेत्राश्रित १. भगवतीवृत्ति, पत्र ७ अयं र प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोपि कारणादिति । --२. भगवती-जोड़ श० १ उ०१ढा० १।१६१,१६२ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धि विशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा। अनुवाद बहु योजन क्षेत्र रै मांहि, वस्तु दहन समर्थ कहिवाइ। एहवी विपुल तेजोलेश्या ज्वाला, विशिष्ट तप करि ऊपनी विशाला।। ते संक्षेपी तनु अंतर कीनी, आ तो ह्रस्व पण करि लीनी। २. मूल पाठ-णिच्चं कुसुमिय-माइय-लवइय-थवइय । अनुवाद फूल्या थका ते रहै सदा, मयुऱ्या ते पुष्प उपन्न । अंकुरवत् पल्लव ऊपना, थवइ पुष्प डोडा जन्न ।। गुल्म लता समूह ऊपनों, गुच्छा ते पत्र समूह । वृक्षा नी सम थेणि तिहां, बे-बे तरु एकठा रूह ॥ ३. मूलपाठ-विणमिय, पणमिय वृत्ति-'विणमिय' त्ति विशेषेण पुष्पफलभरेण नमितमितिकृत्वा विनमितं 'पणमिय' त्ति तेनैव नमयितु मारब्धत्वात् प्रणमितम् ।' अनुवाद विशेष फल-फूल करी नम्या, आरंभ्या नमवा तेह । भारे करी गाढा नम्या, सोभायमान है जेह ॥" मूल पाठ-णच्चासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे अनुवाद नहीं अति ही टूकडा, बली नहीं अति दूर। प्रभु वच सुणवा नीं, इच्छा धरता सनूर ॥ जयाचार्य ने पद्यानुवाद के साथ-साथ टीका के कुछ विशेष अंशों का गद्यानुवाद भी किया है। वह 'वात्तिका' इस शीर्षक के अन्तर्गत उपलब्ध है। समीक्षणीय विषयों के लिए भी उन्होंने गद्यमय वार्तिकाएं लिखी हैं। उदाहरण के लिए 'चलमाणे चलिए' इस सूत्र की वात्तिका द्रष्टव्य है। प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद भी उल्लेखनीय है। उसमें विषय बहुत ही सरल और सरस रूप में चचित हुआ है. ते पहिले समये, चलवा लागो जेह । तसु चल्युं कहीजै, नय वचने करि एह ।। पट उत्पत्ति काले, प्रथम तंतु प्रवेश । पट उपनो कहीजै, ए छै पट नों देश ॥ १. भगवतीवृत्ति पत्र १२ । २. भगवती-जोड़ श० १उ०१ढा०२६२-६३ ३. , श०१ उ० १ ढा० ६।५३,५४ ४. भगवतीवृत्ति पत्र ३७ ५. भगवती-जोड़ श० १ उ० १ ढाल ६।५५ ६. भगवती-जोड़ श० १० १ढा० ४५ ७. श०१ उ० १ ढाल ३१७० के पश्चात् Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम पहिले समर्थ, पायुं कर्म तूं अंग । प्रसंग ॥ इक तसुं चल्यु न कहै तो, सर्व अचलन अंत समय में, चल्यूं कहीजै सोय । तो अपर समय ते, निष्फल तसुं मत जोय ॥ जे पहिले समये, चलवा लागो तेह | जे चल्युं कहीजै, उत्तर समय न चलेह ॥ धुर समय चल्युं कह्यां, उदय आवलिका मांय । सर्वं समये चल्युं क्षय, ए धुर प्रश्न कहाय ॥ अनुवाद का अर्थ केवल शब्दान्तर या भाषान्तर ही नहीं होता। उसका अर्थ है मूल में प्रतिपादित विषय का सरस, सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुतीकरण । जयाचार्य ने उक्त अर्थ को सार्थकता दी है। उनके अनुवाद में काव्यात्मकता, लयबद्धता, अर्थाभिव्यक्ति की स्पष्टता ये सारी विशेषताएं उपलब्ध होती हैं। वृत्तिकार ने भगवती की तुलना जयकुंजर से की है। अनुवादकार ने टीका के उस अंश को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। निदर्शन के लिए कुछ गाथाएं पढ़ें--- जयकुंजर गज जिम जयवंतो समय भगवती सखर सोहंतो । पंचम अंग भगवती पवरं द्वितीय नाम आख्यो तसु अवरं । सरस विआपण्णत्ति सारं जयकुंजर गज जिम जयकारं ॥ जय० ॥ ललित मनोहर जे पद केरी, पद्धति रचना पंक्ति सुहेरी । पंडित जन मन रंजन प्यारो, प्राज्ञ रिझावणहार प्रचारो ॥ जय० ॥ अव्यय फुन उपसर्ग निपातं, ए त्रिहुंनोज स्वरूप प्रादिक उपसर्ग चादि निपातं प्रादिक चादिक अव्यय ख्यातं ॥ जय० ॥ सुजातं । ललित पदावलि और वाक्य - विन्यास की दृष्टि से यह पूरा प्रकरण (२४वीं गाथा तक) पठनीय है। जयाचार्य ने राजस्थानी भाषा को तत्त्व-दर्शन की एक अमूल्य रत्नराशि प्रदान की है। उन्होंने केवल भगवती सूत्र का ही अनुवाद नहीं किया है, वृत्तिकार द्वारा विहित व्याख्यान अंशों का भी अनुवाद किया है और अपनी ओर से कुछ नए समाधान भी उसमें जोड़े हैं। उदाहरण के लिए वायुकाय की श्वासोच्छ्वास का प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता है। दूसरे शतक के आठवें सूत्र का प्रतिपाद्य है- वायुकाय वायुकाय को श्वासउच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है। सूत्रपाठ और अनुवाद एक साथ पठनीय हैं मूलपाठ वाउयाए णं भंते वाउयाए चेव आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ! हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । १. भगवती-जोड़ श० १ ० १ डा० ३।६५-७० २. भगवती-जोड़ श० १ ० १ ढाल १३४ ६ ३. भगवती शतक ४. भगवती जोड़ शतक २ ० १ ढाल ३०|१८ २५ अनुवाद हे भदन्त ! जे वायुकाय ? छै, वायुकाय नैं जोयो रे । उस्सास अन निःसास लेवे छ, हंता जिन वच होयो रे ॥ * Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वृत्तिपाठ अनुवाद कि वायुकायिकानामप्युछ्वासादिना वायुनैव वृत्तिकार कहै एम रे, पृथ्वी पृथ्वी रूप छै। भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथिव्यादीना- उश्वासादिक तेम रे, वायु रूप छै तेहना ।। मिव तद्विलक्षणेन ।' इम अप तेउ काय रे, पृथ्वी नी परै जाणवा। पिण वायुकाय अधिकाय रे, तेहनी बात विचित्र छ।' फुल्लुप्पलकमलकोमुलुम्मिलियम्मि दल उत्पल पंकज तणां, कमल कहितां मगनेन ए बिहुं मृदु मिलिया तिकै, थया विकसित रवि उदयेन।' अहपंडुरे पभाए, रत्तासोयप्पकासे रात्रि गयां प्रभात समय, रवि ऊगै आकाश । किसुय सुयमुहगंजद्ध रागसरिसे रक्त अशोक प्रकाश करिक, फूल केसू नों जास ।। कमलागरसंडबोहए। शुक मुख अर्द्ध गुंजा जिसो, लाल सूर्य सुप्रमोद । कमलागर द्रहादिक नै विषै, करै नलिनिषंड नो बोध ।। उठ्ठियम्मिसूरे सहस्सरस्सिम्मि सहस्र-किरण दिनकर इसो, तेज करी नै जान। दिणयरे तेयसा जलते। जाज्वलमान सुदीपतो, उदय छतै असमान ।' जयाचार्य का आगमिक अध्ययन बहुत विस्तृत था। वे समीक्षणीय स्थलों में आगम को उद्धृत करते हैं वहां पाठक आश्चर्य चकित रह जाता है। समीक्षात्मक दृष्टि जयाचार्य ने अपनी व्याख्या में मूल पाठ के असष्ट अर्थ को स्पष्ट किया है। अनेक स्थलों पर वृत्तिकार के मत को उद्धृत किया है। जहां वृत्तिकार का मत समीक्षणीय लगा वहां उसकी समीक्षा की है। प्रथम शतक के एक सूत्र में हिंसा और अहिंसा का विचार उपलब्ध है। असंयमी जीव अविरति की अपेक्षा आत्महिंसक और पर-हिंसक दोनों होते हैं अहिंसक नहीं होते। संयमी मुनि शत्रु योग की अपेक्षा न आत्म-हिंसक होते हैं और न पर-हिंसक, किन्तु अहिंसक होते हैं। वृत्तिकार ने एक विशेष सूचना दी है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि जीव प्रत्यक्षतः आत्म-हिंसक और परहिंसक नहीं होते, फिर भी अविरति की दृष्टि से वे हिंसक हैं । अविरति से निवृत्त मुनि के द्वारा सावधानी बरतते हुए भी अनिवार्य हिंसा हो जाती है, फिर भी वे हिंसक नहीं होते। जयाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत को अनूदित किया है। इसमें उन्हें कोई समीक्षणीय अंश नहीं लगा, इसलिए इसकी कोई समीक्षा नहीं की वृत्तिकार इहां इम कह्यो, सूक्ष्म एकेंद्री ताय । त्याग नहीं हिंसा तणा आत्मारंभादि थाय । मुनि रै त्याग हिंसा तणा, यत्नवंत श्रुत बुद्ध । जीव तणी है विराधना, निर्जर फल चित सुद्ध ।' १. भगवती वत्ति-पत्र ११० २. भगवती-जोड़ शतक २ उ०१ ढाल० ३०१९, २० ३. भगवती-जोड़ श०२ उ०१ढा०३८।४५ ४. भगवती-जोड़ श० २ उ०१ढा० ३८।४६, ४७ ५. भगवती-जोड़ श०२०१ढा० ३८१४८ ६. भगवती १।३४ ७. भगवती-वृत्ति, पत्र ३२ ८. भगवती-जोड़ श०१उ०१ढा० ॥१२, १३ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ संयमासंयमी जीव तीन प्रकार के होते हैं-असंयमी, संयमासंयमी और संयमी । प्रस्तुत सूत्र में संयमासंयमी के विषय में कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है । वृत्तिकार ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है। जयाचार्य ने इस प्रश्न को उपस्थित कर उसका समाधान किया है। उनके अनुसार संयमासंयमी पांचवें गुणस्थान का अधिकारी होता है। वह छट्ठे और सातवें गुणस्थान के अधिकारी संयमी की श्रेणी में नहीं जा सकता। उसके पूर्व विरति नहीं है, अतः अविरति की दृष्टि से वह असंयमी की श्रेणी में जा सकता है— सार || तिण अर्थ गौतम ! इम आख्या, आत्म पर उभयारंभा के भाख्या । के इ अणारंभा सुखकार, हि न्याय कहे जय संसारी ना किया दोय भेद, संजती असंजती सुवेद । संजता संजती कियो नांह्यो, हिवै श्रावक किण मांहे आयो ॥ संजती ना बे भेद सुतत्थ, प्रमत्त संजती नैं अप्रमत्त । प्रमत्त संजती छठो गुणठाणो, अप्रमत्त सातमा थी जाणो || यां में तो श्रावक नहीं आवै, पंचमे गुण श्रावक पावै । अविरत आश्री असंजती मांय इण रो जाणें समदृष्टि न्याय || सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया जगतार ॥ तीजो भेद कियो नाहि, ति अविरत आधी असंजती मांहि ॥ या सं मुनि में छहों लेश्याओं का अस्तित्व वृत्तिकार ने मुनि में कृष्ण, नील और कापोत- इन तीन अप्रशस्त भाव - लेश्याओं का निषेध किया है। जाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत की आलोचना की है और मुनि में अप्रास्त भाव-लेस्याओं का अस्तित्व सिद्ध किया है। उसमें भगवती के अतिरिक्त प्रज्ञापना, प्रज्ञापना वृत्ति, औपपातिक, दशवैकालिक आदि अनेक प्रत्थों का उपयोग किया है। एक सी सतरह (२०२४१४०) में की गई विस्तृत समीक्षा सूक्ष्म दृष्टि से मननीय है । श्रमण और माहण भगवती में श्रमण और माहण का एक साथ अनेक बार प्रयोग मिलता है। गर्भगत जीव के प्रकरण में तथारूप श्रमण और माहण का प्रयोग मिलता है। वृत्तिकार ने माहण का अर्थ स्थूल हिंसा आदि का त्याग करने वाला किया है।' जयाचार्य ने इस अर्थ को असंगत बतलाया है। इस प्रसंग में अनेक सूत्रों की चूर्णियों और टीकाओं में मिलने वाले आगम विरोधी प्रसंगों का उल्लेख किया है। श्रमण के साथ होने वाला माहण शब्द का प्रयोग मुनि के अर्थ में ही होता है। इस स्थापना की पुष्टि में जयाचार्य ने अनेक आगमों के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। इस प्रसंग में उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला है कि वृषि और वृत्ति आदि की आगम-विरोधी व्याख्या को प्रमाण नहीं माना जा सकता १. भगवती जोड़ श० १३० १ ढा० ५।१४-१८ २. भगवती - वृत्ति पत्र ३३, कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यच्चोच्यते "पुव्वपडिवण्णओ पुण अन्नयरीए उलेसाए" त्ति तद्द्द्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यम् । ३. भगवती वृत्ति पत्र ८६,६० 'माहणस्स' त्तिमा हुन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद्यः स माहन अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्मणो देश विरतः तस्य वा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति विष सूतर थकी, अणमिलती जे होय। किम मानी तेहन, हियै विमासी जोय ॥' इस लम्बी समीक्षा में जयाचार्य ने अनेक आगम से असंगत प्रकरणों का संकलन किया है। उदाहरण स्वरूप १. सजीव नमक खाना तदेवं परैः समनुज्ञातं समनुसृष्टं सत्प्रासुकं करणवशादप्रासुकं वा भुञ्जीत पिबेद् वा। (आयारो टीका, पत्र ३२४) २. कारण में आधाकर्मी आहार लेना प्राणिभिः रसजादिभिः ‘पनकैः' उल्लीजीवैः संसक्तं 'बीजैः' गोधूमादिभिः 'हरितैः' दूर्वाङ्कुरादिभिः 'उन्मिथ' शबलीभूतं तथा शीतोदकेन वा 'अवसिक्तम्' आद्रीकृतं 'रजसा वा' सचित्तेन 'परिघसिय' ति परिगुण्डितं कियद् वा वक्ष्यति ? 'तथाप्रकारम्' एवंजातीयमशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं 'परहस्ते' दातृहस्ते परपात्रे वा स्थितम् 'अप्रासुक' सचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादि दोषदुष्टम् ‘इति' एवं मन्यमानः 'स' भावभिक्षुः सत्यपि लाभेन प्रतिगृह णीयादित्युत्सर्गतः अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृहणीयात् । (आचारांग टीका, पत्र २६२) ३. आम चूसना बितियपदमणप्पज्झे, भुंजे अविकोविए व अप्पज्झे जाणते वा बि पुणो, गिलाण अद्धाण ओमे वा। (निशीथ भाष्य ४६६५) चूणि-खित्तादिगो अणप्पज्झो वा भुंजति, सेहो अविकोवियत्तणओ अजाणतो, रोगोवसमणि मित्तं वेज्जुवदेसितो गिलाणो वा भुंजे, अद्धाणोमेसु वा असंथरंता भुंजता बिसुद्धा । ४. लोह आदि धातुओं को धमना धमंत-फूमंतस्स संजम-छक्काय विराहणा । राउले वा मुइज्जइ तत्थ बंधणातिआ य दोसा । सुवणं वा कारविज्जति, लोहादि वा कुटुंतस्स आयविराहणा वा, तेहिं वा घेप्पेज्ज (२२९२) जम्हा एते दोषा तम्हा णो करेति, णो धरेति, णो पिणद्धति। कारणेकारे-बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे। अभिओग असिव, दुब्भिक्खमादिसू जा जहिं जतणा । (२२६४) रायाभियोगेण मेहुणठे वा करेज्ज। बलामोडीए वा काराविज्जति, दुभिक्खे वा असंथरंतो सयं करेज्ज (निशीथ भाष्य २२६२,२२६४) ५. रात्रि भोजन निक्कारणिगाऽणुवदेसिगा य लग्गंतऽणुदिय अत्थमिते । गच्छा विणिन्गता वि हु, लग्गे जति ते करेज्जेवं ।। (वृहत्कल्पसूत्र भाष्य ५८२६) वृत्ति-निष्कारणिका द्रवन्तो अनुपदेशाहिण्डका अविधिनिर्गता श्वानुदितेऽस्तमिते वा यदि गृह णन्ति भुञ्जते वा ततः पूर्वोक्तप्रायश्चित्ते लगन्ति । ये तु कारणिका द्रवन्त उपदेशाहिण्डका गच्छगताश्च ते कारणे १, भगवती-जोड़ श० १ उ०७ ढा० २१४५ Jain Education Intemational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनया गृह णाना भुजानाश्च शुद्धाः । चूणि-कारणिया असिवादिसु अहवा उधिकारणा लेवस्स वा बहुगुणं वा गच्छे आयरियादी आगाढे ऐतेहि कारणेहि कारणिया गेण्हता य भुंजता य शुद्धा। (वृहत्कल्प चूणि उद्देशक ५ पत्र २०८) प्रस्तुत ग्रन्थ में समीक्षा के अनेक प्रकरण हैं। यहां कुछेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। समीक्षा प्रकरणों की पूरी सूची समग्र ग्रन्थ की बृहत् प्रस्तावना में उपलब्ध हो सकेगी। अर्थ भेद और पाठान्तर जयाचार्य ने भगवती सूत्र का पद्यानुवाद किया, उस समय पाठ संशोधन की प्रणाली प्रचलित नहीं थी। हस्तलिखित आदों में अनेक प्रकार के पाठ उपलब्ध थे। चूणिकार और वृत्तिकार ने पाठान्तरों का संकलन किया था। जयाचार्य ने उन पाठान्तरों की चर्चा की है। वृत्ति संक्षिप्त है। उसमें प्रत्येक पाठ की व्याख्या उपलब्ध नहीं है, इसलिए हस्तलिखित आदर्श में जैसा पाठ मिला वैसा ही ग्रहण कर उसका अर्थ किया गया। उदाहरण के लिए भगवती-जोड़ पृ० १०२ का पाद-टिप्पण १ द्रष्टव्य है। भगवती-जोड़ में 'लंगुवन' का उल्लेख किया गया है, यह उल्लेख वत्ति में नहीं है। जयाचार्य के सामने जो भगवती का हस्तलिखित आदर्श था, उसमें यह पाठ मिला और उसका उन्होंने उल्लेख किया अलसी कुसूबा नों वन बलि, धवला सरसव नों वन्न। ___ बंधु जीव फूल दोपहरिया, बलि लंगु-वन सोभन्न ।' जयाचार्य ने पाठ-संशोधन की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने स्पष्ट संकेत किया है कि इस विवादास्पद का निर्णय अनेक प्रतियों का अवलोकन कर किया जाए--पन्नवणा १५ पदे केयक परत में पांचूं इन्द्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै असंख्यातमै भाग कही, अनै केयक परत में चक्षु इन्द्री नी विषय जघन्य अंगुल नै संख्यातमै भाग कही, ते घणी परता देख निर्णय कीजो।' राजस्थानी भाषा को जयाचार्य का अवदान राजस्थानी का शब्द-भंडार बहुत समृद्ध है। उसकी समृद्धि में जयाचार्य का बहुत बड़ा अवदान है। उन्होंने प्राकृत के सैकड़ों-सैकड़ों शब्दों का राजस्थानीकरण किया। उनमें शब्दों को मृदु बनाने की विशिष्ट कला थी। अर्धमागधी के लिए राजस्थानी में 'अधमागधी' शब्द जितना संगत है उतना 'अर्ध मागधी' नहीं है।' प्रस्तुत रचना में प्राकृत, संस्कृत दोनों के शब्द राजस्थानी में प्रयुक्त किए गए। उदाहरणस्वरूप-चरित और चरित्र, संवुड और संवृत । इस दृष्टिकोण से यह पुरा ग्रन्थ पठनीय है। प्रस्तुत रचना पद्यात्मक और तुकान्त है। गीतिका की लय और तुक का निर्वाह करने के लिए शब्दों की यथोचित कांट-छांट भी की गई है, उनका अपभ्रंशीकरण भी किया गया है। उदाहरण के लिए इकार, स्थित, अध्येन, गुणठाण, जघन, दुप्रयोग आदि शब्द उद्धृत किए जा सकते हैं । 'इकार वाक्यालंकार'-इस पद में लय की दृष्टि से इव कार के स्थान में इकार का प्रयोग किया गया है। यह प्राकृत का अनुसरण है। प्राकृत में छंदोभंग नहीं किया जा सकता, किन्तु वर्ण का लोप किया जा सकता है। दशवकालिक के प्रथम अध्ययन (१३) में 'एमेए' का प्रयोग मिलता है। उसमें छंद की दृष्टि से वकार का लोप किया गया हैएवमेए एमेए। राजस्थानी में ऐसे शब्दों का बहुत प्रचलन है। एक बार का संक्षिप्त रूप 'एकर' प्रयोग में आता है। १. भगवती-जोड़ श०१उ०२ ढा० ६।५२ २. भगवती-जोड़ श०२० ४ ढा० ३६।२४७ ३. देखें--ग्रंथ और ग्रंथकार। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पुलाक नियंठा नी स्थित जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ।' यहां स्थिति के अर्थ में स्थित्त' शब्द का प्रयोग तुक मिलाने के लिए किया गया है। इसी प्रकार निम्नलिखित शब्द प्रयुक्त हैं अध्ययन गुणस्थान जघन्य दुष्प्रयोग षष्ठितंत्र मध्यम भक्तपान १. भगवती-जोड़ श० १३० १० ५ १३२ २. भगवती-जोड़ श० २ उ० १ ढा० ३५।३८४१ ३. भगवती-जोड़ श० १३० १ ० १।१६६ ग्रन्थ और ग्रन्थकार जयाचार्य ने प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद में अनेक आगमों तथा ग्रन्थों का प्रयोग किया है। उनमें औपपातिक और प्रज्ञापनाये दो प्रमुख हैं। भगवती सूत्र में विस्तृत वर्णन के लिए बार-बार औपपातिक सूत्र देखने का निर्देश है। जयाचार्य ने निर्दिष्ट संक्षिप्त पाठ का कहीं-कहीं कुछ विस्तार भी किया है धर्मकथा भणवी इहां उबवाई रे मांय । एह तणो विस्तार छे, तेम इहां कहिवाय ॥ देवे श्री जिन देशना अमृतवाणी ऐन । आर्य अनार्य सांभली चित में पामै चेन ॥ चित मांहि चैन अत्यंत पामै शरद नव घन सारिखो । गंभीर मधुर कोंच दुंदुभि, पवर रव स्वर पारिखो || भाषा भली अधमागधी फुन वाणि योजनगामिनी । पणतीस गुण करि परवरी, भव्य सर्व नै हितकामिनी ।। भगवती वृत्ति प्रमुख आधार रही है। धर्मसीह कृत यंत्र का अनेक बार उल्लेख मिलता है।' वियट्टभोइ नमो बंभीए लिखिए, लिपि कर्ता नात्रेय । चरण सहित घर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥ १ भगवती-जोड़ श० १ ० ३ ० १२ २४ अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी । अशुभ जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न वाधी ॥२ भगवती-जोड़ श० १३० ३ ० १३०५ तर अंतरा तो अरथ कियो धर्मसी ताय । केतलुंक ते माहिल, कहिये छै वर न्याय ॥ ३ भगवती-जोड़ श० १३०३ डा० १४१२२ ए सर्व अर्थ आख्यो टीका सूं, उबट्ठाएज्जा आद ए च्यारू आलावा नौ अर्थ धर्मसी, कीधूं धर अह्लाद ॥४ भगवत-जोड़ श०१ उ० ३ ढा० १४।३४ अध्येन गुणठाण जघन दुप्रयोग साठतंत्र ए च्यारू आलावा नो अर्थ धर्मसी कीधो ते कह यूं एह । अपक्रम नो इज प्रश्न गौतम हिवं पूछे प्रेम धरेह ॥५ मज्झम मज्झिम भात पाणी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अर्थ में दौलतरामजी कृत अर्थ का भी उल्लेख मिलता है।' समीक्षा के प्रकरण में रायपसेणइय की वृत्ति, सूत्रकृतांग, आचारांग वृत्ति, निशीथ चूणि, व्यवहारवृत्ति, आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पवृत्ति, बृहत्कल्पचूणि, पार्श्वचन्द्र सूरि कृत आचारांग स्तबक, उत्तराध्ययन, स्थानांग, धर्मसीहकृत भगवती यंत्र, लू का की हुंडी-इन ग्रन्थों का अपनी स्थापना की पुष्टि के लिए प्रयोग किया है। सूत्रकृतांग की दीपिका का भी उल्लेख मिलता है।' भगवती-जोड़ के अध्ययन से जयाचार्य के सतत स्वाध्यायशील और बहुथुत व्यक्तित्व का साक्षात्कार हो जाता है। विनम्रता और श्रद्धा जयाचार्य की प्रत्येक रचना में विनम्रता और श्रद्धा का स्पष्ट दर्शन होता है। प्रस्तुत रचना में भी स्थान-स्थान पर उनका साक्षात्कार होता है। बलिकर्म पद की समीक्षा के उपसंहार में आचार्यवर ने अनाग्रह की भाषा में लिखा है स्नान विशेषण सोय, वा पूजी गृह देवता। उभय अर्थ अवलोय, सत्य सर्वज्ञ वदै तिको।' प्रस्तुत रचना में जयाचार्य ने जिस पद्धति का उपयोग किया उसका पूरा विवरण उन्होंने ग्रन्थ के उपसंहार में दिया है। इसमें दूसरों का कितना योग है और रचनाकार का स्वयं का कितना योग है, उसका स्पष्ट उल्लेख किया है। अंत में अपनी विनम्रता प्रदर्शित करते हुए लिखा है-मैंने अपनी दृष्टि से न्याय और युक्ति की योजना की है। यदि उसमें कुछ असंगत और अयुक्त लिखा गया हो तो उसमें मेरा कोई आग्रह नहीं है। ज्ञानी जो कहें वह मुझे मान्य होगा, मेरे लिए प्रमाण होगा। और भविष्य में कोई प्रबल पण्डित हो वह आगम-मन्थन के आधार पर मेरी रचना में कोई सत्य से विपरीत कथन हो, उसका संशोधन कर सकता है। मेरी ओर से उससे यह विनम्र अनुरोध है । यदि कोई वचन यथार्थ के विपरीत तथा संदिग्ध लिखा गया हो तो उसके लिए मैं प्रायश्चित्त करता हूं। प्रस्तत रचना के उपसंहार में जयाचार्य द्वारा किया गया आत्म-निवेदन सत्य-शोधक की भावना का शाश्वत प्रवचन है । वह उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत है-- १. ए जोड भगवती नी रची, सूत्र वृत्ति संपेख । ___टबो धर्मसी यंत्र फुन, अवलोकी सुविसेख ॥ भगवती-जोड़ ०१ उ० ३ ढा० १३-११७ अर्थ तेर अंतर तणो, धर्मसीह कियो जेह । कितलोइक त्यां माहिलो, आख्यो , इहां तेह ॥६ भगवती-जोड़ बा.१ उ०६ ठा० १८०२४ द्रव्य प्रदेश अनै पज्जवा वली, एविह पद नों जेह। अर्थ धर्मसीह कीधो छ तिको, सांभलजो चित देह ।।७ भगवती-जोड़ श०१ उ०६ डा० १६०१२ जीवा कम्मपइट्ठिया लाह्यो, एलो टीका में अर्थ बतायो। हिवं कहै धर्मसी वायो ।। १. भगवती-जोड ०२ उ०१ढा० १६ वियट भोइनो अर्थ वदीतो रे, दौलतरामजी कीयो इण रीतो रे । निवां भोग थी धर प्रीतो ।। २. भगवती-जोड़ श०१उ०८ ढा० २२।२८-११६ ३. भगवती-जोड़ श०२ उ०५ दा० ४११६६ ४. भगवती-जोड़ श०२ उ०५ ढा० ४३१४२ Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ४. ५. ६. ७. ε. १०. ११. १२. १३. अन्य सिद्धान्त तथा वलि, न्याय मेल्या इण ठाम । aft केइक निज बुद्धि थकी, अर्थ कह्या अभिराम ॥ अर्थ कियो फुन शब्द नों, ते पिण मिलतो जाण । विस्तारयो किहां अल्प नों, किहां संकोची वाण ॥ किहां वैराग्य वधायवा, उपदेश्यो अधिकाय । किहांइक चोज लगाय नै व्याख्यानादि कहाय ॥ किहां कह्यो तुक मेलवा, किहां अनुमाने लेह | किहां बहु वच त्यां इक वचन संग्रहवा शब्देह || faaisa भांगा बुद्धि थकी केइक यंत्र बणाय । सूत्र तणो अनुसार ले, आख्या अधिकाय ॥ गमा णाणत्ता संजया, बलि नियंठा न्हाल | सूक्ष्म चरचा में बलि, मेल्या न्याय विशाल || इत्यादिक इण जोड़ में दाख्यो मिलतो जाण । अणमिलतो जु आयो हुवै, ज्ञानी व ते प्रमाण || वलि कोइक पंडित प्रबल है, आगम देख उदार । जे विरुद्ध वचन है सूत्र थी, ते काढ़े दीजो बार ॥ विण उपयोगे विरुद्ध वचन, जे आयो हुवै अजाण । अहो त्रिलोकीनाथजी, तसु म्हारे नहीं ताण ॥ म्हैं तो म्हारी बुद्धि थकी, आख्यो छे सुद्ध जाण । श्रद्धा न्याय सिद्धांत ना दाख्या शुद्ध पिछाण ॥ पिण छद्मस्थ पणा थकी, कहिये वारंवार । प्रभु सिकार अर्थ प्रति तेहिज छँ तंतसार || अणमिलतो जु आयो हुवै, मिश्र आयो कोय । संका सहित आयो हुवै, तो मिच्छामी दुक्कडं मोय || जयाचार्य ने अपने पूर्वज आचार्यों के प्रति स्थान-स्थान पर श्रद्धा प्रदर्शित की है । गीतिकाओं के अंत में “भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद, जय-जश संपति सारो ।” यह उनका स्थायी स्वर है । सत्य की विनम्र साधना और श्रद्धा से परिपूर्ण प्रस्तुत कृति ज्ञान और भाव की आराधना की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण उपहार है । आचार्य तुलसी युवाचार्य महायज्ञ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापुरुष जयाचार्य साढ़े तीन लाख पच-परिमाण साहित्य के कीर्तिमान रचनाकार तेरापंथ के परम यशस्वी चतुर्थ आचार्य । जन्म : वि० सं० १८६० आसोज शुक्ला चतुर्दशी दीक्षा : वि० सं० १८६६ फाल्गुण कृष्णा द्वादशी अग्रणी : वि० सं० १८८१ पौष शुक्ला द्वादशी युवाचार्य पद : वि० सं० १८६४ आषाढ़ आचार्य पद : वि० सं० १९०८ माघ शुक्ला पूर्णिमा निर्वाण : वि० सं० १९३८ भाद्रपद कृष्णा द्वादशी निर्वाण-शताब्दी : वि० सं० २०३७-३८ माघ शुक्ला सप्तमी Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात ढाल : १ दूहा ॐ पंच परमेष्ठि नमि, भिक्षु भारीमाल। नृपति-इंदु प्रणमी रचूं', 'भगवइ-जोड'विशाल ।। इक सय अड़ती शतक सहु, बड़ा शतक इकताल । उगणीसौ पणवीस वर, निमल उदेशा न्हाल ।। एकतीसमा शतक ना, अष्टवीस उद्देश । मतांतरे गुणतीस कहै, जाण बहुश्रुत रेस' ।। *जय-कंजर गज जिम जयवंतो, समय भगवती सखर सोहंतो। (ध्रुपदं) ४. पंचम अंग भगवती पवर, द्वितिय नाम आख्यो तसु अवरं। सरस 'विवाहपण्ण त्ति' सारं, जय-कंजर गज जिम जयकारं ।। ५. ललित मनोहर जे पद केरी, पद्धति रचना पंक्ति सुहेरी। पंडित-जन मन-रंजन प्यारो, प्राज्ञ रिझावणहार प्रचारो।। ६. अव्यय फून उपसर्ग निपातं, ए विहं नो ज स्वरूप सुजातं । प्रादिक उपसर्ग चादि निपातं, प्राऽऽदिक चाऽऽदिक अव्यय ख्यातं ।। ४. 'विवाहपन्नत्ति' तिसज्ञितस्य पञ्चमाङ्गस्य समुन्नत जयकुञ्जरस्येव (व्याख्याप्रज्ञप्ति वृ०-प० १) ५. ललितपदपद्धतिप्रबुद्धजनमनोरञ्जकस्य (वृ०-१० १) ६. उपसर्गनिपाताव्ययस्वरूपस्य (वृ०-प०१) १. भगवती-जोड़ के रचना-काल के प्रारंभ की सूचना देने वाला एक सोरठा उपलब्ध उगणीसे उगणीस, बिद नवमी आसू गुरू । भगवइ-जोड जगीस, जय गणपति कीधी सुरू॥ २. भगवती के एक सौ अड़तीस शतक हैं। इनमें इकतीसवें शतक के अट्ठाईस उद्देशक हैं । जयाचार्य ने किसी अन्य अभिमत से इस शतक के उनतीस उद्देशक होने का निर्देश दिया है, पर यह अभिमत किसका है ? इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। भगवती की वृत्ति में भी ऐसा कोई संकेत नहीं है। संभव है जयाचार्य को प्राप्त किसी प्रति, टब्बे या चूणि में उनतीस उद्देशकों का निर्देश रहा होगा। *लय–वनमाला ए निसुणी जाम सो ही सयाणो अवसर साधे यह ढाल उक्त दोनों रागिनियों में गाई जा सकती है। Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (व्याकरण-विमर्श वा०-- प्र परा अप सम अनु अव निस् निर् दुस् दुर् अभि वि अधि इत्यादिक ए प्र आदि देई नैं उपसर्ग कहिए। च वा अह् एवं नूनं स्वस्ति अस्ति इत्यादिक एच आदि देई नैं निपात कहिए । अनैं वलि प्र प्रमुख उपसर्ग वलि च प्रमुख निपात ए बिहु नै अव्यय संज्ञा कहिए । ७. हस्ती पक्षं एम समहिये, उपसर्ग १०. भगवति सूत्रं सद् आख्यातं लक्षण गजपक्षे पण प्रसिद्ध कहिये, डा तेह निपात हुये पिण वारू, अव्यय ८. घन उदार रख ए सूते छे, हस्ती घन ते मेघ तणी पर सारं ध्वनि ६. सूत्र विभक्तिलिंग करि युक्तं, हस्ती इम पुरुष - चिह्न रचना करि सहितं एह अर्थ पंडित जन पिण रूडा १४. १५. १६. १७. तेह तेह J १८. उपद्रव रूप डा लक्षण ११. एह भगवती देव अधिष्ठित ते गणधर श्रुतदेवत गज पक्षे देवांशी कहिये, सुरवर पिण तनु सेव १२. सुवर्णमंडित समय उद्देश, वर अक्षर सोभित सलहिये ॥ सुविशेष जय-कुंजर गज पक्षे जाणी, शिरोभाग अति प्रशस्त माणी || १२. अद्भुत परिव नानाविध लेहं छत्तीस सहस्र प्रश्न श्रुतदेहं । चिहुं अनुयोग रूप चिहुं चरणं, कहियै छे हिव तास विवरणं ॥ कहिये। सुचारू ।। कहिये छै । गीतक-छंद वर प्रथम जे द्रव्यानुयोगज द्वितिय-अंगादिक वि फुन चरण न करणानुयोगज प्रथम अंगादिक अखें || गणितानुयोगज तेह चंदपणत्ति प्रमुख विषै वही । फुन तुर्य धर्मकथानुयोगज सूत्र ज्ञातादिक सही' ॥ अनुयोग ते व्याख्यान ए चिहुं, पंचमांग विषै कह्या । पद च्यार जय-कुंजर तर्णं वर सखर ही सोभे रह्या ॥ *ज्ञान चरित्र रूप वे नयनं जय-कुंजर भी चित लहँ चयनं । द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक ही वे न रूप दंत मूशन ही ॥ वर निश्चय नयन व्यवहारं वे न रूप सखर सुविचार | उम्मत उच्च कुंभस्थल दोय, जय कुंजरगंज ने अवलोय || १. मध्यकाल में आगमों के संदर्भ में अनुयोग संबंधी मान्यता के अनुसार सूत्रकृतांग को द्रव्यानुयोग में और शताधर्मकथा को धर्मानुयोग में रखा गया है, किन्तु पूर्णि काल तक यह मंतव्य प्रचलित नहीं हुआ था। दशवैकालिक के चूर्णिकार स्थविर अगस्त्य सिंह के अनुसार अनुयोगों का वर्गीकरण इस प्रकार है चरणकरणानुयोग कालिकत आदि धर्मानुयोगभाषित आदि, गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति आदि, द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद (द० चू० पृ० २ ) *लय - वनमाला एनिसुणी जा ४ भगवती-जोड़ अक्षय पक्षे हिव गंभीर शब्द पक्षे तसु सुखकारं ॥ उक्तं । ग्रहितं ॥ अवदातं । लहिये || सेवित ८. घनोदारशब्दस्य ६. लिङ्गविभक्तियुक्तस्य १०. सदाख्यातस्य सल्लक्षणस्य ११. देवताधिष्ठितस्य १२. सुवर्णमण्डितोद्देशकस्य १२. नानाविधाद्भुतप्रवरचरितस्य १७. ज्ञानचरणनयनयुगलस्य । ( वृ०० १) ( वृ० प० १) (२००१) ( वृ०-१० १) ( वृ०प०१) (२००१) इयानपास्तिकनयन्ति मुलस्य । (१०-१० १) १८. विचारयसमुन्नतकुम्भस्य (बुच्य० १) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट आख्या सार । १६. प्रारंभ वचन तणी रचना जे वर महाशुंडा दंड विराजे । निगमन वचन जिको संहरियं, तेह अतुच्छ पुच्छ उच्चरिये ॥ २०. कालादिक जे प्रकार, प्रवचन समय तणा उपचार । ज्ञान तणा आचार, एह रूप परिकर परिवार || २१. उत्सर्ग फुन अपवाद विचार, सूत्र विषै बिहु आज्ञा सम्यक् प्रकार उछलता सोय, वीर घंटा मोटी ए दोय || २२. यश नुं पडह तास पडछंद, तेणे करि पूर्या सुखकंद | एहवो जे दिशि तो चक्रवान, जय कुंजर गज नै सुविशाल | अवलोय, स्यादस्ति स्यात् नास्ति जोय | प्रसिद्धी निर्मल अंकुश करि वंश कीधो ॥ विख्यात, रिपु बल अविरति नैं मिथ्यात । समाज, प्रेर्यो महावीर महाराज ॥ २३. स्याद्वाद कहितां ए जिनवाणी रूप २४. विविध हेतु ते शस्त्र तेह दल ने अर्थ २५. सेनापति 螃 तेह जय-कुंजरगंज ने २६. प्रवर जोध मुनि पीड समान, गछनायक निज बुद्धि करि जान | कत्रो अथवा रचियो तेग प्रयोधो ॥ रहीतं, आरोहण नं अर्थ वदीतं । वांछित वस्तू साधन समरथ नाय अर्थ रूप ए अवितथ ॥ २७. अन्य बली जीवाभिगमादि, विवरण विविध रूप संवादि । दोरां ना जे जे लेश अमूल तास मिलाप करी महाझूल ॥ २५. जे वर महा उपगारी हस्ती नू नायक हितकारी। तास हुकम थी रचना चारू, सुधर्म स्वाम रची ए वारू ॥ २६. तसु अनुसार अम्है पिण एह, जोड रूप करिये रूप करिये गुणगेह पण घर अहलादं ।। | भिक्षु भारीमाल ऋषिराव प्रसाद, 'जय जय' ३०. बूहा विपणत्ति विविध अति प्रचुर अर्थ जीवादि । अभिविधि वा मर्याद करि ज्ञेय अखिल संवादि ॥ २ १. नि० भा० गा० ८ काले बाउबहाने हा अहव वंजण अत्थ तदुभए अट्ठविहो णाणमायारो || २. प्रस्तुत ग्रंथ का नाम विआहपण्णत्ति है । वृत्तिकार ने इस शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की है। व्याख्या के आधार पर इसके सात नाम हो जाते हैं १. विपत्ति (व्याख्या-प्रशप्ति ५. विवाहात २. व्याख्या- - प्रज्ञाप्ति ६. विबाध- प्रज्ञाप्ति ७. विबाध प्रज्ञप्ति ३. व्याख्या - प्रज्ञात्ति ४. विवाह-प्रज्ञप्ति इसका दूसरा प्रचलित नाम है-भगवती । जयाचार्य ने वृत्ति के अनुसार जोड की है । १६. प्रस्तावनावचन रचनाप्रकाण्डशुण्डादण्डस्य । निगमनवचनातुच्छपुच्छ्स्य । ( वृ० प० १ ) २०. कालाद्यष्टप्रकारप्रवचनोपचारचारुपरिकरस्य । ( वृ० प० १) २१. जलच्छपण्डायुगल चोपस्य । ( वृ०० १) २२. यशः पटहपटुप्रति रवापूर्णदिक्चक्रवालस्य । २३. स्याद्वादविशदांकुशवशीकृतस्य । २४. विविधहेतुहेतिसमूहसमन्वितस्य मिथ्यात्वाज्ञानाविरमणक्षरिपुवदनाय श्रीमन्महावीरमहाराजेन नियुक्तस्य (२००१) मतिप्रकल्पितस्य । ( वृ० प० १ ) २६. मुनिपोराबाधमधिगमाय पूर्वमुनिनिल्पिकल्पितयो बरगुणत्वेऽपि सस्ता महतामेव वान्विस्तुसाधनसमर्थयोवृत्ति पूर्णिना (००१, २) २७. तदन्येषां च जीवाभिगमादिविविधविवरणदवरकलेशानां संघट्टनेन बृहत्तरा । (१०-१० २) २५. ( वृ०० १) ( वृ० प० १ ) ३०. आ - अभिविधिना कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया वा । ( वृ० प० २ ) उपोद्घात ५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. ३२. ३३. सुधर्म जंबू शिप्य ३४. एह अर्थ जेहन व्याख्याप्रज्ञप्ति' ३५. ३६. परस्परासंकीर्ण ख्या कहितां आखे जे, लक्षण नो अभिधान । प्रभु गौतमादि हित जान ॥ वीर प्रते गौतम प्रमुख पूया प्रश्न सुहाय । प्रतिपादन उत्तर अख्या, ते व्याख्या कहियाय || प्रज्ञाप्यंते पपिये, वीर सुधर्म प्रति जान प्रति, अमल अर्थ सुविधान ॥ विषै तेह तणुं ए नाम । ह.पं. पंचम अंग सुधाम ।। ३७. बा०- -वि कहितां विविध जीव अजीवादिक अति ही प्रचुर पदार्थ ना विषय, आअभिविधिना किण ही अपेक्षा करिकै संपूर्ण ज्ञेय जाणवा योग्य पदार्थ व्याप्तपर्ण करी, अथवा आङ - मर्यादा करिकै परस्पर माहोमाहि असंकीर्ण लक्षण नो जे अभिधान-कथन तेहने, ख्यानानि कहितां भगवंत श्री महावीरे गौतमादिक विनीत शिष्यां प्रते कह्या—एतलं गौतमादिक ना जूआ-जूआ प्रश्नित पदार्थ तेहने प्रतिपादनानि कहितां प्रत्युत्तर कह्या ते व्याख्या कहिये । प्रज्ञाप्यंते कहितां परूपिय श्री भगवंत सुधर्म प्रते अनै सुधर्म स्वामी जंबू प्रते ए वार्ता छँ जेहने विषै ते व्याख्याप्रज्ञप्ति कहिये । अथवा विविधपण करी, तथा विशेष करेह | आख्यायंत कहिये जिके, व्याख्या कहिये तेह | कवन योग्य वस्तु प्रते, 'प्रज्ञाप्यन्ते' इह | परूपियै जेहनें विषै व्याख्याप्रज्ञप्तीह ॥ वा० - विविध पणे करी नाना प्रकार पणे करी अथवा विशेषे करो 'आख्यायन्ते' कहितां कहिये इति व्याख्या -कहिवा योग्य पदार्थ, प्रज्ञाप्यन्ते कहितां परूपियै जे नै विषे ते 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' कहिये ॥ सूत्र अथवा 'व्याख्यानां' तिको, अर्थ कहिण नूं ईह | प्रज्ञप्ति अति ज्ञान ज्या व्याख्याप्रज्ञप्तीह 11 वा० -अथवा 'व्याख्याना' कहितां अर्थ कहिवा नुं, प्र-अति ही, ज्ञप्ति - ज्ञान छँ जेहने विषै ते 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' कहिये ।। १. 'विआहपण्णत्ति' शब्द दो पदों का समस्त रूप है। प्रथम पद में विआह शब्द है, वह वि-आख्या इन तीन अक्षरों से बना हुआ है। वि का अर्थ है जीव अजीव आदि विविध पदार्थ | आङ् उपसर्ग का प्रयोग अभिविधि और मर्यादा दोनों अर्थों में हुआ है। अभिविधि का अर्थ है-किसी अपेक्षा से संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों का ग्रहण और मर्यादा का अर्थ है-- परस्पर असंकीर्ण लक्षणों का कथन, ख्या का अर्थ है-प्रतिपादन । जीव-अजीव आदि विविध पदार्थों का अभिविधि और मर्यादा के द्वारा प्रतिपादन करने का नाम है—व्याख्या । इसमें गणधर गौतम आदि द्वारा उपस्थित किए गए प्रश्नों का प्रज्ञापन- - प्ररूपण किया जाता है इसलिए इसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है। ६ भगवती-जोड़ ३१, ३२. परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानिभगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः । ( वृ० प० २) ३३. प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता जम्नामानमभिपस्याम् ३५, ३६. अथवा विविधतया विशेषेण वा व्याख्या: अभिलाप्यपदार्थ त्यस्ता यस्याम् । सुधर्मस्वामिना ( वृ००२) वा० - विविधा जीवाजीवाद पुरतरपदार्थविषया आ- अभिविधिना - कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया वा- परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि - भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ता: प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूयन्ते भगवता धर्मस्वामिना जम्नामानमभि यस्याम् ॥ (बृ००२) आख्यायन्त इति प्रज्ञाप्यन्ते ( वृ० प० २) ३७. अथवा व्याख्यानाम् अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः । (१०-१०२) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा...--अथवा व्याख्याया:-अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च--- तद्हेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्ति:--- प्राप्तिः यस्याः सकाशादसौ व्याख्याप्रज्ञाप्तिः । (वृ०-प० २) गीतक-छंद व्याख्या अनै प्रज्ञा ए बिहं नी आप्ति प्राप्ति निर्मली। वर जेह तणाज समीप थी तसं व्याख्याप्रज्ञाप्ति भली।। बा...--अथवा 'व्याख्याया' कहितां अर्थ कहिवा नी अन प्रज्ञा–बुद्धि नीं, ते प्रज्ञा केहनै कहिये ? व्याख्या नो हेतुभूत बोध नै प्रज्ञा कहिय। एतले व्याख्या नी अनै प्रज्ञा नी आप्ति-प्राप्ति जेहना समीप थकी, ते 'व्याख्याप्रज्ञाप्ति' कहियै । एतले जे भगवंत थकी अर्थ कहिवा नी अनै बुद्धि नी तत् हेतुभूत बोध नी आप्ति:-प्राप्ति गणधर देव नै हुई तिका व्याख्या-प्रज्ञाप्ति कहिय । व्याख्या अनैं प्रज्ञा ए बिहं न आत्ति: ग्रहिवं जे सही। वर जेह तणां समीप थी तसं व्याख्याप्रज्ञात्तिः कही।। वा०—अथवा व्याख्या अनैं प्रज्ञा ए बिहु नुं आत्तिः कहितां ग्रहिव जेहना समीप थकी, ते व्याख्याप्रज्ञात्तिः कहिये ।। ४०. व्याख्या विष प्रज्ञा प्रभ नी तेह थी प्राप्ति बही। गणधर तण ह जेहनो ए व्याख्याप्रज्ञाप्ति कही।। बा०-अथवा व्याख्या नै विषै प्रज्ञा छै जेहनी एहवा भगवंत, तेह थकी गणधर नै हुइ आप्तिः-प्राप्ति जे सूत्र नी ते 'व्याख्याप्रज्ञाप्ति' वा व्याख्याप्रज्ञात्ति कहिये । ३६. अथवा व्याख्यायाः-अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च-तद्हेतु भूतबोधस्य प्रज्ञाया आत्तिः आदानं यस्याः सकाशादसौ व्याख्याप्रज्ञात्तिः । (वृत-प० २) ४०. व्याख्याप्रज्ञाद्वा-----भगवतः सकाशादाप्ति रात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा । (वृ०-प०२) ४१, ४२. अथवा विवाहा-विविधा विशिष्टा वाऽर्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्याम्। (वृ०प० २) ४२. ४३. विवाहा वा-विशिष्टसन्तानाः प्रज्ञा आप्यन्ते यस्याः चासौ विवाहप्रज्ञाप्तिः । (वृ०-प०२) दूहा तथा 'विवाहा' विविध जे, अथवा विशिष्ट जेह। अर्थ तणाज प्रवाह जे, वा नय-प्रवाह तेह ।। प्रज्ञाप्यन्त परूपिय, जे वर सूत्र विषेह। नाम विवाहपण्णत्ति तसु, कहिये गुणमणि-गेह ।। वा०—बिबाहा-विविध, अनेक प्रकार ना अर्थ ना प्रवाह अथवा विशिष्ट अर्थ ना प्रवाह अथवा नय ना प्रवाह, प्रज्ञाप्यन्ते कहिता परूपियै अथवा 'प्रबोध्यंते' कहिता जाणिय जेहन विष ते विवाहपण्णत्ति कहिये।। ४३. तथा विवाहा जे भला, विशिष्ट ही संतान । प्रज्ञा लहिइं जेहनी, विवाहप्रज्ञाप्ति जान।। वा०—विवाहा-विशिष्ट भला जे संतान प्रज्ञा, आप्यंते कहितां पामिय जेहनी ते विवाहप्रज्ञाप्तिः। ४४. तथा विवाध अबाधिता, प्रमाण करि के जेह । प्रज्ञा लहि जेहनी, विबाधप्रज्ञाप्ति तेह ।। वा०—अथवा विबाधा--प्रमाण करि कै अबाधित अपरिमित प्रज्ञा पामिय जेहनी तिको विबाधप्रज्ञाप्तिः । अथवा विविध प्रकार ना, अर्थ कह्या तसुं जोय । प्रज्ञप्ति सुपरूपणा, विवाहपत्ति होय ॥ तथा विबाध अवाधिता, अर्थ तणी अभिराम । प्रज्ञप्ति सुपरूपणा, विवाधपण्णत्ति नाम । ४७. अन भगवती नाम पिण, पूज्य पण करि ख्यात । द्वितीय नाम । तेहन, प्रवर प्रसिद्ध सुजात ।। वा०—विबाधा वा प्रमाणाबाधिता: प्रज्ञा आप्यन्ते यस्या: चासौ विबाधप्रज्ञाप्तिः। ४७. भगवतीत्यपि पूज्यत्वेनाभिधीयते। (वृ०-प० २) उपोद्घात ७ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ४६. ५७. ८ काज । सहाज || समाचरणाय । शास्त्रकार ने फुन जिके, विघ्न विनासन विनयवंत शिष्य ने बलि प्रदर्शन मुख अथवा फुन जे शिष्ट- जन-समय मंगल वाच्य मनोहरू, प्रयोजने कारण सकल कल्याणनों, अधिकृत धेयभूत ने विघ्न न संभय ते उपशमनज अर्थ ही, द्रव्य ते तज मंगल भाव प्रति, उपादेय संवादि ॥ द्रव्य मंगल कीधै छतै, विघ्न मिटै वा नांय । भाव मंगल निश्च करी, विघ्न विनासक थाय ॥ कहवाय ॥ शास्त्र उदार । हविवार || द्रोबादि । मंगल रूपेह ॥ भाव मंगल फुन तप प्रमुख, भिन्न बहु विधपिण जेह । परमेष्ठी पंचक प्रते, नमस्कार उपादेय सुविशेष ए, परमेष्ठी लोकोत्तम सुख सरण फुल, चिहुं चि तसुं नमस्कार ओलख करें, सह अघ सर्व विघ्न उपशम तणों, हेतु 1 मंगलीक | का सीक || तणों विणास सुखरास ॥ यह कारण वी पंच पद सबंध में आदि । अंगीकार करिं अर्थ ऽभ्यंतरपणं ते मार्ट इहां पण धरे परमेष्ठिक नमस्कार करिखूं तसु, दिखाडिये , संवादि ॥ पंच । संच ॥ जे ते १. शास्त्रकार ने विघ्न हेतुओं का उपशमन करने के लिए शिष्यों की शास्त्र में प्रवृत्ति कराने के लिए और शिष्ट जन सम्मत पद्धति का निर्वाह करने के लिए मंगल, अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध को प्रस्तुत किया है। २. नमस्कार महामंत्र सब विघ्नों का उपशामक है। इसलिए सब शास्त्रों की आदि में इसका ग्रहण किया जाता है, इसीलिए यह सब शास्त्रों के अन्तर्निहित कहलाता है । भगवती-जोड़ ४८, ४६. शास्त्रकारास्तु विघ्नविनायकोपशमननिमित्तं विनेयजनप्रवर्त्तनाय च ( मङ्गलं ) शिष्टजनसमयसमा चरणाय वा मङ्गलाभिधेयप्रयोजनसम्बन्धानुदाहरन्ति । (२०-१०२) ५०, ५१. तत्र च सकलकल्याणकारणतयाऽधिकृतशास्त्रस्य श्रेयोभूतत्वेन विघ्नः संभवतीति तदुपशमनाय मङ्गलान्तरव्यपोहेन भावमङ्गलमुपादेयं । ( वृ०० २) ५२. रस्यानैकान्तिकत्वात्यन्तिकत्वाच्च भावमङ्गलस्तु तद्विपरीतवाऽभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वेन पूज्यत्वात् । ( वृ० प० २ ) ५२. भावस्य तपःप्रभृतिभिन्नत्वेनानेकविध त्वेऽपि परमेष्ठिपञ्चकनमस्काररूपं विशेषेणोपादेयं । ५४. परमेष्ठिनां मङ्गलत्वलोकोत्तमत्वशरण्यत्वाभिधानात् आह च "चत्तारि मंगल" मित्यादि । (बु०प०२) ५५. तन्नमस्कारस्य च सर्वपापप्रणाशकत्वेन सर्वविघ्नोपशमहेतुत्वात् । (१००१०२) ५६. अत एवायं समस्ततस्वन्धानामादावुपादीयते, अतएव चायं तेषामभ्यन्तरतयाऽभिधीयते । ( वृ० प० २ ) ५७. अतः शास्त्रस्यादावेव परमेष्ठिपञ्चकनमस्कार मुपदर्श( वृ००१०२) यन्नाह । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. ५६. ६०. ६१. प्रथम शतक णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूण हा आद । परमेष्ठी पंचक 'नमो अरिहंताणं' तास अर्थ कहिये अछे, सुणज्यो घर आह्लाद ॥ भाव । साव ॥ नमो निपात हि पद अछे द्रव्य अने फुन संकोचन नों अर्थ जसुं, आगल कहिये कर पद शिर पंचांग नल, सुप्रणिधानज सुसमाहित एकाग्र हो, नमस्कार नमस्कार अरहंत' ने इंद्रादिक पूजण योग्यज छ प्रभु नमस्कार नैं रूप । तद्रूप ॥ जेह । रूपेह ॥ १. णमो अरिहंताणं में जो अरहंत शब्द है, वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या कई प्रकार से की है । वृत्तिकार द्वारा व्याख्यात अर्थ की दृष्टि से अरहंत शब्द के पांच रूप बनते हैं (५) । (१) अर्हत। (३) अरथान्त । (२) अरहर । (४) अरहंत । वृत्तिकार को उपलब्ध पाठान्तर के अनुसार इसके दो रूप ये भी हैंअरिहंत और अरहंत । ५८. नमो अरहंताणं । (०१०१) ५६. तत्र नम इति नैपातिकं पदं द्रव्यभावसङ्कोचार्थम् । (००३) ६०. करचरणमस्तक सुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वि त्यर्थः । (०-०३) ६१. 'य' अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहाप्रतिहार्य रूपां पूजामतीतः । ( वृ० प० ३) शतक १, उद्देशक १, ढाल १ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. नमस्कार नैं जोग जे, फुन सत्कारज जोग । सिद्धि-गमन ने जोगबलि, अर्हत नाम अरोग || ६६. अथवा अविद्यमान रह, एकांतरूपज देश | अंत तिको मध्य गिरि गुफा प्रमुख सर्व जाणे || समस्त वस्तु स्तोमगत प्रच्छन्न नहि छे जास एहवा अन्तर भणी, नमस्कार अथवा अविद्यमान रथ, स्पंदन सकल परिग्रह ममत्व ही, फुल वलि अंत विनाश जे अपां भी वा०. -अविद्यमान छँ रथ कहितां स्पंदन, चलण लक्षण जेहनों, उपलक्षण भुत सकल परिग्रह नहीं है जेहने, अन अंत कहितां विनाश उपलक्षण भूत जरादि नहीं है जेहन ए तीर्थकर नीं अपेक्षाय, ते अरथांत भणी, अथवा अंत कहितां तेहना ज्ञानादिक नों विनाश नहीं ते अरथांत भणी, ए सर्व केवली नीं अपेक्षाय । ६७. अथवा किण ही वस्तु में, आसक्त क्षीण - राग है ते भणी, नमस्कार गृद्ध न होय । तसुं जोय ।। वा० ६८. -अथवा अरहंताणं ते किणही वस्तु नै विष पिण आसक्तिभाव न पां क्षीण राग पणा थकी अगच्छद्भ्यः अप्राप्नुवद्भ्यः ते अरहंत नैं । अथवा अति रागादिना हेतुभूत संवादि । मनोश में अमनोज्ञ ही विषय जिके शब्दादि ॥ तसु संयोग मिले अपि, निज स्वभाव न तजेह | वीतराग छते भणो, नमस्कार तसुं लेह ॥ वा० धरश्यद्भ्यः प्रकृष्ट रागादिहेतुभूत मनोज्ञ-अमनोज, सुंदर-सुंदर विषय शब्दादिक नों संयोग मिल्यै छतै पिण वीतरागपणुं आदि जे निज स्वभाव, हां नहीं तेभ्यः ॥ सुप्रकाश || चलण कुसूत । - ए उपलक्षणभूत | जरा प्रमुख नहि जास नमस्कार विधि तास । यतनी ७०. पाठांतर अरिहंताणं, अप्ट कर्म रूप अरि जाणं । तिण में च्यार कम अरिहणिया, तिण सूं नमस्कार करि थुनिया ॥ १. जिनसे कोई पदार्थ प्रच्छन्न नहीं है और जिनके किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है वे अरहोऽन्तर हैं । २. प्राचीन प्रतियों में पकार और यकार का लेखन एक समान मिलता है । प्रस्तुत पद में जो स्पन्दन शब्द है वह अर्थ की दृष्टि से स्यन्दन होना चाहिए। संभव है, जयाचार्य को उपलब्ध प्रति में स्पन्दन शब्द हो, पर अभयदेवसूरि ने यहां स्यन्दन शब्द मानकर उसकी व्याख्या की है- "अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः " जिनके पास रथ नहीं है, उपलक्षण से किसी प्रकार का परिग्रह नहीं है, वे अथान्त हैं । १० भगवती-जोड ६२. अरिहंत वंदनमंसणाणि अरिति पुत्रसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चति ॥ ( वृ० प० ३) ६३, ६४. अविद्यमानं वा रहः- एकान्तरूपो देशः अन्तश्चमध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतत्वस्याभावेन येषां ते अरोरा अतस्वीर होऽन्तर्भ्यः । ( वृ०० ३) ६५, ६६. अथवा अविद्यमानो रथः- स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणो विनास जरापतक्षणभूतो ( वृ०-०३) येषां ते अरथान्ता अतस्तेभ्यः । ६०. 'हं' ति क्वचिदप्यासगिद्भ्यः क्षीरात्। (2.02-02) ०६. अथवा यद्यः प्रकृष्टरागाविभूगो तर विषय संपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्व स्वभावमत्यजद्भ्य इत्यर्थः । (१०-१० ३) ७०. 'अरिहंताणं' ति पाठान्तरं तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः, आहच--- "अट्ठविपि य कम्मं अरिभूयं होइ सयलजीवाणं । कम्मरहता, अरिहंता तेण युच्चति ॥" ( वृ० प० ३) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुहंताणं पिण जोय, पाठांतर वर अवलोय। तत्र अरुह नहि उपजत, क्षीण कर्म बीज थी मंत ।। बीज दग्ध छतै ज्यू अत्यंत, अंकुर प्रगट नहिं हुंत । तिम दग्ध किया कर्म-बीज, भव-अंकर उग नहींज ।। नमस्कार करिवा नै योग्य, वर्ते छै ए सुप्रयोग्य । किण कारण ए कहिवाय, तमु आगल सुणिय न्याय ।। भव भ्रमण भीमबन भारी, भयवंत जीवां नैं विचारी। अनुपम वर आनंद रूप, शिव पद पुर पंथ अनूप ।। ते देखाडण निज स्वयमेव, परम उपगारी अरिहंत देव । तिण कारण थी सुविधान, नमस्कार करिवा योग्य जाण। ७१, ७२. 'अरुहंताण' मित्यपि पाठान्तरं, तत्र 'अरोहद्भ्यः ' अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।।" (वृ०-प०३) ७३-७५. नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूता नामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति । ७५. ७६. नमो सिद्धाणं नमस्कार थावो बलि, सिद्ध भणी सुखकार । श्रोता शव्दारथ सुणो, अमल चित्त अवधार ।। (श० १११) ७७, ७८. सितं—बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं ध्मातं—दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः। (वृ०-५० ३) गीतक-छंद ७७. सित् बद्ध जे अठ कर्म इंधन, दीप्त जाज्वलमान हो। वर शुक्ल ध्यान सुअनल करि, ध्मा दग्ध कृत गुणखान ही।। ७८. निरुक्तविधि करि आखिये, सित ध्मात शब्द सुस्थान ही। वर सिद्ध शब्द ज नीपनो, इम वृत्तिकार बखान ही। वा०—सितं कहितां बंध्या जे आठ कर्म रूप इंधण तेहन, ध्मात कहिता दहाव्या जाज्वलमान शुक्ल ध्यान रूपणी अग्ने करी नै। एहवा जे सिद्ध मुक्ति नै विषै विराजमान छ तेह भणी नमस्कार थाओ। निरुक्त ते पदभंजन, ते निरुक्त विधि करिके सित अन ध्मात ए बिहुँ शब्द नां स्थानक नै विष सिद्ध इसो शब्द नीपनों। ७६. अथवा विधु गति अर्थ में, इह वचन थी महिमानिलु। संसार में नाव इसी, सिधपुरी गमन कयूं भलं ।। वा०—षिधु धातु गति अर्थ नै विषै छ, इण बचन थकी संसार में आवै नहीं एहवी निर्वृति पुरी ते सिद्धपुरी में गया, ते भणी तेह सिद्ध नैं मांहरो नमस्कार थाओ। ७६. अथवा 'षिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म-अपुनरा वृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन्। (वृ०-प०३) ८०. 'षिधु संराद्धौ' इति वचनात् सिद्ध्यन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म । सोरठा ५०. षिध' संराद्धौ जाण, निष्ठित संपूरण अरथ। थया तास पहिछाण, सिद्ध कहीजे तेहने ॥ बा०—षिधु धातु संराद्ध ते फल-निष्पन्न अर्थ नै विर्ष हुई ते भणी सिद्ध कहितां संपूर्ण अर्थ थया ए फल नीपना। ८१. विधत्र धातु शास्त्रह, देणहार शिक्षा तणा। फुन मंगल अर्थेह, न्याय कहूं हिव बिहुं तणो ।। सिद्ध पूर्व भव मांय, शिक्षा ना दायक हुंता। शास्त्र अर्थ सुखदाय, कहिय छै इह कारणे ।। ८१-८३. 'षिधन शास्त्रे माङ्गल्ये च' इतिवचनात् सेधन्ति स्म---शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः। (वृ०-प०३) ८२. श० १, उ० १, ढा० १ ११ Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. ते फुन मंगल रूप, जेह भाव प्रति अनुभव। शिव सुख लह्या अनूप, मंगलीक ए अर्थ छै।। वा०—षिधु धातु शास्त्र अर्थ कै विष अनै मंगल अर्थ के विष । शास्त्र कहितां शिक्षा ना देणहार पूर्व भव नै विष थया अन ते भाव मंगलरूपपणां प्रते अनुभवे इति सिद्धाः । ८४. तथा सिद्ध नित्य जान, काल अनागत नै विषै। अंत रहित पहिछाण, नित्य शास्वता सिद्ध इम।। वा०-अथवा सिद्ध कहितां नित्य अपर्यवसानस्थितिकपणां थकी अथवा प्रख्यातप्रसिद्ध उपलब्ध गुणसंदोहपणां थकी। ___ गीतक-छंद जिह दग्ध कीधा जे पुराणा कर्म बंध्या जेहन। शिव रूप मन्दिर-मस्तके अथवा गमन छ तेहनै ।। फुन ख्यात अनुशास्तार वा जे निष्ठितार्था छै सही। मंगल तणा कर्ताज मुझ न, सिद्ध ते थावो वही ।। ८४. और वा०---अथवा सिद्धा:-नित्याः, अपर्यवसानस्थितिकत्वात्, प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसंदोहत्वात् । (वृ०-५०३) ८५, ८६. "ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसौधमूनि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे। (वृ०-प०३) सोरठा ते सिद्धां न सोय, नमस्कार भल भाव सं। करिवा योग्य सुहोय, कारण ते कहिये हिवै।। ८७. अतस्तेभ्यो नमः ८८. ८८, ८६. नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसखवीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति। (व०प०३) 1 गीतक-छंद अविनाशि छै तसं ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदिक सही। वर तेह गुण युक्तज करी स्व विषय नैं ज विर्ष वही।। अति ही प्रमोद उपायवे भव्य जीव नैं अतिशय करी। उपकार ना हेतूपणां थी नमस्कार विधि आचरी।। वा०—-[एहवा सिद्धां नै नमस्कार करिवा हुंती] जेहनो नाश न थाय एहवो ज्ञान दर्शण सुख वीर्यादिक गुणयुक्त पण करी नै स्व विषय प्रमोद ना प्रकर्ष उपजायवै करी भव्य जीवों नै अत्यन्त उपगार ना हेतुपणां थी ते सिद्धां नैं मांहरो नमस्कार थावो। १०. दूहा नमस्कार थावो बलि, आचारज ने आम । शब्दारथ एहनौं सखर, उच्चरिय अभिराम ।। ६७. नमो आयरियाणं। (श० १/१) ११. *आ मर्याद करेह, गुरु नी विषय सुलेह। आछेलाल। विनय रूप करि सेविय ।। ६१, ६२. आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकाक्षिभिरि त्याचार्याः। *लय-आछेलाल... १२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. जिनशासन नो जेह, अर्थ उपदेश वांछह । आछेलाल । तसं अर्थ उपदेश देविय' ।। वा०-सूत्रार्थ ना जाण, औदार्यादि गुण युक्त, गच्छ नै विष मेढीभूत, गच्छ नी चिंता वा-सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य। करी विप्र मुक्त, अर्थ नां दायक एहवा आचार्य । गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरिओ॥ (वृ०-५०३) १३. अथवा ज्ञानादि आचार, पच प्रकार विचार, नीकेलाल । १३. अथवा आचारो-ज्ञानाचारादिः पञ्चधा। आ मर्यादा करी धरै ।। (वृ०-५० ३) बा......'ज्ञानाचार 'दर्शनाचार 'चारित्राचार तपाचार वीर्याचार ए पांच आचार मर्यादा करि के सेवै। १४. अथवा आचार विहार, तेह विषै सुविचार। प्यारेलाल। ६४-६६. आ-..मर्यादया वा चारो-विहार: आचारस्तत्र निपुण, चतुर गुण आदरै॥ साधवः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः, ६५ ते पंच आचार उदार, पोते आचरवा थी सार। आह चपरूपवा थी पिछाणियै ।। "पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता। ६६. देखाङवा थी देख, निपूण घणां विशेष । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥" एहवा आचारज जाणिय ।। ६७. तथा आ ईपत् ऊणो ताय, चार - कल्प कहिवाय। ६७-१००. अथवा आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चारातेह आचारा जाणिय ।। हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः। युक्ता१८. युक्त अयुक्त विभाग, तास निरूपण माग। युक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या अतस्तेभ्यः । निपूण,विनेया शिष्यमाणिय।। १६. एहवा सुविनीत सीस विषेह, शास्त्रार्थ वर देह । सुद्ध उपदेश देवे करी॥ १००. इण हेतु थी ताय, आचार्य । कहिवाय। तसुं नमस्कार थावो वरी॥ बा०---आ कहितां ईषत् ऊणो अपरिपूर्ण, चार कहितां कल्प ते आचारा-शिष्य । इण कारण थकी ते शिष्य नै विष यथावत् शास्त्र नां अर्थ नै उपदेशकपणे करी ते आचार्य कहिये। एतले सर्व सावज्ज रा त्यागी छै तो पिण प्रमत्त गुणठाण चूकवा रो ठिकाणो, कल्प-आचार में खामी पडै तिण सूं ऊणो चार–कल्प कह्यो ते साधु नै सुद्ध उपदेश देवे करी सावधान करै ते आचार्य कहिये। गीतक-छंद वर पंच जे आचार नां उपदेश ना दायक गणी। उपकारिका छै ते भणी ए नमण योग्या गण-धणी।। १०१. नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् (वृ०-५०४) १०२. नमो उवज्झायाणं । (श०१/१) दूहा १०२. नमस्कार थावो बली, उपाध्याय ने सार । एह शब्द नों अर्थ इम, आगल कहूं उदार ।। १. जिन प्रवचन के अर्थ का उपदेश देने के कारण उपदेश सुनने के इच्छुक शिष्यों द्वारा आ-गुरु के प्रति उचित विनय रूप से, चर्यन्ते-सेवा की जाती है जिनकी, वे आचार्य होते हैं। श० १, उ० १, ढा० १ १३. Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३. १०४. १०५. १०६. १०७. १०८. १०६. ११०. १११. ११२. सोरठा उप जे समीप आय, करै ते उपाध्याय कहिवाय, धातु वा० -उप कहितां जेहनें समीप आवी ने अधीयते कहितां पढिये ते उपाध्याय । इङ् धातु अध्ययन नें विषै छै ते माटै। वा० अध्ययन जेह थकी। 'इङ् अध्ययन' में || उप जे समीप आय, जाणें अधिकज जे थकी । ते उपाध्याय कहिवाय, धातु 'इण् गति' अर्थ में ॥ -गति अर्थ नैं विषै जे धातु ज्ञानार्थ हुवै। उप जे समीप आय, स्मरण करैज जेह थको । ते उपाध्याय कहिवाय, धातु 'इक् स्मरण' दिषै ॥ सूत्र थकी सुविचार, श्री जिन प्रवचन जे थकी चितवियै जे द्वादशांग जिन ते उपदि सार, स्मरण अर्थ विषै तिको ।। ख्यात, गणधर देवे सुजात, उपाध्याय छै जे गंधिया भणी ॥ प्रवर " उपाधि समीप आय लाभ जसुं उपाधानं— उपाधि नाम संनिधि नों छँ, संनिधि नों अर्थ समीपवाची है । सोप तम् समीप करि होय, उपाध्याय कहिये तसु' ॥ वा० ते उपाधि - समीकरी अथवा उपाधि - समीप नै विषै आय-सूत्र नो लाभ जेने ते उपाध्याय कहियै । प्रस्ताव अथवा उपाधि जोय, नाम विशेषण नो इहां । थी अवलोय, सोभनीक वस्तु जिका ॥ वर्णन योग्य तेनों आप सुलाभ जे। जे थकी सुप्रयोग, उपाध्याय कहिये तम् ॥ प्रशस्त वा०- -इहां उपाधि नाम विशेषण नों को प्रस्ताव थकी सोभन ते वर्णन योग्य पदार्थ तेहनुं आय कहितां लाभ जे उपाधि थकी हुई ते माटै तेहने उपाध्याय कहिये। अथवा ३ उपाधिहीज, संनिधि समीप हीज छे । आय इष्टफल चीज, देव-जनित करि जाणवू ।। वह आप इष्टफल तेह तेहनों समूह इक हेतुपणेह, उपाध्याय कहिये जेहने तसुं ॥ १. 'उपाधानं उपाधिः सन्निधिः सामीप्यम्' जिनके सामीप्य से आय -- श्रुत का लाभ होता है, वे उपाध्याय होते हैं । २. उपाधीनां विशेषणानां आयः लाभः -- जिनसे अच्छी-अच्छी उपाधियों का लाभ मिलता है वे उपाध्याय हैं। ३. उपाधिरेव आयम् - उपाध्यायः, उपाधि - जिनका सान्निध्य ही आय - इष्टफल है, वे उपाध्याय कहलाते हैं । देवजनित अनेक इष्टफलों का समूह भी एक आय शब्द से कहा गया है। १४ भगवती-जोड़ १०३. उप- समीपमागत्याधीयते 'इङ् अध्ययने' इति वचनात् पठ्यते । ( वृ० प० ४) १०४. 'इण् गता' वितिवचानाद्वा अधि-आधिक्येन गम्यते । (००४) १०५, १०६. 'इक् स्मरणे' इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः । ( वृ००४) १०७. ओ ओहिओ हे। तं उवइति जम्हा, उवज्झाया तेण वुच्चति ॥ (१०-१० ४) १०. अथवा उपाधानमुपाधिः संनिधिस्तेनोपाधिना उपाधी वा आयो लाभः श्रुतस्य । (१०-१०४) १०६, ११०. येषामुपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो लाभो येभ्यः । (बु०प०४) १११, ११२. अथवा उपाधिरेव संनिधिरेव आयम् - इष्टफलं दैवजनितत्वेन अयानाम् - इष्टफलानां समूहस्तयेषाम् ॥ ( वृ० प० ४) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. अथवा आधीनां-मनःपीडानामायो-लाभ (वृ०-प०४) आध्यायः । वा०-उपाधि कहितां संनिधिहीज आय कहितां इष्टफल ते वांछित फल देव जनितपणे करी घणां आय नुं ते घणां इष्टफल न समूह ते एक हेतु पणा थकी जेहन ते उपाध्याय। एतले स्वाध्यायादि घणां शुभ अनुष्ठान समाचऱ्या तेह थी अत्यन्त घणां कर्म निर्जऱ्या, घणा पुन्य बंध्या, तेह थी देवता सेवा करै ते देव सानिध्य पण करी आय कहितां घणां इष्टफल वांछितफल ते उपाध्याय नै संनिधिहीज छ ते माटै एहन उपाध्याय कहिये । ११३. तथा आधि मन-पीड, तसं आय लाभ आध्याय ते। उपहत जिण गुणहीर, उपाध्याय कहिये तसं ।। वाल---आधि कहिता मन नी पीडा तेहनो आय कहितां लाभ ते आध्याय कहिये। ते आध्याय ने मन की पीडा नै उपहत कहिता हणी जिणे ते उपाध्याय कहिये । इहां उप शब्दे करी उपहत जाणवो। अथवा अधी नों आय, कुवृद्धि तणा जे लाभ नै। उपहत ते उपाध्याय, नत्रः कुत्सार्थपणां थकी ।। वा०—हां अधी नै विष अकार ते कुत्सार्थ-भंडा अर्थ नै विष, धी कहितां बुद्धि तेहनों आय कहिता लाभ ते अध्याय । एतले कुबुद्धि नो लाभ ते अध्याय । तेहनै उपहत कहितां हणी जेणे ते उपाध्याय।। ११५. फुन दुान कहाय, तसं आय लाभ अध्याय नै। उपहत ते उपाध्याय, नत्रः कुत्सार्थपणां थकी ।। ११४. अधियां वा-नञः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीनामायोऽध्यायः। (वृ०-५० ४) ११५. 'ध्ये चिन्तायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगान्नञः कुत्सार्थत्वादेव च दुर्ध्यानं वाऽध्यायः । उपहत आध्यायः अध्यायो वा यस्ते उपाध्यायाः । (वृ०-५०४) वा०-इहांध्य धातु चिता अर्थ नै विष, इण धातु ना प्रयोग थकी अनै नञः कुत्सार्थ पणां थकीज हुवै खोटा ध्यान नों लाभ, ते अध्याय, ते अध्याय नै उपहत कहितां हण्यो जेणे ते उपाध्याय, एतले खोटा ध्यान ना लाभ नै हण्यो जेणे ते उपाध्याय कहिये। गीतक-छंद सध संप्रदाय थकीज आयो समय अध्यापन करी। वर विनय कारज नै विष प्रवत्तवै करि हित धरी ।। वर भव्य नै उपकारका ए ते भणी इम जाणियै । नमस्कार सुकरण योग्यज तूर्य पद पहिछाणिय ।। ११६, ११७. नमस्यता चैषां सुसंप्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयेन भव्यानामुपकारित्वादिति । (वृ०-५० ४) ११७. ११८. नमो सव्वसाहूणं। (श० १/१) ११८. नमस्कार थावो वलि, पांचूं अंग नमाय । सर्व साधु छै तेहन, तास अर्थ कहिवाय ।। ११६. ज्ञानादिक शक्ती करी, साधै मोक्ष प्रतेह । साधु कहियै तेहन, भावे मुनि गुण-गेह ।। १२०. तथा सर्व जीवां विषै, समता प्रति ध्यावेह । एह निरुक्ति-न्याय थी, साधू कहियै तेह ।। वा०—निर्वाण साधक जोग ज्ञानादिक प्रते साधै जे भणी ते साधु, च पुनः सर्वभूत नै विष सम कहितां तुल्यतापणा प्रति साधे ते भाव साधु कहिये । ११६, २०. साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्ष मिति साधवः, समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात्साधवः । (वृ०-प० ४) वा०-निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो।। (वृ०-प०४) श०१, उ०१, ढा० १ १५ Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१. १२२. १२३. १२४. १२५. १२६. १२७. १२८. १२१. १३०. १३१. १३२. १३३. मोरठा तथा सहायक सोय, संजमकारी ने प्रति । पारं जे अपलोय, निरुक्त थी साधू तिके । फुन ते सर्व पिछाण, चारित्त सामायक प्रमुख । एह विशेषण जाण, प्रमत्त आदि गुणठाण जे ॥ अथवा पुलाक आदि प्रतिमाकल्पिक साधु जे | जिनकल्पिक संवादि ययासंदकल्पिक बलि ॥ काल थकी ए जोय, गच्छ विषै जिनकल्पि नों । विशेष ए अवलोय यथालन्दकल्पिक इसौ ॥ कर नीं रेखा ताहि, सूर्क इतरो काल पिण अभिग्रह विण रहे नाहि यथालम्बकल्पिक तिको फुन परिहारविशुद्ध बलि स्वविकल्पिक मुनि । स्थितकल्पिकवर बुद्ध, अस्थितकल्पिक संजती ॥ कल्पातीत सुभेद, स्वयंबुद्ध प्रत्येकबुद्ध | बुद्धबोधित संवेद मुनि भरतादिक क्षेत्र नां ॥ सुसमदुस्समा आदि का विशेषित मुनि तथा। साधु सर्व संवादि परम महाव्रतधारका ॥ गुणवंत नैं । तेह में ॥ फुन सहु ग्रहिवं तेह, सगला मुनि नमण योग्य भावे, अविशेष सर्व शब्द ए माण, अर्हत् आदिज छै पद का | तेह विष पिण जाण, न्याय सामान्यपणां थको ॥ सार्व । दूहा तथा सर्व जीवां भणी हितकारक ते सायं हि साधु बनि गाल्या तेणे गार्व ॥ वा० - सव्व साहूणं ए सर्वशब्द अर्हत् आदि पद नैं विषै पिण जाणवो-नमो सव्व अरहंताणं, नमो सव्व सिद्धाणं, नमो सव्व आयरियाणं, नमो सव्व उवज्झायाणं इम अरिहंतादिक पद नै विषै पिण सर्व शब्द जाणवो । जे साधू में सर्व शब्द कह्यो ते न्याय नैं सामान्यत्वात् कहितां सरीखा पणां थकी अर्हतादिक में सर्व शब्द जाणवो । इहां सर्व जीव ने हितकारक साधु छं ते भणी साधु नैं सार्व कह्या सार्व तेहि साधु, सार्व-साधु इहां कर्मधारय समास । तथा सार्व अर्हत् कह्या, तेह्नां साधू तंत । पिग बुद्धादिक ना नहीं, साथ साधु गुणवंत ॥ वा० सर्व जीवां नैं हितकारी ते सार्व शब्द अर्हत् नैं कहिये । ते अर्हत् ना साधु पिण बुद्धादिक ना नथी, ते माटै सार्व साधु कह्या । तथा सर्व सूभ जोग प्रति सार्धं करें सुजोग । सर्व साधु कहिये तसुं अमल वित्त उपयोग ॥ १६ भगवती जोड़ १२१. साहायक वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः निरुक्तेरेव 1 (90-70x) १२२-२५. सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकायो या जिनकल्पितमाकल्पिकवान्द कल्पिकपरिहारविशुद्धि कल्पकस्यविकल्पस्थित कल्यिकारकल्पिकस्थितास्थितकलिकल्पाती भेदा: प्रत्येक स्वयम्वोधितभेवाः भारतादिभेदा: सुषमदुष्षमादिविशेषिता वा साधवः सर्व( वृ० प० ४) साधवः । १२. सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम् । ( वृ० प० ४) १३०. इदं चार्हदादिपदेष्वपि बोद्धव्यं, न्यायस्य समानत्वादिति । ( वृ०-४० ४) १३१. अथवा सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वास्ते च ते साध वश्च । (२००४) १३२. सार्वस्य वा - अर्हतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्व(90-908) साधवः । १३३. सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति - कुर्वन्ति । (बु०प०४) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा ते साधे की, अर्हत वन सुसाधु । आराधु || तथा सार्व अर्हत तसुं आशा करिया -इहां पिण सर्व जीव नैं हितकारक अर्हत छे ते भणी अर्हत नै सार्व कह्या, ते सार्व अर्हत नैं सार्धं तेहनी आज्ञा पालवा थकी आराधे ते सार्व साधु । तथा सार्थ आहेत ते प्रतिष्ठाप वा० स्थायंत १३५. १३४. दुर्नय ने तजवा थकी, सर्व साधु गुणवंत ॥ वा० - इहां पिण सर्व जीव नै हितकारक अर्हत छँ ते भणी सार्व नाम अर्हत नो कह्यो ते सार्व अर्हत नै स्थाप, दुर्नय नैं तजिवे करी ते सार्व साधु कहिये । तथा श्रवण ने योग्य वच, ते श्रव्य वाक्य विषेत् । साधु कहिये निपुण जे, श्रव्य साध लेह | वा०- -इहां सव्व नो अर्थ कह्यू श्रव्य, ते श्रवण योग्य सुणवा योग्य वचन नैं विषै साधु कहियै निपुण, ते श्रव्य साधु कहिये । अथवा सव्य अनुकूल जिके कार्य साधु कहितां निपुण जे १३७. सव्य १३६. वा० - इहां सव्व नो अर्थ सव्य ते अनुकूल कार्य जे छ तेहने विषै साधु कहितां निपुण ते सव्य साधु | १३८. वह कारण थी ते भणी, नमस्कार सुध रीत 1 तो एव अर्थ ववीत || नमो सभ्यताह ० णमो लोएव्सा का । एहनों अर्थ वृत्ति ने आधार थी कहियँ छ । 0 १३९. तिही सर्व जे शब्द में देश की अर्थ ताय । १४०. १४१. १४२. तास विषेह | साधु छै तेह || पिण हुवै, तेह इहां न गिणाय || सर्वपणा में वा०- सर्व शब्द रा दोय भेद छै- सर्व अर्थवाची, देश अर्थवाची । तिहां देश अर्थवाची सर्व शब्द कहिण सूं एक गण ना साधु ग्रहण करिये अनै सर्व अर्थ वाची सर्व शब्दे अढाई द्वीप ना साधु ग्रहण करियै । सर्व शब्द की लोए कहितां सर्व एम वाची इहां, सर्व शब्द छै एह । देखावा, अर्थ कोह ॥ लोक जे मनुष्यलोक रे मांय छै तेहने, नमस्कार शिर नाय ।। सर्व साधु गीतक-छंद शिव- मग साहाय्य करण करि, उपकारका मुनि ते भणी । तसुं नमस्कार करण योग्या, मन वचन क्रमणा' थणी ॥ सुध चरण कृत असहाय मुझ प्रतिवर सहायक छै मुणी । ए कारणे करि सर्व मूनि प्रति नमस्कारज विधि भणी ।। वा० - मोक्षमार्ग सहाय करिकै करी उपकारिपणा थकी संयम करता नै मुझ असहाय ने सहायपणा प्रति करें, इण कारण करिके हूं सर्व साधु नैं नमस्कार करूं छू । १. कर्म (क्रिया) से । १४३. एव पाठान्तर कहि देखा है। एम वृत्तिका रे १३४. सार्वान् वा - अर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति । (g०-१० ४) १३५. प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकरणादिति सार्वसाधवो वा । १३६. अथवाचयेषु धगावनषु । १२७. अथवा ध्यान दक्षिणायनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु साधवो -- निपुणाः श्रव्यसाधवः । ( वृ० प० ४ ) साधवः ( वृ० प० ४ ) वा - णमो लोए सव्वसाहूणं ति क्वचित् पाठः । १४०. तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते । ( वृ० प० ४ ) १४१. लोके मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नम इति । ( वृ० प० ४) १४२, १४३. एषां नमनीयता मोजमार्गसाहाय्यकरणेनोपकारित्वात् आह च "असहाए सहायत्तं करेंति मे संयम करेंतस्स । एएक कारण पमामि सव्वसाहू (१०म० ४) श० १, उ० १, डा० १ १७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४. १४४. ननु यद्ययं संक्षेपेण नमस्कारस्तदा सिद्धसाधूनामेव युक्तः । (वृ०-प०४) १४५, १४६. तद्ग्रहणेऽन्येषामप्यर्हदादीनां ग्रहणात्, यतोऽहं__दादयो न साधुत्वं व्यभिचरन्ति। (वृ०-प० ४, ५) १४५. १४७. १४७. अथ विस्तरेण तदा ऋषभादिव्यक्तिसमुच्चारणतोऽसौ वाच्यः स्यादिति। १४८, १४६. नैवं, यतो न साधुमात्रनमस्कारेऽहंदादिनमस्कारफलमवाप्यते। (वृ०-प०५) १४८. १४६. १५०. १५०, मनुष्यमात्रनमस्कारे राजादिनमस्कारफलवदिति । (वृ०-५०५) १५१. १५२. दूहा नमस्कार संक्षेप करि, जो कीजै जिहबार । सिद्ध अनै साधू प्रति, करिवू युक्त उदार ।। सिद्ध साधु ग्रहिवै करि, अन्य जे अर्हत आदि । तेहनों पिण जे ग्रहण व ते पिण मुनि संवादि ।। अर्हत् आदि अछै तिके, मुनिपणुं नहिं त्यजंत। संक्षेपे सिध मुनि नम्यां, ए पिण सह आवंत ।। अथ विस्तर करि जो नमैं, तो ऋषभादि जिवार । नाम समुच्चरवै करी, नमवू धर अति प्यार ।। गुरु भाष-ए इम नहीं, जिह कारण थी जेह । समुच्चय साधु मात्र प्रति, नमस्कार कीधेह ।। अहंतादि जे जू जूआ, नमण तणु फल जोय। समुच्चय सिध साधु नम्यां, ते फल जबर न होय ।। समुच्चय जे मनु मात्र नै, नमस्कार कीधेह । नृपादि नैं नमस्कार नूं, फल नी पर छै एह ।। समुच्चय साधु भणी नमै, नम जू जूआ कोय । एक सरीखो फल नहीं, नय ववहारे जोय ।। इम समुच्चय साधू नमै, कोइक अर्हत् आद। नाम ज जुआ ले नमैं, समफल तसं किम साध?।। करिवू नमण विशेष थी, नाम जू जूआ लेह। अहंत आदि अनंत छ, वाक्य अशक्य कहेह ।। प्रधान न्याय अंगीकरी, करिव जो नमस्कार । तो अनुक्रम सिद्ध आदि नै, नमवू प्रथम उदार ।। कारज करिवा योग्य जे, कोधा सगला सिद्ध । सर्व प्रधानपणां थकी, नमवू प्रथम समृद्ध ।। गुरु भाषै-ए इम नहीं, अहंत उपदेशेह । वर सिद्धां प्रति जाणिय, सम्यक प्रकारपणेह ।। तीर्थ प्रवर्तन करि बली, अहंत ही सुश्रेण । अत्यंत उपकारक थकी, तसं धुर नमण क्रमेण ।। जो इम छै तो क्रम हई, आचार्यादि उदार। किणहिक काले केवली, हवै विच्छेद जिवार ।। गणपति ना उपदेश करि, अहंत आदि प्रतेह । सम्यक् प्रकारे जाणिय, तसं धुर नमवू लेह ।। इह कारण थी गणपति, तेह भविक नै हीज। अत्यंत उपकारी अछ, तसं धुर नमण कहीज ।। १५३. १५४. १५३. कर्तव्यो विशेषतोऽसौ, प्रतिव्यक्ति तु नासौ वाच्योऽशक्यत्वादेवेति। (वृ०-५०५) १५४, १५५. ननु यथाप्रधानन्यायमङ्गीकृत्य सिद्धादिरानु पूर्वी युक्ताऽत्र, सिद्धानां सर्वथा कृतकृत्यत्वेन सर्वप्रधानत्वात्। (वृ०-५० ५) १५५. १५६. १५६, १५७. नैवम्, अहंदुपदेशेन सिद्धानां ज्ञायमानत्वादह तामेव च तीर्थप्रवर्त्तनेनात्यन्तोपकारित्वादित्यर्हदादिरेव सा। (वृ०-५०५) १५७. १५८. १५८-१६०. नन्वेवमाचार्यादि: सा प्राप्नोति, क्वचित्काले आचार्येभ्यः सकाशादर्हदादीनां ज्ञायमानत्वात्, अतएव च तेपामेवात्यन्तोपकारित्वात्। १. अर्हत् आदि। १८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education Intermational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१-१६३. नैवम्, आचार्याणामुपदेशदानसामर्थ्यमर्हदुपदेशत एव, न हि स्वतन्त्रा आचार्यादय उपदेशतोऽर्थज्ञापकत्वं प्रतिपद्यन्ते। (वृ०-प०५) १६४. अतोऽर्हन्त एव परमार्थेन सर्वार्थज्ञापकाः । (वृ०-५०५) १६५, १६६. तथा अर्हत्परिषद्पा एवाचार्यादयोऽतस्तान् __ नमस्कृत्याहन्नमस्करणमयुक्तम्। (पृ०-५०५) १६७. 'ण य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणवए रन्नोत्ति' (वृ०-प०५) गुरु भाषै-ए इम नहीं, अर्हत् नी पर ताहि । आचारज उपदेश प्रति, देवा सामर्थ्य नाहि ।। अहंत ना उपदेश थी, गणपति दै उपदेश । पिण स्व-बस थी नहि दिय, जे छद्मस्थ अशेष। १६३. अर्हत ना उपदेश थी, आचार्यादिक जेह । अर्थ प्रते जाण कहै, देश अर्थ प्रति तेह ।। १६४. केवलज्ञानी छै तिके, परमार्थे करि तेह । सर्व अर्थ जाणे सही, स्व आधीनपणेह॥ भावे तीर्थकर तणी, परपद रूप पिछाण । आचार्यादिक संत सहु, जिन मुख आगल जाण ।। तिण सं धुर आचार्य नै, नमण करी नै ताहि। पछै नमैं अरिहंत ने, अयूक्त ते जग मांहि ।। धर परषद् प्रति नमण करि, पाछै प्रणमै राय। लोक विषै पिण एहवी, रीति न दीस काय ।। इह कारण थी आदि में, अहंत नैज उदार। नमस्कार ते युवत छ, पंच पदां ने सार ।। वा०--इम प्रथम परमेष्ठि नै नमस्कार करी नै, हिवं लोक नै अत्यंत उपकारी श्रुत ज्ञान तेहनों जे देश भावे लिपिछै ते भावे लिपि नै नमस्कार, अथवा लिपि ना कर्ता ऋषभदेव, तेहन नमस्कार करिवू ते कहै छ। १६६. नमो बंभीए लिवीए, लिपि-कर्ता नाभेय । चरण-सहितधरजिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ।। पाथा ना कर्ता भणी, पाथौ कहिये ताहि । एवंभूतनय नै मते, अनुयोगदुवार रै मांहि ॥ १७१ अथवा लिपि ते भावलिपि, जे मुनि नै आधार । नमस्कार छै तेहन, एहवू दीस सार।। १७२. तीर्थ नाम जिम सूत्र नों, ते संघ ने आधार । तिण सं संघ नै तीर्थ का तिम भावे लिपि सार ।। वत्तिकार द्रव्य लिपि कही, ते लिपि छै गुण-शन्य । नमस्कार तेहने करी, ते तो बात जबून्य' ।। १६६. नमो बंभीए लिवीए। (श० ११२) १. टीकाकार ने यहां ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है, पर जयाचार्य ने अपनी स्वतंत्र तर्क-शक्ति का उपयोग कर 'ब्राह्मी लिपि' इस शब्द से लिपि कर्ता नाभेय-ऋषभदेव का ग्रहण कर उन्हीं को नमस्कार किया है। २. तीन शब्द नयशब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय के अनुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाला व्यक्ति प्रस्थक कहलाता है अथवा जिसके द्वारा प्रस्थकाधिकार को जानने वाले के उपयोग.....चैतन्य-व्यापार से प्रस्थक निष्पन्न होता है, वह प्रस्थक कहलाता है। [अनुयोगद्वार सूत्र ५५५] ३. निकृष्ट। श०१, उ०१, ढा०१ १६ Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य निक्षेपो गुण-रहित, वंदन योग्य न ताम। समवायंगे देख लो, द्रव्य भाव जिन नाम ।। १७५. भरत एरवत क्षेत्र नां, अनागत जिन राय। चउवीसी नां नाम पिण, वंदे पाठ न ताय ।। बलि एरबत क्षेत्र नी, चउबीसी वर्तमान । ठांम ठांम वंदे कह्यो, ए गुण-सहित सुजान ।। १७७. वर्तमान चउबीसी ए, भरत क्षेत्र नी ताहि । ठांम ठाम वंदे कह्यो, जोवो लोगस्स मांहि ।। १७८. ते माटै द्रव्य लिपि भणी, द्रव्य सुत्र नै सोय । नमस्कार किम कीजिय, हिये विमासी जोय ।। १७६. वत्तिकार द्रव्य लिपि भणी, थाप्यो छै नमस्कार। सूत्र थकी मिलतो नथी, तेह अर्थ अवधार' ।। वाल-तथा पाना में जे लिख्या ते अक्षर-आकार वंदनीक माने तो अठारह लिपि मध्ये जेतला पुस्तक लिख्या ते सर्व संज्ञाक्षर वंदनीक थास्यै । कुराण, पुराण, वेद, जोतिष, वैदक, विकथा, वार्ता, मंत्र, यंत्र, तंत्र, कोक, सामुद्रक २६ पापश्रुत अक्षर-स्थापना माटै सर्व वंदनीक थास्यै । जेहन श्री वीत राग पापश्रुत कह्या छ। पिण द्रव्य लिपि वांद, तेहन ते वंदनीक थास्य, तेहनै वांदता किम नथी? पापश्रुत किम कहो छो? विचारी जोयजो । श्रीमान् ऋषभ जिन निज पुत्री ब्राह्मी नै दक्षिण हस्त करिके अष्टादश लिपि देखाड़ी ते मारी बाह्मी लिपि कही। इहां शिष्य प्रेरणा करै छैननु अधिकृत शास्त्रहीज मंगलीक छ, ते मंगलपणा थकी नवा मंगल करिक स्यूं प्रयोजन? कीधां न जे करिवू तेहनै अनवस्थादि दोष प्राप्ति हुदै ते माट--जद गुरु कहै सत्य, किंतु शिष्य नी मति नै मंगल ग्रहण नै अर्थ नवा मंगल नों उपादान । वली शिष्ट आचार पालण नै अर्थे। इहां वलि ए शास्त्र नां अभिधेय आदि सामान्य करिके तो 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' इण नामै करिके हीज कह्या। इण हेतु थकी तेनुं वली कहि अपेक्षित नहीं। वा-लिपि:---पुस्तकादावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दशिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते, आह च-- लेह लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं इत्यतो ब्राह्मीतिस्वरूपविशेषणं लिपेरिति । ननु अधिकृतशास्त्रस्यैव मंगलत्वात् किं मंगलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः, सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थ मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति। अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति नाम्नवोक्ता इति ते पुनर्नोच्यन्ते तत एव श्रोतृ १. टीकाकार अभयदेवमूरि का अभिमत है कि इस युग के व्यक्ति श्रुत ज्ञान से ही लाभान्वित हो सकते हैं। श्रुतज्ञान के दो रूप हैं-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । इनमें मूल तत्त्व भावश्रुत ही है, पर वह द्रव्यश्रुत हेतुक है, इसलिए उन्होंने संज्ञाक्षर-रूप द्रव्यश्रुत को नमस्कार किया है। २. लिपि का अर्थ है पुस्तक आदि में अक्षर-विन्यास । इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को सर्वप्रथम लिपि का बोध दिया, इसलिए वह ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हो गई। उस ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार हैं--ब्राह्मी, यवनानिका, दोषपूरिका, खरोष्टिका, खरसाहिया, प्रभाराजिका, उच्चतरिका, अक्षरपुष्टिका, भोगवती, वैनयिकी, निह्नविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्श लिपि, माहेश्वरी, द्राविड़ी और पौलिन्दी। (समवाओ १८१५) ३. शिष्य को मंगल की प्रतीति कराने के लिए और शिष्ट जनसम्मत व्यवहार का पालन करने के लिए यहां मंगल का उपादान है, यह पहले कहा जा चुका है। २० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०. १८१. १८२. १८३. व्याख्याप्रज्ञप्ति ए नाम संभालवा थीज श्रोता एमां प्रवृत्त हुवै अने एमने इष्टफल की सिद्धि हुवै। ति प्रकार करिकै इण ग्रंथ नैं विषै भगवान् अर्थ थी कहिवा योग्य अरथ - अभिधेय कह्या, ते सांभलवा वाला ने अनंतर अन परंपर ए बे फल हुवै । तिहां अनन्तर फल ते साक्षात् फल तेहनी परूपणा अन तेहनों जाणपणो ए तो अनंतर फल कह्यो । अनैं परंपर फल ते मोक्ष । ते मोक्ष नुं फल ए ग्रंथ नैं विषै भगवंत ना वचन है ते थकीज मोक्ष नां फल नीं सिद्धि । आप्त ते भगवान् साक्षात अथवा परंपरा करिकै मोक्ष नां अंग नहीं है तो तेह्नों प्रतिपादन करें ज नहीं । अनाप्तपणा नां प्रसंग थकी । आप्तपणा नां अभाव नां प्रसंग थकी।' ते इम ए शास्त्र एक श्रुतस्कंध रूप (१), तेहनां एक सय अड़तीस अध्ययन (२), दस हजार उद्देशा ( ३ ), ३६ हजार प्रश्न परिमाण (४), २ लाख ८८ हजार प्रमाण पद राशि ( ५ ) - ए पांच विशेषण वालो भगवती शास्त्र तिणरै मंगलादिक च्यारे ही दिखाया । अथ प्रथम शतक - (अध्ययन), तेहना दश उद्देशा हुवै । उद्देशा एटले ते अध्ययन ना विभाग छँ उपधान विधि ( तप - विशेष) करिकै शिष्य नै आचार्य उद्देशियँ—'एतलुं अध्ययन नुं विभाग तूं भण', इम उद्देशिय तेहीज उद्देशगा । वलितेने प्रते सुखे धारवा अनैं संभारिवादिक नैं निमित्ते एमना आदि-आदि संग्रहणी गाथा कहै छै । राजगृह इत्यादि... यद्यपि आगल कहिस्यै ते दश उद्देशा नै विषै अर्थ कह्या ते जाणं छतै ए गाथा नो अर्थ तो स्वयमेव जाणियै तो पिण बाल नै सुख जाणवा नै अर्थ ए कहियै छँ रायगिहे कहितां छतां, नगर राजगृह प्रथम उद्देशक नों अरथ, वीर देखाड्यो चरणविषय उद्देश घर चलमाणे अर्थ तथा निर्णय कृते प्रश्नोत्तर मांहि । ताहि ॥ इत्यादि । संत्रादि ॥ द्वितीय उद्देशक दुख विषय, जीव अहो भगवत । स्वयंकृत दुख वैदि इत्यादि वेदिये, इत्यादि प्रश्न उदंत ॥ कंख-पओस कांक्ष कक्ष ते मिया मोह उदयेह वांछा अन्य अन्य मततणी, जीव परिणामज एह् ॥ 1 १. यहां भगवान् ने व्याख्याप्रज्ञप्ति - अर्थ की व्याख्या का प्ररूपण अभिधेय के रूप में किया है। उसका अनन्तर फल है— अर्थ की प्रज्ञापना और बोध और उसका परंपर फल है-मोक्ष । वह मोक्ष रूप फल व्याख्या - प्रज्ञप्ति के आप्त-वचन होने के कारण ही है, क्योंकि आप्त पुरुष उस तत्त्व का प्रतिपादन नहीं करते जो साक्षात् या परम्परा से मोक्ष का अंग न हो। अन्यथा उनके अनाप्त होने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। यहां वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध है। इस प्रकार आप्त वचन और उसका फल मोक्ष -- इनका सम्बन्ध द्योतित करना ही इस शास्त्र का प्रयोजन है । प्रवृत्त्यादीष्टफलसिद्धेः तथाहि इह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः, तासां च प्रज्ञापना बोधो वाऽनन्तरफलं, परम्परफलं तु मोक्षः, स चास्याऽऽप्तवचनत्वादेव फलनया सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन्न मोक्षां तत्प्रतिपादतिमुत्सहते अनतत्वप्रसंगात् तथाऽयमेव सम्बन्धो यदुतास्येदं शास्त्रस्येदं प्रयोजनमिति । तदेवमस्य शास्त्रस्यैकथुतसातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य उद्देशकदशसहस्री (१००००) प्रमाणस्य शिप्रश्नसह (२६०००) परिमाणस्य अष्टाशीसहस्राधि (२८८०००) प्रमाणपदराशे मंगलादीनि दर्शितानि । अथ प्रथमे शते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाध्ययने दशोदेशका भवन्ति, उद्देश काय अध्ययनार्थदेशाभिधाउद्देशकाश्चयिनोऽध्ययनविभागाः, उद्दिश्यन्ते उपधानविधिना शिष्यस्याचार्येण यथा--- एतावन्तमध्ययनभागमधीष्वेस्वास्एवोका, तांश्च बधरणस्मरणादिनिमित्तमायाभिषेवाभिधानद्वारेण संग्रहीतुम ( वृति-प०५) गाथामाह- १८०. रायगिहेत्ति ११.ति चलनविषयः प्रथमक: समा चलिए' इत्यानिर्णपार्थः । (90702) १८२. 'दुक्खे' त्ति दुःखविषयो द्वितीयः 'जीवो' भदन्त । स्वयंदुःखं वेदयतीत्यादिना पत्र ६) कांक्षा -- मिथ्यात्वमोहनीयोदय१८३. 'कंखपओसे' त्ति मुल्ययाम्यदर्शनहरू परिणामः । ( वृ००६) श० १, उ० १, डा० १ २१. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४. १८५. तेहिज प्रकृष्ट दोष जे, जीव प्रदूषण तेह। कांक्षा-प्रदोष' तसं कह्य', तास विषय पभणेह ।। जीव अहो भगवंत जी, कांक्षा मोहनी कर्म । कोध इत्यादिक अर्थ, निर्णय तृतीय सुपर्म ।। चतुर्थ कर्म-प्रकृति नं, कितली पुढवी ख्यात। इत्यादिक जे अर्थ नु, निर्णय पंचम आत ।। १८६. १८४. स एव प्रकृष्टो दोषो-जीवदूषणं कांक्षाप्रदोषस्तद्विष यस्तृतीयः। १८५. 'जीवेन भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म कृतमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः ३, (वृ०-प०६) १८६. प्रकृतयः-कर्मभेदाश्चतुर्थोद्देशकस्यार्थः, कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः? इत्यादिश्चासौ ४, 'पुढवीओ' त्ति रत्नप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमे वाच्याः । (वृ०-५०६) १८७. 'जावते' त्ति यावच्छब्दोपलक्षितः षष्ठः 'यावतो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ ६, १८७. जावते प्रभु जेतला, अवकाशांतर ऊगतो रवि प्रमुख ही, पप्ट मुद्देश थीज । कहीज॥ १८८. नारक हे भगवंत जी! नरक विषेज निहाल । ऊपजता इत्यादि जे, सप्तमद्देशक भाल ।। १८८. 'नेरइए' त्ति नै रयिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः 'नरयिको भदन्त ! निरये उत्पद्यमान' इत्यादि च तत्सूत्रं ७ । १८६ अष्टम एकांत बाल नु, जीव गुरु किम होय। चलणादि अन्य तीर्थ मत, दशम उद्देशे जोय ।। १८६. 'बाले' त्ति बालशब्दोपलक्षितोऽष्टमः एकान्तबालो भदन्त ! मनुष्य इत्यादिसूत्रश्चासौ ८, 'गुरुए' त्ति गुरुकविषयो नवमः कथं भदन्त ! जीवा गुरुकत्वमागच्छन्ति ? 'चलणाओ' त्ति बहुवचननिशाच्चलनाद्यादशमोद्देशकस्याः । (वृ०-५०६) वा०.-'अन्ययूथिका भदन्त ! एवमाख्यान्ति-चलद् अचलितमित्यादीति' प्रथमशतोद्देशकसंग्रहणिगाथार्थः तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमंगलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मंगलमाह (वृ०-५०६) १६०. नमो सुयस्स (श०१३) वा०---चलमाणे अचलिए चलवा लागो तेहनै चलियो न कहिणो इत्यादिक अन्यतीथिक नां मत नी वक्तव्यता गौतम पूछ दशमा उद्देशा नै विषै-ए प्रथम शतक ना दश उद्देशां नी संग्रहणी गाथा नों अर्थ कह्यो ते इम शास्त्र उद्देश ने विष मंगलादि कार्य कीधो तो पिण प्रथम शतक नां आदि नै विष विशेष थी मंगल कहै छ१६०. नमोश्रुत ते भावथुत, चरणयुक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ।। वा०-इहाँ कोई कहै श्रुतज्ञान नै नमस्कार कीधै तेहनै विर्ष भाव लिपि पिण आय गई, तो पूर्वे भाव लिपि नै नमस्कार कीधो तेहनों स्यू कारण ? 'नमो बंभीए लिवीए' अनै 'नमो सुयस्स' ए बे पद किम कह्या? तेहनों उत्तर-दशवैकालिक अध्येन ८।४० में कह्यो 'कुम्मोव्व अल्लीणपलीण गुत्तो'--काछवा नी पर आल्लीण ते ईषत् गुप्त , प्रलीन ते प्रकृष्टलीन—घणुं गुप्त । इहां बे पद कह्या । तथा दशकालिक अध्ययन ४ कह्यो-पृथ्वीकाय ऊपर 'न आलिहेज्जा' कहिता थोड़ो सो अथवा एक बार लिख नहीं, 'न विलिहेज्जा' कहितां बहु बार लिखै १. जीव को दूषित करने वाला प्रकृष्ट दोष कांक्षा-प्रदोष है। २. नमो बंभीए लिवीए और नमो सुयस्स-इन दोनों पाठों का जयाचार्य ने अपनी ताकिक बुद्धि से समन्वय किया है। उनके अनुसार लिपि और श्रुत दोनों ही भावश्रुत हैं। 'ब्राह्मी लिपि' शब्द देशतः भावभुत और श्रुत शब्द से सर्वतः भावश्रुत का ज्ञापक है। यहां प्रश्न उठ सकता है कि ब्राह्मी लिपि और श्रुत दोनों ही भावश्रुत के प्रतीक हैं, तो फिर दो पृथक् सूत्र बनाए ही क्यों? इस प्रश्न के समाधान में दोनों शब्दों की सार्थकता ज्ञापित करने के लिए जयाचार्य ने दशवकालिक, उत्तराध्ययन वृहत्कल्प आदि आगमों के अनेक उद्धरण काम में लिये हैं । (देखें १२१६० की वात्तिका) २२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं । इहां पिण वे पद कह्या। तथा उत्तराध्येन अ० ११२१ 'आलवंते लवंते वा न निसिएज्ज कयाइवि' गुरुइं आलवते कहितां एक बार बोलाव्यो वा-अथवा लवते वा कहितां बार बार बोलाव्यो तो शिष्य बैठो रहै नहीं। इहां पिण बे पद कह्या। तथा उत्तराध्येन अ० १११५ 'नासीले न विसीले' नासीले कहितां सर्वथा चारित्र नीं विराधना नथी, विसीले कहितां देश थकी चारित्र नी विराधना नथी। इहा पिण देश अनै सर्व ए बे पद कह्या । तथा बृहत्कल्प उ०३ बोल २१ अंतघर नै विष साधु नै न कल्पै निदाइत्तए वा कहितां थोड़ी नींद लेवी, पयला इत्तए वा कहितां विशेष ऊंघवो। इहां पिण बे पद कह्या । इत्यादिक अनेक ठांमें बे-बे पद कह्या । तिम इहां पिण बे पद जाणवा। लिपि शब्द भाव लिपि ते देश थकी श्रुत ज्ञान। अनै नमो सुयस्स ते सर्वश्रुत ज्ञान कह्यो तथा लिपि ना कर्ता ऋषभदेव नै लिपिक कहिये । ते चारित्रयुक्त प्रथम जिन नै नमस्कार। इहां वृत्तिकार का अरिहंत पिण तीर्थ नै नमस्कार कर ते अर्थ सूत्र सूं मिलतो नथी। वलि जे कहै छद्मस्थ तीर्थकर साधु नै नमस्कार नथी करै तो केवल उपना पछ तीर्थ नै नमस्कार किम करै । तथा आचारांग श्रु०२ अ०१५३२ में सिद्धां नै नमस्कार करी महावीर स्वामी दीक्षा लीधी एह कह्य, पिण तीर्थ नै नमस्कार करी दीक्षा लीधी एहवं नथी कह्य । छदमस्थपणे दीक्षा लेतां तथा लियां पछै सिद्धां ने नमस्कार कर पण तीर्थ नै न करै, तिमहीज केवल ऊपनां पछै सिद्धां नै नमस्कार करै पिण तीर्थ नै न कर, न्याय विचारी जोइज्यो।' इम प्रथम शतक ना दश उद्देशां नै विष कहिवा योग्य जे अर्थ ते लेश थकी पूर्वे देखाड यो हिवै 'यथोद्देशं निर्देशः' इण न्याय आश्रयी नै पहिला प्रथम उद्देशक नां अर्थ विस्तार थकी कहिवा प्रथम उद्देशकार्थ विस्तार नै गुरु परंपरागत संबंध देखाड़ते छते भगवान् सुधर्म स्वामी जंबू स्वामी प्रति इम कहै छै---'तेणं कालेणं तेणं समएण' इत्यादि । अथ किण प्रकार करिकै इम जाणिय-सुधर्म स्वामी जंबू स्वामी ने लक्ष्य करी नै ए ग्रन्थ नी रचना कीधी? सुधर्म स्वामी नी वाचना नों अनुवर्तीज ए ग्रन्थ छै, ते माटै । कह्यो पिण छै तीर्थ गणधर सुधर्मा थी ज चाल्यो, शेष गणधरों नी परम्परा नथी चाली। सुधर्म स्वामी रै जंवू स्वामीहीज प्रधान शिष्य, इण कारण थकी ते जंवू प्रति आश्रयी नै ए वाचना नी प्रवृत्ति करी। तथा छठा अंग नै विर्ष एहवो उपोद्घात एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः प्राग्दशितः, ततश्च यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्यादित: प्रथमोद्देशकार्थप्रपञ्चो वाच्यः, तस्य च गुरुपर्वक्रमलक्षणं सम्बन्धमुपदर्शयन् भगवान् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाथित्येदमाह । अथ कथमिदमवसीयते-यदुत सुधर्मस्वामीजम्बूस्वामिनमभि सम्बन्धग्रन्थमुक्तवानिति ? उच्यते, सुधर्मस्वामिवाचनाया एवानुवृत्तत्वात्, आहच'तित्थं च सुहम्माओ निरवच्चा गणहरा सेसा' सुधर्मस्वामिनश्च जम्बूस्वाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्यय वाचना प्रवृत्तेति, तथा षष्ठांगे उपोद्घात एवं दृश्यतेयथा किल मुधर्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह-"जइ १. वृत्तिकार ने इस संदर्भ में एक प्रश्न उठाया है—मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार होता है। श्रुत इष्ट देवता नहीं है, इस स्थिति में उसे नमस्कार क्यों? वृत्तिकार के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रुत इष्ट देवता ही है, क्योंकि अर्हतों ने भी उसे नमस्कार किया है सिद्धों की भांति । अर्हत् श्रुत को नमस्कार करते हैं, इस तथ्य की पुष्टि 'नमस्तीर्थाय' इस वाक्य से होती है। यहां तीर्थ का अर्थ श्रुत है, क्योंकि वह संसार-सागर से पार पहुंचने का असाधारण कारण है। श्रुत का आधार होने से ही संघ को तीर्थ शब्द से अभिहित किया गया है। अर्हत् मंगल के लिए सिद्धों को नमस्कार करते ही हैं । इस प्रकार वृत्तिकार ने श्रुत को इष्ट देवता के रूप में प्रमाणित किया है और अर्हत् के द्वारा भी तीर्थ को नमस्कार करवाया है। जयाचार्य वृत्तिकार के इस मत से अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। श०१, उ० १, ढा० १ २३ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छै-भते ! जो पांचमा अंग विवाहपण्यत्ति नों श्रमण भगवान् महावीरे ए अर्थ कह्य तो छठा अंग नों भंते ! स्यं अर्थ प्ररूपियो? ते इम इहां पिण सुधा स्वामी जंवू नाम थकीज उपोद्घात अवश्य का एम जणाय छै। बलि ए उपोद्घात-ग्रंथ मूल टीकाकार समस्त शास्त्र आश्रयी नै कह्यो पिण अम्है प्रथम उद्देशक आश्रयी नै कहियै छ। शतक-शतक प्रति उद्देशक-उद्देशक प्रति उपोद्धात नै इण शास्त्र में विपै अनेक प्रकार कहिवा णं भंते ! पंचमरस अंगस्स विवाहपन्नत्तीए समणेणं भगवया महावीरेणं अयमढे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! के अढे पन्नत्ते त्ति। तत एवमिहापि सुधर्मंव जम्बूनामानं प्रत्युपोद्घातमवश्यमभिहितबानित्यवसीयत इति । अयं चोपोद्घातग्रंथो मूलटीकाकृता समस्त शास्त्रमाश्रित्य व्याख्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोद्देशकमाश्रित्य व्याख्यास्यते। प्रतिशत प्रत्युद्देशकमुपोद्घातस्येह शास्त्रेऽनेकधाभिधानादिति । थकी। १६१. सोरठा नमस्कारादिक ताहि, रचना पूर्व कही तिका। मूल-वृत्ति रै माहि, न कहि किण कारण थको । १६१. अयं च प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वत्ति कृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । १६२. ब्राह्मी लिपि नमस्कार, मूल वृत्ति में ना किया। तास न्याय जे सार, बुद्धिवंत हिये विचारजो।। वा०-तेणं कालेणं ति । ते इति प्राकृत शैली ना वश थकी सप्तमी विभक्ति नो एकवचन हुई। अनैं संस्कृते सप्तमी नै एकवचने तस्मिन हई। णं शब्द छै तिको वाक्यालकार नै अर्थ जाण वो। काले कहिता अधिकृत अवसप्पिणी चतुर्थ अरा रूप विभाग लक्षण नै विष। तेण समएणं ति ते समय-जे समय भगवान् धर्मकथा कहिता हुता, एतलै काल नो हीज विशिष्ट विभाग, तेहन समय कहिये । अथवा तेणं कालेणं तेणं समाएणं ए च्यारूं स्थानके तीजी विभक्ति नो एकवचन हीज हुई । तेन कालेन पूर्वोक्त ते काल हेतुभूत करिक तेन समयेन पूर्वोक्त ते समय हेतुभूत करिके हीज रायगिहे नाम नगरे--कहितां राजगह नामे नगर, इहां एकार प्रथमा विभक्ति ने एकवचन, पिण सप्तमी नो एक वचन नहीं। जिम 'कयरे आगच्छइ दित्तरुवे' इत्यादिवत् । ते भणी राजगृहं नाम नगरं । होत्था कहिता हुतो। ननु हिवड़ा पिण ते नगर छ। एतलै सुधर्म स्वामी नै वाचनादान काले पिण ते नगर छ। इण कारण थकी ते नगर हुतो इम किम का ? एहनो उत्तर ----वर्णक ग्रंथोक्त राजगृह जेहवो विभूतियुक्त हुतो तेवो सुधर्म स्वामी जंबु प्रति वाचनादान काले नथी। अबसप्पिणी नां भाव थकी-काल नै ते सुभ भाव नी हानि नां भाव थकी। ते माटै राजगृह नाम नगर हुँतो एहवू का । वष्णओ कहितां इण स्थानके नगर नं वर्णक कहि । ग्रंथ नां विस्तार रा भय थकी मल पाठ मां वर्णक लिख्यो नथी। ते इम-रिद्धस्थिमियसमिद्धे... वा० ते इति-प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन् यत्र तन्नगरमासीत्, णकारोऽवाक्यालङ्कारार्थो 'काले' अधिकृतावसप्पिणीचतुर्थविभागलक्षण इति, 'ते णं' ति तस्मिन् यत्रासौ भगवान् धर्मकथामकरोत् 'समए णं' ति समये कालस्यैव विशिष्ट विभागे। अथवा तृतीयैवयं, ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'रायगिहे'त्ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभवः ‘कयरे आगच्छइ दित्तरूवे' इत्यादाविव, ततश्च राजगृहं नाम नगरं होत्थ' त्ति अभवत् । नन्विदानीमपि तन्नगरमस्तीत्यतः कथमुक्तमभवदिति ? उच्यते, वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । 'वन्नओ' ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, ग्रन्थगौरवभयादिह तस्यालिखितत्वात्, स चैवम्--"रिद्धस्थिभियसमिद्धे । १. भगवती सूत्र की वर्तमान टीका अभयदेवसूरि की है। टीकाकार अभयदेवसूरि कह रहे है कि इस प्राग् व्याख्यात नमस्कार आदिक ग्रन्थ णमो अरहताणं... णमो बंभीए लिवीए णमो सुयस्स की मूल टीकाकार ने व्याख्या नहीं की है। इसका कारण अज्ञात है। संभव है, उक्त पाठ इस ग्रन्थ में मूलतः नहीं थे। प्रथम टीकाकार के समय तक भी वे नहीं थे। बाद में प्रक्षिप्त हुए है। यह प्रक्षेप कब हुआ और वे मूल टीकाकार कौन थे? इनका नाम अज्ञात है। २४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिद्ध ते पुर-भवनादि करिक बढ़यो-चढ़यो, थिमिय कहितां स्थिर, स्वचक्र परचक्रादि भयवजितपणा थकी। समिद्धे कहितां समृद्ध-धन-धान्यादि विभूतियुक्त-पणा थकी। पमुइयजणजाणवए। पमुइय कहितां प्रमोदवंत-हरषवंत प्रमोद-कारण वस्तु ना सद्भाव थकी। जण कहितां जन नगर ना बसवा वाला लोक अन जाणवए कहितां जनपद-देश के विष ऊपनां ते जानपदा देश नै विष रहै तिकै लोक, एतलै नगरवासी लोक पिण प्रमोदवंत हरषवंत लोक छ । अनै देश वासी लोक पिण ते राजगृह नै विष आया छतां प्रमोदवंत हरषवंत हुदै । इत्यादिक वर्णक उववाई सूत्र थकी जाणवू । ऋद्धं—पुरभवनादिभिवृद्धं स्तिमितं-स्थिरं स्वचक्रपरचक्रादिभयजितत्वात् समृद्धं–धनधान्यादिविभूतियुक्तत्वात्, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, पमुइयजणजाणवए' प्रमुदिता-हृष्टा: प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावाज्जना--नगरवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र तत् प्रमुदितजनजानपदमित्यादिरौपपातिकात् सव्याख्यानोऽत्र दृश्यः । (वृ०-५०७) *नमो प्रभ महावीरं, नमो शासन-तिलक सधीरं। तन मन करि तसु वचन आराध्यां, अविचल शिव-सुख सीरं । गुणिजन। नमो प्रभू महावीरं । (ध्रुपदं ) १६३. तिण काल तिण समयै हतो, नगर राजगह नाम । प्रथम उपांगे चम्पा-वर्णक, तिम कहि अभिरामं ।। १६४. नगर राजगृह थकोज वाहर, उत्तर पूर्व विषे हो। दिशि ते गगन-मंडल नो भाग ज ते दिग्भाग सुलेहो।। १६३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्थावण्णओ। (श० ११४) १६४, १६५. तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे गुणसिलए नामं चेइए होत्था। (श० ११५) 'दिसीभाए' ति दिशां भागो दिग्रुपो वा भागो गगनमण्डलस्य दिग्भागस्तत्र। (वृ०प०७) १६६. सेणिए राया, चिल्लणा देवी। (श० १०६) १६५. अथवा जे दिग् रूप गगन-मंडल ना भाग विषेहो। कूण ईशाणे गुणसिल नामे, चैत्य हुँतो शुभ रहो।। तेह नगर नों श्रेणिक राजा, राज करै वर रीत । तास चेलणा राणी जाणी, आपस में अति प्रीतं ।। तिण काले तिण समय विर्ष जे, श्रमण तपस्वी साचा । वा सोभन मन सहितज वत्तै, समन प्रभूजी जाचा ।। १६७. १६८. अथवा संकहिता जे मिलतो', अणति - भाख जेहो। वा सहभूत विष सम वत्र्स, समण कहीजै तेहो।। १६७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, अथवा सह शोभनेन मनसा वर्तत इति समनाः। (वृ०-५०७) १६८. संगतं वा यथा भवत्येवमणति-भाषते, समो वा सर्व भूतेषु सन् अणति-अनेकार्थत्वाद्धातूनां प्रवर्तत इति समणः। १९६-२०१. भगवं महावीरे भगवान्--ऐश्वर्यादियुक्तः पूज्य इत्यर्थः, 'महावीरे' त्ति वीरः 'सूर वीर विक्रान्तावि' ति वचनात् रिपुनिराकरणतो विक्रान्तः, स च चक्रवादिरपि स्यादतो विशेष्यते महांश्चासौ दुर्जयान्तररिपुतिरस्करणाद्वीरश्चेतिमहावीरः। (वृ०-५०७) १९३. ऐश्वर्यादियुक्त पूज्य प्रभु, तिण कारण भगवानं । दुर्जय अंतर्-रिपु हावा थो, महावीर अभिधानं ।। २००. सोरठा बीर धातु इम लेह, पराक्रम अर्थे हुई। अरि हणवा थी तेह, चक्रवादिक पिण हुवे ।। *लय-बीस बिहरमाण १. संगत। २. यहां टीकाकार ने 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनाकर उसकी व्याख्या की है। जयाचार्य ने भी उन्हीं तीनों रूपों-श्रमण, समन और समण को अपनी व्याख्या का आधार बनाया है। श०१, उ०१, ढा०१ २५ Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण कारण भी महावीर प्रभु २०२. भय भैरव मुर-कृत नाम २०१. २०३. २०४. २०५. २०६. २०७. २०८. २०६. *वर श्रुत धर्म आचारंगादिक, आदि प्रथम थी ख्यातं । अर्थ प्रणायकपणे करी नं, आदिकरें आख्यात || सोरठा वा०- शील अर्थ को प्रभुनो कहा। संमील, आगल कहिये छँ तिको ।। तीर्थ प्रवचन श्रुत नं कहिये ते संघर्ष आधार तास करण नों शील प्रभु नों, तित्थकरे जिन सारं ॥ -आगम ३ प्रकारे कह्या सूत्रागम १, अर्थागम २, तदुभयागम ३, ते आगम ने तीर्थ कहीजै, केम ? तरै छै संसार-सागर जेह थी, ते तीर्थ- प्रवचन, सूत्रागम । सूत्रागम रूप तीर्थ तो गणधर देव नां गंध्या । अन अर्थागम रूप तीर्थ तीर्थंकर भाषित छ । 'अत्यं भासइ अरहा सुत्तं गथइ गणहरा निउणं ।' इण वचन थकी अर्थागम रूप तीर्थ ना करणहार तीर्थंकर जाणवा । ते संघ थी जुदो नथी । ते माटै संघ नैं तीर्थं कह्यो । ते करिया नूं शील छै जेहनुं ते भणी महावीर मैं तीर्थंकर का । अ महावीरदेव ने तीर्थकरपणुं अन्य उपदेशपूर्वक न वर्तें, कारण थकी आगल कहै -- इण ताम, करो विशेष इहां नाम, दुर्जय अंतर-रिपु-दलन । उवसग्ग, परिसह तेहथी अचल प्रभु । उदग्ग, गुण-निष्पन्न महावीर ए ।। आदि करण नुं किंविध फुन • आत्म करी स्वयमेव स्वामजी अन्य उपदेशे नाहीं । सम्यक् वस्तु रहिस जाणवै, सहसंबुद्ध कहाई ॥ सहसंबुद्धपणुं पुरुषोत्तम * लय-बीस बिहरमाण *रुषों में ते ते रूपादिक गुण करि सखर सुहाया अतिसय करि उत्कृष्ट सर्व थी, पुरिसोत्तम जिनराया ॥ २६ भगवती जी , सोरठा अथ पुरुषोत्तम भाव, सिहादि त्रिण ओपम करि । समर्थन करता साव, कहिये छे ते सांभको। सोरठा ख्यात, प्राकृत पुरुष थकान प्रभु । भावात् इण कारण कहिये हिवं ।। २०२. एतच्च देवैर्भगवतो गौणं नाम कृतं यदाह- अयले भयभेरवाणं खतिखमे परिसहोवसग्गाणं । देवहि से नाम कयं समणे भगवं महावीरेत्ति । ( वृ० प० ७, ८) २०३, २०४. आइगरे आदौ प्रथमतः श्रुतधर्मम् आचारादिप्रत्यात्मकं करोति तदर्थत्रणापकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकर, आदिकरत्वाच्या किविध ? इत्याह (१००) २०५. तित्थगरे तीर्थं — प्रवचनं तदव्यतिरेकाच्चेह संघस्तीर्थं तत्करणशीलत्वात्तीर्थकरः । ( वृ०१०८) बा०--सीकरत्वं चास्य नान्योपवेशपूर्वकमित्यत ( वृ० प० ८ ) आह २०६. सहसंबुद्धे यह आत्मनैव सार्द्धमनयोपदेश इत्यर्थः सम्यबुद्धयोपेक्षणीयवस्तुतत्त्वं विदित (१०-०८) 7 वानिति सहसंबुद्धः । २०७. सहसंबुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्यसतः, पुरुषोत्तमत्वादित्यत आह( वृ०प०८) २०८ पूरित पुराणांमध्ये तेन तेन रूपादिना निरानीतरवादूधर्ववत्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः । ( वृ० प० ८ ) २०६. अथ पुरुषोत्तमत्वमेवास्य सिंहाद्युपमानत्रयेण समर्थ - यन्नाह - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०. २११. २१२. २१३. २१४. २१५. २१६. २१७. २१८. २१६. २२० २२१. "सीह जिसो त सींह कहीजे, पुरुष-सींह इव तामं । पुरुष सींह कहियै इण कारण पुरुष रूप सींह स्वामं ॥ सोरठा जग में जन आख्यात, पराक्रम जे सिंघ विषै । अति ही प्रकृष्ट स्वात शौर्य प्रभु उपमान इम ॥ पराक्रम अधिकेह, बालपण पण अरि अमर । अधिक वधारी देह रायबा लायो तदा ॥ तो पण डरिया नांय, वच कठिन जिम मुष्टि करि । कीधूं प्रहार काय, सुरतनुं संकोभ्यू कुब्ज जिम ॥ * वर प्रधान पुंडरीक धवल फुन, सहस्रपत्र पुरुष तिके वर पुंडरीक जिम, पुश्य प्रवर गीतक छंद वर धवल भावज प्रभु तणुं सहु अशुभ मेल रहीत थी । फुल सर्व शुभ अनुभाव करिके युद्ध भाव सहीत थी । वा भक्तिवंतज पुरुष ने पुंडरीक छत्र तणी परै । संताप आतप मेट कुन विभूषाकारण सिरे ॥ "पुरुष हीज पर गंध गज ए, जिम गंध हस्तो गंधेन । सकल अन्य गज भाजै तिमहिज, ईति प्रमुख टिकै न ॥ रमणीकं । पुंडरीकं ।। सोरठा प्रभु विचरं जिण देश, दुर्भिक्ष पर चक्र कुन डमर । न्हा विघ्न अशेष, पुरुष प्रवर गंध गज प्रभु ॥ * इण कारण एत्रिण ओपम थी, पुरुषोत्तम प्रभु एहो । केवल पुरुष विषैज न उत्तम, उत्तम लोक विषेहो || सोरठा उत्तम लोक विषेह, नाथपणा थी स्वामजी । इण कारण थी एह, आगल कहिये छे हिवै ॥ "संज्ञि भव्य लोक ना नाथज, लोक नाथ कहिदाया। नाथपणो ते योगक्षेम ना, करणहार जिनराया || सहरमा * लय१. श्रेष्ठ । २. राष्ट्र का भीतरी या बाह्य विप्लव । २१०. पुरिससी सिंह इव सिंहः पुरुषस्वाति पुरुषः (बु०प०८) २११-२१३. लोहितप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्य तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाग्यमानस्याप्यनीतत्वात् कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रतिप्रवर्द्धमानामरशरी रकुब्जताकरणाच्चेति । (बु०प०८) २१४ पुरिसवरपडए वरपुण्डरीकं- प्रधानधवल सहस्रपत्रं पुरुष एव वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषवरपुण्डरीकं । ( वृ०-५०८) २१. धत्वं चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वेश्च शुभानुभावैः शुद्धात्। ( वृ००८) २१६. अथवा पुरुषाणां -- तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिवभः सन्तापातपनिवारणसमर्थत्वात् भूकारणत्वाच्च स पुरुषवरपुण्डरीकमिति (वृ००८) २१७. विधत्थी पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनापि समस्तेत रहस्तिनो भव्यन्ते । ( वृ० प०८) २१८. भगवतस्तद्देशविहरणेन इति परचक्रदुर्भिक्षडमरमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति पुरुषवरगंधहस्तीत्युच्यते । ( वृ०म० ८) २१६, २२०. लोगुत्तमे इत्यत उपमात्रयात्पुरुषोत्तमोऽसौ । न चायं पुरुषोत्तम एव, किन्तु लोकस्याप्युत्तमो, लोकनाथत्वाद् । (२००८) २२१. सोना लोकस्य सञ्ज्ञिभव्यलोकस्य नाथ:---! नाथत्वं च योगक्षेमकारित्वं । - प्रभुर्लोकनाथः, (बु०प०८) श० १, उ० १, डा० १ २७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२. २२३. २२४. २२५ २२६. २२७ २२८. २२. २३०. सम्यक दर्शन मेलण योग २८ लाधा जे कहियै 'क्षेम' वा०- - इहां वृत्ति में सन्नी पंचेंद्रिय नैं योग-क्षेम करिखूं तेहने नाथ कह्यं । विशिष्टपण ए नाथ जाणवूं । अनैं उत्तराध्येन अध्येन २०१३५ का ततोहं नाहो जाओ, अप्पणी य परस्स य । सर्व्वेस चेव भूयाणं तसाणं थावराण य ॥ sai को दीक्षा लियां पछँ हूं आपणी आत्मा नो अने पर आत्मा नो अने सर्व जीव त्रस स्थावर नों नाथ थयो । ते कोई जीव नैं दुख न दियै भय न उपजावै ते माटे नाथ कह्यो । 1 लोकनाथ नों भाव, यथा अवस्थित सकल वस्तु- । स्तोम दोपन भी साथ इण कारण थी हिंद कहूं ॥ * लोक विशिष्ट तिरिक्ख नर सुर नैं, अंतर्-तिमिर अंधारो । निराकरण करि अति प्रकाशकारी, दीपक जिम प्रभु सारो ॥ एह विशेषण देखण योग्यज सोरठा आदि, अगामी वस्तू तणो । संवादि, प्रवर पमाडे 'जोग' ते ॥ ज्ञानादि, रक्षा करवी तेहनी । संवादि, इह विध आख्यूं वृत्ति में ॥ *लोकालोक सर्व वस्तु ने रवि मंडल जिम जेहो । निखिल भाव अवभासन समरथ, लोक प्रद्योत करेहो ॥ वा०—केवल-आलोकपूर्वक प्रवचन प्रभा-पटल प्रवर्त्तवै करी प्रद्योत - प्रकाश करें एहोशील ते लोकप्रयोतकर। 1 इम अर्थ सोरठा उक्त विशेषण एह, रवि हरि शिव ब्रह्मा प्रमुख तसं तीर्थपतेह, क विशेषज एहनूं ॥ आसक विषेह जिन विशेष अभिधान नँ । जेह, कहिये छे ते सांभलो ॥ आगल *लय बीस बिहरमाण भगवती जोड़ सोरठा जोय, दृष्ट लोक प्रति आश्रयी । लोय, ते आश्रयी हिव कहे ॥ * प्राण विणासण रसिक जनं जे उपसगंकारी प्राणी। तेह भणी पिण प्रभु भय न दिये, अभयदए पहिछाणी ॥ २२२, २२३. तच्चास्याप्राप्तस्य लब्धस्य च परिपालनेनेति । २२४. लोकनाथ पनादेवेत्यत आह । २२५. लोगपदीवे २२६. इदं विशेषण माश्रित्याह सम्यग्दर्शनादेर्योगक रणेन (२००८) लोकस्य -- विशिष्टतिर्यग्न राम ररूपस्याऽऽन्तरतिमिरनिराकरणेन प्रकृष्टप्रकाशकारित्वादीप इव प्रदीपः । (२००८) २३०. अभयदए यथाऽवस्थित समस्तवस्तुस्तोमप्रदी ( वृ० प० ८ ) अ २२७. लोगपज्जोयगरे २२७. और वा०- लोकस्य -लोक्यत इति लोकः अनया व्युत्पत्त्या लोकालोकस्वरूपस्य समस्तवस्तुस्तोम स्वभावस्याखण्डमार्त्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभाससमर्थकेवलाल पूर्ववचनप्रभावनेन प्रद्योतं - प्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरः । ( वृ० प० ८ ) २२८,२२६. उक्तविशेषणोपेतश्च मिहिरहरिहरहिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थिकमतेन भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां द्विशेषाभिधानायाह-- ( २००प०८) ( वृ०प०८) न भयं दयते--- ददाति प्राणापहरणरसिकेऽप्युपसर्गकारिणि प्राणिनीत्यभयदयः । ( वृ० प० ८ ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१. अथवा सर्व प्राणी संबंधित, भय नी जे परिहारी। दया अनुकपा जेहन छ ते, 'अभयदए' अवधारी ।। २३१. अभया वा सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया-अनुकम्पा यस्य सोऽभयदयः । (वृ०-प०८) २३२. सोरठा हरि हर रवि ब्रह्मादि, अभय तणां दायक नहीं। प्रभु नै विष संवादि, एह विशेष कह्यो इहां ।। विण अपराधी जेह, अपराधी नै पिण प्रभु । अनर्थ परिहार करेह, केवल एहिज गुण नथी ।। अर्थ प्राप्ति पिण तास, करै इसो देखाड़तो। आगल जे गुणरास, कहिय छै ते सांभलो ।। २३२. हरिहरमिहिरादयस्तु नैवमिति विशेषः । (वृ०-५०८) २३३, २३४. न केवलमसावपकारिणां तदन्येषां वाऽनर्थपरि हारमात्रं करोति अपि त्वर्थप्राप्तिमपि करोतीति दर्शयन्नाह (वृ०-प०८) २३४. २३५. *चक्खू जिम चक्ख श्रुतज्ञानज, अर्थ शुभाशुभ भागं । उपदर्शक थी दायक प्रभुजी, चक्खुदए सुभागं ।। २३५. चक्खुदए चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागोपदर्शकत्वात् । (व०प०८) नर पेखै जे भाव सोरठा चक्षवंत, नित्य श्रतज्ञानज नेत्र करि। अनंत, उपादेय फुन हेय प्रति ।। २३६. "चक्षुष्मन्तस्त एवेह ये श्रुतज्ञानचक्षुषा। सम्यक् सदैव पश्यन्ति, भावान् हेयेतरान्नराः ।। (वृ०-प०८) जे थतज्ञान सहीत, नेत्रवंत ते जाणवा। वर श्रुतज्ञान रहीत, अंध तुल्य ते जीव छै ।। ते माट श्रुतज्ञान, चक्षु जिम चक्षु अछै । तसं दायक वर्द्धमान, चक्षुदय तिण कारण ।। २३६. २३६,२४०. यथा हि लोके कान्तारगतानां चौरैविलुप्तधनानां बद्धचक्षुषां चक्षुरुद्घाटनेन चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितमार्गदर्शनेनोपकारी भवति, (वृ०प०८,६) २४०. २४१. गीतक-छंद जिम लोक में कांतार गत न, तस्करे धन लूटिया। फन चोर तेहिज पुरुष नां, बिहं नेत्र बांधी ने गया ।। वर नयन तास उघाड़वै करि, चक्ष प्रति इम दे करी। देखाड़वै फून अध्व वांछित हुवै उपकारक वरी। इम एह पिण संमार अटवी विप जीव रह्या सही। रागादि तस्कर तेह फूल, धर्म-धन लूटयूं वही ।। मिथ्यात्व रूप कुवासना करि, तेह पुरुष तणा बलो। आच्छादिता वर ज्ञान - लोचन, सुद्ध श्रद्धा निदली।। तसं दर्श मोह कुवासना प्रति दूर करिव करि भलु । वर सुद्ध श्रद्धा ज्ञान चक्षु आपवै करि गुणनिलु ।। वर मग वांछित प्रति देखा. तेह आगल आखिये। मग्गदए पाठ सुहामणो तमु अर्थ इह विध भाखियै ।। २४१-२४४. एवमयमपि संसारारण्यवत्तिनां रागादिचौर विलुप्तधर्मधनानां कुवासनाऽऽच्छादितसज्ज्ञानलोचनानां तदपनयनेन श्रुतचक्षुर्दत्त्वा निर्वाणमार्ग यच्छन्नुपकारीति दर्शयन्नाह (वृ०-प०६) २४२. २४३. २४४. २४४. मग्गदए *लय-बीस बिहरमाण श. १, उ०१, ढा०१ २६ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५. *मारग ज्ञान दर्शन नै चारित्र, परम पद पुर पंथं । तास दायक ते माटै कहिये, मग्गदये भगवंतं ।। २४५. 'मन्गदए' ति, मार्ग---सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक परमपदपुरपथं दयत इति मार्गदयः। (वृ०-५० ६) सोरठा जिम जन लोक मझार, चक्ष उद्घाटन करी। फुन जे मारग सार, तेह प्रते देखाड़ नै ।। तस्कर विलुप्त जोय, ते जन प्रतेज निरुपद्रव । स्थान पमाड़े सोय, हवै परम उपकारको।। इम ए पिण अवधार, ज्ञान चक्षु शिव-मग दई। स्थान पोहचाडे सार, कहियै छै ते सांभलो।। २४६-२४८. यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान निरुपद्रवं स्थानं प्रापयन् परमोपकारी भवतीत्येवमयमपीति दर्शयन्नाह- (वृ०-५०६) २४७. २४९. *नानाविध उपद्रव प्राप्त जीव नै, शरण जु रक्षा-स्थानं । ते परमार्थ थकी निर्वाणज, तसं दायक वर्धमानं ।। २४६. सरणदए सरणं-जाणं नानाविधोपद्रवोपद्रुतानां तद्रक्षास्थानं, तच्च परमार्थतो निर्वाणं तद्दयत इति शरणदयः । (वृ०-प०६) २५०. सोरठा शरणदायकपणे तास, धर्मदेशना करि तिको। इह कारण थी जास, आगल कहियै छै हिवै।। २५०. शरणदायकत्वं चास्य धर्मदेशनयवेत्यत आह (वृ०-प० ६) २५१. *द्विविध धर्म-प्रथम श्रुत सम्यक्त्व, द्वितिय चारित्र गुणहीरं। तास दिखाडणहार प्रभु जी, धर्मदेशक महावीरं ।। २५२ २५३. धम्मदए पाठांतरं कहिये, चारित्र रूपज धर्म । तास दायक तिण कारण कहिये, धर्मदये सुख शर्म । धर्मदेशना मात करी पिण, धम्मदेशक कहिवाय । इह कारण थी आगल कहिये, ते सुणजो चित ल्याय ।। धर्म-रथ प्रवत्तकपणे करि, सारथि जिम सोभाया। धर्म-सारथि कहिये प्रभु नै, जयवंता जिनराया।। २५१. धम्मदेसए धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं देशयतीति धर्मदेशकः । (वृ०-५०६) २५२. 'धम्मदये' त्ति पाठान्तरं, तत्र च धर्म-चारित्ररूपं दयत इति धर्मदयः । (वृ०-प०६) २५३. धर्मदेशनामात्रेणापि धर्मदेशक उच्यत इत्यत आह (वृ०-५० ६) २५४. धम्मसारही धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धर्मसारथिः, (वृ०-५०६) २५४. सोरठा रथ न सारथि जेम, रथ रथिक फुन अश्व प्रति । रक्षा करै सुप्रम, एम धम्म-सारथि प्रभु ॥ चरित्त धम्म अंग रुपात, संयमात्म प्रवचन प्रवर । रक्षण उपदेशात्, धर्म-सारथि ह प्रभ ।। तीर्थान्तरीय मतेह, धर्म-सारथि अन्य पिण हवै। इह कारण थी एह, विशेषकर तु हिव कहै ।। २५५, २५६. यथा रथस्य सारथी रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं भगवान् चारित्रधर्माङ्गानां---संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारथिर्भवतीति । (वृ०-प०६) २५७. तीर्थान्तरीयमतेनान्येऽपि धर्मसारथयः सन्तीति विशेषयन्नाह (वृ०प०६) *लय--बीस बिहरमाण ३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८. धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी * धर्म विष बर चातुरंत जे, चक्रवर्ती जिनराया। चक्रवती जिम वीर प्रभूजी, अतिसय करि सोभाया ।। २५६-२६२. त्रयः समुद्राश्चतुर्थश्च हिमवान् एते चत्वा रोऽन्ताः-पृथिव्यन्ताः एतेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च वरचातुरन्तचक्रवर्ती--- राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती। (वृ०-प०६) २६३. अथवा धर्म एव वरमितरचक्रापेक्ष या कपिलादिधर्मचक्रापेक्षया वा। (वल-प०६) वा–चतुरन्तं.-.-दानादिभेदेन चतुविभागम् । सोरठा २५६. त्रिण दिशि समुद्र अंत, चल हेमवन्त लग उत्तर।। ए चिहं महि पर्यंत, स्वामीपण ज चातुरंत ।। २६०. एहवो चको जेह, चातुरंत चक्रवति ते। वर प्रधान छै एह. अन्य नपति थी अति अधिक ।। २६१. धर्म विप वर धोर, धर्म - परूपक शेष में। अतिशय अधिक ज बीर, चातुरंत चक्रवति इम ।। २६२. अथवा धर्मज ताय, वर प्रधान छै जेहन । अन्य चक्र अपेक्षाय, कह्य धर्मबर ते भणी ।। अथवा धर्मज एह, वर प्रधान महावीर नुं । कपिलादिक न जेह, धर्म-चक्र नी पेक्षया ।। २६४. शिव मग ज्ञानादेह, भेदे करि विभाग चिहुं। निर्णय जेह विषेह, चातुरंत छै ते भणी ।। वाल-ज्ञान, दर्शण, चारित्र, तप अथवा दान, शील, तप, भावना ए च्यार मोक्ष मारग नों अंत कहिता निर्णय निश्चय छै जेहन विषे ते चतुरंत, तेहिज चातुरंत । आपणा तीर्थ नै विर्षे आदि में ए चिहुं शिव-मग परूपणा थकी। अथवा गति जे च्यार, नारकादि छै तेहनां। अंतकारक अवधार, चातुरंत छै ते भणी ।। जे फन चक्र संमील, भावे अरि छेदण थकी। तिण करि वर्तन शील, जेहन जे छै चक्रवति ।। २६७. क ह्या विशेषण एह, धर्मदेशकादिकपणुं । प्रकृष्ट ज्ञानादेह, योग करि हते कहै ।। *अप्रतिहत कटकुटी आदि करी, अथवा अविसंवादं । प्रवर ज्ञान दर्शण ते केवल, तसुं धारक आह्लादं ।। वा०-अप्रतिहत कहितां हणाई नहीं, खलावै नहीं, कट ते चटाई करी, अनै कुटी ते भींत प्रमुखे करी ते अप्रतिहत कहियै । अथवा अविसंवाद बाणी छै जेहनी इण कारण थकीज । अथका क्षायिकपणा थकी वर प्रधान केवलज्ञान, केवलदर्शन केवलज्ञान विशेष अवबोधात्मक, केवलदर्शन ते सामान्य अवबोधात्मक धारण कर जे ते अप्रति हतवरज्ञानदर्शनधरै कहियै । २६५. २६५. चतसृणां वा नरनारकादिगतीनामन्तकारित्वाच्चतुरन्तं तदेव चातुरन्तं। (वृ०-प०६) २६६. यच्चक्रं भावारातिच्छेदात् तेन वत्तितुं शीलं यस्य स (वृत्-प०६) २६७. एतच्च धर्मदेशकत्वादिविशेषणकदम्बकं प्रकृष्टज्ञाना दियोगे सति भवतीत्याह तथा। २६८. अप्पडियवरनाणदंसणधरे वा०-अप्रतिहते-कटकुट्यादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवलाख्ये विशेषसामान्यबोधात्मके धारयति यः स तथा। (वृ०-प०६) २६६. सोरठा छद्मवान पिण एह, प्रवर ज्ञान संपति सहित । के इयक लोक विषह, अंगीकार करिये अछ।। २६६. छद्मवानप्येवंविधसंवेदनसंपदुपेतः कैश्चिदभ्युपगम्यते । (वृ०-प०६) *लय-बीस बिहरमाण श० १, उ०१, ढा०१ ३१ Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१. मिथ्या उपदेशात्, उपकारी नहि बतिकै। आगल हिव अवदात, कहियै छै निश्छद्मता ।। अथवा पह ने जन्न, अप्रतिहत भित्त्यादि करि । ज्ञान दर्शन संपन्न, उत्तर तेहनों आखियै ।। आवरण अभाव थीज, अप्रतिहत ज्ञानी प्रभू । देखाड़त पहीज, कहियं छै ते सांभलो।। २७०. स च मिथ्योपदेशित्वान्नोपकारी भवतीति निश्छद्मताप्रतिपादनायाऽस्याह (वृ०-५०६) २७१. अथवा--कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं संपन्नम् ? अत्रोच्यते। (वृ०-प०६) २७२. आवरणाभावाद्, एनमेवास्यऽऽवेदयन्नाह-- (वृ०-५०६) २७२. २७३. *अपगत निवृत्त दूर गयो छै, छद्मस्थ भावज जासं । अथवा दूर गयो जसु आवरण, व्यावृत्त-छद्म विमासं ।। सोरठा छद्म अभावज जास, उमनों ते रागादि नां । जीपण थकी प्रकारा, इह कारण थी हिव कहै ।। २७३. वियदृछउमे ध्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तछया। (वृ०-प०६) २७४. छग्राभावश्चास्य रागादिजयाज्जात इत्यत आह (वृ०-५०६) * जीत निराकर छै प्रभजी, राग - द्वेषादि रूपं । शत्रु प्रते हणे तिण कारण, कहियै जिन' जग भुपं ।। २७५. जिणे जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनितिजिनः । (वृ०-५०६) २७६. रागादि जय पूर्वक ज्ञान सोरठा जान, उपाय ते जीपण तणुं । सुध्यान, इह हेतु थी हिव कहै ।। २७६. रागादिजयश्चास्य रागादिस्वरूपतज्जयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह (वृ०-५०६) २७७. जाणए--- जानाति छाद्मस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः । (वृ०-५०६) २७७.. *जे छद्मस्थ संबंधी धुर चिहं ज्ञान छतां वर ध्यानी। रागादिक जीपी लह्य केवल, ज्ञायक' जाण सुज्ञानी ।। *लय-बीस बिहरमाण १. सामान्यतः जिन शब्द वीतराग (राग-द्वेष के विजेता) का वाचक है। टीकाकार की व्याख्या से इसी अर्थ को अभिव्यक्ति मिलती है और जयाचार्य ने भी अपनी 'जोड़' में टीका को ही अनूदित किया है। किन्तु सन्दर्भ की दृष्टि से यहां जिन शब्द वीतराग का नहीं, ज्ञानी का वाचक होना चाहिए। क्योंकि इससे आगे दो-दो शब्दों के युगलों की व्याख्या है। बुद्ध और बोधक, मुक्त और मोचक, तीर्ण और तारक---ये शब्द स्व और पर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार यहांजिन और ज्ञायक शब्द भी स्व और पर से अनुबंधित होने चाहिए। इन दोनों शब्दों को संयुक्त मानने से राग-द्वेष विजेता अर्थ की यहां संगति नहीं बैठती। जिन शब्द का ज्ञानी अर्थ में प्रयोग असम्मत भी नहीं है। स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार के जिन की चर्चा है---तओ जिणा पण्णत्ता, तंजहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाजिणे, केवलणाणजिणे । ठाणं ३।५१२] अवधिज्ञान जिन, मनःपर्यवज्ञान जिन और केवलज्ञान जिन-उक्त संदर्भ के आधार पर जिणे शब्द ज्ञान और जाणए शब्द ज्ञायक का द्योतक होना चाहिए। २. वृत्तिकार ने ज्ञायक शब्द की व्याख्या छानस्थिक ज्ञान के आधार पर करते हुए लिखा है-'जानाति छाझस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः' । (वृ०-५०६) किन्तु ३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८. सोरठा ज्ञायक इह वचनेह, निज स्वार्थ संपत्ति प्रवर । केवलज्ञान अछेह, तास उपायज आखियो ।। अधना बली तदर्थ, स्वार्थ संपत्ति पूर्वकं । संपादक पर अर्थ, चतुर विशेषण करि कहै ।। २७८. ज्ञायक इत्यनेनास्य स्वार्थसंपत्त्युपाय उक्तः । (बृ०-प०६) २७६. अधुना तु स्वार्थसंपत्तिपूर्वकं परार्थसंपादकत्वं विशेषणचतुष्टयेनाह (वृ०-प०६) २७६. २८०. *जीव अजीवादिक प्रति जाण्या, बुद्ध कह्या इण न्याय। तथा बोधए अन्य भणी पिण, तत्त्व प्रते ओलखाय ।। २८१. बाह्य अभ्यंतर ग्रंथ बंधन करि, मूकाणा महावीरं। मुत्ते पाठ कह्यो इण कारण, मुक्तवान् गुण - हीरं ।। २८०. बुद्धे बोहए 'बुद्धे' त्ति, बुद्धो जीवादितत्त्वं बुद्धवान् तथा 'बोहए' 'त्ति जीवादितत्त्वस्य परेषां बोधयिता। (वृ०-प०६) २८१. मुत्ते मुक्तो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनेनमुक्तत्वात् । (वृ०-प०६) २८२. मोयए तथा 'मोयए' त्ति परेषां कर्मबन्धनान्मोचयिता। (वृ०-५०६) २८२. तथा तेह मोयए अन्य तणा जे, कर्म-बंधन थकी मूकावण हारा, जयवंता दुखदाया। जिनराया। २८३. मुक्त अवस्था सोरठा २८३. मुक्त सिद्ध, तेह आश्रयी नै हिवै। प्रवर विशेषण ऋद्ध, कहियै छै ते सांभलो।। २८४. *वस्तु-समुह सर्व छै जेहना, ज्ञान विशेष करे। ज्ञायकपणे सर्व प्रति जाण, सर्वज्ञ सिद्ध कहेहं ।। २८३. अथ मुक्तावस्थामाश्रित्य विशेषणान्याह (वृ०-५०६) २८४. सव्वण्णू सव्वदरिसी सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया सर्वज्ञः । २८५. सामान्यरूपतया पुनः सर्वदर्शी । ज्ञायकत्वेन (वृ०-प०६) (वृ०-प०६) २८५. दर्शन ते सामान्य रूप करि, सर्व वस्तु ना सोयो। देखणहारा सिद्ध अछै ते, सर्वदर्शी अवलोयो।। वा०-अथवा भगवंत देह-मुक्त थाय तो पिण अन्य दर्शन मान्य मुक्त पुरुषवत् भविष्य जड़ता वाला नथी। सोरठा २८६. ए बे पद आख्यात, ते किहांइक दीसै नहीं। सिद्ध तणुं अवदात, बलि कहिये ते सांभलो ।। वा०-न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषवद्भविष्यज्जडत्वम्। __(वृ०-प०४) २८६. एतच्च पदद्वयं क्वचिन्न दृश्यत इति। (वृ०-प०६) २८७. *सर्व अवाधा रहितपणा थी, शिव कहितां दुख नाही। ____ अचल-स्वाभाविक प्रायोगिक ए, चलन हेतु ज्यां नाही ।। २८७. सिवमयलं 'शिव' सर्वाबाधारहितत्वाद् 'अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात्। (वृ०-प० ६) जयाचार्य ने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त करने वाले को ज्ञायक कहा है। अर्थ की दृष्टि से यह व्याख्या उचित प्रतीत होती है, क्योंकि ज्ञायक विशेषण से पहले अप्पडिहयवरणाणदसणधरे पाठ आ चुका है। अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवल दर्शन के वाचक हैं। ऐसी स्थिति में वृत्तिकार का अभिमत विचारणीय है। *लय-बीस बिहरमाण श०१, उ०१, ढा०१ ३३ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८. अरुज कह्या ते रोग रहित सिद्ध, तास निबंधन जोई। तन मन तणां अभाव थकी ए, इसा सिद्ध अवलोई ।। २८६. अनंत पदार्थ विषये वस्तु - ज्ञान स्वरूप पणेहं। द्रव्य अनंता जाणे, तिण सं सिद्ध अनन्त कहेह ।। २६०. अक्षय सादि अनंत स्थितिक थी, सिद्ध सदा अविनाश । अथवा अक्षत परिपूर्ण छ, चन्द्र मडल जिम जास ।। २६१. अन्य भणी अणपीडाकारी, दुख उपजावै नांही। एहवा सिद्ध हवै तिण कारण, अव्यावाध कहाई।। २६२. वलि संसार विष नहिं आवै', सिद्धि गति प्रशस्त नाम । स्थिर स्थानक छै त्यां जावा ना, अभिलाषी प्रभु ताम ।। वा०—सिद्ध-निष्ठितार्थ हुवे, जे गति नै विष ते सिद्धि गति । एतलै सकल ही अर्थ सिद्ध थया-नीपना, कोई कार्य करणो बाकी रह्यो नहीं, ते सिद्धि गति । तेहीज नामधेयं कहितां प्रशस्त नाम जेहनो ते, तथा ठाणंति कहितां अस्थिरपणा नु कारण कर्म, तेहना अभावे करि सदा अवस्थित ते स्थिरपण रहिवु हुवै ते स्थान, ए कर्म-मुक्त जीव एतलै सिद्ध नुं स्वरूप अथवा लोकाग्र नो स्वरूप। हिवै लोकाग्र भाग तो आकाश रूप छै तो तेह में शिवादि विशेषण घट नहीं तो पिण आधेय धर्म नों आधार मां अध्यारोप करवा थी ते विशेषण लोकाग्र ना घटाव्या २८८. अरुयं अरुजम् अविद्यमानरोगं तन्निबन्धनशरीमनसोरभावात्। (वृ०-प० ६, १०) २८६. अणतं अनन्तम् अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् । (वृ०-५०१०) २६०. अक्खयं अक्षयम् अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात् अक्षतं वा परिपूर्णत्वात्पौर्णमासीचन्द्रमण्डलबत् । (वृ०-५०१०) २६१. अब्बाबा अव्याबाधं परेषामपीडाकारित्वात् (वृ०-५०१०) २६२. 'अपुणरावत्तिय' ति कर्मबीजाभावाद् भवावताररहितं सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामे (वृ०-५० १०) वा०—सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धि : सा चासौ गम्यमानत्वाद् गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव नामधेयं--प्रशस्तं नाम यस्य तत्तथा, 'ठाणं' ति तिष्ठति-अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो भवति यत्र तत्स्थानं, क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूप लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याऽऽधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, संपाविउकामे त्ति यातुमनाः, न तु तत्प्राप्तः, तत्प्राप्तस्याकरणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणाऽसम्भवात्, प्राप्तुकाम इति च यदुच्यते तदुपचारात्। (वृ०-प० १०) जावा - मन, पिण ते स्थानक पाम्या नथी। ते स्थानक पाम्या पछी अकरणपणे करी वांछित अर्थ नै परूपणा नां अभाव थकी। ते माटै पामवा नां अभिलाषी इम कहिये । २६३. यावत् समोसरण है त्यां लग, भगवत्-वर्णक वारू । प्रथम उपांगे प्रभु तनु-वर्णक, कहिये इह विध चारू ।। २६३. 'जाव समोसरणं' ति ताबद्भगवद्वर्णको वाच्यो यावत्समवसरणं--समवसरण-वर्णक इति । (वृ०-५० १०) गीतक-छंद २६४. भुज मोचको जे रत्ननज विशेष फुन भंग कीट ही। नीली विकारज फुन मपी बलि भ्रमर-गण सुप्रहृष्ट ही ।। २६४, २६५. स च भगवद्वर्णक एवम्---"भुयमोयभिगनेल कज्जलपहट्ठभमरगणनिद्धनिकुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए" भुजमोचको---रत्नविशेषः १. अंगसूत्ताणि भाग २ में अपुणरावत्तयं पाठ नहीं है, वृत्ति में भी इस पाठ को कोष्ठकान्तर्गत लिया गया है। संभव है किसी वाचना में यह पाठ रहा हो। २. सिद्धि गति प्राप्त होने पर जीव अकरण हो जाता है। उस समय विवक्षित अर्थ की प्ररूपणा नहीं हो सकती। इसलिए अर्हत् को संप्राप्तुकामा कहा है। प्राप्तुकामासिद्धि गति पाने के इच्छुक, यह भी औपचारिक वचन है। क्योंकि वास्तव में तो अर्हत् केवली निरभिलाष ही होते हैं। ३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५. २६६. गीतक-छंद २६७. वर रक्त उत्पल पत्रवत् जे कमलदलवत् मृदु भला । सुकुमाल मध्ये जेह कोमल चरणतल महिमानिला || ३०२. एहनी परं नि कृष्णच्छा समूह सघन सुहामणा । कुंडलीभूत प्रदक्षिणा शिरोजा रलियामणा ॥ २६८. इक सहस्र नैं वर अष्ट लक्षण पुरुष तीर्थंकर तणा । तसु धरणहार उदार सार ज, नग नगर आदिक घणा ॥ २६६. आकाशगत चक्रं करी आकाशगत छत्रे करी। आकाशगत फुन चामरे करि सोभती अधिक सिरी । ३००. आकाशगत पुन फटिकमय वर पायपीठ सहीत ही चार सहासण धर्मध्वज प्रभु आगले चाले वही ॥ ३०३ सोरठा , इस शिर ना जे केश तसं तनु-वर्णक जे. जे शेष अंत यतनी ३०१. चउदश सहस्र श्रमण अति चारु, अज्जा सहस्र छत्तीस उदारु । सद्धि कहितां तास संघात, ऐ तो महावीर जगनाथ || ३०५ ३०६ वर्णक ने आदि दे चरण-वर्णक कह्यं ॥ ३०४ पूर्वानुपूर्वी चालता सोरठा सद्धि कहित सोध, विद्यमान पिण तेहने तास संघाते होय, इह कारण थी हिव कहै || यतनी संपरिवडे सोय, परिकर थी अवलोय । ते साधु साध्वी संयुक्त प्रभु विहार करतां उक्त ।। गीतक-छंद पिण पश्चानुपूर्वी नहीं । यति ग्राम त अनुग्राम केडे गमन करता प्रभु सही ।। फुन सुख सुखे करि विचरता प्रभु नगर राजगृह जिहा जिहां चैत्य गुणसिल तिहां आवै स्वाम आवी नैं तिहां ॥ वर यथायोग्य अवग्रह प्रतिग्रहै ग्रहण करी सही। तप संजमे करि आतमा प्रतिभावता विपरे सही। भृङ्गः कीटविशेषोऽङ्गारविशेपोवा ने नीलीविकार:, कज्जलं - मषी, प्रहृष्टभ्रमरगणः प्रतीतः एत इव स्निग्धः समूहो येषां ते तथा ते च ते निचिताश्च - निविडाः कुञ्चि ताश्च - कुण्डलीभूताः प्रदक्षिणावर्त्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजा यस्य स तथा । ( वृ० प० १० ) २६६. एवं शिरोजवर्णकादिः "रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलले" इति पावकान्त शरीरवर्णको भागवतो वाच्यः । ( वृ००० १०) २१७. रक्तं - लोहितम् उत्पलपत्रवत् — कमलदलवत् मृदुकम् — अस्तब्धं सुकुमालानां मध्ये कोमलं च तलं पादतलं यस्य स तथा । (१०-२०१०) आगासगएणं गं आगासपाहि चामराहि पापी महाराणं धम्मएष पुरओ पत्रमाषेणं । (बु०० १०) २६८-३०० अट्ठसहस्सवरपुरिस लक्खणधरे चक्केणं आगाए आगास पनिहामए ३०१. चउदसहिं समणसाहसी छत्तीसाए अज्जियासाह सीहिं सद्धि । ( वृ० प० १० ) ३०२. तेषां विद्यमानतयाऽपि सार्द्धमिति स्यादत उच्यते । (१०-५०१०) ३०३. संपरिवुडेत्ति संपरिवृतः परिकरित इति । ( वृ०-५० १० ) ३०४- ३०६. पु०वाणुपुब्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिव्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (१1७ ) श० १, उ० १, ढा० १ ३५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७. फुन समवसरणक तणुं वर्णक तेह इह विध जाणिय। वर वृत्ति थी संक्षेप करि कहियै तिको दिल आणिय ।। ३०८. तपस्वी श्रमण भगवंत ना वह अंतेवासी शिष्य भला। उग्रकुल ना ऊपना वर चरण-धारक गुण निला ।। ३०६. इत्यादि जे मुनि प्रमुख वर्णक इहां तेहिज जाणवू । सुर चतुर्विध प्रभु पास आवही वर्णक तास बखाणवू ।। ३०७-३०६. समवसरणवर्णके च 'समणस्स भगवओ महा वीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपव्वइया' इत्यादि साध्वादिवर्णको वाच्यः, तथाऽसुरकुमारा: शेषभवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका देवा (देव्य) श्च भगवतः समीपमागच्छन्तो वर्णयितव्याः । (वृ०-प०१०) ३१०. *प्रभु वंदवा परषद निकली, धर्म कह्यो जिन धीरं। ३१०. परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। पडिगया परिसा। पाछी बली परपदा सुणन, स्वाम वयण सुख सीरं ।। (श० ११८) वाल-परिसा णिग्गया इति राजगह नगर थकी राजादिक लोग भगवंत नै वंदन वा--'परिसा निग्गय' त्ति राजगृहाद्राजादिलोको अर्थे नीकल्या ते निर्गम इम-- भगवतो वन्दनार्थ निर्गतः । तन्निर्गमश्चैव-तए णं... तए णं रायगिहे णगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह इत्यादिर्वाच्यो यावद्भगवन्तं नमस्यन्ति पर्युपासते पहेसु-बहु जणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ...एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं चेति, एवं राजनिर्गमोऽन्तःपुरनिर्गमश्च तत्पर्युपासना महावीरे इह गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा चौपपातिकवद्वाच्या। (वृ०-५० १०, ११) अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तं सेयं खलु तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण बंदण णमंसणयाएत्ति कटु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता इत्यादिक कहिवो, ज्यां लग भगवंत प्रते नमस्कार करै पर्युपासना करै । इम राजानिर्गम । वलि अन्तःपुर-निर्गम । वली ते पर्युपासना उववाई नी पर कहिवं । धम्मो कहिओत्ति-धर्म कथा इहां भगवंत नी कहिवी तिका इम-तएणं 'धम्मो कहिओ' त्ति, धर्मकथेह भगवतो वाच्या । समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रग्णो चिल्लणापमुहाणं देवीणं तीसे य महइ (वृ०-प०११) महालियाए परिसाए, इसिपरिसाए, मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए, अणेगसयाए, अणेगसयवंदाए, अणेगसयवंदपरियालाए, ओहबले, अइबले, महब्बले, अपरिमियबलविरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारदनवथणियमहुरगंभीरकोंचणिग्धोसदुंदुभिस्सरे, उरेवित्थडाए, कंठेवट्टियाए, सिरेसमाइण्णाए, अगरलाए, अमम्मणाए सव्वक्ख रसण्णिवाइयाए, पुण्णरत्ताए, सब्वभासाणुगामिणीए, सरस्सईए, जोयणणीहारिणा सरेणं, अद्धमागहीए भासाए भासइ–अरिहा धम्म परिकहेति। तेसि सब्वेसि आरियमणारियाणं अगलियाए धम्म आइक्खइ सावि य णं अद्धमागही भाषा तेसि सब्जेसि आरियमगारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ तं जहा–अत्थिलोए अत्थि अलोए एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे इत्यादि। तथा जह नरगा गम्मती जे णि रया जा य वेयणा णरए सारीरमाणसाइं दुक्खाई तिरिक्खजोणीए इत्यादि । पडिगया परिसत्ति लोक स्वस्थान गया, पाछो जावणो ते परषदा नो इम कहिवो-तए णं सा महइमहालिया महच्च परिसा महति महती आलप्रत्यय नै स्वाथिकपणा थकी अतिशय थकी अतिशय घणी भारी मोटी परषदा प्रशस्त पण प्रधान परषदा अथवा महा अर्चा, भली पूजा नै ते महा अर्चा परिषद् इति । समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा जाब हियया उट्ठाए उठेइ उठ्ठित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगतिया मुंड भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया अत्थेगतिया पंचाणुव्वयं सत्त सिक्खावयं दुवालसविहं गिहि *लय-बीस बिहरमाण ३६ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मं पडिवण्णा अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति वंदित्ता मंसित्ता एवं बयासी सुयवखाए ते भंते! णिग्गंथे पावयणे एवं सुपण्णत्ते सुभासिए सुविणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते! णिग्गंथे पावणे धम्मे णं आइक्खमाणा तुम्भे उवसमं आइक्खह उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणां कम्माणं आइक्खह परि णं अच्छे के समवा मावा के एरिस धम्ममाइति किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया । ३११. प्रथम डाल प्रभु वच सुन भारी पहुंडी परिषद निज पद सारी। भिक्षु भारीमा ऋषिराम प्रसादं, 'जय जय' संपति अव्यावाध जय जय वर्द्धमान जगतारी, आख्या वयण अमूल्य उदारी ।। २. जेष्ठ तेहनुं ढाल : २ वहा तिण काल ने तिण सम, श्रमण तो सुविचार | भगवंत श्री महावीर नौ जेष्ठ प्रथम शिष्य सार ॥ शोस आस्यूं सोरठा कहिवेह, सकल संघ नायकपणुं । एह, हिव कहियै छै नाम तसुं ॥ *वीरजी के शिष्य प्यारे । जग प्यारो, शासण सिणगारो, स्वामी हद प्यारो ।। ध्रुपदं ।। ३. ओ तो इंद्रभूति प्रसिद्धो नाम मात पिता नो दीधो ॥ दूहा इंद्रभूति नामे करी, तृतिया विभक्ति स्थान । विभक्ति ना परिणाम थी, नाम पाठ पिछान' ॥ सोरठा अंतेवासी ख्यात, ते तो श्रावक पिण हुवै । इह कारण अवदात, आगल कहियै छै हि ॥ *लय - वनमाला ए निसुणी जाम *लय — ज्यांरं सोभै केसरिया साड़ी १. यहां व्याकरण के अनुसार 'नाम्ना इन्द्रभूतिः' तृतीया विभक्ति होनी चाहिए। पर विभक्ति का विपरिणाम होने से तृतीया विभक्ति के स्थान पर 'इंदभूती नामं अणगारे' इस पद में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ है । १, २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे अंतेवासी तेन कालेन तेन समयेन श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेट्ठे' त्ति प्रथमः 'अंतेवासि' त्ति शिष्यः । अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसंङ्घनायकत्वमाह (१००१०११) ३. इंदभूती नाम इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः । ४. 'नाम' ति विभक्तिपरिणामान्नाम्नेत्यर्थः । (बु०० ११) (००११) ५. अन्तेवासी किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह(२०-५० ११) श० १, उ० १, ढा० २ ३७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *वीरजी के शिष्य नीवो। विनय-तहतो को त्रिभुवन जश टीको ॥(ध्रुपदं) ६. एहन नहीं छै गृह ते अगारो, तिण सं आख्या जसु अणगारो।। ६. अणगारे नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः। (वृ०-५०११) सोरठा फुन ए तो सुविचार, निदनीक जे गोत्र पिण। हुवै तास अवधार, इह कारण थी हिव कहै ।। ७. अयं चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत आह—(वृ०-प०११) ___ *गौतम गोत्रे करी सहीतो, तिण सं गौतम नाम वदीतो॥ ८. गोयमसगोत्ते ण फून ते कालज योग्य तन-मान तणी अपेक्षाय। न्यूनाधिक पिण देह ह, इह कारण हिव आय ।। ६. अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादिति आह --- (वृ०-प० ११) *ऊंची सप्त हस्त देह जाणी, आ तो उत्सेध आंगुल माणी॥ १०. सत्तुस्सेहे सोरठा आख्यो ए तनु-मान, ते तो लक्षण-हीण पिण । हवै कदाचित् जान, इह कारण थी हिव कहै ।। ११. अयं च लक्षणहीनोऽपि स्यादित्यत आह.---- (वृ०-५०११) १२. *समचउरस संठाण सुलेह, तिण करि अवस्थित रह्य जेह ॥ १२. समचउरंससंठाणसंठिए १३,१४. समचउरंससंठाणसंठिए' त्ति, समं नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तच्चतुरस्र च-प्रधानं समचतुरस्रम् । (वृ०प० ११) गीतक-छंद तनु नाभि नै ऊपर बली जे अधस्तन हेढ़ वरी। वर पुरुष नाजे सकल लक्षण सहित अवयव तिण करी।। सम शब्द अर्थज तुल्य कहिये, विषमता न ल हीजिये । चतुरस्र प्रवर प्रधान तेहिज समचतुरस्र कहीजिये ।। वाल-एतले नाभि नै ऊपर अनै हेसकल पुरुष नां लक्षण सहित अवयवपण करी, सम कहितां तुल्य छ जे चतुरस्र–प्रधान लक्षण ते समचतुरस्र एतलै नाभि नै ऊपर जेतला लक्षण सहित अवयव तेतला लक्षणे सहित अवयव नाभि नै हेठे पिण, एहव अर्थ जणाय छै । वलि बहुश्रुत विचारी कहै ते सत्य । १५. अथवा समा तनु तणा लक्षण उक्त परिमाणे करी। अविसंवादिता चतुर अस्रज समचतुरस्र का फिरी।। फून अत्र ते इहां चतुर दिशि-विभाग उपलक्षित भला। तनु तणां अवयव छ समा ए द्वितिय अर्थ सुनिर्मला॥ १५. अथवा--समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्य श्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्रम्। (वृ०-५० ११) १६. अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा (वृ०-५० ११) इति। ____ *लय-ज्यार सोभे केसरिया साड़ी ३८ भगवती-जोड़ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. उभय फून अन्य गणपति इस कहै सम तेहकाधिक नहीं। या अंसज जे विर्ष ते समचतुरंस का सही ॥ पर्यक आसन बैसता नैं जान अंतरं । आसन वर्ष ज निलाड अंतर ए द्वितीयो उच्चरं ॥ अंतरो ए तीसरो । कुन स्कंध दक्षिण वाम जानू बलि स्कंध वामज जानु दक्षिण अंतरो चउषो खरो ॥ फुल अन्य गणपति इम है विस्तार नं ऊंचा प समपणा थी सम चतुर अंसज दाखिया ए तनु तणें ।। संस्थान ते आकार कहिये तिण करी संस्थित रहा । समचतुरंग संस्थान संस्थित इहां गौतम ने कहा । सोरठा संस्थान हीन संघपणी नो अपि कदाचित् जाम इह कारण भी हिव कहै । 1 ●स्यां वपनाराची संघयण अस्थि-संचय साचो ॥ सु वज्र दूहा यय कहो कनिका, ऋषभ कहीजे पट्ट । ऊपर बंधन बिहूं तरफ, सोनाराच मर्कट्ट || सोरठा वज्र कीलिका उक्त कीलित कठ संपुट तणी । कही जे एहने || ओम सामर्थ्य युक्त, बच्च ऋषभ लोहादिक मांहि पट्ट वढ कठ संपुट तणी । ओपम सामर्थ्य ताहि प्रपभ कहीजे एहने ॥ वज्रऋषभ छे तेह, नाराच कहिये उभय थी। मर्कट बंधेह, कठ संपुट ओपम समर्थ ॥ नाराव, संघयण अस्थि संचय विशेष एह सुत्राच, उत्तम सामर्थ्य योग थी । बद्ध वज्रऋषभ | एहवा संघयण मान, निंदनीक जे वर्ण पिण । कदाचित् जान से कारण थी हिव कहे ॥ ३०. *ओ तो सुवर्ण नो लव सारो, ते तो कसवटी घसियै तिवारो ॥ ३१. तिण री रेखा नों लक्षण जाणों, तथा कमल नां केसरा पिछाणो ॥ ३२. ते सरीखो गोरो वर्ण जासं, जो तो शरीर तणों सुप्रकाशं ॥ * लय - ज्यांरं सोभं केसरिया साड़ी १७. अन्ये त्वाहुः समा अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽप्यस्त्रयो यत्र तत्समचतुरस्रम् । (TOUTO ??) १८, १६. अत्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य बामनुनश्वान्तरं दास्य दक्षिणजानश्वान्तरमिति । ( वृ०० ११) २०. अन्ये त्वाहुः - विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रं । ( वृ०० ११) २१. तच्च तत् संस्थानं च-- - आकारः समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा । ( वृ०० ११,१२) २२. अयं च हीनसंहननोऽपि स्यादित्यत आह २३. नरिमन रायसंपपणे इह संहननम् --- अस्थिसञ्चयविशेषः । २४. रिसहो य होइ पट्टो वज्जं पुण कीलियं उभओ मक्कडबंधो नारायं तं (१०-१० १२) ( वृ० प० १२) वियाणाहि । वियाणाहि || ( वृ० प० १२) २५. तंत्र व च तत् कीलिकाकीलितकाष्ठसंपुटोपमसामयुक्त। (०१० १२) २६. ऋषभश्च लोहादिमयपट्टबद्ध काष्ठसंपुटोपमसामर्थ्याविवाद | (१०० १२) २७, २८. वज्रर्षभः स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिकासामध्यपितत्वाद भनाराव तत् संहननम् अस्थिसञ्चयविशेषोऽनुपम सामर्थ्ययोगाद यस्नाराचसंहननः । (बु०प०१२ ) २९. अयं च निन्द्यर्णोऽपि स्यादित्यत आह - ( वृ० प० १२) ३०. कणगपुलगनिघ सपम्हगोरे ३१, ३२. कनकस्य —- सुवर्णस्य 'पुलगं' ति यः पुलको लवस्तस्य यो निकपः कषपट्टके रेखालक्षण:, तथा 'पम्ह' त्ति --- पद्मपक्ष्माणि केशराणि तद्वद्गौरो यः सः । ( वृ० प० १२) शा० १, उ० १ ० २ ३६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३-३६. वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादे यः पुलक: सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत्पक्ष्म-बहलत्वं तद्वद्गौरो यः सः। (वृ०-प०१२) ३३. वृद्ध-व्याख्या-सुवर्ण नों जेह, पिण लोहादिक नों न तेह ।।। ४. पुलक कहितां जे सारो, तसं वर्ण अत्यंत उदारो।। ५. तेह प्रधान सुविशेखा, निघस कहितां जे रेखा ।। ३६. पम्ह कहितां बहलपणुं तासं, तेह सरीखो गोरो वर्ण जास ।। ३७. अथवा सुवर्ण नों जाणी, पुलक गाल्यां बिंदु माणी॥ ३८. निकष कहितां वर्ण जे तासं, तेह सरीखो तनु नों उजासं ।। ३६. पम्ह कहितां पद्म पिछाणी, प्रस्ताव थी केसरा जाणी।। ४०. तिण गौर पद्मवत् कहिये, पीत वर्ण पिण गौर उच्चरियै ।। mmmmmmm ३७-४०. अथवा--कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति बिन्दु स्तस्य निकषो-वर्णतः सदृशो यः स तथा 'पम्ह' त्ति पद्म तस्य चेह प्रस्तावात्केश राणि गृह्यन्ते ततः पद्मवद्गौरो यः सः । (व०-प०१२) सोरठा फून ए तो अवलोय, विशिष्ट तप करि रहित पिण। हुवै कदाचित् सोय, इह कारण थी हिव कहै ।। ४१. अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्यादित्यत आह (वृ०-५० १२) ४२. *उग्र तप अनशनादिक ताय, पुरुष सामान्य चितव्यं न जाय ।। ४२, ४३. उग्गतवे उग्रम्-अप्रधृष्यं, तपः-अनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येनप्राकृतपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः। सोरठा दुष्ट दृष्टि करि जोय, तसं सन्मुख अवलोकवा। समर्थ नहीं छ कोय, इह कारण ए उग्र-तप ।। गीतक-छंद फुन दीप्त जाज्वलमान कहिये, अग्नि नी पर ए सही। वन गहन कर्म सुदहन समरथपणे करि के ज्वलित ही।। धर्म ध्यानादिक प्रवर ही जेह गौतम नुं वही। इह कारणे करि दीप्त-तप ए आखियो सूत्रे सही ।। *तप तप्त ते कर्म तपावै, तप रूप आत्म पिण भावै ।। अन्य सं जिम फसणी नाव, इम गौतम कर्म तपावै ।। ४४, ४५. दित्ततवे दीप्त-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादिर्यस्य सः । (वृ०-प० १२) महा तप ते वांछा दोष रहीत, प्रशस्तपणे करि प्रीतं ।। 8. ५०. तप उग्रादि पूर्व आख्यातं, ते विशिष्ट करिवा थी जातं ।। पासे रह्या नै भय उपजेह, तिण सू उराल-भीम कहेह ।। ४६. तत्ततवे ४६, ४७. तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः, एवं हि तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः सतापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति । (वृ०-५० १२) ४८. महातवे आशंसादोषरहितत्वात्प्रशस्ततपाः । (वृ०-५० १२) ४६. ओराले ४६, ५०. भीम उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणात्पावस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः । (वृ०-प० १२) ५१. अन्येत्वाहुः-'ओराले, ति उदार:-प्रधानः । ५२. घोरे घोरः अतिनिघृणः परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थ । (वृ०-५०१२) बले अन्य आचार्य कहै वानं, उराले उदार - प्रधानं ।। परिसह इंद्रियादि रिपु-गण जोरा,नाश करण निर्दयते घोरो।। ५२. *लय-ज्यार सोभे केसरिया साड़ी ४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलि अन्य आचार्य कहै वाणी,घोर-आत्म-निरपेक्ष पिछाणी॥ अन्य जन दुरनुचर घोर, मूल गुणादि सुजोर ॥ ५३. अन्ये त्वात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः। (वृ०-५० १२) ५४. घोरगुणे घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-मूलगुणादयो यस्य सः । (वृ०-प० १२) एहवा घोर गुणे करि सहीतं, ऐ तो गौतम स्वाम वदोतं ।। घोर तप करि आतम धामी, तिण सं घोर तपस्वी स्वामी।। ५६. घोरतवस्सी घोरैस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः। (वृ०-प० १२) अल्प सत्व जीव नै ताहि, घोर दुरनुचर कहिवाहि ।। ५७-५६. घोरबंभचेरवासी एहवा ब्रह्मचर्य नै विषेह, जसं वसिवा न शील सुलेह ।। घोर-दारुणमल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद्ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं तिण सं घोरबंभचेरवासी, एहवा इंद्रभूति सुख-रासी।। शीलं यस्य सः। (वृ०-५० १२) ६०. संस्कार स्नानादि तज्यू धीरं,तिण सं उच्छुढ-उज्झित शरीरं ।। ६०. उच्छूढसरीरे उच्छूढम् उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन ततसंस्कारत्यागात्सः। (वृ०-६० १२) ६१. बहु योजन क्षेत्र रै मांहि, वस्तु दहन समर्थ कहिवाइ॥ ६१-६३. संखित्तविउलतेयलेस्से ६२. एहवी विपुल तेजोलेश्या ज्वाला, विशिष्ट तप करि ऊपनी विशाला।। संक्षिप्ता-शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुला विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थ६३. ते संक्षेपी तनु अंतर कीनी, आ तो ह्रस्वपण करि लीनी ।। त्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य सः । (वृ०-प० १२) ६४. ज्यांरै च उदश पूर्व कहीजै, पोत होज रचित सलहीजै ।। ६४, ६५. चोद्दसपुब्बी ६५. च उदशपुवी इण वचनेह, श्रुतकेवली पिण कहेह ।। चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह । सोरठा च उदश पुरव धार, अवधि मनपज्जब रहित पिण । ६६. स च अवधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आहहुवै कोई अणगार, इण कारण थी हिव कहै ।। (वृ०-५० १२) ६७. वर केवल वरजी वदीतो, स्वामी च्यार ज्ञान करि सहीतो।। ६७. चउनाणोवगए केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः । सोरठा (वृ०-५० १२) ६८. कह्या विशेषण बेह, तेह युक्त पिण कोइक मुनि। ६८, ६६. उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्त समग्रश्रुतसमग्र श्रत विषयेह, व्यापक ज्ञानी नहि हवै।। विषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानकचउद पूर्व ना जाण, छट्ठाण व डिया' है अछ । पतितत्वेन श्रवणादित्यत आह- (०-प०१२) तिण कारण पहिछाण, आगल कहियै छै हिवे ।। *लय-ज्यारं सोभ केसरिया साड़ी १. छट्ठाणवडिया का अर्थ है—गुणों की न्यूनाधिकता से छह स्थानकों में विभाजन। यहां चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ज्ञान में रहने वाले अन्तर का संकेत है। वे छह स्थानक ये हैं-संख्यात-भाग, असंख्यात-भाग, अनन्त-भाग, संख्यात-गुण, असंख्यात-गुण और अनन्त-गुण हीन या अधिक । श०१, उ०१, ढा०२ ४१ Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. * जाण्या सर्व अक्षर ना संजोग, ए प्रथम अर्थ सुप्रयोग ॥ ७१. अथवा श्रवण मुकारी वर्ण तास, मिलता अति ही वदवानुं शील जाम ।। ७२. वीर नो महा सुविनीत, त्यांरे पूर्ण प्रभुजी सूं प्रीत ।। ७३. दूजी ढाल गौतम गुण दाख्या, ए तो सूत्र वृत्ति कर आख्या ।। ७४. भिक्षु भारीमात ऋषिशया सुख 'जय जय' हरप सवाश | १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ढाल : ३ दूहा 1 श्रमण भगवंत महावीर ते नहि अति दूर नजीक ऊर्द्ध अधमुख, उकडू आपण ठीक ॥ जानुनी ध्यान रूप कोठे रह्या, धर्म शुक्ल वृत्ति संजम तप करि आतमा भावित विचरे संजम ते संवर करी, तप ते उभय अंग ए मोक्ष ना, प्रवर संजम सूं नव कर्म नूं, ऊपजवू कर्म पुराणा तप करी, निर्जरिखूं संजम तप ए उभय थी, सकल कर्म तिण करि आतम भावता, गौतम मुनि विशेष अवधारण अरथ, कहियै भगवंत गौतम ज्ञानवंत ज जशवंत ध्यान रूप कोठा विषै रह्या पर्छ तिह णं वाक्यालंकार छै, से कहितांतसुं *लय - ज्यारे सोभ केसरिया साड़ी जाता प्रवर्त्ती छै श्रद्धा, ते वक्ष्यमाण जे अर्थ वर, तत्व-ज्ञान ४२ भगवती-जोड़ द्वादश प्रधान नहिं मांहि । ताहि ॥ भेद | संवेद || थाय । सुखदाय ।। क्षय हुंत । विचरंत ॥ वार । सार ॥ जान । आगल महिमावान || इच्छा सुविमास । प्रति जास || ७०. सव्वक्खरसान्नवाती ७०, ७१. सर्वे च तेऽक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती, श्रव्याणि वा-श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि सत्येन नितरां दितं शीलमस्येति श्रव्याक्षरसंनिवादी । (००० १२.१३) ७२. गुणो भगवान् दिनवसिरिय (बु०प० १२) १. समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे २. झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ | (श० ११६) ध्यानं धर्म्य शुक्लं वा तदेव कोष्ठः कुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः । (१०-२०१३) ३-५. 'संजमेणं' ति संवरेण 'तवस' त्ति अनशनादिना, संयमग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षांनत्वख्यापनार्थ प्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जन भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच्च सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, 'अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' त्ति, आत्मानं वासयस्तिष्ठ तीत्यर्थः । ( वृ० प० १३ ) ६. तते णं से 'ततः' ध्यानकोष्ठोपगतविहरणानन्तरं णमिति वाक्यालङ्कारार्थः 'स' इति प्रस्तुतपरामर्शार्थः । ( वृ० प० १३ ) ७. भगवं गोयमे तस्य तु सामान्यीक्तस्या ( वृ०म० १३) माग तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः । (२०-१०१३) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C १०. ११. १२. १३. १४. १५. जेहने सोय । तथा जात जे प्रवर्त्यो, संशय तिको जातसंशय का एद्वितिय विशेषण जोय ।। वा० - संशय जे अनवधारित अर्थ-ज्ञान ते संशय, इम ते भगवंत गौतम नैं जात कहितां प्रवर्त्यो भगवंत महावीर 'चलमाणे चलिए' इत्यादिक सूत्र नै विषै चलवा लागो जे अर्थ तेहन चल्यो कह्यो । तिहां वलि जेहीज चलवा लागो तेहिज चल्यो इस कह्यो । तेह थकी एकार्थ ए बिहु कह्या चलवा लागो ए वर्तमान काल विषय, अनै चल्यो ए अतीत काल विषय एह थकी इहां संशय नाम जेहीज अर्थ वर्तमान तेही अतीत किम हुवे ? वर्तमान अतीत ए बिहु काल ना विरुद्ध पणा थकी। जसुं एह || 1 तथा जात जे प्रवयों, कोतूहल जात को उहलं ए कह्य ू, तृतिय विशेषण कोतूहल औत्सुक्य जे ते इह रीत कह चलणादिक पदनों प्रवर, स्यूं प्रभु उत्तर देह ? || जे पूर्व अपनी ते श्रद्धा जसं होय नहि उत्पन्नद्ध को वसुं तु कह्यो । विशेषण जोय || जेह ख्यात । 1 आत || जातश्रद्ध आख्यां पछै उत्पन्नश्रद्ध किं प्रवृत्तश्रद्ध पणे करी उत्पन्नचपणं श्रद्धा उपजियां विना प्रवर्तं नहि थात । जातश्रद्ध आख्यां पछे, किम उत्पन्न आख्यात ? || हेतूपणं दिखावा, आय उत्पन्नश्रद्ध | कथं प्रवृत्तश्रद्ध ए ए ? जे उत्पन्नश्रद्ध लद्ध ॥ | वा० -अथ जातश्रद्ध इति एतला मांहेज उत्पन्नश्रद्ध पणुं ययुं, किण अर्थे उत्पन्नश्रद्ध इसो कहिये ? प्रवृत्तश्रद्धपणै करीज उत्पन्नश्रद्धपणुं लब्धपणा थकी । ऊपज्यां बिना श्रद्धा प्रवत्त नहीं इति । इहां उत्तर कहै छै - हेतुपणां ने दिखाड़वा अर्थ तथा कथं प्रवृत्तश्रद्ध कहिये जे कारण थकी पूर्व उत्पन्नश्रद्ध ते प्रवृत्तश्रद्ध इम हेतु दिखाडवा अर्थ कहिये । १. टीकाकार ने जातश्रद्ध और उत्पन्नश्रद्ध इन दो शब्दों के प्रयोग की सार्थकता बताते हुए संस्कृत श्लोक के दो चरण उद्धृत किए हैं प्रवृत्तदीपामप्रवृत्त भास्करों 1 प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी ॥ जिसमें दीपक प्रवृत्त हैं— जल रहे हैं और सूर्य अप्रवृत्त है-उगा नहीं है। यहां एक बात कहने से दूसरी बात स्वतः गम्य होती थी। पर अप्रवृत्त भास्कर इस पद का हेतु के रूप में उपयोग करने के लिए प्रवृत्त दीप इस पद का ग्रहण आवश्यक हो गया है। इसी प्रकार जातश्रद्ध कहने से उत्पन्नश्रद्ध अपने आप आ जाता है। जो उत्पन्न ही नहीं है वह जात प्रवृत्त कैसे हो सकता है ? किन्तु यहां उत्पन्नश्रद्ध पद के हेतुत्व को उपदर्शित करने के लिए जातश्रद्ध और उत्पन्नश्रद्ध इन दो शब्दों का ग्रहण किया गया है। ६. जायसंसए वा० तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशय: । ( वृ० प० १३) - संशयस्तु अनवधारितार्थ ज्ञानं स चैवं तस्य भगवतो जात:-भगवता हि महावीरेण 'चलमाणे चलिए ' इत्यादी सूत्रे चलन्नर्थश्चलितो निर्दिष्टः, तत्र च य एव चलन् स एव चलित इत्युक्तः, ततश्चैकार्थविषयावेतौ निर्देशौ चलन्निति च वर्तमानकालविषय: चलित इति चातीतकालविषयः, अतोऽत्र संशयः कथं नाम य एयार्थी वर्तमानः स एवातीतो भवति ? विवादनयो कालयोरिति । (१००० १३) १०, ११. जायको उल्ले तथा जातं यस्य स जातीजातीत्सुक्य इत्यर्थः कथमेतान् पदार्थान् भगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति । ( वृ०० १३) १२. उप्पन्नसड्ढे । उत्पन्ना -- प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्य स उत्पन्नश्रद्धः । (१०-१० १३) १२. अजातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्न - भिधीयते ? १४. वृत्पन्नत्वस्य तव्यत्वात् न ह्यनुसा श्रद्धा प्रवर्त्तत इति । १५. हेतुत्वप्रदर्शनार्थं, तथाहि कथं प्रवृत्तश्रद्ध उच्यते ? यत उत्पन्नश्रद्ध इति । श० १, उ० १, ढा० ३ ४३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. उप्पन्नसंसए १ १७. उप्पन्नकोउहल्ले १८. संजायसड्ढे १६. संजायसंसए २०. संजायकोउहल्ले २१. समुप्पन्नसड्ढे २२. समुप्पन्नसंसए २३. समुप्पन्नकोउहल्ले उत्पन्न संसय छ जसु, उत्पन्न - संसय तेह । एह विशेषण पांचवों, न्याय पूर्ववत् लेह ।। उत्पन्न कोतूहल जसु, उत्पन्न - कोतुहल तेह । एह विशेषण छट्टवों, न्याय पूर्ववत् लेह ।। संजाता अति प्रवृत्त ही, श्रद्धा-इच्छा जास । सजातश्रद्ध ए सप्तमू, कह्य विशेषण तास ।। संजात अति ही प्रवयू, संसय जेहनै सोय । संजाय - संसय अष्टम, एह विशेषण होय ।। संजात अति ही प्रवद्रू, कोतूहल जस जान। संजात - कोतुहल तिको, ए नवम विशेषण मान ।। समुत्पन्ना अति ऊपनी, श्रद्धा--इच्छा जास । समुत्पन्न-श्रद्ध तसं कह्यो, दशम विशेषण तास ॥ समुत्पन्न अति ऊपनों, संसय जेहनै तेह। समुत्पन्न - संसय तिको, एकादशम कहेह ।। समुत्पन्न अति ऊपनों, कोतूहल जसुं चित्त । तेह समुत्पन्न - कोतूहल, ए द्वादशम कथित्त ।। संजात-सड्ढे आदि त्रिण, समूत्पन्न - सड़ढे आदि । ए पिण त्रिण पद नै विष, वच सं प्रकर्षादि ।। कह्या विशेषण दोय दश, गौतम तणाज एह । सह पद विष विभक्ति है, प्रथमा इक वचनेह ।। अन्य आचारज इम कहै, जायसड्ढ इत्यादि । एह विशेषण बार न , इह विध कहै संवादि ।। जाता श्रद्धा जेहन, पूछण तणी पिछाण । तिको जात-श्रद्ध सुद्ध आखियो, ते जात-श्रद्ध स्यूं जाण?।। इह कारण थी हिव कहै, जेह थकी अवलोय । जात-संशयो, वस्तु ए इम ह वा इम होय ।। जात-संशय पिण तिको, किण प्रकार करि थाय ? इह कारण थी हिव कहै, सांभलज्यो चित ल्याय ।। जेहथी जात - कुतुहले, चलमाणे चलितादि । किण प्रकार करि अर्थ ए, हूँ जाणिस संवादि ?।। बलि विशेषण तीन ए, जात-श्रद्ध अवलोय । जात-संशय, कोतूहल, अवग्रह आश्री जोय ।। उप्पन्न - श्रद्ध संशय- उप्पन्न कोतूहल-उत्पन्न । ईहा तणी अपेक्षया, ए त्रिह कह्या वचन्न ।। संजाय - सड्ढे समय, कोतूहल संजात । अपाय तणी अपेक्ष या, ए बच त्रिहुं आख्यात ।। २६-२६. अन्ये तु 'जायसड्ढे' इत्यादि विशेषणद्वादशकमेवं व्याख्यान्ति—जाता थद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः, किमिति जातश्रद्धः? इत्यत आह-यस्माज्जातसंशयः, इदं वस्त्वेवं स्यादेवं वेति, अथ जातसंशयोऽपि कथमित्यत आह-- (वृ०-प०१४) ३०. यस्माज्जातकुतूहल: कथं नामास्यार्थमवभोत्स्ये? (वृ०-५० १४) ३१-३४, एतच्च विशेषणत्रयमवग्रहापेक्षया द्रष्टव्यम्, एवमु त्पन्नसंजातसमुत्पन्नश्रद्धत्वादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्याः। (वृ०-५० १४) m m ४४ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. समुत्पन्न । वचन्न ॥ धारणा जातद्धत्वादेह । एह || तीनूई होय । ए अर्थ अवलोय || आख्यात | समुत्पन्न श्रद्धा पुनः, सशय समुत्पन्न - कोतुहल त्रिहुं है अन्य आचारज इम कहै कथा अपेक्षा करि दहां पद उत्पन्नश्रद्ध इत्यादि पद, तुल्य वांछित प्रकर्ष वृत्ति प्रतिपादन स्तुतीमुख करि ने यहां पंचता बलि पुनरुक्त न दोष इम वक्ता हर्ष भयादि करि बार बार पद जे कहै, समुच्चय द्वादश वोल ए, सूत्रे अधिक अर्थ दाख्यो इहां, वृत्ति थकी विस्तार || हियं भगवंत गौतम सिके, कठे कठी धीर । जिहां दिशिभाग विर्ष अर्थ, श्रमण भगवंत महावीर ॥ तिहां आवै आवो करी, तिण काल तणी अपेक्षाय । वर्तमान छे ते भो, कहो वर्तमान किया ताय ॥ निर्माणो तस अवदास' || आक्षिप्त मन स्तुति निंद । पुनरुक्त दोष न मंद ।। आख्या सार । * जिन श्रमण तपस्वी, भगवंत ऐश्वर्यवान। जस महिमावंत ज्ञानवंत, महावीर प्रति जान ॥ बुहा तिखुत्तो वि वारज, दक्षिण कर थी आरंभ। पयाहिणं प्रदक्षिण करें, करी करे, करी गुणअंभ ॥ १. कुछ आचार्यों के अभिमत में जातश्रद्ध आदि पद एक अपेक्षा से उत्पन्नश्रद्ध आदि पदों के समानार्थक हैं । किन्तु विवक्षित अर्थ का प्रकर्ष दिखलाने के लिए ग्रन्थकार ने प्रशस्ति के रूप में इन पदों का प्रयोग किया है। यह प्रयोग पुनरुक्त होने पर भी दोष नहीं है क्योंकि वक्ता हर्पभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृत् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥ हर्ष, भय आदि से विक्षिप्त होकर बोलने वाला अथवा स्तुति या निन्दा करने वाला एक ही पद का बार-बार उच्चारण करता है। उसका वह पुनर्वचन दोष नहीं माना जाता। क्योंकि यह स्वाभाविकता है । २. उत्थानं उत्था अर्थात् उठने की क्रिया। यहां उट्ठेति क्रिया को उठाए शब्द से विशेषित किया गया है। इस विशेषण-प्रयोग का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने कहा है—'उट्ठेइ' इतना कहने से क्रिया के प्रारंभ होने की ही प्रतीति होती है। इसका व्यवच्छेद करने के लिए, पूर्णतः उठ गए इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए उठाए शब्द का प्रयोग है । उत्थानं उत्था - ऊर्ध्ववर्तन इत्यर्थः तथा उत्थया, उत्तिष्ठति ऊर्ध्वो भवति । *लयन ए अनन्त चौबीसी ू ३५-३७. अन्ये त्वाहुः -- जातश्रद्धत्वाद्यपेक्ष योत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्थी विवलितार्थस्य प्रवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुनेन प्रत्यकृतोताः । (20-70 ?) ३८. वक्ता हर्ष भयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । महत्पुनस्तं न दोषाय ॥ ( वृ० प० १४ ) ४०. उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे ४१. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, तत्कालापेक्षया वर्तमानत्वादागमनक्रियाया वर्तमानविभक्त्या निर्देश: (१०० १४) कृतः । ४२. समणं भगवं महावीरं ४३. तिक्खुतो आयाहिण-पयाहिणं, 'तितो' तीन् वारान् । करेइ, करेत्ता । ( वृ० प० १४ ) श० १, उ० १, ढा० ३ ४५. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. ४४. वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ४५. णच्चासन्ले णातिद्रे सुस्सूममाणे ४६. णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे ४७. पज्जुवासमाणे एवं वयासी- (श०१।१०) वंदै वचस्तुति करै, काय करी नमस्कार। वंदी नै मुनिवर बली, नमस्कार करि सार ।। *नहीं अति ही हूं कड़ा, बली नहीं अति दूर । प्रभु वच सुणवा नीं, इच्छा धरता सनूर ।। नमस्कार करता, श्री जिन सन्मुख सार । अति विनय करी ने, वे कर स्थाप निलाड ।। जिन सेवा करता, ए सुणवा नी विद्ध'। आगल कहिस्य ते, बोल्या वयण प्रसिद्ध ।। से नणं भंते, से कहितां ते ख्यात । चलवा लागो ते, चल्यू करा जगनाथ ।। णणं इम अर्थे, तिहां तिहां अवलोय। एह तणु एम जे, व्याख्यातपणा थी जोय ।। अथवा से शब्दज, मागध देश प्रसिद्ध । अथ शब्द अर्थ में, वत्त एह समृद्ध ।। अथ शब्द बली जे, वाक्य उपन्यासार्थ। परिप्रश्नार्थो वा, प्रारंभ नै प्रश्नार्थ ।। भंते ! गुरु आमंत्रण, हे भदंत ! गुणगेह। हे कल्याणरूपज ! हे सुख-स्वरूप! वा लेह ।। प्राकृत शैली करि, भव संसार नू जाण। अंत हेतुपणा थी, वा भवांत पहिछाण ।। अथवा जे भय ना, अंत हेतु थी एह । तसं भयांत कहिये, प्राकृत शैली करेह ।। तेहने आमंत्रण, हे भवांत ! गुण-हीर। अथवा तसं कहिये, हे भयांत ! अति धीर ।। अथवा हे भान् ! ज्ञानादि करि दीप्यमान । भा धातु कहिये, दीप्त अर्थ में जान ।। हे भ्राजमान ! वा, दीप्यमान दीपेह । भ्राजु धातू ते, दीप्ति अर्थ विह।। ४८,४६. से णणं 'से' इति तद् यदुक्तं पूज्य: ‘चलच्चलित' मित्यादि ‘णूणं' ति एवमर्थे, तत्र तवास्यैवं व्याख्यातत्वात् । (वृ०-५० १४) ५०, ५१. अथवा 'से' इति शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे वर्त्तते अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः परिप्रश्नार्थों बा। (वृe-प०१४) my ५२-५७. भंते ! भत्ते' त्ति गुरोरामन्त्रणं, ततश्च हे भदन्त !-कल्याणरूप ! सुखरूप ! इति बा, प्राकृतशैल्या वा भवस्यसंसारस्य भयस्य वा-भीतेरन्तहेतुत्वाद्भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! हे भयान्त ! वा, भान् वा.....ज्ञानादिभिर्दीप्यमान ! 'भा दीप्तौ' इति वचनात्, भ्राजमान ! बा-दीप्यमान। 'भ्राज दीप्तौ' इति वचनात् । (वृ०-प० १४, १५) ५७. *लय-नमू ए अनन्त चौबीसी १. निकट। २. 'णमंसमाणे' टीकाकार ने इस पाठ की व्याख्या नहीं की है। संभव है उनके सामने जो प्रति रही है, उसमें यह पाठ नहीं है। ३. तत्त्वावबोध के लिए गुरु के पास किस प्रकार बैठकर सुनना चाहिए? इस सम्बन्ध में टीकाकार ने एक पद्य उद्धत करते हुए कहा है-- निद्दा विगहा परिवज्जिएहि गुत्तेहि पंजलिउडेहि । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहि सुणेयव्वं ॥ ४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. ५६. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ६६. ७०. वा०-- इहां तेणं कालेणं इत्यादिक आदि थकी आरंभी ने भंत शब्द-पर्यंत ग्रंथ भगवंत सुधम्मं स्वामी पंचम अंग ना प्रथम शतक ना प्रथम उद्देशक नो संबंध अर्थ को। अथ इण संबंध करिकै आयु पंचमांग प्रथम शतक ना प्रथम उद्देशक नं ए आदि सूत्र 'चलमाणे चलिए' इत्यादि I हिव आदि सूत्र कहै, चलमाणे चलिए तेम | तिहां वृत्तिकार का, अन्य पद नाण्या केम ? | J ए | धर्म अर्थ काम मोक्ष, पुरुषार्थ है च्यार । मुख्य मोक्ष चि में तनुं अरि बंध विचार ।। कर्मबंधनो, क्षय विषय अवलोय । अनुक्रमे कहा ए बलमाणे प्रमुख सुजोय || तिण सूं घर आयो, चलमाणे सुविचार | हिव गौतम पूछे, प्रथम प्रश्न नव सार ॥ चलवा लोगो, ते चल्यूं कहीजै स्वाम । स्थिति ना क्षय सेती, उदय आवतो ताम ॥ असंखेज्ज समय नो, चलन काल कहिवाय । आदि मध्य अनं अंत उदय आवलिका माय ॥ कर्म पुद्गल केरा, इक इक समये जोय । स्कंध अनन्त प्रदेशिक, चलै ते पहिले समये चलवा तसुं चल्यूं कहीजे, नय वचने 7 सोय ।। जह पट करि एह || उत्पत्ति काले, प्रथम तंतु-प्रवेश | पट उपनो कहीजै, ए छे पट नों देश || हम पहिलं समर्थ, चल् कर्म में अंग । तसुं चल्युं न कहै तो, सर्व अचलन प्रसंग ॥ एक अंत समय में ल्यूं कहीजे सोय । तो अपर समय ते, निष्फल तसुं मत जोय || जे पहिले समये, चलवा लामो तेह। जे चकही उतर समय न च ॥ धुर समय चल्युं कह्यां, उदय आवलिका मांय | सर्व समचत् क्षय, ए घर प्रश्न कहाय ॥ वा०-- चलमाणे इत्यादितिहां चलमाणे कहितां चलवा लागो कर्म ते, चलिए कहितां चलियो । चलवा लागो-ते स्थिति ना क्षय थकी उदय आवतो विपाक, ते भोगविवारे सन्मुख थातो जे कर्म इति । ते अवसर नै विषै ते कर्म चल्युं - उदय थयुं इम कहिये । चलनकाल – उदय आवलिका प्रमाण काल, तेह उदय आवलिका काल कहिये । ते उदय आवलिका रूप काल नै असंखेज्ज समयपणांथी आदि, मध्य, अंतपणुं वर्त्ती । अनं कर्म पुद्गल पिण जे अनंत प्रदेशिया स्कंध 2 अनंता लागो वा० -अयं च आदित आरभ्य 'भंते' ति पर्यन्तो ग्रन्थो भगवता सुधर्मस्वामिना पञ्चमांगस्य प्रथमशतकस्य प्रथमोद्देकस्य सम्बन्धार्थमभिहितः स नायातस्य पञ्चमस्मादि सूत्रम् -- 'चलमाणे चलिए' इत्यादि । ( २००५० १५) ५८. चलमाणे चलिए ? अथ केनाभिप्रायेण भगवता... अनुकु वाचकंपन्यस्तं ना? (२००० १५) ५६. इह चतुर्षु पुरुषार्थेषु मोक्षाख्यः पुरुषार्थो मुख्यः... तद्वि(बु०-१० १५) ६०. कर्मणां प्रक्षयेऽयमनुकम उक्तः (०० १५) पक्षश्च बन्धः । ६२, ६३. 'चलमाणे' त्ति चलत्-स्थितिक्षयादुदय मागच्छद् चलनकालो हि उदयावलिका, तस्य च कालस्यासङ्ख्ये - समपादादिमध्यान्तयो (१०० १५) ६४ ६५. कर्मलानामप्यनन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेणा ततश्च ते क्रमेण प्रतिसमयमेव चलन्ति, नत्र योऽसावाद्यश्चलनसमयस्तस्मिश्चलदेव तच्चलितमुच्यते । (१०-१० १५) ६६. यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोन्नो भवति । (70-70 (2) ६७. आदिसमवात्प्रभृति चलदेव कर्म... न चलितं स्यात्तदा... सर्वदैवाचलनप्रसंगः। (००० १५) ६९, ७०. यच्च तस्मिंश्चलितं तच्चोत्तरेषु समयेषु न चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवाद्यं चलनं भवेत्तदा तस्मिन्नेव चलने सर्वेषामुदयावलिका चलन समयानां क्षयः स्यात् । ( वृ० प० १५) चार- 'चलमाणे' इत्यादि तत्र 'चलमाणे' ति चलत्स्थितिक्षयादुदयमागच्छद् विपाकाभिमुखीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यं तच्चलितम् उदितमिति व्यपदिश्यते, चलनकालो हि उदयावलिका, तस्य च कालस्यासङ्घ यसमयत्वादादिमध्यान्तयोगित्वं कर्मबुद्गलानामप्यनन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेशाः ततश्व ते क्रमेण श० १, उ० १, डा० ३ ४७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसमय मेव चलन्ति, तत्र योऽसावाद्यश्चलनसमयस्तस्मिश्चलदेव तच्चलितमुच्यते, कथं पुनस्तद्वर्तमान सदतीतं भवतीति ? अत्रोच्यते---- अनन्ता। ते अनन्त प्रदेशिया अनन्ता स्कंध । अनुक्रम करिकै समय समय प्रति चलै छ। तिहां जिकै ए आदि चलन समय तेहनै विषै चलवा लागो कर्म तिकोहीज चलियो कहिये। बली ते वर्तमान छतो अतीत किम हुवै ? इति इहां उत्तर कहै छै जिम पट उत्पद्यमान काले प्रथम तंतु प्रवेश नै विष ऊपजवा लागो हीज ऊपज्यो इसो हुवै छ। उत्पद्यमानपणुं ते पट नै प्रथम तंतु प्रवेश काल थकी प्रारंभी नैं पट उपज इति । इम व्यपदेश देखवा थकी प्रसिद्ध हीज। बली ऊपजवापणो युक्ति करिकै प्रसाधिय। जे भणी तिण प्रकार करिकै उत्पत्ति क्रिया काल हीज प्रथम तंतु प्रवेश नै विष ए पट ऊपनों, जो बली नहीं ऊपनों हुवै तदा तिवारे तेहनी क्रिया नों व्यर्थपणो थासी. निष्फलपणा थकी। ऊपजवा योग्य वस्तु नों जे उपजायवो...प्रगट करिवो तेहीज अर्थ-प्रयोजन जे क्रिया नों ते उत्पाद्य उत्पादनार्था क्रिया हुई । बली जिम प्रथम क्रिया क्षण के विषै ए पट ऊपनों नहीं, तिम उत्तर क्षण नै विष पिण अणऊपनों हीज ए पट प्राप्त हुवै। जे भणी उत्त रक्षण क्रिया नो स्व विषय स्वरूप विशेष कवण छै? जिण कारण करी जे पट प्रथम समय न ऊपनों ते पट उत्तर समय करिक किम ऊपजावै ? अपित् न उपजावै। इण कारण थकी सर्व कालहीज अनुत्पत्तिः प्रसंगः । अनै अंत्य तंतु प्रवेशकाल नै विष पट नी उत्पत्ति दीठी ते देखवा थकी। इण कारण थकी प्रथम तंत्र प्रवेश काल हीज पट नं किंचित ऊपन, जेतलू ऊपनं ते वली उत्तर क्रिया करिके न उपजाविय, जो पूर्वे ऊपनों तेहीज बलि उपजावै तिवारै ते पट नों पूर्व ऊपनों जे एक देश तेहनी उत्पादन क्रिया नो अनै काल नों क्षय हुई। जो पूर्व ऊपनो अंश ते निरपेक्ष अनेरी क्रिया हुई । ते उत्तर अंश द्वितीयादि समय अंश - अनुक्रमण युक्त पावै । अन्यथा नहीं। जिम पट ऊपजवा लागो तेहीज ऊपनों। तिण प्रकार करिके हीज असंखेज्ज समय परिमाणपणां थकी। उदय आवलिका ना आदि समय थकी प्रारंभी चलवा लागो तिको हिज कर्म चल्यु कहियै । ते किम? जे भणी जो ते कर्म चलन रै सन्मुख थयु उदय आवलिका नूं आदि समय हीज न चल्यु हुवै तिवार ते आदि समय नै विष चलन समय न व्यर्थपणुं हुवै, तिहां अचलितपणां थकी। अनै जिम प्रथम समये न चल्यु, तिम द्वितीयादिक समय नै विष पिण न चलै । ते जमाल्यादिक मत नै विष स्व विषय स्वरूप विशेष, जिण कारण करिक जे कर्म प्रथम समय न चल्यु ते कर्म उत्तर समय नै विष किम चल। अपितु न चलै । इण कारण थकी । सर्वदा अचलन प्रसंग, अंत्य समय नै विष स्थिति थकी कर्म न चलिवू हुवै। परिमितपणे करी। कर्म न अभाव अंगीकार करिवा थकी। इण कारण आवलिका काल नां आदि समय नै विषहीज किंचित् चल्यु । अनैं जे कर्म आवलिका काल ना आदि समय नै विष चल्यं बली ते कर्म द्वितीयादि उत्तर समय नै विष न चलै, बली जो उत्तर समय नै विषै पिण तेहीज आदि चलन हुवै, तिबारै तेहनै विष हीज चलन छत सर्व उदय-आवलिका चलन समय नों क्षय हुवै। जे भणी ते आदि समय चलन नी निरपेक्ष अन्य समय चलन हुवै तिवारै उत्तर समय चलन अनुक्रमण जुड़े अन्यथा नहीं । ते इम चलवा लागो तिको पिण ते कर्म चल्यु हुवै इति । यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति, उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यते इत्येवं व्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव, उत्पन्नत्वं तूपपत्त्या प्रसाध्यते, तथाहि-उत्पत्तिक्रियाकाल एव प्रथमतन्तप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत्तदा तस्याः क्रियाया वैयर्थ्यमभविष्यत्, निष्फलत्वाद्, उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रियाः भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासावुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि क्षणेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्नोति, को ह्य तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषो? येन प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तुत्पाद्यते, अतः सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसंगः, दृष्टा चोत्पत्तिः, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनाद्, अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किञ्चिदुत्पन्नं पटस्य, यावच्चोत्पन्नं न तदुत्तरक्रिययोत्पाद्यते, यदि पुनरुत्पायेत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात्, यदि हि तदंशोत्पादन निरपेक्षा अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुक्रमण युज्यते नान्यथा । तदेवं यथा पट उत्पद्यमान एवोत्पन्नस्तथैवासङ्खचातसमयपरिमाणत्वादुदयावलिकाया आदिसमयात्प्रभृति चलदेव कर्म चलितं, कथ? यतो यदि हि तत्कर्म चलनाभिमुखीभूतमुदयावलिकाया आदिसमय एव न चलितं स्यात्तदा तस्याद्यस्य चलनसमयस्य वैयर्थ्य स्यात् तत्राचलितत्वात्, यथा च तस्मिन् समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि न चलेत्, को हि तेषामास्मनि रूपविशेषो? येन प्रथमसमये न चलितमुत्तरेषु चलतीति, अतः सर्वदैवाचलनप्रसंगः, अस्ति चान्त्यसमये चलन, स्थितेः परिमितत्वेन कर्माभावाभ्युपगमाद्, अत आवलिकाकालादिसमय एव किञ्चिच्चलितं, यच्च तस्मिश्चलितं तच्चोत्तरेषु समयेषु न चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवाद्यं चलनं भवेत्तदा तस्मिन्नेव चलने सर्वेषामुदयावलिकाचलनसमयानां क्षयः स्यात्, यदि हि तत्समयचलननिरपेक्षाण्यन्यसमयचलनानि भवन्ति तदोत्तरचलनानुक्रमणं युज्येत नान्यथा, तदेव चलदपि तत्कर्म चलितं भवतीति। (वृ०-प०१५) ७१. उदीरिज्जमाणे उदीरिए ? *उदीरवा मांड्यो, तास उदीर्यो कहीजै। हिव उदीरणा नों लक्षण, इम सदहीजै ।। *लय-नम ए अनन्त चौबीसी ४८ भगवती-जोड़ dain Education International Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२-७४. उदीरणा नाम उदयाप्राप्त चिरेणाऽऽगामिना कालेन यद्वेदयितव्यं कर्मदलिकं तस्य विशिष्टाध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणं सा चासंख्येयसमयबत्तिनी तया च पुनरुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय एवोदीर्यमाणं कर्म पूर्वोक्तपटदृष्टान्तेनोदीरितं भवति । (वृ०-५० १५, १६) कर्म उदय न आव्यो, ते घणे आगमियै काल। भोगविवो होस्य, कर्म दलिक ते न्हाल ।। ७३. विशिष्ट अध्यवसाय करि, उदय आणै कर्म-राश । असंखेज्ज समयवर्ती, कहीजै उदीरणा तास ।। ७४. उदीरवा मांड्यो, प्रथम समये राश । तसं उदीयूं कहीजै, पट दृष्टांत विमास ।। बाल-उदीरिज्जमाणे-उदीरणा कहिता जे कर्म उदय आव्यो नथी, घणे आगमिये काल वेदीजस, पिण ते कर्म उदीरणा करिक उदय आविबा जोग्य छ तेह कर्म नो शुभाध्यवसाय लक्षण करणे आकर्षी उदय आणिय, ते उदी रणा। ते असंख्यात हीज समय वर्त। तिण उदीरणाए प्रथम समय उदीरिवा मांड्यो कर्म पूर्वोक्त पट दृष्टांते करी उदीरिओ कहिवाई। ७५. *वेदव भोगवि, उदय आव्यो कर्म जेह । तथा उदीरणा करि, उदय आण कर्म तेह ।। ते असंख समय लग, आदि समय तसं लीजै। जे वेदवा मांड्य, वेा तास कहीजै ।। ७५, ७६. वेदिज्जमाणे वेदिए? वेदन-कर्मणो भोगः, अनुभव इत्यर्थः, तच्च वेदनं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाक रणेन वोदयमुपनीतस्य भवति, तस्य च वेदनाकालस्यासंख्येयसमयत्वादाद्यसमये वेद्य मानमेव वेदितं भवति । (वृ०-५० १६) वा०बेदनं कहितां कर्म न भोगविवं, ते वेदनी स्थिति नां क्षय थकी उदय आयां कर्म नै अथवा उदीरणा करिव करी उदय आण्या कर्म नों वेदव हुवै ते वेदना काल ना असंख्यात समयपणा थकी प्रथम समय बेदवा लागो ते वेद्यो कहिये। प्रकर्षे हीणो, पडवा लागो ताय । तसं हीणो पड़ियो, प्रथम समय कहिवाय ।। ७७. ७७. पहिज्जमाणे पहीणे? ७८, ७६. प्रहाणंतु-जीवप्रदेशः सह संश्लिष्टस्य कर्मणस्तेभ्यः पतनम्, एतदप्यसंख्येयसमयपरिमाणमेव, तस्य तु प्रहाणस्यादिसमये प्रहीयमाणं कर्म प्रहीणं स्यादिति । सोरठा जीव प्रदेश-संघात, मिल्यं कर्म छै तेहनं । तेहथी पडिवू थात, ए पिण समय असंख लग ।। ए पिण धुर समयेह, तजवा लागू कर्म ते। तज्यूं कहीजै तेह, प्रहीयमान प्रहीण ते ।। *जे छेदवा मांड्यू, छेा तास वदंत । कर्म दीर्घ काल स्थिति, थोड़ो काल करत ।। अपवर्तन नामज करण विशेष करेह । ते पिण जे छेदवं, समय असंखिज्ज लेह ।। ८२. तसं आदि समय में, स्थिती थकी अवलोय । छिज्जमाण कर्म ते, छेद्यं कहिये जोय।। जे भेदवा मांड्यू, भेद्यं कहीजे तास । रस नी अपेक्षाए, शुभ अशुभ कर्म-राश ।। *नम ए अनन्त चौबीसी ८१. ८०-८२. छिज्जमाणे छिण्णे? छेदनं तु.-.कर्मणो दीर्घकालानां स्थितीनां ह्रस्वताकरणं, तच्चापवर्तनाभिधानेन करणविशेषेण करोति, तदपि च छेदनमसंख्येयसमयमेव, तस्य त्वादिसमये स्थितितस्तच्छिद्यमानं कर्म छिन्नमिति। (वृ०-प० १६) ८३-८५. भिज्जमाणे भिण्णे? भेदस्तु-कर्मणः शुभस्याशुभस्य वा तीव्ररसस्यापवर्त्तना श०१, उ०१, ढा०३ ४६ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. ८५. ८६. ८७. ८५. ८६. ६०. ६१. १२. ३. ६४. ६५. ६६. ६७. ५० तीव्र रस नैं मंद करें, अपवर्तन मंद रस नै ती ते पिण जे घर समय रस दहिवा मांड्यू कर्म रूप काष्ठ सोरठा समुप्यर्ज । बालियां । कर्म दलिक कठ जेह, ध्यानाग्नि करि दाह तनुं । कर्म - दल भस्म करेह, अकर्मपणुं जिम दारुक नैं जेह, अग्नि करी ने काष्ठ रूप न रहेह, भस्म रूप ह्र तिम कर्म न पिण दाह, अंतपर्ण समय असंखिज्ज आह, दज्झमाण दग्ध धुर समय ॥ करे करण भेदवूं, समय असंखिज्ज जन्न । की भिज्ञमाण कर्म भिन्न ।। ते दहा कहीजे सोय नैं, ध्यान अग्नि करि जोय || घर समय जन्म समय समय 1 *मरवा मायूँ ते मयूँ कहीजं जेह नां, पुद्गल नों क्षय एह ॥ ए आयु कर्म करणेन । उसैन ॥ निर्जरिवा लागो, निजं ए जीव प्रदेश भी कर्म असंखेज्ज समयवति पट ए बोल नवूं ही, सगले *लय नमूं अनन्त चौबीसी भगवती-जोड़ थी, आवीचीमरण अपेक्षाय । मरंतो, त्रियमाणे मृत स्थाय ॥ दाह ते । करी । गुणवत इसा अजाणपणां ज्ञानावरणी तथा जाणता पिण केइ, । ए गौतम स्वामी, वीरघर प्रेम नव प्रश्न पूछ्या, तिहां वृत्तिकार का एम ॥ द्वादश अंग विरचित सवं श्रुत ना जाण सर्वज तुल्य ए किम पूछा गुणवाण ॥ ते थयुं क्षीन वेगला फौन ॥ दृष्टांत ताय । कहिवो न्याय || पिण, उद्यस्थपणां ने योग। नों, संभव तास प्रयोग || नीं प्रकृति उदय सुजोय । सोय || प्रश्न पूछे करणेन मन्दताकरणं, मन्दस्य चोद्वर्त्तनाकरणेन तीव्रताकरणं, सोऽपि चासंख्येयसमय एव ततश्च तदाद्यसमये रसतो भिद्यमानं कर्म्म भिन्नमिति । ( वृ० प० १६) ६. मागे ? ८६-८६. दाहस्तु —— कर्म्मदलिकदारूणां ध्यानाग्निना तद्रूपापनयनमकत्वजननमित्यर्थः, यथा हि काष्ठस्याग्निना दग्धस्य काष्ठरूपापनयनं भस्मात्मना च भवनं दाहस्तथा कर्म्मणोऽपीति, तस्याप्यन्तर्मुहूर्त्तत्तत्वेनासंख्येयसमयस्यादिसमये दह्यमानं कर्म दग्धमिति । ( वृ०० १६) ६०, ६१. मिज्जमाणे मए ? त्रियमाणमायुः कर्म्ममृतमिति व्यपदिश्यते, मरणं ह्यायुः पुद्गनानां क्षपः तचाभवति तस्व प्रथमसमयादारभ्यावीचि कम रणेनानुक्षणं मरणस्य भावान्प्रियमाणं मृतमिति । ( वृ०१० १६) च जन्मनः ६२, ६३. निज्जरिज्जमाणे निज्जिणे ? निर्जीयमाणं नितरामपुनदिन श्रीयमाणं कर्म निर्जीर्थक्षीणमिति व्यपदिश्यते निर्जरस्यासंख्ये यसमयभावित्वेन तत्प्रथम समय एव पटनिष्पत्तिदृष्टान्तेन निर्जीर्णत्वस्योपपद्यमानत्वादिति, पटदृष्टान्तश्च सर्वपदेषु सभावनिको वाच्यः । ( वृ० प० १६) ४. तदेवमेतान्नव प्रश्नान् गौतमेन भगवता भगवान् महावीर: रः पृष्टः । ( वृ०० १६) ६५. अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति ? विरचितद्वादशाङ्गतया विदितसकलविषयत्वेन निखिलसंयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य । ( वृ० प० १६) ६६. उक्तगुणत्वेऽपि छत्रस्थतयाऽनाभोगसम्भवात् । ( वृ०० १६) ६७. यस्माज्ज्ञानावरणं ज्ञानवरणप्रकृति कर्म इति, अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति । (बु०या० १६) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. १८, ६६. अज्ञलोकबोधनार्थ शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थं सूत्ररचनाकल्पसंपादनार्थं वेति । (वृ०-५० १६) तथा अजाण लोक नै, समझावण वर नीत । शिष्यां नै निज वचनी, उपजावण परतीत ।। तथा सूत्र नी रचना, निपजावा संपेख । श्री गौतम प्रभु नै, पूछया प्रश्न अनेक ।। जिन उत्तर दे इम, हंता गोयमा ! वाण । हंत कोमलामंत्रण, दीर्घ मागध देशी जाण ।। चलमाणे चलिए, इत्यादि प्रत्युच्चार। जिम गौतम पूछयो, तिम हिज उत्तम सार ।। १०१. १००. हता गोयमा ! हन्तेति कोमलामन्त्रणार्थः, दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रभवमुभयत्रापि। (वृ०-प०१६) १०१. चलमाणे चलिए... - [श० १११] चलमाणे इत्यादेः प्रत्युच्चारणं तु चलदेव चलित मित्यादीनां स्वानुमतत्वप्रदर्शनार्थम् । (३०-प०१६) १०२, १०३. वृद्धाः पुनराहुः---'हंता गोयमा' इत्यत्र 'हन्ते' ति एवमेतदिति अभ्युपगमवचनः, यदनुमतं तत्प्रदर्शनार्थ । (वृ०-प०१६) १०३. वृत्तिकार कह्यो बलि, वृद्धा इम आखंत । हंत शब्द तणो अर्थ, इमहिज एह सुतंत ॥ अंगीकार नै अर्थे, हंत शब्द कहिवाण । पछै जिन नव पद कह्या, आज्ञा अर्थे जाण ॥ ए नइ पदां नों, कर्म तणे अधिकार । प्रश्न ने उत्तर, आख्या अधिक उदार ।। १०४. १०४. एवमेतानि नव पदानि कर्माधिकृत्य वर्तमानातीत कालसामानाधिकरण्यजिज्ञासया पृष्टानि निर्णीतानि च। (वृ०-प०१६) १०५, १०६. एए णं भंते ! नव पदा कि एगट्ठा नाणाधोसा नाणावंजणा? १०७. १०७, १०८. उदाहु नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा? १०८. ११०. बलि गौतम पूछे, नव पद हे भगवंत ! माहोमांहि एकार्थक, स्यूं तुल्य अर्थ कहत?।। णाणा - घोसा ते, घोप नाना प्रकार। णाणा - बजणा ते, अक्षर जजआ सार?।। उदाहु पाठ ते, विकल्प अर्थ निपात। अथवा नव पद नो, जूजूओ अर्थ विख्यात ?।। जजआ घोप छै, अक्षर नाना प्रकार । तिहां वृत्तिकार इम, कही चौभंगी सार ।। केइ एक - अर्थ है, व्यंजन पिण छै एक। जिम क्षीरं क्षीरं, इत्यादिक सुविशेख ।। तथा एक-अर्थ पिण, जजआ व्यंजन जाण। जिम क्षीर अनै पय, इत्यादिक पहिछाण ।। तथा अनेक अर्थ पिण, व्यंजन एक विचार। गाय भैस आक नों, क्षीर चतुर ! अवधार। तथा अनेक अर्थ वलि, जुजआ व्यंजन जाण । जिम घट पट नै स्तंभ, कुंभ प्रमुख पहिछाण ।। इहां गौतम प्रश्न, पूछयो तिण में ताहि। दुजो नै चौथो, भांगो पाठ रै मांहि ।। चलनादिक चिहुं पद, दूजे भांगै देख। छिन्नमाणादि पंच पद, चौथै भांगै पेख ।। प्रभु उत्तर दे इम, सांभल गौतम शीस। चलवा लागो ते, कहीजै चल्यं जगीस ।। १११. ११२. १०६. तत्र कानिचिदेकार्थानि एकव्यञ्जनानि यथा क्षीरं क्षीरमित्यादीनि। (वृ०-प०१७) ११०. तथाऽन्यानि एकार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा क्षीरं पय इत्यादीनि। (वृ०-५०१७) १११. तथाऽन्यान्यनेकार्थान्येकव्यञ्जनानि यथाऽर्कगव्यमाहिषाणि क्षीराणि। (वृ०-प०१७) ११२. तथाऽन्यानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथाघटपट___ लकुटादीनि। (वृ०-५०१७) ११३. तदेवं चतुभंगीसंभवेऽपि द्वितीयचतुर्थभंगको प्रश्नसूत्रे गृहीतौ। (वृ०-प०१७) ११४. चलनादीनि चत्वारि पदान्याश्रित्य द्वितीयः,छिद्यमाना दीनि तु पञ्च पदान्याश्रित्य चतुर्थ इति ।(वृ०-प०१७) ११५-११८. गोयमा ! चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेदिज्जमाणे वेदिए, पहिज्जमाणे पहीणे ११३. ११४. ११५. श० १, उ० १, ढा० ३ ५१ Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणार्वजणा। ११७. ११८. ११६. १२०. उदीरवा मांड्यो, तास उदोरयो कहीजे। वेदवा मांड्यो जे, वेद्यो तास वदीजै ।। हीणो थावा मांड्यं, हीण थयं कहिवाय । ए पद च्यारूंई, एक अर्थ माहोमांय ।। णाणा घोसा ते, घोष जुजूआ जाण । बलि नाना व्यंजन, जुजुआ अक्षर पिछाण ।। उप्पन्नपक्खस्स , उत्पन्न ते उत्पाद । तसुं पक्ष अंगीकृत, पर्याय अर्थ इक साध ।। अथवा ए च्यारूंइ, अंतर्महत भादि। तुल्य काल छै ते भणी, एक अर्थ विधि आवि ।। उत्पाद नाम ते, वर पर्याय विशिष्ट । केवल उपजवू, तेहिज ए इहां इष्ट ।। कर्म - चिताधिकारे, कर्म-क्षये फल दोय। इक केवलज्ञानं, द्वितिय मोक्ष पद जोय ।। तिहां ए च्यारूं पद, केवल नों उत्पाद । तेह वेला आश्री, एक अर्थ वर साध ।। जीव कदेय न पायो, केवल ज्ञान - पर्याय । ते भणी मुख्य ए, तिण अर्थे विधि वाय ।। ते केवल ज्ञान नों, ऊपजवो - सुपर्याय । अंगीकार कियो इहां, हिवै चिहं एकार्थ न्याय ।। अनुक्रम तेहन इम, कर्म चल्यू जे जांण । तेहिज उदय आव्यू, तेहिज वेधू थयुं हांण ।। १२२. १२३. ११६. उप्पण्णपक्खस्स उत्पन्नपक्षण---उत्पादांगीकारेण-उत्पादाख्यं पर्याय परिगृह्य एकार्थान्येतान्यूच्यन्ते। (३०-प०१७) १२०. अथवा सर्वेषामेषामुत्पादमाश्रित्यैकार्थकारित्वादेकान्त मुहर्तमध्यभावित्वेन तुल्यकालत्वाच्चैकार्थिकत्वमिति भावः। (वृ०-प०१७) १२१. स पुनरुत्पादाख्यः पर्यायो विशिष्ट: केवलोत्पाद एव । (वृ०-५० १७) १२२. कर्मचिन्तायां कर्मणः प्रहाणेः फलद्वयं केवलज्ञानमोक्षप्राप्ती। (वृ०-प०१७) १२३. तत्रैतानि पदानि केवलोत्पादविषयत्वादेकार्थान्युक्तानि। (वृ०-५० १७) १२४, १२५. यस्मात् केवलज्ञानपर्यायो जीवेन न कदाचिदपि प्राप्तपूर्व : यस्माच्च प्रधानस्ततस्तदर्थ एव पुरुषप्रयासः, तस्मात्स एव केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यायोऽभ्युपगतः । (वृ०-५० १७) १२६. एषां च पदानामेकार्थानामपि सतामयमर्थः सामर्थ्य प्रापितक्रमः, यदुत—पूर्व तच्चलति-उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेद्यते, अनुभूयत इत्यर्थः। (वृ०-५० १७) १२४. १२५. १२६. १. 'चलमाणे चलिए' इस पाठ से गौतम ने भगवान् महावीर के सामने नौ प्रश्न उपस्थित किए हैं। इन नौ प्रश्नों में प्रथम चार पदों को भिन्नार्थक माना गया है, शेष पांच पदों को एकार्थक । जबकि एक दष्टि से ये सभी एक ही अर्थ के वाहक हो सकते हैं, अथवा सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थबोध दे सकते हैं। यहां जो दो विभाग किए हैं, वे एक विशेष विवक्षा से किए हैं। उस विवक्षा के अनुसार दो प्रकार की पर्याय होती हैं-उत्पाद पर्याय और व्यय पर्याय । प्रथम चार पद उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से हैं। इनमें केवलज्ञान की उत्पत्ति को लक्ष्य किया गया है। कर्मों के चलित, उदीरित और बेदित होकर हीन होने से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। जो कर्म चलित हुआ उसी की उदीरणा होगी उसी का वेदन होगा और वही क्षीण होगा । इसलिए ये सब शब्द समानार्थक हैं। अग्रिम पांच पद-छेदन, भेदन, दहन, मरण और निर्जरण हैं। इनका प्रतिपादन व्यय पक्ष की अपेक्षा से है। उत्पाद पक्ष का सम्बन्ध केवलज्ञान से है और व्ययपक्ष का मोक्ष से। इसमें कर्मों के छेदन, भेदन आदि से जो अवस्था प्राप्त होती है वह मोक्ष से पहले की अवस्था है इसीलिए इन पांचों पदों को भिन्न-भिन्न अर्थों का वाचक माना गया है। ५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण कारण चिउं पद, एक अर्थ कहिवाय । हिव शेष पंच पद, निसुणो तेहनो न्याय ।। १२८. १२७. चत्वारि चलनादीनि पदान्येकाथिकानीत्युक्ते शेषाण्य नेकाथिकानीति सामर्थ्यादवगतमपि सुखावबोधया साक्षात्प्रतिपादयितुमाह- (वृ०-५०१७) १२८-१३०. छिज्जमाणे छिण्णे, भिज्जमाणे भिण्णे, दज्झमाणे दड्ढे, मिज्जमाणे मए, निजरिज्जमाणे निज्जिणे--- एए पं पंच पदा नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा १२६. ३०. १३१. १३२. १२३. विगयपक्खस्स (श० १।१२) १३२-१३४. विगयपक्खस्सत्ति, विगतं विगमोबस्तुनोऽव स्थान्तरापेक्षया विनाशः, स एव पक्षो.----वस्तुधर्मः... विगतत्वं विहाशेषकर्माभावोऽभिमतो, जीवेन तस्याप्राप्तपूर्वतयाऽत्यन्तमुपादेयत्वात्। (वृ०प० १८) १३४. १३५. छेदवा मांड्यूं जे, छेद्यो तास कहीजै। भेदवा मांड्यं जे, भेद्यो तास वदीजै ।। दहिवा मांड्यूं जे, दह्य कहीजै तास । मरवा मांड्यं जे, मरचो कहीजै जास ।। निर्जरिवा मांड्यं, निर्जरयं तेक हिवाय । ए पंच पदां नां, नाना अर्थ सुथाय ।। वलि घोष उदात्तादि, ते पिण जजुआ जोय । व्यंजन अक्षर पिण, जुआ जआ अवलोय ।। विगयपक्खस्स , विगम ते वस्तु-विनाश । ते अन्य अवस्था-पक्ष अंगीकृत तास ।। जीव कदेय न पायो, सर्व कर्म नो अभाव। ते विगत नास इहां, कर्म चिता प्रस्ताव ।। तिण सं उपादेय अति, ए पांच अभिराम । अर्थ जुदा जुदा ते, कहियै हिव सुख धाम ।। छिज्जमाण ते छेद्यु, स्थिति - बंध अपेक्षाय । सजोगी जिन अंते, जोग निरोध कराय ।। नाम गोत्र वेदनी, तीन कर्म नी तास । प्रकृति जे बंधी, दीर्घकाल कर्म-राश ।। अपवर्त्तन - करण करि, अंतर्मुहुर्त प्रमाण । स्थिति अल्प करै ते, ए छिज्जमान छिन्न जाण ।। भिद्य माण ते भेद्यु, अनुभाग-बंध अपेक्षाय। तेहीज केवली, जोग निरोध कराय ।। स्थिति-घात करै जद, तिणहिज काले जोय । रस-घात पिण करता, तास मान अवलोय ।। ते रस-घात निकेवल, स्थिति खंड ते जाण । अनंत गुण अधिका, न्याय हिया में आण ।। तिण कारण आख्यो, रस - घात करणेन । पूरव पद सेती, भिन्न अर्थ पद येन ।। दह्यमानं दग्धं, प्रदेश-बंध अपेक्षाय । अनंत प्रदेशिक, खंध अनंता ताय ।। तसू कर्मरूप आपादन-परिणति जोय । ते प्रदेश-बंध कर्म, अजोगी रै पिण होय ।। पंच ह्रस्व अक्षर, उच्चारण काल प्रभाण । असंखेज्ज समय करि, गुण-श्रेणि रचना जाण ।। १३५-१३७. छिद्यमानं छिन्नमित्येतत्पदं स्थितिबन्धाश्रयं, यतः सयोगिकेवली अन्तकाले योगनिरोधं कर्तुकामो वेदनीयनामगोत्राख्यानां तिसृणां प्रकृतीनां दीर्घकालस्थितिकानां सर्वापवर्तनयाऽऽन्तमौ हत्तिकं स्थितिपरिमाणं करोति। (वृ०-प०१७) १३८. १३६. १३८-१४१. तथा भिद्यमानं भिन्न' मित्येतत्पदमनुभाग बन्धाथयं, तत्र च यस्मिन् काले स्थितिघातं करोति तस्मिन्नेव काले रसघातमपि करोति, केवलं रसघात: स्थितिखण्डकेभ्यः क्रमप्रवृत्तेभ्योऽनन्तगुणाभ्यधिकः, अतोऽनेन रसघातकरणेन पूर्वस्माद् भिन्नार्थपदं भवति। (वृ०-५० १७) १४०. ४२. १४३. १४२-१४८. 'दह्यमानं दग्ध' मित्येतत्पदं प्रदेशबन्धाश्रयं, प्रदेशबन्धस्त्वनन्तानन्तप्रदेशानां स्कन्धानां कर्मत्वापादनं, तस्य च प्रदेशबन्धकर्मण: सत्कानां पञ्चहस्वाक्षरोच्चारणकालपरिमाणयाऽसङ्ख्यातसमयया गुणश्रेणीरचनया पूर्वरचितानां शैलेश्यवस्थाभाविसमुच्छिन्नक्रियध्यानाग्निना प्रथमसमयादारभ्य यावदन्त्यसमयस्तावत्प्रतिसमयं क्रमेणासंख्येयगुणवद्धानां १४४. श० १, उ०१,ढा०३ ५३ Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५. कर्मपुद्गलानां दहन-दाहः, अनेन च दहनार्थेनेदं पूर्वस्मात्पदा भिन्नार्थपदं भवति, दाहश्चान्यत्रान्यथा रूढ़ोऽपीह मोक्षचिन्ताऽधिकारान्मोक्षसाधन उक्तलक्षणकर्मविषय एव ग्राह्य इति । (वृ०-५० १७, १८) १४७. १४८. १४६. १५०. १५१. एहवी पूर्व रचित ने, शेले शि अवस्था भावि । समुछिन्नक्रिय वर, ध्यान अग्नि करि सावि ।। प्रथम समय थी मांडी, अंत समय लग ताह । प्रति समय असंख-गुण वृद्ध, कर्म दल दाह। तिण सूं दहन अर्थ करि, ए पिण पद पहिछाण । पूरव पद सेतो, भिन्न अर्थ पद जाण ।। बले अन्य स्थानके, दाह अन्यथा आख्यो। शिव चिताधिकारे, कमं विप इहां दाख्यो ।। म्रियमाण मृतं ए, आयु कम अपेक्षाय। आयु पुद्गल नों, समय समय क्षय थाय ।। तिण सू मरण अर्थ कर, ए पिण पद पहिछाण । पूरव पद सेती, भिन्न अर्थ पद जाण ।। कर्म रहै जिहां लग, आयु बले जीवंत । ते कर्म क्षय कीधां, मरण वचन उचरंत ।। विशिष्ट ईज इहां, मरण कियो अंगीकार । संसार विषै जीव, मुओ अनंती वार ।। बलि मरण न होवे, सर्व कर्म क्षय साथ । शिव हेतुभूत , वछयो पद विख्यात ।। निर्जरिवा लागो, निर्जयूं ए पद न्याय । सहु कर्म क्षय आश्री, फेर उदै नहि आय ।। जीव कदेय न पायो, सर्व कर्म नों नास । तिण सूं पूर्व पद सूं, भिन्न अर्थ ए तास ।। हिव एहीज नव पद, विशेष थी सुविचार । नाना अर्थ छै पिण, इहां सामान्य प्रकार ।। १५२. १५३. १५४. १५५. १४६-१५३. म्रियमाणं मृत' मित्येतत्पदमायुःकर्मविषयं, यत आयुष्कपुद्गलानां प्रतिसमयं क्षयो मरणम्, अनेन च मरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो भिन्नार्थत्वाद् भिन्नार्थ पदं भवति । तथा 'म्रियमाणं मृत' मित्यनेनायुः कमैंवोक्तं, यत: कमव तिष्ठज्जीवतीत्युच्यते, कर्मैव च जीवादपगच्छत् म्रियत इत्युच्यते, तच्च मरणं सामान्येनोक्तमपि विशिष्टमेवाभ्युपगन्तव्यं, यतः संसारवत्तींनि मरणानि अनेकशोऽनुभूतानि, इह पुनः पदेऽपुनर्भवमरणमन्त्यं सर्वकर्मक्षयसहचरितमपवर्गहेतुभूतं विवक्षितमिति। (वृ०-५०१८) १५४, १५५. तथा 'निर्जीर्यमाणं निर्जीर्ण' मित्येतत्पदं सर्व कर्माभावविषयं, यतः सर्वकर्मनिर्जरणं न कदाचिदप्यनुभूतपूर्व जीवेनेति, अतोऽनेन सर्वकर्माभावरूपनिजरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो भिन्नार्थत्वाद् भिन्नार्थ पदं भवति। (वृ०-प०१८) १५६. अर्थतानि पदानि विशेषतो नानार्थान्यपि सन्ति सामान्यतः कस्य पक्षस्याभिधायकतया प्रवृत्तानि । (वृ०-५० १८) १५७-१५६. छिद्यमानपदे हि स्थितिखण्डनं विगम उक्तः, भिद्य मानपदे त्वनुभावभेदो विगमः, दह्यमानपदे त्वकर्मताभवनं विगमः, म्रियमाणपदे पुनरायुःकर्माभावो विगमः, निर्जीयमाणपदे त्वशेषकर्माभावो विगमः उक्तः, तदेवमेतानि विगतपक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते। (वृ०-प० १८) १६०. अन्ये तु कर्मेतिपदस्य सूत्रेऽनभिधानाच्चलनादिपदानि सामान्येन व्याख्यान्ति, न कर्मापेक्षयव । (व०प०१६) १५७. १५८. १५६. छिद्यमान पदे स्थिति-खंड विगम कहिवाय । भिद्यमान पदे अनुभाव भेद विगमाय ।। दह्यमान पदे बलि, अकर्मपणे विगमाव। मियमाण पदे फुन, विगम आयु नो अभाव ।। निर्जरिज्जमाण पद, सर्व कर्म नो अभाव। एविण विगमपणो इम, ए विगतपक्ष नो न्याव ।। बले अन्य आजारज, चलणादि नव पद प्राय। सामान्यपणे कहै, न कहै कर्म अपेक्षाय ।। कहै सूत्र विषै तो, कर्म तणां नहि नाम । तसं कर्म अपेक्षया, एकात न कहै ताम।। चलमाणे चलिए, चलन अस्थिरपणु आद। पर्याय करि ने, वस्तु नों उत्पाद ।। १६०. १६२. १६२. 'चलमाणे चलिए' ति, इह चलनम्-अस्थिरत्वपर्यायेण वस्तुन उत्पादः । (वृ० ५० १८) ५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरिए उदीरवो, स्थिर नों प्रेरवो ताम। ते पिण चलवोइज, कहिय पर्याय नाम ।। वेइज्जमाण कंपमान, एज़ कंपने साध। व्येजन पिण कंपवो, तद्र प अपेक्षा उत्पाद ।। १६४. १६५. १६३. 'उदीरिज्जमाणे उदीरिएत्ति' इहोदीरणं स्थिरस्य सतः प्रेरणं, तदपि चलनमेव । (वृ०प०१८) १६४. 'वेइज्जमाणे वेइएत्ति' व्येजमान कम्पमानं व्येजितं कम्पितम्, 'एजूकम्पने' इति वचनात्, व्येजनमपि तद्रूपापेक्षयोत्पाद एव। (वृ०-प०१८) १६५, १६६. 'पहिज्जमाणे पहीणे' त्ति 'प्रहीयमाणं' प्रभ्रश्यत् परिपतदित्यर्थः 'प्रहीणं' प्रभ्रष्टं परिपतितमित्यर्थः, इहापि प्रहाणं चलनमेव, चलनादीनां चैकार्थत्वं सर्वेषां गत्यर्थत्वात्। 'उप्पन्नपक्खस्स'त्ति चलत्वादिना पर्यायेणोत्पन्नत्वलक्षणपक्षस्याभिधायकान्यतानीति। (वृ०-प०१८) १६७-१६६. छेदभेददाहम रणनिर्जरणान्यकर्थािन्यपि व्याख्येयानि, तद्व्याख्यानं च प्रतीत मेव, भिन्नार्थता पुनरेषामेवं--कुठारादिना लतादिविषयश्चछेदः, तोमरादिना शरीरादिविषयोभेदः, अग्निना दादिविषयो दाहः, मरणं तु प्राणत्यागः, निर्जरा तु अतिपुराणीभवनमिति । (वृ०-५० १६) १७०. 'विगयपक्खस्स' त्ति भिन्नार्थान्यपि सामान्यतो विना शाभिधायकान्येतानीत्यर्थः। (वृ०-प०१६) पहिज्जमाण ते, पडिवो तेह प्रहीण । ते पिण चल वोइज, एक अर्थ चिहुं लीण ।। गति अर्थ चिहुं नो, चलणपणां नो पर्याय । तिण करिक उप्पन्न- पक्ष लक्षण माहोमांय ।। छेद, भेद, दाह. मरण, निर्जरिवो ए पंच। अकर्म अर्थ पिण, भिन्न अर्थपणुं संच ।। कहाडादिक करिके, लतादि विषयच्छेद । बाणादिक करिक, शरीरादिक नो भेद ।। वलि अग्नि करीनै, दार्वादि दाह पिछाण । मरण प्राण - त्याग ते, निर्जर थाय पुराण ।। विगय - पक्ष ते, भिन्न अर्थ प्रत्यक्ष। सामान्य थकी ए, विगत विनाश तसं पक्ष ।। ए न्याय वृत्ति थी, आख्यो म्हे अधिकार । नव पद सूत्रे तो, छै संक्षेप उदार ।। वर नव पद वर्णन, तीजी ढाल रसाल । भिक्षु भारीमाल नृप, 'जय-जश' संपति न्हाल ।। १६७. १६८. १७०. १७१. १७२. ढाल : ४ धुर बे प्रश्नोत्तर, मोक्ष चिताई जगीस । मोक्ष जीव भणीह, जीव दंडक चउबीस ।। तिहा नरकादिक नीं, स्थिति प्रमुख पहिछाण । वर प्रश्न मृउत्तर, सांभलजो सुविहाण ।। १, २. इह आद्ये प्रश्नोत्तरसूत्रद्वये मोक्षतत्त्वं चिन्तितं, मोक्ष: पुनर्जीवस्य, जीवाश्च नारकादयश्चतुर्विशतिविधाः... तत्र नारकांस्तावत् स्थित्यादिभिश्चिन्तयन्नाह (वृ०-प०१६) दूहा ३. ३, ४. नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। (श० १११३) हे भदंत ! पूज्य ! नरक नीं, किता काल नी ताम। स्थिति समुचय सात तणी? पूछे गौतम स्वाम ।। वीर कहै सुण गोयमा! दश सहस वर्ष जघन । स्थिति सागर तेतीस नी, उत्कृष्टपणे कथन ।। हे भदंत! जीव नरक ना, किता काल सं जान। आण-प्राण लेवै अछ, उसास-निश्वास मान ? ।। ५. नेरइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा? पाण मंति वा ? ऊससंति वा ? णीससंति वा? (श० १११४) श०१, उ०१, ढा०३,४ ५५ Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण ते सास ऊंचा लिय, प्राण अधो निश्वास। अन प्राणने धातु है, मकार आगम तास ।। अन्य आचारज इम कहै, आण-त्राण ए ग्राह्य । अभितर क्रिया कही, उसास-निश्वास बाह्य ।। जिम उसास पद में कह्यो, प्रश्न - उत्तर वच गद्द। तिण प्रकार कहिवो सहु, पन्नवण - सप्तम-पद्द ।। उत्तर पन्नवण में इसो, अंतर रहित विमास । आण-प्राण ले नेरिया, वलि उसास-नि:श्वास ।। पुनरुच्चारण वीर जिन, शिष्य वच आदर हेत। गुरु आदर दीधे छते, शिष्य संतोष समेत ।। प्रश्न श्रवण रुचि वृद्धि ह्व, गुरु-वच ह आदेय । भवि-उपकार सुतीर्थ वृद्धि, इम वृत्तिकार कहेय ।। ६. 'आणमंति' त्ति आनन्ति 'अन प्राणने' इति धातुपाठात् मकारस्यागमिकत्वात्। (वृ०-प०१६) ७. अन्ये त्वाहु:-'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्या त्मक्रिया परिगृह्यते, 'उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा' इत्यनेन च बाह्य ति। ८. 'जहा ऊसासपए' त्ति, एतस्य प्रश्नस्य निर्वचनं यथा उच्छ्वासपदे प्रज्ञापनायाः सप्तमपदे तथा वाच्यं । (वृ०-प०१६) ९. 'गोयमा ! सययं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ____ ऊससन्ति वा नीससंति वा'। (पन्नवणा ७१) १०, ११. आनमन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरो पदर्शनार्थ, गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तोषवन्तो भवन्ति, तथा च पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते, लोके चादेयवचना भवन्ति, तथा च भव्यो पकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्चेति। (वृ०-५०२०) १२. अथ तेषामेवाहारं प्रश्न यन्नाह- (वृ०-५०२०) नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी। (श०१।१५) १३. जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए तहा भाणियवं १५-१६. ठिइ उस्सासाहारे, कि वाऽऽहारेंति सब्बओ वावि? कतिभागं सब्वाणि व? कीस व भुज्जो परिणमंति? (श० १११५ संगणी-गाहा) १२. आहार प्रश्न हिव तेहनों, नेरइया हे भगवंत ! आहार तणा अर्थी अछ?, आहार वंछा उपजत? || १३. पन्नवणपद अठवीस में, प्रथम उदेशे पेख । आहार तणों अधिकार तिम, इहां कहिवो सुविशेख ।। १४. संग्रह अर्थे गाहा इहां, संग्रहणी सुविचार। स्थिति उसास पूर्वे कह्या, ते पिण ग्रह्या उदार ।। १५. स्थिति उसास तो आखिया, तृतिय आहार अधिकार। आभोग नै अणाभोग नों, कह्यो घणो विस्तार ।। किं वाहारंति तिको, किं स्वरूप ले आहार ? द्रव्य क्षेत्र काल भाव थी, ए चोथो अधिकार ।। १७. सर्व थकी? ए पंचमो, सह प्रदेश करि पेख । इहां पिण छै विस्तार बहु, पन्नवणा थी देख ।। १. विआहपण्णत्ति (भगवती) गणधर कृत है। इसीलिए आगमों के वर्गीकरण में यह अंग आगम में आता है। पन्नवणा' उपांग है, इसलिए वह स्थविरों की रचना है। कालक्रम की दृष्टि से गणधर स्थविरों से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए विआहपण्णत्ति का ग्रन्थन पहले हुआ है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत आगम में 'पन्नवणा' सूत्र के लिए समर्पण नहीं होना चाहिए। पूर्व रचित सूत्र में उत्तरकालवर्ती सूत्र के समर्पण की कोई संगति नहीं है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह विपर्यास रचनाकाल का नहीं, लेखनकाल का है। संभव है, ग्रन्थ के विस्मृत अंशों के संकलन और लेखनकाल में 'पन्नवणा' पहले लिखा गया हो और विआहपण्णत्ति बाद में। संक्षेपीकरण की दृष्टि से पूर्वलिखित आगम का संकेत अस्वाभाविक नहीं है। अथवा इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुलतः भगवती संक्षिप्त थी। संक्षिप्त प्रकरणों की पूर्णता के लिए उस विषय में अन्य आगमों में जहां जो सामग्री उपलब्ध हुई, उसे भगवती के साथ संयोजित करने के लिए पन्नवणा, औपपातिक आदि की भोलावण दे दी गई। ५६ भगवती-जोड़ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधार || बलि कति भाग ? छठो प्रश्न तेनो कहूं विचार | नारकी जे पुद्गल ग्रहै, आहारपण ग्रहण काल पाछे तिको उत्तर किती भाग जे आहार नों, आहारै जिन कहै उत्तर काल में असंख्यातमो काले जेह । आस्वादेह || 'भाव' । आहार इहां वृत्तिकार का, निसुणो धर अनुराग ॥ केयक इहां आखें इसो, गाय प्रमुख प्रथम ग्रास मोटो ग्रहै, तिम केयक २२. पुद्गल आहार पणे ब्रह्मां अवलोय | नों जोय ॥ भाग आहारंत। तनुपर्ण तसुं असं अन्य पुद्गल अलगा पड़े, केइक अन्य आचारज हम कहे, असं भाग आहार अछे गाय प्रमुख मोटो ग्रहै, प्रथम ग्रास जिम ग्रह्मा तनु नहि परिणम्या, नहिं वंच्या ते शेष ॥ सरीरपणे जे परिणम्या, त्यां में पिण तत् जेह | विशिष्ट आहार कार्ये ब्रह्म सुद्ध कजुसूत्रे तेह ॥ बलि अन्य आचारज इम कहै, असंख भाग आहारंत । शरीरपणे जे परिणर्म, सनुपर्ण शेष न त ॥ , १८. १९. २०. २१. २३. २४. २५. २६. २७. सू कहंत ॥ ते होय। जोय ॥ पेष । एम नये परिणमे असंख भाग जे परिणमं, आहारै कहीजै वर जिन वच प्रतीत से अधिक न कहोजे तास । जास ॥ १. नारक जीव जो आहार ग्रहण करता है, उसका कितना भाग आहार रूप में परिणत होता है और कितना भाग व्यर्थ जाता है ? इस प्रश्न के समाधान में वृत्तिकार ने तीन प्रकार की मान्यताओं का संकलन किया है। प्रथम मान्यता के अनुसार गौ आदि पशु आहार ग्रहण करते हैं तो पहला ग्रास बहुत बड़ा लेते हैं । उसमें से अधिक भाग नीचे गिर जाता है और बहुत थोड़ा भाग वे खा पाते हैं। प्रथम गौ ग्रास की भांति नैरयिक जीव भी जो आहार ग्रहण करते हैं, उसका असंख्यातवां भाग ही आहार रूप में उपयोग में ले पाते हैं । दूसरा अभिमत ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से व्याख्यात है। ऋजुसूत्र नय शुद्ध नय है । यह नय नैरयिक जीवों द्वारा प्रथम गौ ग्रास की भांति आहृत और शरीर रूप में परिणत आहार को गृहीत या परिणत आहार नहीं मानता। किन्तु उसमें भी जो विशिष्ट कार्यकारी आहार है, मात्र उतने आहार को आहार रूप में परिणत मानता है। तीसरे अभिमत के अनुसार जो आहार किया जाता है, उसका बहुत कम भाग शरीर रूप में परिणत होता है। शेष सारा आहार मल-मूत्र आदि के रूप में विसर्जित हो जाता है । इसलिए नैरयिक जीव गृहीत आहार के असंख्यातवें भाग को ही आहार रूप में परिणत करते हैं। २१, २२. इत्यत्र केचिद्व्याचक्षते - गवादिप्रथम बृहद्ग्रासग्रहण व कांश्विद्गृहीतासचे भागमाचान् मुलानाहारयन्ति तदन्ये तु पतन्तीति । ( वृ० प० २२) २३-२५. अन्ये त्वाचक्षते -- ऋजुसूत्रनयदर्शनात्स्वशरीरतया परिणतानामसङ्ख्ये यभागमाहारयन्ति, ऋजुसूत्रो हि गयादिप्रथमवृद्धासग्रहण एवं गृहीतानां शरीरत्वेनापरिणतानामाहारतां नेच्छति, शरीरतया परिणतानामपि केावदेव विशिष्टाहारकार्यकारिणां तामभ्युप गच्छति, शुद्ध नयत्वात्तस्येति । ( वृ० प० २२ ) २६. अन्ये पुनरित्थमभिदधति असंवेदभागमाहारेति' त्तिरीया परिणमन्ति शेषास्तु किट्टीभूप मनुष्या भ्यवहृताहारवन्मलीभवन्ति न शरीर परिणमन्ती त्यर्थः । ( वृ० प० २२) श० १, उ० १, ढा० ४ ५७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. आहारपणे ग्रह्या तेहनो, भाग रस-इंद्रिय द्वारे करी, रस अनंतमो जोय । आस्वादन होय ।। २८. 'अणंतभागं आसाइंति' त्ति आहारतया गृहीतानामनन्त भागमास्वादयन्ति, तद्रसादीन् रसनादीन्द्रियद्वारेणोपलभन्ते इत्यर्थः । (वृ०-प० २२) ३२. इह विशिष्टग्रहण गृहीता आहारपरिणामयोग्या एव ग्राह्याः, उज्झितशेषा इत्यर्थः। (वृ०-५० २२) ३३. अन्यथा पूर्वापरसूत्रयोविरोधः स्यात् । (वृ०-प० २२) ३४. 'जं जह सुत्ते भणियं तहेव जइ तं वियालणा नस्थि । कि कालियाणुओगो दिट्ठो दिद्विप्पहाणेहि ? (वृ०-५० २२) २६. तिण सं भाग असंख्यातमो शरीरपणे परिणमंत । आसादै भाग अनंतमो, इम वत्तिकार कहंत ।। रस इंद्रि ग्रहण आयां बिना, तनुपणे परिणमै बाध । तिण सं असंख भाग परिणमै, अनंत भाग आस्वाद ।। ३१. सप्तम प्रश्न जे नारकी, आहारपणे परिणमंत । सह पुद्गल ते आहरै, के नहिं सर्व आहारंत? ॥ जिन कहै ते सह आहर, विशिष्ट परिणम जोग। तेहिज पुद्गल इहां ग्रह्या, उज्झित - शेष अयोग। ३३. अन्यथा पूर्वापर इहां, थावे सूत्र विरुद्ध । टीकाकार को इसो, तेह अर्थ छै सुद्ध । सूत्रे भाष्यं तेहनी, चालणा करवी नांहि । दृष्टि प्रधान करी कथ्यू, एम क ह्य वृत्ति मांहि ।। ३५. अष्टम प्रश्ने किण पण, परिणम आहार तदर्थ । पंचेंद्रिय अनिष्टपणे, ए संग्रहणी-गाहा अर्थ ।। ३६. वलि वृत्तिकार कहै इसो, संग्रहणी - गाहा जाण । किणहिक परत माहेज छ, न कही सर्व ठिकाण ।। आहार तणा अधिकार थी, प्रश्न च्यार हिव पेख । पूछे गोयम गणहरू, सांभलजो सुविशेख ।। *जिन-वच वारूजी रे। (ध्रुपदं) ३८. हे भगवंत! नारकी नै स्य, पूरव काल पिछाणो जी रे। पुद्गल खंध ग्रह्या आहा ते, परिणम्या तनु सह जाणो रे? ।। ३६. तथा गये काल ग्रह्या आहरिया, वर्तमान वलि कालो। ___आहारिज्जमाण ग्रहै आहरै ते, पुद्गल परणम्या न्हालो? ॥ ४०. तथा पूर्व काले न आहरिया, ग्रहस्ये अनागत कालो। ते पुद्गल खंध परणम्या कहिये, तीजो प्रश्न निहालो? ।। ४१. तथा पूर्व काले न संग्रह्या, अनागत पिण कालो। संग्रहस्यै नहिं जे पुद्गल-खंध, ते परणम्या सुविशालो? ।। ४२. जिन कहै हे गौतम ! जे नारक पूर्व काल पिछाणो। पुद्गल-खंध ग्रह्या आहऱ्या ते, पूर्व परणम्या जाणो॥ ४३. पूर्व संग्रह्या हिवडा संग्रहै, परणम्या परणमै जानो। पूर्वे ग्रह्या ते पूर्व परणम्या, ग्रहै परणमै वर्तमानो।। ३६. इदं च सङ्ग्रहणिगाथाविवरणसूत्रम् क्वचित् सूत्रपुस्तक एव दृश्यत इति। (वृ०-प० २३) ३७. अथ नैरयिकाऽऽहाराधिकारात्तद्विषयमेव प्रश्नचतुष्टयमाह (वृ०-प० २३) ३८-४१. नेरझ्याणं भंते ! वाहारिया पोग्गला परिणया? आहारिया आहारिज्जमाणा पोग्गला परिणया? अणाहारिया आहारिज्जिस्समाणा पोग्गला परिणया? अणाहारिया अणाहारिज्जिस्समाणा पोग्गला परिणया? ४२-४५. गोयमा! नेरइयाणं पुवाहारिया पोग्गला परिणया। आहारिया आहारिज्जमाणा पोग्गला परिणया, परिणमंति य । अणाहारिया आहारिज्जिस्समाणा पोग्गला णो परिणया, परिणमिस्संति । अणाहा *लय—सयणां थइये जी रे ५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational n Education Intermational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. पूर्व नपा अनागत अनागत ग्रहस्य जे पुद्गल, ते ४५. पूर्व काल ग्रह्मा नहि पुद्गल, अनागत पूर्व काले नहि परिणमिया, अनागत ४६. ५४. ग्रहस्ये न प्रह्मा 1 ५५. तनु पुद्गल परिणाम से से देखा अर्थ हिव, ४७. हे भगवन! नारकी ने स्वं दूहा सास चयादिक होय । प्रश्न कर अवलोय ॥ परणम्या परणमस्ये नह नहि पूर्व काल पिछायो । पुद्गल-खंध ग्रह्मा आहऱ्या ते, तनु चय थया सुजाणो ? ॥ ४८. जहा परिणया तहा चियावि एवं चिया ५०. चिता-शरीर विधे चय पाम्या , उवचिया । उदीरिता वेदिता णिज्जिया, इस पाठ भलावण किया ॥ ४९. किणहि परत में पाठ सहु ए आख्या करि विस्तारो । वृत्तिकारक भर्मन करियो, सर्वत्र तुल्य विचारी ॥ उपथित ते इम जाणो । बलि चय थथा पिछाणो ।। कर्म उदै नवि आया । वेद कहाया ॥ ५२. देदिता - निज रस विपाक करिके, समय-समय प्रति वेदं । निर्माते चेतन ते कर्म दूर थयां नहि वेदे ॥ ५३. परिणम्याचिया उबचिया उदीर्या वेचा ने निर्जरिया इक इक पद में चिविध पुद्गल, ए अर्थ गाथा नुं धरिया ॥ वह प्रदेश शरीर विधे जे ५१. उदीरणा - ते स्वभाव थी तो करण विशेष करी उदं आणी तास * "हे भगवंत ! नरक जीवा रें, भेद हे रस तीव्र मंद कर दूहा पुद्गल ना अधिकार थी, आगल सूत्र अठार पूछे गोयम गणहरू, वीर प्रते सुविचार ॥ नांही । त्यांही ॥ ग्रहस्यै । परिणमस्य ॥ । पुद्गल कितं प्रकारें । मंद तीव्रता पारे' ? ।। *लय सयणां थइये जो रे १. मूलपाठ में शब्द है 'भिज्जति' । भिज्जंति का अर्थ है - भिन्नता होना । अपवर्तन और उद्वर्तन करण के द्वारा तीव्र रस वाले पुद्गल मन्द रस में परिवर्तित कर दिए जाते हैं और मन्द रस वाले तीव्र रस में परिवर्तित कर दिए जाते हैं। परिवर्तन के द्वारा अनुभाग रस में जो भिन्नता होती है, उसी की अपेक्षा से यहां भिज्जंति का अर्थ 'भेद लहै' किया गया है। रिया बाहारिज्जिसमाया पोग्गला गो परिणया, णो परिणमिस्संति । ( श० १११६ ) ४६. शरीरसंपर्क क्षण भवन्तीति तदर्शनार्थ प्राह चियादयो ( वृ० प० २४ ) ४०, ४६. राणं भंते! पुण्याहारिया पोगता चिया ? पुच्छा जहा परिणया तहा चियावि (०१०१७ ) एवं उयचिया उदीरिया, वेश्या, निजिना । ( श० १1१८ ) ४६. इह च पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते तत्र न संमोहः कार्यः, सर्वत्राभिधेयस्य तुल्यत्वात् । ( वृ० प० २४) २०. चिता" शरीरे चयं गताः 'उपचिता' पुन प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति । ( वृ० प० २४) ५१. उदीरितास्तु स्वभावतोऽनुदितान् पुद्गलानुदयप्राप्ते कर्म दलिके करण विशेषेण प्रक्षिप्य यान् वेदयते । (२०१० २४) प्रतिसमयमनुभूवमानाः अपरिसमाप्ताशेषानुभावा इति । (রto ২४) ५३. परिणय चिया उवचिया उदीरिया बेया य निज्जिण्णा । एक्वेक्कम्मि पदम्म पढव्हिा पोमना होति ॥ (०११ गीगाहा) ५२. 'वेदिता' स्पेन रविपाकेन ५४. पुद्गलाधिकारादेवेमामष्टादशसूत्रीमाह ( वृ० प० २४) ५५, ५६. नेरइया णं भंते ! कइविहा पोन्गला भिज्जंति ? गोपमा ! कम्मदव्यवग्याण महिकिण्व दुविहा योग्यला भिज्जंति, तं जहा - अणू चेव, बादरा चेव । ( श० १११६ ) श० १, उ० १, दा० ४ ५६ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. वीर कहै-कर्म द्रव्य वर्गणा, ते आश्री कहिवायो। द्विविध पुद्गल सूक्ष्म बादर, भिज्जति-भेद पायो।। ५७ औदारिकादिक में कर्म ते, सूक्ष्म द्रव्य कहिवाया। तिण कर्मा में सूक्ष्म मंद रस, स्थूल तीव्र रस आया ।। ५८. हे भगवंत ! नरक जीवां रै, पुद्गल कितै प्रकारो। चय उपचय पामै छै प्रभुजी! हिव जिन कहै उदारो।। ५६. आहार द्रव्य नी वर्गणा आश्री, पुदगल दोय प्रकारो। शरीरे चय उपचय होवै छ, सूक्ष्म बादर धारो।। ६०. हे भगवंत ! नरक जीवां रै, पुद्गल कितै प्रकारो। उदीरणा होवै ते कहिये ? हिव जिन कहै उदारो।। ६१. कर्म द्रव्य नी वर्गणा आश्री, द्विविध पुद्गल केरी। सुक्ष्म बादर कर्म तणीं ते, करै उदीरणा प्रेरी।। शेष बोल पिण इमहिज भणवा, वेदे निर्जरे जाणी'। सूक्ष्म अल्पदलिक कर्म कहिय, बादर बहु - दल माणी ।। ६३. हिव त्रिहु काल अपेक्षा सूत्रे, अपवर्तन' नों न्यायो। अध्यवसाय विशेष कर्म-स्थिति, दीर्घ अल्प करायो। 'भिज्जति' ति तीव्रमन्दमध्यतयाऽनुभागभेदेन भेदवन्तो भवन्ति, उद्वर्तनकरणापवर्तनकरणाभ्यां मन्दरसास्तीवरसाः तीव्ररसास्तु मन्दरसा भवन्तीत्यर्थः । (वृ०-५० २४) ५७. यत औदारिकादिद्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति। (वृ०प० २५) ५८, ५६. नेरइया णं भंते ! कइविहा पोन्गला चिज्जति? गोयमा ! आहारदब्बवग्गणमहिकिच्च दुविहा पोग्गला चिज्जति, तं जहा–अणू चेव, बादरा चेव । (श०१।२०) एवं उचिज्जंति । (श० १।२१) ६०, ६१. नेरझ्या णं भते ! कइबिहे पोग्गले उदीरेंति ? गोयमा ! कम्मदब्बवग्गणमहिकिच्च दुविहे पोग्गले उदीरेति, तं जहा- अणू चेव, वादरा चेव । (श० १/२२) ६२. सेसावि एवं चेव भाणियब्बा-वेदेति, निज्जरेंति । (श० १/२३) ६३. एवं- ओयटेंसु, ओयटेंति, ओयट्टिस्संति । संकामिसु, संकामेति, संकामिस्संति । निहत्तिसु, निहत्तेंति, निहत्तिस्संति । निकाएंसु, निकायंति, निकाइस्संति। (श०१/२४) ६३, ६४. इहापवर्तनं कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण हीनताकरणम्, अपवर्तनस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्तनमपीह दृश्य, तच्च स्थित्यादेवृद्धिकरणस्वरूपं । (वृ०-प० २५) ६५. तत्र संक्रमणं मूलप्रकृत्यभिन्नानामुत्तरप्रकृतीनामध्यव सायविशेषेण परस्परं संचारणं। (वृ०-५० २५) ६६. “नन्वात्माऽमूर्त्तत्वादध्यवसायप्रयोगेण" । (वृ०-प० २५) ६७, ६८. यथा कस्यचित्सद्वेद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणति ६४. उपलक्षण थी उद्वर्तन करणे, अल्प स्थिति दीर्घ करंतो। __ किया करै करसी नेरइया, इम विहु काल कहंतो।। ६५. संक्रमणं ते अध्यवसाय करि, जे कर्म प्रकृति ते मांह्यो। परस्परे संचारित ते, ए उत्तर प्रकृति नै न्यायो।। ६६. जीव अमूर्त तो ए प्रकृति, किम संक्रमवो थायो। अध्यवसाय प्रयोग वीर्य करि, वत्तिकार कहिवायो।। अथवा पुन्य भोगवतां बिच में, अशुभ उदै कोइ आयो । इम शुभ माहै अशुभ संक्रम, पिण पुन्य नो पाप न थायो।। १. पचपन से लेकर बहोत्तरवें पद्य तक अर्थात् भिज्जंति से लेकर निज्जरेंति तक जो पाठ है उसका प्रतिपादन केवल वर्तमान काल की विवक्षा से किया गया है। तिहोत्तरवें पद्य में प्रतिपादित अपवर्तन, संक्रमण निधत्त और निकाचन---इन पदों में तीनों काल की विवक्षा है। उस विवक्षा से ही मूल आगम में तीनों कालों का ग्रहण किया गया है। २. उक्त सूत्र में अपवर्तन का ग्रहण है, उद्वर्तन का नहीं । पर जहां अपवर्तन है.---कर्मों की स्थिति में अल्पता आती है, वहां दीर्घता भी स्वाभाविक है। इसलिए अपवर्तन का ग्रहण होने से उद्वर्तन का ग्रहण स्वतः हो जाता है। ६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. इमज अशुभ में शुभ संक्रम्यं संक्रमं नं ६२. पुद्गल कर्म तथा ते नित्त कीधो रु ७०. निकाषित अति ही दू तिमज निकाच्या अरु नों संक्रम, त्रिहुं काल कहिवायो । संमती वर्णन वृत्ति थी आयो । बीखरिया, दृढ करि जीव प्रदेशे। करें छै, करसी ए सुविशेषे ।। ७१. सर्व कर्म द्रव्य वगंगा, ते आधी एसीपो । प्रश्न नरक नो गौतम पूछघो श्री जिन उत्तर दीधो ॥ ७२. भेदिय भय उपचय में उदीरण वेदियो निर्जर इच्छ ए पट् प्रश्नसमुच्चय पूछया काल इच्छा नहि प्रीच्छी ।। ७४. 1 कहियें, अनि तप्त सूइ रासो निकार्य, निकायसे वसि तासो ॥ ७३ अपवते, संक्रम, निधत्त, निकाचन, ए चिहुं पद पहिचाणी । काल भी छा कीधी, कर्म द्रव्य आधी जाणी ।। इहा पुद्गल ना अधिकार थी, अपर सूत्र वलि च्यार । पुद्गल आधी पूछिया, श्री गोयम गणधार ।। ७५. हे भगवंत ! नारकी ने जे पुद्गल द्रव्य पिछाणो । तेजस कार्मण करिने यह ते शरीर रूप जे जाणो ॥ ७८. हे भगवंत ! नारकी ने ८०. 2 है ७६. अतीत काल समय ते ग्रहै छे, के ग्रहै वर्तमान काल । के काल अनागत समय ? उत्तर हिव जिन आले || ७०. अतीत काल समये तो न हे ग्रह वर्तमान काले। ग्रहै, अनागत समय पिण न ग्रहै हैवच बुद्धिवंत न्हाले । जे पुद्गल द्रव्य पिछाणो 1 उदीरं तेजस कार्मण करी ब्रह्या छे, तास ७६. अतीत समय ग्रह्यां स्यूं उदीरें ? तथा समय पुद्गल द्रव्य है तेहूनी करे उदीरणा छै ग्रहै, हिवडां कै अनागत समये जे ग्रहसी, तास जिन कहैतीतकाल समये ब्रह्मा तास समये १.वर्तमान जे आगमियै समय जे ८२. इमहि वेदे इमज वेदे इमज कर्म तथा अधिकार की हिव, अष्ट सूत्र ग्रहसी ते न निर्जरै, कह्या सूत्र *लय सयणां थइयं जो रे । जाणो ॥ वर्त्तमानो । जानो ? ॥ तामो ? आमो || नांही । यांही ॥ च्यारो । विस्तारो ॥ उदीरं उदीरे उदीरें उदीर ए रेवंविधा जाता येन तदेव सद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति । (२०० २५) ६९. इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं शब्दयते। ( वृ० प० २५) ७०. निकालानां परस्परविश्लिष्टानामेकोकणमन्योन्यावगाहिता अग्निप्रतप्तप्रतिहन्यमानशूचीकलापस्येव । ( वृ० प० २५) ७२. भेदिया चिया उवचिया, उदीरिया वेदिया य निज्जिण्णा । ओट्टण संक्रामण, निहत्तण निकायणे तिविहकालो || (०१ / २४ गीगाहा ) ७२. अपवर्तनमनित्तािचनपदेषु विविध कालो निर्देष्टव्यः । ( वृ० प० २४) ७४. अधिकारादिदं नष्टमाह-( वृ० प० २५) ७५, ७६. नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गेव्हंति, ते कि तीतकालसमए गेहंति ? पडुप्पन्नकालसमए गेव्हंति ? अणागयकालसमए गेण्हति ? ७७. गोयमा ! नो तीयकालसमए गेव्हंति, पडुप्पन्नकालसमए गेहंति नो अणागयकालसमए गेंति । " ( ० ११२५) ७८-८१. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गहिए उदीरेति ते किसीमका पोउ? पडुप्पन्न कालसमए घेप्पमाणे पोगले उदीरैति ? गहणसमयपुरक्खडे पोग्गले उदीरेंति ? गोयमा ! तीयकालसमयमहिए पोले उदीरेति नोपपन्नकालसमए पेपमा पोले उति नो मगम पोग्गले उदीरेंति । (१० १०२६) ८२. एवं वेदेति, निज्जरेंति । (० १०२७) श०१, ३०१, ढा० ४ ६१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. हे भगवंत ! नारको नै कर्म चल्यो जीव थी ताह्यो। तेह कर्म बंध छै पाछो, कै अचलित बंधायो?।। ८४. जिन कहै चल्यो कर्म नहि बंधै, अचलित बंध कहायो। चल्यो कर्म निर्जरवा सन्मुख, ते फिर केम बंधायो।। ८५. हे भगवंत ! नारकी नै स्यूं, चलियो कर्म उदीरै। तथा अचलियो कर्म उदीर ?, पूछ शीस सधोरै ।। जिन कहै-कर्म चल्यो न उदीर, ते तो उदैज आयो। उदीरणा अध्यवसाये करि, अचलित कर्म नी थायो ।। ८७. इमहिज वेदै इम अपवर्तन, संक्रम निधत्त निकाचो। चलिया कर्म तणो तो न हवै, ह अचलित नै वाचो।। ८८. हे भगवंत ! नारकी नै स्यूं, चल्यो कर्म निर्जरियै। कै जे अचलित कर्म निर? प्रश्न गोयम उच्चरियै ।। ८६. जिन कहै-चलियो कर्म निर्जरै, अचलित निर्जरै नांही। उदय शब्द कर उदीरणा ए, संग्रहणि गाथा' माही ।। ८३, ८४. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम बंधंति ? अचलियं कम्मं बंधंति ? गोयमा ! नो चलियं कम्मं बंधति, अचलियं कम्म बंधंति। (श० १।२८) ८५, ८६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम्म उदीरेंति? अचलियं कम्म उदीरेंति ? गोयमा ! नो चलियं कम्म उदीरेंति, अचलियं कम्म उदीरेंति। (श० ११२६) ८७. एवं—वेदेति, ओयटेंति, संकामेंति, निहत्तेति, निकाएंति। (श० ११३०) ८८, ८६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम्म निज्जरेंति ? अचलियं कम्म निज्जरेंति ? गोयमा ! चलियं कम्मं निज्जरेंति, नो अचलियं कम्म निज्जरेंति। (श० १।३१) ८६. केवल मुदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति। (वृ०-प० २८) ६०. चल्यो निर्जरै इम वच कहिवे, निर्जर सम्मुख कहिये । तिम अचलित वेदै इम कहिवे, वेदण सन्मुख लहिये ।। १०. चल्यो निर्जरै इम कहिवै धर निर्जर थो पहिछाणी। तिम अचलित वेदै इम कहिवै, धर वेदण थी जाणी।। १२. चलण समय नै निर्जर समयो, बिहं जुआ जोयो। तिम अचलित समयो नै वेदन-समय जजआ होयो।। ६३. बंध उदय वेदै अपवर्तन, संक्रम निधत्त निकाचो। अचलित कर्म तणी होवै छ, निर्जर चलित नै वाचो। ६४. नरक तणो अधिकार कह्यो हिव, अनुक्रम दंडक कहिये। असुरकुमार तणी हे भगवंत, स्थिती केतली लहिय?।। ६३. बंधोदय वेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिय-कम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निज्जरए। (श० ११३१ संगहणी-गाहा) ६४,६५. उक्ता ना रकवक्तव्यता, अथ चतुर्विशतिदण्डक क्रमागतामसुरकुमारवक्तव्यतामाह- (वृ०-प०२८) असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? १. नैरयिक जीव आत्मा से चलित-प्रकम्पित कमों की निर्जरा करते हैं या अचलित कर्मों की? इस प्रश्न को उत्तरित करने के बाद एक संग्रहणी गाथा के द्वारा स्पष्ट किया है कि बंध, उदय, बेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्त और निकाचन आत्मा से अचलित कर्मों का होता है और निर्जरा चलित कर्मों की होती है। उक्त गाथा में उदीरणा शब्द का ग्रहण नहीं है। बृत्तिकार के अनुसार उदय शब्द के द्वारा वह अपने-आप गृहीत हो जाता है। २. संग्रहणी गाथा के बाद जीवों की स्थिति आहार आदि के सम्बन्ध में दो वाचनाएं उपलब्ध हैं । संक्षिप्त वाचना और बृहत् वाचना । संक्षिप्त वाचना में—'एवं ठिई आहारो य भाणियब्बो' यह पाठ है । बृहत् वाचना में पन्नवणा के आधार पर इनका विस्तृत विवरण है। अंगसुत्ताणि (भाग २, शतक १, सूत्र ३२) में संक्षिप्त वाचना स्वीकृत की गई है और नीचे टिप्पण में बृहत् वाचना उद्धृत कर दी गई है। (शेष अग्रिम पृष्ठ पर) ६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. श्री जिन भाखै जघन्य स्थिति तो, दश हजार वर्ष दाखी। उत्कृष्टी सागर जाझेरी, बलि-इंद्र आश्री भाखी ।। ६६. असुरकुमार देव हे भगवंत !, किता काल सू लेवै। आण-पाण उसास-निश्वास ? हिव प्रभु उत्तर देबै ।। ६७. जघन्य थोव सप्त अरु उत्कृष्टो जाझो पक्ष ज जोवो। इक उसास-निश्वास नों पाणू, सात पाणू इक थोवो ।। १८. असुरकुमार देव हे भगवंत !, आहार तणा अर्थी छ ? हां गौतम ! छै आहार ना अर्थी, प्रश्न गोयम वलि प्रीछै ।। 86. काल केतला थी हे भगवंत !, असुर कुमार लै आहारो? जिन कहै द्विविध जाण लिये इक, अजाण थी बलि धारो।। १००. अजाणपणे तो लिये निरंतर, जाणपणे जे आहारो। जघन चोथ - भक्त अरु उत्कृप्टो जाझो वर्ष हजारो॥ गोयमा ! जहण्णणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं । उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवममिति यदुक्तं तद् बलिसंज्ञकमसुरकुमारराजमाश्रित्योक्तम् । (वृ०-प० २८) ६६. असुरकुमारा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाण मंति वा ? ऊससंति वा णीससंति वा ? १७. गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, णीस संति वा। १८. असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी। ६६, १००. असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ? गोयमा ! असुरकुमाराणं दुबिहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा --आभोगनिव्वत्तिए य अगाभोगनिव्वत्तिए य । तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए, से अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ । तत्थ णं जे से आभोग निव्वत्तिए, से जहणणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सरस आहारट्टे समुप्पज्जइ। १०१-१०३. असुरकुमारा णं भंते ! किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई दवाई, खेत्तकालभावपण्णवणागमेणं सेसं जहा नेरइयाणं जाव ते णं तेसि पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति? १०१. असुरकुमार देव हे भगवंत !, किस आहार प्रतिबंधो? जिन कहै गौतम! द्रव्य थकी ले, अनंतप्रदेशिक खंधो।। १०२. खेत्र काल भाव पन्नवणा-गमे करी पिछाणो। ___ अष्टवीसमां पद में आख्यो, तिम इहां पिण जाणो ।। १०३. शेष नारको नीं परै कहिवा, जाव असुर नै हतो। कवणपणे आहरया जे पुद्गल, भुज्जो-भुज्जो परिणमंतो?।। १०४. जिन कहै पंच इंद्रिपणे परणमै, रूडा रूपपणेहो। सुभ वर्ण सुगंध सुभ रस पणेज, सुभ फर्शपणेज तेहो।। १०५. इष्ट मनोहर वांछितपणेज, तृप्तिपणे परिणमेहो। ऊर्द्धपणे ते लघुपण, पिण गुरुपण नहिं तेहो।। १०६. असुरकुमार पूर्व वह्या पुद्गल, परणम्या प्रमुख विचारो। नरक जेम जाव चलित कर्म ते, निर्जरै सह विस्तारो।। १०७. नागकुमार तणी हे भगवंत ! किती स्थिति उपदष्टो?। जिन कहै-दश वर्ष सहंस जघन, बे पल्य देसूण उत्कृष्टो।। हस्तलिखित प्रतियों और वृत्ति में पहले बृहत् वाचना लिखकर बाद में संक्षिप्त वाचना दी गई है। जयाचार्य ने भी अपनी जोड़ में ढाल ४ पद्य १४ से १५१ तक बृहत् वाचना का अनुवाद किया है। उसके बाद छह पद्यों में संक्षिप्त वाचना को भी अपने अनुवाद में समाविष्ट कर लिया है। बृहत् वाचना के आधार पर जो जोड़ की गई है, उसका पाठ अंगसुत्ताणि भाग २, पृ०८-१०, सू०११३२ के पाठान्तर से लिया गया है। १०४,१०५. गोयमा ! सोइंदियत्ताए ५ सुरूवत्ताए सुवण्ण ताए ४ इट्ठत्ताए ५, इच्छियत्ताए भिज्जियत्ताए उड्ढत्ताए, णो अहत्ताए सुहत्ताए, णो दुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। १०६. असुरकुमाराणं पुवाहारिया पुग्गला परिणया ? असुरकुमाराभिलारेण जहा नेरइयाणं जाव नो अचलियं कम्मं निज्जरंति। १०७. नागकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं। श०१, उ०१, ढा०४ ६३ Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले १०८. नागकुमारज किता काल थी, आण पाण इष्टो ? सप्त यो जिन कहे जन्य थी, पृथक् मुहर्त उत्कृष्टो ॥ १०२. नागकुमार देव हे भगवंत !, आहार तथा अर्थी थे ? हां गौतम ! छे आहार ना अर्थी, प्रश्न गोयम बलि प्रीछै ।। ११० काल केतला थी हे भगवंत, नागकुमार ले आहारो ? जिन कहै द्विविध जाण लिये एक अजाण थी यति धारो ॥ १११ अजाणपण तो लिये निरंतर जाणवणं ये आहारो । जयन घोष भक्त अरु उत्कृष्ट पृ-दिवस सुविचारो ॥ ११२ शेष विस्तार असुर जिम जाव अचल निर्जरे नाही सुवन्नकुमार देव पिण इमहिज, जाव थणिय लग थाई ॥ ११३. पृथ्वीकाय तणो हे भगवंत !, केती स्थिति कहौसो ? अंतर्मुहूर्त जघन्य कहै जिन, उत्कृष्ट सहंस बावीसो ॥ ११४. पृथ्वीकाइया fear काल थी, लेवं आण रु प्राणो । जिन कहे बेमावाई से नहि तास प्रमाणो ॥ छै ११५ पृथ्वीकाय प्रभु! आहार ना अर्थी ? हां गौतम ! जिन के किता काल थी आहार लिये ? जिन कहै निरंतर लेवे ॥ ११६. किस आहार ले पृथ्वीकाइया, नरक जेम अवधारो यावत् निर्व्याघात करीनें, पट् दिशि नों लै आहारो ॥ ११७. अलोक ने व्यापात कदाचित् त्रिण दिशि नोंले केई । कदाचित् चि दिशि नों लेवें, पंच दिशि नों इम लेई || ११. वर्ग को पंच वर्ण, गंध वे पंच रस, अठ फासो । शेष नरक नो प्रेम कह्यो छे, तिम पृथ्वी नों प्रकाशो ॥ ११६. नागतं कहितां फेर एतलो नरक तणी अपेक्षायो । पृथ्वीकाय ने आहार आश्री, जे भेद आगल कहिवायो || १२०. भाग केवलं आहार करे, कति भाग फर्श में आये। असंख्यातमों भाग बाहरे, अनंत भाग । फर्मावे || १२१ रस - इंद्रि वाला रस-इंद्रि करि, रस तिम ए फलं इंद्र द्वारे करि, फ. फर्श ६४ भगवती जोड़ आस्वादै पुद्गल जैमो । एमो | १०८-११२. नागकुमाराणं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा ४ ? गोमा ! जहणणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स आणमंति ४ । नागकुमाराभते आहारट्ठी ? हंता आहारट्ठी । नागकुमाराणं भंते देवास आहारट्ठे समुप्प ज्जइ ? गोयमा ! नागकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगनिव्वत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिए य। तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए, से अणुसमपमनिरहिए आहार सप्त्जे से आभोगनिव्वत्तिए, से जहणणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसे दिवसतरस आहारट्ठे समुप्पा असुरकुमाराणं जाव नो अचलिये कम्मं निज्जरति 1 एवं सुवणकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं । ११३. पुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । ११४. कायावदकालरस आगमति वा ४ ? गोयमा ! माताएं आणमंति वा ४ । ११५. विकाइया आहारट्ठी हंता आहारी पुढ विकास आहार समुप्यन्न ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहिए आहारट्ठे समु प्पज्जइ । ११६ ११. विकाइया किमाहारमाहारेति ? मोमाय जहा राजा निव्वाषाए छाप थिय तदिसि शिव सिं यि पंचदिति । दण्णापहा सुकिल्लाणि, गंधओ सुरभिगंध २ रसओ तित्त ५ फासओ कक्खड सेसं तहेव । ११६, १२० णाणत्तं, कइभागं आहारेंति, ? कइभागं फासाएति ? गोमा ! असंधिज्जरभाग आहारेति, अनंतभागं फासाएंति । ११६. 'नाणत्तं' त्ति नानात्वं भेदः पुनः पृथिवीकायिकानां नारकापेक्षयाऽऽहारं प्रतीदं । ( वृ० प० २१) १२१. यथा रसनेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तका रसनेन्द्रियद्वारेणाहारमुपभुञ्जाना आस्वादयन्तीति व्यपदिश्यन्ते एवमेते स्पर्शनेन्द्रियद्वारेणेति । (४० १० २६) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. यावत् पुद्गल कवणपणे तसुं, भुज्जो परिणमै धारो। जिन कहै-फर्शद्री बेमात्रा, परिणमै वारंवारो। १२३. शेष विस्तार नरक जिम सगलो, जाव वणस्सइ तासो। नवरं स्थिति में फेर जजइ, बेमानाई उसासो।। १२२. जाव ते णं तेसि पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो परि णमंति? गोयमा ! फासिदियवेमायत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। १२३. सेसं जहा नेरइयाणं जाव नो अचलियं कम्मं निज्ज रंति। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, नवरं ठिती वष्णे यया जा जस्स, उस्सासो बेमायाए। १२४. बेइंदियाणं ठिई भाणियब्वा, ऊसासो वेमायाए। १२४. वेंद्रि स्थिति धुर अंतमहत, उत्कृष्टी वर्ष बारो। बेमात्राइं उसास लेबै, हिवै आहार अधिकारो॥ १२५. अणाभोग तो लिय निरंतर, आभोगे इम जाणो। असंख समय मैं अंतर्महत्ते, बेमात्राइं पिछाणो ॥ १२६. शेष तिमज यावत् इम कहिवो, अनंत भाग आस्वादै । संग्रहणि-गाहा ना छठा प्रश्न लग, हिवै सातमो साधै ।। १२७. हे भगवंत ! बेइंद्री पुद्गल आहारपणे ग्रहै ज्यां ही। ते स्यं सर्व आहार अथवा सर्व आहारै नांही ?।। १२८. जिन कहै द्विविध आहार बेइंद्रि, लोम आहार प्रक्षेवो। लोम आहार तो सर्व ग्रहै छ, हिव प्रक्षेप कहेवो । १२६. प्रक्षेप आहारपणे पुद्गल ग्रहै तसु, असंख्यातमां भागे। आहारै छै ए पाठ न्याय तसं, विशिष्ट परणमै सागे ।। १३०. अनेक हजार भाग अण फा, अणस्वाद्या बिललावै। अति सूक्ष्म अति स्थल बहु द्रव्या, रसन-फर्श ते नावै ।। १३१. हे प्रभु ! अण आस्वाद्या पुद्गल, वलि अणफा मांह्यो। कण वह अल्प तुल्य विशेषाधिक?, हिव भाखै जिनरायो ।। १३२. सर्व थी थोड़ा केवल रस-इंद्रिय विषय जे नाया। केवल फर्श इंद्रि अणफा , अनंत गुणा अधिकाया।। १२५, १२६. बेइंदियाणं आहारे पुच्छा, गोयमा ! आभोग निव्वत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिए य तहेव । तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए, से णं असंखेज्जसमए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारठे समुप्पज्जइ । सेसं तहेव जाव अणंतभागं आसाएंति। १२७-१३०. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते कि सम्बे आहारेंति, णो सब्वे आहारेंति? गोयमा! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहालोमाहारे पक्खेवाहारे य। जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हति ते सब्वे अपरिसेसिए आहारेति । जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हंति तेसि णं पोग्गलाणं असंखिज्जइभागं आहारेंति, गाइं च णं भागसहस्साई अणासाइज्जमाणाई अफासिज्जमाणाई विद्धंसमा वज्जति। १३१,१३२. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कयरे-कयरे अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सब्बत्थोबा पोग्गला अणासा इज्जमाणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा। १३३,१३४. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते णं तेसि पोन्गला की सत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति? गोयमा ! जिभिदियफासिदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। १३५. बे इंदियाणं भंते ! पुवाहारिया पुग्गला परिणया ? तहेव जाव चलियं कम्मं निज्जरेंति । १३६, १३७. तेइंदियचरिदियाणं णाणत्तं ठिईए जाव णेगाई चण भागसहस्साई अणाघाइज्जमाणाई अणासाइज्जमाणाई अफासाइज्जमाणाई विद्धंसमावज्जति । १३३. हे भगवंत ! बेइंद्री पुद्गल, आहारपण ग्रहै जाणी। ते तसं पुदगल कवणपणे जे, बलि-बलि परिणमैं आणी ।। १३४. जिन कहै-रस इंद्री फर्शद्रीपण बेमात्रा पेखो। बलि-बलि परणमैं छै ते पुद्गल, अप्टम प्रश्न उवेखो। १३५. हे भगवंत ! बेइंद्री पुदगल, पूर्व आहारिया परिणया। तिम हिज जाव चलित कर्म निर्जर, सूत्र मध्ये ए थणिया।। १३६. ते इंद्री चरिद्रो नाणत्तं, स्थिति विषै पहिछाणी। यावत् वलि अनेक हजारा भाग आहार ना जाणी ।। १३७. अणगंध्या नै अणआस्वाद्या, वलि अण' फर्या पेखो। पुद्गल द्रव्य विध्वंस हुवै छै, हिव तसं न्याय उवेखो। श०१, उ०१, ढा०४ ६५ Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८. अति स्थूलपणां थी के पद्गल, अति सूक्ष्मपणां थी केई। इंद्रिय तणे ग्राह्य नवि थाई, थया विध्वंसज तेही ।। १३६. हे प्रभुजी ! ए पुद्गल आख्या, घ्राणपण नहि आया। अल्प बहुत्व इहां तीन बोल नीं, पूछयां कहै जिनराया ।। १४०. सर्व थोड़ा अणगंध्या पुद्गल, अनंत गुणा अनास्वादो। अणफा ते अनंत गुणा छ, अल्प बहुत इम साधो।। १४१. आहार परिणमैं तेइंद्री त्रिहं इंद्रियपणे पिछाणो। चरिद्री चिउं इंद्री पण, ते बिहुँ बेमात्रा जाणो।। १३६. एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाई ३ पुच्छा। १४०. गोयमा ! सव्वत्थोवा पोन्गला अणाघाइज्जमाणा, अणासाइज्जमाणा अणंतगुणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा। १४१. तेइंदियाणं घाणिदियजिभिंदियफासिदियवेमायत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति । चउरिदियाणं चक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिण मंति। १४२, १४३. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं ठिई भणिऊणं ऊसासो येमायाए । आहारो अणाभोगनिब्बत्तिए अणु - समयं अविरहिओ। आभोगनिव्वत्तिओ जहणणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स । सेसं जहा चरिदियाण जाव चलियं कम्मं निज्जरेंति। १४२. तिथंच पंचेंद्री फेर स्थिति में, बेमात्राई उसासो। अणाभोग करी आहार लियो, ते अंतर रहित विमासो।। १४३. आभोगे अंतर्महतं धुर, उत्कृष्टो छठ कहिये । शेष चरिद्री नी पर जावत, चलित कर्म निर्जरिये ।। १४४. पांचं इंद्रीपणे परिणमै, सुगम भणी नहिं आख्यो। पंच इंद्रियपणे वेमात्रा परणमै पन्नवण भाख्यो।। १४५. इमज मनुष्य पिण फेर एतलो, आहार तण अधिकारो। जघन्य अन्तर्महतं आभोगे, उत्कृष्ट अटूम धारो।। १४६. पंच इंद्रियपणे बेमात्रा परिणमैं ते सुविचारो। शेष तिमज जाव चल्यो, निर्जरै यथायोग्य अधिकारी।। १४७. व्यंतर नागकुमार जिम कहिये, पिण फेर स्थिति में होयो। इम हिज जोतषी पिण छै णवरं, विशेष इतलो जोयो।। १४८. जघन्य अनै उत्कृष्ट उसासज, पृथक - महतं कहिये । आहार जघन्य उत्कृष्ट पृथक्-दिन, शेष तिमज सलहिये ।। १४६. वैमानिक स्थिति ओघ सामान्या, इक पल्यं जघन्य अमोघो। उत्कृष्टी तेतिस सागर नी, ए वैमानिक ओघो।। १५०. जघन्य उसास पृथक्-मुहूर्त, पख तेवीस उत्कृष्ट दीसो। आहार आभोग जघन्य दिन पृथक्, उत्कृष्ट सहस तेतीसो।। १५१. शेष विस्तार पूर्व आख्यो छ, तेहिज कहिवो सारो। यावत् चलियो कर्म निर्जर, त्यां लग सह विस्तारो। १४५. एवं मणुस्सागवि, नवरं आभोगनिव्वत्तिए जहणणं ___अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स । १४६. सोइंदियवेमायत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। सेसं जहा चरिदियाणं तहेव जाव निज्जरेंति । १४७, १४८. वाणमंतराण ठिईए नाणत्तं, परिणमंति अवसेसं जहा नागकुमाराणं । एवं जोइसियाणवि, नवरं उस्सासो जहण्णेणं मुहत्तपृहुत्तस्स, उक्कोसेणवि मुहुतपुहुत्तस्स । आहारो जहणणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्को सेण वि दिवसपुहुत्तस्स । सेसं तहेव । १४६-१५१. वेमाणियाणं ठिई भाणियब्बा ओहिया । ऊसासो जहण्णेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाण। आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहणणं दिवसपुत्तस्स, उनकोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं । सेसं चलियाइयं तहेब जाब निज्जरेंति। १. भगवती की जोड़ कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत वाचना के आधार पर की गई है, इसलिए अंगसुत्ताणि के पाठ के साथ उसका यत्र-तत्र पुरा मेल नहीं बैठता। ढाल ४ में गाथा ६४ से १५१ तक की जोड़ विस्तृत वाचना के आधार पर की गई है, अंगसूत्ताणि भाग २ श०१।३२ में ‘एवं ठिती आहारो य भाणियब्बो' यह संक्षिप्त पाठ है। इसलिए जोड़ के समानान्तर उक्त सूत्र के टिप्पण से विस्तृत वाचना का पाठ दिया गया है। ६६ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तय १५२-१५४. तदेतावता ग्रन्थेनोक्ता चतुर्विशतिदण्डक वक्तव्यता, इयं च केषुचित्सूत्रपुस्तकेषु ‘एवं ठिई आहारो' इत्यादिनाऽतिदेशवाक्येन दर्शिता, सा चेतो विवरणग्रन्थादवसेयेति। (वृ०-५० ३१) १५२. चउवीसू दंडक तणी, ग्रंथ करी नै एह। वक्तव्यता आखी अछ, केई पुस्तके जेह ।। १५३. एवं ठिई आहारो, इत्यादिक अतिदेश । वाक्य करी - वारता, देखाडी छै लेश ।। १५४. तिका इहां विस्तार थी, ग्रंथ थकी अवलोय । आखी छै सगली इहां, वृत्ति विष इम जोय ॥ १५५. स्थिति जिम स्थिति पद नै विषै, तिण हिज रीत सुजाण । भणवी सह जीवां भणी, जई - जूई पहिछाण ।। १५६. वलि आहार पिण जिम का, अठवीसम पद मांय । प्रथम उदेशक नै विषै, तिम सगलो कहिवाय ।। १५७. * एत्तो आढत्तो ए आगल, जे पाठ थकी प्रारंभी। नेर इयाणं भंते आहारट्टी, आदि थी इम आरंभी।। १५८. जाव दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो, कांइ परिण मंति पहिछाणी। अठा ताइ जे पाठ सर्व छ, ग्रंथ थकी ए जाणी।। १५६. चउथी ढाल विशाल कही ए, पन्नवण बह विस्तारो। भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसादै, 'जय-जश' संपति सारो।। १५५, १५६. एवं ठिई आहारो य भाणियव्वो। ठिती जहा. ठितिपदे तहा भाणियब्वा सव्वजीवाणं । आहारो वि जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए तहा भाणियव्यो १५७, १५८. एत्तो आढत्तो-नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी? जाव दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। (श०११३२) ढाल : ५ नरकादिक नों धर्म कह्य, ते आरंभी ताम। आरंभ-निरूपण नै अर्थ, पूछ गौतम स्वाम ।। हे भगवंत ! बहु जीव स्यूं, आत्मारंभा थात? निज आतम करि निज भणी, हण करै अपघात ।। परारंभा पर नै हण, तदुभयारंभा तेह । निज पर दोन नै हण, अणारंभा न हणेह ।। वीर कहै केइ एक छ, आत्मारंभा जीव । परारंभा पिण तेह छ, उभयारंभ अतीव ।। अणारंभा कहिये न तसं, केइ एक बलि जीव । त्रि हुं बोल धुरला नहीं, अणारंभा सुकहीव ।। १. उक्ता नारकादिधर्मवक्तव्यता, इयं चारम्भपूविकेति आरम्भनिरूपणायाह (वृ०-५० ३१) २-५. जीवा णं भंते ! कि आयारंभा? परारंभा? तदु भयारंभा? अणारंभा? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा। अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। (श०११३३) २, ३. तत्र चात्मानमारभन्ते आत्मना वा स्वयमारभन्त इत्यात्मारम्भाः, तथा परमारभन्ते परेण वाऽऽरम्भयन्तीति परारम्भाः , तदुभयम्-आत्मपररूपं, तदुभयेन वाऽऽरभन्त इति तदुभयारम्भाः , आत्मपरोभयारम्भ - वजितास्त्वनारम्भाः। (वृ०-प०३१) लय-सयणां थइये जी रे श०१,उ०१, ढा०४,५ ६७ Jain Education Intemational cation International Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किण अर्थे इम आखियो, केइ धुरला त्रिहं पेख। अणारंभा कहिये न तसु, अणारंभा के एक ।। *सूण-सूण रे शीस ! सयाणां!, आखै जिनवर इम आणा। जिन-आणा महा सुखदाई, आ तो शिवपद केरी साई।। (ध्रुपदं) ७. वीर कहै गोयम सुण सार, परूप्या जीव दोय प्रकार । संसारी अनै सिद्ध सोय, अणारंभा सिद्ध अवलोय ।। ८. संसारी जीव दोय प्रकार, संजती नै असंजती धार । संजती ना भेद दोय तत्थ, प्रमत्त संजती नै अप्रमत्त ।। तिहां अप्रमत्त ते अणारंभा, नहीं आत्म-पर-उभयारंभा। प्रमत्त सुभ जोग में अणारंभा, आत्म-पर-उभयारंभ न लंभा।। असुभ जोग पडुच्च प्रमादी, आत्म-पर-उभयारंभा विवादी। अणारंभा ते वेला न कहिये, ए छठ्ठ गुण ठाणे लहिये ।। ११. ए कह्यो संजती नो अधिकार, असंजती अविरत आश्री धार। आत्म-पर-उभयारंभा कहाय, अणारंभा कह्या जिन नाय ।। ६-११. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया जीव आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा? अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा अणारंभा? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता,तं जहा—संसारसमाबग्णगा य, असंसारसमावण्णगाय। तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा, ते णं सिद्धा। सिद्धा णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा, ते दुविहा पण्णता, तं जहा-संजयाय, असंजया य। तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णता, तं जहापमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य। तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया, ते सुहं जोगं पडुच्च नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तभयारंभा, अणारंभा। असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा। तत्थ णं जे ते असंजया, ते अविरति पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभ यारंभा वि, नो अणारंभा। १२. दूहा वृत्तिकार इहां इम कह्यो, सूक्ष्म एकेंद्री ताय । त्याग नहीं हिसा तणा, आत्मारंभादि थाय ।। मनि र त्याग हिंसा तणा, यत्नवंत श्रुत-बुद्ध । जीव तणी ह विराधना, निर्जर फल चित सुद्ध ।। १२. यद्यप्यसंयतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां नात्मारम्भ कादित्वं ___ साक्षादस्ति तथाऽप्यविरति प्रतीत्य तदस्ति तेषां । (वृ०-प० ३२) १३. जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ।। (वृ०-प० ३२) १४. से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। (श० ११३४) १४. *तिण अर्थे गौतम ! इम आख्या, आत्म-पर-उभयारंभा के भाख्या। केई अणारंभा सुखकार, हिवै न्याय कहै जय सार ।। १५. 'संसारी ना किया दोय भेद, संजती असंजती सुवेद। संजतासंजती कियो नांह्यो, हिवै श्रावक किण मांहे आयो?।। १६. संजती ना बे भेद सुतत्थ, प्रमत्त संजती नै अप्रमत्त। प्रमत्त संजती छठो गुणठाणो, अप्रमत्त सातमा थी जाणो।। १७. यां में तो श्रावक नहीं आवै, पंचमें गुण श्रावक पावै। ___ अविरत आधी असंजती मांय, इणरो जाण समदृष्टि न्याय ।। *लय—सुणो-सुणो रे सीख सयाणां ६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया जगतार । तीज भेद इहां कियो नाहि, तिण सूं अविरत आधी असंजती मांहि ॥' (ज० स० ) दंभा । १६. नेरिया प्रभु ! तदुभयारंभा २०. इम पूछे गोयम दम-सागर स्यूं आयारंभा, परारंभा कहीजं कहिवाय, के अणारंभा कहीजं ताय ? | स्वामी, अनुग्रह करो अंतरजामी । दीनदयालं, वारू अर्थ बतावो विसालं ॥ २१. जिन कहै - नारकी दिल दंभा, छै आत्म-पर- उभयारंभा । अणारंभा तो नहिं कहिवाय, गौतम पूछे किण अर्थे ए वाय ? ।। २२. जिन कहै - अव्रत अपेक्षाय, आत्म-पर-उभयारंभा थाय । जाव पंचद्री तिर्थन अग्र आधी बिभेद संच ॥ २३. मनुष्य जीव तणो पर बुधवी, पर सिद्धां रो भेद न भयो। व्यंतर जोतषी नै वैमानीक, नारकी जिम कहिवा तहृतीक || इम २४. 'इहो जय जश आखे न्याय, वीतमा दंडक रे मांय । आत्म-पर- उभयारंभा कहाया, तिर्यच श्रावक सहु इहां आया || २५. तिम मनुष्य श्रावक में लंभ, जव्रत आश्री आत्मादि आरंभ | अनत से क्रिया देश भी ताहि अत आधी असंजती मांहि ॥ ( ज० स० ) २६. सलेसी ने कृष्णादिक लेस, सातूं नों प्रश्न उत्तर विशेष | पाठ मांहि संक्षेप बतायो, तिए रो निर्णय निसुणो न्यायो ॥ २०. सलेसी जीव स्यूं आयारंभा के पर- उभय- अणारंभ संभा ? अधिक संसारी ना किया भेद, तिम सवेसीनां ज सुवेद' ॥ १. सलेश्यी, कृष्णलेश्यी आदि जीव आत्मारंभी हैं ? परारंभी हैं? या अनारंभी है ? इस प्रश्न के उत्तर में औधिक पाठ का उल्लेख कर कहा गया है- 'पमत्ताप्पमत्ता भेदा न भाणियव्वा' प्रमत्त और अप्रमत्त ये भेद संयती के हैं। संयती और असंयतीये दो भेद संसारी जीव के हैं । यहां प्रमत्त और अप्रमत्त भेदों की चर्चा नहीं की। इसका अर्थ यह है कि जो जीव अप्रमत्त हैं, वे आरंभी हैं ही नहीं। इसलिए उनको साथ रखने की अपेक्षा नहीं रही। पर इस संबंध में वृत्तिकार का अभिमत दूसरा है। उनके अनुसार कृष्ण, नील आदि अप्रशस्त भाव लेश्या में साधुत्व होता ही नहीं है। इसलिए कृष्णलेश्यी आदि के प्रमत्त और अप्रमत्त भेद नहीं किए। यदि कृष्णलेश्यी में साधुत्व नहीं होता तो संसारी जीव के संयती और असंयती - ये दो भेद क्यों किए जाते ? ये दो भेद सूत्र ११३४ में किए जा चुके हैं। इस दृष्टि से वृत्तिकार का मत आलोच्य है । जयाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत के साथ न केवल अपनी असहमति ही व्यक्त की है, अपितु इसकी कड़ी समीक्षा भी की है। इस विस्तृत समीक्षा में उन्होंने ११० भगती-जोड़ दाल ५१२४१४०) लिखे हैं, जो सूक्ष्म दृष्टि से पठनीय हैं। १६. नेरइया णं भंते! कि आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? २१-२३. गोयमा ! नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । ( ० २०३५) से पट्ठे ? गोमा ! अविरति पच्च से तेजद्वेगं गोपमा ! एवं वुच्चइ - नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । (πro (128) एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया । मणुस्सा जहा जीवा, नवरं - सिद्धविरहिया भाणियच्वा । वाणमंतरा जोइसिया बेमाणिया जहा नेरइया । (स० १०२७) २६-२८. सलेस्सा जहा ओहिया । कण्हलेसस्स, नीललेसस्स, काउलेसस्स, जहा ओहिया जीवा, नवरं - पमत्ताप्पमत्ता न भाणियव्वा । श० १, उ० १, ढा० ५ ६६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण नील कापोत ने जाणो, अधिक संसारी जेम पिछाणो । णवरं प्रमत्त अप्रमत्त बे भेद, नहि करिवा न भणवा वेद || २६. 'संसारी ना किया भेद दोय, संजती नैं असंजती जोय । संजती ना दोय भेद कीधा, प्रभादी ने अप्रमादी सीवा ॥ ३०. तिम कृष्णादिक त्रिहुं ना भेद दोय, संजती नै असजती होय । संजती ना बे भेद न थुणवा, प्रमत्त अप्रमत्त भेद न भणवा ।। ३१. प्रमादी में कृष्णादिक पार्व अप्रमादी में ए विहं नावै। तिण से संजती ना वे भेद, नहि भगवा इस का वेद ।। सूं ३२. धुर भेद संजत वर्ज्यो नाहि, तिण सूं कृष्णादि साधु रे मांहि । संगत शुभ योग भी अणारंभ, अशुभ जोग आयी आरंभ।' [ज० स०] ३३. कोइ कहैं कृष्ण लेश्यावंत, तसुं किम शुभ जोग आवंत । तिण रो जाव सुणो चित ल्याय, तेजु पद्म शुक्ल रे न्याय ॥ ३४. ते पद्म पद्म शुक्ल आयारंभा ? के पर उभयारंभ अनारंभा ? तिण नैं औधिक पाठ भलायो, पिण सिद्ध न भणवा ताह्यो । ३५. 'तेजु पद्म शुक्ल ना वे भेद, संजती असती सुवेद । संजती ना कह्या बे प्रकार, प्रमादी नैं अप्रमादी सार ॥ ३६. अप्रमादी अणारंभा संभ प्रमत्त पिण सुभ जोगी नारंभ । असुन जोगी आत्मादि आरंभ नहि अगारंभ चित स्तंभ ॥ ३७. तेजु पद्म शुक्ल लेश्यावंत, असुभ जोगी कह्या भगवंत । अधिक पाठ भलायो ते न्याय पूर्वनी पर भेद ३८. तिम कृष्ण नील काउवंत, संजती शुभ ते आधी अणारंभी कहिये, वारू न्याय हिये कराय || २८. ३६. । शुभ लेसी अशुभ जोग अपेक्षाय आत्मादि आरंभा कहै ताय तो अशुभ नेसी शुभ जोग अपेक्षाय, अगारंभा कहिणा ससुंग्याय ॥ ४०. असुभ लेश्या द्रव्य कहै कोय, तो शुभ लेश्या पिग द्रव्य होय । शुभ लेश्या भणी भाव था, तो अशुभ लेश्या भावे क्यूं उथाप ? ४१. भावे तेज़ पद्म पद्म शुक्लवंत, ते वेला असुभजोग न हुंत । पिण जे भव आधी ते जीव लभ, अशुभ जोग आधी आरंभ ॥ ४२. तिम भावे कृष्ण नील काउवंत, ते वेला सुभ जोग न हुंत । पिण ते भव में आर्य शुभ जोग, ते वेला अनारंभ प्रयोग || ४३. विरुद्ध अर्थ वृत्ति' में पिछांणी, अशुभ भाव लेश्या मुनि में नांणी । टॉमटॉम को सूख मांह्यो, छठे गुणठाणो छ लेस्या पायो । ७० जोगी हूं। सलहिये || 1 १. सत्यादिकृष्णश्वस्नीयस्य कापतयस्य वीराण्डको यथा अधिकजीवदण्डकाव्य प्रमताप्रमत्तविशेषणवादिषु हि अप्रशस्त भावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यच्चोच्यते-- पुव्व पडिवण्णओ पुण अण्णयरीए उ लेस्साए त्ति तद्द्रव्य लेश्यां प्रतीत्येति मंतव्यं, ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावः । ( वृ० प० २२, २३) भगवती-जोड़ ३४. उस पलेस, क्लेस जहा ओहिया जीवा, नवरं - सिद्धा न भाणियव्वा । ( ० १३८) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद पेख, पहिला उद्देशा में सुविशेख | समदिष्टि क्रिया ने अधिकार सुदृष्टि । सुविचार, संजती में असंगती धार तहतीक क्रिया भेद बिना औषीक ॥ । ४६. संगती ना वे भेद न कीधा, प्रमत्त अप्रमत्तादिक नहि सीधा । धुर भेद संजया थुणिया, प्रमत्त अप्रमत्तादिक नहिं भणिया || ४७. कृष्णलेश्या छठा गुण सांई, अप्रमादी में पार्श्व नाही । विण से संपती रा दोष भेद नहि कीधा परमवण वेद । भगवती पहिला शतक महार, उदेश क्रियाधिकार। चोबीस दंडक सलेस छ लेस, क्रिया नों विस्तार विशेष || ४६. मनुष्य त्रिविध प्रथम समदिष्टि, मिच्छदिट्ठ समामिथ्या इष्टि । समदिष्टि मनुष्य तीन प्रकार, संजत असंजन श्रावक धार ।। ५०. संजती ना वे भेद विचार, सरागी वीतरागी सार । वीतरागी संजती मांहि, आरंभियादिक क्रिया नांहि ॥ ५१. सरागी जती ना भेद दोय, प्रमादीनं अप्रमादी जोय । अप्रमादी महे क्रिया एक मायादत्तिया कपाय श्री देव ॥ ५२. प्रमादी संजती रे दोय, आरंभिया मायावत्तिया होय। संजता संजती रै तीन, तीजी परिग्रही अधिक सीन ।। ५३. असंजत - समदृष्टि र च्यार, अपच्चक्खाणिया अधिक विचार | मिथ्यादृष्टि मिश्रदृष्टि पंच मिध्यात की पंचमी विरंच ॥ ५४. तेवीस दंडक क्रियाधिकार, तिहां को पो विस्तार। " ग्रंथ बहुल थी इहां न बखाण्यो, प्रस्ताव ते मनुष्य नों आण्यो । ५५. सलेसी कृष्णादि पढ़ लेस, दंडक ऊपर विस्तार विशेष सलेसी नेरइयादि ५६. कृष्णादिक अशुभ पन्नवणा' सतर मैं कृष्णलेशी मनुष्य ४५. तीन भेद तेहना संजतासंजती ४४. ४८. । विचार, आहार प्रश्न प्रमुख अधिकार ॥ लेश्यावंत, मनुष्य क्रिया अधिक ज्यू कहत पिण सरागी वीतरागी सार, प्रमत्त अप्रमत्तन भणवा च्यार ॥ ५७. कृष्णादि त्रिहुं सरागी मांहि वीतरागी में पावे नांहि । प्रमादी में, न अप्रमत्त, तिण सूं वे भेद करणा ५८. धुर भेद संजत वज्यों नाहि, तिण सू असुभ लेश्या आगला च्यारूं भेद न करणा, वर न्याय हिये आदरणा ।। ५६. तेजु पद्म पावे पावे जे मांय पाठ अधिक ज्यू कहिवाय णवरं मनुष्य मांहै इम थुणवा, सरागी वीतरागी न भणवा ॥ ६०. सरागी में तेजु पद्म पावै, वीतरागी मांहे नहि भावे । तिण सूं अप्रमत्त रा दोय भेद, नहिं करवा जाण सुवेद || वर्ज्या तत्थ ।। मुनि माहि । १. कण्हलेसाणं भंते !... णवरं मणूसाणं किरियाहि विसेसो, जाव तत्थ णं जे ते समद्दिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - संजया असंजया संजया संजया य...। ( पण्णवणा १७।२६, ३०) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. ६१. औधिक अप्रमत्त रा भेद दोय, कीधा सरागी वीतरागी सोय । ते इहां भेद न करिवा ताहि, प्रमत्त अप्रमत्त बा नांहि ।। ६२. वा सरागी वीतरागी ताहि, तो स्यूं मुनि में तेजु पद्म नांहि । पिण ए वा अप्रमत्त रा भेद, अप्रमत्त न वज्र्यो सुवेद ।। ६३. तिमहिज पहिलै उदेशै पेख, कृष्ण नील कापोत में देख। तिण सं औधिक पाठज थुणवा, प्रमत्त अप्रमत्त भेद न भणवा ।। ६४. औघे संजती रा भेद दोय, कीधा ते नहि करणा सोय। धर भेद संजत वो नांहि, तिण सं कृष्णादिक संजती मांहि ।। सूत्र भगवती में सुविचार, पंचवीस में शतके सार । कह्यो छठे उदेशै विशेष, कपायकुशील माहै पट लेश ।। ६६. तिणहिज शतक सात में उद्देश, सामायकचारित्र सुविशेप । बलि छेदोपस्थापनी मांय, पट लेश्या कही जिनराय ।। ६७. पन्नवणा सतरमा पद मांय, तीजै उदेशै कह्यो जिनराय । कृष्ण नील कापोत सुजोय, बे त्रिण च्यार ज्ञान विप होय ।। ६८. तिहां एम कह्यो टीकाकार, मनपर्यव अधिक उदार । कृष्ण संक्लिष्ट अध्यवसाय, किसी कृष्ण लेश्या मनपर्याय ।। ६६. अध्यवसाय कृष्ण ना जाण, असंख लोक प्रदेश प्रमाण । कृष्ण तणा अध्यवसाय मद, तिहां मनपर्याय पावंद।। ७०. मनपर्याय ज्ञान पिछाण, ऊपजै सातमैं गुण ठाण । पछै छठे गुण ठाणे आय, जद कृष्णादिक छहुं पाय ।। ७१. इम पन्नवणा-वृत्ति रै मांय, असुभ लेश्या रा कह्या अध्यवसाय। अध्यवसाय तिको भाव लेश, तिण में ज्ञान च्यार सुविशेष ।। भगवती - वृत्ति साधु रै मांहि, भावे असुभ लेश्या वर्जी ताहि । ते सूत्र थी विरुद्ध पिछाणो, पन्नवण-वृत्ति थी पिण विरुद्ध जाणो।। ७३. उत्तराध्येन चउतीसमैं जाण, हिंसादिक पंच आश्रव पिछाण । ए कृष्ण ना लक्षण जोय, ए प्रत्यक्ष भाव लेश्या अवलोय ।। ७४. सचित आंबो चूस्यां चउमासीक, नसीत पनरमैं तहतीक ! ए प्रथम आश्रव कृष्ण भाव लेस, कह्यो छठे गुणठाणे जिनेश ।। ७५. बोले थोडोइ झूठ अलीक, नसीत बीजै उदेशै मासीक । ए दूजो आथव भावे कृष्ण जाणं, ए पिण पावै छठे गुण ठाणं ।। थोडोइ अदत्त ले कोय, नसीत बीजै मासीक सुजोय । तीजो आश्रव कृष्ण लेस्वा भाव, ए पिण छठे गुणठाणे कहाव ।। मिथन अर्थे कुचेष्टा अनीत, छठे सप्तम उदेश नसीत । चोथो आश्रव भावे कृष्ण कहिये, ए पिण छठे गुणठागै लहिये ।। मुर्छा अर्थे पात्रा ने पिछाण, बिन कारण रंगे जाण । दंड नसीत चवदमें उदेश, पंचम आश्रव भावे कृष्ण लेश ।। ७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. तिम नील कापोत रा जाण, केइ लक्षण छठे गुणठाण। कृष्ण रा लक्षण छठ केई, केइ पंचमै पहिला थी लेई ।। ८०. भावे शुक्ल में गुण ठाणा तेर, केइ लक्षण प्रथम गुण हेर । तिम भावे कृष्ण ना जाण, केइ लक्षण छठे गुण ठाण ॥ ८१. कषायकुशील में कही छ लेश, छठा गुण ठाणा आश्री जिनेश । कपायकूशील पावै किण मांय, भगवती में गोयम पूछी वाय ।। तीर्थ में कै अतीर्थ में थाय? वीर कहै दोन में पाय। अतीर्थ में तो तीर्थकर मांय, के प्रत्येकवद्ध में पाय? ८३. जिन कहै तीर्थकर मांय, कषायकुशील नियंठो पाय । ए छद्मस्थ तीर्थंकर जोय, केवली में तो स्नातक होय ।। ८४. प्रत्येकबुद्ध में पिण लहिये, कषायकुशील नियंठो कहिये। ए शतक पचीसवां मांय, छठे उदेशै कह्यो जिन राय ।। ८५. मासीक सं लेइ छ - मासी, घणां बोल नसीत में राशी। त्यांरो प्रायश्चित ले मुनिराय, ए माठी लेश्या तणो दंड पाय ।। ८६. बलि के तेजु आहारीक, लब्धि फोड्यां क्रिया तहतोक। जघन्य तीन, उत्कृष्टी पंच, पन्नवण छतीसमें पद संच ।। आहारक शरीर निपजाय, प्रमाद आश्री अधिकरण ताय । भगवती सोलमें शतक जाण, प्रथम उदेश पाठ पिछाण ।। वागूल अधोसिर पग उर्द्ध लटक, तिम रूप वेत्रिय मुनि मटके। जनोइवाला नर जिम जाण, वलि जलोक नो रूप पिछाण ।। ८६. वले शकुन पंखी रूप धार, बे पग ह्य जिम साथ उपाडे । रूंख थी रूख जातो बराल, एहवो रूप वेक्रिय मुनि न्हाल ।। जीवजीवग पंखी विकुर्वतो, हंस तीर थी तीर रमंतो। एहवा रूप करि मुनिराय, ओ तो गगन-मंडल चल्यो जाय ।। वलि समुद्रवायस नी अलोल, किलोल थी बीजे किलोल । वलि चक्रधारक जिम होय, जाय गगन-मंडल माहै सोय ।। १२. इम छत्रधारक चमरधार, रत्न ग्रहि जाय गगन मझार। उत्पल पद्म कुमुद कर लेई, जायै आकास मारग तेही ।। ६३. बलि भूश-मणाल विदारी, पुरुष जातो देख्यो तिणवारी। एहवो रूप करी मुनिराय, ओ तो आकास मारग जाय ।। १४. बलि कमलिणी पाणी मझार, तिष्ठति देखी तिणवार । मुनि पिण एहवो रूप धार, वैक्रिय लब्धि की तिणयार ।। कृष्ण वर्णे देख्यो वन-खंड, ओ तो देखवा जोग्य सुमंड । एहवो वैक्रिय रूप बणाय, मुनि गगनमंडल चल्यो जाय ।। ६६. पुष्करणी चउखुणी सम तीर, मधुर पंख्यां ना शब्द गंभीर । एहवी पुष्करणी वैक्रिय वणाय, मुनि गगनमंडल माहै जाय ।। १. कौआ ६०. Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. माई प्रमादी विकर्वे रूप, आलोयां आराधक है तद्रप। भगवती तेरमा शतक मांडो, नवमै उदेशै कह्यो जिनरायो।। १८. ए छठे गुणठाणे वैक्रिय विशेष, प्रत्यक्ष भावे अशुभलेस। प्रायश्चित्त अशुभ रो आवै, शुभ लेस्या रो डंड न पावै ।। ६६. हय रूप मझै मुनिराय, पेस बहु जोजन चल्यो जाय ।। तिण नै निश्चै कह्यो अणगार, तीजा शतक : पंचमै सार। १००. ठाणांग सातमै ठाण, सात प्रकारे छद्मस्थ जाण । हिंसा झूठ अनै बलि अदत्त, शब्द रूप फर्श रस रक्त ।। १०१. पूजा सतकार नी लैर बेवै, ए कार्य सावज्ज कही में सेवै। परूपै ज्यू पालणी नावे, ए भावे माठी लेस्या नै प्रभावे ।। १०२. माठी लेस्या आवै तेहनो दंड, दोष री नहि थाप सुमंड। फिरै दोष थाप्यां छठो गुणठाणो, तथा श्रद्धा भ्रष्ट थी पिछाणो।। १०३. तथा नवो साधुपणो आव, एहवी भारी दोष लगावै। तो छठो गुण ठाणो फिराय, छ मासी सू पिण छठो न जाय ।। १०४. छठे गुण ठाणे चवदै जोग, पट् समुदघात पिण योग। पांच शरीर पिण पावै, तिम भावे छ लेस्या थावै ।। १०५. रहनेम राजमती नै बोल्यो, विषय वस मोह कर्म झोल्यो। ए प्रत्यक्ष असुभ भाव लेश, तेहथी असुभ कर्म नों प्रवेश ।। १०६. सीहो मोटे मोटे शब्दे रोयो, भगवती पनर में शतक जोयो। एपिण असुभ लेश्या पहिछ।ण, बलि असुभ जोग पिण जाण ।। १०७. अइमुत्ता नै बाल-लीला आई, पाणी में तिण पानी तिराई। औ पिण असुभ लेश्या असुभजोग, छठे गुणठाण ए दुप्रयोग।। १०८. धर्मघोष रा साधु ताय, गुरु नै बिन पूछयां जाय । निंदी नागश्री नै दुप्रयोग, ऐ पिण असुभ लेश्या असुभ जोग ।। १०६. इत्यादि छठा गुणठाणां मांय, लब्धि फोड़े तथा जे खलाय । तिण नै कहीजै असुभ लेश्या भाव, बलि असुभ जोग नों प्रभाव ।। ११०. पुलाक वकुश पडिसेवं, विशुद्ध लेण्या कही जिनदेवं । दोष सेवी दंड सन्मुख थाय, ते वेला आश्री सुद्ध जणाय ।। १११. तीन नियंठ दोष लगावै, ते वेला तो माठी लेश्या था । तिण रो कथन कियो दीसै नाय, दंड सन्मुख रो कथन जणाय ।। ११२. कह्यो पुलाक काल कर ताय, उत्कृष्ट अष्टम कल्प जाय । ते पिण पुलाक मिट्यां थी तुरंत, पिण पुलाक माहै न मरंत ।। ११३. नियंठो स्नातक विचार, कह्यो साहरण पाठ मझार । ते साहरण हुवां पछै केवल पाय, तिण आश्री साहरण क ह्यो ताय ।। ११४. तिम पुलाक प्रमुख त्रिहुं माय, विसुद्ध लेश्या कही जिनराय। दंड नै सन्मुख तिणवार, ग्रह्यो अंत तणो अधिकार ।। ७४ भगवती-जोड़ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५. कषाय कुशील अपडिसेवी आख्यो, इहां आद्य कथन ए भाख्यो। कषायकुशीलपणो ग्रहै सार, तिण वेला अपडिसेवी उदार ।। ११६. दीक्षा लेतां कषायकुशील, ते बेला अपडिसेवी सुशील । तथा अपर नियंठा आवै, तिण वेला पिण अपडिसेवी भाव।। ११७. बीज कषायकुशील रै माय, षट् समूद्घात पिण पाय । पंच शरीर, छ लेश्यावंत, संजमासंजम में ते आवंत ।। ११८. पुलाक बकुश पडिसेवणा मांय, मनपर्यव ज्ञान न पाय । कषायकुशील माहै मनपर्याय, मनपर्यवज्ञानी गोयम खलाय ।। ११६. पुलाक बकुश पडिसेवण मांहि, चवदै पूर्व पावै नांहि। कषायकूशील पूर्व चवदै पाय, दशवकालिक का ते खलाय' ।। १२०. इम कषायकुशील खलाय, ग्रहण वेला अपडिसेवी थाय । तिम पुलाक प्रमुख त्रिहुं माय, सुद्ध लेश्या अंत अपेक्षाय ।। १२१. गति सूत्र नी विचित्र जाणो, तिण में भ्रम कोई मति आणो। पूर्वापर अविरुद्ध तत्त, सुद्ध न्याय मेले बहुश्रुत्त ।। १२२. शतक पणवीसमें पंचमंग, सातमै उद्देशै पाठ सूचंग। जघन अंतर छेदोपस्थापनीक, वेसठ सहस वर्ष नो तहतीक ।। १२३. छठा पहिला दूजा आरां रा, त्रेसठ सहस वरस तीनां रा। तीजे आरै जन्म जिन तास, तीन वरस साढा अठ मास ।। १२४. तीस वरस रहै ग्रहवास, पछै चारित्र लेवै हुलास । बारै वरस अनै पख तेर, छद्मस्थपणे मुनि मेर । १२५. पछै केवल तीर्थ थाप, छेदोपस्थापनीक आपै। इतला अधिक बरस नहिं गुणिया, रेसठ सहंस वरस इज थुणिया ।। १. निर्ग्रन्थ के छह प्रकार हैं-पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना-कुशील, कषाय-कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील, दृष्टिवाद (चौदह पूर्व) का ज्ञाता नहीं होता, किन्तु कषाय-कुशील मुनि को दृष्टिवाद का अधिकारी माना गया है। दशवकालिक में इस सन्दर्भ में एक पद्य आता है--- आयारपन्नत्तिधरं दिठिवायमहिज्जगं । वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी।।८।४६ यहां जयाचार्य ने टब्बे के आधार पर इस पद्य का अर्थ करते हुए भगवती की जोड़ तथा अन्यत्र भी लिखा है-- चौदह पूर्वधर कषाय कुशील स्खलित हो सकता है। यह अर्थ असम्मत नहीं है, किन्तु वाक्य-शुद्धि अध्ययन के सन्दर्भ को देखते हुए यहां यह अर्थ चिन्तनीय प्रतीत होता है। अगस्त्यसिह कृत दशवकालिक की चणि के आधार पर उक्त पद्य का अर्थ इस प्रकार है वाक्य-रचना के नियमों को तथा प्रज्ञापन की पद्धति को जानने वाला और नयवाद का अभिज्ञ मुनि बोलने में स्खलित हुआ है (उसने वचन, लिंग और वर्ण का विपर्यास किया है), यह जानकर भी मुनि उसका उपहास न करे। Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवी १२६. किहां किंचित् अधिक गिण लीधां, इहां इतरा अधिक तज दीधा। समचै पाठ देखी सूत्र मांय, बुद्धिवंत मिलावै न्याय ।। १२७. पहिली नरक जीव श्रेणक नों, आयु सहस चउरासी बरस नों। नवमै ठाणे ठाणांग रै मांहि, त्यां पिण अधिक बरस गिण्या नांहि ।। १२८. गामै एक रात्रि नगर पंच, सीयाला ऊन्हाला में सुसंच। उवाई सूत्र पाठ में वाय, ते पिण अभिग्रहधारी नी अपेक्षाय ।। १२६. सर्व उपधि ले गोचरी जाणो, आचारंग दूजै श्रुतखंध वाणो। प्रथम अध्येन रै तीजै उदेश, ए पिण अभिग्रहधारी सुविशेष ।। १३०. इत्यादिक बहु सूत्र मांय, समचै पाठ कह्या जिनराय । पिण बुद्धिवंत न्याय विचारै, पूर्वापर अविरुद्ध धारै।। १३१. तिम कषायकुशील अपडिसेवी, आदि कथन ग्रहण वेला लेवी। विशुद्ध लेस्या पुलाकादि मांय, कथन अंत्य आराधक न्याय ।। १३२. पुलाक नियंठा नी स्थित्त, जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहुत्त । बकूस पडिसेवणा नी पिछाण, जघन्य स्थिति समय इक जाण ।। १३३. उत्कृष्टी बिहुँ नों जोड, देश ऊणी पूरव कोड। अशुभ भाव लेस्या अध्यवसाय, किम नाव ते स्थिति माय ।। १३४. कदे अशुभ भाव लेस्या आवै, शभ भाव लेस्या कदे पाये। ऐ तो पडिसेवी पहिछाण, वले स्थिति पिण अधिकी जाण ।। १३५. अपडिसेवी रा असुध अध्यवसाय, नावै तिण रो तो आश्चर्य नाय । पिण ए तोपडिसेवी सदोषी विशेष,तिण रै किम नावै अशभ भाव लेश ।। १३६. बकुस पडिसेवणा दोषसेवी, दंड नहि लेवै ज्यां लग बेवी। तिण नै पडिसेवी कहिवाय, त्यां लग तेहिज नियंठो जणाय ।। १३७. पडिसेवणाद्वार रै मांय, पडिसेवी कह्यो जिनराय । अपडिसेवी कहिजै नांहि, ए तो प्रत्यक्ष पाठ रै मांहि ।। १३८. दंड लेवा रै सन्मुख होय, सुध भाव लेस्या जद जोय । तिण वेला मरै तो आराधक, आलोयां विनां मूंआ विराधक।। १३६. सुभ भाव लेस्या इम थायो, म्हैं तो उन्मान सं मेल्यो न्यायो। वले अपर न्याय कोइ होय, केवलो वदै ते सत्य जोय ।। १४०. दोष सेवै अशुभ लेस्या भाव, छठे गुण ठाणे प्रमत्त प्रभाव। अशुभ योग वसे लब्धि फोडे, अशुभ भाव लेस्या नै जोडे ।। १४१. ठाम-ठाम सूत्रां में जाण, षट् लेस्या छठे गुणठाण। अशुभ जोग वर्ते तिणवार, अशुभ भाव लेस्या अवधार ।। १४२. प्रथम गुण ठाण असोच्चाधिकार, शुभ अध्यवसाय कह्या सार । शुभ परिणाम नैं विशुद्ध लेस, नवमै शतक इकतीसमुदेश ।। १४३. ईहा पोह विचारणा करतां, विभंग अनाण ऊपजतां । कियो अपोह नों अर्थ जान, बीजा पक्ष रहित धर्मध्यान ।। ७६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४. तिम छठे गुण ठाणे विचार, अशुभ जोग आवै किणवार । अशुभ अध्यवसाय पिण तिवार, अशुभ भाव लेस्या पिण धार ।। १४५. तिण सं कृष्णादिक संयति में कहीजै, ए धर पाठ तो नांहि तजीज। तसुं भेद दोय नहिं थुणवा, प्रमत्त-अप्रमत्त भेद न भणवा।। १४६. प्रमादी में तो कृष्णादि पावै, अप्रमादी मांही नहि थावै। तिण सं करणा वरज्या भेद दोय, ए न्याय प्रमत्त-अप्रमत्त जोय ।। १४७. ए आखी पंचमी ढाल, वारू न्याय अनेक विशाल । भिवख भारीमाल ऋपराय, सुख संपत्ति 'जय-जश' पाय ।।' (ज० स०) ढाल : ६ ए आरंभ भव-हेतु कह्य, हिव भव-हेतु-अभाव । ज्ञानादिक है तेहनों, वर्णन इह प्रस्ताव।। इह-भव में प्रभु ! ज्ञान है के परभव में ज्ञान ? तथा ज्ञान तदुभयभविक? गोयम प्रश्न प्रधान ।। २. वीर कहै सुण गोयमा! इह वर्तमान भव मांय। भण्यो ज्ञान इह - भव हुवै, जो परभव नहि जाय।। परभव में पिण ज्ञान है, तदुभय-भव' पिण ज्ञान । इह - भव भण्योज परभवे, संग ले जावै जान ।। दर्शण समक्त्व पिण इमज, हिव चारित्र पूछित्त। इह-भव कै परभव चरित्त, के तदुभय-भव चरित्त?।। जिन कहै इह-भव में चरित्त, जावजीव लग थाय । परभव में चारित नहीं, तदुभय-भव पिण नांय ॥ १. भवहेतुभूतमारम्भं निरूप्य भवाभावहेतुभूतं ज्ञानादि धर्मकदम्बकं निरूपयन्नाह- (वृ०-५० ३३) २-४. इहभविए भंते ! नाणे? परभविए नाणे? तदुभयभविए नाणे? गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे। (श० ११३६) ३, ४. 'इहभविए' त्ति ऐहभविकं यदिहाधीतं नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्तत इति । (वृ०-प० ३३) ५, ६. दसणंपि एमेव। (श० ११४०) इहभविए भंते ! चरित्ते? परभविए चरित्ते? तदुभयभविए चरित्ते? गोयमा ! इहभविए चरित्ते, नो परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते। (श० ११४१) ७. एवं तवे संजमे। (श० ११४२, ४३) इमहिज तप इह - भव मझै, इमहिज संजम जोय। इहभव पिण नहिं परभवे, तदुभय-भवे न होय ।। १. वृत्तिकार ने तदुभयभविक ज्ञान में पर और परतर---इन दो भवों का ग्रहण किया है। वर्तमान भव और आगामी भव इन दो भवों में साथ रहने वाले ज्ञान को परभविक ज्ञान माना गया है। इसलिए तदुभयभविक ज्ञान को परभविक ज्ञान से भिन्न बताने के लिए पर और परतर भवा क ग्रहण आवश्यक हो जाता है। श० १, उ० १, ढा० ५, ६ ७७ Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ε. १२. १३. प्रश्न १०. धिन धिन गोयम गणहरू, ज्यां पूछया प्रश्न प्रधान । प्रभुजी । पिन प्रभु उत्तर आपिया, त्रिभुवन तारक मान प्रभुजी (ध्रुपदं । ११. हे प्रभु ! जे घर छोड़ने, नहि संध्या आश्रवद्वार, प्रभुजी | सीझे बूझे मुच्चै हुवे सीतली, सर्व दुख क्षयकार ? प्रभुजी || वीर कहे सुण गोवमा ! ए अर्थ गोयम कहै कि कारण, असंवुडो जिन कहै अणगार असंवुडो, आयु प्रकृति ढोली बंधी कर्म न करें नांय | जाय ? ।। समर्थ मोक्ष न वर्जी कर्म दृढ़ निकाच विख्यात ॥ सात । १४. १५. १६. १७. १८. १६. शिव हेतु चरित नो इम केइ गोयन २०. शानादि में दर्शन ईज प्रधान । कारण नहीं, दर्शन थीज निर्वान' ॥ मानें तेहनें, समझावण ने नं हेतु। इसो गुणज्यो सहू सचेत ॥ करे टीकाकार इहां इम को अशुभ प्रकृति प्रदेश बंध रो, हेतू स्थिति सातुं कर्म भी अस्प दीर्घ काल नी जे करै, जबर टीकाकार इहां इस को स्थिति अनुभाग रस विपाक नो, कहिये मंद अनुभाव वंध्या तिके, तीव्र अल्प प्रदेश कर्म तणां, बहू आउखो कर्म बंध तदा, कदाचित् असाता ते दुख वेदनी, वलिबल अंतर्वति सप्त कर्म में, असाता कहिया तो कारण किसो ? उत्तर ते जोग जोग जोग काल कषाय बंध सूं नी थी नों हेतु अनुभाव प्रदेश जाण । पिछाण ॥ होय । जोय ॥ न उपचित वेदनी इम ताय । कषाय ॥ करंत | धरत ॥ बंधाय । थाय ॥ फेर । हेर ॥ असंवृत अधिक दुखी हुवै, तसुं फल महादुख देख | श्रोता नं भय ऊपजै, तो तजै असंवृतपणुं अशेप || १. कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र में दर्शन ही प्रधान है । चारित्र हो या नहीं, दर्शन से अभिलषित अर्थ की सिद्धि हो सकती है। उनके अभिमत की अभिव्यक्ति इस श्लोक से होती है भटठेण चरिताओं सुट्ठयरं दंसणं गहेयध्वं । सिज्झति चरणरहिया दंसणरहिया न सिज्झति ॥ जयाचार्य ने अपनी जोड़ में इसी मान्यता को उद्धृत * लय- शिवपुर नगर सुहांमणो किया है। ७८ भगवती जोड़ ८. ननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शन एवं यतितव्यं, तस्यैव मया। ( वृ० प० ३४ ) ६. इति यो मन्यते तं शिक्षयितुं प्रश्नयन्नाह (१०-२०३४) ११. असं ते अगवारे सिदध मु परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? १२, १३. गोमा गो इटुडे सम (30 (106) से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चइ -- असंवुडे णं अणगारे नो सिज्झइ, नो बुझइ नो मुच्चइ, नो परिनिव्वाइ, नो सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? गोयमा ! असंबुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ १४. असंवृतत्वस्याशुभयोगरूपत्वेन गाढतरप्रकृतिबन्धहेतुत्वात् । (१०० ३४, ४५) १५. हस्तकला दीरकादियान करे (०१०४५) १६. असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात्, ( वृ० प० २५) १७. मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसम्गाओ प्पएसओ करे १८. आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्साया वेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो - भुज्जो उवचिणाइ १६. ननु कर्मसप्तकावं तत्तित्वादसातावेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव पचयप्रतिपत्तेः किमेतन ( वृ० प० ३५) २०. असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यदुष्टमिति । ( वृ०१० ३५) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. आदि अंत नहिं जेहनों, चिउं गति में दीर्घ काल । संसार-अटवी नै विष, भ्रमण करै ते बाल । २२. तिण अथें करि गोयमा ! असंवडो अणगार। सीझै नहीं, बूझे नहीं, जाव नहि सर्व दुख अंतकार ।। २३. असंवत ना एह फल, हिव संवत फल हीर। प्रमत्त - अप्रमत्त भेद करि, चरम - अचरम शरीर ।। २४. चरमशरीरी तणो इहां, गौतम प्रश्न पूछंत। हे प्रभु ! संवुडो मुनिवरु, सीझै, बूझै करै दुख - अंत?।। जिन भाख संवुडो मुनि, सीझ, बूझ करै दुख - अंत । गोयम कहै किण कारण, दुख नो अंत करत?।। २६. जिन भाखै संवुडो मुनि, आयु वर्जी कर्म सात। प्रकृति गाढी बंधी तिके, ढीली करै विख्यात ।। २७. दीर्घ काल नी स्थिति ते, अल्प काल नी करत। तीव्र अनुभावे कर्म जे, मंद अनुभावे धरंत ।। कर्म दल बहु प्रदेश ते, अल्प प्रदेश करत। आउखो कर्म बंधै नहीं, असातावेदनी न चिणंत ।। २१. अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ २२. से तेणठेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे नो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो मुच्चइ, नो परिनिव्वाइ, नो सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ॥ (श०११४५) २३, २४. असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्य तु यत्स्यात्तदाह संवृतः-अनगारः प्रमत्ताप्रमत्तसंयतादिः, स च चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्चरमशरीरस्तदपेक्षयेदं सूत्रं । (वृ०-५०३५) २४, २५. संबुडे णं भंते ! अणगारे सिज्जइ, बुज्झाइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ? हंता ! सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सब्बदुक्खाणं अंतं करेइ। (श०११४६) २५-२८. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुडे णं अणगारे सिज्ज्ञइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करे? गोयमा ! संडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिडिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालद्विइयाओ हस्सकाल ट्ठिइयाओ पकरेइ, तिब्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ; आउयं च णं कम्मं न बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो-भुज्जो उव चिणाइ ३१. २६. आदि - अंत नहि जेहनो, चिउं गति ते दीर्घ काल। संसार रूप अटवी प्रते, अतिक्रमै गुणमाल ॥ तिण अर्थे कह्यो गोयमा ! संवुडो अणगार। सी., बूझ, कर्म मोचदै, सर्व दुख नो अंतकार ।। सोरठा अचरम तनु संवृत्त, कहिवो ए अपेक्षाय थी। तेह परंपर तत्त, अल्प भवे शिव पामिय।। जो ए इम शिव होय, तो शुक्लपक्षी पिण असंवत । अवस्य परंपर जोय, ते पिण शिव पामै अछै ।। तो संवुडो ताय, बलि असंवुडा तणां। फल में फेर स्यूं थाय? तसं उत्तर कहिये हिवै।। ३४. असंवुडो चरण - भ्रष्ट, सूत्रे फल विराधक तणां। रुलै काल उत्कृष्ट, देसूण अर्द्ध-पुद्गल कह्यो ।। ३५. संवत मुनि उत्कृष्ट, सप्त अष्ट भव सिध हुवै। वर्णन कितो विशिष्ट, आख्यो छै ए वृत्ति थी। २६. अणादीयं च णं अगवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयइ ३०. से तेण→णं गोयमा! एवं वुच्चइ-संवुड़े अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ। (श० ११४७) ३१-३५. यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्षया परम्परया सूत्रार्थोऽ बसेयः, ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्यावश्यम्भावो, यतः शुक्लपाक्षिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंभावी, तदेवं संवृतासंवृतयोः फलतो भेदाभाव एवेति, अत्रोच्यते, सत्यं, किन्तु यत्संवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतः सप्ताष्टभवप्रमाणं, यच्चासंवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तमानमपि स्याद्, विराधनाफलत्वात्तस्येति। (वृ०-प० ३५) श०१, उ०१, ढा०६ ७६ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. *कह्यो संवुडो मुनि सी. इहां, तेह थी अन्य विशिष्ट गुण-रहीत। ते देव हुवै के हुवै नहीं? एहवा प्रश्न करै धर प्रीत ।। ३७. हे प्रभु ! जीव असंजती, अव्रती व्रत-रहीत । पचखाण करी पाप कर्म नै रुंध्या नहिं सुध रीत।। ३८. ते तिर्यंच मनुष्य मरी, परभव गति पहिछाण । देव हुवै के हुवै नहीं ? ए समक्त्व चरण रहित जाण ।। ३६. जिन कहै केइ ह देवता, केइक देव न थाय । गोयम कहै किण कारण? जिन कहै सांभल न्याय ।। ३६. अनगारः संवृतत्वात्सिध्यतीत्युक्तं, यस्तु तदन्यः स विशिष्टगुणविकलः सन् कि देवः स्याल वा ? इति प्रश्न (वृ०-प० ३५) ३७,३८, जीवे णं भंते ! अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्च क्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया? यन्नाह ४०. ए जीव पंचेंद्री तिर्यंच ते, अथवा मनुष्य पहिछाण। ग्राम आगर नगरै रहै, निगम वणिक ज्यां प्रधान ।। राजधानी तिहां नृप वसै, धूलकोट ते खेड प्रत्यख । करवट कह्यो कुनगर नै, जल स्थल पथ द्रोणमुख ।। मडंब वसती थी दूर सराय छै, विविध देश थी आयो क्रियाण । ते स्थान भणी पट्टण कह्यो, केइ रत्नभूमि कहै जाण ।। आश्रम स्थान तापस तणां, गोकुलादिक ते सन्निवेस । मनुष्य तथा तिर्यंच त्यां, सहै मन विन तृपा विशेष ।। ३६. गोयमा ! अत्थेगइए देवे सिया, अत्यगइए णो देवे सिया। से केपट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इओ चुए पेच्चा अत्थे गइए देवे सिया, अत्यंगइए नो देवे सिया ? (श० १२४८) ४०-४३. गोयमा ! जे इमे जीवा गामागर-नगर-निगम रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए निगमो-वणिगजनप्रधानं स्थानं, राजधानी--यत्र राजा स्वयं वसति, खेट-धूलिप्राकार, कर्बट-कुनगरं, मडम्ब-सर्वतो दूरवत्ति सन्निवेशान्तरं, द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतं, पत्तनं-विविधदेशागतपण्यस्थानं, रत्नभूमिरित्यन्ये, आथमं-तापसादिस्थानं, सन्निवेशोघोषादि: 'अकामतण्हाए' त्ति अकामानां—निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णा----तृड् अकामतृष्णा तया। (वृ०-प० ३६) ४४-४७. अकामछुहाए, अकामवंभचेरवासेणं, अकामसीतातव दंस-मसग अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल-पंक-परिदाहेणं अप्पतरं वा भुज्जतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति। ४४. निर्जरा नो अभिलापा विना, क्षुधा सहै तन त्रास। वलि निर्जरा नी इच्छा विना, अकाम बंभचेरवास ।। निर्जरा ना भाव बिना वलि, सहै सीत आतप दंस मंस । इमहिज स्नान करै नहीं, परसेवै करी तन ध्वंस ।। रज तनु वलग ते जल्ल कह्यो, कठिनभूत मल जाण । पंक ते मल परसेवै करी, आलो मैल पिछाण ।। ४७. ए पूर्वे कह्या छै ते थकी, ऊपनो परिदाह कलेस । बहुत काल अल्प काल ही, भोगवी कष्ट असेस ।। एवमकामक्षुधा, 'अकामवंभचेरवासेणं' ति अकामाना--निर्जराद्यनभिलाषिणां सताम् अकामो वानिरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण स्त्र्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो-रात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासोऽतस्तेन, 'अकामअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं' ति अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः स तथा तेन, तत्र स्वेदः-प्रस्वेदः याति च लगति चेति, जल्लोरजोमात्र, मल:---कठिनीभूतं रज एव पको—मल एव स्वेदेनार्दीभूत इति। (वृ०-प० ३६, ३७) ४८. कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलो गेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । (श० ११४६) ४६. केरिसा णं भते ! तेसि वाणमंत राणं देवाणं देवलोगा पण्णता? गोयमा ! से जहानामए इहं ४८. अनैरा वाणब्यंतर तणा, देवलोक रै माय। काल करीने ऊपजै, देवपणे कहिवाय॥ ४६. हे भगवंत ! ते व्यंतर तणां, देवलोक किसायक होय? वीर कहै सुण गोयमा ! दृष्टांत दे कहं तोय ।। *लय-शिवपुर नगर सुहांमणो ८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. ५१. ५.२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५६. 3 ए मनुष्यलोके रमणीक हूं वन अशोक वृक्ष ना सार प्रथमा इक वचन एकार छै, इकार वाक्यालंकार || ६०. अंब वन्न । सप्तपर्ण-वन सप्तछद तणो, चंपक वन तिलक लाउ वड-वन बलि, छत्रोह सण ने असन्न || अलसी कुसूंबा नों बन वलि, धवला सरसव नों वन्न । बंधुजीव फूल दोपहरिया बसि लंगून' सोभन्न ॥ फूल्या थका ते रहै अंकुरवत् पल्लव भले लंबी प्रकारै नीपजवै करी, अवतंस शिखर मुगट तणा, धरणहार गुल्म लता समूह वृक्षां नी सम श्रेणि सदा, मयुरचा ते ऊपना, थवई पुष्प विशेष फल फूल करी नम्या, आरंभ्या भारे करी गाढ़ा नम्या, सोभायमान ऊपनो, गुच्छ ते पत्र - समूह | तिहां, बे वे तरु एकठा रूह | वन लक्ष्मी करी, घणुंपणुं रूप सोभायमान थको एहवा सुंदर रमणीक छै, व्यंतर धुर स्थिति दश सहंस वर्ष नीं, उत्कृष्ट पुष्प डोडा नमवा उपन्न । जन्न || तेह | है जेह ॥ मंजरई वन रहे, अति रमणीक नां पल्य जेण । तेण ॥ अवलोय । सुजोय ॥ देवलोग | प्रयोग || व्यंतर बहु देवता, देव्यां रा बंद करि प्राप्त । आप आप तणी मर्याद नं अणउलंघ करि व्याप्त ॥ केइ आप आपणी मर्याद नैं, लांघी घणी भूमि लग व्याप्त । देव-देवी श्रीडासक्ता ते ऊपर-ऊपर आच्छादित आप्त ॥ १. 'लंगुवण' यह पाठ न तो प्रतियों में मिलता है और न वृत्ति में व्याख्यात है। संभव है जयाचार्य को प्राप्त प्रति में यह पाठ हो और उसी के आधार पर जोड़ में लंगुवन का उल्लेख हो । ५०. असोगवणे इ वा । ५०. 'असोगवणे' इत्यत्र प्रथमैकवचनकृत एकार:, इवशब्दस्तु वाक्यालङ्कारे । ( वृ० प० ३७ ) ५१. सत्तवण्णव इवा, चंपयवणे इ वा, चूयवणे इ वा, तिलगवणे इवा, लउयवणे इवा, नग्गोहवणे इ वा, छत्तोहवणे इवा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा । ५२, ५३. अयसिवणे इ वा कुसुंभवणे इवा, सिद्धत्थवणे इ वा बंधुजीवगवणे वा पिवंकुमिय-माय-ल थवइय ५३. 'लवइय' त्ति लवकितं संजातपल्लवलवमकु रवदित्यर्थः, 'थवइय' त्ति स्तबकितं संजातपुष्पस्तबकमित्यर्थः । (२०-१०२७) ५४. गुच्छमलिय जुलिय ५४. सिंजातगुल्म, गुल्मं च लतासमूह, 'गुच्छय' ति संजातगुच्छ, गुच्छश्च पत्रसमूह, 'जम लिय' त्ति यमलतया— समश्रेणितया तत्तरूणां व्यवस्थितत्वात् संजातयमलत्वेन यमलितं, 'जुवलिय' त्ति युगलतया तत्तरूणां संजातत्वेन युगलितं । (१०-१० ३७) ५५. विणमिय-पणमिय 'विणमिय' त्ति विशेषेण पुष्पफलभरेण नमितमितिकृत्वा विनमितं 'पगमिपत्ति तेनैय नमयितुमारब्धत्वात् प्रणमितं । ( १०-२० ३७) ५६. विभत्तपिडिविडेंसगधरे ४६. सुनिता पोम्प्रतीतास्ता एवावतंसकाः शेखरकास्तान् धारयति यत्तत्सूविभक्तपिण्डीमञ्जर्यवतंसकधरं । (२०-०१० ३०) ५७. सिरीए अतीव- अतीव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ ५८, ५६. एवामेव तेसि वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहणणं दसवाससहस्सट्ठितीएहि, उक्कोसेणं पलिओवमट्ठितीएहि, बहूहि वाणमंतरेहि देवेहि य देवीहि य आइण्णा ५६. देवानां देवीनां च कुन्दै रात्मीयात्मीयायासमर्यादानुच नेन व्याप्ताः । ( वृ० प० ३७ ) ६०. वितिकिरणा उवत्थडा ६०. विन्नति तैरेव वृनिवासीमोल्लंघन व्याप्ताः 'उवत्थड ' त्ति उपस्तीर्णाः अनवरत क्रीडासक्तरुपर्युपरिच्छादिताः । (बु०-१० ३०) श०१, उ० १, ढा० ६ ८१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ६९. १. ८२ ते कीड़ा कर अन्यो अन्य मिल्या साथरा ज्यू घणी दूर । आसन शयण रमण रसै भोगवता थका मुख नूर ॥ 3 प्रगट तथा प्रकाश त्यां, व्यंतर समूह तास किरण विस्तरवै करो, दूर गयो सकल क्रीडा नां स्थान ते, थाप्यो तिण करि अधोपण व्याप्त छै, प्रमोदवंत भोगवना एहवी सुर-लक्ष्मी सोभायमान थका 1 थाय ॥ भंत । तिण अ करि गोयमा, आखी इह विध विध वाय । असंजती के देव हूं, कोश्यक देव देव न गौतम सुपने बोलिया, सेवं भंते! सेवं आप कह्यो तिमहीज छै, द्विवच बहुमान हुंत ॥ बलि बिच भक्ति अधिक करी, जिन बंदी करी नमस्कार। संजम तप कर आत्मा भावित विपरे तिवार ।। करी, करी, प घणुं सुप्रयोग। रहै, एहवा व्यंतर नां देवलोग || संपति सार ॥ ए प्रथम शतक प्रथम उदेसा तणी, आखी जोड उदार । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' ढाल रसाल कही छठी, उगणीसे कृष्ण कालिक शनि चतुर्थी, सुजाणगढ़ मुख उगणीस वरस प्रथम शते प्रथमोद्देशार्थः ।। १०१ ।। भगवती जोड़ सोरठा आख्यो प्रथम उदेश हिव प्रथम उद्देश कथेस, कर्म धर्म , से कर्मनोज विचार अथवा दुख नो अधिकार दुर्ज ते ढाल : ७ उदार । अंधकार ॥ मन्न । प्रसन्न || बीजो दुखहेतु उद्देश ! सरस || प्रारंभिये । चलणादिके ॥ करम अछै ॥ ६१. संथडा फुडा ६१. 'संथड' त्ति संस्तीर्णाः, संशब्द: परस्परसंश्लेषार्थः, ततश्च क्वचित्तैरेव क्रीडमानैरन्योऽन्यस्पर्द्धया समन्ततश्चलद्भिराच्छादिता 'फुड' त्ति स्पृष्टाः आसनशयन रमणपरिभोगद्वारेण परिभुक्ताः । (१०-१० १०) ६२. स्फुटा वा- - प्रकाशा व्यन्तरसुरनिकरकिरणविसरनिरा ( वृ० प० ३७ ) कृतान्धकारतया । ६३. अवगाढगाढा ६३. 'अवगाढगाड' त्ति गाढं – वाढमवगाढास्तैरेव सकलकीडास्थानपरिभोगनिहितमनोभिरधोऽपि व्याप्ताः । ( वृ० प० ३७ ) ६४. सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिठ्ठति । एरिसगा गं गोयमा ! तेसि वाणमंत राणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ६५. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- जीवे णं अस्संजए जाव देवे सिया । (२० २०२०) ६६, ६७. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता संजमेण तवसा अप्पा भावेमाणे विहरति (श० ११५१ ) ६६, ६७. अनेन भगवद्वचने बहुमानं दर्शयति द्विर्वचनं चेह भक्तिसंभ्रमकृतमिति । (१०-१० २०) १,२. व्याख्यातः प्रथमोदेशकः, अथ द्वितीय आरभ्यते, अस्य संबंध-प्रमोदेशके चलनादिधर्म कम्मं कथितं तदेवेह निरूप्यते तथोद्देशकार्थसंग्रहिण्यां 'दुक्खे' ति यदुक्तं तदिहोच्यते । (२००० ३०) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहा नगर राजगृह नै विषै, समवसरण वर्द्धमान । परषद निर्गत जाव इम, गौतम बोल्या वान ।। इक वच 'जीवे' हे प्रभु, स्वयं कृत दुख वेदंत? दुखहेतुत्वात् कर्म दुख, प्रश्न तास पूछंत ।। सांसारिक सुख पिण अछ, तत्व थकी दुख-राश । वृत्तिकार कीधो इसो, दुख पद अर्थ विमास ।। परकृत दुख वेदै नहीं, ते प्रसिद्ध पहिछान । ते भणी स्वयंकृत दु:ख नों, पूछ गौतम जान ।। ३. रायगिहे नगरे समोसरणं। परिसा णिग्गया जाव एवं वयासी (श० ११५२) ४. जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेइ ? ४. दुःखहेतुत्वाद् 'दुःखं' कर्म। (व०प०३८) ५. सांसारिक सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति । (वृ०-५० ३८) ६. यत्परकृतं तन्न वेदयतीति स्वयंकृतमिति पृच्छतिस्म। (वृ०-५० ३८) ७. गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ । (श०११५३) *चित्त लगाय नै सांभलो। [ध्रुपदं] ७. जिन कहे स्वयंकृत कर्म ते, दुख नों हेतु कहत हो । गोयम। वेदै कोइ एक कर्म नै, कोइ कम न वेदंत हो। गोयम ।। हूं अरज करूं छू विनती। [ध्रुपदं ८. गोयम कहै किण कारण, आख्यो एह उदंत हो । स्वामी। वेदै कोइ एक कर्म नै, कोइ कम न वेदंत हो ?। स्वामी। जिन कहै-उदय आयो अछ, तेह कर्म नै वेदंत। जे कर्म उदय आव्यो नहीं, ते तो नहीं भोगवंत ।। १०. इहां वत्तिकार कह्यो इसो, अवश्य वेदवा योग्य । ते पिण एक वेदै अछ, एक न वेदै प्रयोग्य ।। ८. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइयं वेदेइ ? अत्थेगइयं नो वेदेइ? ६. गोयमा ! उदिण्णं वेदेइ नो अणुदिण्णं वेदेइ । (श० ११५४) १०. न च बन्धानन्तरमेवोदेति अतोऽवश्यं वेद्यमप्येक वेदयत्येकं न वेदयति इत्येवं व्यपदिश्यते। (वृ०-५० ३८) १२, १३. जं जं पएसकम्मं तं नियमा वेएइ जं पुण अणुभाग कम्मं तं अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं णो वेएइ अत: प्रदेशोदयापेक्षयैवावश्यं वेद्यता कर्मण इति । बंध अनंतर उदय नहि, इम कह्यो टीकाकार । बहुलपणे बच एह छ, इरियावहि मत धार ।। *प्रदेश बंध जे कर्म छ, ते नियमा वेदंत । अनुभाग कर्म कोइ भोगवै, कोइक नहिं भोगवंत ।। अवस्य वेदवा योग्य ते, प्रदेश उदय इज होय । अवस्य वेदवा योग्य नहि, अनुभावे रस जोय ।। अनुभाव रस विपाक ए, इहां नहिं तसुं प्रस्ताव । कोइ अनुभाव वेदै नहीं, कोइ वेदै अनुभाव ।। प्रदेश कर्म अछै तिको, अवस्य वेदवा योग्य । ते उदय न आयो वेदै नहीं, वेदै उदय प्रयोग्य ।। तिण अर्थे स्वकृत कर्म तै, कोइ वेदै कोइ न वेद। इमज चउवीस दंडकै, इक बच आख्यो अखेद ।। १६. से तेणट्टेणं गोयमा ! वुच्चइ-अत्येगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ। (श० ११५४) एवं चउब्बीसदंडएणं (श० ११५५) * लय हाथ जोड़ी विनती करूं श०१, उ०२, ढा०७ ८३ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. इमज बहु जीवा आसरी, वहु वच दंडक चउबीस । उदय न आयो वेद नहीं, उदय आयो वेद ईश || दूहा इहां वृशिकार को इसी इक बलि बहु वच पूछण तणों स्यूं उत्तर तेहनों इम इम कह्यो, किण बटु वचन सरीस प्रयोजन दीस ? ॥ इक वस्तू मांय । इक वच बहु वच फेर छँ, तिम इहां पिण स्यूं थाय ॥ सम्यक्त्व स्थिति इक जीव री, छासठ बहु वचने सदा काल छै, इम बहु हि आठूं कर्म में कह्यो, आयू ते आश्री जीव दंडके, इक वच बहु वच जान ।। * हे प्रभु ! इक जीव आसरी, स्वयं कृत आयु वेदंत ? कोइ वेद को वेदे नहीं, ए जिन उत्तर तत ।। जिम दुख दंडक बे कह्या, तिम आयु ना पिण दोय । एक वचन बहुवचन नां, जाव वैमानिक जोय ।। हे भदंत ! सर्व शरीर सर्व ना भावना नरक, आयू दल दूहा वृत्तिकार कह्यो वृद्ध नी, उक्त वासुदेव सप्तम थी, तीजी नरक प्रयोग्य । कालांतरे परिणाम थी, तीजी निपजावी तिहां अपना तेहनीं परि उपभोग्य | न आयो तेह | पूर्व बंध्यो वेदे नहीं, उदय उत्पन्न उदय वेदै सही, अनुभाव हिव चवीसे दंडक, प्रश्न पूछे गोयम गणहरू, वारू अपेक्षा एह ॥ । आहारादि पेख विनय विशेख || सागर अधिक । ठांम कथिक ।। प्रधान । *लय - हाथ जोड़ी विनती करूं कर्म ८४ भगवती जोड़ जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं, गोयम कहे कि आहार शरीर उस्सास ते, सरिखा वीर कहै गुण गोयमा ! नेरइया महा शरीर तणां धणी, अरूप शरीरी टीकाकार ओलखावियो, जघन्य थकी अस्पपर्ण आंगुल तणी, असंखेज्ज एह । ग्रहणेह ॥ रया सरीखो आहार से तास । सारिखा सम उसास निस्वास ? ॥ नहीं बे अर्थ ? तदर्थ ॥ प्रकार । विचार ॥ सुविचार | भाग धार ॥ १७. गोमा ! उदिष्णं वेदेति नो अणुदिण्णं वेदेति... एवं जाव वैमाणिया (श० १०५०) (श० ११५८ ) १८-२० 1 बस एवेति कि प्रश्नेन ? इति ते कचिएक रर्थविशेषो दृष्टो यथा सम्यक्त्वादे: एक जीवमाश्रित्य पट्पष्टसागरोपमाणि साधिकानि स्थितिकाल उक्त नानाजीवानाश्रित्य पुनः सर्वाद्धा इति एवमत्रापि संभवेदिति शङ्कायां बहुत्वप्रश्नो न दुष्टः । ( वृ० प० ३८ ) २१. अायुः प्रधानत्वान्नारकादिव्यपदेशस्यपुराविदगा कद्वयम् । ( वृ००१०३८) २२. जीवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेदेइ ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेइ, अत्येगइयं नो वेदेइ । २३. जहा दुक्खेणं दो दंडगा तहा आउएण वि दो दंडगा - एगत्तपोहत्तिया । (श० १०५९) २४-२६. एतस्य चेयं वृद्धोक्तभावना-यदा सप्तमक्षितावायुना कालान्तरे परिणामपितृतीयधरणीप्रायोग्यं निर्वत्तितं वासुदेवेनेव तत्तादृशमङ्गीकृत्योच्यते--- पूर्ववद्धं कश्चिन्न वेदयति, अनुदीर्णत्वात्तस्य यदा पुनर्यत्रैव बद्धं तत्रैवोत्पद्यते तथा वेदयतीत्युच्यते, तथैव तस्योदितत्वादिति । (बृ००१० २८, २९) २७. अथ चतुण्ड महारादिभिनिरूपयन्नाह ( वृ० प० ३१) २८-३०. नेरइया णं भंते! सव्वे समाहारा ? सव्वे समसरीरा ? सव्वे समुस्सासनीसासा ? गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । (४० १०६०) सेकेणट्ठेणं भंते! एवं बुच्चइ----नेरइया नो सव्वे समाहारा? नी सये समगरीश ? नो सच्चे समुरसासनीसासा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहामहासरीरा य, अप्पसरीराय । ३१. तत्र जघन्यम् - अस्यत्व गुमासंख्यामात्वम् । (१०-१० ४१) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. 1 उत्कृष्ट तनु मोटो को धनुष पंच सय मान । भवधारणी अपेक्षया तमतमा महातनु जान ॥ उत्तर - वेक्रिय जघन्य थी, आंगुल भाग संख्यात । उत्कृष्ट सहस्र धनुष नौ सम शरीर किम बात ? ॥ शरीर विषम कहिये करी, रामनहि आहार उस्सास आहार उस्सास न सारिखो, सर्व नारकी नों तास ॥ शरीर प्रश्न दूजो पूछियो, उत्तर प्रथम शरीर | तनु अनु आहार उस्सास है, सुख समझावण हीर ॥ महाशरीरी नेरइया महादुखी धका धार तीव्र आहार अभिलाप हूं, वह पुद्गल से आहार ।। वह दुगत परिणमं, उसासपणे हे धार निःश्वासपर्णे मूकै सही, बहु पुद्गल तिणवार ॥ महाशरीरी प्राये लोक में, बहलो करै आहार | अल्पशरीरी अल्प लै, हस्ति शशकवत् धार ॥ बार बार ते बार-बार अल्पशरीरी अल्प परणमै अल्प द्रव्य ही, उस्ससंत कदाचित् ते आहार ले कदाचित् कदाचित् उस्सास लै, कदाचित् - आहार ले, परिणाम बेस्वाद | उस्सास ले, दुख तै निश्वास बाध ।। या अपुद्गल आहारत निश्वसंत || परणमंत । विश्वसंत ॥ वहा अपलोय | , जोय ॥ आहार । सार ॥ अपर्याप्त अल्प तनु छतों, लोम आहार करें नांय । आहार कदा इण कारणं, ए टीका में वाय || 'केइ की उत्पत्ति समय जे आहार लिये शरीर पर्याय बांध्यां बिना, ओज आहार शरीर पर्याय बांध्यां पर्छ, लोम आहार तेहने कहे विग्रह गति अणाहारो तेहती अपेक्षाय । कदाचित् आहार से कसे जाणवली न्याय उसास पर्याय बांध्यां विना, नहि लेवै कदाचित् उस्सास ले, एहवू दी प्रथम उद्देगा में कह्यो उसासादिक लिये निरंतर नेरिया, महाशरीर J उस्सास | - अंगप्रत्यंग लै सर्वज्ञ जाण ते तास || ताय । अपेक्षाय' || ( ज० स० ) ३२. उत्कृष्टं तु महत्त्वं पञ्चधनुः शतमानत्वम्, एतच्च भवधारणीयशरीरापेक्षया । (१०४१) ३३-३४. उत्तरापेक्षा तु जन्यमनसंख्याभाग मात्रत्वम्, इतरत्तु धनुःसहस्रमानत्वमिति एतेन च किं समशरीरा इत्यत्र प्रश्ने उत्तरमुक्तम् । शरीरविषमताभिधाने सत्याहारोच्छ्वासयो प्रतिपाचं भवतीति शरीरप्रश्नस्य द्वितीयस्थानोक्तस्यापि प्रथमं निर्वचनमुक्तम्। ( वृ० प० ४१ ) ३६, ३७. तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोगले आहारेति पराए पो परिणामति, बहुतराए पोगले पोगले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति । ३८. ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलान् आहारपन्ति महाशरीरत्वादेव दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो वाशी स्वत्पशरीरश्वात्यभोजी हरितशशकवत् । (१०-१० ४१) २१-४१. अभिवणं आहारति अणि परिणामति, अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्खणं नीससंति । तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोगले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, अप्पतराए पोग्गले नीससंति; आहच्च आहारेति, आहच्च परिणामेति, आहच्च उस्ससंति, आहच्च नीससंति । ४२. अवाप्तकालेपशरीराः सन्तो गोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति । ( वृ० प० ४१ ) श० १, उ० २, हा० ७ ८५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. *तिण अर्थे करि गोयमा, आखी एहवी - भास। सम आहार नहि नेरिया, सम न उसास निसास ।। ४६. हे भदंत ! सह नेरइया, छ सरिखा कमवंत ?। जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूर्छत ।। ५०. जिन कहै-द्विविध ने रइया, पूर्व ऊपनां न्हाल । घणां काल नां ऊपनां, पछै उपन्न अल्पकाल ।। ५१. पूर्वोत्पन्न बहु काल नां, अल्पकर्मी कहिवाय । पछै ऊपनां नारकी, ते बहकर्मी थाय ।। ५२. घणां काल नां ऊपना, त्यां दुख बहु भुगत्यो विशेष । अल्पकर्मी इण कारण, अल्प कर्म रह्या शेष ।। ५३. थोड़ा काल नां ऊपनां, दुख बहु भुगत्यो नांहि । बहुकर्मी इण कारण, घणां कर्म रह्या ताहि ।। ५४. पूर्वोत्पन्न पछै ऊपना, सम स्थित नी अपेक्षाय । आयू नै अन्य कर्म नों, अल्प बहुतपणं थाय ।। ५५. हे भदंत ! सहु नेरिया, छै सरिखा वर्णवंत ? । जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूछत ।। ५६. जिन कहै द्विविध नेरइया, पूर्व ऊपनां न्हाल । घणां काल नां ऊपनां, पछै उपन्न अल्प काल ।। ५७. पूर्वोत्पन्न बहु काल नां, विशुद्ध वर्ण कहिवाय । पछ ऊपनां नारकी, अविशुद्ध वर्ण ताय ।। ४८. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–नेरइया नो सब्वे समाहारा, नो सब्वे समसरीरा, नो सब्वे समुस्सासनीसासा। (श० ११६१) ४६-५१. नेरइया णं भंते ! सब्बे समकम्मा? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० ११६२) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरझ्या नो सम्बे समकम्मा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहापुवोववन्नगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते पुब्बोववन्नगा ते णं अप्पकम्मत रागा। तत्थ " जे ते पच्छोव वन्नगा ते णं महाकम्मतरागा। (श० १।६३) ५२. पूर्वोत्पन्नानामायुषस्तदन्यकर्मणां च बहुत रवेदनादल्पकर्मत्वम् । (वृ०-५० ४२) ५३. पश्चादुत्पन्नानां च नारकाणामायुष्कादीनामल्पतराणां वेदितत्वात् महाकर्मत्वम् । (वृ०-५० ४२) ५४. एतच्च सूत्र समानस्थितिका ये नारकास्तानङ्गीकृत्य प्रणीतम्। (वृ०-५० ४२) ५५-५७. नेरइया णं भंते ! सव्वे समवण्णा? गोयमा ! नो इणठे समझे। (श०११६४) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइया नो सब्बे समवण्णा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा—पुब्बोवबन्नगा य, पच्छोववन्नगा य। तत्थ णं जे ते पुब्बोववन्नगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। (श० ११६५) ५८-६०. नेरइया णं भंते ! सब्बे समलेस्सा? गोयमा ! नो इणठे समझे। (श० श६६) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–नेरइया नो सव्वे समलेस्सा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पुब्बोबवन्नगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्थ णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धलेस्सतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा। (श० ११६७) ६१. इह च लेश्याशब्देन भावलेश्या ग्राह्याः, बाह्यद्रव्यलेश्या तु वर्णद्वारेणैवोक्तेति । (वृ०-५० ४२) ६२, ६३. नेरइया णं भंते ! सब्बे समवेयणा ? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० ११६८) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–नेरइया नो सब्बे समवेयणा? ५८. हे भदंत ! सहु नेरझ्या, छै सम लेस्यावंत ? जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूछत ।। ५६. जिन कहै द्विविध नेरइया, पूर्व ऊपनां न्हाल। घणां काल नां ऊपनां, पछै उपन्न अल्प काल । पूर्वोत्पन्न जे नेरझ्या, विशुद्ध लेस्यावंत । पछै ऊपनां नारकी, ते अविशुद्ध लेश कहत ।। ६१. वृत्ति मध्ये लेस्या शब्द करि, भाव लेस्या इहां ग्राह्य । पूर्वे वर्ण द्वारे करी, द्रव्य लेस्या कहि बाह्य ।। ६२. हे भदंत ! सर्व नेरइया, सरिखा वेदनवंत ? जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूर्छत ।। *लय-हाथ जोड़ी विनती करूं ८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. जिन कहै - द्विविध नेरइया, सन्नी असन्नीभूत । सन्नीभूत महावेदना, असन्नीभूत अल्प हूंत ।। ६४. वृत्तिकार इहां इम कह्यो, सम्यक् दर्शनवंत। सणिभूत कहिय तसु, महावेदन ते वेदंत । ६५. तेहने पूर्व भव तणों, स्व कृत कर्म विपाक । याद करी वेदै घणों, मानसीक दुख आक ।। ६६. सकल दुःख नै क्षय करै, अर्हत् भाख्यो धर्म। विषम विषय विष लोभिय, नवि कीधो तज भर्म ।। ६७. इम चितव दुख वेदै घणों, सणि-समदृष्टी पिछाण । मिथ्याती असण्णिभूत ते, स्वकृत कर्म फल अजाण ॥ ६८. अन्य आचार्य इम कहै, सण्णिभूत सणिजाय। तीव्र असुभ अध्यवसाय थी, महानरके दुख पाय ।। ६६. असपिणभूत असण्णि भवे, नहि तीव्र असुभ अध्यवसाय । रत्नप्रभा में ऊपज, अल्प वेदना पाय ।। गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासण्णिभूया य, असण्णिभूया य । तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेयणा। तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अपवेयणतरागा। (श०११६६) ६४-६७. 'सन्निभूय' त्ति संज्ञा–सम्यग्दर्शनं तद्वन्तः सञ्जिनः सज्ञिनो भूताः-सज्ञित्वं गताः सज्ञिभूताः । तेषां च पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महदुःखसङ्कटमिदमकस्मादस्माकमापतितं न कृतो भगवदर्हत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयकरो विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिर्द्धर्म इत्यतो महदुःखं मानसमुपजायतेऽतो महावेदनास्ते, असञ्शिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः, ये तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्तमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्येके। (वृ०-प०४२) ६८, ६६. अन्ये त्वाहुः-सचिनः-सज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वं गताः संज्ञिभूताः, ते महाबेदनाः, तीव्राणुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात्, असंज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वासंज्ञिभवाः ते चासंशित्वादेवात्यन्ताशुभाध्यवसायाभावाद्रत्नप्रभायामनतितीव्रवेदननरकेषुत्पादादल्पवेदनाः । (वृ०-प० ४२) ७०. अथवा 'सज्ञिभूताः' पर्याप्तकीभूताः, असंज्ञिनस्तु अपर्याप्तकाः, ते च क्रमेण महावेदना इतरे च भवन्तीति प्रतीयत एवेति। (वृ०-५० ४२) ७१. नेरझ्या णं भंते ! सब्ने समकिरिया ? गोयमा ! नो इणठे समठे। (श० ११७०) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ--नेरइया नो सब्ये सम किरिया? ७२. गोयमा ! नेरइया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–सम्म दिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी। ७३. तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी तेसि णं चत्तारि किरियाओ पण्णताओ, तं जहा—आरंभिया, पारिग्गहिया, माया वत्तिया, अप्पच्चक्खाणकिरिया। ७४, ७५. तत्थ णं जे ते मिच्छदिट्ठी तेसि णं पंच किरियाओ कज्जति, तं जहा--आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया। एवं सम्मामिच्छदिट्ठीणं पि। से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्च-नेरइया नो सब्वे समकिरिया। (श० ११७१) ७०. तथा सणिभूत पर्याप्ता, महावेदना तास। असण्णिभूत अपर्याप्ता, वेदन अल्प विमास ।। ७१. हे भदंत! सर्व नेरइया, सम तुल्य क्रियावंत ? । जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पृछंत ।। ७२. जिन कहै-गौतम ! सांभलै, नेरइया वि प्रकार। समदृष्टी नै मिच्छादिट्रो, समामिच्छदिट्टी धार ।। ७३. क्रिय चउ समदृष्टी तणे, आरंभिया पहिछाण। परिग्रहिया मायावत्तिया, अपचक्खाण नी जाण ।। ७४. पंच क्रिया मिथ्याती तण, सममिच्छदिट्री रै पंच। मिथ्यादर्शन री बढ़ी, श्रद्धा ऊंधी विरंच ।। ७५. तिण अर्थे करि गोयमा ! आखी एहवी वाय। सगलाइ जे नेरइया, सम तुल्य क्रिया न थाय ।। श०१, उ०२, ढा०७८७ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. हे भदंत ! सर्व नेरझ्या, सम तुल्य आयुवंत ? । एक समय साथै ऊपना, ते समोबवण्णगा कहत?।। ७७. जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, गोयम कहै किण न्याय ? जिन कहै-चउविध नेरइया, सुण तू चित्त लगाय ।। ७८. केइ सम आयु साथै ऊपनां, के समायु विषम उप्पन्न । केइ विषम आयु सम ऊपनां, के विषमायु विषमोत्पन्न ।। ७६-७८, नेरइया णं भंते ! सव्ये समाउया? सव्वे समोव वन्नगा? गोयमा ! णो इणठे समठे। (श० ११७२) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सव्वे समाउया? नो सब्वे समोववन्नगा? गोयमा !नेरइया चउब्विहा पण्णत्ता तं जहा–१. अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, २. अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा, ३. अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा,४. अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा। (श०११७३) ७६. आहाराईसु समा कम्मे बन्ने तहेव लेसाए। वियणाए किरियाए आउय उववत्ति चउभंगी। (वृ०-५० ४३) ८०. असुरकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा? सब्बे सम सरीरा? जहा नेर इया तहा भाणियब्वा, नवरं-कम्म-वण्ण लेस्साओ परिवत्तेयवाओ। (श० ११७४) ८१. तत्राहारकसूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिख्यते (वृ०-५० ४३) ७६. आहार शरीर उस्सास त्रि, कर्म, वर्ण, लेश अंग। वेदन, क्रिया, समायुष, सम उपपन्न चउभंग ।। ८०. हे प्रभु ! असुरकुमार सहु, समाहार संगीत ? । जेम नारकी तिम भणो, णवरं कर्म, वर्ण, लेश विपरीत ।। ८२-८४. असुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरा पेक्षया जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागमानत्वं, महाशरीरत्वं तूत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वम्, उत्तरवैक्रियापेक्षया त्वल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽगुलसंख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतो योजनलक्षमानमिति (वृ०-१०४३) ८१. वृत्तिकार इहां इम कह्य, आहारक सूत्र जोय। नेरिया ज्यूं भणवो कह्यो, पिण ए विशेष अवलोय ।। जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र नों। (ध्रुपदं) ८२. असुर कुमार ने अल्प - तनु, भवधारिणी अपेक्षाय । जघन्य थकी आंगुल तणों, असंखेज भाग थाय ।। ८३. महाशरीर उत्कृष्ट थी, सप्त हस्त प्रमाण । ए पिण भवधारिणी तणों, हिव उत्तर-वैक्रिय जाण ।। अल्पशरीर जघन्य थकी, आंगुल भाग संख्यात । महाशरीर उत्कृष्ट थी, जोजन लक्ष विख्यात ।। महाशरीरी असुर ते, बहु पुद्गल आहारंत । मनोभक्षण आहारपेक्षया, सुर मनभक्षी कहत ।। बलि प्रधान अपेक्षया, सूत्र विषै अवलोय । वस्तु नो निर्देश छै, अति सुभ पुद्गल जोय ॥ असुर अल्प-तनु आहार ल, ते आहार तणी अपेक्षाय । महा-तनु बहु पुद्गल तणां, आहार लिये वर न्याय।। महाशरीरी असुर ते, वार - बार लै आहार । बार - बार उस्सास ले, तसु इम न्याय विचार । जघन्य आहार चोथ भक्त थी, सात थोब थी उस्सास । ते आश्री बार-बार लै, आहार उस्सास विमास ॥ उत्कृष्ट वर्ष सहस अधिक थी, असुर आहार सुविचार । पक्ष जाझेरे उस्सास ले, ते आथी का बार-बार ।। ८५-८७. तत्रैते महाशरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षया, देवानां ह्यसौ स्यात् प्रधानश्च, प्रधानापेक्षया च शास्त्र निर्देशो वस्तूनां विधीयते, ततोऽल्पशरीरमा ह्याहारपुद्गलापेक्षया बहुतरांस्ते तानाहारयन्तीत्यादि प्राग्वत् । (वृ०प०४३) ८८-६०. अभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छ्वसन्ति च इत्यत्र ये चतुर्थादेरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेशचोपर्युच्छ्वसन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमित्युच्यते, उत्कर्षतो ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपरि आहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युच्छ्वसन्ति तानंगीकृत्य एतेषामल्पकालीनाहारोच्छ्वासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वादिति। (वृ०-प० ४३) ८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१. अल्पशरीरी पुद्गल अस्प असुर उस्सास ९२. पूर्व उपना अविशुद्ध लेस्या ६३. घणां काल ना तन वर्ण शुभ ऊपनां ६४. पर्छ बहुल कर्म १०६. हे भदंत हंता सम अशुद्ध वरण करण || क्षीण । ने, महाकर्म तेहनी, बहु कर्म कंदर्प ऊपनां, पुन्य कर्म बहु होणो हुवै, भाव लेस्या पिण हीण ॥ असुर नै. अल्पकर्म कहिदाय अणवांधर्व, शुभ वर्ग लेखा थाय ॥ ते, अल्प द्रव्य आहारै तेम । लै, नरक अल्प- तनु जेम || असुर ६५. सणिभूत ने संजूत | महावेदना, चरण विराधना पाप । तेही अति ऊपनो, चित्त मांटे संताप || ६६. तथा सणिभूत सणि मर थया, तथा पर्याप्त महावेदन शुभ वेदना, अल्प वेदन असणिभूत ।। ६७. असुरकुमार तणी परं जावत् थणियकुमार । आहार अने अनैं उस्सास उस्सास ते कहिये स्थिति अनुसार ॥ १८. पुढवीसइया जीव नै, आहार कर्म वर्ण लेश । नरक तणी पर जाणज्यो एचड सूत्र असेष ।। ६६. वृत्तिकार इहां इम का, पृथ्वीकाय नी असंव भाग अंगुल तणो, तनु अवगाहन १००. पन्नवण पंचम पद मर्श, पृथ्वीकाय होम | अवगाहणा आश्री कह्या, चउट्ठाणवडिया ताहि । १०१ महाशरीर लोम आहार थी, बहु पुद्गल लै आहार । बहु पुद्गल उस्सास लै, निरंतर ते बार-बार । १०२. अल्प-तनु अपर्याप्तपर्णे, अल्प द्रव्य आहार उस्सात । कदाचित् आहार उस्सास ते न्याय नरक जिम तास || १०३. हे भदंत ! जान । मान ॥ हंता छै १०४. जिन कहै - सह संचित कर्म १०५. विण अर्थ करि सगला पृथ्वीकाइया सह सम वेदनवंत ? समवेदना, कि अर्थ ? गोयम पूछत ॥ पृथ्वीकाइया, असण्णिभूत मन रहीत। अजाणता, वेदै सम इण रीत || गोपमा ! अजाणपणा मी पेक्षाय । पृथ्वीका या सम वेदं इण न्याय || 3 ! पृथ्वीकाइया चटु सम किरियात क्रियावंत छे, किण अर्थ ? गोतम पूछंत ॥ ६१. तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति उच्छ्वसन्ति च अल्पशरीरत्वादेव । ( वृ० प० ४३ ) २-१४. अस्तु पूर्वोत् महाकर्माणोऽशुद्धवर्षा अशुभतरलेश्याश्वेति कथम् ? ये हि पूर्वोत्पन्ना अमु रास्तेऽतिकन्दर्पाप्मादचित्तत्वान्दारकानेक काया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः पूर्वोन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्मण: शुभवर्णादयः - शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति, पश्चादुत्पन्नास्त्वबद्धायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबन्धनादशुभकर्म्मणामक्षीणत्वाच्च शुभवर्णादयः स्युरिति । (१०० ४३) ९५, ६६. ये सञ्ज्ञिभूतास्ते महावेदनाः, चारित्रविराधनाचित्तसन्तापात् अथवा सासपूर्वभवा: पर्याप्ता वा ते शुभवेदनामाश्रित्य महावेदना इतरे त्वल्पवेदना इति । (१०१०४३,४४) (श० १४७५) ६७. एवं जाव थणियकुमारा । ८. पुढविकाइयाणं आहार कम्म वण्ण-लेस्सा जहा णेरइयाणं । ( श० १४७६ ) २९-१०१. पृथिवीकाविकानामंगुल संख्यामा र स्वेययशरीरत्वम् इतरज्येत आगमवचनावसेय 'पुचिकाइयस्स ओगाहणउपाए उद्याणडिए त्ति महाशरीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्तीति उच्छ्वसन्ति च अभीक्ष्णं महाशरीरत्वादेव । ( वृ० प० ४४ ) १०२. अल्पशरीराणामत्याहारोच्छ्वासत्वमल्यारी रत्वा देय कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्ततरावस्थापेक्षमवसेयम्। ( वृ००० ४४) १०३-१०५. पुढविकाइया णं भंते ! सब्वे समवेदणा ? गोमा विकास समवेदना। सेकेण भते एवं बइठविकाइया स समवेदना ? गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असण्णी असणिभूतं अणिदाए वेदणं वेदेति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वच्चइ पुढविकाइया सव्वे समवेदना | (०२१७७, ७८) १०६ १०७ या व भते सच्चे समकिरिया हंता गोयमा ! पुढविकाइया सच्चे समकिरिया । श० १, उ० २, ढा० ७ दह Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. जिन कहै---सह पृथ्वीकाइया, मायी मिथ्यादृष्ट । निश्चै पंच क्रिया तसु, आरंभियादि अनिष्ट ।। १०८. निश्च पंच कहिवै करी, तीन तथा हुवै च्यार । इम ओछी कहिवी नहीं, लीजै न्याय विचार ।। १०६. तिण अर्थे करि गोयमा ! आखी एहवी वाय । सगला पृथ्वीकाइया, सम क्रियावंत थाय ।। ११०. सम आयु सम ऊपना, नरक तणीं पर न्हाल । जिम कह्या पृथ्वीकाइया, तिम जाव चरिद्री संभाल ।। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ----पुढविकाइया सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे मायीमिच्छदिट्ठी। ताणं यतियाओ पंच किरियाओ कज्जंति, तं जहा--- आरंभिया जाव मिच्छादंसण वत्तिया। (श० ११७६, ८०) १०८. पृथ्वीकायिकानां नैयतिक्यो-नियताः न तु त्रिप्रभतय इति, पंचवेत्यर्थः । (वृ०-प०४४) १०६. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ—पुढविकाइया सब्वे समकिरिया। (श० १८०) ११०. समाउया, समोववन्नगा जहा नेरइया तहा भाणियब्वा। जहा पुढविकाइया तहा जाव चरिदिया। (श० ११८१, ८२) १११. 'बेइंद्री तेइंद्री चोरिद्री, क्रिया नै अधिकार । भलावण पृथ्वीकाय नी, बुद्धिवंत न्याय विचार ।। ११२. पृथ्वीकाय में पाठ ए, सर्व माया मिथ्यादृष्ट । पंच क्रिया तेहन अछ, इहां पिण तेम सुदृष्ट ।। ११३. बेइंद्री तेइंद्री चोरिद्री, जे सर्व मिथ्याती में पच । कथन नहीं सास्वादन तणो, इक ए न्याय सुसंच ।। ११४. अथवा वमती सम्यक्त ए, कडेमाणे कडे न्याय । कदा लागे क्रिया मिथ्यात नी, सर्वज्ञ वदे ते सत्य वाय' ।। (ज० स०) ११५. वृत्तिकार इहां इम का, महा अल्प तनु जाण । निज-निज जे अवगाहना, तिण अनुसार पिछाण ।। ११६. बलि बेइंद्रियादिक तणा, प्रक्षेप आहार पिण होय । ते आश्री बहु द्रव्य ग्रहै, महाशरीरी जोय।। ११७. तिर्यंच पचद्री तणे, नरक जेम कहिवाय । पिण क्रिया में फेर छ, आगल कहिस्य ताय ।। ११८. वृत्तिकार का महा-तनु, वार-बार लै आहार। संखेज्ज वर्षायु पेक्षया, असंख वर्षायु म धार ।। ११६. असंख वर्ष आयु नां धणी, पंचेंद्री तिर्यंच । छठ भक्त सं आहार लै, ते इहां न गिण्या संच ।। १२०. अल्प-तनु आहार उस्सास ते, कदाचित् कहिवाय । श्री जिन-वचन प्रमाण थी, सद्दहिबू मन माय ।। १२१. लोम-आहार नी अपेक्षया, सर्व तण इम वाय । अभिक्खणं बार - बार ते, अंतर रहित ए न्याय ।। १२२. अल्प-तनु नै कदाचित् कह्य, अपर्याप्तपणे जोय । आहार-पर्या बांध्या बिना, लोम उस्सास न होय ।। ११५. इह महाशरीरत्वमितरच्च स्वस्वावगाहनाऽनुसारेणावसेयम् । (वृ०-प०४४) ११६. आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति । (वृ०-प० ४४) ११७. पंचिदियतिरिक्ख जोणिया जहा जेरइया, नाणत्तं किरियासु। (श० १८३) ११८-१२१. नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णमाहारयन्ति उच्छ्वसन्ति चेति यदुच्यते तत्सङ्ख्यातवर्षायुपोऽपेक्ष्येत्यवसेयं, तथैव दर्शनात्, नासङ्ख्यातवर्षायुषः, तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात्, अल्पशरीराणां त्वाहा रोच्छ्वासयोःकादाचित्कत्वं वचनप्रामाण्यादिति, लोमाहारापेक्षया तु सर्वेषामप्यभीक्ष्ण मिति घटत एव। (वृ०-५०४४) १२२. अल्पशरीराणां तु यत्कादाचित्कत्वं तदपर्याप्तकत्वे लोमाहा रोच्छ्वासयोर भवनेन पर्याप्तकत्वे च तद्भावेनावसेयमिति । (वृ०प०४४) ६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३. 'साहरण हुवां पछै लहै, केवलज्ञान प्रधान । तिण सं केवली रो साहरण कह्यो, शतक पचीसमै जान ।। १२४. तिम विग्रहगतिया जीव नं, ते अल्प तनु होणहार। ते बाट बहिता थकां, अणाहारक अवधार ।। १२५. आहार प्रमुख बांध्यां पछै, लेवै आहार उस्सास । कदाचित् इण कारण कह्य, ते पिण जाणे केवली तास' ।। (ज० स०) १२६. कर्म सूत्रे पूर्व ऊपना, अल्प कर्म तसुं थाय । पछै ऊपना ते महाकर्मी, निसूणौ तेहनों न्याय ।। १२७. ते आउखादिक तदभवे, कर्म भोगविवा योग्य । तेह कर्म नी अपेक्षया, समुच्चय वचन प्रयोग्य ।। १२८. तथा वर्ण लेश्या सूत्र नै विषै, पूर्व उप्पन्न पिछाण । शुभ वर्णादिक तसं कह्य, तरुणपणे क्रांति जाण ।। १२६. पर्छ ऊपनां तेहन, अशुद्ध वर्णादि देख । वालपणे सुगावणो, प्रत्यक्ष ही संपेख ।। १३०. हे प्रभ ! तिर्यच पंचेंद्री, सह सम किरियावंत । जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूछत ।। १३१. जिन कहै-तिर्यच पंचेंद्रिय, तीन प्रकार पिछाण । समदिट्टी नै मिच्छदिट्ठी, सममिच्छदिट्ठी जाण ।। १२६, १२७. कर्मसूत्रे यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वमितरेषां तु महाकर्मत्वं तदायुष्कादितद्भववेद्य कर्मापेक्षयाऽवसेयम्। (वृ०-५० ४४) १२८, १२६. तथा वर्णलेश्यासूत्रयोर्यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णा द्युक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां चाशुभवर्णादि बाल्यादवसेयं, लोके तथैव दर्शनादिति ।(वृ०-५० ४४) १३०, १३१. पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सव्वे सम किरिया? गोयमा ! णो इणठे समझें। से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ-पंचिदियतिरिक्खजोणिया नो सब्वे समकिरिया? गोयमा! पंचिदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ दिट्ठी। १३२, १३३. तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--असंजया य, संजयासंजया य । तत्थ णं जे ते संजयासंजया, तेसि णं तिणि किरियाओ कज्जंति, तं जहा–आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया । (श० ११८४, ८५) १३२. समदृष्टी द्विविधि कह्या, असंजती अवलोय। वलि संजतासंजती, ए श्रावक पद जोय ।। १३३. श्रावक रै क्रिया तीन है, आरंभिकी कहिवाय । परिग्गहि की मायावत्तिया, अवत खंध थी नाय ।। १३४. १३५. १३६. सोरठा 'पंचम अंग पिछाण, दशम शते उद्देश धुर । पूरव दिशि में जाण, कह्य धर्मास्तिकाय नहीं ।। ते पुरव दिशि मांहि, धर्मास्ति संपूर्ण नहीं। इम खंध आश्री नांहि, पिण देश अछै धर्मास्ति नुं ।। तिम श्रावक रै जाण, संपूरण अविरत नथी। तिण से अपच्चवखाण-क्रिया खंध आश्रयी नहीं।। अथवा विदिशि विषेह, नो जीवे ए जीव नहीं। आख्यो खंध न जेह, पिण देश अछै जोवां तणु ।। तिम श्रावक रे जाण, अविरत पिण आखी नथी। देश थकी पहिछाण, अविरत छै पंचम गुणे।। ३ १३८. श०१, उ०२,ढा०७ ६१ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६. सतरम शत विख्यात, उद्देश धुर श्रावक भणी। संजतासंजती ख्यात, बालपंडित वलि आखियो।' (ज० स०) १४०. *असंजती रै चउ क्रिया, अधिको ए अपचक्खाण । मिच्छदिट्टी समामिच्छदिट्टी, पंच - पंच पहिछाण ।। १४१. मनुष्य नेरइया नी परै, पिण इतलो फेर विचार । महा-तनु बहु द्रव्य आहार ल, आहच्च-कदाचित आहार ।। १४२. अल्प-तनु अल्प द्रव्य आहार लै, अभिक्खणं बार-बार । शेष नारकी नीं परै, जाव वेदना विचार' । १४३. वृत्तिकार का नारकी, महा-तनु अभिक्खणं आहार। मनुष्य सूत्रे महा-तनु, आहच्च आहार प्रकार ।। १४४. महा - तनु देवकुर्वादिक, कदाचित् ले आहार । कवल आहार अपेक्षया, अट्ठम भक्त उदार ।। १४५. अल्प-तन मनुष्य अभिवखणं, अल्प द्रव्य देखो बाल । बलि समुच्छिम निरंतर लिय, बार - बार ते न्हाल ।। १४६. पूर्व ऊपनां मनुष्य ते, सुद्ध वर्णादिक गम्म । तरुणपणे क्रांति अति हुवै, तथा समुच्छिम पेक्षा प्रथम्म ।। १४७. पूर्व ऊपना मनुष्य रे, तसु पुद्गल समुच्छिम । पछै ऊपना तेहनी, अपेक्षाय अवगम्म ।। १४८. हे भदंत ! सर्व मनुष्य ते छै सम - किरियावंत । जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूछंत ।। १४६. जिन कहै-मनुष्य त्रिविध कह्या, समदृष्टि पहिछाण । मिथ्यादृष्टि मनुष्य बलि, सममिच्छदिट्ठी जाण ।। १४०. असंजयाणं चत्तारि । मिच्छदिट्ठीणं पंच । सम्मामिच्छदिट्ठीणं पंच। (श० १।८५) १४१, १४२. मणुस्सा जहा णेरड्या नाणत्तं जे महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति आहच्च आहारेति । जे अप्पसरीरा ते अप्पतराए पोग्गले आहारैति अभिक्खणं आहारेति, सेसं जहा नेरइयाणं जाब वेयणा। (श०१८६-६५) १४३-१४६. 'अभिक्खणं आहारती' त्यधीतम्, इह तु आहच्चे' त्यधीयते, महाशरीरा हि देवकुर्बादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' त्ति-वचनात्, अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्प च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूच्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसम्भवाच्च, यच्चेह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादि तत्तारुण्यात् संमूच्छिमापेक्षया वेति। __(वृ०-५० ४४, ४५) १४८, १४६. मणुस्सा णं भंते ! सब्बे समकिरिया ? गोयमा ! नो इणठे समठे। से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-मणुस्सा नो मब्वे समकिरिया ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी । (श०१६६, ६७) १५० ,१५१. तत्थ णं जे ते सम्म दिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजया, अस्संजया, संजयासंजया। तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सरागसंजया य, बीत रागसंजया य। तत्थ णं जे ते बीत रागसंजया, ते णं अकिरिया। १५०. समदृष्टि त्रिविध कह्या, सजती नवगुण' इष्ट । संजतासंजती पंचम, असंजती समदृष्ट । १५१. सजती ते द्विविध कह्या, सराग नै वीतराग। वीतराग रै नहि क्रिया, आरंभियादि न लाग ।। *लय-हाथ जोडी विनती करूं १. मनुष्य पंचेन्द्रिय के आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या और वेदना के संबंध में प्रतियों में संक्षिप्त पाठ है। वहां 'सेसं जहा नेरइयाण जाव वेयणा' कहकर समग्र वर्णन को संक्षिप्त कर दिया है। उस संक्षिप्त पाठ के आधार पर जोड़ की गई है । अंगसुत्ताणि भाग २ में जाव की पूर्ति कर पूरा पाठ लिया गया है। २. गुणस्थान-संयती में छठे गुणस्थान से लेकर १४वें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। ६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. सराग संजती द्विविधा, प्रमत्त नै अप्रमत्त । अप्रमत्त ने इक क्रिया, मायावत्तिया तत्थ ।। १५३. प्रमत्त संजत नैं वे क्रिया, आरंभिया नै माय'। संजतास जत त्रिण क्रिया, परिग्रह नी अधिकाय ।। १५४. असजति रै चउ क्रिया, अधिकी अपचक्खाण। मिच्छदिट्टी सममिच्छदिट्टी, पंच - पंच पहिछाण । १५२-१५४, तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा---पमत्तसंजया य, अप्पमत्तसंजया य । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया, तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जइ । तत्थ ण जे ते पमत्तसंजया, तेसि गं दो किरियाओ कज्जति, तं जहा--आरंभिया य, मायावत्तिया य। तत्थ णं जे ते संजयासंजया, तेसि णं आइल्लाओ तिणि किरियाओ कज्जति, तं जहाआरंभिया, पारिगहिया, मायावत्तिया। असंजयाण चत्तारि किरियाओ कज्जति–आरंभिया पारिगहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चखाणकिरिया। मिच्छदिट्ठीणं पंच-आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया,अप्पच्चक्खाण किरिया, मिच्छादसणवत्तिया। सम्मामिच्छदिट्ठीणं पंच। (श० ११६७) १५५, १५६. धाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुर कुमारा, नवरं—यणाए णाणत्तं-मायि मिच्छदिट्ठीउववन्नगा य अपवेयण तरा, अमायिसम्म दिट्ठिउववन्नगा य महावेयणतरा भाणिय व्वा जोतिसवेमाणिया। (श० १११००) १५५. व्यंतर असुर तणी परै, इम जोतिषि विमाण। नवरं इतो विशेष है, वेदना में पहिछाण ।। १५६. माई मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अल्प - वेदनवंत । अमाई समदृष्टि ऊपनां, महा - वेदन वेदंत ।। १५७. असुर विषै महा वेदना, सण्णिभत नै ताय । चरण विराधन थी तिकै, मानसीक दुख पाय ।। १५८. तिम इहां पिण संभवै, सम्यक्त्व चरण विराध । जोतिपि नै वैमानिक मझे, ऊपनो चित असमाध ।। आगम ना अनुसार थी, जोतिषि वैमानीक । असन्नी तिहां नहिं ऊपजै, णवरं पाठ तहतीक ।। १६०. माई - मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अल्प वेदन सुभ तास । अमाई - समदृष्टि रै, महासुभ वेदन जास। १५६, १६०. ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वसझिनो नोत्पद्यन्तेऽतो वेदनापदे तेष्वधीयते 'दुविहा जोतिसिया----मायिमिच्छदिट्ठी उबवन्नगा ये' त्यादि, तत्र मायि मिथ्यादृष्टयोऽल्पवेदना इतरे च महावेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति । (व०-प०४५) १. मायावत्तिया। २. इसके बाद मनुष्यों के आयुष्य और उत्पत्ति के संबंध में प्रश्न है, पर टिप्पण संख्या ६२ में सांकेतिक पाठ 'सेस जहा नेरइयाणं जाव वेयणा' में उक्त प्रश्नों का समर्पण कर आयुष्य और उत्पत्ति के पाठ को पृथक् रूप से उल्लिखित नहीं किया। किन्तु उक्त संक्षिप्त पाठ के बाद क्रिया का पाठ अलग लिया है, क्योंकि क्रिया-सूत्र में नै रयिक के आलापक से कुछ भिन्नता है। आयुष्य और उत्पत्ति के संबंध में भिन्नता तो नहीं है, पर यह पाठ क्रिया के बाद है और संक्षिप्त पाठ में 'जाव वेयणा' कहा गया है। वेयणा तक क्रिया, आयुष्य और उत्पत्ति ये तीनों नहीं आते हैं, इसलिए यहां इनका स्वतंत्र उल्लेख होना चाहिए था, पर टीकाकार इस संबंध में मौन है। जयाचार्य ने भी अपनी जोड़ में इसी क्रम को अपनाया है। अंगसुत्ताणि भाग-२ में पूरा पाठ लिया गया है, इसलिए उसके शतक १ सूत्र १८, ६६ की जोड़ अनुपलब्ध है। देखें---अंगसुत्ताणि भाग-२, पृ०२२, टिप्पण संख्या २। ३. वैमानिक देवता श०१,उ०२, ढा०७६३ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१. अथ चतुर्विशतिदण्डकमेव लेण्याभेदविशेषणमाहारादि पदनिरूपयन् दण्डकसप्तकमाह- (वृ०-५० ४५) १६२. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया सधे समाहारगा? १६१. हिव समुच्चय सलेसी तणो, बलि कृष्णादि छ लेस । आहारादिक नव पद करि, दंडक ऊपर पहेस ।। १६२. प्रभु ! सलेसी नेरइया, सगलां रै सम आहार। वृत्तिकार इहां इम का, नव पद कहियै विचार ।। १६३. आहार शरीर उस्सास ने, कर्म वर्ण नै लेस । समवेदन क्रिया बलि, समायु सुविशेष ।। १६४. ए नव पद सलेसी नेरइया, असुर सलेसी एम। जाव सलेसी वेमानिक, नव-नव पद ओघ जेम ।। १६५. कृष्ण आदि पट लेस नै, नव पद सहित विचार । यथासंभव दंडक ऊपरै, कहिवो बलि अधिकार ।। १६३, १६४. अनेनाहारशरीरोच्छ्वासकर्मवर्णलेश्यावेदना क्रियोपपाताख्यपूर्वोक्तनवपदोपेतनारकादिचतुर्विशतिपददण्डको लेश्यापदविशेपितः सूचितः । (वृ०-प० ४५) १६५. तदन्ये च कृष्णलेश्यादिविशेषिताः । पूर्वोक्तनवपदोपेता एव यथासम्भवं नारकादि पदात्मका: पदण्डका: सूचिताः । (वृ०-५० ४५) १६६. ओहियाणं, सलेस्साणं, सुक्कलेस्साणं--एतेसिणं तिह एक्को गमो। १६७. तेनेह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्ललेश्याया अभावादिति। १६६. औधिक पूर्वे कह्या अछ, नरकादिक चउबीस। सलेसी शुक्लले सिए, त्रिहुं इक गमा सरीस ।। १६७. पंचेदिय तिर्यंच ते, मनुष्य अनै वेमानीक। शुक्ल लेस्या एहनै विषै, अन्य दंडक न कथीक ।। thimit little to १६८, १६६. कण्हलेस्स-नीललेस्साणं पि एगो गमो, नवरं वेदणाए मायिमिच्छदिट्ठीउवबन्नगा य, अमायिसम्मदिछीउववन्नगा य भाणियब्वा । १७०. कृष्णलेण्यादण्डके नीललेण्यादंडके च वेदनासूत्रे दुविहा रइया पन्नत्ता-सन्निभया य असन्निभूयायत्ति औधिकदण्डकाधीतं नाध्येतव्यम्। (वृ०-प०४५) १७१. मणुस्सा किरियासु सराग-बीय रागा पमत्तापमत्ता न भाणिय व्वा । १६८. कृष्ण नील लेस्या विषै, एहिज गमा देख। औधिक पाठ तणी परै, पिण णवरं इतो विशेष ।। १६६. वेदना में कहिवो इसुं, माइ - मिथ्याती उपन्न। अमाइ - समदृष्टि ऊपनां, शेष औघ जिम जन्न ।। १७०. औधिक वेदना नै विषै, द्विविध नरक निहाल। सण्णिभूत असण्णिभूत है, ते इहां देणां टाल ।। १७१. क्रिया सुत्र मनुष्य में, सराग नै वीतराग। प्रमत्त नै अप्रमत्त ए, भेद न भणवा विभाग ।। १७२. 'औधिक संजती मनष्य नां, भेद किया ए च्यार। ते चउभेद करिवा नहीं, कृष्ण नील अधिकार ।। १७३. धर भेद संयत टाल्यो नहीं, सरागी में तो होय । वीतरागी में होवे नहीं, तिण भेद करणा वरज्या दोय ।। १७४. कृष्णनील प्रमत्त में, अप्रमादी में न होय । तिण सं सरागी तणां, बे भेद न करणा कोय ।। वृत्तिकार इहां पिण कियो, अर्थ अधिक विपरीत । भाव लेस्या वरजी साधु में, ए सूत्र विरुद्ध अनीत' ।। (ज० स०) इमज कापोत लेस्या कही, णवरं नारकी मांय । वेदन सूत्र औधिक ज्यं, सण्णि असणि भूत थाय ।। १७७. तेजु पद्म छै जे विषै, औधिक ज्यं सूविभाग। णवरं मनुष्य क्रिया विषै, न भणवा सराग वीयराग ।। १७५. १७६. काउलेस्साण वि एसेव गमो. नवरं-नेरइए जहा ओहिए दंडए तहा भाणियव्वा । १७७. तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा 'जस्स अत्थि' जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियव्वा, नवरं-मणुस्सा सरागवीयरागा न भाणियव्वा । १४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८. औधिक में अप्रमत्त ते इहां वे भेद करवा नहीं, १७६- तेज प्रमत्त संजत वीतरागी में हुवै १८० तिम कृष्ण नील च्यार भेद करणा १८१. दुक्ख आउ १. १८२. हाल भली ए ३. ४. उदय समवेदन क्रिया ५. तणां, सराग वीयराग भेद । पिण अप्रमत्त न कियो निषेध ॥ मझे, सरागी में ज होय । नहीं, तिण मुंन करणा भेद दोय ॥ संजति नां, सराग प्रमुख ताहि । नहीं, पिग संजल बज्यों नाहि ॥ (ज० स० ) भोगवे, सम आहार कर्म वर्ण लेस । कही, सम आयु सुविशेष ॥ सातमी, द्वितीय उदेशक देश 1 भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' हरष विशेष ।। ढाल : ८ । पूर्व सलेशी हि प्रश्न ले हे भदंत ! लेश्या किती ? जिन कहै सांभल वाय । नेरिया, इम तो पूछे अभिराम स्वाम ॥ गीतम छ लेश्या आखी अछे, कृष्णादिक कहिवाय ।। हा *लय- अभड भड रावणो इंदा सूं कहि पन्नवण सतरम पद विषै द्वितीय उद्देश जाव ऋद्धि अल्पबहुत्व लग, वर्णन सकल जे जेहवा तेहवाज, ए अन्य मत वच सुण अंतमुग्ध है, तसु बोधिवा, गोयम प्रश्न करत || हे भगवंत ! ए जीव ने गया काल रे मांय । संसार में रहिवा तणो, कित प्रकार कहिवाय ? | * गुण जन सांभलो, वारू श्री जिन वयण विशाल । ( ध्रुपदं ६. बीर कप गोमाजी संसार में रहिया ने काल । नरक तिरि मनु देवता जी, चउविध ) भ्रमण निहाल || भलाय । कहाय || ११. दुक्खाउए उदिष्णे, आहारे कम्म वण्ण-लेस्सा य । समवेयण - समकिरिया, समाउए चेव बोधव्वा ॥ (१०] १०१०१ संगी-माहा) १. प्रसारका इत्युक्तमा निरूपवन्नाह( वृ० प० ४६ ) २. कइ णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा, पम्हुलेस्सा, सुक्कलेस्सा | ३. लेस्साणं बीओ उद्देशो भाणियब्वो जाव इड्ढी । (0 21102) ४. मनुवतेत्यादिवचनविभा मन्यतेऽनादावपि भवे एकधैव जीवस्यावस्थानमिति योधनार्थं प्रश्नयन्नाह( वृ० प० ४७) अथ पशवः ५. जीवस्स णं भंते! तीतद्वाए आदिट्ठस्स कइविहे संसारसंचिका ६. गोयमा ! चउब्विहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते, तं जहा नेरइयसंसारसंचिका तिरिक्खजोशियसारसंचिका भरसारणका देवसंसारसंचिका । (श० १११०३) श० १, उ० २, ढा० ७, ८ ६५. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. हे प्रभु ! कतिविध नरक में, संसार - संचिट्ठणकाल । जिन कहै-तीन प्रकार छ, शून्य अशून्य मिश्र काल न्हाल ।। ८. प्रथम हिवै अशन्य काल नै, ओलखावं छू सोय। ते जाण्यां छतां शून्य मिश्र ने, ओलखणा सोहरा जोय ।। ६. वर्तमान काले सात नरक में, नेरइया वर्तं अशेष । त्यां मांहि थी एक न नीकल्यो, ऊपनों पिण नहि एक ।। १०. जे जीव निकल पाछो ऊपनों, जित निकल्यो ऊपनों नाय । सात नरक में हुंता जिता रह्या, ए अशून्य काल कहिवाय ।। ११. जे नरक थी निकल ऊपनो जित, त्यां मांसू नीकल्यो एक। अथवा एक बाकी रह्यो, ए मिथ काल संपेख ॥ १२. जे नरक थी निकल ऊपनों जितै, सातू नरक रै माय। सर्व आगला नीकल्या, ए शून्य काल कहिवाय ।। ७. नेरइयसंसारचिट्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले ॥ (श० ११०४) ८-१०. तत्राशून्यकालस्तावदुच्यते, अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सतीतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति, तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये नारका वर्तन्ते तेषां मध्याद्यावन्न कश्चिदुद्वर्त्तते न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एव ते आसते स कालस्तान्नारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते। (वृ०-५० ४७) ११. मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्वत्ताः यावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः। (वृ०-प० ४७) १२. शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारकाः साम स्त्येनोद्वत्ता भवन्ति नैकोऽपि तेषां शेषोऽस्ति स शून्यकाल इति। (वृ०-५० ४७) १३-१६. इदं च मिश्रना रकसंसाराबस्थानकालचिन्तासूत्र न तमेव वार्त्तमानिकनारकभवमङ्गीकृत्य प्रवृत्तम्, अपि तु वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्त रगमन तत्रवोत्पत्तिमाश्रित्य, यदि पुनस्तमेव नारकभवमंगीकृत्येदं सूत्र स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणता सूत्रोक्ता न स्यात्। (वृ०-५० ४८) सापू १३. ए वर्तमान भव नरक नी, स्थिति आश्री आख्यो नाय। सात नरक में नेरइया तणां, जीव आश्री कहिवाय ।। १४. आगल अल्पबहुत्व अशुन्य काल थी, अनंतगुणो कह्यो मिथकाल । तिण सं ते जीव आश्री अछ, पिण भव आश्री मत भाल ।। १५. भव आथी जो ए हुवै तो, अनंतगुणो किम थाय ? । उत्कृष्ट सागर तेतीस नों, आयु नरक रै माय ।। १६. इतला माहै सहु नीकलै तो, अशून्य काल थी जोय । असंखगुणो मिश्रकाल ह्व, पिण अनंतगुणो नहि होय ।। १७. सर्व थोड़ो अशून्य काल छै, बारै मुहर्त विरह अपेक्षाय। मिश्रकाल अनंतगुणो नां हवै, तिण स भव आश्री नहि थाय ।। १८. तिर्यंच - गति विर्ष अछ, अशन्य मिथकाल दोय। मनुष्य अनै देवता मझै, काल तीनूं अवलोय।। १६. प्रभु ! नरक रहिवा तणो, शून्य अशून्य मिश्रकाल माय। कुण-कुण अल्प वहत्व छ, तुल्य विशेषाधिक कहिवाय? || २०. जिन कहै-सर्व थोड़ो अछ, अशून्य काल उपदिष्ट । ऊपजवा निकलवा नों नरक में, विरह बारै मुहूर्त उत्किष्ट ।। १७. अत उत्कर्षतो द्वादशमौहुत्तिकाशून्यकालापेक्षया मिश्र कालस्यानन्तगुणत्वाभावप्रसंगादिति। (वृ०-प ०४८) १८. तिरिक्खजोणियसंसारपुच्छा गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--असुन्नकाले य, मिस्सकाले य। भणुस्साण य देवाण य जहा ने रइयाणं। (श०१।१०५-१०७) १६. एतस्स णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स—सुन्न कालस्स, असुन्नकालस्स, मीसकालस्स य कयरे कयरे हितो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा? २०. गोयमा ! सव्वत्थोवे असुन्नकाले नारकाणामुत्पादोद्वर्त्तनाविरहकालस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्। (वृ०५० ४८) २१, २२. मिस्सकाले अणंतगुणे मिथाख्यो विवक्षितनारकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकालापेक्षयाऽनन्तगुणो भवति, यतोऽसौ नारकेत रेवागमनगमनकाल:, स च असबनस्पत्यादिस्थितिकालमिथितः सन्ननन्तगुणो भवति, वसवनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वाद्, स च नारकनिर्लेपनाकालो वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे बर्तत इति। २१. तहया तेहथी मिश्रकाल अनंतगुणो, अशून्य काल वालो जे जीव। गमनागमन वस वणस्सइ, काल अनंतगुणो है अतीव ।। २२. बनस्पति नां काल थी, अशन्य काल अनतमै भाग। तिण सं ते जीव त्रस तरु नरक में, मिश्र अनन्तगुणो इम लाग ।। १६ भगवती-जोड़ dain Education Intemational Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. मिश्र थी शून्यकाल अनंतगुणो, नरक थी नस वणस्सइ थाय। काल अनन्तानन्त तिहां, पछै त्रस होय नरके जाय ।। २४. वनस्पती नै नरक नों, अंतर उत्कृष्ट जाण । काल अनंता नो कह्यो, तिण सूं शून्य अनंतगुणो माण ।। २५. हिवै अल्पबहत्व तियंच में, सर्व थोड़ो अशन्यकाल । ते अंतर्महुर्त विरह - काल छै, समुच्छिम विकलेंद्री नै न्हाल ।। २६. एकेंद्री नै तो ऊपजवा तणों, नीकलबा नों विरह न कोय । ते विरह तणा अभाव थो, अशून्यकाल नहि होय ।। २७. तिण सू सर्व थोड़ो अशून्यकाल छै, ते समूच्छिम आश्री जाण। बलि विकलंद्री आश्री कह्या, तस, अंतर्महुर्त प्रमाण ।। २८. अशन्य थी मिथकाल अनंतगणो, नारकी नीं पर जान। तिर्यंच में शून्य-काल हुवै नहीं, त्यां थी नीकल रहै किण स्थान ? २३, २४. सुन्नकाले अणंतगुणे (श० १।१०८) सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालमवस्थानात्, एतदेव बनस्पतिष्वनन्तानन्तकालावस्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समय इति। (वृ०-०४८) २५-२७. तिरिक्खजोणियाणं सव्वत्थोवे असुन्नकाले स चान्तर्मुहर्त्तमात्रः अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामुक्तस्तथाऽपि विकलेन्द्रियसंमूच्छिमानामेवावसेयः, तेषामेवान्तर्मुहर्तमानस्य विरहकालस्योक्तत्वात्, एकेन्द्रियाणां तुद्वर्त्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव। (वृ०-५० ४८) २६. अल्पबहुत्व मनुप्य देवता तणों, तोन काल नी जोय। नरक तणी पर जाणज्यो, श्री जिन - वच अवलोय ।। ३०. हे प्रभु! नरक विष रह्यो, तिरि मनुष्य देव भव मांय। अल्प बहुत्व काल किहां रह्यो?, किहां तुल्य विशेषाधिक थाय ।। ३१. जिन कहै-थोड़ो काल मनुष्य में, असंखगुणो नरक रै मांहि । रह्यो देव में काल असंखगुणो, अनंतगणो तियंच में ताहि ।। २८. मिस्सकाले अणंतगुणे (श० १।१०६) शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यतो वार्त्तमानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उद्वृत्तानां स्थानमन्यद् नास्ति। (वृ०-५० ४८, ४६) २६. मणस्म-देव अणंतगुणे, सुन्न काले अणंतगुणे। (श० १।११०) ३०, ३१. एयस्स णं भते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठण कालस्स, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकालस्स, मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकालस्स, देवसंसारसंचिट्ठणकालस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? गोयमा! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेर झ्यसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, देव संसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे । (श० १११११) ढाल भली ए आठमी, दूजा उदेशा नों इक देश । भिक्षु भारीमाल ऋपराय थी, 'जय' सुख हरष विशेष ।। ढाल : रहै जीव संसार में, अथवा मोक्ष पिण होय । इण आशंका नै विषै, प्रश्न गोयम हिव सोय ।। हे भदंत ! ए जोव ते, अतक्रिया करत ? मोक्ष-प्राप्ति सर्व-कर्म-क्षय, इम वृत्तिकार कहत ।। १. कि संसार एवावस्थानं जीवस्य स्यादुत मोक्षेऽपि ? इति शंकायां पृच्छामाह--- (वृ०-प० ४६) २. जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा? कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः । (वृ०-प०४६) श०१, उ०२, ढा०८,६६७ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ५. ७. ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. जिन कहै कोइक जी ने किया नू अंत कर्म-क्ष शिव प्राप्ति, केइ न करे सूत्र पन्नवणा बीसमां, अंतक्रिया ते मांहै अधिकार जे, इहां कहिवो अत किया अगवाय केयक जीव देवपण ऊपजै अछे, ते हिव प्रश्न "हां श थी प्रभुवी ! असंगति भव्य द्रव्य देवा रा हो जी स्वामी ! असंजति भव्य द्रव्य देवा रा प्रथम कहेवारा, जशधारी जी ॥ हां रा श्री प्रभुजी ! संत आराधक गिरु रा विराधक विरुsो रा ॥ हैद *लय - हां रा मेवासीजी व्हांनी-सी नणदोली भगवती जोड़ करंत । क्रिय - अंत ॥ पद नाम । अभिराम ॥ हां रा श्री प्रभुजी ! श्रावक आराधक साचोरा । विराधक काचो रा ॥ हां रा श्री प्रभुजी ! अणि तापस जाणी रा कंदपिक ठाणी रा ॥ हां रा थी प्रभुजो ! चरक परिव्राजक जोयो रा किव्विसिया होयो रा ।। हां रा जिनेन्द्रजी ! तिर्यंच ने आजीविक रा । वलि आभियोगिक रा ॥ हां रा जिनेन्द्रजी ! समकित भ्रष्ट सलिंगी रा क्रिया इकरंगी हां रा जिनेन्द्रजी ! देवलोके उपजंता किहां लग गंता रा ॥ हां रा गोयमजी ! वीर कहै तिन वारो रा । उत्तर उदारी रा ॥ हां रा गोयमजी ! असंजत भव्य द्रव्य देवा रा । सुरगति लेवा रा ॥ हां रा गोयमजी ! जघन्य भवनपती मांह्यो रा । गति कहिवायो रा ॥ रा ॥ रा। हां रा गोयमजी ! उत्कृष्ट ग्रीवेयक मांह्यो रा । नवग पायो रा ॥ हां रा सुगणांजी ! वृत्ति मध्ये इम गोयो रा ए मिथ्यादृष्टि होयो रा ॥ सुजोग । प्रयोग || ३. गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए नो करेज्जा ४. अंतकिरियापयं नेयव्वं । (० १११२) ( वृ० प० ४९) तच्च प्रज्ञापनायां विशतितमं । ५. कर्मलेशादन्तक्रियाया अभावे केचिज्जीवा देवेषूत्पद्यन्तेऽतस्तद्विशेषाभिधानायाह--- (०-८० ४९) ६. अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं २. अजिमा विराजमा अविराजमा विराजमाजमा ६. असण्णी, तावसाणं, कंदप्पियाणं १०. चरगपरिव्वावगाणं किव्विमियाणं ११. तेरिच्छ्यिाणं आजीवियाणं अभिओगियाणं १२. सलिंगीणं दंसणवावणगाणं १३. एतेसि णं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहि उववाए पण्णत्ते ? १५-१७, गोयमा ! असंजयभवियदव्वदेवाणं जहणणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं उवरिमगे वेज्जएसु । - १८-२०. तस्मान्मिथ्यादृष्टय एवाभव्या भव्या वा असंयतभव्यअन्यदेवाः मगधारिणो निधनसामाचार्यनुष्ठान Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. युक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणो गृह्यन्ते, ते ह्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत एवोपरिमप्रैवेयकेषूत्पद्यन्त इति। (वृ०-प०५०) २१-२३. चक्रवत्तिप्रभृत्यनेकभूपतिप्रबरपूजासत्कार सन्मानदानान् साधून समवलोक्य तदर्थ प्रव्रज्याक्रियाकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते, ततश्च ते यथोक्तक्रियाकारिण इति। (वृ०-प० ५०) २५, २६. अविराहिय संजमाणं जहणणं सोहम्मे कप्पे, उक्को सेणं सव्वट्ठसिद्ध विमाणे। २७, २८. विरायिसंजमाणं जहणणं भवणवासीसु, उक्को सेणं सोहम्मे कप्पे। हां रा सुगणांजी! भव्य तथा अभव्य पिछानो रा। बाह्य अनुष्ठानो रा।। हां रा सुगणांजी ! अखिल क्रिया समाचारी रा। द्रव्य-लिंग धारी रा।। रा सुगणांजी ! चक्रवत्ति प्रमुख आनंदै रा। मुनिवर वंदै रा॥ हां रा सुगणांजी ! प्रवर पूजा तस् देखी रा। अधिक विशेखी रा।। हां रा सुगणांजी ! तिण अर्थे उचरंगो रा। ग्रहै द्रव्य-लिंगो रा।। हां रा सुगणांजी! निकेवल क्रिया नै प्रभाव रा। ग्रेवेयक जावै रा॥ हां रा गोयमजी ! आराधक संत अचर्मो रा। जघन्य सुधर्मो रा।। हां रा गोयमजी ! उत्कृष्टो गुण ऋद्धो रा। सर्वार्थसिद्धो रा।। हां रा गोयमजी ! विराधक संत विमासी रा। जघन्य भवनवासी रा ।। हां रा गोयमजी ! उत्कृष्ट सुधर्म सागै रा। पदवी न आगै रा।। हां रा गायमजी ! आराधक श्रावक अभर्मो रा। जघन्य सुधर्मो रा॥ हां रा गोयमजी ! उत्कृष्टो उलसावै रा। अच्यू सुख पावै रा॥ हां रा गोयमजी ! विराधक थावक विमासी रा। जघन्य भवनवासी रा॥ हां रा गोयमजी ! जोतिषी में उत्कृष्टं रा। ए समदृष्टि भ्रष्टं रा ।। हां रा गोयमजी ! असणि अकाम निज्जरथी रा।। भवण जघन्न थी रा।। हां रा गोयमजी ! उत्कृप्टो कहिवायो रा। व्यंतर थायो रा॥ हां रा गोयमजी ! अवशेष सर्व विमासी रा। जघन्य भवनवासी रा॥ हां रा गोयमजी ! उत्कृष्टी स्थिति आगै रा। कहूं छु सागै रा॥ २६,३०. अविराहियसंजमासेजमाणं जहणणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे। ३१,३२. विराहियसंजमासंजमाणं जहाणेणं भवणवासी, उक्कोसेणं जोइसिएसु। ३३, ३४. असण्णीणं जहणेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु। ३५, ३६. अवसेसा सवे जहणेणं भवण बासीसु उक्कोसेणं वोच्छामि श०१, उ०२, ढा०६९६ Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. ३८. ३६. ४० ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. १. हो रा गोमजी ! तापस जोतिषी हां रा गोवमजी ! कंदपियो कुतुहल करतो रा सुधर्म संवरतो रा ॥ हो रा गोवमजी ! चरक परिव्राजक त्रिदंडी रा ब्रह्मगति मंडी रा ॥ हां रा गोयमजी ! किव्विसिया अवर्णवादी रा । छठे कल्प साधी रा ॥ हां रा गोयमजी ! तिर्यंच जावै सहसारो रा अष्टम उदारो रा ॥ दावे रा पत्रादिक खावै रा ॥ हां रा गोयमजी ! आजीविया गोशालक मत्ती रा अचू उपपत्ती रा ॥ हां रा गोयमजी ! अभियोगिया अप वरणू रा मंत्र वशिकरणू रा ॥ हां रा गोयमजी ! सम्यक्त्व भ्रष्ट सलिंगी रा । संवेयक संगी रा ।। हां रा गोयमजी ! कंदपि किन्विसि अभियोगी रा बाह्य चरण जोगी रा ॥ हां श गोयमत्री ! असष्णि जन्य भवन दृष्टो रा व्यंतर उत्कृष्टो स हां रा गोयमजी ! कोइक भवनपति क्षीणा रा । व्यंतर थी हीणा रा ॥ 1 हां रा सुगणांजी ! दुजा उदेशा नो देशो रा । नवमी ढाल एसो रा ॥ हां रा सुगणांजी ! भिक्षु भारीमाल ऋपिरायो रा । 'जय' सुख पायो रा ॥ १०० भगवती-जोड बुहा पूर्वे को असणि मरी, देवपण आयुबंध अस िस ते हे भदंत ! अणि छतो, आउखो बंधे तिको ढाल : १० उपजत । प्रश्न करत ॥ परभव नौं पहिछाण । असणि आयू जाण ॥ ३७. तावसाणं जोतिसिएस ३८. कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे ३६. चरग-परिव्वाय गाणं बंभलोए कप्पे ४०. किब्बिसियाणं लंतगे कप्पे ४१. तेरिच्छ्यिाणं सहस्सारे कप्पे ४२. आजीवियाणं 'अच्चुए कप्पे ४३. अभिओगियानं अच्चुए कप्पे ४४. सलिंगीण दंसणवावन्नगाणं उवरिमगेविज्जएसु । (१)११३) ४७. यद्यपि... व्यन्तरा अल्पद्विका तथाप्यत एव वचनादवसीयते सन्ति व्यन्तरेभ्यः सकाशादल्पर्द्धयो भवनपतयः केचन इति । (90-402?) य इत्युक्तं स चायुषा इति तदायु ( वृ० प० ५१ ) २. 'असन्निआउए' ति असशी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्वध्नाति तदसञ्ज्यायुः । (२०२०५१) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कतिविहे णं भंते ! असण्णिआउए पण्णत्ते? असण्णि-आयु कतिविधे? तब बोल्या जिनराय। चउविध असण्णि आउखो, ते सुणज्ये चित ल्याय ।। *सुणो भव्य प्राणी रे, देव जिनेन्द्र दयाल वदै वर वाणी रे । (ध्रुपदं) ४. असपिण-आउ चउविध कह्यो रे, नरक असण्णि-आउ जाण । तिर्यच मनुष्य नै देव नों रे, असण्णि - आउ पहिछाण ।। ४. गोयमा ! चउबिहे असणिआउए पण्णते, तं जहानेरइयअसण्णिआउए, तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए, मणुस्सअराणिआउए, देवअसण्णिआउए। (श० १।११४) सोरठा असण्णि - आउ जोय, एह पाठ कहि करी। असण्णि नों अवलोय, आयु अर्थ करै इसो।। ते कारण थी एह, असणि बांध्यो आउखो। कृतत्वलक्षण जेह, विशेष संबंध करि कहै ।। वा०-ए असन्नी आउखो संबंध मात्र पिण हुदै । जिम भिक्खु नों पात्र, तिम असण्णि नों आयु इम संबंध कहिये । तिको संबंध इहां नहीं । इहां तो असण्णि छत कीधो-बांध्यो आयुष इम कीधापण ते लक्षण संबंध-विशेष निरूपण ने अर्थे कहै छ। *प्रभ । जीव असणि छतो, स्यू नरक नों आयु बांधत ? तिर्यंच मनुष्य नै देवनों, आयु नों बंध करत ? जिन कहै-गोयम नरक नों, आयु नों बंध करत । तिर्यच मनुष्य नै देव नों, आउ असण्णि बांधत ।। वा०—एतच्चासङ्ग्यायुः संबन्धमात्रेणापि भवति यथा भिक्षोः पात्रम्, अतस्तत्कृतत्वलक्षणसंबन्धविशेषनिरूपणायाह-- (वृ०-प०५१) नरक आयु बांधतो छतो, दश सहस्र वर्ष जघन्य । उत्कृप्टो पल्योपम तणों, असंख भाग बंध जन्य ।। तिर्यंच नों आयु वांधतो, जघन्य अंतमहत्त जाण । उत्कृष्टो पल्योपम तणों, असंख भाग बंध माण ।। मनुष्य तिर्यच तणीं परै, देवता नारकी जेम। वत्तिकार विस्तारियो, असंख भाग अर्थ एम। रत्नप्रभा चोथै पाथरे, मध्यम स्थिति छ एह। तठा तांइ असणि ऊपजै, आगे आयु अधिकेह ।। जघन्य आयु पहिलै पाथड़े, दश सहस वर्ष प्रमाण । उत्कृप्टो तिहां स्थिति कही, नेउ सहस्र वर्ष जाण ।। 'जघन्य स्थिति दूज पाथर्डे, नेउ सहस्र प्रमाण । उत्कृष्टी तिहां स्थिति कही, दश लक्ष वर्ष सुजाण । *लय-- राजा राणी रंग थी रे १. द्वितीय प्रतर की स्थिति के सन्दर्भ में जोड़ के साथ वृत्ति की संगति नहीं है। संभव है, वृत्ति में लिपि-दोष के कारण ऐसा हुआ है। ७, ८. असण्णी णं भते ! जीवे कि नेरइयाउयं पकरेइ ? तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ ? मणुस्साउयं पकरेइ ? देवाउयं पकरेइ? हंता गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ। ६.१०. नेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेइ । तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेइ। ११. मणुस्साउए वि एवं चेव, देवा जहा नेरइया। (श० ११११५) १२-१८. रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमाथि त्येति, कथम् ? यतः प्रथमप्रस्तटे दश वर्षाणां सहस्राणि जघन्या स्थितिरुत्कृष्टा नवतिः सहस्राणि, द्वितीये तु दश लक्षाणि जघन्या इतरा तु नवतिर्लक्षाणि, एषैव तृतीये जघन्या इतरा तु पूर्वकोटी, एव चतुर्थे जघन्या इतरा तु मागरोपमस्य दशभागः एवं चात्र पल्योपमासङ्खये य श०१, उ०२, ढा० १० १०१ Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागो मध्यमा स्थितिर्भवति, तिर्यसूत्रे यदुक्तं 'पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग' ति तन्मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्येति। (वृ०-५०५२) जघन्य स्थिति तीजै पाथ, दश लक्ष वर्प प्रमाण । उत्कृष्टी तिहां स्थिति कही, पूरव कोड़ पिछाण ।। जघन्य स्थिति चौथे पाथडे, पूरव कोड़ प्रमाण । उत्कृष्ट स्थिति सागर तणों, दशमो भाग पहिछाण ।। इण न्याय चोथै पाथड़े, पल्य नों भाग असंख्यात । मध्यम स्थिति में अपज, वत्ति माहै ए बात ।। तिर्यच मनुष्य माहै कह्यो, पल्य नों भाग असंख्यात । ते जगलिया आश्री जाणजो, असण्णी मर नै थात ।। असण्णी आयू बांध देव नों, ते भवनपती व्यंतर थाय । जोतिषी में वेमानिक में, असण्णी न ऊपज आय ।। हे प्रभु ! असण्णी रै आउखो, चिउं गति नों बंधाय । कुण-कुण अल्प बहुतपणं, तुल्य विशेषाधिक थाय?।। २१. जिन कहै-सर्व थोड़ो सही, असग्णी देवायू बांधत । तेह थी मनुष्य नों आउखो, संखेज्ज गुणो कहत ।। तेह थी तियन नो आउखो, असंखेज्जगुणो जाण । तेह थी नरक नों आउखो, असंखगुणो पहिछाण ।। वा०--इहां असण्णि पंचेंद्रिय तिर्यच मरी च्यारू गति में ऊपजै तेहना आउखा नीं अल्पबहुत्व में सर्व थोड़ो देवायु जे चउवीसमै शतके द्वितीय उद्देशे टीका में कह्यो। असण्णि तिर्यच कोड पूर्व आयुवंत मरी असुर में ऊपजै । ते उत्कृष्ट थी कोड पूर्व नों आयुखो पावै, उत्कृष्ट निज आउखा थी अधिक न पांम। ते माट इहां सर्व थी थोडो देव आयु कह्यो। तेहथी मनुष्यायु संख्यातगुणो । मनुष्य युगलियो हुवै ते माटै । तेह थी तियंच आयु असंख्यात गुणो, तिथंच युगलियो हुवै ते माट। तेहथी नरकायु असंख्यातगुणो, रत्नप्रभा नैं चौथे पाथडै मध्यम आउखै उपज ते माट। जिन वच सुण गोयम कहै, सेवं भते सेवं भंत । आप कह्यो तिमहीज छै, द्विर्वच आदरवत ।। बारे नौ अंक इहां कह्यो, प्रथम अंक शतक एस। दुजो अंक उदेशो अछ, शत प्रथम नों दूजो उद्देश ।। २५. दशमी हाल कही भली, कृष्ण कात्तिक एकादशी। भिवख भारीमाल परायथी, 'जय-जश'संपति सरसी।। प्रथमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।१।२।। २०-२२. एयरस णं भंते ! नरइयअसणिआउयस्स, तिरिक्ख जोणियअसण्णिआउयस्स, मणुस्सअसण्णिआउयस्स, देवअसष्णिआउयस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा ? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, तिरिक्ख जोणियअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइयअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे। (श० ११११६) २३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! (श० ११११७) १. अंगसुत्ताणि भाग २, श०१।११६ में देव असन्नी-आयुष्य से मनुष्य असन्नी-आयुष्य असंख्येयगुण अधिक लिया है। जयाचार्य ने जोड़ में संख्येयगुण अधिक कहा है। यह विसंगति प्रतीत होती है, पर अंगसुत्ताणि सूत्र के पाठान्तर में अ० क० ब० और म० प्रतियों में संखेज्जगुण लिया है । संभव है, जयाचार्य के पास इन्हीं प्रतियों में से कोई प्रति रही हो, इसलिए आपने संख्येय गुण का उल्लेख किया है। १०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ११ दूहा द्वितीय उदेशक अंत में, आय नो अधिकार । तसं बंध मोह छतै हुवे, हिव मोह नों विस्तार ।। १. द्वितीयोद्देशकान्तिमसूत्रेष्वायुविशेषो निरूपितः, स च मोहदोषे सति भवतीत्यतो मोहनीयविशेष निरूपयन् आह (वृत-प० ५२) २. जीवाण भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हे भदंत ! बहु जीव रा, कंखा - मोहणी कर्म । बांध्यो ते बहु काल नों, प्रथम प्रश्न ए मर्म ।। चिरकाल रहै करिबैज करि, कंक्ष कर्म निपजाय । चय उपचय नों पिण इमज, प्रथम प्रश्न कहिवाय ।। अन्य मत बंछा कक्ष ते, उपलक्षण थी जाण । संकादिक कहिवी इहां, मिथ्या-मोह पिछाण ।। ४. कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वालचास्य शङ्कादिपरिग्रहः, ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयं, मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः। (वृ०-५०५२) वा.-मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशिष्यते। (व०-५० ५२) ५. हंता कडे। (श ११११८) ६-६. से भंते ! कि १. देसेणं देसे कडे? २. देसेणं सब्वे कडे? ३. सब्वेणं देसे कडे ? ४. सव्वेणं सब्बे कडे? गोयमा ! १. नो देसेणं देसे कडे २. नो देसेणं सब्वे कडे ३. नो सव्वेणं देसे कडे ४. सव्वेणं सधे कडे। (श० ११११६) वा०--जीव नै मोहित करै तेहनै मोहनीय कहिये। इहां निकेवल मोहनीय कर्म किम नवि कह्यो ?कंखा शब्द किम जोड्यो? मोहनी नां दो भेद चारित्र मोहनीय, दर्शन मोहनीय ते इहां चारित्र मोहनी नों ग्रहण नहीं करवू ते माटै कंखा मोहनीय कह्यो। जिन भाखै हंता कडै हां कीधो ए कर्म । हिव गोयम च उभंग करि, पूछ एहनों मर्म ।। *हो जी प्रभु ! देव जिनेंद्र दयाल प्रते, गोयम भण रे लो ।(ध्रुपदं) ६. हो जी प्रभु ! जीव तणे इक देश, अंश तेणे करी रे लो। हो जी प्रभ! कंखा मोह नों देश, अंश कीधं धरी रे लो।। ७. हो जी प्रभ ! तथा जीव नै देश, अंश करि जाणिय। हो जी प्रभ! कंखा मोहनी सर्व, करयं इम माणियै ।। ८. हो जी प्रभ! सर्व जीव करि देश, कंख - मोह कृत इसो। हो जी प्रभ! सर्व जीव करि सर्व, कंख - मोह कृत जिसो।। है. हां जी शिप्य ! जिन कहै धुर विहं भंग, तिकै मिलता नहीं। हां जी शिप्य! सर्व जीव करि सर्व, कंख - मोह कृत सही ।। १० हा जी शिप्य ! इक समै बंधवा योग्य, कर्म जे दल अछ। हां जी शिष्य ! सर्व जीव प्रदेश तणो, व्यापार छै।। ११. हां जी शिष्य ! अल्प कर्म जो होय, तो पिण इम सांधिय। हां जी शिप्य ! चेतन ना परदेश, सर्व थी बांधिये ।। १२ हो जी प्रभु ! नारक कखा-मोह, कर्म कीधो जरे। हां जी शिष्य ! हता कोधू जाव, सब्वेण सब्वे कडे ।। १३. हां जी शिप्य ! जाब विमाणिक, दंडक चवीसै इसो। हो जी प्रभ ! प्रश्न हिवै विणकाल तणो कहिये तिसो।। *लय-अंबाजी सझ सौल शृगार के दर्शण दीजिय रे। १०. तदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां (वृ०-प० ५२) व्यापारः। १२. नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे? हंता कडे जाव सब्वेणं। (श० १११२०, १२१) १३. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियब्यो। (श० १।१२२) श०१, उ०३, ढा० ११ १०३ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. हो जी प्रभु जीव ! काले मोह कर्म, अतीत हां जी शिष्य ! हंता कृत इम जाय, विमाणिक लग १५. हो जी प्रभु! जीव कंसा-मोह वर्तमान काल हां जी शिष्य ! हंत कर इम जाव, विमानिक १६. हो जी प्रभु! जीव कंखा-मोह करसी काल हंता करसी एम, जाव एवं चिए पाठ चय हां जी शिष्य! करे 1 उच्चरै ॥ आगामिकं । वैमानिके ॥ सामान्य थी । चिण्या चिण नै चिणसी, ए त्रिहुं काल थी । एवं उपचिए उपचय, ए सामान्य थी। १७. हां की शिष्य हां जी शिष्य ! १८. हो जी शिष्य हां तेहवो ॥ हां जी शिष्य ! उपचिण्या उपचिर्ण उपचिणसी, विहं काल थी । ११. हो जी हा हां वृत्तिकार विस्तार कियो, छे एहवो । हां जी इहां चय - उपचय नो अर्थ, कियो छै २०. हां जी चय प्रदेश ने अनुभागादिकनी वृद्धि हां जी कांइ उपचय तेहिज, वार-वार पुष्टी २१. हां जी कांइ अन्य आचार्य, चय उपचय अर्थ इम कहै । हां जी कां चय कर्म पुद्गल उपादान — ग्रहण मात्र है ॥ २२. हां जी कांइ उपचय चयनों काल, आवाधा मुच्चवै । हां जी कांइ वेदन अर्थ निषेक, भणी ते उच्चवं ॥ २३. हांजी कांइ ते निषेक इम जाण, १०४ भगवती जोड़ स्थिति नै छै प्रथम दल भोगवै । हां जी कांड बहुत कर्म दल प्रते, भोगवं २४. हां जी कोई जे समय विशेष हीन हां जी कांइ तीज समय विशेष होन २५. हां जी कांइ इम यावत् उत्कृष्ट, स्थिति कर्म दलिक नै । दल अनुभवे ॥ इमज नैं ॥ हां जी कांद्र तावत् विशेष हीन, अनुभव २६. हां जी इम उदय न आव्या कर्म, तिकै J सुभ हां जी कांइ गया काल रे मांहि, उदीर्या २७. ही जी को वर्तमान ए कर्म, उदीरे खै हां जी कांइ उदीरस्यै वलि कर्म, अनागत २८. हां जी इम वेद्या वेदे वेदसी, काल हां जी कांइ निज्ज निज्जरे निज्जरसी, २६. हां जी कांइ जीव अने चउवीस, दंडक हां जी कांइ ए सगलाइ बोल, समय ३०. हां जी कड चित उपचित ना भेद, चउ-चउ हां जी कांइ उदीरि वेदि निज्जिण्णा, त्रिहुं त्रिहुं कियो ? लियो । चाव भाव रै त्रिहुं कर्म दल ने विधि करें। परं ॥ विषै । तिम्रै ॥ सूं । सूं ॥ सही । मही ॥ मही । सही ॥ ऊपरं । ऊचरै ॥ आणिये। जाणिये ।। १४. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्म करिसु ? हंता करि ( श० १११२३) एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो, जाव वेमाणियाणं । (STO PPPRX) १५. एवं करेंति । एत्थ वि दंडओ जाव वैमाणियाणं । (πTO EIERE) १६. एवं करिस्संति । एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं । (TO (1880) १७, १८. एवं चिए, चिणिसु, चिणति, त्रिणिस्संति । उवचिए, उवचिणिसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति । ( ० १९२०) २०-२२. नवरं चय:- - प्रदेशानुभागादेर्वर्द्धनम् उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन अन्ये त्वाहुः चयनं कर्म्म पुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं तु चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थं निषेकः । ( वृ० प० ५३) २३-२५. स चैवम् प्रथमस्थिती बहुत कर्मदनिक निषियति ततो द्वितीयाया विशेषन एवं पाव दुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति । ( वृ० प० ५३ ) २६, २७. उदीरेंसु, उदीरेंति, उदीरिस्संति । २८. वेदेंसु, वेदेति वेदिस्संति, निज्जरेंसु, निज्जरेंति निज्जरिस्संति । (श० ११२५ ) ३०. कड- चिय उवचिय, उदीरिया वेदिया य निज्जिण्णा । आदितिए मेदातियभेदा पण्डिमा निशि ।। ( श० १११२८ संगहणी-गाहा ) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. हां जी कांइ वृत्तिकार कह्य, कड चित उपचित नां सही। हां जी काइ च्यार-च्यार तसं भेद, विशेषपणे लही ।। ३२. हां जी काइ उदीरि वेदित निज्जर तणां विहं आखिया। हां जी काइ किण कारण पहिछाण, च्यार नहिं भाखिया?।। ३३. हां जी कांइ कड चित उपचित कर्म, काल बहु पिण रहै। हां जी ते चिरकाल आश्री अधिक, त्रिकाल थकी कहै ।। ३४. हां जी काइ उदीर वेदि निज्जिण्ण, काल बहु नां रहै। हां जी धुर सुचिर क्रिया नवि कही, त्रिकाल क्रिया लहै ।। ३५. हां जी कांइ कंखा-मोह पिछान, पूर्व वेदै कह्यो। हां जी हिव ते वेदन नों अर्थ, प्रस्ताव इहां लह्यो। ३६. हो जी प्रभु ! कंखा-मोहणी कर्म, जीव वैदे अछै? । हां जी शिष्य ! हंता वेदै, हिव कारण गोयम पृछै ।। ३७. हां जी कांइ पूर्व कियो ए प्रश्न, वली किण कारण ? हां जी काइ वेदन तास उपाय, अर्थ चित धारण ।। ३८. हां जी काइ पूर्व भण्यो पिण तेह, वली पाछो भण। हां जी कांइ तिहां कारण छै कोय, दोष नहि छै तिण ।। ३१-३५. नन्वाद्ये सूत्रत्रये कृतचितोपचितान्युक्तानि उत्तरेष कस्मान्नोदीरितवेदितनिर्जीर्णानि? इति, उच्यतेकृतं चितमुपचितं च कर्म चिरमप्यवतिष्ठत इति करणादीनां त्रिकालक्रियामात्रातिरिक्तं चिरावस्थानलक्षणकृतत्वाद्याश्रित्य कृतादीन्युक्तानि, उदीरणानां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकालत्तिना क्रियामाघेणव तान्यभिहितानीति। जीवाः कांक्षामोहनीयं कर्म वेदयन्तीत्युक्तम्, अथ तद्वेदनकारणप्रतिपादनाय प्रस्तावयन्नाह (वृ०-५०५३) ३६. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति? हंता वेदेति। (श० १११२६) ३८. पुब्वभणियंपि पच्छा जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि। पडिसेहो य अणुन्ना हेउविसेसोबलंभो ति॥ (वृ०-५० ५४) ३६-४१. कहणं भंते ! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा ! तेहि तेहि कारणेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिछिया, भेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना—एवं खलु जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति। (श०१।१३०) ३६. होजी प्रभ! किम वेदे ए कंख ? ताम जिन कहै फिरी। हां जी शिष्य ! पाखंड परिचय तेण-तेण कारण करी।। ४०. हां जी शिष्य ! शंका जिन-वच मांहि, कंख अन्य वांछवै । हां जी वितिगिच्छा फल-संदेह, भेद मति-भंग हुवै ।। ४१. हां जी शिष्य ! कलुष एम ए नहीं, बुद्धि विपरीतता। हां जी शिष्य ! इण कारण करि जीव, मिथ्या-मोह वेदता ।। ४२. हो जी प्रभु ! तेहिज सत्य निशंक ? प्रभु जे भाखियो। हां जी शिष्य ! हंता तेहिज सत्य निशंक जे जिन आखियो। ४२. से नूणं भंते ! तमेव सच्चं णीसंक, जं जिणेहि पवेइयं? हंता गोयमा ! तमेव सच्चं णीसक, जं जिणेहि पवेइयं । (श० १११३१) ४३-४५. से नूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिट्ठमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति? हंता गोयमा ! एवं मणं धारेमाणे जाव भवति । (श० १।१३२) ४३. हो जी प्रभु ! इम धरतो तज शंक, चित्त नै स्थिर करै। हो जी प्रभु ! एम पकरतो, अनुत्पन्न हिवडै धरै।। ४४. हो जी प्रभु ! उक्त न्याय कर, मन चेष्टा रहितो छतो। हो जी प्रभु ! इम संवरतो, अन्य मत सू मन निवर्ततो।। ४५. हो जी प्रभु ! आण-आराधक-आज्ञा-पालक ते हुवे। हा जी शिष्य ! हंता इम मन धरतो, जाव आराधक जुवै ।। ४६. हां जी कांइ अंक तेरनो देश, धन्न त्रयोदशी मुखी। हां जी भिक्षु भारीमाल ऋषराय थकी 'जय-जश' सुखी ।। ४७. हां जी कांइ एकादशमी ढाल, रसाल कही भली। हां जी कांइ उगणीस उगणीस, सुजाण सुरंगरली ।। श०१, उ०३, ढा० ११ १०५ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १२ सोरठा जिन-वच सत्य तद्र प, वस्तु परिणाम थकी हुवै। तेहिज वस्तु-स्वरूप, प्रश्न तास परिणाम हैं । १. एतच्च जीवानां कांक्षामोहनीयवेदनमित्थमेवावसेयं, जिनप्रवेदितत्वात्, तस्य च सत्यत्वादिति तत्सत्यतामेब दर्शयन्नाह--- दूहा वस्तु छती छतापणे, परिणामै हे भगवंत ? । जे वस्तु अछती अछ, अछतापण परिणमंत? ।। जिन कहै-हता जाव ते, अछतापण परिणमंत । अस्ति सर्व स्वरूप करि, पर - रूप नास्ति हंत ।। अंगुली में अंगुली तणो, छतापणों कहिवाय । अंगुली में अंगुष्ठ नो, अछतापणोज थाय ।। २, ३. से नूणं भंते ! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ ? नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा ! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ । नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ । (श० १२१३३) ४. अस्तित्वं-अंगुल्यादेः अंगुल्यादिभावेन सत्त्वं, नास्तित्वम्-अंगुल्यादेरंगुष्ठादिभावेनासत्त्वं । (वृ०-५० ५५) ७, ८. 'जणं' भंते ! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तं कि पयोगसा? वीससा? गोयमा ! पयोगसा वि तं। बीससा वि तं। (श० १३१३४) ९-११. जहा ते भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? अंगलीपणों अंगुली विषै, ए छतो छतापण जोय । अंगुली विष अंगुष्ठ नहीं, तिहां अंगुष्ठ नास्ति होय ।। अस्तिभाव कह्या तिके, परिणमै अस्ति - भाव । नास्तिभाव नास्तिपणे, परिणमै ए वर न्याव ।। जे भदंत ! वस्तु छती, छतापणे परिणमेह । अछती ते अछतापणे, प्रयोग? स्वभाव ? एह ।। वीर कहै-सुण गोयमा!, पओगसा पिण जाण। ते जीव तणां व्यापार करि, स्वभाव थी पिणमाण ।। हे भदंत! ते तुम मते, जिम अस्तिपणो जाण । अस्तिपणां विषैज ते, परिणमै छै पहिछाण ।। तिमहिज ते ताहरै मते, नास्तिपणं विचार। नास्तिपणां विर्षज ते, परिणमै ए अधिकार ।। जिम तुम मते नास्तिपणु, नास्तिपणे परिण माय । तिम तुम मते अस्तिपणुं, अस्तिपणेज थाय।। हंता जिम मुझ मत विषै, अस्तिपणु जाण । अस्तिपणां विषैज ते, परिणमै छै पहिछाण ।। तिमहिज मे माहरै मतै, नास्तिपण विचार । नास्तिपणां विषैज ते, परिणमै ए अधिकार ।। जिम मम मते नास्तिपणं, नास्तिपणं परिणमाय । तिम मम मते अस्तिपणुं, अस्तिपणेज थाय ।। हे भदंत! आस्तिकपण, आस्तिकपणेज जेह। पर नै कहिवा योग्य छ, छती नै छती कहेह ।। १२-१४. हंता गोयमा ! जहा मे अस्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा ने नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्थित्त नत्थित्ते परिणमइ, तहा मे अत्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ। (श० १११३५) १५. १५, १६. से नणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्ज? जहा परिणमइ दो आलावगा तहा गमणिज्जेणवि दो आलावगा १०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. १७. १८. १६. २०. २१. जिम परिणमया ना कथा, दो आलावा भाव । तिम पर ने कहिया तथा भगवा दो आलाव' ।। हे भदंत ! जिम तुझ मते, स्व शिष्य ने कहिवाय । तिम पाखंडी ग्रहस्थ नैं तुझ मते कहिया ताय । जिस पाखंडी पस्थ ने तुझ मत कहिवाताव तिम तुझ मत स्व शिष्य ने कहिया हे जिनराय ! हंता जिस म्हारे मर्त स्व शिष्य ने कहिवाय । तिम पाखंडी प्रहस्थ ने मुझे मत कहिताय ॥ जिम पाखंडी पहस्थ नं, म्हारे मत कहिवाय तिम मुझे मत स्व शिष्य नै, कहिवूं ए वर न्याय || कक्षा-मोहनी कर्म नोवेदन भारूपो साम हिव तेनाइज बंध को पूछे गोतम 1 स्वाम || २२. हो जी प्रभु! कक्षा-मोहणी कर्म, जीवड़ला स्यूं बांधे ? म्हारा स्वाम | हां रे चला ! हंता बांधे छे जीव उत्तर जिनी सांधे थे। म्हारा शीट ।। २३. हो जी प्रभु ! कंक्षा मोहनी कर्म, किण-विध बांधे छे जीवा ? हां रे गोतम ! प्रमाद जोग निमित्त बंध नु ए कारण कहीया ॥ २४. हरे मुगणा! अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी 1 हां रे सुगणा! अशुभ- जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न बांधी ॥ २५. हो जी प्रभु ! किन सू प्रवर्त्ती प्रमाद ? अथवा किण सेती उपजै । हां रे चेला ! जोग थी प्रवत्तं प्रमाद, ते अशुभ जोग थी निपजै ॥ २६. हो जी प्रभु! कि जोग ? जिन कहै बीयं उप्पलं । हां रे बेला ! वीर्य अंतराय क्षय चाय, अथ क्षय उपशम- निष्पन्नं ॥ २७. हो जी प्रभु ! किण सूं प्रवत्त वीर्य, जिन भाखै तनु सूं देती । हां रे सुगणा! वृत्तिकार को एम. ते निर्माणो तन-मन सेती ॥ २८. हां रे सुगणा! वीर्य तणा युग भेद, सकरण अकरण सोइ । हां रे सुगणा! अकरण वीर्य संवेद, अशी अवस्था जोइ || २९. हो रे सुगणा! योगी ने होय, जे आत्म-शक्ति अभिरामं । हां रे सुगणा! ते अकरण- वीर्य जोय, ते इहां न ग्रहितुं तामं ॥ १. अंगसुत्ताणि भाग १ श० १११३७, १३८ के स्थान में जाव की पूर्ति की गई है। अन्य आदर्शों में 'दो आलावा भाणियव्वा' कहा है। इसलिए अंगसुत्ताणि के दो सूत्रों की स्वतंत्र जोड़ प्राप्त नहीं होती। * लय- हां जी साहिबा ! गोरी में मोत्यां जितरो भार भाणियव्वा जाव तहा में अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं । (श० १११३६-१३८ ) १७, १८. जहा ते भंते ! एत्थं गमणिज्जं, तहा ते इहंगमणिज्जं ? जहा ते इहं गमणिज्जं, तहा ते एत्थं गमणिज्जं ? १६, २०. हंता गोयमा ! जहा मे एत्थं गमणिज्जं जाव तहा मे एत्थं गमणिज्जं । (ore 20220) २१. कांक्षामोहनीय कर्मवेदनं सप्रसङ्गमुक्तम् अथ तस्यैववन्धमभिधातुमाह(२०-१०५६) २२. जीवा भंते! मोहविं कम्म बंधति ? हंता बंधति । ( ० २०१४०) २३. मंते ! जीवा कंखामीणिस्तं कम्म बंधति ? गोयमा ! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च । (०२१४१) २५. से णं भंते! पमादे किपवहे ? गोमा ! जोग २६. से णं भंते! जोए किपवहे ? गोमा मरिहे। (०२१४२) (२० १०९४६) २६. यी नाम नीति रायकर्मक्षयोपशमुख जीव परिणामविशेष (२०-१०५०) २७. से पां मते ! वोरिए किन ? गोमा ! सर ( श ० १ | १४४) २८-३१. वीर्यं द्विधासकरणमकरणं च तत्रालेश्यस्य केवलिनः कनयोपस्यो केवलं ज्ञान दर्शन भोप जनस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतियो परिणामविशेषस्तदकरणं तदिह नाधिक्रिपते, यस्तु मनो श० १, उ० ३, ढा० १२ १०७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. हां रे सुगणा! सलेसी जीव नो सोय, मन वच काया साधन थी । हां रे सुगणा! आत्म-व्यापार के होय ते सकरण दीर्य सुगम थी। ३१. हां रे सुगणा! सकरण वीर्य नों जाण, उत्पादक शरीर शेर। हो रे सुगणा! तिण कारण थी पिछाण यी तनु प्रय जोड़ ॥ ३२. हां रे सुगणा! किण सूं प्रवर्त्ती शरीर ? जिन कहै चेतन थी जाणी । हां रे सुगणा! प्रश्नोत्तर शुभ सीर, किया वीर गोयम गुण-खाणी ॥ इस कंक्षा बंधक छर्त जो उठा को चा ३३. हा रेचेला ! हां रे चेला ! ३४. हां रे चेला ! वीर्य जीव ओछाह, वलि हो रे बेला ! पराक्रम ते जाण कार्य , कर्म गमनादिक जाण, दल ३५. हां रे सुगणा! कंक्षा-मोह वेदन बंध, आयो हां रे सुगणा! उदीरणादिक तास, प्रश्न नै तनु सामर्थ्य भावूं || पुरुषकार अभिमानं । संपूर्ण १०८ भगवती जोड़ हेतु हिव करें ३६. हो जी प्रभु! आपण जे जीव उदी हो जी प्रभु ! अतीत काल कृत निद पोते ३७. हो जी प्रभु! पण पोईज न संवरै हां रे चेला ! हृता पोतेज उदीर, निदै ३८. हां रे सुगणा! हिवे उदीरणा जाण, पूछे हो जी प्रभु ! जे पोतेईज उदीरे, पोते ३६. हो जी प्रभु ! ते उदय आया ने उदीर, उदीरे हां जी अथवा उदयन आयो कर्म उदीरण ४०. हो जी स्वामी ! उदय आया पछे जेह, अनंतर हां जी सुगणा ! प्रश्न पूछया ए च्यार, उत्तर ४१. हरेला ! उदय आयो जे कर्म तेहने हां रे गोयम ! उदय न आयो कर्म, ते पिण् ४२. हां रे गोयम ! उदय नायो उदीरणा योग्य, उदीरं हां हो रे गोयम ! उदय आय अनंतर समय, उदीरं छे ४३. हां रे सुगणा! वृत्तिकार का एम, कार्य उदीरण हां रे सुगणा! गर संवरे पूछा मांहि आया किम के ४४. हां रे सुगणा! उदीरणा रे मांहि, ग 2 संवरण हां रे सुगणा! बहुलपणे विहुं होय, पूछा में ४५. होणी प्रभु! उदयन आयो कर्म उदीरण आतम करि रूडी कंक्षा रोहित संवरै गोतम करि जिन निर्दे उदय योग्य समय तिण योग्य ठाणं ॥ सहीत । रीतं ॥ नर्म ॥ वर्तमानं । कर्म । इम देव उदीर न उदीरं ते कर्म ए सुजान ॥ उत्तर । संवर ॥ न आयो । कहायो ? उदीरं ? वीरं ॥ नाही। त्यांही ॥ त्यांही । नांही ॥ केरा । अधिकेरा ? उपायो। सूं आयो || करि हो जी प्रभु! उदीर ते नर्म स्यूं उठाणे ४६. हो जी प्रभु ! वल वीर्यं पुरुषाकार, उदीरें पराक्रम सूं ? हो जी प्रभु ! अथवा उठाणादिक विण जाण, उदीरै नियति नियम से ? कहायो । पायो ? वाक्कायकरण साधनः सलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्य तच्च शरीरप्रवहं शरीरं विना तदभावादिति । (४०-१० ५७) ३२. से णं भंते! सरीरे किपवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे । (० ११४५) ३३, ३४. एवं सति अस्थि उट्ठाणेइ वा कम्मेइ वा बलेइ वा, वीरिएइ वा पुरिसक्का रपरक्कमेइ वा । ( श० १११४६ ) ३५. कांक्षामोहनीयस्य वेदनं बन्धश्च सहेतुक उक्तः, अथ तस्यैवोदी रणामन्यच्च तद्गतमेव दर्शनाह( वृ० प० ५७ ) ३६, ३७. से नूणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेति ? अप्पणा चेव गरहति ? अप्पणा चेव संवरेति ? हंता गोयमा ! अप्पणा चेव उदीरेति । अप्पणा चेव गरहति । अप्पणा चेव संवरेति । (० १०१४७) ३८-४०. 'जं णं' भंते! अप्पणा चेव उदीरेति, अप्पणा चेव गरहति, अप्पणा चेव संवरेति तं किं १. उदिणं उदीरेति १२. अधिणं उदीरेति ? ३. अणुदिष्णं उदी रणाभवियं कम्मं उदीरेति ? ४. उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेति ? ४१, ४२. गोयमा ! १. नो उदिष्णं उदीरेति २. नो अणुदिण्णं उदीरेति ३. अणुदिष्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेति ४. नो उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेति । ( श० १११४८ ) ४५, ४६. जं णं भंते ! अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति तं कि उट्ठा कम्मे लेणं, वीरिएणं, पुरिसरकार परक्कमेणं अणुदिष्यं उदीरणाभविय कम्मं उदीरेति ? उदाहु तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिष्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेति ? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खा। ४७. हां रे चेला! उठाण कर्म बल आदि, तेहथी उदीरण होयो। ४७. गोयमा ! तं उट्ठाणेणं वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिहां रे चेला! उठाणादिक विण तास, उदीरण न ह कोयो ।। एण वि, पुरिसक्कार-परक्कमेण वि अणुदिण्णं उदी रणाभवियं कम्मं उदीरेति । णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेति। (श० १२१४६) ४८. हां रे सगणा ! वृत्तिकार का एम, उदीरण प्रमुख मांही। ४८, ४६. इह च यद्यप्युदीरणादिषु कालस्वभावादीनां हां रे सुगणा ! कारण काल स्वभाव, तो पिण ते न क ह्यो त्यांही।। कारणत्वमस्ति तथापि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव ४६. हां रे सगणा ! प्रधानपण पिछाण, उदीरण केरो कारण । कारणत्वमुपदर्शयन्नाह- (वृ०-५० ५६) हां रे सुगणा ! पुरुष-वीर्य इज होय, ते माटे एहन धारण । ५०. हां रे चेला! इम उठाणादिक करि जेह, उदीरण छतैज जाणी। ५०. एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, हां रे चेला! उठाण कर्म बल वीर्य, प्रमुख सह छै इम ठाणी। वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। (श० १११५०) ५१. हां रे सुगणा ! कक्षा-मोहनी एह, उदीरण एतो आखी। ५१. कांक्षामोहनीयस्योदीरणोक्ता, अथ तस्यैवोपशमनमाहहां रे सुगणा! हिव तसु उपशम भाव, कहियै छै सूत्रे साखी।। (वृ०-५० ५६) ५२. हो जी प्रभु ! कक्षा-मोहनी कर्म, उपशमाबे पोते स्वामी? ५२, ५३. से नूणं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेइ ? अप्पणा चेव हो जी प्रभु ! गर है संवरै पोत इज ? हंता कहै अंतरजामी ।। गरहइ ? अप्पणा चेव संवरेइ ? ५३. हा रे सुगणा! च्यारूं प्रश्न उत्तर इमहीज, णवरं छै इतो विशेष । हंता गोयमा ! एत्थ वि तह चेव भाणियव्वं, नवरं अणुहां रे चेला! उदय नायो उपशमाय, नहीं छै विहं भंगा शेषं ।। दिण्णं उवसामेइ सेसा पडिसेहेयव्वा तिण्णि । ५४. हो जो प्रभ ! उदय नायो उपशमावै, उठाणादिक थी त्यांही। ५४. जं तं भंते ! अणुदिण्णं उवसामेइ तं कि उट्ठाणेणं जाव हां रे चेला! जाव पूर्ववत् पाठ, उठाणादिक विण नांहि ।। पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। ५५. हो जी प्रभ ! कांक्षा-मोहनी कर्म, आपणपै वेदै स्वामी! ५५-५७. से नूणं भंते ! अप्पणा चेव वेदेइ अप्पणा चेव गरहइ हो जी प्रभु ! गरहै संवरै पोतेइज, हता कहै अंतरजामो।। एत्थ वि सच्चेव परिवाडी, नवरं उदिण्णं वेदेइ नो अणु५६. हा रे सुगणा च्याथं प्रश्न उत्तर इमहोज, णवरं छै इतो विशेषं । दिण्णं वेदेइ एवं जाव पुरिसक्कार-परक्कमेइ वा । हां रे चेला! उदय आयो वेदंत, नहीं छै त्रिहं भंगा शेषं ।। ५७. हो जी प्रभु ! उदय आयो बेदंत, उठाणादिक थी त्यांही। हां रे चेला ! जाव पूर्ववत् पाठ, उठाणादिक विण नाही।। ५८. हो जी प्रभ ! कक्षा - मोहनी कम, पोतेज निज्जर स्वामी। ५८-६०. से नूर्ण भते ! अप्पणा चेव निज्जरेइ अप्पणा चेव हो जी प्रभ ! गरहै संवर पोतैईज, हता कहै अंतरजामी।। गरहइ, एत्थ वि सच्चेव परिवाडी, नवरं उदयअणंतर५६. हां रे च्याथं प्रश्न उत्तर इमहीज, णवर छै इतो विशेष । पच्छाकडं कम्म निज्जरेइ एवं जाव परक्कमेइ था। हां रे चेला ! उदय अनंतर समय निज्जर, नहीं छै त्रिहुं भंगा शेष ।। (श०१११५१-१५४) ६०. हो जी प्रभु ! उदय अनंतर समय निज्जर, उठाणादिक थी त्यांही । हां रे चेला ! जाव पूर्ववत् पाठ, उठाणादिक विण नाही ।। ६१. हां जी सुगणा! कक्षा-मोहनी कम, बेदन प्रमुख निज्जरंत। ६१. अथ कांक्षामोहनीयवेदनादिकं निर्जरान्तं सूत्रप्रपंच हां जी सुगणा ! नरकादि दडक विचार, त आश्री प्रश्न उदंत । नारकादिचतुर्विशतिदण्डकैनियोजयन्नाह (वृ०-प०५६) ६२. हो जी प्रभु ! नेरइया कक्षा-मोह कर्म, वेद ए प्रश्न उदारा। ६२. नरइया ण भते । कखामोहणिज्ज कम्म वेदेति । जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया जाव थणियकुमारा। हां रे चेला ! जीव औधिक जिम नरक, इम यावत् थणियकुमारा।।। (श० १३१६३) श०१, उ०३, ढा०१३ १०६ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. हो जी प्रभु ! पृथ्वोकाइया जीव, कंक्षा-मोह कर्म वेदै छ। ६३. पुढविक्काइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति ? हां रे चेला ! हंता वेदै जेह, उत्तर इम जिन जी कहै छै ।। हता वेदेति। (श० १।१६४) ६४. हो जी प्रभ ! पृथ्वीकाइया जीव, कंक्षा-मोह किण विध वेदै ? ६४, ६५. कहणं भंते ! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्ज कम्म हां रे गोयम ! तर्क, ज्ञान, बुद्धि नांहि, मन वच पिण नहीं उमेदै ।। वेदेति ? ६५. हां रे चेला! वेदां अम्हे कंक्षा-मोह, तर्कादिक नहीं तसं एहवं । गोयमा ! तेसि णं जीवाणं णो एवं तक्का इ वा, सण्णा हां रे गोयम ! पिण वेदै छै तेह, निश्चै तूं जाण तेहळू ॥ इवा, पण्णा इ वा, मणे इ वा, वई ति वा-अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्म वेदेमो, वेदेति पुण ते। (श० १११६५) ६६. हो जी प्रभु ! तेहिज सत्य निसंक, जिन भाख्यं जे छै तिम ही। ६६. से नूणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंक, जं जिणेहिं पवेइयं ? हां रे गोयम ! जाव प्राक्रम छतै एम, जावत् चरिंदी इम ही। हंता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । सेस त चेव जाव परक्कमेइ वा। एवं जाव चउरिदिया। (श० १११६६, १६७) ६७. हां रे चेला! पंचद्री तिर्यच पिछाण, जावत वेमानिक ताई। ६७. पचिदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया हां रे चेला! जीव औधिक जिम जाण, सगला पद कहिवा ज्यांही॥ जीवा। (श० १६१६८) ६८. हां रे सुगणा! अंक तेर नों देश, द्वादशमी ढाल रसाली। हां रे सुगणा! भिक्खु भारीमाल ऋषराय, जय-जश'सपति सुविशाली।। ढाल : १३ कक्षा - मोहनी वेदवं, कह्या दंडक चउबीस । निग्रंथ नै पिण हकदा, ते हिव प्रश्न कहीस ।। श्रमण निग्रंथ पिण हे प्रभु ! कंक्षा-मोहणी कर्म । वेदै छ ? हंता अत्थि, ए जिन-वचन सपम ।। हे भदंत ! किण विध अछ, श्रमण निग्रंथ नै जोय । कक्षा-मोह नै वेदव, हिव जिन उत्तर होय ।। तेण-तण कारण करी, तेर अंतरे जाण । कारण कक्ष-वेदन तणो, कहिये हिवै पिछाण ।। २. अत्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ?हंता अत्थि। (श०१।१६६) ३. कहणं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्म वेदेति? तेर अंतरा नो अरथ, कियो धर्मसी ताय । केतलंक ते मांहिलु, कहियै छै वर न्याय ।। णाणतरेहि पाठ ए, प्रथम अंतरो जाण । समझ पड्यां विण एहनो, आंण भम अयाण ।। ७. *एक ज्ञान थकी बीजो ज्ञान, तिण में आंतरू पडतूं पिछान। शंकादिक ऊपजै तिण मांय, तिण ने णाणतर कहिवाय ।। *लय-जेहनी मोंजा भेदाणी ७-१०. एकस्माज्ज्ञानादन्यानि ज्ञानानि ज्ञानान्तराणि तैर्ज्ञानविशेषैर्ज्ञानविशेषेषु वा शङ्किता इत्यादिभिः संबंधः, एवं ११० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वत्र, तेषु चैवं शङ्कादयः स्युः–यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन संङ्ख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत्किमपरेण मनःपर्यायज्ञा (वृ०-५०६०) नेन? ८. जिम तीजू अवधि ज्ञान माण, सर्व लोक रूपी द्रव्य जाण । ते जाणे मन ना पिण पर्याय, तो चोथो मनपज्जव किण न्याय ?।। ६. अथवा मनपज्जव थी जोय, असंख्यातगुणो अवलोय। अधिक क्षेत्र रूपी द्रव्य जाणे, एहवो अवधि कह्य जगभाणै ।। १०. मनपज्जव थी इतो जाण नाहीं, तो इणनै चोथै ठांम सूत्र मांही। अधिक ज्ञान माहै आण्यो, तेहनो स्यूं प्रयोग पिछाण्यो ? ।। ११. इम ऊपने छत संदेह, शंका कंखा वितिगिच्छा आणेह । भेद-कलुष-समापन्न पांम, ए संका तणो छै ठाम ।। १२. *मनपर्यव थी सामान्य अवधि ए, परम दष्टि करि पेखिये। लघु अवधि जघन्य आंगुल तणो, असंख्यातमों भाग देखियै ।। १३. अविरति समदृष्टि नरक, तिर्यंच में पिण ए लहै। गति च्यार में पिण ऊपजै, ते भणी अवधि सामान्य है ।। १४. मनपर्यव तो धुर थीज मोटो, पैंतालीस लक्ष जोजनं । अढी आंगुल ऊण छै ते, जघन्य पिण मोटो धनं ।। १५. मुनि लब्धवत बिना न उपजै, ते भणी इम न्हालियै । अवधि थी मनपर्यव मोटो, शंक इह विध टालिय।। दूहा दसणंतरेहिं दूसरो दर्शण अंतर देख । एहमें पिण समज्यां विना, आंणै भर्म अशेष ।। यतनी १७. दर्शण सम्यक्त्व श्रद्धा सुद्ध, दश बोल में इक न विरुद्ध । तो वलि उपशम प्रमुख पच, सम्यक्त्व जुदा कह्या ते स्यूं संच ।। १८. उपशम बडो क ह्यो किण न्याय, क्षयोपशम बडो किम न कहिवाय? कांयक क्षय कांयक उपशम, तसं कहियै सम्यक्त्व-क्षयोपशम ।। १६. मिथ्या मोहनी जे उदय आवी, ते कर्म दल तेण खपावी। अनै उदय नावी ते उपशमावी, ए सम्यक्त्व क्षयोपशम कहावी ।। २०. अन उपशम सम्यक्त्व ताय, सर्व दर्शण - मोह उपशमाय । दर्शन - मोह रो एक प्रदेश, उदय मांहि नहीं लवलेश ।। २१. तो जे उदय आवी ते खपावी, ते आश्री क्षयोपशम अधिकावी। उपशम सम्यवत्व अधिक किण न्याय ? इत्यादिक शंका मन माय ।। २२. *क्षयोपशम गुणठाण तुर्य थी, सातमां लग ए हुवै। इक भव संख्याती वार आवै, प्रदेश मिथ्या अनुभवै ।। *लय --पूज मोटा भांज टोटा श०१, उ०३, ढा०१३ १११ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. २४. २५. २८. यतनी २६. नव भंगे करीने जाण, सर्व अव्रत नों ते सर्व चारित्रयम, तो वल पांच चारित्र २७. तथा सामायक छेदोपस्थापन्न, उच्चार तसुं समव्यापन्न । पंच आश्रव त्याग समाज, तो ए जुदा कह्या किण काज ? || २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. उपशम चउथा थी इग्यारम दर्शन मोहनों जाणिये । इक प्रदेश पण नांहि वेदं सर्व उपशम ठाजिये ॥ इक भव मध्ये उत्कृष्ट थी, उपशम वार बे आवियै । इत्यादि गुणकरण अधिक छै ए, इम संदेह निवारिये ॥ ३५. चूहा चरितंतरेहि पाठ ए, तीजो अंतरी जाण । चारित्र में अंतर गिणी, आणे संक अयाण ।। * जूजूआ चरण परिणाम वस थी, दशम गुणठाणं वरण | चरित सूक्ष्म संपरायज, ग्यारमै उपशम-चरण ।। पचखाण | कथा केम || द्वादशम तेरम चवदमं गुणठाण क्षायक चरण है । क्षयोपशम उपशम ने क्षय, चारित्र मोह नुं करण है । महाविदेह ने बावीस जिन मुनि, चरण सामाधक अछे । सरल नै बलि विमल प्रज्ञा, छेदोपस्थापन वलि न छै ।। प्रथम चरम जिन त धुर, सामायक अल्प काल ही । जघन्य सप्त दिन, मास षट उपरंत उत्कृष्ट न्हाल ही ।। वलि छेदोपस्थापन उचर, अल्प प्रज्ञा ते भणी । सातियार ने निरतिचार, ये भेद इस शंका हणी ॥ तेवीसमां जिन तणां मुनि, आवंत चरम जिन वार ए । इम नवदीक्षित छेदोपस्थापन, रीत निरतिचार ए ।। उभय जिन मुनि व्रत भंग, फिरि सामायक नवि धारए । छेदोपस्थापन आदर, ए कहा अतिचार ए॥ दूहा लिंगंतरेहि पाठ ए. चौथो अंतरी जाण लिंग अंतर अवलोक नै, आगे भर्म अवाण ।। ११२ भगवती जोड़ यतनी ३६. बावीस जिन मुनि महाविदेह खेत यस्त्र पंच रंग न मानोपेत । प्रथम चरम बारे श्वेत मान, अंतर सूं भर्म आण अजान || * लय-पूज मोटा भांज टोटा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. * बावीस जिन मुनि महाविदेह ऋषि, सरल प्रज्ञा नां धणी । प्रथम ऋजु-जड चरम वक्र-जड़, लिंग फेर इम भ्रम हणी ।। ३८. यतनी ३६. प्रवचन सिद्धांत में कह्या ताम, च्यार जाम तथा पंच जाम । एहवो समय अंतर अवलोय, शंका कंक्षा आण मूढ कोय ।। ४०. प्रथम जिन मुनि ऋजु जड जाण, चरिमना वक्र-जड पिछाण । + विचला जिन मुनि ऋजु प्रज्ञावंत, तिगड पंच जाम कहते ।। ४१. तथा पन्नवण चथा पद मांहि प्यार अनुत्तरविमान में ताहि । सुर नीं जघन्य स्थिति जगीस, आखी सागर इकतीस || ४२. समवायांग तीस में वाय, सुर प्यार अनुतर मांय केसलाएक सुर नीं जगीत स्थिति आखी सागर बत्तीस ॥ ४३. इहां शंका आणै मन कोय, तेहनों उत्तर ए अवलोय । पहिछाण, स्थिति बत्तीस सागर जाण‍ ॥ अण, मल्लिना मुनि अवधि सुश्रेण । हजार, मनपर्यव आठ सौ सार || महार अवधिज्ञानी गुनसठ सौ उदार सतावन सौ मनपर्यवनाणी, ए शंका नो हिव उत्तर जाणी ।। ४६ नंदी में अवधि पट प्रकार, वे प्रकार मनपर्यव सार । ह्या ते पण सत्य जोय, थोडा ते एक जाति ना होय || कोइ सेज्या दिये ४४. तथा ज्ञाता आठमै हद आख्या है दोय ४५. अनं समवायांग सूत्र ४७. ४८. दूहा परेहि पंचम प्रवचन सिद्धांत मोहि अंतरदेखी -मति शंका आ ताहि ॥ " ४९. ५०. वहा पावयणंतरेहिं छठो को प्रवचन सूत्र जोय । तेहनां जाण जे बहुश्रुती, तसुं कहण में अंतर होय || यतनी जिम स्थविर पाय ना प्यार उत्तर जुआ दिया उदार । पूर्व तप पूर्व संजमेण कम्मिया संगियाए तेण ।। 3 "सिए उत्तर के सुर आयुबंध विद्याणियं । सराग मध्ये आयु बंधे ए परमार्थ जाणिये ॥ तप सराग सराग-संजम रह्या कर्म खपावता । सरागछतां सुर आयु बंधे, मुदो इक इम भाखता । *लय-पूज मोटा भांज टोटा - 1 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपंतरेहि पाठ ए, सप्तम अंतर जोय। कल्प में अंतर देख नै, शंका आणे कोय ।। यतनी ठियकल्प अट्ठियकल्प साध, बिहुँ नै शिव-पंथ आराध। आवसग ठियकल्पी नै नियत, अट्ठियकल्पी नै नियत न कहत ।। काम बिहुं नों जाणे अतिचार, तिण ही वेला आलोवै सार। ए कल्प में इतो स्यं फेर? तिण रो उत्तर आगल हेर।। *प्रथम चरण ठियकल्प प्रज्ञा, अल्प छै तिह कारण। आवश्यक बिहु काल करिवू, एह नियमा धारणं ।। विचला ना मुनि बहप्रज्ञ सरल तस्, नियम आवश्यक नों नहीं। बिहं नै जिन आण जाणी, निशंक चित भावो सही।। यतनी तथा जिनकल्प में कष्ट घणेरो, स्थविर कल्प में कष्ट थोडेरो। दोनइ कल्प में पहिछाण, नहीं ऊपजै केवलनाण ।। जिन-स्थविर-कल्पी सुवदीत, दोनइ हुवै कल्पातीत। तो दोनं न केवल लहिय, तो जिनकल्प कष्ट काय सहिये ? *जिनकल्प मुनि आदरै ते, कर्म बहु नै भेदवा। एम सम्यक्त्व देशव्रती धरै बहु भव छेदवा।। मगंतरेहि आठमों, सुद्ध मार्ग में जाण । कोइ अंतर देखी करी, आणे भर्म अयाण ।। यतनी साधु साध्वी ने सुविचार, सरिखा पंच महाव्रत सार। बलि शिवपद नी अधिकारी, सरिखी बिहं नै समाचारी ।। मुनि नै तीन पछेवडी आखी, साध्वी नै च्यार जिन भाखी। तथा सुनि नै न जडणो कमाड, कह्यो कल्प अवंगुयद्वार ।। अन साध्वी नै सुविचार, नहीं कल्पै उघाडै - द्वार। रात्रि सवै जडीनै कमाड, ब्रह्मचर्य - रक्षा भणी सार ।। कमाड न ह जो कोय, तो रहै बांधी पछेवडी दोय । इम मारग में अंतर जाण, भर्म आण कोइ अयाण ।। * लय--पूज मोटा भांज टोटा ११४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *चउ पछेवडी कमाड जडवू, ते स्त्री ना खोलियावती। वीतराग नी आण छै ते, मुक्ति - मारग भावती ।। अचेल साध्वी ने न कल्प, तो अचेल मल्लि किम रह्या। तास उत्तर-जिनेंद्र माटै कोय न देखे इम कह्या ।। मतंतरे नवमों का, मत में अंतर न्हाल । समझ पडयां विण जीव के, आण भर्म भयाल ।। यतनी एक वाचनाई सुबिमासी, भगवती ना पद सहस्र चोरासी। एक वाचनाई दोय लाख, ऊपर सहस्र अठ्यासी साख ।। *अधिकार विशेष अथवा वाचना, जजई गणधर तणी। ते मध्य कोयक ना इता पद, एम शंका अवगणी।। तथा लघ मोटा पद विशेप ते, न्याय करि इम जाणिय । बहु वाचना सत्य आण जिनवर, शंक मूल म आणियै ।। यतनी मतांतर पाठांतर पेख, गणधर नी वाचना सविशेख । केइ कहै पाठांतर एह, दोय ठाम लिख्या स्त्र जेह ।। महढे हंता आया वाद जेम, बिहं ठामे लिख्या धर प्रेम । पछै थया बहुश्रुती भेला, कियो सत्र संवाद समेला ।। किहां पाठ में अंतर देख, पाठांतर कहै केइ एक। इणमै शंका न आणवी जेह, सर्वज्ञ वदै सत्य तेह ।। दूहा भंगंतर दशमों कह्यो, अंतर भांगा मांहि। देखी नै शंका धरै, समझ पड्यां विन ताहि॥ यतनी ७४. चउभंगे आचार्य च्यार, सोवाग १ करंडक - धार । गणिका २ ववहारिया ३ राय ४, त्यांरा करंडिया सम कहिवाय ।। ७५. तथा श्रावक च्यार प्रकार, बाप सरीखा महा सुखकार । भाइ सरीखा मित्र सरीस, सोक सरीखा अशुद्ध कहीस ।। ७६. ए आचार्य केम कहिवाय, वले श्रावक पिण किम थाय? एहवो शंका आणे मन कोय. तिण रो उत्तर आगल जोय ।। *लय-पूज मोटा भांज टोटा Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. •आचार्य आवक नाम मात्रे, कहितां दोष न जाणियै । अयोग्य तजिई योग्य आदरे, ए समाधि पित आगिये ॥ ७८. ७६. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. 52. ĉo. । इस वाण अवलोय | 3 यतनी भंगंतरेहिनौं अर्थ जाण, वृत्ति मांहि कही दोय आदि संजोग भी जोव भांगा ऊपजे ते एक द्रव्य थी हिंसा कहाय, पिण भाव थी हिंसा न थाय । इम व्यार भांगा में लीजे, इहां प्रथम भांगो किम कहोजे ।। ईयाँ समिति चाल मुनिराय, कीडी प्रमुख जीव हणाय सिका द्रव्य भी हिंसा कहाय, पण भाव थी हिंसा न चाय ॥ द्रव्य - हिंसा मरण मात्र रूढ, पिण कर्म बंध नवि गूढ | तिण सूं भाव-हिंसा न कहायो, जय गणपति कहै वि न्यायो । 'प्रथम आचारंग सुविशेष, अध्येन पंचम, पंचम उदेश | सम्यक् मानतो जे मुनिराय असम्यक् पिण सम्यक् थाय ।। ईर्या सहित चाल्यां जीव घात, तिण नैं घाती न कहिये विख्यात । तथा तीजे अध्ययन आचारंग, नदी नावा नीं आज्ञा सुचंग ॥ बृहत्कल्प र पउथे उदेश, एक मास मांहै सुविशेष | तीन नदी नीं आज्ञा कहाय, ए पिण कल्प बांध्यो जिनराय ॥ नदी मां बहती साध्वी ने साधु का हाथ यही नं। ग्रही जिन आशा नहीं लोपाय, बृहत्कल्प छठा रै मांय ॥ वीतराग थी जीव हणाव, हरियावही पुन्य कर्म बंधाय भगवती शतक अठारमा मांय, अष्टम उदेश कह्यो जिनराय || मरण मात्र द्रव्य - हिंसा ताय, पिण जिन आज्ञा सुखदाय । तिण से भाव हिंसा नहि होय, हणवा से कामी नहि कोय | इम जाणी ने शंक निवारै, जिन आज्ञा भणी दिल धारै। जिन आज्ञा मां नहि पाप इस निश्चय दिल मांहे थाप ॥ ( ज० स० ) , यतनी नेगम संग्रह नै ववहार, ऋजुसूत्र द्रव्य नय च्यार । शब्द समभिरूड एवंभूत भाव नय तीनू वर सूत । यांरा वचन जूजूआ भाल, कोइ भर्म आण तिण काल । तिण से उत्तर आगल जोय, समाधान इसी विध होय ॥ *लय-पूज मोटा भांजे टोटा ११६ भगवती-जोह ६१ दूहा नयंतरेहि ग्यारमों, नय-वच अंतर न्हाल । समझ पडयां विण तेह में, आण भर्म भयाल || Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. 'द्रव्य नेगमादिक च्यार नय, विण भाव आवसग नै कहै । ए आवसग छै इम परूपै, कहण माने ए लहै ।। इम नाम स्थापन द्रव्य जिन नै, कहण मात्रे जिन कहै। ए नाम-जिन ए स्थापना-जिन, द्रव्य-जिन इह विध लहै ।। शब्दादि विण इक भाव माने, नाम स्थापन द्रव्य भणी। नवि गांनवै, इक भाव मान्यो, आवस्यक भावे गूणी ।। ए सात नय नोंए परमारथ, ओलखी दिल आणिय । गुण-हीण वांद्यां धर्म ए, किणहि नयै नवि जाणिय ।। पाप अष्टादश सेव्या, सावज्ज कार्य माणिय । अव्रत सेवायां धर्म नै पुन्य, किणहि नयै नवि जाणियै ।। असंजमजीवतव्य वांछ्या, आण बाहिर माणिय। श्रावक जिमायां धर्म नै पुन्य, किणहि नयै नवि जाणिये ।। जिम अजा नों गलो छेद्यां, किणहि नय में धर्म नहीं। तिमहिज सर्व सावज्ज कार्य, धर्म नहीं छै तिण मही' ।। (ज० स०) दूहा नियमतरेहि बारमों, नियम-अभिग्रह मांहि । अंतर देखी समज विण, शंका आंण ताहि ।। १००. १०१. यतनी अपमान देइ ने आहार, आपै तो लेव तिवार । एहवो अभिग्रह किणहि मुनिराय, कीधो मन हरष सवाय ।। तथा अधिक मान सत्कार, देइ आपै तो लेवू आहार । तो स्यं मान नों वांछवो होय ? ए शंका नों उत्तर जोय ।। *T विहं अभिग्रह नै विष, मुनि मान नै अपमान नों। इच्छुक नहीं, है रसिक केवल, निज नियम सुविधान नों। अणमिल्यै चित स्थिर राखवो, भाव ए मुनिवर तणां । ते भणी छै तप बिहूं नै, इत्यादि अभिग्रह घणां ।। बोल तेरै तणो अभिग्रह, वीर प्रभु पिण है कियो। परंपर ए बात प्रसिद्ध, जाण निमल करै हियो ।। १०४. १०५. दुहा पमाणत रेहि तेरमों, प्रमाण में पहिछाण। अंतर देखी समज विण, आणै भर्म अयाण ।। *लय-पूज मोटा भांजे टोटा Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी १०६. चक्षु इंद्री नों विषय पिछाण, उच्छेद - अंगुल करि जाण । लाख योजन जाझो कहिवाय, ए सूत्र तणों है न्याय ॥ १०७. तेणें लाख योजन ना कहीस, प्रमाण योजन शत जगीस | आठ सौ नै अल्सी पहिछाण, चंद प्रमाण योजन माण | १०. तेही प्रत्यक्ष प्रमाण चंद दीसे सुविहान किहां शत योजन कहिये, किहां आठसौ अस्सी लहियै ॥ १०६. इत्यादिक प्रमाण मांय, अंतर देखी अधिकाय । मन शंका आण कोय, तसुं उत्तर आगल जोय ॥ ११०. एक लक्ष योजन कर वेत्रिय, ते आधी चक्षु विषय छे। चंद सूर्य तो तसुं कांतिना प्रभाव भी दो अ १११. बीजूं सही जे कृत पदारथ, कोश सय ने ऊपरै । कोइ नगरकोट नर रुख छै ते, दोसतुं नहि इणि परे ॥ ११२. विषय चक्षु नों को अप्रकाश वस्तु स्वभाव है। ते भणो दीस रवि शशि तसुं क्रांति नों प्रभाव है । पतनी देख । वाण ॥ ११३. तथा पमाणंतरेहि पेख, सूर्य आठसौ योजन समभूतला थी पहिछाण, ए सूत्र तणी छे ११४. उगतो सगले मोटो दीर्स, मध्पाने नान्हों होस । जब नान्हो विमान स्यूं होय ? ही शंका राम्रै कोय ।। गृहवी ११५. ११५. ११७. ११८. ११६. 1 * ऊगतो आश्रमतो रवि, दूर थी दीसं अछे । सहस्र संतालीस देसी त्रेसठ योजन जेह छे । मध्यानं आठ सौ योजन दीसतुं एनिकट छे। कडा मार्ट तेज बहू विण करी जघु दी अछे । दूहा अर्थ तेर अंतर तणो, धर्मसीह कियो जेह | कितलोकस्यां मांहिलो, आयो यहां तेह || बिहाइक वृति की कहा कि अपर सुन्वाय । अवलोकन करने अस्यं जागे बहुत ताय ॥ " * णाणंतरे ? दसणतरे २ चरितंतरे ३ लिंगंतरे ४ । पवणंतरे ५ गाणंतरे ६ कप्यंतरे ७ मगंतरे ॥ लय-पूज मोटा भांज टोटा ११ = भगवती-जोड़ ११२, १२० गोपमा तेहितेहि नाणंतरेहि, तह परिसंतरेह नियंतरेहि पचवतरेहि पाचवणंतरेहि, 21 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. कप्पंतरेहि, मन्गंतरेहि, मतंतरेहि भंगतरेहि, णयंतरेहि नियमंतरेहि, पमाणतरोहि... (श० १।१७०) मयंतरेह भंगतरे १० णयंतरे ११ णियमंतरे १२ । पमाणतरेहि १३ सर्वठामै, तृतीया बहु वच इह परे ।। वाल----इहां साधु मिथ्यात मोहणी कर्म वेदै कह्यो। ते ऊधो सरध्यां समदृष्टि साधुपणों किम रहै ? उत्तर-ए साधु ऊधौ सरध्यो, ते वेला प्रथम गुणठाणो आवै। जिम २५ में शतक छठे उद्देशै कह्यो पुलाक काल कीधै उत्कृष्ट आठमें कल्प जाय, ते पुलाक में तो मरै नथी। पिण पहिला पुलाक हुँतो तेहथी अनेरै नियंठ आयो, ते समय मरण पावै । इम पूर्वे पुलाक हुतो ते अपेक्षाय पुलाक काल करै, इम कह्यो। तिम पहिला साधु हुँतो, ऊधो सरध्यो, तिवारै प्रथम गुणठाण आयो। पिण पूर्व साधु हुँतो ते अपेक्षाय साधु मिथ्यात मोहणी वेदै कह्यो । ए वेदवू कह्यो ते विपाक नी अपेक्षाय, पिण प्रदेश अपेक्षाय नहीं। जे खयोपशम सम्यक्त्व नो धणी प्रदेशे करी सम्यक्त मोहणी वेदे छै पिण विपाक थी नथी, ते माट। मिथ्यात्व मोहणी विपाके करी वेदे तेहनों कथन इहां संभवै । १२१. *ए तेर अतर करि मुनि पिण, शंक कख वितिगिच्छियै। लहै भेद कलुष इम मुनि, कंख-मोह कर्म वेदिये ।। १२२. हे भदंत ! तेहीज सत्य निशंक, जे जिनवर का । हंता तेहिज निशंक सत्य, इम धरचा आराधक थय ।। १२३. +इम जाव पराक्रम लगै उदंत, णवरं अत्थि भंते ! समण निग्गंथ। कंख - मोह कर्म बंधक कहियै, शेष तिमज सेवं भंते लहिये ।। १२१. ...संकिता कंखिता वितिकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना---एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति। (श०१।१७०) १२२. से नणं भंते ! तमेव सच्चं नीसक, जं जिणेहिं पवेदितं ? हंता गोयमा! तमेव सच्च नीसंके, जं जिहि पवेदितं । (श० १११७१) १२३. एवं जाव परक्कमेइ वा। सेवं भंते ! सेवं भंते। (श० १।१७२, १७३) यतनी १२४. इहां जाव शब्द रै माह्यो, औधिक जीव तणो पाठ आयो। णवरं जीव नी त्यां पूछा कीधी, इहा श्रमण निग्रंथ नी सीधी ।। १२५. जाव कम पाठ कहेवू, श्रमण निग्रंथ नै इम लेव । प्रभु ! श्रमण कक्ष-मोह वांधे, जिन भाखै हता सांधे ।। १२६. प्रभु ! किणविध तास उपत्ति ? गोयम ! प्रमाद जोग निमित्ति। ते प्रमाद किण सं उपन्न ? गोयम ! जोग थकी ते निपन्न ।। १२७. स्वामी! जोग ते किण सूं उपन्न ? गोयम ! वीर्य थकी ते निपन्न । स्वामी! वीर्य ते किण सं उपन्न ? गोयम! शरीर थकी ते निपन्न ।। १२८. स्वामी! शरीर ते किणसं उपन्न ? गोयम! जीव थकी ते निपन्न । इम कंक्ष-बंध छतै जाण, छै उटाण कम्म बल माण ।। १२६. पुरिसवकार परक्कम अत्थि जोय, जाब शब्द में ए इहां होय । सेवं भते ! इमहिज पूज्य बायो, अंक तेरे नों अर्थ कहायो ।। १३०. वारू ढाल तेरमी ताय, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय। गणि 'जय-जश' संपति सार, सुख आनंद हरप उदार ।। प्रथमशते तृतीयोद्देशकार्थः ।। १।३।। *लय-पूज मोटा भांज टोटा +लय --इण पुर कंबल कोय न लेसी श० १,०३, ढा०१३, ११६ Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १४ तृतीय उदेश कर्म नों, उदीरणादि आद। ते कर्म तणां इज भेद हिव, चउथ उद्देशै लाध ।। हे प्रभु ! कर्म-प्रकृति कति ? कर्म-प्रकृति कही आठ । पन्नवण पद तेवीस में, प्रथम उद्देशे पाठ ।। १. अनन्तरोद्देशके कर्मण उदीरणवेदनाद्युक्तमिति तस्यब भेदादीन् दर्शयितुम् आह- (वृ०-५०६२) २. कति णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, कम्मप्पगडीए पढमो उद्देसो नेयव्यो जाव-अणुभागो समत्तो। ३. कति पगडी?कह बंधति? कतिहि व ठाणेहि बंधती पगडी? कति वेदेति व पगडी? अणुभागो कतिविहो कस्स? (संगणी-गाहा, श० १।१७४) कति प्रकृति बधै ते किम, कति स्थानक बंधाय । कर्म प्रकृति वेदै कति, अनभाग कतिविध ताय ?।। ४. कर्म - चित अधिकार ते, मोह नी आश्री जाण । पूछे गोयम गणहरू, उत्तर दे जग-भाण ।। *प्रभजी! पर उपगारी हो, स्वामी! थारी महिमा भारी हो। जिनेंद्र देव ! मुक्ति नेतारी हो, नाथ ! थे तो त्रिभुवन तारी हो। जिनराज थारी सूरति प्यारी हो। (ध्रुपदं) ५. हे प्रभु ! जोव मिथ्या-मोह की, ते कर्म उदय सं जेह । उवट्ठाएज्जा-परलोक क्रिया, अंगीकार करै तेह ।। जिन कहै हता, वलि शिष्य पूछ-मिथ्या मोह उदएण। वीर्यपणे स्य उवट्ठाएज्जा, के अवीर्यपण तेण? ।। ७. जिन कहै वीर्यपणे उवट्ठाएज्जा, अवीर्यपण नाहि । वलि शिष्य पूछे वीर्यपणे जो, उवट्ठाएज्जा ताहि ।। ८. स्यूं बाल वीर्यपणे उवट्ठाएज्जा, पंडित वीर्यपणे जोय। के बालपंडितवीर्यपणे रहिवं ? हिव जिन उत्तर होय ।। ५-८. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिपणेणं उवट्ठाएज्जा? हंता उवट्ठाएज्जा। (श० १११७५) से भंते !कि वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? अवीरियत्ताए । उवट्ठाएज्जा? गोयमा ! वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। णो अवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा।(श०१।१७६) जइ वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा, कि-बालवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? पंडियवीरियत्ताए उबट्ठाएज्जा? बालपंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? ६. गोयमा ! बालवीरियत्ताए उबट्ठाएज्जा। नो पंडियबीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। नो बालपंडियवीरियत्ताए उबट्ठाएज्जा ।(श०१।१७७) १०. इह मिथ्यात्वे उदिते मिथ्यादृष्टित्वाज्जीवस्य बालवीर्ये___णवोपस्थानं स्यान्नेतराभ्याम्। (वृ०-५० ६४) ११. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णणं अवक्कमेज्जा ? हंता अवक्कमेज्जा। (श० १११७८) १२. से भंते ! कि बालवीरियत्ताए अवक्यामेज्जा ? पंडिय वीरियत्ताए अवक्कमेज्जा ? बालपडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा? ६. बालवीर्यपणे उक्ट्ठाएज्जा, पंडितवीर्यपणं नाय । बालपंडितवीर्यपणे न रहियै, ए मूल मिथ्याती कहिवाय ।। १०. मिथ्यादष्टि जीव मिथ्या उदय थी, वालवीर्य उपस्थान। पंडित, बालपडितवीथपणे, एहन रहिवू म जान ।। ११. हे प्रभु ! मोह-उदय थी, अपक्रम-उत्तम गुण थी हीन । हंता मोह-उदय उत्तम गण स्थानक थी होवै खीन ।। १२. ते प्रभु ! जावत् बालवीर्यपण, अपक्रम पाछो वलंत । के पंडितवीर्य बालपडित पण ?, हिव जिन उत्तर दित ।। ___*लय - छोगो सण लाख रो बना? लटकण मजादार। १२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. बालवीर्यपणे अपक्रम मिथ्यात्व उदय प्रथम गुणठाण । पंडितवीर्यपणे नहीं अपक्रम, त्यां नहीं मिथ्या अनाण ।। १४. कोइ वालपंडितवीर्यपणै, अपक्रम श्रावक होय । ए चारित्र मोहनी उदय करो छ, समचै मोह प्रश्न सोय ।। १५. वाचनांतरे बाल वीर्यपणे, पंडितवीर्यपणे नाय । बालपंडितवीर्यपणे नहीं छै, ए मिथ्यात्व उदय कहाय ।। १६. उदय-विपक्ष उपशांत तणां हिव, स्तर बे अवलोय। उदय तणां जिम दोय आलावा, तिम उपशम नां दोय ।। णवर' मोह-उवशम उवट्ठाए ज्जा, पंडितवीर्य रहंत । अपक्रमै बालपंडित दीर्यपण, इहां वृत्तिकार कहंत ।। मोह-उवशम उवाय पंडितवीर्य, उपशांत मोहे होय । पंडितवीर्य ईज तिहां कहियै, अपर न होवै दोय ।। १३, १४. गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा। नो पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा । सिय बालपंडियबीरियत्ताए अवक्कमेज्जा। (श० ११८०) मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् संयमाद्देशसंयमाद्वा अपक्रामेत मिथ्यादृष्टिर्भवेदिति। कदाचिच्चारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपण्डितवीर्येण देशविरतो भवेदिति । _ (वृ०-प० ६४) १५. वाचनान्तरे त्वेवम् --'बालवीरियत्ताए नो पंडियवीरि यत्ताए नो बालपंडियवीरियत्ताए' त्ति, तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्य-द्वयनिषेध इति। १६, १७. जहा उदिण्णणं दो आलावगा तहा उवसंतेण वि दो आलावगा भाणियब्वा, नवरं उबट्ठाएज्जा पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा बालपंडियबीरियत्ताए। (श० १११८१-१८६) १८. मोहनीयेनोपशान्तेन सतोपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण, उपशान्तमोहावस्थायां पण्डितवीर्यस्यैव भावादितरयोश्चाभावात्। (व०-प०६४) १६. वृद्धस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातं-मोहनीये नोपशान्तेन सता न मिथ्यादृष्टिर्जायते, साधुः श्रावको वा भवतीति। (वृ०-५०६४) २०, २१. मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद्वालपण्डित वीर्येणापक्रामन् देशसंयतो भवति, देशतस्तस्य मोहापशमसद्भावात्, न तु मिथ्यादृष्टिः, मोहोदय एव तस्य भावात्, मोहोपशमस्य चेहाधिकृतत्वादिति । (वृ०-५०६४) १६. वृद्ध-व्याख्या किणहि वाचना आश्री, मोह उपशम करि जोय । मिथ्यादृष्टि ते नवि होवै, साधू वा श्रावक होय ।। २०. मोह-उपशम करिकै अपक्रमै, वालपंडितपणे जोय । संजतपणां थी पाछो वली नै, देशसंजती होय ।। देश थकी तिण रै मोह उपशम छ, पिण मिथ्यादृष्टि नाय। मोह ना उदय थकीज होवै ते, इहां उपशम अभिप्राय ।। २२. ए सर्व अर्थ आख्यो टीका ढूं, उवट्ठाएज्जा आद । ए च्यारूं आलावा नौं अर्थ धर्मसी, कीधू धर अहलाद ।। २३. धुर बे आलावा मोह कर्म उदय, कर्ता कहिये तास । प्रथम आलावै उवठ्ठाएज्जा, अपक्रम बीजो विमास ।। २४. ए विहं मध्ये फेर किसू छै ?, इति प्रश्ने पहिछाण। हिवं उत्तर एहनों कहिये छ, सांभलज्यो सुविहाण ।। १. अंगसुत्ताणि (भाग २) में यत्र तत्र जाव की पूर्ति कर संक्षिप्त पाठ को विस्तृत किया गया है। भगवती की जोड़ संक्षिप्त पाठों के आधार पर की गई है। इसलिए अंगसुत्ताणि के सूत्रों की संख्या के साथ जोड़ का क्रम नहीं बैठता। प्रथम शतक के सूत्र १८१ से १८६ तक का विवरण जोड़ में दो आलापक के संकेत से पूरा किया गया है। आगे भी यत्र तत्र इसी क्रम से जोड़ की रचना हुई है। श०१, उ०४, ढा०१४ १२१ Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. ए मूलगो मिथ्यात मोह मांहि छै, मिथ्या विषैज वली । उवट्ठाएज्जा कहितां करें दृढ़, स्थिर करें पुष्ट रली ॥ २६. अन चौथा पंचम छठा जीवठाणा थी, पाछो बली ने पिछाण । मिथ्यात पार्म तास कहीजे, अवनकमेज्जा जाण । २७. ए मिथ्यात मोह उदय अपक्रम कह्यो, चारित्र मोह् हिव जोय । तास उदय थी अपक्रम मुनिनों, बालपंडित कोइ होय || ए संजम अपक्रम पाछो बल्यो, एतले पडियो देख संजम भांगी ने श्रावक हूवो, देश विरती ए देख ॥ २२. विविध विविध पचखाण भांगी कदा, दुविहं विविध फिर की। सर्व-विरत भागो ने तेह माहिल देश-देश है लोभ ३०. मोह उदय ना दोय आलावा नो आयो ए अधिकार । २८. हिव मोह उपशम नांवे आलावा कहिये तसुं विस्तार ।। ३१. ए मोह कर्म उपसम से जेह में, उवट्ठाए अपकरम ए बिहुं मांहि फेर किसूं छे ?, उत्तर तेहनों परम ।। ३२. जे उत्तम गुणठाणा मांहि छै, बलि तेहिज में जेह । उवट्ठाएज्जा कहितां करें दृढ़, बलि स्थिर पुष्ट करेह || ३३. अवक्कमेज्जा संजत सेतो पाछो बलने जोय वालपंडित पिण मोहनं उपसम ते अवलोय || ३४. एप्पा आलावा नो अर्थ धर्मसी कीधो ते का एह अपक्रम नों इज प्रश्न गौतम हिवै पूछे प्रेम धरेह || ३५. से भंते ! ते जीव तथा अथ अर्थो से शब्द परम । आत्म करी अपक्रमै के, अणआत्म करि अपकरम ? ३६. जिन कहै आरम करि अपक्रमैं, अणआरम करि नाहि हिव मोह कर्म वेदै ते प्रश्न पूछे गोयम ताहि ॥ ३७. मोहनी कर्म मिथ्या चारित्र मोह, वेदतो छतो हे स्वाम ! ते किम ए अपक्रमण हुवै, मोह वेदता छता ने ताम ? || 1 जिन भाखे अवक्रमण थकी पूर्व अपक्रमकारी जीव । जीवादि तत्व तथा अहिंसादिक, सुद्ध य वा करणी अतीव ।। ३९. एवं कहितां एक जिम जिनवर, रोच तिमहितं । शुद्ध भई अथवा शुद्ध करणी, अहिंसादि कार्य करत || ४०. हिवड़ा मोह उदय का जीव तेहिज, एनव तत्व जीवादि । जिन भारूपो तिम न रोचैन अथवा न करें कार्य अहिंसादि ॥ इम अपक्रमण मोह वेदन इम, आख्यो मोह अधिकार । कर्म अधिकार की हिव सामान्य कर्म तण विस्तार || ४१. ३८. १२२ भगवती-जोड ३५. से भंते! कि आयाए अवक्कमइ ? अणायाए अवक्कम ? ३६. गोयमा ! आयाए अवक्कमइ, नो अणायाए अवक्कमइ मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे । (१० १०१०७) ३७. से हमे भए? मोहनीय कर्म मिथ्यात्वमोहनीयं चारित्रमोहनीयं वा वेदयन्, उदीर्णमोह इत्यर्थः । (बृ०-२० ६४) ३८-४१. गोयमा ! पुव्वि से एवं एवं रोयइ । इयाणि से एवं एवं नो रोयइ- एवं खलु एवं एवं (श० २१११८८ ) 'पूर्वम्' अपक्रमणात् प्राग् ' असो' अपक्रमणकारी जीवः एतद्' जीवादि अहिंसादि वा वस्तु एवं' यथा जिनैरुक्तं 'रोचते' श्रद्धत्ते करोति वा, 'इदानी' मोहनीयोदयकाले 'सः' जीवः एतत्' जीवादि अहिंसादि वा ' एवं ' यथा जिनैरुक्तं 'नो रोचते' न श्रद्धत्ते न करोति वा, 'एवं खनु' उक्तप्रकारेण एतद्' अपनम् 'एवं मोहनीयवेदने इत्यर्थः । मोहनीय कर्माधिकारात् सामान्यकर्म चिन्तयन्नाह ( वृ० प० ६४ ) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. हे प्रभु ! जे नरक तिरि मन सुर ने, कीधा जे कर्म पाप। भोगवियां विण छुटवो नहीं छै ? हंता कहै जिन आप ॥ ४३. गोयम पूछ किण अर्थ कह्य ए? जिन कहै कर्म बे प्रकार । प्रदेश कर्म वेदै छै नियमा, अनुभाग भजना धार।। अनुभाग को बेदै को न वेदै, क्षयोपशम-सम्यक्त्ववंत । दर्शण-मोह अनुभाग न वेदै, प्रदेशपणे वेदंत ।। ४२. से नूणं भंते ! नेरझ्यस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो? हता गोयमा ! नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पाये कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो। (श०१२१८६) ४३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयस्स वा जाव मोक्खो ? एवं खलु मए गोयमा! दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा—पदेसकम्मे य अणुभागकम्मे य। तत्थ णं ज णं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ । तत्थ णं जं णं अणुभागकम्म तं अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं णो बेदेइ। ४४. अनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति। (वृ०-५० ६५) ४५. इह च द्विविधेऽपि कर्मणि वेदयितव्ये प्रकारद्वयमस्ति, तच्चाहतैव ज्ञायते इति दर्शयन्नाह- (वृ०-५० ६५) ४६. णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया सामान्येनावगतम् एतद् वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम् 'अर्हता' जिनेन 'सुयं' ति 'स्मृतं' तत्र स्मृतमिव स्मृतं । (वृ०-प०६५) ४७. इमं कम्मं अयं जीवे अब्भोवगमियाए वेदणाए वेदेस्सइ, प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुञ्चनादीनामंगीकारः। (वृ०-प०६५) ४८. इमं कम्म अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेदेस्सइ। कर्म वेदण रा प्रकार दोय ए, जाणे श्री जिन आप। ते अधिकार कहै हिव आगल, सांभल ज्यो चुपचाप ।। ४६. वेदना दोय प्रकार सामान्यपणे जाण्यो अरिहंत । स्मृत नी परै स्मृत कहियै विविध प्रकार जानंत ।। ४७. ए कर्म ए जीव अभ्युपगम वेदना करि वेदस्य आम। ब्रह्मचर्य भूमि-सयन लोचादिक, अंगीकार करि ताम ।। ४८. ए कर्म ए जीव उपक्रमिकी वेदना करि वेदस्यै सोय । ताव रोगादि कर्म उदय आव्यां, उदीरणा बलि जोय ।। ४६. जिम कर्म बंध्या ते अणअतिक्रमवै, जिण देश काल विषैज। जिम कर्म ते भगवंत दीठो तिम वेदस्य ए निश्चैज।। तिण अर्थे नरकादि किया कर्म, वेद्यां विण न मूकाय। कर्म पुद्गल रा अधिकार थी हिव, परमाणु आदि कहाय ।। ४६. अहाकम्म, अहानिकरणं जहा जहा तं भगवया दिलैं तहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति । ५०. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा, जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो। (श० १११६०) ५१. अंक चवद देश ढाल चवदमी, भिक्ष भारीमाल ऋषिराय। 'जय-जश' सुख संपति गण-वृद्धि, परम पूज्य सुपसाय ।। श०१,उ०४, ढा०१४,१५ १२३ Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ह. १०. ११. १२. ए परमाणू हे प्रभु अनंत ढाल : १५ वहा सासता समय में, हुंता जिन कहै हंता गोयमा ए अनंत सासता समय में, हुंता हे प्रभुजी ! परमाणु या वर्तमान सास्वत समय विषय अछे ? हंता उत्तर ए ! गया काल इम हे प्रभुजी ! परमाणु या, सासत अनागत * लय - हीडे हालो रे १२४ भगवती जोड़ रै मांय | कहिवाय ? परमाणु उत्तर प्रधान । खंध तणां पिण इमज ए, भणवा त्रिण आलाव । जीव तणां पिण इमज ए, तिण आलावा भाव || जीव तो अधिकार से यथा तणां तें, वक्तव्यता हि हे भदंत अतीत अनंत ते केवल संजम तथा शुद्ध परिपूर्ण जीव भी उद्देश पयंत जान ॥ नीं, ! छद्मस्थ नर, अवधि रहित ए जाण । सासते समय विर्ष पहिला || करी, केवल ते वा असाधारणे असहाय । ताय || संवर ब्रह्मचर्य , कहिवो अद्धा अनंत | समये हु ? हंता जिन कहैत । बलि केवल प्रवचनमाय ॥ करी, निरोध इंद्रि कपाय । केवल करी, केवल सिज्झि सीझचा अछे, बहुवच प्राकृतत्वात् । बुझया जावत् सर्व दुक्ख अंत कर्यं विख्यात ।। सर्व विशुद्ध संजमादि उपशांत मोह महार इण अभिप्राये पुछियो, एम का वृत्तिकार || अतीत | रीत ॥ काल । न्हाल || जिन कहे अर्थ समर्थ नहीं, किंग अर्षे जिनराय ? गोतम पूछे थर्क वीर बतावे स्वाय ॥ इम * गुणी ! जिन ध्यावो रे, म्हारा वीर प्रभु नांवर वच हियै बसावो रे । गुणी! जिन पावोरे, सम्यक्त्व चारिधर शिवपुर वेग सिधावो रे । ( ध्रुपदं ) १. एस णं भंते! पोगले तीतं अनंतं सासयं समयं भुवीति बत्तव्वं सिया ? पोग्गलेत्ति परमाणुरुत्तरत्रस्कन्धग्रहणात् ( वृ० प० ६६ ) २. हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतं अनंत सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया । (०२११२१) ३. एस णं भंते! पोग्गले पडुप्पण्णं सासयं समयं भवतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं योग्गले पडुप्पण्णं सासयं समयं भवतीति वत्तव्वं सिया । (श० १११६२) ४. एस णं भंते ! पोगग्ले अणागयं अनंत सासयं समयं भवि सतीति वक्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं पोगरले अणागयं अनंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया । (२० १४९९३) ५. एवं बंधेण वितिष्णि आलावगा एवं जीवेण वि तिण्णि आलावगा भाणियव्वा । ( श० १११६४-१९६ ) प्रयोतनवस्वक्तव्य ६. जीवाधिक ताम्रकार यावदा (२०२०६६) ७८. छउमत्थे णं भंते! मणूसे तीतं अनंतं सासयं समयंकेवलेणं संजमेणं, " प्रस्थोऽधिज्ञानरहित 'ति असहायेन शुद्धेन वा परिपूर्णेन वासाधारणेन वा । ( वृ० प० ६६ ) ६. केवलेणं संवरेणं, केवलेणं वंभचेरवासेणं, केवलाहि पवयणमायाहि 'संवरेग' ति इन्द्रियान (बु०प०६६) १०. सिज्झिसु ? बुज्झिसु ? जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु ? 'सिसि' इत्यादी च बहवचनं प्रकृतत्वादिति । ( वृ० प० ६६) सर्वविद्धाः संयमा सिद्धिरिति ( वृ० प० ६७ ) १२. गोमा गी इसम ( श० ११२०० ) सेकेणट्ठे भंते ! एवं वृच्चइ तं चैव जाव अंतं करिसु ? १९. यदुत उपशान्तमोहावस्था योऽपि भवन्ति विशुद्धसंयमादिसाध्या सा छद्यस्थस्यापि स्यादिति । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. जे केइ जीव भवांतकरा वा, चरमशरीरी , सारा | थई उदारा ॥ जीवा । सर्व दुख अंत कियो हक से करिये शिव सुख पीवा ।। सर्व अछे ते उत्पन्न ज्ञान अने दर्शनधर अरहा पूजा योग्य जिणा ते, केवली तिवार पछे सीज्झ बूझ, मुच्चवै सह दुख अंत किया रु करें छै, करस्यै शिव पद सूतो ॥ तिण अर्थ केवल सत्रम करिए सीझपानांही वर्तमान पण मज एवरं प्रश्न विज्झति त्यांही ॥ शीतीभूतो । अनागते पण मज वरं प्रश्ने सिरिति । जिम छद्मस्थ ते अधो अवधि, परिमित क्षेत्र पश्यति ॥ परमावधिक पण महिज दाणो परमाहोहिओ भाया । क्वचित्पाठ परमोहिओ भाख्यो, तीन तीन आलावा ॥ हे प्रभु ! केवली मनुष्य अतीत, अनंत माने का। सोया जाव अंत किया जिन वच वाले ॥ एपिण तीन आलावा भगवा, छद्मस्थ नां जिम जाणी । णवरं सिज्झिसु सिज्झति, सिज्झिस्संति माणी ॥ हे प्रभु! तेह अतीत अनंर, सागते समय पिछाणी । अथवा वर्त्तमान जे सास्वत, समय विषै सुविहाणी || तथा अनागत अनंत सासता, समय विषैज सुदीवा । जे केइ भव ना अंतकरा वा चरमशरीरी जीवा ॥ सर्व दुख अंत किया करें करस्य ते सर्व ताही । उत्पन्न ज्ञानदर्शनपर अरहा, जिणा केवली घाई | तिवारी या सर्व दुख न अंतज करिस्यै ? हंतातीत अनंत जाव दुख अत करी सिव वरिस्यै ॥ ते प्रभु ! उत्पन्न ज्ञान दर्शनधर, अरहा केवली जिणने। अलमस्तु इम कहिये ? हंता, प्रभु भाखे गोयम नै ॥ 1 अलमस्तु पर्याप्त थायवो, ए थी कोइ उपरंतो । पावण योग्य नहीं है बीजो, जिन नै एम कहतो ॥ सेवं भंते अंक चवद नो, ढाल पनरमी ताजी । पराय प्रसाद, जयज संपत्ति जाशी ॥ भिक्षु भारीमा प्रथम चतुर्योकार्थः ॥ १४ ॥ १३. गोयमा ! जे केइ अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वासव्वदुक्खाणं अंत करें वा, करेंति वा, करिस्संति वा १४-१६. सव्वे ते उप्पण्णणाण- दंसणधरा अरहा जिजा केवली भवित्ता तओ पच्छा सिज्झंति, बुज्झति, मुच्चति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा करिस्संति वा । से तेणट्ठेणं गोयमा ! जाव दुक्खाणं अंत करि (०१०२०१) पडुप्पण्णे वि एवं चैव, नवरं - सिज्झति भाणियव्वं । ( श० ११२०२ ) १७, १८. अणागए वि एवं चैव नवरं— सिज्झिस्संति भाणियव्वं । जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ वि तहा परमाहोहिओ वि । तिष्णि तिणि आलावगा भाणि( श० ११२०३, २०४ ) परमावधेरधस्ताद्योऽवधिः सोऽप्रोऽवधिस्तेन यो व्यवहरत्यसी आयोऽधिकः परिमितक्षेत्रविषयावधिकः 'परमाहोहिओ' त्ति परम आधोऽवधिकाद्यः स परमा यव्वा । धिक परमीडिओ तिला ०-१०६७) १६, २०. केवली णं भंते! मणूसे तीतं अनंत सासयं समयं जावतं करि? हंता सिन्जा ए तिष्णि आलावगा भाणियब्वा जहा छउमत्थस्स | नवरं विसिति सिज्झिति । (० ११२०५) २१-२४. सेनृणं भतीतं अतं सामयं समयं प वा सासयं समयं अणागयं अनंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सव्यदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा सब्धे ते उप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करिस्सति ? " हंता गोयमा ! तीतं अनंतं सामयं जाव करिस्संति ( ० २०२०८ ) वा । २५. से नूणं भंते ! उप्पण्णणाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली, अलमत्थु ति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! उप्पण्णणाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया । (श० ११२०८) २६. अलमस्तु पर्याप्तं भवतु नातः परं किञ्चिद् ज्ञानान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीत्येतद्वक्तव्यं । (१०० ६७) २७. सेवं भंते ! सेवं भंते । ( श० ११२१० ) श० १, उ० ४, डा० १५ १२५. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?. २. ५. ६. ७. ८. ε. वृहा आद । अंत उदेशे चतुर्थी आख्या अरिहंत पृथ्वी थो नीकल हुवे हिव पृथ्वी विधि वाद ।। है भयंत ! पृथ्वी किती, जिन कहे गोयम ! सात रत्नप्रभा जाव तमतमा, हिव तेहनों अवदात || ढाल : १६ हे प्रभु! रत्नप्रभा विये, कति तीस लाख जिनवर कह्या, हिव तीस पचीस रुपनर दश, त्रिण लख धूम पिछाण । पंच ऊण इक लख तमा, पंच तमतमा जाण ।। लाख आवास ? भवन नीं राश ॥ चउरासी लाख । हे प्रभु ! असुरकुमार नां, किता इमे हि भवनपति तणां युगल चउसठ लख है असुर नां, नाग लक्ष वोहितर सुवर्ण नां, पवन छिनूं लख द्वीप दिशा उदधि विजु, थणिय अग्नि पहिछाण । षड दक्षिण उत्तर युगल, लाख साख ॥ छिहतर जाण ॥ चउत्तिस चौमालीस लक्ष, अडतीस लक्ष भवन दक्षिण दिशे, असुरादि लख नरकावास । गाहा संख्या तास || तीस चालीस चोतीस लक्ष चालीस लक्ष भवन उत्तर दिशा, असुरादि असुरकुमार नागकुमार सुवर्णकुमार १२६ भगवती-जोड़ १. असुरकुमार आदि दस भवनपति देवों के आवास दक्षिण और उत्तर दोनों दिशाओं में विभक्त हैं। दोनों दिशाओं के आवासों की संयुक्त और पृथक्-पृथक् संख्या इस प्रकार है संयुक्त ६४ लाख "1 ८४ ७२" पंचास चालीस । सुजगीस || छतीस । सुजगीस' | दक्षिण ३४ ४४ ३८ उत्तर ३० ४० ३४ (शेष अग्रिम पृष्ठ पर १. अनन्तरोद्देशकस्यान्तिमसूत्रेष्वर्हदादय उक्तास्ते च पृथिव्यां भवन्तीति अपना पृथिवीतत्व मनुजत्वमवाप्ताः सन्तस्ते भवन्तीति पृथिवीप्रतिपावनावाहू (बु०प०६७) २. कति णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढ़वीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयणप्पभा, जाव ( ० १०२११) तमतमा । ३. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए कति निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! तीसं निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता । ४. तीसा य पन्नवीसा, पन्नरस दसेव या सयसहस्सा । तिन्नेगं निरया ॥१॥ पंचूर्ण, पंचेव अणुत्तरा (०१४२१२ संगही गाहा) ५. केवइया णं भंते! असुरकुमारावासस्यसहस्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! चोयट्ठी असुरकुमारावास सय सहस्सा पण्णत्ता । ६, ७. एवं चोट्ठी असुराणं चरासी व होइ नागाणं । बावर्त्तार सुवण्णाणं, वाउकुमाराण छन्नउई ॥१॥ दीव - दिसाउदी विकु मारिद-वनियमग्गीणं । छहं पि जुयलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ||२|| (०१०२१३ संगी-माहा) ८. 'चउतीसा चउचत्ता अट्ठत्तीसं च सयसहस्साओ । पन्ना चत्तालीसा दाहिणओ हुति भवणाइ ॥ ( वृ० प० ६८ ) ६. तीसा चत्तालीसा चोत्तीसं चेव सयसहस्साइं । छायाला छत्तीसा उत्तरओ होंति भवणाई || (40-40 (2) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ११. १२. १३. १४. १५ । पृथ्वीका नां वास कति ? जिन कहै असंख लक्ष यावत् विमान जोतिषी, असंख लक्ष प्रत्यक्ष || हे प्रभु ! सुधर्मकल्प नां, कति लख जिन कक्ष तीस वर इम J पट बत्तीस ने अटवीस लक्ष वार सहस्र पचास चालीस वर, आणत पाणत च्यार सौ, आरण त्रिण सय ए सहु सात सौ, कल्प इक सौ ग्यारे टिम विक, मझम इक सय उवरिम त्रिक नां, पंच १६ ७६ वायुकुमार द्वीपकुमार दिशाकुमार उदधिकुमार विनकुमार स्तनितकुमार अग्निकुमार ७६ *लय — खिण गई रे मेरी खिण गई ७६ वि-स्थिति अवगाहना, तनु संघपण लेश रुदृष्टि ज्ञान जोवयोगे ७६ ७६ " ७६ 31 अनुक्रमे आठ "गोवम प्रश्न करें, प्रश्न करें, निज पाप हरे, हृदय-सरोवर ज्ञान भरें। गोयम प्रश्न करें, " प्रश्न करें, भव्य जन उधरै, ज्ञान क्रिया सूं आप तिरै । ( ध्रुपदं ) १६. हे प्रभु! रत्नप्रभाई तास, तीस लाख है नरकावास । इक इक नरकावास जाण, नारको नां तिला स्थिति-ठाण ? जिनदेव भण देव भणे, शिष्य गोयम सुणं, अतिशय परम सुप्रसन्न पण 1 जिनदेव भण देव भण, जग अघ नै हण, तीरथ च्यार परिवार घणे ।। ( ध्रुपदं ) १७. जिन कहै इक इक नरकावास, असंख्याता स्थिति स्थानक तास । नरकावासा नी जघन्य स्थिति जेह, समय-समय अधिकी इम लेह || " विमाण वास ? विमास ॥ हजार अच्च चउ लख च्यार । सहसार || जोय । होय ॥ सात । ख्यात || एक अनुत्तर ५० ४० ४० ४० ना सौ ४० ४० ४० संठाण | दश ठाण || ४६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ १०. केवइया भते विकाइयावास सहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा पुविक्काइयावाससयसहस्सा पण्णत्ता जाव असंखिज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । (० ११२१४) भंते! ये कति निमाणावास्या ११. सोहमे पण्णत्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । ( ० ११२१५) १२-१४. एवं बत्तीसावीसा वारस अद-बउरो सदसहस्सा। पन्ना - चत्तालीसा, छच्च सहस्सा सहस्सारे || १ || आणय-पाणयकप्पे, चत्तारि सयारणच्चुए तिष्णि । सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु || २ || एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमए सत्तुत्तरं सयं च मज्झमए । समे उरिपनेव अणुत्तरविमाणा ॥ ३ ॥ ( श० ११२१५ संग्रहणी - गाहा ) १५. पुत्रवतिओगान गरी संघयणमेव ठाणे । लेस्सा दिट्ठी णाणे, जोगुवओगे य दस ठाणा ॥४॥ (श० १०२११ संग्रहणी-गाहा) 7 १६, १७. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरमायाससपसहस्से एगमेसि निरयायासि नेरकेवइया ठितिट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहाहणियादिती समपाहिया जहनिया ठिती दुसम याहिया जहण्णिया ठिती जाव असंखेज्ज- समयाहिया जहणिया किती । तप्पा उग्गुक्कोसिया ठिती । (स०] ११२१६) श० १, उ० ५ ढा० १६ १२७. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. इक-इक नरकावासा मांय, जघन्य उत्कृष्टी स्थिति कहिवाय। १८. केवलं तेषु जघन्योत्कृष्टविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयः । ग्रंथांतर थी लीजै विचार, इहां संखेप कहं अधिकार ।। (वृ०-५० ६६) जिम प्रथम पाथरै जघन्य स्थिति जोय, दश हजार वर्ष नी होय। १६. यथा प्रथमप्रस्तटनरकेषु जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्ट नेउ राहस वर्ष कहाय, एहिज अर्थ देखा. ताय । उत्कृष्टा तु नवतिरिति। (वृ०-प०६६) जघन्य स्थिति वर्ष दश सहस्र आद, प्रति नरक भिन्न रूप संवाद। २०, २१. जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्रादिका इत्येकं स्थितिज-जब नरकावासै जोय, जघन्य स्थिति पिण ज जइ होय ।। स्थानं, तच्च प्रतिनरकं भिन्नरूपं, सैव समयाधिकेति तेहिज समय अधिक पहिछान, ए बीजो छै स्थिति नो स्थान । द्वितीयम्। (वृ०-५० ६६) ते हिज द्विसमथादिक जोय, तीजो स्थिति-स्थानक होय ।। २२. इम जाव असंख समयाधिक जान, असंख्यातमों ए स्थिति-स्थान। २२. एवं यावदसंख्येयसमयाधिका सा, सर्वान्तिमस्थितिसर्व अंतिम जे स्थिति नों स्थान, कहियै छ निसूणो धर कान ।। स्थानदर्शनायाह (वृ०-प०६९) उत्कृष्ट स्थिति ना अनेक प्रकार, ज-जुबै नरकावास धार। २३. उत्कृष्टा असावनेकविधेति विशेष्यते तस्य-विवक्षितवांछित नरकावासा योग्य, उत्कृष्टी स्थिति तास प्रयोग्य ॥ नरकावासस्य प्रायोग्या--उचिता उत्कर्षिका तत्प्रायो ग्योत्कर्षका इत्यपरं स्थितिस्थानम्। (वृ०-प०६९) २४. इम इक-इक जे नरकावास, जघन्य उत्कृष्टी स्थिति विमास! २४ मिनिस्थानानि । स्थिति-स्थानक तिहां छै असंख्यात, तेह विषै क्रोधादि कहात ।। नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाह- (वृ०-प०६६) २५. ए प्रभ ! रत्नप्रभाई तास, तीस लाख है नरकावास। २५, २६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढ़वीए तीसाए इक-इक नरकावासे जान, जघन्य स्थिति नारक वर्तमान ।। निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहस्यं कोहोव उत्ता? क्रोध-परिणाम, ए प्रबल क्रोध अशुभ जोग है ताम। पिणयाए ठितीए वट्टमाणा नेरइया कि-कोहोव उत्ता? माणोव उत्ता मान - परिणाम, मायोव उत्ता लोभोव उत्ता ताम?|| माणोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? जिन कहै सर्व नेरइया ताम, क्रोध भाव वर्तत्ता परिणाम ।। २७. गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा १। कोहोवउत्ता। न वत्तें मान माया लोभ मांय, ए प्रबलपणा नी छै अपेक्षाय ।। नरक भवे क्रोध उदय प्रचर, सर्व क्रोध परिणामे सूर। प्रथम भांगो ए आख्यो एक, द्विक सजोगिक छ: हिव पेख ।। द्विक संजोगिया ६ भांगा २६. तथा कोहोवउत्तामाणोवउत्ते पेख, क्रोधी घणां ने मान नो एक। २६-३१. २ अहवा कोहोवउत्ता य, माणोव उत्ते य । ३. अहवा तथा कोहोवउत्ताभाणोव उत्ता' जाण, क्रोधी बहु मानी बहु माण ।।। कोहोव उत्ता य, माणोवउत्ता य । ४. अहवा कोहोतथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ते न्हाल, क्रोधी घणां माया इक भाल। वउत्ता य मायोवउत्ते य। ५. अहवा कोहोवउत्ता य, तथा कोहोव उत्ता मायोव उत्ता' विचार, क्रोधी माया बहुवचने धार ।। मायोवउत्ता य। ६. अहवा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। ७. अहह्वा कोहोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। तथा कोहोवउत्ता लोभोवउत्त' जेह, क्रोधी घणां लोभी इक तेह। तथा कोहोव उत्ता लोभोवउत्ता विरंग, त्रिक संजोगी हिवै द्वादश भंग।। त्रिक संजोगिया १२ मांगा ३२. कोहोवउत्ता माणोव उसे जान, भायोवउत्ते इक भंग मान । तथा कोहोवउत्ता माणीव उत्त विचार, मायोव उत्ता दूजा धार ।। तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ता विरंग, मायोवउत्ते तीजो भंग"। तथा कोहोब उत्तामाणोव उत्ता निहाल, मायोव उत्ताच उथो न्हाल"। ३२, ३३. ८. अहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य। ६. कोहोबउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य। १०. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ते य । ११. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मापोवउत्ता य । १२८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ation Intermational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ते प्रसंग, लोभोव उत्ते पंचमो भंग। तथा कोहोव उत्ता माणाव उत्ते संपेख, लोभोवउत्ता छठो देख" ।। ३५. तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता विचार, लोभोवउत्ते सप्तम धार"। तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता निहाल, लोभोवउत्ता अष्टम भाल" ।। ३६. तथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ते विरंग, लोभोवउत्ते नवम भंग"। तथा कोहोवउत्ता मायोवउत्ते संपेख, लोभोवउत्ता दशमों देख" ।। ३७. तथा कोहोवउत्ता मायोव उत्ता विचार, लोभोव उत्ते ए इग्यार"। तथा कोहोवउत्ता मायोवउत्ता निहाल,लोभोवउत्ता बारमों भाल" !। १२. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। १३. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य । १४. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य । १५. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य । १६. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । १७. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य । १८. कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य । १६. कोहोबउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य । चउक संजोगिया आठ भांगा ३८. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ते संपेख, मायोव उत्ते लोभोव उत्ते एक"। ३८-४१. २०. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते, मायोवउत्ते य, लोभोव उत्ते य। तथा कोहोव उत्ता माणोब उत्ते जोय, मायोवउत्ते लोभोव उत्ताए दोय।। २१. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ता य। ३६. तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्त दुचीन, मायोवउत्ता लोभोवउत्तेए तीन । २२. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्त धार, मायोवउत्ता लोभाव उत्ता ए च्यार।। २३. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोव उत्ता य, लोभोवउत्ताय। ४०. तथा कोहोवउत्ता माणोव उत्ता विरंच, मायोवउत्ते लोभोवउत्ते ए पंच"। २४. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। तथा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता प्रगट, मायोवउत्ते लोभोवउत्ता ए षट। २५. कोहोवउत्ता य, माणोव उत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ताय। ४१. तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्ता विख्यात,मायोवउत्ता लोभोवउत्ते ए सात" २६. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्तेय। तथा कोहोव उत्ता माणोवउत्ता दुघाट,मायोव उत्ता लोभोवउत्ताए आठ ।। २७. कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। (श० ११२१७) ४२. जघन्य स्थिति नरकावासै जास, सत्तावीस ए भंगा तास । ४२, ४३. तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकानां सदैव भावात जघन्य स्थिति ना सदा बहु कोय, ते स्थिति-सत्ताई विरह नहि कोय ।। तेषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात् सप्तविंशतिभंगकाः । ४३. ते भणी क्रोध ना बहु वच जाण, सत्तावीसूई भंगे पिछाण । (वृ०-५० ६६) नरक में क्रोध प्रचूर जगीस, तिण सू क्रोध बहु वच सत्तावीस ।। ४४. जघन्य स्थिती रै ऊपर जाण, एक समय स्थिति अधिक पिछाण । ४४. एकादिसंख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिकानां तु कादाए स्थिति वाला नारक जोय, कदाचि लाभ कदा नहिं होय ॥ चित्कत्वात्। (वृ०-५० ६६) ४५. इमहिज जघन्य स्थिती थी जाण, दोय समय स्थिति अधिक पिछाण। ४५. एवं जाव संखेज्जसमयाहियाए ठितीए। __ जाव संखेज्ज समय अधिकाय, कदाचि लाभ कदा नहि थाय ।। ४६. तिण कारण ए कहियै विशेष, कदे क्रोधी कदे मानी एक। ४६, ४७. तेषु च क्रोधाधुपयुक्तानामेकत्वानेकत्वसंभवादशीकदे माई कदे लोभी एक, प्रबलपण वत्त सुविशेष ।। तिभंगकाः। (वृ०-५० ६९) ४७. कदे क्रोध में वत्तै अनेक, कदे मान बहु वत्त विशेष । माया लोभ इमहिज अवधार, आदि देइ असी भंग विचार ।। ४८. सत्ताई करो विरह तसं जोय, कदाचि लाभ कदा नहिं होय। तिण कारण असी भंगा तास, सूत्रे करी हिव कहिये जास ।। श०१, उ०५, ढा०१६ १२२ Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. ए प्रभु ! रत्नप्रभाई तास, तीस लाख छै नरकावास। इक - इक नरकावासे जान, समयाधिक जघन्य स्थिति वर्तमान ।। ५०. स्यू कोहोवउत्ता माणोवउत्ता कहाय, मायोव उत्ता लोभोब उत्ता ताय? हिव अस्सी भंगा भाखै जिन भाण, इक संजोगिया आठ पिछाण ।। ४६, ५०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निर यावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहणहितीए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता? माणोव उत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? ५१-५८. गोयमा ! १. कोहोवउत्ते य, २. माणोवउत्ते य, ३. मायोव उत्ते य, ४. लोभोबउत्ते य, ५. कोहोव उत्ता य, ६. माणोव उना य, ७. मायोवउत्ता य, ८. लोभोवउत्ता ५२. य। ५४. इक संजोगिया आठ भांगा कोहोवउत्ते इक वच जान, जीव एक क्रोधे वर्तमान । मान माया लोभे न वर्तत, पहिलो भांगो एह कहत ।। माणोवउत्ते इक बच जान, जीव एक माने वर्तमान । क्रोध माया लोभे न वर्तत, बीजो भांगो एह कहत ।। मायोवउत्ते इक वच जान, जीव एक माया वर्तमान । क्रोध मान लोभे न वर्तत, तीजो भांगो एह कहत ।। लोभोवउत्ते इक वच जान, जीव एक लोभे वर्तमान । क्रोध मान माया न वर्तत, चोथो भांगो एह कहत ।। कोहोवउत्ता बहु वच जान, जीव घणां क्रोधे वर्तमान। मान माया लोभे न वर्तत, पंचमो भांगो एह कहंत ।। माणोव उत्ता बहु वच जान, जीव घणां माने वर्तमान । क्रोध माया लोभे न वर्तत, छठो भांगो एह कहत ।। मायोवउत्ता बह बच जान, जीव घणां माया वर्तमान । क्रोध मान लोभे न वर्तत, सप्तम भांगो एह कहंत ।। लोभोव उत्ता बहु वच जान, जीव घणा लोभे वर्तमान । क्रोध मान माया न वर्तत, अष्टम भांगो एह कहंत ।। ५७. ५८. द्विक संजोगिया २४ भांगा ५६. कोहोवउत्ते माणोव उत्ते' एक, कोहोवउत्ते माणोवउत्ता संपेख। कोहोवउत्तामाणोवउत्ते" धार, कोहोव उत्तामाणोव उत्ता" ए च्यार ॥ ५६. ६. अहवा कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ते य। १०. अहवा कोहोब उत्ते य, माणोव उत्ता य। एवं असीतिभंगा नेयव्वा । ६०. कोहोब उत्ते भायोव उत्ते" पंच, कोहोव उत्ते मायोव उत्ता विरंच। कोहोव उत्ता मायोव उत्ते" सप्तम, कोहोब उत्ता मायोवउत्ता" अष्टम ।। ६१. कोहोवउत्ते लोभोवउत्ते" नवम, कोहोव उत्त लोभोव उत्ता दशम । कोहोव उत्ता लोभोवउत्ते" ग्यार, कोहोवउत्ता लोभोवउत्ता" बार ।। ६२. माणोव उत्ते मायोवउत्ते" तेर, माणोवउत्ते मायोवउत्ता हेर। माणोवउत्ता मायोव उत्ते" सुवोल, माणोव उत्ता मायोवउत्ता" सोल ।। १. अंगसुत्ताणि मूल पाठ में अस्सी भंगों का संकेत है, पर उनका पृथक ग्रहण नहीं है। जयाचार्य ने जोड़ में प्रत्येक भंग का स्वतंत्र निरूपण किया है। यह टीका के आधार पर किया गया है। अंगसुत्ताणि १।२१८ के पाद टिप्पण में सब भंग उल्लिखित हैं। १३० भगवती-जोड Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. माणोवउत्त लोभोवउत्तेप विचार, माणोवउत्ते लोभोवउत्ता अठार । माणोवउत्ता लोभोवउत्ते" गुनीस, माणोव उत्ता लोभोवउत्ता“ वीस ।। ६४. मायोवउत्ते लोभोवउत्ते" इकीस, मायोवउत्ते लोभोवउत्ता बावीस । मायोव उत्ता लोभोवउत्ते'तेवीस, मायोव उत्ता लोभोवउत्ता"चउबीस ।। त्रिकसंजोगिया ३२ भांगा ६५. कोहोवउत्ते माणोवउत्ते विरंग, मायोव उत्ते पहिलू भंग"। कोहोवउत्ते माणोव उत्ते जोय, मायोवउत्ता दूजो होय" ।। ६६. कोहोव उत्ते माणोव उत्ता देख, मायोवउत्ते तीजो पेख" । कोहोवउत्ते माणोव उत्ता जाण, मायोवउत्ता चोथो माण" ।। ६७. कोहोवउत्ता माणोवउत्ते गम्य, मायोवउत्ते ए पंचम्य" । कोहोवउत्ता माणोवउत्ते प्रगट, मायोवउत्ता ए थया षट" ।। ६८. कोहोवउत्ता माणोव उत्ता भाल, मायोवउत्ते सप्तम न्हाल"। कोहोवउत्ता माणोव उत्ता विशेष, मायोव उत्ता अष्टम देख" ।। ६६. कोहोवउत्ते माणोवउत्ते विचार, लोभोवउत्ते नवम प्रकार । कोहोवउत्ते माणोवउत्ते प्रपंच, लोभोवउत्ता दशमूं संच" ।। कोहोवउत्ते माणोव उत्ता धार, लोभोवउत्ते ए इग्यार"। कोहोवउत्ते माणोव उत्ता विषम, लोभोव उत्ता ए बारम" ।। ७१. कोहोवउत्ता माणोवउत्ते हेर. लोभोवउत्ते ए थया तेर। कोहोव उत्ता माणोव उत्ते गम, लोभोवउत्ता ए चवदम ।। ७२. कोहोवउत्ता माणोवउत्ता देख, लोभोवउत्ते पनरमों पेख। कोहोवउत्ता माणोव उत्ता तेह, लोभोवउत्ता सोलम एह ।। ७३. कोहोव उत्ते मायोवउत्ते पिछाण, लोभोवउत्ते सतरमों जाण । कोहोवउत्ते मायोव उत्ते विरंग, लोभोवउत्ता अठारमों भंग ।। ७४. कोहोवउत्ते मायोव उत्ता जगीस, लोभोवउत्ते ए उगणीस" । कोहोवउत्तं मायोवउत्ता जोय, लोभोवउत्ता बीसमों होय ।। कोहोबउत्ता मायोवउत्ते विगम, लोभोवउत्ते इकवीसम। कोहोवउत्ता मायोवउत्ते जगीस, लोभोवउत्ता ए बावीस" ।। कोहोवउत्ता मायोवउत्ता दुचीन, लोभोव उत्तं बीस रु तीन"। कोहोवउत्ता मायोव उत्ता प्रकार, लोभोवउत्ता बीस रु च्यार ।। ७७. माणोवउत्ते मायोव उत्ते लहीस, लोभोवउत्ते ए पणवीस। माणोवउत्ते मायोवउत्त प्रगट, लोभोवउत्ता बीस रु षट" ।। ७८. माणोवउत्ते मायोवउत्ता विख्यात, लोभोवउत्ते बीस रु सात" । माणोवउत्ते मायोवउत्ता निकृष्ट, लोभोवउत्ता बीस रु अष्ट"। ७६. माणोवउत्ता मायोवउत्त कहीस, लोभोवउत्ते ए गणतीस"। माणोवउत्ता मायोव उत्ते सुजाण, लोभोवउत्ता तीसमूं माण। श०१, उ०५, दा० १६ १३१ Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. माणोव उत्ता मायोव उत्ता संपेख, लाभोव उत्ते तीस रु एक। माणोव उत्ता मायोवउत्ता जोय, लोभोवउत्ता बतीस होय" ।। चउक संजोगिया १६ भांगा ८१. कोहोवउत्ते माणोवउत्ते गम, मायोवउत्ते लोभोवउत्ते प्रथम । कोहोवउत्ते माणोव उत्ते जोय, मायोवउत्ते लोभोव उत्ता होय ।। ८२. कोहोवउत्ते माणोव उत्ते दुचीन, मायोव उत्ता लोभोवउत्ते ए तीन । कोहोवउत्ते माणोव उत्ते धार, मायोवउत्ता लोभोवउत्ता ए च्यार"। ८३. कोहोवउत्ते माणोव उत्ता संच, मायोवउत्ते लोभोवउत्ते ए पंच"। कोहोव उत्ते माणोव उत्ता प्रगट, मायोवउत्ते लोभोवउत्ता ए षट् ।। ८४. कोहोवउत्ते माणोव उत्ता विख्यात, मायोवउत्तालोभोवउत्ते ए सात"। कोहोब उत्ते माणोव उत्ता निकृष्ट, मायोवउत्ता लोभोव उत्ताए अष्ट ।। ८५. कोहोवउत्ता माणोवउत्ते जोय, मायोव उत्ते लोभोवउत्ते होय" । कोहोव उत्ता माणोब उत्ते विरस, मायोवउत्ते लोभोव उत्ता ए दश ।। ८६. कोहोवउत्ता माणोव उत्ते विचार, मायोवउत्ता लोभोवउत्ते ए ग्यार। कोहोवउत्ता माणोवउत्ते धार, मायोवउत्ता लोभोव उत्ता ए बार" ।। ८७. कोहोव उत्ता माणोवउत्ता हेर, मायोवउत्ते लोभोवउत्ते ए तेर"। कोहोवउत्ता माणोव उत्ता जाण, मायोवउत्ते लोभोव उत्ता पिछाण" ।। ८८. कोहोवउत्ता माणोव उत्ता निखर, मायोव उत्ता लोभोव उत्ते पनर । कोहोव उत्ता माणोव उत्ता निटोल,मायोव उत्ता लोभोव उत्ता ए सोल ।। ८६. इक संजोगिया आठ जगीस, द्विक संजोगिया च्यार रु बीस। त्रिक संजोगिया भंग बतीस, चउक संजोगिया सोलै दीस ।। ६०. असंखेज्ज समयाधिक जाण, जघन्य स्थिति नेरइया पिछाण। ६०. असंखेज्जसमयाहियाए ठितीए तप्पाउग्गुक्कोसियाए तत्प्रायोग्य उत्कृष्टी स्थित्त, सप्त बीस भंगा है तत्थ ॥ ठितीए सत्तावीसं भंगा भाणियवा। (श० ११२१८) १३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंग-सूचक यन्त्र २७ भांगा क्रोध मान माया लोभ माया इक जोगिया १ क्रोध मान सर्व कोध द्विक संजोगिया ६ 2 mrrr mmmm ० ० ० .orm m चउक संजोगिया ८ 0. 00 GKuw mmmmmm 15 mm mraram maramarrorma- ram orm त्रिक संजोगिया १२ भांगा mm mmmmmmmmm or or orm mmmm o. mro orm m ८० भांगा इक संजोगिया ८ भांगा क्रोध मान माया लोभ क्रोध मान माया लोभ or" urd or xu90 ०rmu2 द्विक संजोगिया २४ .0 .0 Au0 श० १, उ०५, ढा० १६ १३३ Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध मान माया लोभ द्विक संजोगिया क्रोध मान माया लोभ ० ० AWW०० m4 rrorm orm o ० .० w W r त्रिक संजोगिया ३२ भांगा क्रोध मान माया लोभ | m चउक संजोगिया १६ भांगा क्रोध मान माया लोभ SIGNKAW.००MMGACK alWW.0.0.0.0.0.0. 00 ....mmmm... o. or |00 w m mm| ६१. *अवगाहना ते तनु नी तेथ, तथा आधारभूत जे खेत। स्थान प्रदेश वृद्धि करि जाण, जूआ-जूआ जे विभाग पिछाण ।। ६१. 'ओगाहणाठाण' त्ति अवगाहन्ते-आसते यस्यां साऽव गाहना-तनुस्तदाधारभूतं वा क्षेत्र तस्याः स्थानानिप्रदेशवृद्धघा विभागा: अवगाहनास्थानानि । (३०-५०७१) १२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पूढवीए तीसाए निरया वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरझ्याणं केवइया ओगाहणाठाणा पण्णता? ६२. एप्रभु ! रत्नप्रभाई ताम, तीस लक्ष है नरकावास। इक-३क नरकावासै जान, अवगाहन ना कितला स्थान ?।। __ *लय-खिण गई रे मेर खिण गई नरकाबास जान, अवगाहन ना कितला स्थान। २. सीमापुरते पानीका करीब सील दिवाण १३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जिन कहै-गोयम ! सांभल वान, असंख्पात अवगाहन-स्थान। ६३. गोयमा ! असंखेज्जा ओगाहणाठाणा पण्णत्ता, त जहा । जहणिया ओगाहणा जघन्य अवगाहन सह नरक मांय, आंगूल असख भाग कहिवाय ।। 'जहन्निय' ति जघन्यांगूलासंख्येयभागमात्रा सर्वनरकेषु । (वृ०-प०७१) १४. प्रदेश अधिक अवगाहण जघन्य, दोय प्रदेश अधिक है मन्य। १४, ६५. पदेसाहिया जहणिया ओगाहणा, दुपदेसाहिया यावत् असंख्यात प्रदेश, जघन्य अवगाहणा थी अधिक कहेस ।। जहणिया ओगाहणा जाव असंखेज्जपएसाहिया जहणिया ६५. तत्प्रायोग्य तेहिज नरकावास, उत्कृष्टी अवगाहन तास । ओगाहणा । तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा। जज नरकावासे जान, इम असंख अवगाहन-स्थान ।। (श० ११२१६) ६६. ए प्रभु ! रत्नप्रभाई तास, तीस लक्ष है नरकावास। ६६, ६७. इमीसे णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए तीसाए इक-इक नरकावास जान, जघन्य अवगाहन विष वत्तमान ।। निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जण्णि६७. ते स्यू कोहोव उत्ता होय ? असी भांगा भणवा तसं जोय । याए ओगाहणाए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोव उत्ता? जाब जघन्य अवगाहन थी प्रसग, संख प्रदेश अधिक असी भंग ।। असीइभंगा भाणियब्वा जाव संखेज्जपदेसाहिया जहणिया ओगाहणा। वा०---जघन्य अवगाहना आंगुल नै असंख्यातमें भाग, ते नरक नां विरह काल वा०-'जहन्नियाए' इत्यादि जघन्यायां तस्यामेव माट। सत्ताई ते जघन्य अवगाहना वाला नेरइया किवार लाध किवारै न लाधै । चैकादिसंख्यातान्तप्रदेशाधिकायामवगाहनायां वर्त्तलाधै तो क्रोध रा भाव में वर्त। ते नेरइयो किवार एक पिण पामिय । ते माटै मानानां नारकाणामल्पत्वात् क्रोधाद्युपयुक्त एकोऽपि अस्सी भांगा। इम इक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना ना धणी में जाव संख्यात लभ्यतेऽतोऽशीतिभंगाः। (वृ०-०७१) प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना नां धणी में पिण अस्सी भांगा जाणवा। १८. जघन्य अवगाहन थकी जगीस, असंख प्रदेश अधिक सत्तावीस। १८. असंखेज्जपदेसाहियाए जहणियाए ओगाहणाए बट्टतेहिज नरकावासै कहीस, उत्कृष्ट अवगाहन सत्तावीस ।। माणाणं, तप्पाउन्गुक्कोसियाए ओगाहणाए बट्टमाणाणं सत्तावीस भंगा। (श० ११२२०) वा०-जघन्य स्थिति अनै जघन्य अवगाहना नां धणी नेरइया जघन्य स्थिति र वा०-ननु ये जघन्यस्थितयो जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति लेखै तो सत्तावीस भांगा, अन जघन्य अवगाहना रै लेखै अस्सी भांगा, इम विरोध तेषां जघन्यस्थितिकत्वेन सप्तविंशतिर्भङ्गकाः प्राप्न वन्ति जघन्यावगाहनत्वेन चाशीतिरिति विरोध: ?, हई। एहनों उत्तर-जघन्य स्थिति नां धणी नेरइया नै पिण जघन्य अवगाहना अत्रोच्यते, जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकाकालै अस्सी भंगाईज कहिये । उत्पत्ति काल भाविपण करी जघन्य अवगाहना रा लेऽशीतिरेव, उत्पत्तिकालभावित्वेन जघन्यावगाहनाअल्प हुई ते माट। अनै जे जघन्य स्थिति नां धणी नेरइया नां सत्तावीस भांगा नामल्पत्वादिति, या च जघन्यस्थितिकानां सप्तविशतिः कह्या ते जघन्य अवगाहणा नै उलंघी छै ते नेरइया ना सत्तावीस भांगा जाणवा। सा जघन्यावगाहनत्वमतिक्रान्तानामिति भावनीयम् । (वृ०-५०७१) ए प्रभु ! रत्नप्रभाई तास, तीस लक्ष है नरकावास। १६, १००. इमीसे णं भंते ! रयणणभाए पुढवीए तीसाए इक-इक नरकावासै पीड, नेरइया में छै किता शरीर? निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइजिन क है-तीन शरीर है सोय,वैक्रिय तेजस कार्मण जोय। याणं कइ सरीरया पण्णत्ता? ए तीन ई शरीर विषै वर्तमान, सत्तावीरा भंगा पहिछान ।। ___गोयमा ! तिण्णि सरीरया पण्णत्ता, तं जहावेउब्बिए, तेयए, कम्मए। (श०११२२१) इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव वेउब्वियसरीरे बढ़माणा नेरइया कि कोहोव उत्ता? सताबीसं भंगा। (श० ११२२२) वा०-इहां वैक्रिय शरीर नै विष सत्तावीस भांगा कह्या । तो पिण जिका स्थिति बा---पद्यपि वैक्रियशरीरे सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्ताआश्री अन अवगाहना आश्री भांगा रीपरूपणा पूर्वे कही तिका तो तिमहिज कहिवी। स्तथाऽपि या स्थित्याश्रया अवगाहनाश्रया च भंगकारूतेहनों बीजो किहां अवकाश नथी, ते माट। अनै शरीर आश्री जे परूपणा पणा सा तथैव दृश्या, निरवकाशत्वात्तस्याः, शरीराधअवकाश सहित छै, ते माटै सत्तावीस भांगा। इम अनेरै ठिकाण पिण विचारी यायाश्च सावकाशत्वात्, एवमन्यत्रापि विमर्शनीयमिति। युक्ति कहिव । तथा विग्रह गति नै विष निकेवल तेजस कार्मण शरीर ईज छ। ननु विग्रहगतौ केवले ये तैजसकार्मणशरीरे स्यातां तयोते वैक्रिय रहित तेजस कार्मण किवारै लाभ किवा न लाभ, ते माट तेहना अस्सी श०१, उ०५, ढा०१६ १३५ Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? भांगा संभव । अने इहां तैजस कार्मण नै विषै सत्तावीस भांगा किम कह्या तेहनों उत्तर- इहां वैक्रिय शरीर सहित तेजस कार्मण शरीर नां सत्तावीस भांगा का है। अनै वैक्रिय शरीर रहित तेजस कार्मण शरीर नै विषै अस्सी भांगा हुई तेह्नो कथन इहां नथी का । एतेणं गमेणं तिष्णि सरीरया भाणियव्वा । इहां बाकी दोय शरीर रह्या तेहने विषै शरीरां नै पाठ नो अत्यन्त साम्य सरीखापणो दिखाडवा नै अर्थे तिष्णि सरीरया भाणियव्वा इम कह्या ते तीनां मैंने अर्थ । १०१. प्रभू या संघयणी होय ? जिन क-पट माहिलो नहि कोय । नहिं अस्थि नहीं शिरा सुरंग, नहिं स्नायु वलि तेहने अंग ।। १०२. तेहथी कह्या असंघयणी तेह, पिण पुद्गल असुभपर्णं परिणमेह | अनिष्ट अकांत अप्रिय बलि ताम, असुभ अनें कहिये अमणाम || १०३. एकार्थ एह विशेषण एथ, अतिहि अनिष्ट बतावा हेत । छ संघयण असंघयणी में साय, वर्तमान सत्तावीस कहाय ॥ १०४. स्यूं प्रभु ! जाव नारक संठाण, जिन कहै - द्विविध ते पहिछाण । भय-धारण उत्तर-वेक्रिय जोय, ए दोनों डक होय ।। १०५. ए प्रभु ! जाव हुंडक संठाण, वर्तमान जे स्यूं कहोवउत्ता ? इत्यादि प्रसंग, यां पिण १०६. ए प्रभु ! रत्नप्रभा कति देश ? जिन कहै इक कापोत कहेग ए जाव कापोत विषै वर्त्तमान, सत्तावीस भंगा पहिछान || नेरश्या जाण । सप्तवीस छै भंग ।। | १०७. रत्नप्रभाई तीनू दृष्ट, समदंसण अरु मिथ्या निकृष्ट सप्तवीस भंग तणु प्रसंग, सम्मामिच्छदंसण असी भंग || १३६ भगवती जोड़ मुच्यते तयोः रत्पत्वेनाशीतिरपि भगवतीति सप्तविंशतिरेवेति ? अजय सत्यमेतत् केवल शरीरानुवोस्पोरामयणं केवलयोश्वानाथवणमिति सप्तविंशतिरेवेति । ( वृ० प० ७१, ७२) यच्च द्वयोरेवातिदेश्यत्वे त्रीणीत्युक्तम् तच्च त्रयाणामपि गमस्यात्यन्त साम्योपदर्शनार्थम् । (র०া० ७२) 1 १०१, १०२. इमीसे णं भंते ? रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरीरया किसंघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयगाणं संपणी वनेछिनेवारूणि । जे पोलागि अता अप्पिया अहा अमपुमा अमणामा एतेंसि सरीरसंघायत्ताए परिणमति । ( ० १४२२४) १०३. एकाथिका वैते शब्दाः अनिष्टताप्रकर्ष प्रतिपादनार्था इति । (२०-२०७२) १०३. इमीसे णं भंते ? रयणप्पभाए जाव छण्हं संघयणाणं असंभव वट्टमाणा नेरइया कि कोहोब उत्ता सिताबी भंगा । ( श० ११२२५ ) १०४. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरीरया किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउब्विया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता । ( ० १४२२६) १०५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव हुंडठाणे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा । (० १४२२०) १०६. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । (श० ११२२८ ) इसीसे पं भने ! रणयभाए जाव काउलेस्साए बट्ट माणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीस भंगा । (०१।२२९) १०७. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइया कि सम्म दिली ? मिच्छवि? सम्मामिच्छदिट्टी? तिष्णि वि । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाब सम्मदंसणे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीस भंगा । एवं मिच्छदंसणे वि। सम्मामिच्छदंसणे असीतिभंगा । ( श० ११२३०-२३३) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - मिश्रदृष्टि अल्प ते भणी किवारे लाभ, किवारै न लाभे । अने काल थकी पिण ते अल्प । ते भणी क्रोध ना भाव नैं विषै वर्ते ते एक पिण लाधे, भणी अस्सी भांगा । १०८. ए प्रभु ! रत्नप्रभाई जाव, ज्ञानी के अज्ञानी कहाव ? नियमा तीन ज्ञान नीं होय, तीन अज्ञान नीं भजना जोय ॥ १०६. ए जावत् मतिज्ञाने वर्तमान सत्तावीस भंगा पहिछान एवं तीनूं ज्ञान अज्ञान, विभंग सहित मति श्रुति ए जान ॥ aro - इहां विभंग सहीत मति श्रुति अज्ञान नैं विषै सत्तावीस भंगा जाणवा । अ असन्नी मरी प्रथम नरकं जाय, तिहां विभंग अज्ञान ऊपनां पहिली मति श्रुति अज्ञान नैं विषै अस्सी भंगा पामियै । अल्प ते भणी । अन तिवारै तेहनी जघन्य अवगाहना हुई । ते जघन्य अवगाहना आश्रय करि के अस्सी भंगा हुई । ११०. एजाय स्यूं मन यच जोगी काय, तीव्रंद्र जोग कहै जिनराय । तीनूई जोग विषं वत्तमान, सत्तावीस भंगा पहिछान || ११२. वा० - इहां निकेवल कार्मण काय जोग नैं विषै तो अस्सी भंगा संभवे । तो पिण तेहनी इहां विवक्षा नथी । अनैं वैक्रिय शरीर ने विषै रह्यो जे काय जोग तथा मन वचन सहीत जे काय जोग ते इहां ग्रहण कीधूं । तेहने विषै सत्तावीस भांगा जाणवा । १११. ए जाव सागारोव उत्त अणागार, जिन कहै विहुं उपयोग विचार | विहं उपयोग विषे वर्तमान सत्तावीस गंगा पहिचान || 1 ए प्रभानी आखी बात णाणत्तं लेश्या विषै विचार, महज सातुं नरकविख्यात जूजू इ लेस्या इह विध धार ॥ १. जो जीव सम्यक्त्व सहित नरक में उत्पन्न होते हैं, उनके प्रथम समय से ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। इसलिए वहां नियमतः तीन ज्ञान होते हैं जो मिध्यादृष्टि जीव नरक में उत्पन्न होते हैं वे यदि पिछले भव में संज्ञी होते हैं, तो उन्हें भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रथम समय में ही प्राप्त हो जाता है । पर जो पिछले भव में असंज्ञी होते हैं, उन्हें भवप्रत्यय ज्ञान अन्तर्मुहूर्त बाद में उपलब्ध होता है । अतः पहले दो अज्ञान होते हैं और बाद में तीन अज्ञान। इस प्रकार तीन अज्ञान की भजना हो गई । वा० - मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात्तद्भावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यते इत्यशीतिभंगाः । ( वृ०-१० ७२) १०८. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिण्णि नाणाई नियमा । तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । ( ० १०२२४) १०६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव आभिनिवोहियनाणे माणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा। एवं तिण्णि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भाणियब्वाई । (० १४२२५, २३६) वा०-- यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभंगात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्येते तदाऽशीतिभंगा लभ्यते, अल्पत्वापाकिन्तु पन्यायमानास्ते ततो जपन्यावगाहनायेवाश्रीतिर्भास्तेषामसेवा [इति (१०-१० ७३) ११०. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं मणजोगी ? वइजोगी ? कायजोगी ? तिण्णि वि । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव मणजोए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोबत्ता ? सत्तावीसं भंगा। एवं वइजोए । एवं कामवीए (श० १२३७-२४०) वा० - इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिभंगाः संभवन्ति तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच्च सप्तविंशतिस्वतेति (१०-०७३ ) १११. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइया कि सागा रोवउत्ता ? अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव सागारोवओगे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा एवं अणागारोवउत्ते वि सत्तावीस भंगा। ( श० १।२४१ - २४३ ) नेवाओ, नातं सामु । ( ० १२४४) रत्नप्रभा पृथिवीप्रकरणवच्छेषपृथिवी प्रकरणान्यध्येयानि केवलं पास विशेषतासां भिन्नत्वाद्। ( वृ० प० ७२) 1 १२. श० १, उ० ५ ढा० १६ १३७ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. रत्न सर्कर कापोत समील, तीजी नरके काऊ नील। कापोत केइक नरकावास, केइक नील कहीजे तास ।। चउथी नरके नील कहाय, पंचमी नील कृष्ण विहं थाय। छठी नरकै कृपण संपेख, सप्तमी परम कृष्ण सुविशेख ।। ११३, ११४. काऊ य दोमु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥ (श० ११२४४, संगहणी-गाहा) ११५. संख्या नरकावास नीं, तीस अन पणवीस । इत्यादिक पूर्व कही, तिण करि पाठ कहीस ।। ११६. *हे प्रभु ! असुरकुमार ना तास, चउसठ लक्ष अछ आवास । इक-इक आवासै पहिछान, स्थिति ना स्थानक केता जान? ११७. जिन कहै-असखेज्ज स्थिति ठाण, जेम ने रइया तिम ए जाण। णवरं पडिलोमा तसं भंग, लोभ मायादिक अनुक्रम संग।। वा०-नारकी नै विष क्रोध मान माया लोभ-इम अनुक्रमे भांगा कह्या । अनै असुरकुमार नै लोभ माया मान क्रोध इम अनुक्रम कहिवा । 'सव्वेवि ताव होज्ज लोभोवउत्ता' देवता नै बहुलपण लोभ संज्ञा घणी हुई। तिण कारण सगलाई असुरकुमार लोभवंत छ। ए असंजोगियो एक भांगो थयो। हिवै द्विकसंजोगिया छह भांगा हुई। अहवा लोभोवउत्ता य मायोवउत्ते य। अहवा लोभोवउत्ता य मायोवउत्ता य । अहवा लोभोवउत्ता य माणोवउत्ते य। अहवा लोभोवउत्ता य माणोवउत्ता य। अहवा लोभोवउत्ता य कोहोवउत्ते य । अहवा लोभोवउत्ता य कोहोवउत्ता य। इम सत्तावीस भांगा करिवा तिण मे लोभै बह बचन सर्व ठिकाणे करिव । ११८. इमहिज जावत् थणियकुमार, णवरं नानापणुं विचार । प्रश्न-सूत्र उत्तर-सूत्र अध्येय, संघयण संठाण लेश कहेय ।। वा०- नारकी नै अनै असुरकुमारादिक नै परस्पर माहोमांहि नानापणुं जाणी नै प्रश्न-सूत्र, अनै उत्तर-सूत्र नुं उच्चरवू । बलि नारकी नैं अनै असुरादिक नै संघयण संठाण लेस्या सूत्र नै विष नानापणुं हुई ते इम कहिवू–च उसट्ठीए णं भंते असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा कि संघयणी? गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला इट्ठा कंता ते तेसि संघायत्ताए परिणमंति । एवं संठाणे वि, नवरं भवधारणिज्जा समचउरंससंठिया उत्तरवेउब्विया अण्णयरसंठिया । एवं लेसासु वि, नवरं कइ लेसाओ पग्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा--किण्हा, नीला, काऊ, तेऊ लेसा। चउसट्ठीए णं जाव किण्हलेसाए बट्टमाणा कि कोहोवउत्ता ४ ? गोयमा ! सब्वेवि ताव होज्जा लोहोवउत्ता इत्यादि । एवं नीला, काऊ, तेऊ वि । वलि नागकुमारादिक प्रकरण नै विष इम भणवू ते कहै छ--चुलसीए नागकुमारावाससयसहस्सेसु इत्येवं । 'चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई' इत्यादिक वचन तै प्रश्न सूत्र नै विषै, भवन संख्या नानापणुं जाणी नै सूत्र नो उच्चारण करिवू । *लय-खिण गई रे मेरी खिण गई ११५. यच्च सूत्राभिलापेषु नरकावाससंख्यानानात्वं तत् 'तीसा य पन्नवीसा' इत्यादिना पूर्वप्रर्दाशतेन समवसेयमिति। (वृ०-५०७३) ११६, ११७. चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससय सहस्सेस् एगमेगमि असुरकुमारावासंसि असुरकूमाराणं केवइया ठितिटठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पण्णता। जहणिया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरंपडिलोमा भंगा भाणियब्वा । सब्वे वि ताव होज्ज लोभोवउत्ता। अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्तय । अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य। वा०-नारकप्रकरणे हि क्रोधमानादिना क्रमेण भंगकनिर्देशः कृतः, असुरकुमारादिप्रकरणेषु लोभमायादिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः, अत एवाह-'सब्वेवि ताव होज्ज लोहोवउत्त' त्ति, देवा हि प्रायो लोभवन्तो भवन्ति तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा लोभोपयुक्ताः स्युः, द्विकसंयोगे तु लोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव, मायोपयोगे स्वेकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भंगको, एवं सप्तविंशतिभंगकाः कार्याः। (वृ०-५०७३) ११८. एएणं गमेणं नेयव्व जाव थणियकुमारा, 'नवरं--- नाणत्तं जाणियब्वं'। (श० ११२४५) वा०--नारकाणाममुरकुमारादीनां च परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयं, तच्च नारकाणामसुरकुमारादीनां च संहननसंस्थानलेण्यासूत्रेषु भवति। (वृ०-५०७३, ७४) १३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. हे प्रभु! पृथ्वी काय ना तास, असंख्यात लख तेना वास । इक इक वासा मांहि पिछाण पृथ्वीकाय नो किता स्थिति-ठाण ॥ १२०. जिन क है - असंखेज्ज स्थिति-ठाण, अंतर्मुहूर्त्त जघन्य पिछाण । अधिक जघन्य थी समयो एक, जाव तेहिज वासे उत्कृष्ट अपेख || १२१. हे प्रभु! पृथ्वीकाय ना तास असंख्यात लक्ष है तवास। इक इक पृथ्वीकाय नें वास, जघन्य स्थिति वर्तमान विमास || १२२. तेह पृथ्वी स्यूं कोहोवउत्ता य, कैमणोवउत्ता तसुं कहिवाय ? मायोवउत्ता लोभोवडत्ता य ? ए प्रश्न बहु वच च्यारूं मांय || १२३. जिन कहै - कोहोवउत्ता तेह, माणोवउत्ता पिण छे जेह | मायोवउत्ता पिण कहिवाय, लोभोवउत्ता पिण ते थाय ॥ १२४. पृथ्वी तणां जीव बहु उक्त, इक इक कपाय में उपयुक्त | वह सातिसुं नहि उपजे भंग, दसूं स्थान विए १२५ णवरं तेजु लेस असी भंग, स्वर्ग थकी चव देव सुरंग पृथ्वीकाय में उपडे आय एक तथा बहु इम असो धाय ॥ । । , वा० - इहां पृथ्वीकाय नां प्रकरण नैं विषै स्थितिस्थानद्वार साक्षात् सूत्र पाठ मैं विषै क ु ईज छै । अनैं शेष नारकी नीं पर कहिवा । तिहां वली 'णवरं णाणतं जानिए पाठ पूर्वको तेही अनुवृत्ति चकी नानापणुं रहां प्रश्न वकी अ उत्तर थकी जाणवूं । अनैं शरीरादिक सात द्वार नै विषै ते नानापणुं प्रश्न थकी अनैं उत्तर थकी इम कहिवूं असंखिज्जेसु णं भंते! पुढविकाइयावास सय सहस्सेसु जाव विकावा कइ सरीरा पण्णत्ता ? तिमि तं जहा ओरालिए प कम्मए । एतेसु च कोहोवउत्ता वि माणोवउत्ता वीत्यादि कहिवूं १ तथा असं जाव पृविकाश्या सरीरमा कि संचयी इत्यादि ? तिमहिज वरं पोग्गला मणुण्णा अमणुण्णा सरीरसंघायत्ताए परिणमति २ एवं संठाणद्वार मैं विपण पूछा करवी अनं वति उत्तर में विइम हिडठिया, एतलुईज पाठ भणवू, पिण दुविहा सरीरगा पण्णत्ता तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेजविया व इत्यादि पाठ न कहि पृथ्वीका में बैंकिग शरीर नहीं ते माटे ३ लेखाद्वार नै विति इस कहवाइया भंते! कद माओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा - कण्ह लेसा जाव तेऊ लेसा । इहां तीन लेस्था में वि तो भांगा नभी अने तेजुलेश्या ने वि अस्सी गंगा ए पूर्व ह्याईज ४ दृष्टिद्वारे इम कहि जान काया कि सम्मि मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! मिच्छदिट्ठी शेष तिमहिज ५ ज्ञानद्वारे पिण तिमहिज णवरं --- पुढविकाइयाणं भंते! किं णाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी, नियमादु अण्णाणी ६ योगद्वारे पिण तिमहिजनवरं विकाइया मते कि मगजोगी बहनोगी कायजोगी ? दोषमा! नो मणजोगी, नो वइ जोगी, काय जोगी ७ ए पूर्वे का ते सर्व टीका थी जाणवूंं । ११२, १२०. असं गं भंते! पुविनकाइयावासस्य सहस्से एमेसि विकाइयावास विका इयाणं केवइया ठितिट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पण्णत्ता तं जहा जहणिया ठिई जापानकोसिया ठिई (२० १२४६) १२ १२२.सु णं भंते! पुरविनकाावासस सहस्से एममेगंस विकावासंसि जणयाए ठितीए वट्टमाणा पुढविक्काइया कि कोहोवउत्ता ? माणोवउत्ता ? मायोवउत्ता ? लोभोवउत्ता ? । " १२२. गोमा कोहोबत्ता चि माणवाविमो उत्ता वि, लोभोवउत्ता वि । १२४, १२५. एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, नवरं - तेउलेस्साए असीतिभंगा । (४० १०२४०) पृथिवीकायिका एकैकस्मिन् कषाये उपयुक्ता बहवो लभ्यन्त इत्यभङ्गकं दशस्वपि स्थानेषु, नवरं 'तेउलेसाए असीई भंग' त्ति, पृथिवीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या, सा च यदा देवलोकाच्च्युतो देव एकोऽनेको वा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यते तदा भवति, ततश्च तदैकत्वादिभवनादशीतिर्भङ्गका भवन्तीति । ( वृ० प० ७४) वा० इह पृथिवीकायिकप्रकरणे स्थितिस्थानद्वारं साक्षाल्लिखितमेवास्ति, शेषाणि तु नारकवद्वाच्यानि, तत्र च नवरं पातं जाणियन् इत्येतस्यानुवृत्तेर्नानात्वमिह प्रश्नत उत्तरतश्चावसेयं तच्च शरीरादिषु सप्त द्वारेविदम्( वृ० प० ७४ ) श० १, उ०५, ढा० १६ १३६ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६. इम ही आउ वणस्सइकाय, तेउ बाउ में तेज नाय। १२६. एवं आउक्काइया वि । तेउक्काइय-बाउक्काइयाणं सर्व स्थानक में अभंग होय, च्यार शरीर वाउ वृत्ति जोय ।। सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं। वणप्फइकाइया जहा पुढविक्काइया । (श० २४८-२५०) वाउक्काइयाणं, कइ सरीरा पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि, तं जहा-ओरालिए, वेउबिए, तेयए, कम्मए। (वृ०-५० ७५) १२७. पृथ्वी अप वनस्पति रै मांहि, दष्टि द्वारै ज्ञानद्वारै ताहि। १२७. ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन कर्म ग्रंथै सास्वादन उक्त, बले ज्ञान कह्या बे तेह अयुक्त ।। सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते, तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च। (वृ०-५०७५) १२८. बे ते चोरिद्री नं प्रसंग, जे स्थान नरक नै असी भंग। १२८. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जेहिं ठाणे!ह नेरइयाणं ते स्थान के विकलिंद्रिय तीन कहिये, भांगा असी सुचीन ।। असीइभंगा तेहि ठाणेहि असीई चेव । वा०—एक समय अधिक जघन्य स्थिति ना धणी नेरइया जाव संख्यात समय वा०-तत्रैकादिसङ्खचातान्तसमयाधिकायां जघन्यस्थिती अधिक जघन्य स्थिति ना धणी नेरइया नै विषै जघन्य अवगाहना ना नेरइया नै तथा जघन्यायामवगाहनायां च तत्रैव च संख्येयान्तविष एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना नों धणी जाव संख्यात प्रदेश अधिक प्रदेशवृद्धायां मिश्रदृष्टौ च नारकाणामशीतिर्भङ्गका जघन्य अवगाहना नों धणी नेरइया नै विषै मिथदृष्टि नेरइया नै विषै अस्सी उक्ताः, विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्रदृष्टिभांगा कह्या। विकलेंद्रिय नै पिण ए स्थानक - विष मिश्रदृष्टि वरजी नै अस्सी वर्जेष्वशीतिरेव, अल्पत्वात्तेषाम् एकैकस्यापि क्रोधाभंगाईज, अल्प ते भणी। एक-एक क्रोधादि उपयुक्त ना संभव थकी। मिश्रदृष्टि धुपयुक्तस्य संभवात्, मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेष्वेविकलेंद्रिय नै विष नथी। केन्द्रियेषु च न संभवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्रावृद्ध तु पुनः इण सूत्र नै विष किणहि वाचना विशेष थकी इम कह्य । जे स्थानकै नारकी नै अस्सी भंगा ते स्थानक नै विष विकलेंद्रिय नै अभंगक इति ए गीतिभङ्गकसम्भव इति। टीका में कह्य। वृद्धस्त्विह सूत्र कुतोऽपि वाचनाविशेषात् यत्राशीतिस्तत्राप्यभंगकमिति व्याख्यातमिति । (वृ०-५०७५) १२६. णवरं दृष्टि द्वार ज्ञान द्वार, जिहां नारकी ने सत्तावीस प्रकार। १२६-१३१. नवरं-अब्भहिया सम्मत्ते। आभिणिबोहियविकलेंद्रिय नै तिहां अधिक विचार, असी भांगा कहिवा इम धार ।। नाणे, सुयनाणे य एएहि असीइभंगा। जेहि ठाणेहि नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सब्वेसु अभंगयं । १३०. सास्वादन सम्यक्त्व सुअंग, मति श्रत ज्ञान विर्ष असी भंग। (श० ११२५१) अल्प छै ते भणी ह किणवार, सत्ताइं विरह असी इम धार ।। दृष्टिद्वारे ज्ञानद्वारे च नारकाणां सप्तविंशतिरुक्ता, जे स्थानक नेरइया नै सत्तावीस, दाख्या भंगा श्री जगदीश । विकलेन्द्रियाणां तु 'अब्भहिय' ति अभ्यधिकान्यशीते स्थानकै विकलिद्रिय माय, अभंगक-भंगा नहिं थाय ।। तिर्भङ्गकानां भवति, क्व इत्याह --सम्यक्त्वे, अल्पी यसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति, अल्पत्वाच्चैतेषामेकत्वस्यापि सम्भवेनाशीतिभङ्गकानां भवति, एवमाभिनिबोधिके श्रुते चेति । तथा 'जेही' त्यादि, येषु स्थानकेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गकास्तेषु स्थानेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां भङ्गका भावः । १३२. पंचेंद्रिय तिर्यंच पिछाण, जेम नरक तिम भणवा जाण। १३२, १३३. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा णवरं इतली फेर कहाय, जे जे बोल पावै तसं न्याय ।। भाणियब्वा, नवरं-जेहि सत्तावीसं भंगा तेहि अभंगयं कायव्वं । १३३. नरक में ज्यां सप्तबीस कथंग, तिहां पंचद्री तिथंच अभंग। (श० १।२५२) नरक नै असी भंग जे स्थान, तिर्यच पंचेंद्री नै तिहां असी जान ।। १४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aro - इहां टीका में इम का नारकी ना सूत्र नी पर कहिवा नवरं शरीरद्वारे ए विशेष - असंखेज्जेसु णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियावासेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि, तं जहाओरालिए, वेउब्विए तेयए, कम्मए । सर्वत्र अभंगक इति । तथा संघयणद्वारे-पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ : संघयणा तं जहा - वइरोसना रायं जाव वट्टति । इम संस्थानद्वारे पिण—छ संठाणा पण्णत्ता तं जहा - समचउरंसे ६ । इम लेस्या द्वारे कइ लेसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तं जहा - कण्हलेसा ६ । इति तियंच पंचेंद्री वर्णन । १३४. जे स्थानं नरक में असी भंग होय, ते स्थानके मनुष्य असी भंग जोव जे स्थाने नरक ने सत्तावीस भंग, ते स्थानकै मनुष्य अभंग प्रसंग || १३५. वरं मनुष्य में अधिक ए जाण, जघन्य स्थिति में असी पिछाण । णत्ररं आहारक शरीर विषै असी होय, पाठ मांहि तो इसोज जोय || वा० - नारकी नैं जघन्य स्थिति विषै सत्तावीस भंगा कह्या अनैं मनुष्य नैं जघन्य स्थिति विषै अस्सी भंगा, पिण अभंगक नहीं । आहारक शरीरवंत मनुष्य नैं अस्सी भंगा, अल्प छँ ते भणी । अनैं नारकी नैं आहारक शरीर नथी ते माट मनुष्य नैं ए अधिक कह्या । अत्र टीकाकार का - इहां नारकीनां सूत्र नो अने मनुष्य नां सूत्र नों बहुलपणे शरीर, संघयण, संठाण, लेश्या, ज्ञान- ए पंचद्वार नै विषै ईज विशेष, ते कहै छँ । शरीरद्वारेअसंखेज्जेसु णं भंते ! मणुस्सावासेसु मणुस्साणं कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच तं जहा - ओरालिए, वेउब्विए, आहारए तेयए कम्मए । असंखेज्जेसु णं जाव ओरालियस रीरे वट्टमाणा मणूसा कि कोहोवउत्ता ४ ? गोयमा ! कोहोवउत्ता वि४ । इम सर्व शरीर नैं विषै। नवरं आहारक नैं विषै अस्सी भंगा कहिया । १३७. संघयणद्वारे - नवरं मणुस्साणं भंते! कइ संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ संघयणा पण्णत्ता, तं जहा - वय रोसहनाराए जाव छेवट्टे । संस्थानद्वारे - छ संठाणा पण्णत्ता, तं जहा - समचउरंसे जाव हुंडे । पाद्वारे तं जहाहिस्सा जाय लेस्सा। ज्ञानद्वारे - मणुस्साणं भंते ! कइ णाणाणि ? गोयमा ! पंच तं जहाआभिणिबोहियणाणं जाव केवलणाणं । केवल वरजी च्यार ज्ञान नैं विषै अभंगक, केवलज्ञान नै विषै कषाय नों उदय नथी । १३६. व्यंतर भवनपति जिम होय, जोतिथि विमानिक पिण इम होय । वरं णाणत्तं जे जिहां बोल, जाव अणुत्तरा पाठ अमोल || वहा वृत्तीनां जोतिषि कह्या, असंख विमानावास । वैमानिक संख्यातख विमान वास विमास || भते १३८. *सेवं सोलमी ढाल, प्रथम शतक रं पंचमं न्हाल | भिक्षु भारीमात ऋषिराय पसाय, 'जय जश' मुख-संपति वर पाय ।। प्रथमशते पचमोद्देशकार्यः || १ | ५ || *लय - खिण गई रे मेरी खिण गई १३४, १३५. जेहि ठाणेहिं नेरइयाणं असीतिभंगा तेहि ठाणे मस्सा विसीतिभंगा भाणियव्वा । जेसु सत्तावीसा ते अभंग, नवरं मस्साणं अमहिय डिए आहार व असोतिभंगा। ( श० ११२५३ ) १३६. वाणमंतर - जोतिस वेमाणिया जहा भवणवासी, नवरंनाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स, जाव अणुत्तरा । (४० १४२५४) १३७. मायावासहस्सेस... । (१०-१० ७७) १३८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ | ( श० ११२५५ ) श० १, उ० ५ ढा० १६ १४१ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७ पंचमदेश अंत में, जोतिषि वैमानीक। विमानवासा वर्णव्या, दश ठाणे तहतीक ।। जोतिषी विमानवास ते, प्रत्यक्ष ही दीसंत । छठे उदेशै आदि में, प्रश्न तास पूछंत ॥ १, २. अनन्तरोद्देशकेऽन्तिमसूत्रेषु 'असंखेज्जेसु णं भंते ! जाव जोतिसियवेमाणियावासेसु' तथा 'संखेज्जेसु णं भंते ! वेमाणियावाससयसहस्सेसु' इत्येतदधीतं, तेषु च ज्योतिष्कविमानावासा: प्रत्यक्षा एवेति तद्गतदर्शनं प्रतीत्य तथा 'जावंते' इति यदुक्तमादिगाथायां तच्च दर्शयितुमाह (वृ०-५०७७) *हो जिनदेव ! प्रभुजी ! आपरा वचनामृत म्हानै वाल्हा लागै हो लाल । समय बच प्यारा लागै हो लाल, संवेग सुण्यां थी जागै हो लाल ।। (ध्रुपदं) ३. हे प्रभु ! सूर्य ऊगतो जी, गगन रह्यो दीसंत । आथमतो पिण एतलो जी, सूर्य दृष्टि आवंत ? जिन कहै-हता गोयमा! जो, गगनत र थी जोय । ऊगतो दीसै जितो रवि, आथमतो पिण होय ।। हे प्रभु ! ऊगंतो रवि जी, सगली दिशि जे खेत। करै प्रकाश उद्योत बलि जी, अल्प तथा बहु तेथ ।। तपति-शीत दूरो करै बलि, प्रभासयति नं अर्थ। टालै शीत विशेष थी जी, तिम आथमतोऽपि तदर्थ ।। तितै क्षेत्र सवओ समंता आतप स्यू अवभास । उज्जोएइ ? तवेइ ? पभासेइ? जिन कहै हंता तास ।। ३. जावइयाओ णं भंते ! ओवासंतराओ उदयंते मूरिए चक्खुप्फासं हब्वमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चेव ओवासंत राओ चक्खुप्फास हब्वमाग च्छति? ४. हंता गोयमा ! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उदयंते सुरिए चक्खुप्फासं हब्बमागच्छति, अत्थमंते वि जाव हव्वमागच्छति। (श०१२५६) ५. जावइय णं भते ! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सब्वओ समता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, ६. 'तपति' अपनीतशीतं करोति 'प्रभासयति अतिताप योगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते। (वृ०-५०७८) ७. अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चेव खेत्त आय वेणं सव्वओ समंता ओभासेइ? उज्जोएइ? तवेइ? पभासेइ ? हंता गोयमा ! जावतिय णं खेत्तं जाव पभासेइ। (श० ११२५७) ८. तं भंते ! कि पुढें ओभासेइ ? अपुट्ठ ओभासेइ जाव छद्दिसि ओभासेई। (श० ११२५८-२६६) ६. एवं-उज्जोवेइ तबेइ पभासेइ। (श०१।२६७) ते प्रभ ! स्यं फस्र्यो तिको जी? अवभासै छै खेत्त ?। कै अव भासे अशियो जी, जाव छहुं दिशि तेथ ।। इम उद्योत करै घणं जी, तप प्रभास एम। यावत् नियमा षट् दिशै जी, फस्र्यो प्रकास तेम ।। १०. सोरठा फयों छै जे खेत, तेहिज अवभासै कह्यो। हिवै फर्शणा एथ, तेहिज देखाडै अछ।। १. अंग सुत्ताणि भाग २ शतक १ सूत्र २५८ से जाव की पूर्ति कर पाठ बढ़ाया गया है। यह क्रम २६६ सूत्र तक है । जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है। *लय-रात रा अमला में होको गहिरो गूंजे हो लाल १४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. हे प्रभु ! सगली दिशि विष जी, सर्व आतप करी तेथ । फर्शण काल समय विर्ष जी, जितो क्षेत्र फर्शत ।। फशण लागो तेहनै जो, फर्यो कहिजै स्वाम? जिन कहै हता गोयमा जी, इम सह बात तमाम ।। १३. ते प्रभु ! स्यूं लागो फर्शवा जी?, फर्श क्षेत्र उदंत । जावत् नियमा षट् दिशै जी, फर्शण लागो ते फर्शत ।। १४. हे प्रभ ! लोक ना अंत नै जी, अलोकांत फर्शत। अलोकांत ने लोकांत फर्श ? हंता जिन भाखंत ।। १५ ते प्रभु ! स्यूं लागो फर्शवा जी, फौं छै जिन राय ? जावत् नियमा पट् दिशे जो, फर्शण लागो ते फर्शाय ।। १६. द्वीप तणां छेहड़ा प्रते जी, 'फर्श सागर - अंत। सागर-अंत ने द्वीपांत फर्श ? हंता जिन-वच तत ।। ११, १२. से नूणं भंते ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल समयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ तावतियं फुसमाणे पुढे त्ति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! सव्वंति जाव वत्तब्वं सिया। (श० ११२६८) १३. तं भंते ! कि पुढें फुसइ? अमुट्ठ फुसइ? गोयमा ! पुढें फुसइ, नो अपुढें जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श० ११२६६) १४. लोयते भंते ! अलोयंतं फूसइ? अलोयंते वि लोयंतं फुसइ? हंता गोयमा ! लोयंते अलोयतं फुसइ, अलोयते वि लोयंत फुसइ। (श० ११२७०) १५. तं भंते ! कि पुटुं फुसइ ? अपुढें फुसइ? गोयमा ! पुढें फुसइ, नो अपुळं जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श० १।२७१) १६. दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ? सागरते वि दीवंतं फुसइ? हंता गोयमा ! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंतं फुसइ जाव नियमा छदिसि फुसइ। (श० ११२७२) १७. योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, तत श्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या, पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव, समन्ततस्तेषामवस्थानात्। (वृ०-५०७६) १८. एवं एएणं अभिलावेणं उदयंते पोयंत छिदंते दुसतं छायंते आयवंतं जाव नियमा छद्दिसि फुसइ। (श०२७३-२७५) १६. 'छायंते आयवंत' ति इह छायाभेदेन षड्दिम्भावनैवम् आतपे व्योमवर्तिपक्षिप्रभृति द्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद्रव्यं यावदुच्छ्योऽस्ति, ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति। (वृ०-५०७६) २०. स्पर्शनाऽधिकारादेव च प्राणातिपातादिपापस्थानप्रभव कर्मस्पर्शनामधिकृत्याह-- (वृ०-प० ७६) २१. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि। (श० ११२७६) 'किरिया कज्जई' त्ति, क्रियत इति क्रिया---कर्म सा क्रियते । (वृ०-५०८०) १७. यावत् नियमा पट् दिर्श जी, हेठो जोजन हजार । द्वीप समृद्र अछै सही, फर्श ऊर्द्ध अधो दिशि च्यार ।। १८. इण प्रकार करि जाणिय जी, उदक नो अंत नावंत। छिद्र ना अत नै वस्त्रांत फर्की, छायांत नै धूप - अंत ।। १६. जावन् नियमा पट् दिश जी, गगनपंखी प्रमुख छाय। आतप बीच रही थकी जी, इम पट दिशि फर्शाय ।। स्पर्शन ना अधिकार थी जी, प्राणातिपातादि पापस्थान । प्रभव कर्म नी फर्शणा नों हिव प्रश्न-विधान ।। अस्थि भते ! जीवा भणी जी, प्राणातिपात नी जोय। किरिया-कर्म हुवै सही जी? जिन कहै हता सोय ।। * लय-रात रा अमला में होको गहिरो गूंजे हो लाल श०१, उ०६. डा० १७ १४३ Jain Education Intemational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रभु ! ते किरिया स्वं फरथी के अणफय होय ? जावत् निर्व्यापात ते जी. पट दिशि फर्शी जोय ।। व्याघात- अलोक नैडो तिहां जी, ते आश्री अवधार । कदा तीन कदाचिदिने जो पंच दिशि किवार ॥ तिका किया प्रभु ! स्यू कीधी के अणकोधी धाय ? जिन कहै - क्रिया कीधी हुवै छे, अणकीधी हुवै नांय || तिका किया प्रभु आप से कीधी के पर कीधी हो ? के आत्म पर बिनीं कोधी क्रिया लागे ए जोय ? ॥ जिन कहे-आपरी कीधी लागे, पर नीं कोधी न लागंत ? बलि विहं नी कोषी नहि साग, फुन गोयम पूच्छंत ॥ तिका क्रिया प्रभु ! स्यूं आनुपूर्वी, अनुक्रम कीधी लागंत ? के अनानुपूर्वी कधी लागे छे, अनुक्रम विष उपजंत ? ।। जिन कहै आनुपूर्वी ते अनुक्रम कीधी क्रिया लागत । अनुक्रम विण अनानुपूर्वी कोधी क्रिया नवि हंत ॥ गये काले जे क्रिया कीधी, संप्रति काल करत काल अनागत किया करिस्य ते सह अनुक्रम त ।। ३०. हे भगवंत ! नैरइयां नै प्राणातिपात नीं जोय । किरियाकर्म हवं सही जी ? जिन कहै हंता सोय ।। ३१. प्रभु ते किरिया स्वं श्यों थी, के अणफश्य होय ? जावत् निर्व्याघात तें जी, षट दिशि फर्शी जोय || २६. -- २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. ३२. ३३. ३४ ३५. ३६. तिका क्रिया प्रभु ! स्यूं जाव आनुपूर्वी कीधी जिम रातिम एकेंद्रो वरजी, भणवूं विमाणिक अंत एकेंद्री ने जीव तणी पर कहियूँ सहु विरतंत ॥ 1 प्राणातिपातको जिह विध, तिम नृपावाद पिछाण छै अदत्त मिथुन परिग्रह जावत् मिच्छादंसण सत्य जाण ।। इम ए अठार पाव स्थानक, चउवीस दंडके जान । सेवं भंते कही वीर वंदी गोयम विचरै धरता ध्यान || कीधी के अणकीधी चाय ? हुवै, तीनूं काल है मांय || १४४ भगवती जोड - सोला ना अंक नो देश कह्यो ए, सरस सतरमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसादे 'जय जय' संपति माल ॥ २२, २३. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? गोमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव निव्यापार छति वापायं पहुच सिया तिदिसि सिया चउदिसिं, सिया पंचदिसि । ( श० १।२७७ ) २४. सा भंते! कि कडा कज्जइ ? अकडा कज्जइ ? गोयमा ! कडा कज्जइ, नो अकडा कज्जइ । (२० १२७८) २५. सा भंते! कि अत्तकडा कज्जइ ? परकडा कज्जइ ? तदुभयकडा कज्जइ ? २६. गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, नो परकडा कज्जइ, नो तदुभयकडा कज्जइ । (०२१४२७२) २७-२६. सा भंते कि आणुपुब्वि कडा कज्जइ ? अणाणुपुव्वि कडा कज्जइ ? गोयमा ! आपुवि कहा जा कडा कज्जइ । जाय कडा, जा य कज्जइ, जा य कज्जिस्सइ, सव्वा सा आणुपुव्वि कडा, नो अणाणुपुवि कडा ति' वत्तब्वं सिया । (श० ११२८० ) ३०. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवार्याकरिया कज्जइ ? हंता अत्थि । ( ०१४२६१) ३१. सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव नियमा छद्दिसि कज्जइ । ( ० १४२०२) ३२. सा भंते ! किं कडा कज्जइ ? अकडा कज्जइ ? गोयमा ! कडा कज्जइ, नो अकडा कज्जइ । ( श० ११२८३) तं चैव जाव नो अणाणुपुव्वि कडा ति वत्तव्वं सिया । ( श० ११२८४ ) ३३. जहा नेरइया तहा एगिदियवज्जा भाणियव्वा जाव बेमाणिया । एगिदिया जहा जीवा भाणियव्वा । ( श० ११२८५ ) तहा ३४, ३५. जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए, तहा अदिण्णादाणे मेहुणे, परिस्महे, कोहे जाय मिच्छादंसणसत्लेएवं एए अट्ठारस चडवीसं दंडगा भाणियव्वा । (रा० १२६६) ३५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर तजा विहति । ( ० १२६७) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. "जय-जयकारी हो ज्ञान जिनेंद्र मोरे, जय जण करण मुद जय जनकारी हो प्रश्नज पूछिया रे, जय-जश उत्तर आनंद ||०|| २. तिग काले नै तिष समा ने विये, भगवंत श्री महावीर सीस रोह नामै अणगार छं, भद्र प्रकृति गुण - हीर ॥ ३. प्रकृति स्वभावे मावमुनि प्रकृति स्वभावे विनीत । प्रकृति स्वभावे क्रोध उदय नयी प्रचलपण रीत ॥ दूहा आखी कर्म-परूपणा ते शास्यत अतएव । शास्वत लोक अलोक नां, रोह प्रश्न पूछेह ॥ ढाल : १८ मार्दव ४. क्रोध मान माया लोभ पातला, मृदु अहंकार ने अति हो जीतवं गुरु उपदेश ८. ११. ५. सुगुरु समीप चरण तलालीन है, गुरु दत्त सीख आराध । गुरु सेवा सुविनीतपणुं घणूं, सखरी भाव समाध ॥ ए I ६. भगवंत श्री महावीर थकी मुनि, नहीं अति दूर नजीक जानु ऊर्द्ध अधोसिर ऊरूड, ध्यान कोठे तहतीक || ७. संजम तप कर आतम भावतो, रोह मुनि विचरेह | तब ते रोह भगवंत अणगार नै प्रवर्ती श्रद्धा एह ॥ जावत् पू पहिला लोक छ, पछे अलोकज होय ? 7 प्रथम अलोक पर्छ प्रभु लोक छै? उत्पत्ति आधी जोय ।। ९. जिन कहै - रोहा लोक अलोक ए, पहिला पिण छे एह । पाछे पिण ए दोनूं शाश्वता, आनुपूर्वी न कहेह ॥ १०. हे प्रभुजी ! पहिला ए जीव छे, पाछे अजीव सोय ? प्रथम अजीव पर्छ ए जीव छं, लोक- अलोक ज्यू जोय || इस भवसिद्धिया अभयसिद्धिया सिद्धी असिद्धी स्थान ते मांहे सिद्ध असिद्ध ए जीव छे, शाश्वत दोनू पिछान ।। - *लय - साधूजी नगरी आया सदा भला रे श्री संपन्न | जन्न ॥ १. एवं तावद्गौतमद्वारेण कर्म प्ररूपितं तच्च प्रवाहतः शाश्वतमित्यतः शाश्वतानेव सोकादिभावान् रोहनामि धानमुनिपुङ्गयद्वारेण प्ररूपयितुं प्रस्तावयन्नाह ( वृ० प० ८० ) २, ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे णामं अणगारे पगइभहुए पगड़ मउए' पगइचिणीए पग २, ३. 'पगइभद्दए' त्ति स्वभावत एव परोपकारकरणशील:, 'पगइम उए' त्ति स्वभावत एव भावमादेविकः, अत एव 'पगइविणीयए' त्ति तथा 'पगइउवसंते' त्ति क्रोधोदयाभावात् । ( वृ० प० ८१) ४. पराइयको मागमायाल मृदु वन्मादयम् अस्यर्थमहकृतिस्तत्पन्नः-प्राप्तो गुरूपदेशाद् यः स तथा । ( वृ० प०८१) ५. अल्ली विणीए 'आलीणे' त्ति गुरुसमाश्रितः संलीनो वा अनुपतापको गुरुनिक्षागुणात् 'विपीए' त्ति गुरुसेवागुणात् । ( वृ०प०८१) ६-८. समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते अड्ढजाणू अहोसिरे झाण-कोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमागे विहर। तते गं से रोहे अगनारे जास जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी (TTO PIRES, PER) ८, ६. पुव्वि भंते! लोए, पच्छा अलोए ? पुब्वि अलोए, पच्छा लोए ? रोहा ! लोए य अलोए य पुवि पेते, पच्छा देते --- दो वेते सासया भावा, अणाणुपुब्वी एसा रोहा ! (WO (1920) १०, ११. पुव्वि भंते ! जीवा, पच्छा अजीवा ? पुव्वि अजीवा पच्छा जीवा ? जहेव लोए य अलोएय तहेव जीवा य अजीवा य । एवं भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य सिद्धी असिद्धी सिद्धा असिद्धा । ( श० ११२६१-२६४) १. यह पाठान्तर से लिया है। श० १, उ० ६, ढा० १८ १४५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. हे प्रभुजी ! पहिला ए अंड छ, पछै कुक्कुडी जेह । के प्रथम कुक्कुडी पाछै अंड छ, हिव जिन उत्तर देह ।। १३. रोहा ! ते अंड किण सूं ऊपनों ? कुक्कुडी सूं भगवंत ! तिका कुक्कुडी किण सूं ऊपनी?, अंड थकी हे भदंत ! १४. इमहिज रोहा ! ते अंड कुक्कुडी, पहिला पछै पिण एह । ए दोनूई शाश्वत भाव छ, अनानुपूर्वी कहेह ।। १५. पहिला हे प्रभुजी ! लोकांत छ, पछै अलोकांत थाय? पहिला अलोकांत पछ लोकांत छ? रोहा ! जाव आनुपूर्वी नांय ।। १६. पहिला हे प्रभजी ! लोकांत छै, पछै सप्तम आकाश। सप्तमी नरक हेठे आकाश छै ? ए पूछा सुविमास ।। जिन कहै रोहा ! लोक नों अंत ते, सप्तम पृथ्वी आकाश । पूर्व पछै पिण ए भाव शाश्वता, जाव अनानुपूर्वी तास ।। १८. इम लोकांत सप्तम तणुवाय ते, इम लोकांत घनवाय । इम लोकांत सप्तम धनोदधि, सप्तम पृथ्वी कहाय ।। १६. इम लोकांत संघाते जोडवो, तम'-पृथ्वी-तल आकाश। तणुवाय घनवाय तम नों घनोदधि, इम तम पृथ्वी विमास ।। २०. एम पंचमी जावत् धुर तणो, आकाश नैं तणुवाय । घनवाय घनोदधि नै बलि पृथ्वी, लोकांत साथ जुडाय ।। बलि लोकांत संघाते जोडवा, द्वीप समुद्र असंख्यात । वासा-भरतक्षेत्रादिक सात छ, दंडक चउवीस ख्यात ।। अस्तिकाय पंच बलि समय नै, कर्म अष्ट पट लेस । दृष्टि तीन बलि दर्शण च्यार नै, ज्ञान पंच सुविशेष ।। २३. चिहं संज्ञा बलि पंच शरीर नै, बलि त्रिण जोग विख्यात । प्रवर दोय उपयोग प्रतै वली, जोडवा लोकांत साथ ।। द्रव्य प्रदेश अनै पज्जवा वली, ए विहं पद नों जेह। अर्थ धमसीह कीधो छ तिको, सांभलजो चित देह ।। २५. जीव अजीव बिहं ए द्रव्य कह्या, प्रदेश बिहं नां जाण । पज्जवा जीव अजीव तणां बली, अर्थ कियो इम छाण ।। २६. वृत्तिकार कह्यो द्रव्य ते षट् अछ, कह्या प्रदेश अनंत । पज्जव अनंता ए अर्थ वृत्ति में, अद्धा काल विहं हंत ।। १२-१४. पुब्वि भंते ! अंडए, पच्छा कुक्कुडी ? पुब्वि कुक्कुडी, पच्छा अंडए? रोहा ! से णं अंडए कओ? भयवं ! कुक्कुडीओ। सा णं कुक्कुडी कओ? भते ! अंडयाओ। __एवामेव रोहा ! से य अंडए, सा य कुक्कुडी पुब्बि पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! (श० १०२६५) १५. पुब्वि भंते ! लोयंते, पच्छा अलोयते? पुब्धि अलोयंते, पच्छा लोयते ? रोहा! लोयते य अलोयते य जाव अणाणुपुब्वी एसा रोहा! (श० ११२९६) १६. पुचि भंते ! लोयंते, पच्छा सत्तमे ओवासंतरे? पुब्धि सत्तमे ओवासंतरे, पच्छा लोयंते ? १७. रोहा ! लोयंते य सत्तमे ओवासंतरे य पुब्बि पेते, जाव अणाणुपुब्बी एसा रोहा? (श० ११२६७) १८-२४. एवं लोयंते य सत्तमे य तणुवाए। एवं घणवाए, घणोदही, सत्तमा पुढवी। एवं लोयंते एक्केकेणं संजोएतब्वे इमेहि ठाणेहि, तं जहा-- ओवास-बात-घणउदहि-पुढवि-दीवा य सागरा वासा। नेरइयादि अत्थिय, समया कम्माइ लेस्साओ॥१॥ दिट्ठी दंसण-नाणे, सण्ण-सरीरा य जोगे-उबओगे। दब्ब-पएसा-पज्जव, अद्धा कि पुचि लोयंते॥२॥ (श० १।२६८ संगहणी-गाहा) २२. २४. २६. द्रव्याणि पट् प्रदेशा अनन्ता: पर्यवा अनन्ता एवं 'अद्ध' त्ति अतीताद्धा अनागताद्धा सर्वाद्धा चेति। (वृ०-५० ८१, ८२) २७. ए सह लोकांत साथै जोडवा, पहिला लोकांत एह। पाछै ए सहु पूछा जूजइ, उत्तर पूर्ववत् जेह ।। १. छठी तमा पृथ्वी। १४६ भगवती-जोड़ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. पहिला हे प्रभुजी ! लोकांत छै, पाछे ए सर्व काल' । लोकांत सर्व काल के शाश्वता, अनानुपूर्वी न्हाल ॥ २६. ३०. इम सप्तम आकाशंतर तिको, जोडवो सर्व संघात । जावत् सर्व काल लग जाणवो, वारू रीत विख्यात ।। ३१. प्रभु ! पहिलां सप्तम तणुवाय छै, पछै सप्तम घनवाय । एपिग तिणहिज विध कहिवो सही, जाव काल सर्व ताय ।। ३२. इम ऊपरलो इक इक जोडवो, तेहथी जे-जे सुरीत । हेट से छोडं जावत् काल अतीत | ३३. हे प्रभु! पहिला अनागत काल छे, पछै सर्व काल हुंत । जाव अनानुपूर्वी छै रोहा ! शाश्वत भाव रहंत || सेवं भंते इम कहि रोह मुनि, ध्यान ध्यावै इक चित्त । लोक पदार्थ नां प्रस्ताव थी, पूछे गोयम लोक-स्थित्त ॥ अंक सोलमा नो ए देश छै, ढाल अठारमीं पत्थ । भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसाद थी, 'जय जश' सुख संपत्त ॥ ३४. - ३५. १. इम अलोकांत संघाते जोडवा, बलि रोह पूछे ताय । हे प्रभु ! पहिला सप्तम आकाश छै, पछे सप्तम तणुवाय ? ३. * प्रभु प्यारा, वचनामृत देव जिनेंद्र । (ध्रुपदं ) २. कतिविध प्रभु लोक नी स्थित वीर कई अष्टविध ठित्त । तिका कहिये है अतिरथरे ॥ ४. ढाल : १६ वहा हे भदंत ! आमंति इम, भगवंत गौतम स्वाम । विनय करी श्री वीर नै, पूछे प्रश्नज ताम ॥ आकाश प्रतिष्ठित वाय, तनुवाय घनवाय कहाय । तिकै रह्या आकाश रै मांय ॥ वाय प्रतिष्ठित उदधि वखाणी, पनोदधि पन जिसो पाणी तनु घन वाय ऊपरि जाणी ॥ १. अंग सुत्ताणि भाग २ शतक १ उद्देशक ६ सूत्र २६६ और ३०० की जोड़ उपलब्ध नहीं है । ये पाठ यहां बढ़ाए हुए हैं। वृत्ति में यह पाठ नहीं लिया गया है। *लय-राणी भाषे सुण रे सूडा २८. पुवि भंते! लोयंते पच्छा सव्वद्धा ? पुव्वि सव्वद्धा पच्छा लोयंते ? रोहा ! लोयंते य सब्बद्धा य पुब्वि पेते,' पच्छा देते दो येते सासवा भावा. अणापुन्नी एसा रोहा ! ( श० १३०१ ) २६. जहा लोयंतेणं संजोइया सब्बे ठाणा एते, एवं अलोयंतेण वि संजोएतव्वा सव्वे । पुव्वि भंते! सत्तमे ओवासंतरे, पच्छा सत्तमे तणुवाए ? ( श० ११३०२, ३०३) ३०. एवं सत्तमं ओवासंतरं सम्वेहिं समं संजोएतव्वं जाव सव्वद्धाए । ( श० ११३०४ ) ३१. पुब्वि भते ! सत्तमे तणुवाए पच्छा सत्तमे घणवाए ? एवं तहेव नेयव्वं जाव सव्वद्धा । (श० ११३०५, ३०६ ) ३२, ३३. एवं उवरिल्लं एक्केक्कं संजोयंतेणं, जो जो हिट्ठिल्लो तं तं छड्डतेणं नेयव्वं जाव अतीत- अणागतद्धा, पच्छा सव्वद्धा जाव अणाणुपुथ्वी एसा रोहा ? (स० ११२०७) ३४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० ११३०८) १. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी(श० १०३०९) २. कतिविहा णं भंते ! लोयट्ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा लोयट्ठिती पण्णत्ता, २. जहा भगासपट्ठिए बाए। आकाशप्रतिष्ठितो वायुः -- तनुवातघनवातरूपः, तस्याबकाशान्तपरिस्थित् (००६२) ४. नाय उदही । वातप्रतिष्ठित उदधिः -- घनोदधिस्तनुवातघनवातोपरि स्थितत्वात् । ( वृ० प० ८२ ) श० १, उ० ६, ढा० १८, १६ १४७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. उदधि प्रतिष्ठिता पृथ्वी जाणं, ते रत्नप्रभादि पिछाणं । __बहुलपणां नी अपेक्षा बखाणं ।। ६. बीजू-पृथ्वी ईपत् प्रारभारा, तिका रही आकाश आधारा। इहां नहीं छै तसु अधिकारा।। ७. पृथ्वी प्रतिष्ठिता अवलोय, त्रस स्थावर प्राणी होय । ते पिण बहलपण वच जोय ।। ८. बीज-आकाश पर्वत विमाण, तसं उपरि पिण छै प्राण। न कह्यो तसं कथन वखाण ।। ६. तथा अजीव पुद्गल शरीराद, जीव प्रतिष्ठिता संवाद । रह्या जीव विष ते बाध ।। ५. उदहिपइट्ठिया पुढवी। ५, ६. उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी,घनोदधीनामुपरि स्थितत्वात् रत्नप्रभादीनां, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव। (वृ०-५०८२) ७. पुढविपइट्ठिया तसथावरा पाणा। ७, ८, पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव, अन्यथाऽऽकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति । (वृ०-५०८२) ९. अजीवा जीवपइट्ठिया । ६. अजीवा:-गरीरादिपुद्गल रूपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् । (वृ०-५०८२) १०. जीवा कम्मपइट्ठिया। १०,११. जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः, कर्मसु–अनुदयावस्थकर्म पुद्गलसमुदायरूपेषु संसारिजीवानामाश्रितत्वात्, अन्ये त्वाह.....जीवाः कर्मभिः प्रतिष्ठिताः । नारकादिभावेन अवस्थिताः। (वृ०-५०८२) १०. तथा जीवा संसारिक जाणं, रह्या कर्म विषै पहिछाणं । ते कर्म अनुदय माणं ॥ ११. कहै अन्य आचार्य व्यवस्थित, जीवा कर्म करीनै प्रतिष्ठित । नरकादिक भावं अवस्थित ।। १२. जीवा कम्मपइट्टिया ताह्यो, एतो टीका में अर्थ बतायो । हिव कहै धर्मसी वायो। १३. चउ गति में रह्या जीव धार, तिके कर्म आधार विचार । थया आधारभूत तिवार ।। १४. अजीवा ते जीव-संग्रहिता, मन भाषा नां पुद्गल वहिता। त्यां नै जीव संग्रहिता कहिता।। १४. अजीवा जीवसंगहिया। अजीवा जीवसंगृहीताः, मनोभाषादि पुद्गलानां जीवैः संगृहीतत्वात्। (वृ०-५०८२) १५, १६. जीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः? उच्यते, पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः उत्तरे तु संग्राह्यसंग्राहकभाव इति भेदः । (वृ०-५०८२) १५. छठा सातमां बोल रै मांह्यो, यां में कवण अंतर कहिवायो? तसुं उत्तर ए वृत्ति माह्यो। १६. छठे वचन आधार आधेय, सप्तम संग्राह्य संग्राहक लेय। इहां पिण छै आधार आधेय ।। १७. संग्राह्य ग्रहिवा योग्य जाण, मन भाषादि पुद्गल माण । एतो आधेय ते पहिछाण ।। १८. संग्राहक ते ग्रहणहार, ए तो जीव द्रव्य सुविचार। तिण सुं जीव में कहियै आधार ।। १६. छठे बोल कर्म आधार, तिहां जीव रह्यो सुविचार । तिण जीव आधेय तिवार ।। २०. सातमें बोल जीव आधार, तिण ग्रह्या भाषादि प्रकार । तिण सुं पुद्गल आधेय विचार ।। २१. आठमैं जीवा कम्म-संगहिया, जीव संसारीक ने कहिया । उदय प्राप्त कर्म वस रहिया ।। २१. जीवा कम्मसंगहिया। (श० ११३१०) जीवाः कर्मसंगृहीताः, संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवत्तित्वात् । (वृ०-५० ८२) १४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जिन भाख यथा | ऊपर सू तेहून मुख मांय । ताय ॥ । " ३०. अहो गीतम से २२. जिको जीव कर्मवश लहिये तिको कर्म प्रतिष्ठित रहिये । जिम पद विये रूपादि कहिये ।। २३. ए पिण आधार नै आधेयो, कर्मोदयवश वर्ती ग्रयो। ए तो अर्थ वृत्ति थी कहेयो || २४. छठ अनुदय कर्म वसै जोगा, अष्टम उदय कर्म विषै कहिला । ए तो अर्थ विचार अतीवा ।। २५. किण अर्थ प्रभु ! इम कहिया, अष्टविध लोक स्थिति रहिया । जाव जीवा कर्म-संग्रहिया || दृष्टंत कोई पुरुष घरी मन यंत दीवडी वायु करी पूरंत ।। बंधे पछे बीच बांधी ने संधे । ऊपरली गंठ खोलि निकंदै ॥ ऊपरला देश का वाय, तेहिज ऊपरला देश जल सूं भर पूरे २६. पर्छ ऊपरले मुख ताय गांठ बांधे दांधी अधिकाय पछे विचली गांठ बोलाय अपकाय, वाउकाय ऊपर रहै ताय ? गोतम कहै हंता रहिवाय ॥ ३१. तिण अर्थ करो इम कहिया जाय जीवा कर्म संग्रहिया । गगन धन वायोदधि पृथ्वी रहिया || ३२. दूजो दृष्टांत कोइ पुरुष ताय, मशक वायु भरी अधिकाय । कडि बांधे पैसे जल मांय ॥ ३३. पाणी अगाध तिरथो नहि जाय, पार रहित पाठांतर थाय । पुरुष प्रमाण थी अधिकाय || ३४. एहवो गोतम ! ते नर प्राय अपकाय ऊपर रहै जाय ? गोयम कहै हंता रहिवाय ॥ दृष्टांत करि इम कथिता, लोक स्थिति अष्टविध भणिता । जाव जीवा कर्म-संहिता ॥ ३६. को लोक स्थिति अधिकार, हिव तेहिज तणो विस्तार। वारू गोयम प्रश्न उदार ॥ ३७. प्रभु जीव कर्मादि जोय, अन्योऽन्य बंध्या अवलोय । संबद्ध परस्पर होय ॥ ३८. किण हेतु बंध्या कहिवाय ? अन्योन्य पुट्ठा इण न्याय । ओमारा बोलीभूत थाय ॥ २७. २८. ३५. २२, २३. ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः, यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधा राधेयता दृश्येति । (40-70 68) २५-३०. से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ अट्ठविहा लोयदिती जाव जीवा कहिया ? गोमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थि माडोवेत्ता उप्पि सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झे गंठि बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं गंठि मुयइ, मुझत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, वामेत्ता उवरिल्लं देतं आउयायस्स पूरेइ, पूरेत्ता उप्पि सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झिल्लं गंठि मुयइ । से नूणं गोयमा ! से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरिमतले चिट्ठइ ? हता चिट्ठा। ३१. से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ- अट्ठविहा सोडिती जाव जीवा ३२, ३३. से जहा वा केइ पुरिसे वत्थिमाडोबेइ, वत्थिमाडोवेत्ता कडीए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमता रमपोरुसियंसि उदगंसि ओगाहेज्जा | ३३. पाठान्तरेणापारं पारवजितं । (2014052) ३४, ३५. से नूणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठइ ? हंता चिट्ठ एवं वावा सोना जीवा कम्मसंगहिया । (170 ?12??) ३७-४०. अस्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढ़ा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति ? हंता अस्थि । ( श० ११३१२) ३७, ३८. 'पोग्गले' ति कर्मशरीरादिपुद्गलाः 'अण्णमण्णबद्ध' त्ति अन्योऽन्यं जीवाः पुद्गलानां पुद्गलाश्च जीवानां संबद्धा इत्यर्थः कथं बद्धाः इत्याह-- 'अन्नमन्नपुट्ठा' पूर्व पनामात्रेणान्योन्यं सुष्टज्योज्य बढ़ा, गाढतरं संबद्धा इत्यर्थः, 'अण्णमण्णमोगाढ़' त्तिपरस्परेण लोलीभावं गताः । ( वृ० प० ८३) श० १, उ० ६, डा० १६ १४६. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. चीकण तनु जिम रज लागै, तिम द्वेष अनै अनुरागै । बंध्या-सिह-पडिबद्धा साग ।। ३६. अन्योऽन्यं स्नेहप्रतिबद्धा इति, अत्र रागादिरूपः स्नेहः, यदाह--- स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् । (वृ०-५० ८३) ४१. से केणठेणं भंते ! जाव चिट्ठति? ४०. समुदाय - भावे माहोमाय, रहै छै जीव पुद्गल ताय ? हंता रहै छै ए जिनवाय ।। ४१. किण अर्थे करी जिन राय, जीव पुद्गल नो समुदाय । जाव अन्योऽन्य रहिवाय?।। ४२. यथा दृष्टांत कहै जिन-वाण, द्रह जल-भूत पूर्ण प्रमाण । ऊणो किचित् मात्र म जाण ।। ४३. अति जल ते पाणी निकसतो, जल प्रचर ते विकसंतो। चउदिशि वर्द्धमान थावंतो।। ४४. सम शब्द विषम ते नांहि, भर ते तिहां जल समुदाइ। घट आकार तिष्ठे ताहि ।। ४२-४४. गोयमा! से जहाणामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्प माणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठा। ४४. समो न विषमो घटैकदेशमनाथितत्वेन भरो-जलसमु दायो यत्र स समभरः तया समभरघटतया, सर्वथा भूतघटाकारतयेत्यर्थः । (वृ०-प०८३) ४५-५०. अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एग महं नावं सया सर्व सयछिदं ओगाहेज्जा। से नूणं गोयमा! सा नावा तेहि आसवदारेहि आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठइ? हंता चिट्ठा। ४५. अहे कहितां हिवै पुरुष कोय, एहवा द्रह विप अवलोय । एक मोटी नावा मेली सोय ।। ४६. सूक्ष्म छिद्र....सदा जल आवै, सौ छिद्र मोटा कहिवावै। एहवी नाव द्रहै अवगाहै ।। ४७. अहो गोयम ! आश्रव द्वार, जल आवा नै छिद्र तिवार। जल सू भरी थकी जिवार ।। जल पूर्ण न ऊणी लिगार, जल उल्लास पामै अपार । जिण सू भरी रहै तलधार ।। ४६. जल सं भरयो घडो रहै सोय, तिम द्रह नै तल अवलोय। नावा भरी थकी रहै जोय ।। ५०. वोर गोयम प्रते पूछत, द्रहतल इम नाव रहंत ? गोयम भाखै-हां भगवत। ५१. तिण अर्थे छ पुद्गल जीवा, अन्योऽन्य बंध्या है सदीवा। जेम द्रह-जल नाव अतीवा।। ५१. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अस्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमग्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिट्ठति। (श०११३१३) ५२. लोक स्थिति विषैइज जाण, हिव आगल प्रश्न वखाण। पूछे गोयम महा गुणखाण ॥ ५३. हे प्रभु ! सर्व ऋतु मझार, सर्व काल विष सुविचार। अपकाय सूक्ष्म ए धार॥ ५४. तेह स्नेह प्रमाण सहीत, पडै छै एहवी अप सुप्रतीत। जिन भाई-हता वदीत ।। ५३, ५४. अत्थि णं भंते ! सदा समितं सुहुमे सिणेहकाए पवडइ? हंता अत्थि। (श० ११३१४) १५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. से भंते ! कि उड्ढे पवडइ? अहे पवडइ? तिरिए पव ५५. प्रभु ! ऊर्द्ध लोके स्यूं पडत, वृत्त वैताढ्यादिके भरंत ? अधोग्राम के तिरिय हंत?।। ५६. जिन कहै-ऊर्द्ध लोके पडै छ, अधो ग्रामादिके वरसै छै। - ____ तिरछा लोक विषैइ झडै छ । ५७. बादर अप रहै चिरकाल, तिम ए पिण रहै असराल? नहीं अर्थ समर्थ निहाल ।। ५८. ततकाल विध्वंस पामंत, सेवं भंते सेवं भंते तंत। प्रथम शतक छठो उद्देशंत । ५६. एगुणवोसमी ढाल कहाय, भिक्खु भारीमाल ऋषराय । सुख संपति 'जय-जश' पाय ।। ।। प्रथमशते षष्ठोद्देशकार्थः ।। १।६।। ५६. गोयमा ! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि पवडइ। (श०१३१५) ५७, ५८. जहा से बायरे आउयाए अण्णमण्णसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठइ तहा णं से वि? णो इणठे समठे। से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ । (श० ११३१६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श०११३१७) ढाल : २० १. विध्वंसमागच्छतीत्युक्तं प्राक इह तु तद्विपर्यय उत्पादोऽभिधीयते। (वृ०-५० ८४) सोरठा छठे उदेशै अंत, विध्वंस-वर्णन-वारता । तास विपर्यय जंत, ऊपजवू ते हिव कहै ।। *वीर वचन दिल धारिय। (ध्रुपद) हे प्रभ ! नेरइयो नरक में, ऊपजतो थको हंत जी। जीव पोता नै देसे करी, नरक देस अवयव उपजंत जी? जीव पोता नै देसे करी, नरक सर्व उपजत ? के जीव सर्व प्रदेशे करि, नरक नो देसज हंत? के जीव सर्व प्रदेशे करी, नरक सर्वपणे होय? ए चिउं भांगा पूछिया, हिवे उत्तर दे जिन सोय ।। देसेणं देस न ऊपज, देसेण सव्वं न सोय । सवेणं देसं न ऊपजै, एक सवेणं सवं होय ।। २-४, नेरइए णं भंते ! नेर इएस उवबज्जमाणे, कि--१. देसेणं देसं उववज्जइ? २. देसेणं सव्वं उववज्जइ ? ३. सव्वेणं देसं उववज्जइ? ४. सव्वेणं सव्वे उववज्जइ? चणि-व्याख्या इमहिज छै, बलि कह्यो टीकाकार । धर दोय भंग पावै नहीं, लहै छहला बे भंगा सार ।। तीज भंग गति ईलका, सर्व आत्म - प्रदेश । तेहनां व्यापार करी जिहां, देश करिकै उत्पत्ति स्थान देश ।। च उथै भंग गति कदुके, सव्वेणं सव्वं उपजत । ए टीकाकार व्याख्यान छ, तिको बाचनांतरे वदंत ।। ५. गोयमा ! १. नो देसेणं देसं उववज्ज्इ। २. नो देसेणं सव्वं उववज्जइ। ३. नो सब्वेणं देसं उववज्जइ। ४. सब्वेणं सव्वं उववज्जइ। (श० ११३१८) ६-८. सर्वेण तु सर्व उत्पद्यते, पूर्णकारणसमवायात्, घटवत् इति चूणिव्याख्या, टीकाकारस्तु एवमाह... एतेषु पाश्चात्यभङ्गौ ग्राह्यो, यतः सर्वेण-सर्वात्मप्रदेशव्यापारेणेलिकागतौ यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते, तद्देशेनोत्पत्तिस्थानदेशस्यैव व्याप्तत्वात्, कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रोत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति, एतच्च टीकाका रव्याख्यानं वाचनान्त रविषयमिति । (वृ०-५०८४) *लय-मम करो काया माया कारमी श०१, उ०७, ढा०१६,२० १५१ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम नारकी कह्या तिमज छै, जाव वैमानिक जाण । उत्पत्ति काले आहार लै, तिण सं आहार सूत्र हिव आण ।। हे प्रभ ! नरक में नेरइयो, ऊपजतो लिये आहार। जीव नै एक देसे करी, आहार योग्य द्रव्य देस धार ।। के देसेण सव्वं आहार लै जी, के सव्वेणं देस ल आहार? के सब्वेण सवं आहार लै ? हिवै उत्तर जिन दियै सार ।। प्रथम बे भंग पावै नहीं, छेहला बे भंगा होय। तीज भंगै देश बंध छ, चौथे भांग सर्व बंध जोय ।। दूजा समय थी भव विषै, सब्वेणं देसं सार। तेल ग्राहक मोचक पूडलो, कांइ तेहनी परै सुविचार ।। ६. जहा नेरइए, एवं जाव वेमाणिए। (श० ११३१६) उत्पादे चाहारक इत्याहारसूत्रम्- (वृ०-५० ८४) १०-१२. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे, कि १. देसेणं देसं आहारेइ? २. देसेणं सब्वं आहारेइ? ३. सव्वेणं देसं आहारेइ ? ४. सब्वेणं सव्वं आहारेइ? गोयमा ! १. नो देसेणं देसं आहारेइ। २. नो देसेणं सव्वं आहारेइ। ३. सब्वेणं वा देसं आहारेइ। ४. सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ। (श० ११३२०) १३. 'सब्वेण वा देसमाहारेइ' त्ति, उत्पत्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेश राहारपुद्गलान् कांश्चिदादत्ते कांश्चिद्विमुञ्चति, तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापूपवद्, अत उच्यते-देशमाहारयतीति। (वृ०प०८५) १४-१६. 'सब्वेण वा सव्वं' ति सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहारपुद्गलानादत्ते एव प्रथमतः तैलभूततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते-सर्वमाहारयतीति । (वृ०-५०८५) प्रथम समयेज आहार ल, सब्वेणं सव्वं ताय। तप्त तेले प्रथम पूडलो, तेहनों परै कहिवाय ।। तप्त तेल कडाई विष, पडलो घाल तिवार। तेल नों ग्रहण करै तिको, पिण मकै नहीं ते लिगार ।। इम प्रथम समय जे आहार ले, सव्वेणं सव्वं कहाय । चउथो भांगो सव बंध ए, आहार ले पिण मूकै नाय ।। दूजी बार ते पूडलो रे, घालै तप्त तेल मांहि । आगलो तेल मूकै तिको, नवो तेल ग्रहण करै ताहि ।। तिम दूजा समय थी आहार ले, सव्वेणं देसं विचार । तीज भांग देश बंध ए, आगलो मूकै नवो लै आहार ।। इम जाव वैमानिक लगै, बलि गोयम पूछंत। नरक थी निकलतो छतो, देसेणं देसे निकलंत ।। ऊपजवा नां जिम कह्या, तिम निकलवा नां हंत । नरक थी निकलतो छतो, स्यं देसेणं देस आहारंत ? तिमज बे भांगा पहिला नहीं, छेहला बे भांगा होय । एवं जाव वैमाणिक लगै, ए तो कहिवो विचारी जोय ।। नरक में नेरइयो ऊपनों, ए पिण तिमहिज जाण । जाव सव्वेणं सब्वे ऊपनो, पूर्वली परै पिछाण ।। जिम ऊपजतो निकलतो छतो, तस् कह्या भांगा च्यार। तेम नरक विर्ष ऊपनो नीकल्यो, तसू च्यार भांगा अवधार।। १६-२१. एवं जाव वेमाणिए। (श० १॥३२१) नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उब्वट्टमाणे, कि१. देसेणं देसं उन्बट्टइ? जहा उववज्जमाणे तहेव उब्वट्टमाणे वि दंडगो भाणियब्वो। नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उव्वट्टमाणे कि देसेणं देसं आहारेइ तहेव जाव सव्वेणं वा देसं आहारेइ। सब्वेणं वा सब्ब आहारेइ। एवं जाव वेमाणिया। २२, २३. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववण्णे कि देसेणं देसं उववण्णे एसो वि तहेव जाव सवेणं सव्वं उववणे । जहा उववज्जमाणे उव्वट्टमाणे य चत्तारि दंडगां तहा उववण्णणं उब्वट्टण वि चत्तारि दंडगा भाणियब्वा सव्वेणं सव्वं उववण्णे, २४. सव्वेण वा देसं आहारेइ, सब्वेण वा सव्वं आहारेह । एएणं अभिलावेणं उबवण्णे वि उबट्टे वि नेयव्वं । (श० ११३२२-३३३) सव्वेण सव्वं ऊपनो नीकल्यो, तीन भांगा नहिं होय । आहारै बे धुर भांगा नहीं, छहला भांगा हुवै दोय ॥ १५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. रहयो स्यूं जीव ना अर्द्ध प्रदेश 1 1 नरके ऊपजतो नरक नो अवयव अर्द्ध के अद्वेणं सव्वं अशेस ? कै सव्वेणं अद्ध ऊपजै, कँ सव्वेणं सव्वं जोय ? जिम प्रथम आठ आलावा कह्या, तिम अर्द्ध नां पिण अठ होय ॥ णवरं देशेणं देस जिहा अणं अ कहिवास ए सर्व दंडक सोल छै भगवा विचारी ने न्याय || 1 उप हिव गति सूत्र कहै अछे, सांभलजो चित हे प्रभु! इक वच जीव ते, स्यूं गति विग्रह वक्र गति करि ने जाये तदा ते गति विग्रह के अविग्रह गति सहीत छं जी ? विग्रह गति ऋजु गति कहिये तेहने तथा से अविग्रह निकलते गति पूर्व थी प्राय । ल्याय ॥ सहीत ? कहींत ॥ नांव । थाय || 2 जिन कहे विग्रहगति कदा रह्या अविग्रह किवार। इम जाव वैमानिक लगे, एतो इक वच प्रश्न उदार ॥ समापन्न | बहु वच जोवा हे प्रभु विग्रह गति ! के अविग्रहगति सहीत ? जिन कहै दोनूं जन्न ॥ ?, बहु वच नारकी हे प्रभु ! स्यूं विग्रहगतिया चीन । के अविग्रहगतिया ? जिन कहै भांगा तीन || अछे सगलाइ जीव हुवै कदा, अविग्रह-गति समापन्न । उत्पत्ति विरहे वि हुबै नरके रह्या बहु वचन्न । अथवा अविग्रह-गति घणां विग्रहगति हवे एक अथवा विग्रह-गति घणां, अविग्रह - गतिया' अनेक || 1 १. अन्तराल गति के दो प्रकार हैं-विग्रह गति और अविग्रह गति । विग्रह गति अर्थात् वक्र गति, अविग्रह गति का अर्थ है ऋजुगति । भगवती के प्राचीन टीकाकार ने अविग्रह गति का अर्थ ऋजु गति ही किया है। अभयदेव सूरि ने विग्रह गति का अर्थ वक्रगति किया है। पर अविग्रह गति के दो अर्थ किए हैं अग्रिमानस्तुतिः स्थितो वा अन्यदेवसूरि ने इस अर्थद्वय का स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है-यदि अविग्रह गति का अर्थ ऋजुगति ही करें तो नरकादि दण्डकों में अविग्रह गति समापन्न जीवों का सर्वदा बहुत्व कहा जाएगा, वह घटित नहीं होगा क्योंकि वहां एक, दो, तीन जीव ही उत्पन्न होते हैं । इसलिए अविग्रह गति का एक अर्थ अगति मानने से ही इस अर्थ की संगति बैठ सकती है। २४-२७. इमं तेरह उववज्जमा कि १. अद्वेणं अद्धं उववज्जइ ? २. अद्वेणं सव्वं उववज्जइ ? ३. सव्वेणं अद्धं उववज्जइ ? ४. सव्वेणं सव्वं उब्वज्जइ ? जहा पढमिल्लेणं अट्ठ दंडगा तहा अद्वेण वि अट्ठ दंडगा भाणियव्वा, नवरं जहि देसेणं देस उववज्जइ, तहि अद्वेणं अद्धं उववज्जइ इति भाणियव्वं, एयं नाणत्तं । एते सव्वे वि सोलस दंडगा भाणियव्वा । (श० १ ३३४ ) २. उत्पत्तिरुना व प्रायो गतिपूर्विका भवतीति गतिसूत्राणि । ( वृ० प० ८५) २६,३०. जीभते कि विग्गहगसमाए ? अविग्गहग इसमावण्णए ? २६. विग्रहो वक्रं तत्प्रधाना गतिविग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते । अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः विग्रहगतिनिषेधमात्राथयणात् (बु०प०६५) ३१. गोमा सिन्गिनसमाए सिय अहिनद (० १०३२५) ( श० १ ३३६ ) ? समावण्णए । एवं जाव वेमाणिए । २२. जीवा गंभ! कि गइसमावण्णया ? गोयमा ! विग्गहगइसमावण्णगा वि, अविग्गहगइसमावण्णगा वि । (श० ११३३७) ३३, ३४. नेरइयां णं भंते ! किं विग्गहगइसमावण्णगा ? अग्निसमावण्या ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्ज अविग्गहगइसमावण्णगा ३५. हिमावण्णा विग्गहगहसमावण य | अहवा अविग्गगइसमावण्णगा य, विग्गहगइसमा वण्णगा य । श० १, उ० ७, ढा० २० १५३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. ३७. १. २. ३. ४. ५. ७. ८. इस जीव एकेंद्री वर्ज में तीन गति अधिकार की हिवं, अंक सतरमा नौं देश छै, प्रवर सूत्र बीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जय' संपति माल ॥ भांगा हवै ताय । कहिवाय ॥ चवन ढाल : २१ दूहा 1 महाऋद्धिक प्रभु देवता, अनैं महाद्युतिवंत । महाबल महायशवंत ते महाईश्वर पदवंत ।। पाठ किहां महासुख तणों, महानुभाव विशिष्टवैकियादि करिया समर्थ एवो देव सुइष्ट ॥ - * देव जिनेंद्र नावच भारी रे, प्रभुजी रे सीस गोयम जशधारी । पूछचा प्रश्न भला हितकारी रे (ध्रुपद ) चवनकाल पहिला ए सुरवर, जीवंतो पहिछाणं । किचित् काल आहार नहि लेवे ते कारण हि जाणं ॥ उत्पत्ति स्थान आपण देखी, पुरुष परिभुज्यमान। स्त्री-गर्भाशय रूप पैख नैं, लज्जा कारण जानं ॥ उत्पत्ति कारण शुक्र रुधिर, अवलोक दुगंच्छा आ किचित्काल अरति परिसह थी सुर ने आहार न भावे ॥ , । || * लय- स्वामी सरूपचंद सुखकारी रे १५४ भगवती जोड़ तदनंतर ते आहार करें, क्षुधा तसुं खमणी नावे आहारिज्जमाणे आहारिए आयो, इम परिणामिय भावं ।। - सुर आयु क्षय करी हे प्रभु! तिरि मणुस ज्यां ऊपजे ते आयु वेदे ? हंता जिन कहै सोरठा ऊपजवा नो जोय, आख्यो अधिकार जे। तेहिज प्रश्न हिव होय, चित्त लगाई सांभलो ।। मह्यो । वायो । ३६. एवं जीव एभिंगो। १. ते महिहिए महइए महम् महायसे मधे महाभावे । (श० १०३३८ ) २. महानुभाव टिकवादिकरणाचिनयसामर्थ्यः । ( वृ० प० ८६) ३. अविडक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं ४. १. हरिवत्ति छावत्तियं परीसहवतियं आहारं नी आहारेइ । ''लग्नानिमित्तं स हि वनसमयेनुपात एवं पश्यत्युत्पत्तिस्थानमात्मनः दृष्ट्वा च भवविसदृशं पुरुषपरिभुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपं जिह्रेति, हिया च नाहारयति, तथा 'जुगुप्साप्रत्ययं' कुत्सानिमित्तं, शुक्रादेत्पत्तिकारणस्यरसाहेतुत्वात् परमवत्तिय ति ह प्रक्रमात् परपहरा देनारतिपरीषही ब्राह्मः, ततश्चारतिपरीपनिमित्तं । (२०-१००६) ६. अहे पं] आहारे आहारिमाणे आहारिए, परिणा मिनमा परिणामिए अथ लज्जादिक्षणानन्तरमाहारयति बुभुक्षावेदनीयस्य चिरं सोढुमशक्यत्वात् । ( वृ० प० ८६ ) • पहीणे य आउए भवइ । जत्थ उववज्जइ तं आउयं पडिवेदेतिरिवामगुस्साउ ७. वा ? हंता गोयमा ! देवेणं महिड्डिए जाव मणुस्साउयं ( ० १ ३३२) वा । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जीव प्रभु ! गर्भे ऊपजतो, सइंदियो के अनिदियो कहियो तेहने ? उत्तर दे १०. ११. १४. १६. १२. हे प्रभु ! जीव गर्भ ऊपजतो, शरीर सहित उपजे थे। के शरीर रहित ए जीव ऊपजै ? हिव जिन उत्तर कहै छै १३. कदाचित् सशरीरे ऊपजे, कदाचित् 11 अमरीरं । जिन हीरं ॥ कि अर्थ प्रभु! इस कहिये न्याय कहै सिय सदियों सिय अणिदियो ताम किण अर्थ प्रभुजी इम कहिये ? हिव द्रव्येंद्रिय आश्री अणिदियो, ऊपजै भावेन्द्रिय आधी सदियो ति १८. १६. १५. हिव प्रभु ! जीव गर्भ ऊपजतां प्रथम करें स्यूं आहारो ? जिन कहै अम्मा रुधिर शुरू पितु वेहूं मिल्यू असारो ॥ || १७. हे प्रभु! गर्भे जीव रह्या ने, छै २०. कहिवायो । जिनरायो । औदारिक वैत्रिय आहारक आधी ऊपजै अशरीरं । तेजस कार्मण आश्री उपजै, शरीर सहित वच वीरं ॥ गोवम पूछंतो । भाख भगवंतो ॥ गर्भ महारो। अर्थे सुविचारो ॥ जीव प्रभु! जे रह्यो गर्भ में आहार किसू ते आहारे ? जिन कहै मां रस विगति भोगवं एक देश 7 तसु धारै ॥ , *लय -स्वामी सरूपचंद सुखकारी रे उच्चार लघु खेल संघाण, वमन, पित ? नहीं ए अर्थ गर्भगत सुजोयो। किम अर्थे करिन ? हे गौतम! जीव जे आहारे ते पुष्ट करें, पंचंद्रीपण हाड अने मीजा अरु केम, रोम नम्रपणं दाढी मूंछ नां केशपण, तिण कारण गोयम ! सोयो || इम कहिए - गर्भस्थ जीव ने उच्चार पासवण खेलं । सिंघाण आदिक सहु नहि होवै समुचित न्याय सुमेलं ॥ तदर्थ । समर्थ ॥ जाणं । पिछाणं ॥ ६-११. जीवे णं भंते ! गव्भं वक्कममाणे किं सइदिए वक्क मइ ? अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा ! सिय सइंदिए वक्कमइ । सिय अणिदिए वक्कमइ । ( ० १०३४०) सेकेणट्ठे भंते । एवं वच्चइ – सिय सइंदिए वक्कमइ ? सिय अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा ! दविदियाई पडुच्च अणिदिए वक्कमइ । भाविंदियाई पडुच्च सईदिए वक्कमई से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वच्चइ – सिय सइदिए वक्कमइ । सिय अणिदिए वक्कमइ । (स०] १०२४१) १२, १३. जीवे गं भंते ! गव्भं वक्कममाणे कि ससरीरी वक्कमइ ? असरीरी वक्कमइ ? गोयमा ! सिय ससरीरी वक्कमइ । सिय ससरीरी वक्कमइ । (० १०३४२) से केणट्ठेणं भंते! एवं बुच्चइ - सिय ससरीरी वक्कमइ ? सिय असरीरी वक्कमइ ? । १४. गोमा ओरालियआहारवाई पडुच्च असरीरी वक्कमइ । तेया कम्माई पडुच्च ससरीरी वक्कमइ । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिय ससरीरी वक्कमइ । सिय असरीरी वक्कमइ । (१० १०३४३) १५. जीवे णं भंते ! गब्भं वक्कममाणे तप्पढमयाए किमाहारमाहारेद? गोवमा माओ पिउक्तं तदुभय संसिद्धं तप्पडमाए आहारमाहारे (२०१०३४४) १६. जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे कि आहारमाहारेइ ? गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ रसविगतीओ आहारमाहारेद, तदेकदेसेणं जीवमाहारे (स०] [२०३४५) १७. जीवस्स णं भंते ! गब्भगयस्स समाणस्स अत्थि उच्चारे इ वा पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पिबा ? गो सम ( श० १ ३४६ ) १६-२० से पट्ठे ? गोपमा ! जीवेगं भगए समा जमाहारेदतं विगाह तं जहा सोइंद्रियता जाव फासिदियत्ताए जिसमे रोम-सहताए । सेट्ठे गोमा ! एवं बच्चइ – जीवस्स गभग यस्स समाणस्स णत्थि उच्चारे इ वा पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा । (० १०२४०) श० १, उ० ७, ढा० २१ १५५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. जीव प्रभु ! जे रह्यो गर्भ में मुखे कवल आहार लेवा समर्थ छ ? जिन ते कि अर्थ ? तब जिन भाख, जीव सर्व आत्म करिने आहारे है, सर्व सर्व आत्म करि उस्सास निस्वास, बार बार ले आहारं । बार बार परिणाम उस्सास निस्वास पण वह वारं ॥ कदाचि आहारे कदाचि नाहारं तथा स्वभावे तासं । · स्वांही करोनै कहै समर्थ नाही ॥ रह्यो गर्भ ठामै । आत्म-परिणाम | - कदाचित् परिणामैं ते फुन, कदा उस्सास माउ-जीय- रसहरणी रस नं हरे नाभि पुत्र जीव- रसहरणी छे ते, आहार लिये माउ-जीव ने रसहरणी ते बंधी थकी पुत्र-जीव सूं फरशी छे, ते कारण भी ले अवर नाल पिण सुत - रसहरणी, बंधी माउ-जीव सूं फरसी तिण सूं, शरीर तिम अर्चे करि गौतम ! जावत् मुखे कवल आहार लेवा नहिं समरथ, इम प्रभु न्याय हे प्रभु ! किता अंग माता ना? तीन अंग जिनवाणी । मंस लोही मस्तक नों भेजो, रुधिर बहुल जिहां जाणी ।। छती ताह्यो । बतायो । निस्वासं ॥ नीं नालं । तिण कालं ॥ तिवारं । पुष्टो करीनं आहारं ॥ स्वभावं । थावे ॥ हे प्रभु! अंग पिताना केता ? तीन अंग जिनवाणी । हाड, हाड नी मींजा, केश- मूंछ-नख-रोम पिछाणी ।। मात पिता ना अंग प्रभुजी, किता काल रहे सोयो ? जिन कहै तनु भव-धारणीक, अविनष्ट ज्यां लग होयो । उपचय अंतिम समय थकी ए, समय समय अवलोयो । हायमान थातोज सर्वथा, चरम समय क्षय होयो ॥ सतर अंक नो देश अर्थ ए. एकवीसमी ढालं । भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसाद, 'जय जश' हरय विसाल || १. केशादिकं बहुसमानरूपत्वात् एकमेव... केश, श्मश्रू, नख और रोम-इन चारों को एक अवयव माना गया है । इस प्रकार तीन अंग पितृप्रधान और तीन अंग मातृप्रधान माने गए हैं। इनके अतिरिक्त जितने अवयव हैं उनमें शुक्र और शोणित की सम परिणति होने के कारण उभय सामान्य है । १५६ भगवती जोड़ २१. जीणं भंते! गभगए समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारमाहारिए ? गोयमा ! गोइ सम ( ० ११३४०) २२-२४. से केणट्ठेणं ? गोयमा ! जीवे णं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ उस्ससइ, सव्वओ निस्सes अभिक्खणं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभिक्खणं उस्ससइ, अभिक्खणं निस्ससइ; आहच्च आहारेइ, आहच्च परिणामेइ, आहच्च उस्ससद, आहच्च निस्ससइ । २५-२८. माजीवहरणी सजीवरसह रणी माउली तम्हा आहारे, तम्हा परि पविदा पुल जीवदा णामेइ । अवरा वियणं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ, तम्हा उदचिणाइ । से तेणट्ठेणं जाव नोपभू मुहेणं कावलियं आहारमाहारित्तए । ( ० १०३४९) 1 २६. कइ णं भंते! माझ्यंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ माइयंगा पण्णत्ता, तं जहा ----मंसे, सोणिए, मत्थुलुंगे । (श० २०३५० ) ( वृ००प०८८) 'मत्थुलुंग' तिमस्तक भेकम ३०. कइ णं भंते ! पेतियंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पेतिगंगा ताजा अमिजा, समंधुरोम-नहे । ( श० ११३५१) ३१, ३२. अम्मापेइए णं भंते! सरीरए केवइयं कालं संचि ? गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव वन्ने भवइ एवतियं कालं संचिट्ठइ, अहे णं समएसमए वोयसिज्जमाणे- वोयसिज्ज माणं चरिमकालसमयंसि वोच्छिष्णे भवइ । ( ० २०३५२) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२ दूहा गर्भ तणां अधिकार थी, अपर सूत्र अवलोय । गर्भ तणों कहियै अछ, अर्थ अनुपम जोय ।। जीव प्रभु ! गर्भ मरी, नरक विष उपजंत? जिन कहै कोइक ऊपजै, कोइक नहिं उपजंत ।। २. जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे नेरइएस् उक्वज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। (श० ११३५३) ३. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चय--अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा? m ४. गोयमा ! से णं सण्णी पंचिदिए सब्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तए। ५-७. वीरियलद्धीए वे उब्वियलद्धीए पराणीयं आगयं सोच्चा निसम्म पएसे निच्छुभइ, निच्छुभित्ता वेउब्बियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता चाउरंगिण सेणं विउब्वइ, विउवित्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धि संगामं संगामेइ । से णं जीवे अत्थकामए गोयम कहै किण कारण ?, तब भाखै जगनाथ । गर्भ विपै मर नरक में, जाय तसुं अवदात ।। ४. *श्री जिनदेव कहै इसु, सुण गोयमा ! जे सन्नी पंचेंद्री जीव रे। सुण गोयमा। सगली पर्याप्तियां करी, सूण गोयमा ! पर्याप्तो स्वयं कहीव रे। सुण गोयमा ।। वीर्य-लब्धि तणों धणी, वैक्रिय-लब्धि संपन्न । शत्र-सैन्य निसुणी करी, अवधारी नैं मन्न ।। गर्भ देश थी बाहिरै, काढी निज प्रदेश। समुद्घात वैक्रिय करो, कपाय बसै विशेष ।। चतुरंग सेन्या विकूर्वी, शत्र - सेन्य संघात । युद्ध करै रोसे भरयो, अर्थ-द्रव्य वछात ।। राज्य तणो ते कामियो, भोग - काम ए ताम । गंध फर्श रस भोग्य नी, वंछा मात्र परिणाम ।। काम तणो ते कामियो, शब्द रूप ते काम । तेहनो कामी ए अछ, वंछा मात्रज ताम ।। अर्थ - कंखिए-द्रव्य नी कांक्षा ते गध चित्त । राज्य तणी कांक्षा घणी, भोग काम आसित्त ।। अर्थ - पिपासा तेहन, पाम्य पिण अतृप्त । राजभोग नै काम नी, तास पिपासा क्लुप्त ।। ते अर्थ राज्य भोग काम में, चित्त सामान्यज ताम। मन विशेष तेहने विष, तल्लेश आत्म-परिणाम ।। तेहिज अध्यवसाय छ, तीव्र अध्यवसान तास । अर्थादिक संलग्नता, तदट्रोव उत्त विमास ।। ते अर्थादिक नैं विर्ष, त्रिकरण इंद्रिय स्थाप। अर्थादि संस्कार सू, भावना भावित आप ।। ८. रज्जकामए भोगकामए भोगा:-गन्धरसस्पर्शाः। (वृ०-प० ८६) ६. कामकामए कामौ—शब्दरूपे। (वृ०-६० ८६) १०. अत्थकंखिए रज्जकंखिए भोगकंखिए कामखिए, ११. अत्थपिवासिए रज्जपिवासिए भोगपिवासिए काम पिवासिए, १२, १३. तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिब्वज्झ वसाणे तदट्ठोवउत्ते १४. तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, 'तदप्पियकरण त्ति तस्मिन्नेव--अर्थादापितानिआहितानि-करणानि इन्द्रियाणि कुतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स तथा, 'तब्भावणाभाविए'त्ति...तभावनया-अर्थादिसंस्कारेण भावितो यः स तथा। (वृ०-५०८६) *लय-रात समय बड़ भीमजी मनमोहना श०१, उ०७, दा०२२ १५७ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह युद्ध अवसर गर्भ में, मरी नरक में जात। तिण अर्थे कह्य गर्भ थी, नरक विष उपपात ।। जीव प्रभ ! गर्भे मरी, देव विषै उपजत ? जिन कहै-कोइक सुर हुवै, कोइक सुर नवि हुंत ।। १५. एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज नेर इएमु उववज्जइ। से तेणठेणं गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेजा। अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। (श० ११३५४) 'एयंसि अंतरंसि' त्ति एतस्मिन् संग्रामकरणाबसरे (वृ०-५०८६) १६. जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे देवलोगेसु उवबज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उबवज्जेज्जा। (श० १।३५५) १७. से केणद्वेणं भते ! एवं वुच्चइ–अत्थेगइए उबब ज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा? १८, १९. गोयमा ! से णं सण्णी पंचिदिए सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुबयणं सोच्चा निसम्म तओ भवइ संवेगजायसड्ढे तिव्वधम्माणुरागरत्ते। २०, २१. से णं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए, धम्मखिए पुण्णकखिए सम्गकखिए, मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए। गोयम कहै किण कारण ? तब भाखै जगनाथ । गर्भ विष मरि सुर हवै, आगल ए अवदात ।। ते सन्नी पंचेंदी जीव छै, सर्व पर्याप्ति-प्रतिपन्न। तथारूप श्रमण माहण कन, इक आर्य धर्म वचन्न ।। सांभल अवधारी करी, दिल संवेग अथाग। धर्म विष श्रद्धा हुई, रक्त धर्म अनुराग ।। धर्म तणीं तसं बंछना, पुन्य, स्वर्ग, सिव काम। धर्म, पुन्य, स्वर्ग, मोक्ष नीं, तसु आकांक्षा आम ।। धर्म पुन्य स्वर्ग मोक्ष नी अतृप्ति तेह पिपास । 'इहां स्वर्ग पुन्य बंछा तणी, नहिं जिन आज्ञा तास ।। नरक जावै तेहनै कही, अर्थ राज्य भोग काम । तसं बंछा सावज्ज अछ, तिम ए पिण सावज्ज ताम ।। इहलोक अने परलोक नै अर्थे तप करणो नांहि। दशवकालिक देखलो, नवमा अध्येन मांहि ।। ते माटै पुन्य स्वर्ग नों, बंछा आज्ञा बार । पिण तास हंती जे बंछना, ते कहि सूत्र मझार' ।। (ज० स०) ते धर्मादिक में चित्त छ, तेहिज मन ते लेश । अध्यवसाय तेहनै विषै, ते तीव्र अध्यवसान एस ।। ते धर्मादि उपयुक्त छै, त्रिकरण इंदिय स्थाप। धर्मादि संस्कार सं, भावन भावित आप।। इह अवसर गर्ने मरी, देवलोक में जाय । तिण अर्थे आख्यं इस्य, काइ गर्ने मरि सुर थाय ।। इहां श्रमण माहण पै सुण करी, कह्यो देवलोक में जाय। श्रमण उत्तर गुण सहित छ, माहण मूल गुण पाय ।। माहण शब्द तणों इहां, कांइ अर्थ किया वत्ति मांय । स्थूल हिसादिक त्याग ते, ए अणमिलतो कहिवाय ।। रायप्रश्रेणी वृत्ति में, कह्यो श्रादक परम गीतार्थ । इम आपस में वृत्ति कार रै, विवाद बेपरमार्थ ।। १५८ भगवती-जोड २५-२७. तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिब्वज्झ वसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज देवलोगेसु उववज्जइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ--अत्थेगइए उवबज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उबवज्जेज्जा। (श० ११३५६) Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल हिंसा थी निवयों, तास माहण कहै एक। इक परम गीतार्थ नै कहै, ए बिहं अर्थ अविवेक ।। श्रमण उत्तर गुण सहीत छ, माहण मूल गुण सहीत । भगवती शतके पचमै छठे उदेशै प्रतीत ।। ए अल्प आयु अधिकार में, हिंसा झठ उचार। तथारूप समण वा माहण नैं, दियै अफासु आहार ।। वा शब्द समुच्चय अर्थ छै, अपर नाम पेक्षाय । नाम अनेक मुनि तणां तिहां विचै शब्द वा आय ।। सुयगडांग श्रुत-खंध दूसरै अध्येन पहिलै पेख । चवद नाम मुनि नां कह्या समण माहण धुर देख ।। वीच शब्द वा सह विष नामांतर पेक्षाय। तिण कारण श्रावक भणी माहण कहियै नाय ।। सुयगडांग रै सोलमैं, इंद्रिय-दमन कराय। मुक्ति-गमन जे जोग्य छै वोसिरावी जिण काय ॥ माहण कहीजे तेहने, श्रमण कहीजे ताम । भिक्षु नै निग्रंथ वलि, वा शब्द च्यारूं ठाम ।। किम प्रभु ! तसं माहण क ह्यो 'हे महामुनि ! बताय । ताम जिनेश्वर इम कहै सांभलज्यो सुखदाय ।। सह पाप कर्म सू निवर्यो, राग, द्वेष, कलहादि। जाव मिथ्यादर्शण थकी निवृत्त, करी समाधि ।। पंच-समित-समितो सहित यत्नवंत, नहि क्रोध । नहीं मान तसुं माहण कह्यो पाठ माहै ए सोध ।। प्रत्यक्ष पाठ माहै इहां सर्व पाप-पचखाण । कीधा तसुं माहण कह्यो वीर तणी ए वाण ।। भगवती वृत्ति माहै कह्यो स्थूल हिंसा-पचखाण । माहण कहिये तेहनें केम मिलै ए वाण? || सर्व त्यागी नै पाठ में माहण कह्यो जिनराय। देशव्रती मैं वत्ति में, अणमिलती इण न्याय ।। वृत्ति विषै सूतर थकी अणमिलती जे होय । क्रिम मानीजै तेहनै हिय विमासी जोय ।। ४४. यतनी ४६. दूज आचारंग वृत्ति विशेष, प्रथम झयण रै दशमै उदेश । ___ कहो कारण पडियां सोय, अफासु लूण खाणो जोय ।। ४७. तिणहिज टीका में पहिलै अध्ययन, पहिलै उदेश में ए वयन । कारणे नीलण फूलण सहीत, आधाकर्मी प्रमुख ए अनीत ।। श०१, उ०७, ढा०२२ १५६ Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. वलि चणि नशीत री जोय, जेह शिप्य अपडित सोय । रोग मेटण अंब सेह, पन रमैं उदेशै एह ।। ४६. ववहार नी वृत्ति मझार, कारणे अंब फल नो आहार। गिलाण अद्धा मार्ग मांहि, वलि भिक्षा अण मिलियां ताहि ।। ५०. ऊणोदरी हुवै जद जोय, सचित्त आंबो ग्रहिवो सोय। वृत्ति ववहार नवमैं उद्देश, एहवा वचन विरुद्ध विशेष ।। ५१. सातम उद्देशे नशीत, अर्थ चूणि में विपरीत। धमै धातु लोह तंव आदि, राजा नै आभियोगे साधि ।। ५२. तथा मैथुन अर्थ भावै, लोह तंब धर्म नै धमावै। ए प्रत्यक्ष विरुद्ध पिछाण, आगम थी अण मिलती वाण ।। ५३. आवसग नीं निर्यवित ताहि, परिठावणिया समिति मांहि। साधु कर पंचक में काल, करिवा डाभ ना पूतला न्हाल ।। ५४. बृहत्कल्प री वृत्ति में एम, पुतला करिवा कह्या तेम। एहवी विरुद्ध वृत्ति में पिछाण, आगम थी अणमिलती जाण ।। ५५. बृहत्कल्प तणी वृत्ति मांहि, तथा चणि में कहिवाहि। कारण रात्रि-भोजन आण, ए प्रत्यक्ष विरुद्ध पिछाण ।। ५६. इत्यादिक विरुद्ध अनेक, वत्ति चणि महै विशेष। सूत्र सू अण मिलती सोय, मानवा जोग्य ते किम होय ।। ५७. दूजे आचारंग सुविशेष, पहिला झण रै दशमैं उद्देश । कह्या मंस मच्छ भोगवणा, अस्थि कांटा ग्रही परिठवणा ।। ५८. एहवो समुच्चय पाठ मझारो, तिण रो विमल न्याय अवधारो। पार्श्वचंद सूरि अर्थ कोधो, तिको टवा माहै छै प्रसीधो।। ५६. लोक प्रसिद्ध मंस मच्छादि, वत्तिकार वखाण्यो संवादि। तिको सूत्र सू विरुद्ध है ताहि, तिण सूंए अर्थ संभवै नाहि ।। ६०. मांहिलो गिर मंस पिछाण, मंस मच्छ वणस्सइ जाण । अस्थि शब्दे कुलिया कहाय, ठाम ठांम सिद्धांत रै माय ।। ६१. सूत्र उत्सर्गे जाण्यो, वृत्ति में अपवाद बखाण्यो। तिण सू सूत्र सू मिले विशेष, पाश्वचंद सूरि वच एष ।। ६२. टवा करण वाले पिण एम, वत्ति नै निषेधी छै तेम। अण मिलतुं टीका नों अर्थ, है मानवा में असमर्थ ।। ६३.तिम माहण शब्द न जोय, वृत्ति में श्रावक कियो सोय। वच मरोड कह्यो स्थूल-त्यागी, संभव अणमिलतो सागी।। ६४. *उत्तराध्येन पचीस में, बह गाथा सुविचार । माहण साधु नैं क ह्यो, ज्यार पच आश्रव परिहार ।। *लय-रात समय बड भीमजी मन मोहना १६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणांग ठाणे तीसरे, प्रथम उदेश अनूप। तीन प्रकारे देवता, करै विज्जू तारारूप ।। विकुर्वणा करतां छतां, मैथुन समय समाज । तथारूप श्रमण वा माहण नै, निज ऋद्धि देखाडण काज ।। सुयगडांग श्रुतस्कंध दूसरै, सप्तम झयण मझार । गौतम स्वामी इम कह्यो, उदक भणी सुविचार ।। तथारूप श्रमण माहण कन, इक बच धारै सार । परम उपगारी जाणने, करै वदणा नैं नमस्कार ।। कल्याणं मंगल देवयं, प्रशस्त मन हेतु चैत । जाणी ने सेवा करै, चिउं नामै माहण एथ। मुनि अधिकारै साधु नां, ए च्यारूंइ नाम । जिन अधिकार जिन तणा, च्यारू नाम सुयाम ।। प्रतिमा अधिकार बिब ना, ए च्यारूंइ नाम। पिण श्रावक नां न कह्या किहां, सूत्र पाठ में ताम ।। जिन मुनि ना चिउं नाम ते, लोकोत्तर परभव लेख । प्रतिमा ना चिउं नाम ते, इहभव लौकिक पेख ।। वलि गौतम उदक भणी क ह्यो, अम्हनै न रुचै एह। जे समणा वा माहणा, एहवं बच बोलेह । भूत शब्द घाली करी, त्रस तणा पचखाण । करणा छै श्रावक भणी, एम परूपै जाण ।। समणा वा निग्गंथा वा, तसं निश्चै कहियै नाय । ए विरुद्ध वचन सुण तेहनें, केवल अनुतापज थाय ।। इहां समण माण नै स्थानके, कह्यो श्रमण निग्रंथ । बिहं ठामैं वा शब्द छ, प्रतख पाठ में तंत ।। समणा वा नैं माहणा, ए बिहुं पाठ नै स्थान । समणा वा निग्गंथा वा, कह्या पाठ गुणखान ।। समणा वा नै माहणा, इहां पिण छै बा शब्द । समणा वा निग्गंथा वा, यां पिण वा शब्द सुलब्ध ।। द्वितीय सुयगडांग सूत्र में, दूजा अध्येन मांय ! मुक्ति - गमन योग्य संजमी, समण माहण सुखदाय ।। बारै क्रिया-स्थान नै, त्यागै अनरथ जाण । या पिण माहण साधु नै, भाख्यो श्री जगभाण ।। इत्यादिक बहु सूत्र में, जावो पाठ अमोल । भाहण कह्यो साधु भणी, पिण श्रावक नों नहिं बोल ।। तथारूप श्रमण माण भणो, दै सचित्त असझतो आहार । अल्प आयु बंधै तसुं, भगवती सूत्र मझार ।। ७७. ७८. ७६. ८०. ८२. श०१,उ०७, ढा०२२ १६१ Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. माहण थावक नै कहै, तसं लेखै अवलोय ! श्रावक भणी असुद्ध दियां, निगोद नों बंध होय ।। ठाणांग ठाणे तीसरे, चोथै उद्देसै ताय । श्रमण माहण नैं ऋद्धि देखायवा, सुर पृथ्वी कंपाय ।। तथारूप श्रमण माहण इहां, आख्या मुनि नैं ताय । वा शब्द समुच्चय अर्थ छै, वलि अपर नाम पेक्षाय ।। ठाणांग ठाणे तीसरै, चउथा उदेशा माय । छद्मस्थ मनुष्य नैं इक-चक्षु, सुर बे-चक्षु पाय ।। तथारूप श्रमण वा माहण नैं, उत्पन्न दर्शण नाण । तीन - चक्षु तेहनें कही, ए चउदपूर्वधर जाण ।। एक चक्षु ते आंख छ, द्वितीय परम श्रृत जाण । अवधि तणी तीजी चक्षु इहां, माहण मुनी पिछाण ।। तथारूप श्रमण माहण इहां, पूर्वधर मुनि पेख । वा शब्द समुच्चय अर्थ छै, कांड अपर नाम थी देख ।। ठाणांग ठाणे तीसरे, चउथै उदेशै तंत। तथारूप श्रमण वा माहण ने, परम-अवधि उपजत ।। प्रथम देखै ऊर्द्धलोक नैं, पछै तिरछू जाणेह। अधोलोक जाणे पछ, दुर्लभ जाणवू एह ।। ए परम-अवधि मूनि में ज छै, श्रमण माहण कह्यो तास । वा शब्द समुच्चय अर्थ छै, जोवो हीय विमास ।। भगवती पंचम शतक में, बलि ठाणांग तीज ठाण । दीर्घायु शुभ अशुभ नों, आख्यो श्री जगभाण ॥ तथारूप श्रमण वा माहण नै, हेली निंदी अपमान। अमनोज्ञ आहार प्रतिलाभियां, अशुभ दीर्घायु बंधान ।। तथारूप श्रमण वा माहण नै, करि वंदणा ने नमस्कार। बह सत्कार देइ करी, बलि सनमानी तार ।। कल्लाणं मंगलं देवयं प्रशस्त मन हेतु जाण । करि सेव मनोज्ञ आहार दियां, शुभ दीर्घायु बंधाण ।। वा शब्द इहां पिण छै सही, बलि श्रमण माहण ना ताम । कल्लाणं मंगलं देवयं, चेइयं ए च्यारूं नाम ।। इहां समण माहण साधूज है, तेहनां ए च्यारूं नाम । ए नाम चिउं श्रावक तणा, न कह्या किणहि ठाम ।। भगबती आठमा शतक में, तथारूप असंजती जाण । सचित-अचित प्रतिलाभियां, एकत पाप पिछाण ।। मूढ कहै पडिलाभ ते गुरु बुद्धि दीधां पाप। पडिलाभेद पाठ में, गुरु बुद्धि नी करै स्थाप ।। 0 १००. १६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. १०६. १०७. १०६. १०६. ११०. १११. ११२. ११२. ११४. ११५. ११६. ११७. 1 तथारूप श्रमण वा माहण नै, अणगमतो जे आहार । हेली निंदी प्रतिलाभिया, अशुभ दीर्घायु धार ॥ तथारूप श्रमण वा माहण नैं मनगमतो जे आहार । बंदी सेवी प्रतिलाभिया, शुभ दीर्घ आयु बंध सार ॥ पडिलाइ पाठ ने, गुरु बुद्धि था कोय | तसं लेखे धमण माहन भणी, कह्यो पडिला भेद सोय ।। ते श्रमण माहण गुरु मुनि थया, पडिलाइ रे न्याय । मारण अर्थ श्रावक तणों, तसुं लेखे पिण नांय || जो माह है श्रावक भणी, तो पडिलाभे गुरु बुद्धि नांय | जो पडिला गुरु बुद्धि कहै, तो माहण श्रावक नहि थाय ॥ शुभ-अशुभ दीर्घायु बंध में, समण माहण नैं जाण । पडिलाइ पाठ छे, , ए रुडी रीत पिछाण ॥ माहण भावक ने स्वापियां पडिलाभेद नों जाण गुरु बुद्धि अर्थ करता तिको, उथप गयो पिछाण || पहिला गुरु वृद्धि स्थापियां, मारण शब्द नों पेख श्रावक अर्थ करे तिको, उथप गयो विशेख || माहण पडिला पाठ नों, अर्थ कंधो करें अजाण । तिण सुं आप बोल्यो आप ऊथपं, त्यांरै ते पिज नहीं पिछाण || घर थाप्यां जो थपे, जो थाप्यो घर उपयंत विरुद्ध अर्थ करे तेहनैं, निज वच पिण इम विघटत ॥ तिण सूं माहण अर्थ धावक नहीं, पडिला गुरुबुद्धि नाहि । एहिं अर्थ ऊंचा करें, ते यूता मिथ्या मांहि ॥ गर्भे मरि हुवै देवता, तिहां माहण शब्द नों ताय । हु वृत्तिकार धावक कियो, ते अणमिलतो इण न्याय || सूत्र भगवती तेह में, कांइ यंत्र धर्मसी कीध । तेहमें अर्थ इसो कियो, ते सांभलजो प्रसोध ॥ गर्भे मरि नैं सुर तथारूप साधु ना हुवे, ते सन्नी पंचेंद्री पर्याप्त । सांभली, धर्म वचन दिल व्याप्त ॥ धर्म तणो तिरस्यो थको काल करी सुर होय । ए अर्थ धर्मसी यंत्र || लूंकां नीं हुंडी तिहांसमण माह में, ते लियो इहां अवलोव ।। अछे, बोल अठावन तास । पाठनों, कियो साधु अर्थ विमास ।। ( ज० स० ) सतर अंक नों देश ए, सरस बावीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋपराय थी 'जय जश' संपति माल || बिहु श० १, उ० ७, ढा० २२ १६३ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल :२३ २-४. जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे उत्ताणए वा पासल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा? चिट्ठज्ज वा? निसीएज्ज वा? तुयटेज्ज वा? माउए सुयमाणीए सुबइ ? जागरमाणीए जागरइ ? सुहियाए सुहिए भवइ ? दुहियाए दुहिए भवइ? दूहा बलि विशेषे गर्भ नों, प्रश्न गोयम पूर्छन । उत्तर श्रीजिन आखियो, ते सूणज्यो धर खंत ।। *हे प्रभु ! गर्भ विषे रह्यो, उत्तानक छत्राकार। पसवाड़ा ने भारे करो, रहै गर्भ मझार ।। अंब फल नी पर कूबडो, ऊर्द्ध स्थान खडो थाय । अथवा बेसै भली परै, के शयन करै गर्भ मांय? माता सूऔ जद ए सूझ, माता जाग्यां जागंत ? माता सुखे गर्भ पिण सुखी, दुखे दुखी थावंत ? जिन कहै-हता गोयमा ! गर्भ रह्यो थको जन्त । जाव माता दुखणी छतै, सुत पिण दुख वेदंत ।। अथ हिव जन्म समय विष, सिर करने जनमत । अथवा जन्म पगे करी, घात रहित निकलंत ।। तिरिछो थइ नै उदर थी, नीकल वरते सोय। तो नीकलवू तो हुवै नहीं, पामै मरण सुजोय ।। गर्भ थकी हिव नीकल्यो, जेह जीव ने जाण। सुभ असुभ फल भोगवै, सुणिय तेह सुजाण ।। यश प्रतिहत करणार जे, कर्म सामान्य थी बंध। पुट्ठाई पोषित अधिक ही, गाढा बंध्या सुसंध । ५. हंता गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जाव दुहियाए दुहिए भवइ। ६, ७. अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा पाएहिं वा आगच्छति सममागच्छति, तिरियमागच्छति विणिहायमावज्जति। अथवा बद्धाई पाठ जे, असुभ कर्म बंध्या जेह। पुट्राइं पहिला फर्ध्या तिके, द्वितीय अर्थ छै एह ।। निद्धत्त ते उद्वर्तन अपवर्तन वरजी शेष । करण अयोग्यपणे करी, थाप्या संपेष ।। कडाइं ते सर्व करण नै, अयोग्यपणे करि जाण। स्थापित कर्म पूर्व भवै, एह निकाचित आण।। गति मनुष्य पंचेंद्रिय जात जे, त्रसादि नाम संघात । उदयपण करि स्थापिया, पट्टवियाई कह्यात ।। ६. वण्णवज्झाणि य से कमाई बधाई पुट्ठाई 'वण्णवज्झाणि य' त्ति वर्णः-श्लाघा वध्यो—हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि । बद्धानि सामान्यतः, पोषितानिगाढत रबन्धनतः। (वृ०-प०६०) १०. अथवा बद्धानि, कथम् ? यतः पूर्व स्पृष्टानीति । (वृ०-प०६०) ११. निहत्ताई उद्वर्तनापवर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्था पितानीत्यर्थः। (वृ०-प०६०) १२. कडाई 'कडाई' ति निकाचितानि सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । (वृ०-प०६०) १३. पवियाई 'पट्टवियाई' ति मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसादिनाम कर्मादिना सहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । (वृ०-प०६०) १४. अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाई-नो उव संताई भवंति, 'अभिनिविट्ठाई ति तीव्रानुभावतया निविष्टानि, अभिसमन्नागयाईति उदयाभिमुखीभूतानीति ।(वृ०-५०६०) १४. तीव्र अनुभाव तेणे करी, उदय सनमुख भूत । आफेइ उदय ते आविया, नहि उपशम नौं सूत ।। *लय—सीता सती सुत जनमीया १६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. तओ भवइ दुरूवे दुवण्णे दुग्गंधे दुरसे दुफासे ते कर्म उदय हुवै एहवो, भंडो रूप आकार। दुवर्ण दुर्गध दुरस, अशुभ फर्श दुखकार ।। अनिष्ट ते सुखकारी नहीं, अकांत अप्रिय जाण । अशुभ अमनोज्ञ अमनाम ते, एकार्थ पहिछाण॥ हीन स्वर ते अल्प स्वर हुवै, दीन दुखी नर जेह । तेहना स्वर सरिखो हुवै, का दीन - स्वर तेह ।। १६. अणिठे अकंते अप्पिये असुभे अमणुण्णे अमणामे १७. हीणस्सरे दीणस्सरे 'हीणस्सरे' त्ति अल्पस्वरः 'दीणस्सरे' त्ति दीनस्येव दुःस्थितस्येव स्वरो यस्य स दीनस्वरः। (वृ०-५०६०) १८. अणिट्ठस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्स रे अमणु ण्णस्सरे । अमणामस्सरे १६. अणाएज्जवयणे पच्चायाए या वि भवइ । अनिष्ट स्वर अकांत स्वर, अप्रिय स्वर जास। असुभ मनगमतो नथी, अतिअणगमतो तास ।। तिहां जनभ्यां छतो पिण ह इसो, अनादेज - वचन्न । वचन कोइ तमु नादरै, असुभ कर्म फल जन्न । यश प्रतिहत करणार जे, अशुभ कर्म बंध्या नाय । प्रशस्त कहिव तेहन, जाव आदेज-वच थाय ।। २० वण्णवज्झाणि य से कम्माई नो बद्धाई पसत्थं नेयव्वं जाव आदेज्जवयणे पच्चायाए या वि भवइ। (श० ११३५७) २१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (श० ११३५८) इम पुन्य कर्म उदय करी, रूप वर्णादिक जोय । गमतो लागै सह भणी, सेवं भंते ! सेव भंते ! सोय ।। अर्थ प्रथम शत सातमों, ए तेवीसमों ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। ।। प्रथमशते सप्त मोद्देशकार्थः ११७ ।। ढाल : २४ १. गर्भवक्तव्यता सप्तमोद्देशकस्यान्ते उक्ता, गर्भवासश्चा युषि सतीत्यायुनिरूपणायाह-. (वृ०-५०१०) दूहा सप्तमुदेशे अंत में, कही गर्भ नी बात। गर्भ छते हुवै आउखो, हिवै आयु अवदात ।। *प्रभजी! हो, वीर ने गोयम वीनवै, वीनवै बे कर जोड़। (ध्रुपदं) २. प्रभुजी ! हो, एकांत बाल मनुष्य तिको, विरति-रहित नो विरतंत। प्रभ जी ! हो, वांधे नरक नो आउखो, जाव देव आयु पकरत ? नरक आयु वांधी करी, नरक विष उपजत? तिरि मणु सुर आयु करी, तिरि मणु सुरपण हंत ? वा-इहां वृत्तिकार का ---एकांत बाल में मिथ्याती अनैं अविरति-सम्यग्दृष्टि पिण आया । ए बिहूं में बालपणा नी समानता छते पिण अविरति-सम्यग दृष्टि मनुष्य देवता नों हीज आउखो बांधे । पिण अनेरो न बांध।' *लय--भाभीजी हो डूंगरिया हरिया हुवा १. एकान्त-बाल मिथ्यादृष्टि या अविरत-सम्यक्दृष्टि कहलाता है। यहां एकान्त-बाल का ग्रहण करने से मिथ-बालपंडित का व्यवच्छेद हो गया। (शेष अग्रिम पृष्ठ पर) २, ३. एगंतबाले णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउयं पकरेति? तिरिक्खाउयं पकरेति? मणुस्साउयं पकरेति ? देवाउयं पकरेति ? ने रइयाउयं किच्चा नेरइएस् उववज्जति? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति ? मणुस्साउयं किच्चा मणुस्सेसु उववज्जति? देवाउयं किच्चा देवलोगेसु उववज्जति? वा-'एगंतबाले' इत्यादि, 'एकान्तबालः' मिथ्यादष्टिरविरतोवा, एकान्तग्रहणेन मिथतां व्यवच्छिनत्ति, यच्चैकान्तबालत्वे...समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रकरोति न शेषाणि । (वृ०-प०६०) श०१, उ०८, ढा०२३,२४ १६५ Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमजी! हो वीर प्रभु इम वागरे, वागरै अमृत वाण । (ध्रुपदं) एकांत बाल मनुष्य तिको, नरक आयु पकरंत । निर्यच मनुष्य ने देव नु, आउखो ते बांधत ।। नरक आउखो बांधी करी, नरक विषै उपजंत । तिरि मणु देव आयु करि, तिरि मणु सुरपण हुंत ।। प्र० ! एकांत पंडित संजती, स्यू नरक आयु पकरंत ? यावत् सुर आयु करी, देवलोके उपजंत ? गो० ! एकांत पंडित मनुष्य ते, कदाच आयु पकरत । कदाच आयु बांधे नहीं, जो बांधै तो देवायु बंधंत ।। प्र०! किण अर्थे सुर बंध कह्य ? तब भाखै जिन भाण। गो० ! एकांत पंडित मनुष्य नै, निकेवल बे गति जाण ।। अंतक्रिया शिवपद लहै, अथवा कल्प उपपात । कल्प शब्द सामान्य थी, वैमानिक विख्यात ।। ४. गोयमा ! एगंतबाले णं मणुस्से नेरइया उयं पि पकरेति, तिरिया उयं वि पकरेति, मणुस्साउयं पि पकरेति, देवा उयं पि पकरेति, ५. नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, मणुस्साउयं किच्चा मणुस्सेसु उववज्जति, देवा उयं किच्चा देवलोगेसु उबवज्जति। (श० ११३५६) ६, ७. एगंतपंडिए णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउयं पकरेति ? जाब देवाउयं किच्चा देवलोएसु उववज्जति ? गोयमा ! एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेति, सिय णो पकरेति, जइ पकरेति...देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति। (श० ११३६०) ८, ६. से केणठेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उबवज्जति ? गोयमा! एगंतपंडियस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गतीओ पण्णायंति, तं जहा-अंतकिरिया चेव, कप्पोबवत्तिया चेव। (श० ११३६१) ६. कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽ वासाभिधायक इति। (वृ०-६० ६१) १०. बालपंडिए णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति ? ११. गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से णो नेरइयाउयं पकरेति... देवाउयं किच्चा देवेसु उबवज्जति। (श० १।३६२) १२-१४. से केणठेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उवव ज्जति ? गोयमा ! बालपंडिए ण मणुस्से तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरिय धम्मियं सुबयणं सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ, प्र० ! बाल-पंडित मण थावक, स्यं नरक आयू पकरंत ? जाव देवायु बांधी करी, देव विष उपजंत? गो० ! नरक तिर्यंच मनुष्य तणु, आउखो नहीं बांधत । जाव देवायु बांधी करी, देव विषै उपजत ।। प्र०! किण अर्थे जाव सुर तणु, आयु बांधी सुर थाय? वीर कहै सुण गोयमा ! बाल-पंडित ने न्याय ।। गो०! तथारूप श्रमण माहण कन, इक पिण आर्य उत्तम्म। धर्म संबंधी भला वचन नै, सुण दिलधारी निसम्म ।। गो०! देश ते स्थूल हिंसादिक थकी, निवर्यो विरति विचार। देश स्थावर हिंसा थकी निवयों नहीं तिणवार ।। देश ते स्थल हिंसादिक तणां, कीधा तिण पचखाण। देश स्थावर हिंसादिक तणां, त्याग न कीधा जाण ॥ १४. १५. देसं पच्चक्खाइ, देसं णो पच्चक्खाइ। एकान्त बालत्व की दृष्टि से सभी एकान्त बाल समान हैं, फिर भी वे महाआरंभ, उन्मार्ग-देशना, कषाय की अल्पता और अकाम निर्जरा आदि अपने-अपने हेतुओं के कारण क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति का आयुष्य बांधते हैं। अविरत-सम्यक्दृष्टि एकान्त बाल है, इसलिए उसके भी उपर्युक्त चारों गतियों में आयुष्य का बंध होना चाहिए, किन्तु वह केवल देवगति का ही आयुष्य बांधता है; क्योंकि भगवती शतक ३०।२६ में कहा है-क्रियावादी-सम्यग्दृष्टि मनुष्य केवल एक वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधता है। १६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश-निवृत्त देश-पचखाणी, नरक आयु न बंधत। यावत् सुर-पदवी लहै, तिण अर्थ जाव सुरहंत ।। आउखो बंधवा तणु, कारण आश्रव जाण । तिण सू कर्म-बंध किया तणां, हिव पंच सूत्र पिछाण ।। प्र०! कच्छ प्रमुख स्थानक विषे, मग बध करिवा ताय । बैठो छै कोइ मानवी, ते माटे कहिवाय ।। नदी जले बीटया तरु, कच्छ तास कहिवाय । द्रह तथा जलाशय मात्र में, द्रव-तृणादि-समुदाय ।। वलय-वृत्ताकार जे जल, नदी प्रमुख ना जाण। तेह कुटिल गति सहित छ, जेह विर्ष पहिछाण ।। १६. से तेणं, देसोबरम-देसपच्चक्खाणेणं णो नेरइयाउयं पक रेति जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति । से तेणट्ठेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उबवज्जति । (श० ११३६३) १७. आयुर्बन्धस्य क्रियाः कारणमिति क्रियासूत्राणि पञ्च । (वृ०-५०६१) १८, १६. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा (श० १।३६४) 'कच्छे' नदीजलपरिवेष्टिते वृक्षादिमति प्रदेशे उदकेजलाश्रयमात्रे 'द्र विके' तृणादि द्रव्यसमुदाये। (वृ०-प०६२) २०. वलयंसि वा 'वलये' वृत्ताकारनद्याधुदककुटिलगतियुक्तप्रदेशे। (वृ०-प०६२) २१. नूमंसि वा गहणंसि वा 'नूमे' अवतमसे 'गहने' वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदाये। (वृ०-५० ६२) २२. गहणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा 'गहनविदुर्ग' पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदाये। (वृ०-प०६२) २३. पव्वयविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा 'पव्वयविदुग्गसि व' त्ति पर्वतसमुदाये 'वने' एकजातीयवृक्ष-समुदाये वणविदुग्गंसि ब' त्ति नानाविधवृक्षसमूहे । (वृ०-५० ६२, ६३) णम-अंधार सहित छ, तेह विर्ष पहिछाण । गहन-ते वृक्ष वल्ली लता, तास समूह विष जाण ॥ पर्वत ना एक देश में, तरु-वल्यादि-समुदाय। गहन-विदुर्ग कह्यो तसं, तथा पर्वत विष ताय ।। पर्वत-विदुर्ग ते गिरि तणां, समूदाय ते प्रत्यक्ष । वन इक जाति तरु घणां, वन-विदुर्ग नाना वृक्ष । २५. मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एतला स्थानक नै विषै, वधक नर पहिछान । मग हणेवा कारण, बैठो छै धर ध्यान। मगे करी आजीविका, मृग हणवा अध्यवसाय । एकाग्रचित्त मृग-वध-विर्ष, मृग हणवा कच्छादि जाय ।। ए मग इम कहि मारिवा, मृग ग्रहण नैं काज। कुटपास रचना करै, केतली क्रिया समाज? गो! जिन कहै ते पुरुष कच्छ विषै,जाव कूटपास रचे संच। ते पुरुप नै तीन क्रिया कदा, कदा च्यार कदा पंच ।। २६. एते मिय त्ति काउं अण्णय रस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दाति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? २७. गोयमा ! जाव च णं से पुरिसे कच्छसि वा जाव कुडपास उद्दाइ ताव च णं से पुरिसे सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। (श०१२३६४) २८. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंचकिरिए ? गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए—णो बंधणयाए, णो मारणयाए. २८. प्र०! गोयम पूछ किण कारण ? तब भाखै जिनराय। गो० ! ते क्रिया-कर्ता बंधन रच, पिण बांधै मारै नाय ।। श०१, उ०८, ढा०२८ १६७ Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ते पुरुष ने तीन क्रिया तदा, धुर गमनादि चेष्टा काय । अहिगरणि पास रूप ते, पाउसिया दुष्ट अध्यवसाय ।। ते क्रिया-कर्ता पासा रच, मग नै बांधै तिवार। च्यार क्रिया ते पुरुष नै, चौथी परितापना नी धार।। ते क्रिया-कर्ता पासा रच, मग बांधी मारंत । पंच क्रिया ते पुरुष नैं, पाणाइवाय पिण हुंत ।। ३२. तिण अर्थे जाव पच है, बलि गोयम पूछत। प्र० ! पुरुष प्रभ कच्छ नै विषै, जाव वन-विदुर्गे जंत ।। ऊंचा करि तृण एकठा, माहै घाल ते उकाय। क्रिया किती तिण पुरुष नै ? वारू अर्थ बताय ।। गो० ! जिन कहै-तीन क्रिया कदा, कदा च्यार कदा पंच। गोयम पूछ किण कारण ? तब जिन भाख संच ।। २६. तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओ सियाए-तिहि किरियाहिं पुढें। 'काइयाए' ति गमनादिकायचेष्टारूपया 'अहिगरणियाए' त्ति अधिकरणेन--कूटपाशरूपेण निर्वृत्ता या सा तथा तया 'पाउसियाए' त्ति प्रद्वेषो-मृगेषु दुष्टभावस्तेन निर्वत्ता प्राद्वेषिकी। (वृ०-५० ६३) ३०. जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए वि--णो मारण ताए-तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए-चउहि किरियाहि पुढें। ३१. जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए वि, मारणताए वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए, पाणातिवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुढें। ३२, ३३. से तेण ठेणं जाव पंचकिरिए। (श० ११३६५) पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय-ऊसविय अगणिकायं निसिरइ-तावं च णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? ३४. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। (श० ११३६६) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंचकिरिए ? ३५. गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए तिहिं, उस्सवणयाए वि निसिरणयाए वि नो दहणयाए चउहि, ३६. जे भविए उस्सवणयाए वि निसिरणयाए वि दहणयाए वि तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-सिय तिकि रिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।(श०१।३६७) ३७, ३८. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते 'मिय ति' काउं अण्णतरस्स मियस्स वहाए उसुं निसिरति, ३६. ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। (श० ११३६८) से केणठेणं भंते ! ४०. गोयमा ! जे भविए निसिरणयाए.....णो विद्धसणयाए, णो मारणयाए-तावं च णं से पुरिसे...तिहि करियाहि पुढें। जे भविए निसिरणताए वि, विद्धंसणताए विणो मारणयाए-तावं च णं से पुरिसे...चउहि किरियाहि पुठे। जे जीव तृणा करै एकठा, तीन क्रिया तव होय । अग्नि घाली पीडा कियां, परितावणिया चउथी जोय ।। जे जीव तणा करी एकठा, अग्नि धाली बालेह । पंच क्रिया छै तेहन, तिण अर्थे का एह ।। ३७. प्र.! पुरुष प्रभु ! कच्छ नै विषै, जाव वन-विदुर्गरै माय । मगे करि आजीविका, मृग वध अध्यवसाय ।। ३८. मग वध एकाग्र चित्त छै, मृग वध अर्थे जंत। ए मृग इम कही मृग ने हणवा बाण मूकंत ।। क्रिया किती ते पुरुष ने? जिन कहै तीन कदाचि। कदाचित् चिउं, पंच कदा, किण अथे ए वाचि? ४०. गो.! जे पुरुष बाण काढ्यो तदा, पिण वींध्यो मारयो नाय। तीन क्रिया ते पुरुष नैं, बींध्यां चउथी थाय ।। १६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. मारयो संच । ते पुरुष बाण काढ्यो बली, बींध्यो पंच किया ते पुरुष ने तिग अर्थ विग चड पंच ॥ प्र० ! पुरुष कोई कच्छ नैं विषै, जावत् मृग वध काज । यत्नपर्णं कानों लगे बाण खांची रहे स्हाज ।। अन्य पुरुष को पूठ थी, आवी तेहनुं करी, मस्तक छेदे रहयो, मृग मारण नैं थी, वोधाणो मृग निज हाथे खड्गे पूर्वे शर खांची बाण छूटो तसुं हाथ हे भगवन् ! ते पुरुष नैं, खडग थी मारणहार । स्यूं कश्यों मृग बरे करि ? के पुरुष वेरेण विचार ? गो० ! जे वाण सांध्यी मृग मारिवा, ते मृगवध करि फर्शत । जे खडगे करि पुरुष मारियो, तसुं वध पुरुष नों हुंत ॥ गोयम कहै कि कारण ? जिन कहै धनु-कांडादि । करिवा लागो रोहन कीधो कहिये चादि ? पुणच विषेशर सांधवा, आरोपवा लागो सांध्यो आरोप्यो तेहने कहियै इह विध आम ? पुणच प्रते खांची करी, अतिहि वर्तुलाकार | करवा मांड्यू धनुष्य नैं कीधो कहियै नीसरवा मांडयो मांड्यो तदा, धनुष्य थकी जे नीसरियो कहिजे तसुं ? इम पूछे - ताम तिवार ? बाण । जगभाण || प्र० ! गोयम कहै - हंता प्रभु! करवा मांड्यो ते कीधो कहाय । जाव वाण नीमरवा मांडियो कहिये नीसरियो ताय ॥ तिण अर्थ करि गोयमा ! मृग हणं चित गैर । मृग-वर फरस्यो कह्यो, पुरुष हणं ते नरवंर ॥ शरथी छ मास में मृग मरे, तो मृग वधक क्रिया पंच । छ मास उपरंत जो मरें, तो व्यार क्रिया नो संच ॥ सोय । कोय ५५. वृत्तिकार इसड़ी प्रहार हेतु मरण ॥ जेह । तेह || प्रहार हेतु मरण छै, छ मास लग ते जाण । छ मास उपरंत मरण ते, परिणामंतर पहिछाण || । कही, ए ववहार-नय अपेक्षाय । ते, छ मास थी पिण अधिकाय || ४१. जे भविए निसि रणयाए वि, विद्वंसणयाए वि, मारणता वाचणं से पुरिसे जब पंचहि किरियाहि पुट्ठे । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। ( ० १०२६२) ४२. पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा जाव... मियस्स वहाए आयत - कण्णायतं उसुं आयामेत्ता चिट्ठेज्जा, ४३. अण्णयरे पुरिसे मग्गतो आगम्म सयपाणिणा असिणा सीि ४४, ४५. से य उसू ताए चेव पुव्वायामणयाए तं मियं विभ! पुरिये कि मियवेरेषं पुढे ? पुरिसवेरेणं पुट्ठे ? ४६. गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुट्ठे । जे पुरिसं मारेड मे पुरिसवेरे पुट्ठे । (० ११३७०) ४७. से केणट्ठेण भंते ! एवं बुच्चइ-जाव पुरिसवेरेणं पुट्ठे ? से नूणं गोयमा ! कज्जमाणे कडे ? ४८. संधिज्जमाणे संधिते ? ४९. निव्वत्तिज्जमाणे निव्वत्तिते ? ५०. निमिनिसिति यस सिया ? - ५१. हंता भगवं ! कज्जमाणे कडे जाव निसिट्ठे त्ति बत्तव्वं सिया । ५२. सेते गोपमा एवं वृच्चदजे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुट्ठे । जे पुरिसं मारेइ से पुरिसवेरेणं पुट्ठे । ५३. अंतो छहं मासाणं मरइकाइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठे । बाहि छन्हं मासाणं मरइकाइयाए जाव पारितावणियाए - चउहि किरियाहिं पुट्ठे । ( ० १२०१) ५४. षण्मासान् यावत् प्रहारहेतुकं मरणं परतस्तु परिणामान्तपादितमितिकृत्वा पण्मासा प्राणातिपातकिया न स्यादिति हृदयम् । ( वृ० प० १२) ५५. एतच्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रियाव्यप देशमापदर्शनार्थमुक्तम्, अन्यथा यदा कदाज्यधिकृत प्रहारहेतुकं मरणं भवति तदेव प्राणातिपातक्रिया इति । ( वृ००० १२) १६६ श० १, उ० ८, ढा० २४ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. प्र. ! पुरुष भदंत ! पुरुष प्रतै, शक्ति करीनै हणंत । अथवा ते नर निज हाथ सूं, खड्गे शिर छेदंत ।। ५७. क्रिया किती ते पुरुष नै ? जिन कहै-उत्तर तंत। शक्ति अथवा निज कर हणे, ते क्रिया पंच फर्शत ।। ५६, ५७. पुरिसे णं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिधंसेज्जा, सय पाणिणा वा से असिणा सीसं छिदेज्जा, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधसेति, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिदति--ताद च णं से पुरिसे...पंचहि किरियाहिं पुढें । ५८. आसण्णवधएण य अणवकखणवत्तीए णं पुरिसवेरेणं पुछे। (श० ११३७२) ५८. प्र. ! आसन्न वध है जे थकी, बलि अनवकांक्षणवृत्त। एहवा पुरुष वेरे करी, फरसै ते अपवित्त ।। ५६. सोरठा अनवकांक्षण - वृत्त, अपेक्षा रहित ज वर्तवू । पर-प्राण-वांछा नहिं चित्त, अथवा निज दुख परिहार नी।। ५६. अनवकांक्षणा-परप्राणनिरपेक्षा स्वगतापायपरिहार निरपेक्षा वा वृत्तिः-वर्तनं यत्रैव वैरे तत्तथा तेनानवकांक्षण वृत्तिकेनेति । (वृ०-प०६४) ६०. *इम पुरुष वैर फयो तिको, तिणहिज भव मझार । अथवा भुगतै परभवै, कर्म हेतु दुख भार॥ शतक प्रथम देश अष्टमो, एह चोबीसमी ढाल। भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति विशाल ।। धन-धन गोयम गणहरू, ज्यां पूछ्या प्रश्न उदार । धन-धन प्रभु उत्तर आपिया, धन-धन शासन सार ।। ६२. ढाल : २५ दूहा क्रिया ना अधिकार थी, हिव तेहिज विस्तार । युद्ध रूप क्रिया तणो, गोयम प्रश्न उदार ॥ +वीर नै गोयम वीनवै (ध्रुपदं) बे नर सरिखा कुशलपणे, प्रमाण आदिपणे दीस । प्रभुजी। सरिखी त्वचा, वय ना धणी, भंड उपगरण सरीस ।। प्रभुजी।। संग्राम आपस में करै, एक हार जीते एक। हे भदंत ! किण कारण ? जिन कहै सुण सुविशेख॥ जीत सवीर्य पराक्रमी, अवीर्यवंत हारंत । गोयम कहै-किण कारण? तब भाखै भगवंत ।। *लय--भाभीजी हो डूंगरिया हरिया हुवा लय-धन्न सीमंधर स्वामजी ! २.दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोबगरणा 'सरिसय' त्ति सदृशकौ कौशलप्रमाणादिना। (वृ०-प०६४) ३, ४. अण्णमण्णेणं सद्धि संगाम संगामेंति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगो पुरिसे परायिज्जति । से कहमेयं भंते। एवं? गोयमा ! सवीरिए परायिण ति, अवीरिए परायिज्जति। (श० ११३७३) से केणट्टेणं जाव परायिज्जति ? १७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य अंतराय कर्म जिणे, न बांध्यो न फो कोय । जाव उदय आयो नहीं, उपशांत तसुं जय होय ।। वीर्य अंतराय बांधियो, जाव उदय आया हुवै हार। तिण अर्थे करिने कह यो, पूरव वृत्त प्रकार ॥ ५. गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माइं नो बधाई नो पुट्ठाई जाव नो अभिसमण्णागयाइं नो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं परायिणति । ६. जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाइं जाव उदिषणाई णो उवसंताई भवंति से णं पुरिसे परायिज्जति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चति-सवीरिए परायिणति, अवीरिए परायिज्जति । (श० ११३७४) ७. जीवा णं भंते ! कि सीरिया? अवोरिया ? वीर्य ना अधिकार थी, वीर्य प्रश्न पूछाय । हे प्रभु ! जीव सवीरिया, अवीरिया कहिवाय? जिन कहै-सांभल गोयमा ! वीर्य-सहित पिण जीव । वीर्य-रहित पिण जीव छै, किण अर्थे ए कहीव ? जिन कहै-जीव द्विविध कह्या, संसारी नै असंसार । असंसारी अवी रिया, संसारी दोय प्रकार ।। सेलेशी गुणस्थान चवदमें, असे लेशी गुण तेर। सेलेशी लब्धि-सवीरिया, करण-अवोरिया हेर । ८. गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि । (श० ११३७५) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जीवा सवीरिया वि? अवोरिया वि? ६. गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—संसारसमावगणगा य, असंसारसमावण्णगा य । तत्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा । सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णता, तं जहा१०. सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसिपडिवण्णगा य । तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। ११. तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि। १२. 'सवीर्याः' उत्थानादिक्रियावन्तः अवीर्यास्तूत्थानादि क्रियाविकलाः, ते चापर्याप्त्यादिकालेऽवगन्तव्याः। असेलेशी लब्धि-वीर्य थो सवीरिया कहिवाय । करण-वीर्य करि उभय छ, सवीर्य अवीर्य ताय ।। पर्याप्ता करण-वीर्य थी, सवीरिया कहिवाय । अपर्याप्ता करण-वीर्य थी, अवीरिया ए न्याय ।। १ तिण अर्थे करि जीवड़ा, वीर्य सहीत रहीत । नेरइया प्रण ! स्यं सवीरिया, के अवीरिया संगीत ? १५. जिन कहै-लब्धि वीर्य करी, नरक सवीरिया होय । करण-वीर्य करि सवीरिया, अवीरिया पिण जोय ।। किण अर्थे तब जिन कहै, जे ने रइया नै छै उठाण । कर्म बल वीर्यादिक अछ, पर्याप्ता पहिछाण ।। ते नेरइया लब्धि वीर्य करी, सबीरिया अवलोय । करण-वीर्य करि पिण तिके, सवीरिया छ सोय ।। १३. से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवा दुविहा पण्त्तणा, तं जहा-सवीरिया वि, अवीरिया वि। (श०११३७६) नेर इया णं भंते ! कि सवीरिया ? अवीरिया ? १४. गोयमा! नेरइया लद्धिवोरिएणं सवीरिया, करण वीरिएणं सवीरिया य, अवीरिया य। (श० १।३७७) १५, १६. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइनेरइया लद्धिवी रिएणं सवोरिया ? करणवीरिएणं सवीरिया य? अवीरिया य? गोयमा ! जेसि णं नेरइयाणं अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करणवीरिएण वि सवी रिया। १७. जेसि णं ने रइयाणं णत्थि उठाणे जाव परक्कमे, ते णं नेर इया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। (श० १।३७८) जे नरक रै उठाणादिक नहीं, लब्धि वीर्य करि तेह। सवीरिया कहिय अछ, करण अवीरिया जेह ।। श०१, उ०८, ढा०२५ १७१ Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम नारकी तिम जाव ते, तिरि पंचेंद्री तेह। मनुष्य ओधिक जीव ज्यू, ण वरं सिद्ध वरजेह ।। १६. वाणव्यंतर नै जोतिषी, वैमानिक सुविशेष । कहिवा नरक तणी परै, सेवं भंते ! सेवं भंते ! एष ।। एम कही गोयम गणी, प्रणमी वीर जिनेश । जावत् विचरै ए कहयो, धुर शत अष्टमुदेश ।। ढाल भली पणवीसमी, भिक्खु भारीमाल ऋषिराय । 'जय-जश' सुख-संपति सदा, गण-वृद्धि हरप सवाय ।। प्रथमशते अष्टमोद्देश कार्थः ।।१८।। १८, जहा नेरइया एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया। (०२३७६) मणुस्सा जहा ओहिया जीवा णवरं सिद्धवज्जा भाणियव्वा । (श० ११३८०,३८१) १६, २०. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा नेरइया। (श० ११३८२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १।३८३) २१. ढाल : २६ १, २. अष्टमोद्देशकान्ते वीर्यमुक्त, वीर्याच्च जीवा गुरुत्वा द्यासादयन्तीति गुरुत्वादिप्रतिपादनपरः तथा सङ्ग्रहण्यां यदुक्तं 'गुरुए' त्ति तत्प्रतिपादनपरश्च नवमोद्देशकः । (वृ०-५० ६५) २. अष्ट मुदेशक अंत में, वीर्य तणो अधिकार। वीर्य ते गुरु लघु हुदै, हिव ते प्रश्न उदार ।। तथा संगहणी गाह में, गुरुए पाठ उचार । ते प्रतिपादनपर हिवै, नवम उद्देशक सार ।। *गोयम वीर नै वीनवै। (ध्रुपदं) किम प्रभु ! जीव भारीपणो, पामै शीघ्र संजत ? असुभ कर्म उपचय रूप जे, अधोगमन हेतुभूत ।। ३. कहण्णं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति? 'गुरुकत्वम्' अशुभकर्मोपचयरूपमधस्ताद्गमनहेतुभूतं । (वृ०-प०६५) ४-७. गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिगहेणं कोह-माण-माया-लोभ-पेज्ज-दोसकलह - अब्भक्खाण - पेसुन्न - परपरिवाय-अरतिरतिमायामोस-मिच्छादसणसल्लेणं--एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति। (श० ११३८४) जिन कहै-प्राणातिपात तूं, मृषा अदत्तादान । मिथुन परिग्रह क्रोध थी, मान माया लोभ जान ।। राग-द्वेष कलह वारमों, अभ्याख्यान दै आल । पिशून-चाडी अरति व्रत विषै, असंजम में रति न्हाल।। परपरिवाद ए सोलमों, माया सहित मषावाद । मिथ्यादर्शणसल्ल ए, पाप अठारै प्रसाध ।। ए पाप अठारै सेवियां, सेवायां पिण सोय । अनुमोद्यां भारी हुवै, अधोगमन अवलोय ।। किम प्रभु ! जीव हलकापणो पामै शीघ्र सहाय ? जिन कहै-प्राणातिपात सू वेरमण-निवर्ताय ।। जाव मिथ्यादर्शणसल्ल थी, निवर्ते-टालै सोय । हलको होवै इह विधे, ऊर्द्धगमन अवलोय ।। *लय—लिछमण राम सू वीनवै ८, ६. कहण्णं भंते ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं-एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति। (श० ११३८५) १७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. हम पाप अठारे सेदिवे, संसार आउल करत इम पाप अठार अणसेदिवे, संसार परिती करें जंत || इम पाप अठार सेविवे, संसार दीर्घ करंतु । इम पाप अठार अणसे विवै संसार अल्प करै जंतु ॥ इम पाप अठार सेविवे, भ्रमण करें इम पाप अठार अणसेवि, अतिक्रम प्रशस्त चउ मोक्ष अंग छै, अप्रशस्त चउ गुरु लघु ना अधिकार ते, एहिज प्रश्न बारंबार । प्रभु ! अवकाशांतर सातमो, भारे करि गुरु के लघु हलको भार थी, गुरुलघु अगुरुलघु जिन की एकांत गुरु नहीं, केवल लघु गुरुलघु पण कहिये नहीं, अगुरुलघु इक होय || वा०-- -अत्र वृत्तिकार का इहां लघुगुरु नीं ए व्यवस्था नहि कोय निश्चयनय थकी सर्व गुरु अथवा सर्व लघु द्रव्य न हुवै अने व्यवहार थकी वादर स्कंध नै विषै सर्व गुरुपणो अने सर्व लघुपणो जुडै । पिण अनेरा नैं विषै न हुर्व संसार || विपरीत । संगीत || होय ? जोय ? निश्चयनय नै मते चउफर्शी सूक्ष्म अनंत प्रदेशियो स्कंध अ अरूपी द्रव्य ए अगुरुलघु हुवै। शेष बादररूपी द्रव्य गुरुलघु जाणया । ए निश्चयनय नो मत कह्य । अनै व्यवहार थकी गुरु आदि च्यारूई बोल छै, ते देखा है । गुरु ते पाषाण अधोगमन थी । लघु ते धुंओ उर्द्धगमन थी । गुरुलघु ते वायु तिरछो गमन थी । अगुरुलघु ते आकाश तत्स्वभावपणा थी । तवाय सातमी नरक नों, स्यूं प्रभु गुरु कहिवाय ? के लघु – हलको भारे करी, गुरुलघु अगुरुलघु थाय ? नहिं घनोदधि जिन क है - एकांत गुरु नहीं, केवल लघु न गुरुलघु छे अपेक्षाय थी, अगुरुलघु इम घणवाय सातमी नरक नों, सप्तम पृथ्वी सातमी नरक नीं कहिये आकाश छहूंइ नरक नां, जिम एक गुरुलघु सप्तम आकाश । अगुरुलघु पामियं विण नहि कहिये तास || जिम तणुवाय गुरुलघु तिम सगला घनवाय । घनोदधि पृथ्वी छ, कहिये ए वर न्याय || कहाय । थाय ।। देख । एक ॥ सोरठा अवकाशंतर आदि, पूर्व कह्या छै ते बली । गापा अर्द्ध संयादि विण अनुसारे जाणवा ।। १०. एवं संसारं आउलीकरेंति एवं परित्तीकरेंति ११. एवं दीही करेंति एवं हस्सीकरेंति १२. एवं अणुपरिट्टेति एवं वीईवयंति १३. पसत्था चत्तारि अपसत्था चत्तारि । ( ० १२-६-२२१ ) १४. सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? १५. गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुयलहुए। (श० ११३६२) वा०-- इह चेयं गुरुलघुव्यवस्था निच्छ्य सव्वगुरु सब्बलहुं वा न विज्जए दव्वं । ववहारओ उ जुज्जइ बायरखंधेसु नणेसु || १|| अगुरुलहू चउफासो अरुविदव्वा य होंति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरु लहुया निच्छयणयस्स ॥२॥ ( वृ० प० ६६) ! १६. सत्तमे भवाए कि गए? हुए?? गल? १७. गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए । लहुए, गरुयलहुए, णो अगस्य(०२३२२) १८. एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी । ( श० ११३९४ ) १६. ओवासंत राई सव्वाई जहा सत्तमे ओवासंतरे । (स० २०३९५) २०. जहा तणुवाए एवं श० १, उ० ६, ढा० २६ १७३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. २३ २५. २४. *हे प्रभु ! नेरइया स्यूं गुरु ? जाव अगुरुलघु होय ? जिन कहै नहीं गुरु, नहीं लघु गुरुलघु अगुरुलघु दोय ॥ २६. २७, २९. ३०. धुर धर्मास्तिकाय ते जाय जीवास्तिकाय । अगुरुलघु कहिय तसं पद तीन नहि पाय । २. पुङ्गलास्तिकाय हे प्रभु! एकांत गुरु कहियाय ? के केवल कहिये लघु, के गुरुलघु अगुरुलघु ताय ? जिन कहे- एकांत गुरु नहीं, केवल लघु न कहाय गुरुलघु पिण कहिये तसे अगुरुलघु पिण थाय ॥ किण अर्थे ? तब जिन कहै, गुरुलघु द्रव्य आश्री जोय । ए प्यार शरीर प्रमुख पणां गुरुलघु तीजो होय || ३१. ३२. दूहा आकाश वाय घनोदधि, पृथिवी द्वीप पिछाण । सागर ने वासावली, इम कहिये सुविधान ।। ३३. सोरठा अगुरुलघु आकाश, गुरुलघु वायु प्रमुख जे 1 एवर अर्थ विमास, संग्रह अर्द्ध गाथा तणो ॥ ३४. far अर्थे ? तब जिन कहै, वैक्रिय तेजस ताहि । ते आश्री इक गुरुलघु, अन्य तीन पद नांहि || जीव कर्म आधी मेरइया, अगुरुलघु अवलोय । एवं जाव वैमानिया, पण शरीर नानात्वं जीय | च आसरी, कार्मणादि अगुरुलघु द्रव्य अगुरुलघु उधो पद अर्थ समय कर्म कृष्णलेश्या प्रभु ! गुरु अछे, जाव अगुरुलघु होय ? जिन कहै - नहि गुरु नहि लघु गुरुलघु अगुरुलघु जोय ॥ इहां वृत्तिकार का इसुं, भावलेश्या जीव- परिणति अरूपी अच्छे अगुरुलघु किण अर्थे ? तब जिन कहे, गुरुलघु छे द्रव्य लेश । भावलेश्या अगुरुलघु, इम यावत् शुक्ल अशेष || * लय - लिछमन राम सूं वीनवे १७४ भगवती-जोड़ प्रसिद्ध पट् ॥ इण ते ताय । न्याय || २२. ओवास वाय- घणउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा । (TTO (1224) २३. गुरुलघुर्वायुस्तिर्यग्गमनात् अगुरुलघ्वाकाशं तत्स्वभावत्वात् । (२००६) २४. नेरइया णं भंते । किं गरुया ? जाव अगरुयलहुया ? गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुलहुयावि । (श० ११३६७) २५. से केणट्ठेण भंते! एवं वुच्चइ गोयमा ! विउब्वियतेयाई पडुच्च णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुया, जो अगरुयलहुया । २६. जीवं च कम्मगं च पडुच्च णो गरुया, णो लहुया, णो गरुयलहुया, अगरुयलहुया... (N० १०३६८) एवं जाव वैमाणिया, नवरं नाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहि । (०२३२२) २७. धम्मत्थिकाए जाव जीवत्थिकाए चउत्थपएणं । (50 (1500-802) २८. पोरगलत्थिकाए णं भंते ! कि गरए ? लहुए ? गव्यल हुए ? अगरुयल हुए ? २६. गोयमा ! णो गए, णो लहुए, गरुयलहुए वि, अगरुयलहुए वि । ( ० १२४०४) ३०. से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चइ - गोयमा ! गरुयल हुयदव्वाई पडुच्च णो गरुए, जो लहुए, गरुयलहुए, णो अगरुयल हुए । ३१. अगरुयलहुयदब्वाइं पडुच्च णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयल हुए, अगरुयल हुए । ( ० १०४०५) समया कम्माणि य च उत्थपदेणं । (श० १४०६, ४०७ ) ३२. कण्हलेस्सा णं भंते ! कि गरुया जाव अगरुयलहुया ? गोमा ! णो गया, णो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुलहुयावि । (R० १४४०८) ३३. से केणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ – गोयमा ! दव्वले सं पडुच्च ततियपदेणं, भावलेस्सं पडुच्च चउत्थपदेणं । (श० १०४०९) ( श० ११४१० ) (40-470 (3) एवं जावा | ३४. भावा त्यनेन व्यपदेश: 1 परिणतस्तस्याश्चामूर्त्तत्वादगुर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. लक्षण कृष्णलेश्या तणा, पंचाश्रव कहिवाय । उत्तराध्येन चउतीसमें, जीव आश्रव इण न्याय ।। दृष्टि, दर्शण, ज्ञान नै, अज्ञान, संज्ञा ताय । चउथै पद अगुरुलघु अछ, वृत्ति में जीव पर्याय ।। ३६. दिट्ठी-दसण-णाण-अण्णाण-सण्णाओ चउत्थएणं पदेणं नेतवाओ। (श० ११४११) दृष्ट्यादीनि जीवपर्यायत्वेनागुरुलघुत्वादगुरुलधुलक्षणेन। ३७. औदारिकादि शरीर चउ, तीजै पद है प्रसिद्ध । कार्मण चउथे पद अछ, मन वच चउथै पद्द ।। ३८. काय जोग पद तीसरै, द्रव्य जोग पहिछाण। सागार नै अणागार ते, अगुरुलघु चउथै जाण ॥ ३७, ३८. हेट्ठिल्ला चत्तारि सरीरा नेयव्वा ततिएणं पदेणं। कम्मयं चउत्थएणं पदेणं । (श० ११४१२) मणजोगो, बइजोगो चउत्थएणं पदेणं, कायजोगो ततिएणं पदेणं। (श० ११४१३) सागारोवओगो, अणागारोवओगो चउत्थएणं पदेणं । (श० ११४१४) ३६. सव्वदव्वा, सव्वपएसा, सव्वपज्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ। (श० ११४१५) ४०. तीतद्धा, अणागतद्धा, सब्बद्धा चउत्थएणं पदेणं। (श० ११४१६) ३६. सर्व द्रव्य सर्व प्रदेश ते, पजवा सर्व सुजोय । जिम पुद्गलास्तिकाय तिम, गुरुलघु अगुरुलघु दोय ।। ४०. अतीत अनागत सर्व अद्धा, चउथै पद सुविशेष । ए अर्थ कह्या प्रथम शतक नां, नवमा उदेशा नों देश ।। ४१. ढाल भली छबीसमी, भिक्खु भारीमाल ऋषिराय । भिवखू लिखत प्रसाद थी, 'जय-जश' संपति पाय ।। ढाल : २७ गुरलघ नां अधिकार थी, एहिज प्रश्न उदार। पूछ गोयम मुनि तणो, प्रश्न प्रवर हितकार ।। *गोयम वीर नै वीनवै [ध्रुपदं] २. हे प्रभु ! अल्प उपधिपणु, अल्प-अभिलाषा अन्नादिक धार के। अमुच्छी उपधि-रक्षण विर्ष, अनासक्ति भोगवतां आहार के।। वीर प्रभु इम बागर। [ध्रुपदं] ३. अस्नेह स्वजनादिक विष, श्रमण निग्रंथ नैं ए भला पंच ? जिन कहै-हंता गोयमा ! मुनि नै एह प्रशस्त सुसंच ।। ४. हे प्रभु ! अक्रोधपणुं वले, अमानपणुं अमायापणु जोय। अलोभपणं मुनि नै भलो? जिन कहै हंता इमहिज होय ।। २. से नणं भंते! लापवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही लाघविकम्-अल्पोपधिकम् 'अप्पिच्छ' त्ति अल्पोऽभिलाष आहारादिषु 'अमुच्छ' त्ति उपधावसंरक्षणानुबन्धः 'अगेहि' त्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्तिः। (वृ०-प०६७) ३. अपडिबद्धया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता गोयमा ! लापवियं जाव पसत्थं (श०११४१७) अप्रतिबद्धता-स्वजनादिषु स्नेहाभाव इत्येतत्पञ्चकमिति गम्यं । (वृ०-प०६७) ४. से नणं भंते ! अकोहत्तं अमाणतं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं? हंता गोयमा ! अकोहत्तं अमाणत्तं जाव पसत्थं । (श० ११४१८) *लय-हूं बलिहारी हो जादवां श०१, उ०६, ढा०२६,२७ १७५ Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. क्रोधादि-दोष अभाव ते, कांक्ष-दोष क्षय करिवा अर्थ । प्रश्न हिब गोयम करै, कर्म काटण ते संत समर्थ ।। ६. प्रभु ! राग-द्वेष अन्य मत आग्रह, ए कांक्ष-प्रदोष मुनि क्षय कीध । ते अंत करै कर्मा तणो? तथा ह चरम-शरीरी प्रसीध ।। ७. पहिला बह मोह विष रही, पछै आथव रूंधी करै काल । सीझै जाव दुख अंत करै? जिन कहै-हंता इमहिज न्हाल ।। ८. स्वदर्शण नी कही वारता, हिव अन्य दर्शण - प्रश्न पिछाण । ___ अन्यतीर्थी ! प्रभु इम कहै, भाषे पन्नव परूपै जाण ॥ ६. आइक्खंति सामान्य थी, भासंति पाठ विशेष थी जोय। पन्नवेति ते उपपत्ति करी, परूपै भेद कथन थी होय ।। ५. कोधादिदोषाभावाविनाभूतकांक्षाप्रदोषक्षयकार्याभिधानार्थम् । (वृ०-०६७) ६. से नूर्ण भते ! खापदोसे खीणे समणे निग्गंथे अतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा? कांक्षा-दर्शनान्तरग्रहो गृद्धिर्वा सैव प्रकृष्टो दोषः कांक्षाप्रदोषः। (व०प०६७) ७. बहुमोहे वि य णं पुब्धि विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेइ ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ? हता गोयमा ! कंखापदोसे खीणे जाव अंतं करेति । (श० ११४१६) ८. अण्ण उत्थिया ण भते ! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण वेति, एवं परूवेति६. आख्यान्ति सामान्यतः भासंति' ति विशेषतः 'पण्णवेति' ति उपपत्तिभिः 'परूवति' ति भेदकथनतः । (वृ०-प०६८) १०. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तं जहा-इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च । ११. ज समयं इहभविवाउयं पकरेति, तं समयं परभवियाउयं पकरेति । जं समयं परभविया उयं पकरेति, तं समयं इहभवियाउयं पकरेति । १२. इहभवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाउयं पकरेति । १०. इम इक जीव इक समय में, आउखा दोय भणी पकरंत। इह भव ना आयु प्रतं, अथवा परभव नों वांधत ।। ११. जे समय इह भव - आयु करै, ते समय परभव नो आयु पकरंत । जे समय परभव नों आयु करै, ते समय इहभव नो आयु बांधत ।। १२. इहभवायु करिवा तणा, अध्यवसाय करीने सोय। परभव नों जे आउखो, पकरै बांधै छै अवलोय ॥ १३. परभवायु करिवा तणा, अध्यवसाय करीने सोय। इहभव नों जे आउखो, पकरै बांध छै ते जोय ।। १४. ते किम कहियै ए प्रभु ! जिन कहै-ए अन्यतीर्थी नी वाय। इहभव बै आयु करै, ते मिथ्या-झूठ कहीजै ताय ।। १५. हं पिण इम कहूं छू इसो, एक जीव इक समय मझार। आउखो एक बांधै अछ, इहभव वा परभव न विचार ।। १३. पर भवियाउयस्स पकरणयाए इहभवियाउयं पकरेति । (श० ११४२०) १४. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एबमाइक्खंति जाब एवं खलु एगे जीये एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तं जहा-इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च। जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु।। १५. अहं पुण गोयमा ! एबमाइक्खामि, जाव परूवेमि---एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पकरेति, तं जहा—-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा । १६. जं समयं इहभवियाउयं पकरेति, णोतं समयं परभवियाउयं पकरेति । जं समयं परभवियाउयं पकरेति, गोतं समयं इहभवियाउयं पकरेति । १७. इहभवियाउयस्स पकरणताए णो परभवियाउयं पकरेति। परभवियाउयस्स पकरणताए णो इहभवियाउयं पकरेति। १६. जे समय इहभव - आयु करे, ते समय परभव नों आयु करै नाय । जे समय परभव न आयु करे, ते समय इहभव नुं आयु न कराय ।। १७. इहभव - आयु करिव करी, परभव न आयू करै नांय। परभवायु करिव करी, इहभव नुं आयू न कराय॥ १७६ भगवती-जोड़ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. इम खलु इक जीव इक समय, एक आउखा भणी पकरंत। १८. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेति, तं तेह इहभव वा परभव तणु, सेवं भंते ! जाब विचरंत ।। जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा। (श० १।४२१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाब विहरति । जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नो। (ध्रुपदं) (श० ११४२२) १६. अन्ययूथिक प्रस्ताव थी, अन्य तीर्थकर शिष्य संतान । तास विस्तार कहै हिवै, सांभलजो श्रोता धर कान ।। २०. तिण काल नै तिण समय, पाव जिन शिष्य नां सीस। २०. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियकालासवेसी-पुत्र ते, इण नामें अणगार जगीस।। पुत्ते णामं अणगारे 'पासावच्चिज्जे' ति पापित्यानां-पार्श्वजिन शिष्याणामयं पार्खापत्यीयः। (वृ०-५० १००) २१. जिहां वीर स्थविर श्रुत-वृद्ध हुँता, ते स्थविर भगवंत ने कहै इम आय। २१. जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता स्थविर सामायक न जाणता, समभाव रूप सूक्ष्म छै ताय ।। थेरे भगवते एवं वयासी-थेरा सामाइयं न याणंति, 'थेरे' ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धा: 'सामाइयं' ति समभावरूपं 'न याणंति' त्ति न जानन्ति, सूक्ष्मत्वात्तस्य। (वृ०-प० १००) २२. स्थविर सामायक अर्थ न जाणता, अर्थ प्रयोजन कम निरोध। २२. थेरा सामाइयस्स अटुं न याणंति । थेरा पच्चक्खाणं न स्थविर पचखाण न जाणता, पचखाण अर्थ न जाणता सोध ।। याणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अटुं न याणंति । 'सामाइयस्स अट्ठ' ति प्रयोजनं कर्मानुपादाननिर्जरणरूपं । (वृ०-प० १००) २३. स्थविर संयम नहीं जाणता, संजम पृथव्यादि रक्षण ताम । २३. थेरा संजमं न याणंति, थेरा संजमस्स अटुं न याणंति । स्थविर संयम अर्थ न जाणता, ए अर्थ अनाश्रवपणुं अमाम ।। 'संजम' ति पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणं, तदर्थं च--- अनाश्रवत्वं। (वृ-प०१००) २४. स्थविर संवर नहीं जाणता, इंद्रिय नोइंद्रिय वस करण । २४. थेरा संवरं न याणंति, थेरा संवरस्स अट्ठन याणंति । स्थविर संवर अर्थ न जाणता, अर्थ अनाश्रवपणुं भव तरण ।। 'संवरं' ति इन्द्रि यनोइन्द्रियनिवर्तनं, तदर्थ तु-अनाथ वत्वमेव । (वृ०-५० १००) २५. स्थविर विवेग न जाणता, विशिष्ट बोध विवेग कहाय। २५. थेरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अटुंण याणंति । स्थविर विवेक अर्थ न जाणता, तजवा योग्य त्यागादिक ताय ।। 'विवेगं' ति विशिष्टबोधं, तदर्थ च-त्याज्यत्यागादिकं । (वृ०-५० १००) २६. स्थविर बिउसग्ग नहीं जाणता, ध्यान करी काया बोसिराय। २६. थेरा विउस्सगं न याणंति, थेरा विउस्सन्गस्स अट्ठ न स्थविर विउसग्ग अर्थ न जाणता, निस्पृहपणुं निर्वछा ताय ।।। याणंति। (श०११४२३) 'विउस्सन्गं' ति व्युत्सर्ग कायादीनां, तदर्थ चानभिष्वङ्गताम्। (वृ०-प० १००) २७. स्थविर भगवंत तिण अवसरै, कालासवेसी पूत्र ने कहै एम। २७. तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं हे आर्य! सामायक जाणां अम्हे, जाव जाणां विउसग्ग ना अर्थ जेम ।। वदासी-जाणामो णं अज्जो ! सामाइयं, जाणामो णं अज्जो! सामाइयस्स अट्ठ जाव जाणामो णं अज्जो! विउस्सग्गस्स अट्ठ। (श० ११४२४) २८. कालासवेसी-पुत्र मुनि तिको, स्थविर भगवंत प्रतै कहै वाय। २८. तते णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं जो आर्य! सामायक जाणो तुम्हे, जाब विउसग्ग अर्थ जाणो सुखदाय ।। वयासी-जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह सामाइयं, तुभे जाणह सामाइयस्स अट्ठ जाव जइ णं अज्जो! तुब्भे जाणह विउस्सगं, तुब्भे जाणह विउस्सग्गस्स अट्ठ। श०१, उ०६, ढा०२७ १७७ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. हे आर्य ! तुम्हारे सामायक कवण ? कवण सामायक नों थारै अर्थ। जावत् विउसग्ग नों अरथ, कवण तुम्हारै अछै समर्थ? || ३०. स्थविर भगवंत तिण अवसरे, कालासवेसी पुत्र नै कहै एम। आर्य ! अहो अम्हारै मते, आतम सामायक छै वर खेम ।। ३१. वृत्तिकार इसड़ो कह्य, गुणप्रतिपन्न जीव नै ताय। द्रव्याथिक नय नै मते, सामायक कहियै सुखदाय ।। ३२.हे आर्य ! सामायक नों अर्थ, अम्हारै मत आत्मा जाण । जाव विउसग्ग नों अर्थ, ते पिण आतम हीज पिछाण ।। ३३. कह्यो वृत्तिकार सामायक अर्थ, जीवईज कर्म अणउपादान। जीव ना गुण छै ते भणी, जीव थकी जदा म पिछान ।। ३४. कालासवेसी-सुत तिण समैं, स्थविर भगवंत प्रतै कहै वाय। जो आत्मा सामायक तुझ मतै, जाव आत्मा विउसग्ग अर्थ कहाय ।। ३५. तो क्रोधादिक चिउं तजी, आत्मा किण अर्थे गर्यो एम। निंदामि गरिहाभि किम कहो, अप्पाणं वोसिरामि कहो केम? २६. के भे अज्जो ! सामाइए ? के भे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे ? जाव के भे अज्जो ! विउस्सग्गे ? के भे अज्जो ! वि उस्सग्गस्स अट्ठे? (श० ११४२५) ३०. तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-आया णे अज्जो ! सामाइए, ३१. 'जीवो गुणपडिवण्णो नयस्स दबट्ठियस्स सामइयं'। (वृ०-५० १००) ३२. आया णे अज्जो! सामाइयस्स अट्टे जाव विउस्सग्गस्स अठे। (श० ११४२६) ३३. सामायिकार्थोऽपि जीव एव, कर्मानुपादानादीनां जीव गुणत्वात् जीवाव्यतिरिक्तत्वाच्च। वृ०-प० १००) ३४. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवते एवं वदासी-जइ भे अज्जो! आया सामाइए, आया सामा इयस्स अट्ठे जाव आया विउस्सग्गस्स अट्टे३५. अवहट्ट कोह-माण-माया-लोभे किमळं अज्जो ! गरहह? 'अवहट्टु' त्ति अपहृत्य त्यक्त्वा क्रोधादीन् किमर्थ गर्हध्ये ? 'निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसि रामि' इति वचनात् । (व०-प० १००) ३६. यः सामायिकवान् त्यक्तक्रोधादिश्च स कथं किमपि निन्दति ?निन्दा हि किल द्वेषसम्भवेति ।(वृ०-५०१००) ३७. कालासा ! संजमठ्ठयाए। (श० ११४२७) संयमार्थमिति, अवघे गर्हिते संयमो भवति, अवद्यानुमतेर्व्यवच्छेदनात्, तथा गर्दा संयमः, तद्धेतुत्वात्। (वृ०-५०१००), ३८. से भंते ! कि गरहा संजमे ? अगरहा संज मे ? कालासा ! गरहा संजमे, णो अगरहा संजमे। ३६. गरहा वि य णं सव्वं दोसं पविणेति, सव्वं बालियं परिणाए। दोष -रागादिकं पूर्वकृतं पापं वा द्वेषं वा। बाल्यं—बालतां मिथ्यात्वमविरति च । ३६. वृत्तिकार कह्यो अभिप्राय ए, त्यक्त-क्रोधादि सामायिकवान। ते कहो किम निंदा करै? निंदा में द्वेष संभव पहिछान ॥ ३७. स्थविर कहै काला! सुणो, संयम अर्थे गहाँ ताम। सावज्ज निद्यां संयम हुवै, ते गर्दा संयम - हेतु गुणधाम ।। ३८. कालासवेसी कहै स्यं प्रभु ! गर्दा संयम कै अगर्दा होय। काला! गर्दा संजम कह्यो, अगही संयम नहिं कोय ।। ३६. गर्दा करी सहु दोष नै, रागादिक पूर्व कृत पाप खपावै, मिथ्या अव्रत तजी, ए बालपणों सर्व छांडै आप ॥ ४०, ४१. एवं खुणे आया संजमे उवहिते भवति । एवं खुणे आया संजमे उवचिए भवति। एवं खुणे आया संजमे उवट्ठिते भवति। (श० ११४२८) ४०. इम निश्च तुझ आतमा, संयम नै विष स्थापित होय। इम निश्चै तुझ आतमा, संयम विष पुष्ट अवलोय ।। ४१. इम निश्चै तुझ आतमा, संयम विषय अधिक सावधान । कालासवेसी सांभली, प्रतिबोध्यो समझ्यो गणखान ।। ४२. स्थविर भगवंत ने वंदनै, नमस्कार करि बोल्यो वाय । हे भंते ! पद पूर्वे कह्या, अजाणपण करि मैं नवि पाय ।। ४२. एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवते वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एएसि णं भंते ! पयाणं पुब्धि अण्णाणयाए १७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ `४३. असवणयाए—असुणवै करी, अवोहीए - महावीर जिन धर्म | तेह त अणपाम, तथा न पायो बुद्धि करि मर्म ।। ४४. अणभिगमेणं विस्तार अदिट्ठाणं ते साक्षात ४६. अयोकडाणं विशेष अण्णा विपक्ष ४५. अस्सुयाणं - अन्य पे नहीं सुण्या, अमुयाणं - स्मृत ध्याया नांय । अविणायाणं नो अरथ, विशिष्ट बोध जाणपणे न आय ॥ थी, बोध अभाव करी नहीं थी, स्वयमेव नहिं लाधो ए पाय । न्याय ।। ४७. अणिज्जूडाणं महाग्रंथ थी, मुखं समजवा अर्थ विचार अनुग्रह गुरु मुझ पर करी, संक्षेप करि नहि कह्या उदार ।। ५५. अहा सुहं कालासवेसी थी, मुझ प्रति सुगुरु नहीं आख्यात | भी भिन्न करी न बताया साक्षात || ४८. अणुवधारियाण अरण, इण कारण पानांहि प्रीत करी न प्रतीतिया, ए पद मुझ रुचिया नहीं ताहि ॥ ४२. हे भयंत ! ए पद प्रहिये जाणवे सांभल कर सोय। दोध करी विस्तार करि देख्या सुचिया ध्याया जोय ॥ २०. विशेषपण जाण्या हिवे, विशेष थी तुम आखी बात संदेह मिटियो मांहरो, महाग्रंथ थी संक्षेप श्रवणात || ५१. इण कारण धारया अम्हे ए अर्थ सरधुं प्रतीतुं स्वाम | रोचं ए इमहिज छ, जे तुम्हे वचन कह्या अभिराम ॥ ५२. स्थविर भगवंत तिण अवसर, कालासबेसी-व ने हे आर्य! श्रद्ध प्रतीत कर, रोचव तूं जे अम्हे कहै एम । कहां तेम || ५३. कालावेसी स्थवि भणी, बंदी नमसी कई पर तुझ कन्है वांछू चउ याम थी, पंच याम पडिकमण ५४. वह धर्म तेह प्रतै आदरी, वंछू छू विचरवो ए कालासवेसी नोंवच सुणी, स्थविर वदं वचनामृत आम ॥ स्वाम । प्रीत सहीत ॥ | देवाप्पिया ! मा पडिबंध म कर अंतराय । पंदने पंच महाव्रत धार्या ताय || तत्र ४३. वहीए अवधि: जिनधर्मानवाप्तिः, इह तु प्रक्रमान्महावीरजिनधर्मानवाप्तिस्तया, अथवौत्पत्तिक्यादिबुद्ध्यभावेन । ( वृ० प० १००) ४४. अणभिगमेणं अदिट्ठाणं 'अभिगमे त विस्तरोधाभावेन हेतुना 'अदृष्टाना' साक्षात्स्वयमनुपलब्धानाम् । (TOUTO 100) ४५. अस्सुयाणं अमुयाणं अविण्णायाणं 'अभूतानाम्' अन्यतोऽनाकणितानाम् अस्मृतानाम् दर्शनानाभावेनाननुध्यातानाम्, 'अविज्ञातानाम्' विष्टोधाविषयकृतानाम् । ( वृ०-५० १००) ४६. अव्वोकडाणं अव्वोच्छिण्णाणं अव्याकृतानां विशेषतो गुरुभिरनाख्यातानाम्, 'अब्बोच्छिण्णाणं' ति विपक्षादव्यवच्छेदितानाम् । ( वृ० प० १०० ) ४७. अणिज्जूढा महतो ग्रन्थात्सुखावबोधाय संक्षेपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरनुद्धृतानाम् । ( वृ० प० १००, १०१ ) ४८. अणुवधारियाणं एयमट्ठे नो सद्दहिए नो पत्तिइए नो रोइए । ४६. इदाणि भंते ! एतेसि पयाणं जाणयाए सवणयाए बोहीए अभिगमे विद्वाणं याचं पा ५०. विष्णायाणं वोगडाणं वोच्छिष्णाणं णिज्जूढाणं उवधारियाणं तुभेवदह ५१. एम सहामि पत्तियामि रोएम एवमेव से जहे (२० १२४२९) ५२. भगवतो कालायितं अमगार एवं बयासी साहिबो पतियाहि अग्लो रोहि अज्जो ! से जहेयं अम्हे वदामो । ( श० १४४३० ) ५२५४.कालादेसिय अगवारे मेरे भगवते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी - इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता गं हिरिए। ५५. अहाहं देवापिया मा परिबंध (२० २०४३१) तसे कालासियते अणगारे मेरे भगवते बंद नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता गं विहरति । (०१४४३२) श० १, उ० ६, ढा० २७ १७६ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. कालासवेसी बहु वरस लगै, चारित्र पर्याय पाली जान। जिण अर्थ नग्न भाव आदरयं, मंडपण दिख्या अरु अस्नान ।। ५६. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता जस्सछाए कीरइ नन्गभावे मुंडभावे अण्हाणयं ५७. अदंतवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलह सेज्जा कटुसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो ५८. परघरप्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया गामकंटगा ५७. अदंत - धोवण छत्र नहि, पानही नहीं, फिरवो अलूयाण। भूमि-फलग-काष्ठे शयन, केश-लोच ब्रह्मचर्य पिछाण ।। ५८. गोचरी पर घर जायवो, लाधै अणलाधै समभाव। अनुकल प्रतिकुल सम चिते, इंद्रिय-कंटक सहै तज ताव ।। ५९. बावीस परिसह ने बली, उवसग्ग खमण धाऱ्या सिव काज। ते अर्थ मोक्ष आराधने, चरम निःश्वास करी शिवराज ।। ६०. सिद्ध बुद्ध तत्व-ज्ञाता थइ, कर्म रहित ने शीतलीभाव। सर्व दुःख नैं क्षय किया, ए कालासवेसीसूत प्रस्ताव ।। ६१. धुर शत देश नवमा तणों, सप्तवीसमी आखी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' सुख संपति सुविशाल ।। ५६. बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जति, तमट्ठ आरा हेइ, आराहेत्ता चरमेहि उस्सास-नीसासेहि ६०. सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिब्बुडे सव्वदुक्खप्पहीणे। (श० ११४३३) ढाल : २८ दूहा कालासवेसीपुत्र शिव, पचखाणे करि पाय । हिव तेह विपरीत जे, अपचखाण कहिवाय ।। १. कालास्यवैशिकपुत्रः प्रत्याख्यानक्रियया सिद्ध इति तद्विपर्ययभूताप्रत्याख्यानक्रियानिरूपणसूत्रम् (वृ०-५० १०१) २. भंते ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदर नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी हे भदंत ! इम आमंत्री, भगवंत गोतम स्वाम। वीर प्रते वंदन करी, इम बोले सिर नाम ।। *रूडा भजल रेजिनराज।(ध्रुपदं)। सेठ अनै दरिद्री नैं प्रभु ! रंक राय नै जाण । अपचखाण नी क्रिया बरोबर? हंता ए जिन वाण ।। ३. से नूर्ण भंते ! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? हता गोयमा ! सेट्ठियस्स जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ। (श० ११४३४) 'तणुयस्स' त्ति दरिद्रस्य 'किवणस्स' त्ति रङ्कस्य 'खत्तियस्स' त्ति राज्ञः। (वृ०-प०१०१) ४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ.—गोयमा ! अविरति पडुच्च। (श० ११४३५) अप्रत्याख्यानक्रियायाः प्रस्तावादिदमाह (वृ०-प० १०१) किण अर्थ ? तव श्री जिन भाखै, अविरति आश्री जोय। क्रिया तणां अधिकार थकी, वलि प्रश्न क्रिया नों होय ।। १.नंगे पांव। *लय--सीता आवै रे धर राग १८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. आधारमा आधाकमी भोगवतो मुनि स्यूं बांधे ? पकरंत ? चिणे ? उपचिण? प्रकृति, स्थिति, अनुभाव, प्रदेश बंधत ? ६. जिन कहै-आधाकर्मी भोगवतां, आयु वरजी सात। __ कर्म प्रकृति ढीली बंधी ते, दृढ़ बंधन बंधात ॥ ७. यावत् काल अनंत भमै ते, किण अर्थे ? भगवंत! जिन कहै-आधाकर्मी भोगवतां, चरण धर्म लोपंत ।। चारित्र धर्म प्रते अतिक्रमतो, पृथ्वीकाय नी ताय । दया नहीं तेहना घट मांहै, इम जावत् त्रसकाय ।। जे जंतू ना तन नों आहार, करै तेहनीं पिण जाण। दया नहीं तेहनै तिण अर्थे, जाव भ्रमण कहिवाण ।। आधाकर्म-विपक्ष सूझतो, तेहनं प्रश्न अखिन्न। अचित सूझतो मुनि भोगवतो स्यूं बंध ? जाव उपचिन्न ? ॥ ११. जिन भाख मुनि अचित सूझतो, भोगवतो कर्म सात। दृढ़ बंध्या ते ढीला पाडै, जिम संवुड अवदात ।। ५. आहाकम्म णं भुंजमाणे समणे निगंथे कि बंधइ ? कि पकरेइ ? कि चिणाइ? कि उवचिणाइ? बंधइ-प्रकृतिबंधमाश्रित्य, पकरेइ--स्थितिबंधापेक्षया, चिणाइ–अनुभागबंधापेक्षया, उवचिणाइ-प्रदेशबंधापेक्षया। (वृ०-५० १०२) ६,७. गोयमा ! अहाकम्मं णं भुजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव अणुपरियट्टइ। (श० ११४३६) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–गोयमा ! आहाकम्म णं भुंजमाणे आयाए धम्म अइक्कमइ, ८. आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविकायं णावकंखइ जाव तसकायं णावखइ, ६. जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई आहारमाहारेइ ते बि जीवे णावकखइ । से तेणट्टेणं गोयमा ! . . 'जाब चाउरंत संसारकंतारं अणुपरियट्टइ। (श. ११४३७) १०. आधाकर्मविपक्षश्च प्रासुकैषणीयमिति प्रासुकैषणीयसूत्रम्। (वृ०-प०१०२) फासु-एसणिज्ज णं भंते ! भुजमाणे समणे निग्गंथे कि बंधइ ? कि पकरेइ ? किं चिणाइ ? कि उवचिणाइ? ११. गोयमा ! फासु-एसणिज्ज णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधण बद्धाओ पकरेइ जहा संवुडे, १२. नवरं आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय णो बंधइ, सेसं तहेव जाव वीईवयइ। (श० ११४३८) १३. से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चइ--जाव चाउरतं संसार कतारं वीईवयइ? गोयमा ! फासु-एसणिज्ज णं भुंजमाणे समणे निम्नथे आयाए धम्म नाइक्कमइ, १४. आयाए धम्म अणइक्कममाणे पुढविकायं अवकखइ जाव तसकार्य अवकंखइ, १५. जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई आहारेइ ते वि जीवे अवकंखइ।से तेणठेणं गोयमा ! जाव चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयइ। (श० ११४३६) १६. अनन्तरसूत्र संसारव्यतिव्रजनमुक्तं, तच्च कर्मणोऽस्थिरतया प्रलोटने सति भवतीत्यस्थिरसूत्रम् (वृ०-५० १०२) १७. से नूणं भते ! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ? अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ? १८. सासए बालए, बालियत्तं असासयं? सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं? णवरं आयु कर्म कदाचित बंधे कदा अबंध । शेष संवडा नी पर कहिवो, यावत् शिव-पद संध ।। किण अर्थे जावत शिव पामै? जिन कहै एहन न्याय । अचित सझतो भोगवतो मुनि-धर्म नहि लोपाय ।। १२. १४. चारित्र धर्म नै अणअतिक्रमतो, पृथ्वीकाय नी ताय । दया अछै तेहनां घट मांहै, इम जावत् त्रसकाय॥ जे जंतु नां तन नों आहार करै तेहनी पिण जाण। दया तास घट में तिण अर्थे जाव लहै निर्वाण ।। १६. कह्य संसार तणं अतिक्रमव, ते कर्म पलटवे होय । कर्म स्वयं अस्थिर तिण स्व, हिव अस्थिर सतर जोय ।। १७. हे भदंत ! जे अस्थिर पलटै, स्थिर ते पलटै नांहि। अस्थिर वस्तु ह ते भाजै, स्थिर नहिं भाजे ताहि ? बाल सासतं बालपणू ते असासत पहिछाण । पंडित सासतूं पंडितपण ते असासतं ? इम जाण? १८. श०१, उ०६, ढा०२८ १८१ Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन कहै-हंता, अस्थिर पलटै, पाषाणादिक ताय। अस्थिर-ऊंधा-सुंधा होवै, एम पलटवू थाय ।। अध्यात्म चितवन विषै तो, अस्थिर कम पिछाण। जीव-प्रदेश थकीज चल्यं ते, निर्जरिवू पलटाण।। स्थिर जे शिला प्रमुख नहि पलट, अध्यात्मे स्थिर जीव । कर्म क्षये पिण जीवपणु नहिं पलट एह सदीव ।। अस्थिर-भंगुर स्वभाव तृणादि भाजै बे दल थाय । अध्यात्मे अस्थिर कर्म भाजे, चल्यो थको झड़ जाय ।। १६. हंता गोयमा! अथिरे पलोदृइ, 'अथिरे' ति अस्थास्नु द्रव्यं लोष्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते। (वृ०-प०१०२) २०. अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रति समयचलनेनास्थिरत्वात् 'प्रलोटयति' बन्धोदयनिर्जरणादिपरिणामैः परिवर्तते । (वृ०-५०१०२) २१. नो थिरे पलोट्टइ। 'स्थिरं' शिलादि न प्रलोटयति, अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थितत्वात्, नासी 'प्रलोटयति' उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते। (वृ०-५० १०२) २२. अथिरे भज्जइ, 'अस्थिर' भंगुरस्वभावं तृणादि भज्यते' विदलयति, अध्यात्मचिन्तायामस्थिर कर्म तद् ‘भज्यते व्यपैति । (वृ०-प० १०२) २३. नो थिरे भज्जइ। 'स्थिरम्' अभंगुरमय:-शलाकादि न भज्यते, अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः स च न भज्यते शाश्वतत्वादिति । (व-प०१०२) २४. सासए बालए, बालियत्तं असासयं ।। 'सासए बालए'त्ति बालको व्यवहारतः शिशुनिश्चयतोऽसंयतो जीवः स च शाश्वतो द्रव्यत्वात, 'बालियत्तं' ति व्यवहारतः शिशुत्वं निश्चयतस्त्वसंयतत्वं तच्चाशाश्वतं पर्यायत्वादिति। (वृ०-५०१०२) २५. सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं। (श०११४४०) एवं पंडितसूत्रमपि, नवरं पंडितो व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः, निश्चयतस्तु संयत इति। (वृ०-५० १०२) स्थिर ते लोह--शलाका प्रमुख, अभंगुर नहि भंजाय। अध्यात्मे स्थिर जीव न भाजै, द्रव्य जीव पेक्षाय ।। २४. बाल सासत असजती नां, द्रव्य जीव अपेक्षाय । बालपणुं तो असासतूं छै, कदे पंडित को थाय ।। २५. पंडित सासतूं संजति नु, द्रव्य जीव अपेक्षा जोड़। पंडितपणुं असासतो कहिय, देश ऊणो पुब्ब कोड ।। इतले द्रव्य जीव ते सासत, द्रव्य तणी पर्याय । आवै जावै भाव जीव ते, असासतूं इण न्याय ॥ २७. सेवं भंते अंक गुनोसम, अष्टवीसमी ढाल। भिवखु भारीमाल ऋपराय प्रसाद, 'जय-जश' संपति माल ।। प्रथमशते नवमोद्देशकार्थः ।।१।६।। २७. सेवं भंते ! सेवं भते ! ति जाव विहरइ। (श० ११४४१) ढाल : २६ १. अनन्तरोद्देशकेऽस्थिरं कर्मत्युक्तं, कर्मादिषु च कुतीथिका विप्रतिपद्यन्ते अतस्तद्विप्रतिपत्तिनिरासप्रतिपादनार्थः ।। (वृ० १० १०२) दूहा नवम उदेशक अंत में, अस्थिर कर्म विचार । कर्म विर्ष अन्यतीर्थी तेहन प्रश्न प्रकार ।। भूछे गोयम गणहरू (ध्रुपदं) २. अन्यतीर्थी प्रभु ! इम कहै, चलिवा लागो चल्यूं नहीं कहिणो रे। जाव निर्जरिवा लागो तम, अनिर्जरयो कहै वयणो रे॥ *लय-इंद्र कहै नमिरराय ने २. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-- एवं खलु चलमाणे अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे। १८२ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. बे परमाणु एकठा नहिं मिले, किम कारण मिले नाहीं? ३. दो परमाणुगोग्गला एगयओ न साहण्णंति, अति सूक्ष्म तिण कारण, नहीं स्नेहकाय तिण माही ।। कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति ? दोहं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति । ४. त्रिण परमाणु भेला मिले, स्नेहकाय तिण माही। ४. तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, ते भेद्यां द्विविध त्रिविधे, बे त्रिण भागज थाई॥ कम्हा तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति । ते भिज्जमाणा दुहा वि, तिहा वि कति । ५. बे भागे करतां छतां, दोढ़-दोढ़ इम होयो। ५. दुहा कज्जमाणा एगयओ दिवड्ढे परमाणुपोग्गले भवइत्रिण भागे करतां थकां, तीइ जू-जूआ जोयो।। एगयओ वि दिवड्ढे परमाणुपोग्गले भवइ । तिहा कज्जमाणा तिष्णि परमाणुपोग्गला भवति । ६. इम जावत् परमाणुया, च्यार पंच मिल ताह्यो। ६, ७. एवं चत्तारि। पंच परमाणुपोग्गला एगयओ साह ते खंध रूप हुवै अछ, ते बलि खंध कहायो।। ण्णंति, एगयओ साहणित्ता दुक्खत्ताए कज्जति । दुक्खे दुख हेतु कर्मपण हुवै, दुख पिण सास्वतो तेही। वि य णं से सासए सया समितं उवचिज्जइ य, अव सदा परिमाण सहित ते, चय उपचय हुवै जेही॥ चिज्जइ य। ८. बोन्यां पहिली भाषा कहै, बोलता न कहै भासा।। ८. पुब्बि भासा भासा। भासिज्जमाणी भासा बोल्यां पछै भाषा कहै, ए तसं मत नी आसा॥ अभासा । भासासमयवितिक्कतं च णं भासिया भासा। है. जे बोल्यां पहिली भाषा कहै, बोलतां भाषा न आखै । ६, १०. जा सा पुवि भासा भासा। भासिज्जमाणी भासा बोल्यां पछै भाषा कहै, प्रश्न दोय हिव दाखै ।। अभासा । भासासमयवितिक्कतं च णं भासिया भासा। १०. भासक तणी भाषा अछ, के अभासक नी भापा कहिये ? सा कि भासओ भासा? अभासओ भासा? अभासओ णं अभासक नी भाषा कहै, भासक नी भाषा न लहिये ।। सा भासा । नो खलु सा भासओभासा। क्रिया करी, कीधा पहिला दुख हेतू। ११. पुब्वि किरिया दुक्खा । कज्जमाणी किरिया अदुक्खा । वर्तमान क्रिया दुख हेतु नहीं, क्रिया समय गयां दुख केतू ॥ किरियासमयवितिक्कंतं च णं कडा किरिया दुक्खा। १२. जे क्रिया कीधा पहिलां दुख कहै, क्रिया करतां दुख हेतु नांही। १२, १३. जा सा पुवि किरिया दुक्खा । कज्जमाणी किरिया क्रिया कीधां पछै दुख हेतु कहै, प्रश्न दोय हिव त्याही ।। अदुक्खा। किरियासमयवितिक्कतं च णं कडा किरिया, १३. क्रिया करण थकी स्यूं दुख हुवै ? के अणकरिवा थी दुख ल हिये । दुक्खा । सा कि करणओ दुक्खा? अकरणओ दुक्खा? अकरणओ णं सा दुक्खा । नो खलु सा करणओ दुक्खाअणकरिवा थी दुख कहै, करिया थी दुख नहीं गहियै ॥ सेवं वत्तव्वं सिया। १४. अणकीधो दुख कारण कर्म ते, ए आगामि काल पेक्षायो। १४. अकिच्चं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, ___ अणकरिवा माटे अणफशियो, दुख कारण कहिवायो।। 'अकृत्यम्' अनागतकालापेक्षयाऽनिर्वर्तनीयं जीवैरिति... तथाऽकृतत्वादेवास्पृश्यम्-अबन्धनीयम् । (वृ०-५० १०४) १५. दूख नों कारण कर्म ते, न करै वर्तमान कालो। १५. अकज्जमाणकडं दुक्खं, ___गये काले कीधो नहीं, ते दुख हेतु न्हालो।।। क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतं चातीतकाले तन्निषेधाद क्रियमाणकृतम् (वृ०-५० १०४) १६. प्राण भूत जीव सत्व ते, अणकोधा पुन्य पापो। १६. अकटु-अकटु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेतिसर्व जीव भोगवै अछ, ए पंचम प्रश्न नी थापो।। इति वत्तव्वं सिया। (श० ११४४२) श०१, उ०१०, ढा०२६ १८३ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. हे प्रभु ! ए किम वारता?, तब भाखै जिनरायो। १७. से कहमेयं भंते ! एवं? ए अन्यतीथि - परूपणा, मिथ्या-झूठ कहिवायो।। गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव वेदणं वेदेति-इति वत्तब्बं सिया। जे ते एबमासु, मिच्छा ते एवमाहंसु। १८. हूं पिण गोयम ! इम कहूं, चलिवा लागू ते चलियूं। १८. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, एवं भासेमि, एवं जाव निर्जरिवा लागो तसं, कहिव तास निर्जरियं ।। पण्णवेमि, एवं परूदेमि-एवं खलु चलमाणे चलिए। जाव निजरिज्जमाणे निज्जिण्णे। १६. परमाण बे मिल एकठा, ज्यारे स्नेहकाय बंध पायो। १६. दो परमाणुपो गला एगयओ साहणंति, ते बेहुँ भेदज पामता, इक इक परमाणु थायो ।। कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति? दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । ते भिज्जमाणा दुहा कज्जंति। दुहा कज्ज मागा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ परमाणुपोग्गले भवति । २०. परमाण त्रिण मिल एकटा, छै स्नेह पर्याय नी रासो। २०. तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा भेद पामता ते हवै, द्विविध विविध तासो।। तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति। ते भिज्जमाणा दुहा वि, तिहा वि कज्जति। २१. द्विविध एक परमाणुयो, द्विप्रदेशी खंध एको। २१. दुहा कज्जमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएजे भेद पाम्यां त्रिविध हवै, तो तीन परमाणु विशेखो।। सिए खंधे भवति । तिहा कज्जमाणा तिष्णि परमाणु पोग्गला भवंति। २२. इम यावत् पंच परमाणुया, एकठा मिल खंध होयो। २२. एवं चत्तारि । पंच परमाणपोग्गला एगयओ साहणंति । खंध पिण तेह असासतो, सदा पुष्ट हीन जोयो।। एगयओ साहणित्ता खंधत्ताए कति। खंधे वि य णं से असासए सया समितं उवचिज्जइ य, अवचिज्जइ य । वाल-पांच परमाणुया एकठा मिली,कर्मपण हुई ते पिण मिथ्या। जे भणी ते पंच वा०-पञ्च पुद्गलाः संहताः कर्मतया भवन्ति, तदप्यपरमाणुया ना खंध मात्र थइ सके, पिण कर्मपणुं नहीं। कर्म नों तो अनंत परमाणुमय संगत, कर्मणोऽनन्तपरमाणुतयाऽनन्तस्कंधरूपत्वात, अनंत प्रदेशी खंध रूपपणों छ। तथा वली कर्म नों जीव नै आवरवा नो स्वभाव पञ्चाणु कस्य च स्कन्धमानत्वात्, तथा कर्म जीवावरणछ। ते पंच परमाणु स्कंधमात्र छतो असंख्यात जीव नां प्रदेश नैं किम आवर? ते स्वभावमिष्यते, तच्च कथं पञ्चपरमाणस्कन्धमात्ररूपं भणी तेहनों कथन मिथ्या। सदसङ्खघातप्रदेशात्मक जीवमावृणुयादिति। (वृ०-प० १०५) २३. वोल्यां पहिली भाषा नहीं, बोलवा मांडी ते भासा। २३. पुयि भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भाषा समय उलंध्यां पछै, भासा न कहिये तासा ।। भासासमयवितिक्कंतं च णं भासिया भासा अभासा। २४. जे बोल्यां पहिली भाषा नहीं, भासिज्जमाणी भाषा कहियै । २४, २५. जा सा पुब्बि भासा अभासा । भासिज्जमाणी भासा भाषा समय उलंध्यां भाषा नहीं, प्रश्न दोय हिव लहिये। भासा, भासासमयवितिक्कतं च णं भासिया भासा २५. ते स्यूं भासक थी भाषा अछ, के अभापक थो भाषा होयो? अभासा । सा कि भासओ भासा? अभासओ भासा? भाषक थी भाषा हुवै, अभाषक थी भाषा न कोयो।। भासओ णं भासा, नो खलु सा अभासओ भासा। २६. क्रिया पहिला दुख हेतु नहीं, क्रिया करता दुख हेतु कहिये । २६, २७. पुब्वि किरिया अदुक्खा, जहा भासा तहा भाणि क्रिया समय गयां दुख हेतु नहीं, जिम भाषा तिम क्रिया उचरिय ।। यव्वा किरिया वि जाव करणओ णं सा दुक्खा। नो २७. जाव किया कियां थी दुख हुवै, अणकीधा दुख नाही। खलु सा अकरणओ दुक्खा--सेवं वत्तब्वं सिया। ते इम कहि छै सही, चउथा प्रश्न रै मांही॥ १८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, २८. कीधो दुख कारण कर्म ते, ए आगामि काल अपेक्षायो। करिवा माटै फर्यो छतो, दुख कारण कहिवायो॥ २६. दुख नों कारण कर्म ते, करै वर्तमान कालो। गये काले कोधो अछ, ते दुख हेतु न्हालो। २६. कज्जमाणकडं दुक्खं, ३०. कटु-कटु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेति-इति वत्तव्वं सिया। (श० ११४४३) ३१, ३२. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च । ३०. प्राण भूत जीव सत्व ते, शुभ अशुभ कर्म ताह्यो। कीधा तिके भोगवै अछ, ए पंचमो प्रश्न कहायो॥ ३१. बलि अन्यतीथिक मत तणो, प्रश्न गोयम पूछता। हे प्रभु ! इम अन्यतीर्थी, वयण भाखै परूपंता ।। ३२. एक जीव इक समय में, वे क्रिया नों बंध करै ताह्यो। इरियावहि अकपाइ तणे, सकषाइ रै संपरायो।। वा०-इरियावहि क्रिया अकषाइ नै हुवै अनै सांपरायिकी सकषाइ नै हुदै । एहवी इरियावहि अनै संपराय नों एक जीव रै एक समैं बंध हुवै। एहवो अन्यतीर्थी कहै छ। ३३. जे समय इरियावहि करै, ते समय बंधै संपरायो। जे समय बांधे संपराय नैं, ते समय इरियावहि थायो। ३४. इरियावहि बंधवै करी, संपराय बंधायो। संपराय बंधवै करी, बंध इरियावहि नुं थायो॥ ३५. इम इक जीव निश्चै करी, इक समय वे क्रिया बंधायो। इरियावहि संपरायकी, हे प्रभु ! ए किम वायो? ३३. जं समयं इरियावहियं पकरेइ, तं समयं संपराइयं पकरेइ। जं समयं संपराइयं पकरेइ, तं समयं इरियावहियं पकरेइ ।। ३४. इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेइ । संपरा इयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ । ३५. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा-इरियावहियं च, संपराइयं च ।(श०११४४४) से कहमेयं भंते ! एवं? ३६. गोयमा ! जणं ते अण्ण उत्थिया एवमाइक्खंति...एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, जाव इरियावहियं च, संपराइयं च। जे ते एवमाहंसु । मिच्छा ते एवमासु । ३७. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि...एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एक्कं किरियं पकरेइ, तं जहा—इरियावहियं वा, संपराइयं वा। (श० ११४४५) ३६. जिन भाखै-कहै अन्यतीर्थी, एक समय बे क्रिया बंधायो। इरियावहि संपरायकी, ते झूठ-मिथ्या तसं वायो। ३७. हं पिण गोयम ! इम कह, एक इरियावहि तथा संपरायकी, क्रिया समय इक जीवो। एक कहीवो।। ३८. परतीर्थी नी वारता, इक समय बंधै क्रिया दोयो। ते स्वसमय करि कहिवो इहां, इक समय क्रिया इक होयो ।। ३६. अनंतर सूत्रे क्रिया कही, क्रियावंत ने ह उत्पादो। हिव उत्पत्ति-विरह परूपणा, कहिये धर अहलादो॥ ४०. हे भदंत ! नरकगति विषै, कितो ऊपजवानों विरह दृष्टो। जिन कहै समय इक जघन्य थी, वारै मुहूर्त उत्कृष्टो॥ ३६. अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां चोत्पादो भवतीत्युत्पादविरहप्ररूपणायाह (वृ०-प० १०७) ४०. निरयगई णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहत्ता। (श० ११४४६) श०१, उ०१०, ढा० २६ १८५ Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. पद छ? कह्यो तिम इहां, उत्पत्ति-विरह गति च्यारो। जघन्य थकी इक समय छ, उत्कृष्ट मुहूर्त बारो॥ ४२. महत्तं चउवीस, दिन-निश सात नं, पक्ष मास बे च्यार छ मासो। क्रम उत्कृष्ट सातुं तणो, विरह उपजवान तासो॥ ४३. इमहिज नीकलवा तणो, विरह कह्यो जिनरायो। उपजवा नीकलवा तणो, जघन्य समय इक थायो ।। ४४. इक दोय त्रिण जघन्य थी, संख एक समय में नेरइया, उपजे असंख उत्कृष्टो। निकलै अनिष्टो। ४५. अंतरमुहूर्त्त विकलेंद्री तणों, तिमज संमूच्छिम जाणी। उभय विरह उत्कृष्ट थी, जघन्य समय इक ठाणी ।। ४६. बारै मुहर्त गर्भज नों, उभय उत्कृष्टो त्यांही। जघन्य थकी इक समय छ, विरह एकेंद्री रै नांही ।। ४७. बारै मुहर्त गर्भेज नों, संमूच्छिम चउबीसो। उभय विरह उत्कृष्ट थी, जघन्य समय इक दीसो।। ४१. एवं वक्कतीपयं भाणियब्वं निरवसेस। (श० ११४४७) व्युत्क्रान्तिः--जीवानामुत्पादस्तदर्थ पदं--प्रकरणं व्युत्क्रान्तिपदं तच्च प्रज्ञापनायां षष्ठं, तच्चार्थलेशत एवं द्रष्टव्यं–पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ देवगतौ चोत्कर्षतो द्वादश मुहर्ताः जघन्यतस्त्वेकसमय उत्पादविरह इति। (वृ०-प० १०७) ४२, ४३. चउवीसई महत्ता १ सत्त अहोरत्त २ तह य पण्ण रस ३। मासो य ४ दो य ५ चउरो६ छम्मासा ७ विरहकालो उ।। उक्कोसो रयणाइसु सव्वासु जहण्णओ भवे समओ। एमेव य उब्वट्टण संखा पुण सुरवरा तुल्ला ॥ (वृ०-५०१०७) ४४. एगो य दो य तिणि य संखमसंखा व एगसमएणं । उववज्जंतेवइया उब्बटुंतावि एमेव ॥ (वृ०-५० १०७) ४५, ४६. तिर्यगतौ च विरहकालो यथा--- भिन्नमुहुत्तो विर्गालदियाण संमुच्छिमाण य तहेव । वारस मुहुत्त गम्भे उक्कोस जहन्नओ समओ ।। एकेन्द्रियाणां तु विरह एव नास्ति। (वृ०-प० १०७) ४७. मनुष्य गतौ तु बारस मुहुत्त गब्भे मुहुत्त संमुच्छिमे चउव्वीसं । उक्कोस विरहकालो दोसु वि य जहन्नओ समओ। ४८. देवगतौ तु (वृ०-५० १०७) भवणवणजोइसोहम्मीसाणे चउवीसइ मुहुत्ता उ । उक्कोसविरहकालो पंचसु बि जहन्नओ समओ ।। (वृ०-प० १०७) ४६-५४. णवदिण वीस मुहुत्ता वारस दस चेव दिणमुहुत्ताओ। बावीसा अद्धं चिय पणयालअसीइदिवससयं ।। संखेज्जा मासा आणयपाणएसु तह आरणच्चुए वासा । संखेज्जा बिन्नेया गेवेज्जेस अओ बोच्छं।। हेट्ठिम वाससयाई मज्ज्ञि सहस्साइ उवरिमे लक्खा । संखेज्जा बिन्नेया जह संखेज्ज तु तीसुपि ।। पलिया असंखभागो उक्कोसो होइ विरहकालो उ । विजयाइसु निद्दिट्ठो सब्वेसु जहण्णओ समओ।। (वृ०-५० १०७, १०८) ४८. भवनपति व्यंतर जोतिषी, सौधर्म नैं ईशाणो। उत्कृष्ट चउबीस मुहर्त नों, जघन्य समय इक जाणो।। ४६. उत्कृष्ट सनतकुमार में, नव दिन मुहूर्त बोसो। महेन्द्र दिवस बारै तणों, मुहूर्त दश बलि दीसो।। ५०. दिन साढा बावीस नों, पंचम कल्प पिछाणी। दिन पैतालीस तणों कह्यो, लंतक कल्पै जाणी।। ५१. असी दिवस रात्रि सातमै, सौ दिन आटमै जासो। नवमै दशमै संख्य मास नों, आरण अच्च संख्य वासो।। ५२. संख्याता सौ वर्ष नों, हेठिम त्रिक विचारो। ___ संख्याता सहस्र वर्ष तणों, मझिम त्रिक मझारो ।। ५३. संख्याता लक्ष वर्ष नों, उवरिम त्रिक में पायो। पल्य नों भाग असंख्यातमों, च्यार अनुत्तर माह्यो ।। ५४. पल्य नों भाग संख्यातमों, सर्वार्थसिद्ध माह्यो। सह ठामै विरह उत्कृष्ट ए, जघन्य समय इक थायो।। १८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. ए ऊपजवा नों विरह छ, सर्व इमहिज निकलवा तणो, उत्कृष्ट देव नै सोयो। जघन्य सुजोयो ।। ५६. जघन्य थकी एक समय नों, है उत्कृष्ट छ मासो। विरह सिद्ध गति नों कह्यो, पिण निकलवा नुं न तासो।। ५५. उववायविरहकालो इय एसो वण्णिओ उ देवेसु । उव्वट्टणावि एवं सव्वेसु होइ विण्णेया । _ (वृ०-५० १०८) ५६. जहण्णेण एगसमओ उक्कोसेणं तु होति छम्मासा। विरहो सिद्धि गईए उब्वट्टणवज्जिया नियमा। (वृ०-प० १०८) ५८. सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति जाव विहरइ। (श० ११४४८) ५७. पन्नवण पद छटा विषै, आख्यो छै अधिकारो। ते अनुसारे आखियो, वारू ए विस्तारो॥ ५८. सेवं भंते ! इम कहि, जाव गोतम विचरतो। प्रथम शतक न परवडो, दशम उदेश सोहंतो।। ५६. ए प्रथम शतक अर्थ आखियो, संवत् उगणीस उगणीसो। मृगसिर सुदि पूनम दिने, लाडणू सहर जगीसो।। ६०. ढाल भली गुणतीसमी, भिवख भारीमाल ऋषरायो। 'जय-जश' संपति साहिबी, गण-वृद्धि स्वाम पसायो। प्रथमशते दसमोद्देशकार्थः ।।१।१०॥ गीतक-छंद इति पंचमाङ्ग-समुद्र गुरु-गम-भंग संग प्रसंग थी, वर प्रथम शतक पदार्थमय-आवर्तगर्त उमंग थी। उल्लंघियो युगपोत-वृत्ति सुचूणि रूप लही भली, मैं प्रगट उपचित-जाड्य लघुमति वृत्तिकार क ह्यो बली ।। गुरुदेव गुर कृपया अतुल भल अंग पंचम उदधि नो, वर प्रथम शतक पदार्थ रूपज भ्रमर लंध्यो शुभमनो। वर विविध विवरण समय-प्रवहण जोड़मय रच पाजही, अति सुगम निगम सुधार पर-उपकार हित सुख साज ही। १. इति गुरुगमभंगैः सागरस्याहमस्य, स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमांगस्य सद्यः । प्रथमशतपदार्थावर्तगर्तव्यतीतो, विवरणवरपोतो प्राप्य सद्धीवराणाम् ।। (वृ०-५० १०८) श०१, उ०१०, ढा०२६ १८७ Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ७. ८. ढाल : ३० गीतक-छंद धुर शतक दसमोद्देशकान्ते विरह जीवोत्पाद मौ इह शतक प्रारंभ उच्छ्वासादि चिन्तन तेहनों । इण परे संबंध स् आयात आमुख रूप जे, एक गाथा कही आगमकार सहज सरूप जे ॥ द्वितीय शतक इहा द्वितिय तक उद्देश दश, प्रथम उद्देशा मांय धुर उश्वास बंधक बलि समुद्धात द्वितियाय ॥ पृथ्वी 'इंद्रिय 'अन्न उत्थिय, 'भाषा 'देवा जाण । 'चमरचचा ने 'समयखित्त, "अस्तिकाय पिछाण ॥ यद्यपि श्रद्धागम्य शुभ, एकेन्द्रिय में जोय । आगम आदि प्रमाण थी, जीवपणं अवलोय ॥ उस्वासादी तेहनें, प्रत्यक्ष दीसं नांय । ते संका टालण भणी, प्रसिद्ध आगम वाय ॥ तिण काल ने तिण समै, नगर राजगृह ताय । स्वामी तिहां समवस परपद वंदे आय ॥ देव जिनेन्द्रे दाखियो, धर्म अमोलक आण । परपद सुण वंदी करी, पहुंती निज निज ठाण ॥ ति काले ने ति समे बड़ा सीस सुविनीत | जाय करी पर्युपासना पूछे प्रश्न पुनीत ॥ 1 , * प्रश्न गोयम प्रभुजी ने पूछे ॥ ध्रुपदं ॥ २. वे ते चरिद्री पंचेंद्री मेवे, आणपाण उसास निःस्वासो रे । ते तो अहे जाणो हो स्वामी! देखां हां पिण तासो रे ।। *लय - थिरथिर रे चेतन संजम १. प्रथम शतान्तिमोद्देशकान्ते जीवानामुत्पादविरहोऽभिहितः, इह तु तेषामेवोच्छ्वासादि चिन्त्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्पदगुपोद्घातवानन्तरमूत्रम् । ( वृ० प० १०९) २, ३. १ ऊसास खंदए विय, २ समुग्धाय ३, ४ पुढविदिय ५ अण्णउत्थि ६ भासा य ७ देवाय ८ चमरचंचा, ६, १० समय क्खित्तत्थिकाय वीयसए || (२१ संगही महा ४, ५. यद्यप्येकेन्द्रियाणामागमादिप्रमाणाज्जीवत्वं प्रतीयते तथापि तदुच्छ्वासादीनां साक्षादनुपलम्भाजीयशरीरस्य च निरुन्छ्वासादेरपि कदाचिदर्शनात् पृथि व्यादिष्वासादिविषया या स्वादिति तन्निरासाय तेपामुच्छ्वासादिकमस्तीत्येतस्यागमप्रमाणप्रसिद्धस्व प्रदर्शनपरमिदं सूत्रमवगन्तव्यम् । ( वृ०० १०९) ६, ७. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्था -वण्णओ। सामी समोसढे । परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ । पडिगया परिसा । (श० २१) ८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वासी जाय परवासमा एवं वदासी जे १. जे इमं दिया दिया बरदिया पंचिदिया जीवा, एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा जाणामो पासामो 1 श० २, उ० १, ढा० ३० १८६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. तिमहिज पृथिव्यादिक एकेंद्री' लेवे उस्वास निःस्वासो । प्रगट अहे नहि जाणो ने देखा, स्यूं ते पण सबै उस्वासो ? जयवंता जिन उत्तर आपै ॥ ध्रुपदं ॥ ११. जिन कहै - हंता, जीव एकेंद्री, लियै उस्सास निस्सासो । गोयम पूछे कैहवा द्रव्य रो ? हिव जिन कहै - गुण - रासो || १२. श्री अनंत प्रदेशिक यो क्षेत्र की हिव कहिए । असंख प्रदेश अवगाही पुद्गल, काल थकी अन्यतर स्थिति लहिए ।। १३. भाव थी वर्णादिक सहीत नों, जीव एकेंद्री जाणी । उस्सास अन निस्सास लेवे छे बलि गोवम कहे वाणी ॥ 1 १४. जो भाव थी वर्णादिक सहित नों, ते स्यूं एक वर्ण द्रव्य होयो ? आहारगमो पन्नवण अठवीसमै, तिम जाव पंचदिशि जोयो । १५. नारक प्रभुजी ! उसासादिक ले ? आहार-पदे जावत् नियमा पट दिशि थी लै, उस्सास १६. जीव एकेंद्री व्याघात निर्व्यापात पट दिशि १७. * उस्सास एकेद्रियादिक वायु ना उस्सास नों आथी, त्रि चउ नों से वन छ 1 --- तिम तिम जाणी ? निस्सास पिछाणी ॥ १६० भगवती जोड़ १८. हि भदंत ! जे 'वायुकाय छे, वाकाय उस्सास अने निःसास से छ? हंता जिन पंच दिशि ताह्यो । दिशि कहियायो || ने तेह वायु हिव, प्रवर प्रश्न है । अनूप है । * लय -पूज मोटा भांज टोटा +लय - थिर-थिर रे चेतन ! संजम १. वृत्तिकार ने वायुकाय के सन्दर्भ में श्वासोच्छ्वास का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित किया है। जयाचार्य की सूक्ष्मग्राही मेधा ने इस प्रश्न का स्पर्श कैसे नहीं किया, यह आश्चर्य की बात है । वि० सं० १९९४ में भगवती सूत्र और जोड़ का सामूहिक (शेष अग्रिम पृष्ठ पर रूप ने जोयो। वर्ष होयो । १०. जे इमे पुढविकाइया जाव वणप्फइकाइया - एगिंदिया जीवा, एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्तासं वा निस्सासं वा न याणामो न पासामो। एए णं भंते ! जीवा आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा ? ११-१३. हंता गोयमा ! एए वि णं जीवा आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । ( ० २०२) किण्णं भंते ! एते जीवा आणमंति वा ? पाणमति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ? गोयमा ! दव्वओ अणतपएसियाई दव्वाई, खेत्तओ असंखेज्ज एसोगाढाई, कालओ अण्णय रठितियाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । (०२२) १४. जाई भावओ वण्णमंताई आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति था, नीससंति वा ताई किं एगवण्णाई ? आहारगमो नेयब्बो जाव पंचदिसं । ( ० २०४, ४) १५. किणं भंते! नेरइया आणमंति वा? पाणमंति ना ? ऊससंति वा? नीससंति वा? तं चेत्र जाव नियमा छद्दिसि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । (०२४६) १६. जीव-एगिंदिया वाघाय निव्वाघाया च भाणियव्वा । सेसा I नियमा छसि । (श० २1७ ) तत्र निर्व्याघातेन पदिशं पड् दिशो यत्रानमनादौ तत्तथा, व्याघातं प्रतीत्यस्यास्त्रिदिशं स्याच्चतुर्दिशं स्यात्पञ्चदिशमानमन्ति ४ सेसा नियमा छद्दिसि' ति शेषा नरकादिसापदिशमानमति । ( वृ० प० ११० ) १७. अथैकेन्द्रियाणामुच्छ्वासादिभावादुच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानामप्युच्छ्वासादिना वायुनैव भवितव्यतान्येन केनापि विव्यादीनामित्र विल क्षणेन ? (র० ११०) १८. वाउयाए णं भंते ! वाज्याए चेत्र आगमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । (श० २१८) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. हे प्रभु ! वाऊकाय वायु में, अनेक सयसहस्र वारो। १६. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो मरि-मरि बलि-बलि तिहांज उपजै? हंता जिन वच सारो॥ उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति? हंता गोयमा ! (श०।६) २०. ते प्रभु ! स्यं मरै शस्त्रे फा, के अणफयँ मरंता। २०. से भंते ! कि पुढे उद्दाति ? अपुढे उद्दाति? जिन कहै-ते फश्य ज मरै छ, अणफयं न चवंता ।। गोयमा ! पुट्टै उद्दाति, नो अपुढे उद्दाति। (श० २०१०) २१. ते प्रभुजी ! स्यूं निज काया थी, निकल शरीर सहीतो। २१, २२. से भंते ! कि ससरीरी निक्खमइ? असरीरी अथवा शरीर रहित निकले छै? हिव जिन उत्तर वदीतो।। निक्खमइ? २२. किण हि प्रकारे निज काया थी, निकले सरीर सहीतो। गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी किण हि प्रकारे निज काया थी, निकल शरीर रहीतो। निक्खमइ। (श० २०११) २३. हे प्रभु ! ते किण अर्थे कहिय? तब भाखै जिनरायो। २३, २४. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय ससरीरी बाउकाय में च्यार शरीर छ, आहारक वर्जी ताह्यो।। निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! वाउया२४. औदारिक बैकिय छांडी ने, निकल वाऊकायो। यस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता,तं जहा-ओरालिए, तेजस कामण साथ लेई नै, परभव मांही जायो।। वेउम्बिए, तेथए, कम्मए। ओरालिय-वउवियाई विष्प जहाय तेयय-कम्मएहि निक्खमइ। (श०२११२) स्वाध्याय चल रहा था। तब मुनि हेमराजजी ने जो आगम के विशेषज्ञ थे, परामर्श दिया कि वृत्ति का यह अंश बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इसे संग्रहीत कर लेना चाहिए। तब मैंने पूरक व्याख्या के रूप में चार पद्य बनाए, वे इस प्रकार हैं १. कही वृत्ति में बात, उच्छ्वासादिक वायु नां । वायु रूप विख्यात, अन्य रूप अथवा हुवै ? २. जदि है वायू रूप, श्वास-वायु पिण श्वास लै । अन्य वायु तद्रूप, इम अनवस्था आवस्य ? ३. समाधान है खास, श्वास-वायु चेतन नहीं। लहै न श्वासोच्छ्वास, तो अनवस्था क्यूं हुवै ? ४. जीव मात्र जे जोय, आन-प्राण लै वायु नो। ते अति सूक्षम होय, वायुकायिक शरीर थी॥ यहां वृत्तिकार ने, यह जिज्ञासा व्यक्त की है-जिस प्रकार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक आदि जीव वायु का श्वासोच्छ्वास लेते हैं, वैसे ही वायुकायिक जीव भी अपने से विलक्षण द्रव्य का श्वासोच्छ्वास लेते हैं या वायु का ही लेते हैं ? यदि वायुकायिक जीव भी वायु का ही श्वासोच्छ्वास लें तो श्वास-वायु के जीवों को भी श्वासोच्छ्वास के लिए अन्य वायु की अपेक्षा होगी। इस प्रकार शृंखला आगे बढ़ती रही तो क्या अनवस्था दोष उत्पन्न नहीं हो जाएगा? इस प्रश्न के समाधान में स्वयं वृत्तिकार ने लिखा है--श्वास-वायु वायु होने पर भी सजीव नहीं होती-वायुकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय शरीर रूप नहीं होती। क्योंकि श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों का नाम है 'आनप्राण'। आनप्राण के पुद्गल औदारिक और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों के अनन्तगुण प्रदेश वाले और अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं । वायुकायिक जीवों के शरीर से अत्यन्त सूक्ष्म और निर्जीव होने के कारण श्वास-वायु के श्वासोच्छ्वास लेने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। इस दृष्टि से अनवस्था दोष की संभावना निर्मल है। श० २, उ०१, ढा० ३० १६१ Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *वायु बलि बलि वायु में उपज, का तेहथी हिवै। २५. वायुकायस्य पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम्, अथ भव-चक्र भमवो कोइक मुनि नों, प्रश्न गोयम पूछवे ? कस्यचिन्मुनेरपि संसारचक्रापेक्षया पुन: पुनस्तत्रैवो त्पत्तिः स्यादिति दर्शयन्नाह- (वृ०-५० १११) २६. +हे प्रभु ! 'प्रासुक-भोजी निग्रंथ, चरमशरीरी नांह्यो। २६. मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवभव नु विस्तार रुध्यो नहीं, जेणे संसार हीण न पायो।। पवंचे, नो पहीणसंसारे, २७. संसार भोगववा योग्य कर्म नं, तातो न तुटो तासो। २७. नो पहीणसंसारबेयणिज्जे, नो वोच्छिण्णसंसारे, बार-बार भव-भव में भभिव, विच्छेद हुवो नहिं जासो।। २८. भव-भव वेदवा योग्य कर्म नों, पिण न हुवो विच्छेदो। २८.नो वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियठे, नो निट्ठि नीठो नहीं प्रयोजन, बलि करणीय कार्य संवेदो।। यठक रणिज्जे २६. इत्थत्थं कहितां ए भव-भ्रमण, वलि संसार में पावै ? २६. पुणरवि इत्थत्थं हब्बमागच्छद? 'इत्थत्त' पाठांतर एणे प्रकारे, मनुष्य प्रमुख गति आवै ।। 'इत्थत्थं' ति 'इत्यर्थम्' एनमर्थम्—अनेकशस्तिर्यङ्नर नाकिनारकगतिगमनलक्षणम् । 'इत्थत्त' मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं मनुष्यादित्वमिति भावः। (वृ०-प०१११) ३०. वत्तिकार क ह्य कषाय उदय थी, ए चारित्र नां पडिवाई। ३०. कपायोदयात्प्रतिपतितच रणानां चारित्रवतां संसारउपशांत कषाई छट्ठ आवी, भ्रष्ट होय निगोद में जाई ।। सागरपरिभ्रमणं, यदाहजइ उवसंतकसाओ लहइ अणंतं पुणोवि पडिवायं । (वृ०-प० १११) ३१. तिण सं गोतम पूछयो प्रासुक-भोजि रूलै संसार मझारो? ३१.हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे...पुणरवि इत्थत्थं हब्वजिन कहै हता मडाई-निग्रंथ, भ्रमण करै संसारो।। मागच्छा। (श०२।१३) ३२. *संसार-चक्र अवाप्त जे मुनि, जीव छै स्यूं ए भणी। ३२, ३३. स च संसारचक्रगतो मुनिजीवः प्राणादिना नामप्राण प्रमुख षट् नाम करि, बोलाविय इम संथुणी ।। षट्केन कालभेदेन युगपच्च वाच्यः स्यादिति बिभणिषुः प्रश्नयन्नाहकाल नै भेदे करी, अथवा छहं समकाल ही। (वृ०-५० १११) बोलावियै हिव प्रश्न एहवा, सांभलो सुविशाल ही ।। *लय--पूज मोटा भांज टोटा 'लय-थिर-थिर रे चेतन संजम १. वृत्तिकार ने मडाई का संस्कृत रूप मृतादी किया है। जयाचार्य ने अपनी व्याख्या में उसी को आधार माना है। मुनि सचित्त भोजन का परिहार करता है-वह अचित्त-भोजी होता है। उस अचित्त शब्द को ध्यान में रखकर ही वृत्तिकार ने मतादी का अर्थ प्रासुक-भोजी किया है, किंतु पंडित बेचरदासजी दोशी ने इस शब्द का एक नया अर्थ प्रस्तुत किया है। वह बहुत महत्त्वपूर्ण और विमर्श योग्य है। उनके अनुसार मृतादी का अर्थ है याचित-भोजी। संस्कृत में मृत और याचित दोनों शब्द एकार्थक हैं। मृतं तु याचितं [देखें अभिधान चिन्तामणि ३१५३०] उत्तराध्ययन से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। वहां मुनि द्वारा ग्राह्य वस्तुओं की चर्चा करते हुए कहा गया है-सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं (उ० २।२८) मृतादी का याचित-भोजी अर्थ संगत भी है और समुचित भी, इस दृष्टि से पंडित बेचरदासजी की प्रस्तुति को स्वाभाविक और अर्थ के अधिक निकट माना जा सकता है। १६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४,३५. से णं भंते ! किं ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवे त्ति बत्तब्वं सिया । सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। विण्णु त्ति बत्तब्बं सिया । वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। m ३४. 'हे प्रभु ! ते निग्रंथ जीव नें, किम कहि वोलावीजै? जिन कहै-प्राण कही बोलावियै, बलि तसं भूत कहीजै । ३५. जीव इसो कहिन वोलाविये, बलि तसं सत्त कहीजै । विज्ञ कही बोलावियै तेहन, वलि तसं वेद वदीजै ।। इक-इक नाम जूइ जूइ पूछा, पूर्वे पूछी एहो। छहं नामे समकाल बोलाविय, प्रश्न हिवै ते जेहो।। ३७. प्राण भूत जीव सत्त विज्ञ वेद, बोलावियै समकालो। उस्सासादिक राहुं धर्म करि, युगपत वांछा न्हालो ।। तिण काले प्राण भूत प्रमुख जे, बांछयो नहिं इम एको। सर्व धर्म समकाले वांछा, तिण संजओ प्रश्न सुविशेखो। ३७. पाणे भूए जीवे सत्ते विष्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। (श०२।१४) ३८. यदा तूच्छ्वासादिधमर्युगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो जीव: सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात्। (वृ०-५०११२) ३६, ४०. अथवा निगमनवाक्यमेवेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति। (वृ०-५० ११२) ३६. अथवा ए छहुं फेर कह्या ते, निगमन वाक्य कहायो। सगलां री फिर चोटी बांध करि, नाम छहं फिर आयो ।। ४०. पिण युगपत पक्ष करी नहि कहिवा, ए छहं नाम पिछाणी। ए विहं अर्थ कह्या टीका में, तिण अनुसारे जाणी ।। किण अर्थ प्राण जाव वेद ? जिन कहै-आण रु प्राणो। उस्सास ने निस्सास लिये छै, ते भणो प्राण पिछाणो।। ४२. जे भणी हुवो हुवै नै होस्यै, ते भणी भूत थूणीजै। प्राण धरै आय कर्म भोगवै, ते भणी जीव भणीजै ।। ४३. सक्त-आसक्त शुभाशुभ कर्म, सत्त कहीजै ताह्यो। तथा संदर - असुंदर चेष्टा-सक्त समर्थ ते मांह्यो। ४४. अथवा शुभाशुभ कर्म करी नै, सक्त संबद्ध कहायो। इण न्याय सक्त कहीजै तेहन, अर्थ त्रिहं वत्ति माह्यो।। ४१. से केणठेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव बेदे त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ बा, उस्ससइ वा, नीसस इ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। ४२. जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भए त्ति वत्तव्वं सिया। जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्म उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। ४३, ४४. जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहि तम्हा सत्ते त्ति वत्तब्बं सिया। सक्तः—आसक्तः शक्तो वा–समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु, अथवा सक्तः-संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति । (वृ०-प० ११२) ४५. जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु त्ति वत्तव्वं सिया । जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तव्यं सिया। से तेणट्टेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदे त्ति वत्तवं सिया। (श० २०१५) ४६. अनन्तरोक्तस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह- (वृ०-५० ११२) रस पांचं जाण्या ते माट, विज्ञ नाम इम थुणियै । सुख-दुख वेदै वेद क ह्यो तसं, तिण अर्थे प्राणादिक भणिय ।। ४६. *कहा पूर्वे भ्रष्ट संयत, वृद्धि तसु संसार नीं। तेहथी विपरीत पृच्छा, हिव सुणो अणगार नीं।। ४७. 'हे प्रभु ! प्रासुकभोजी निग्रंथ, रंध्यो भव न विस्तारो। जाव निठाड्यो भव नुं करिवं, ते बलि नावै संसारो? + लय-थिर-थिर रे चेतन संजम *लय—पूज मोटा भांज टोटा ४७. मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्ध भवे, निरुद्ध भवपवंचे जाव निट्ठियट्ठकरणिज्जे नो पुणरवि इत्थत्थं हब्वमागच्छद? श०२, उ०१, ढा०३० १६३ Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. हंता जिन कह्यां गोयम पूछ, स्यूं कहि बोलावीजै ? जिन कहै-सिद्ध कही बोलाविय, बुद्ध तत्व-जाण कहीजै । मुक्त कर्म थी मूकाणो कहिये, पाम्यो भवधि पारो। होणहार ते हुआ सरीखो, उपचार थी इम धारो।। ४६. ५०. परंपरा कर भवदधि केरूं, पार पाम्यं तसुं कहीजै। सिद्ध बुद्ध मुक्त निवृत्त अंतकृत, सहु-दुख-क्षीण बदीजै ।। ४८, ४६. हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छद। (०२१६) से णं भंते ! कि ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। मुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। पारगए ति बत्तव्वं सिया। ४६. 'पारगए' ति पारगत: संसारसागरस्य भाविनि भूत वदित्युपचारात् । ५०. परंपरगए त्ति वत्तव्वं सिया ! सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिबुडे अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति वत्तव्वं सिया। (श० २०१७) पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः । (वृ०-प०११२) ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसिना संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। (० २०१८) ५२. तए णं समणे भगवं महावीरे राय गिहाओ नगराओ गुण सिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० २।१६) ५३, ५४. इहानन्तरं संयतस्य संसारवृद्धिहानी उक्ते सिद्धत्वं चेति, अधुना तु तेषामन्येषां चार्थानां व्युत्पादनार्थ स्कन्दकचरितं विवक्षुरिदमाह- (वृ०-५० ११२) ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम कहि गोतम स्वामी। वीर वंदी नै विचरै, संजम तप कर आतम धामी ।। श्रमण भगवंत महावीर तिवार, राजगह गुणसिल सेतीविहार करी विचरे जनपद में, मुनिजनवंद समेती।। ५३. *एह अनंतर संजती नै, हानि वृद्धि भव नी कही। सिद्धपणं बलि आखियो छ, पूर्व पाठ विष सही।। ५४. हिवै तेहिज अर्थ बलि, अन्य अर्थ व्युत्पादन भणी। चरित्र खंधक मुनि तणों कहुँ, सरस बात सुहामणी ।। ५५. अंक इकवीस नुं देश कह्य, ए तीसमी ढाल रसालो। भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे,'जय-जश'संपति मालो।। ढाल : ३१ दूहा तिण कालै नै तिण समै, कयंगला अभिधान। नगरी हुंती सुहामणी, वर्णन बहुविध जान ।। तिण कयंगला रै बाहिरै, ईशाणकण रै माय। छत्रपलास उद्यान थो, वर्णन तसं अधिकाय ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नाम नगरी होत्थावण्णओ। (श० २।२०) २. तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था---वण्णओ। (श०।२१) *लय-पूज मोटा भांजै टोटा + लय-थिर-थिर रे चेतन संजम १६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव समोस रणं । परिसा निग्गच्छइ। (श० २।२२) तिण अवसर तपस्वी श्रमण, भगवंत श्री महावीर। उत्पन्न पूर्ण ज्ञान फुन, दर्शणधर गुण-हीर ।। यावत् समवसरचा प्रभु, परषद निकली ताय । जाव शब्द में पाठ छ, ताप्त अर्थ हिव आय ।। अरहा जिनवर केवली, जाण्या सहु जीवादि। सर्वभावदर्शी प्रभु, अंबरगत छत्रादि ।। कयंगला नगरी थकी, नहि अति दूर नजीक । नगरी नामै सावत्थी, तसं वर्णन तहतीक ।। सावत्थी नगरी विष, गहभालि शिष्य ताम। कात्यायनगोत्री खंधक, वस परिव्राजक आम ।। ऋग्वेद यजर्वली, साम अथर्वण वेद। इतिहास ए पंचमो, पुराण जाण उमेद ।। नाम कोस नों जाण ते, निघंटु छट्टो एथ। च्यारूं वेद कह्या तिक, अंग - उपंग समेत ।। अंग कह्या शिक्षादि पड, तद् विस्तार उपांग। तेह उभय कर सहित जे, साभिप्राय सर्वांग ।। ६. तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ। (श० २।२३) ७. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नाम कच्चायणसगोतं परिव्बायगे परिवसइ-- ८. रिब्वेद-जजुब्वेद-सामवेद-अहव्वणवेद-इतिहास-पंचमाणं ६. निघंटुछट्ठाणं चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं निघण्टु नामकोशः। (वृ०-५० ११४) १०. सरहस्साणं अङ्गानि-शिक्षादीनि षड्, उपांगानि-तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः 'सरहस्साणं' ऐदंपर्ययुक्तानाम्।। (वृ०-प० ११४) ११,१२. सारए सारकोऽध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः, स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य सूत्रादेः स्मारणात्। (वृ०-प० ११४) विशद वेद-विद्या तणो, सारए कहितां सोय । अध्यापन द्वारे करी, तास प्रवर्तक जोय ।। अथवा दुजो अर्थ तसं, वीसरियो सूत्रादि। तेह तणां स्मारण थकी, स्मारक ते अविवादि ।। अशुद्ध पढे है तेहन, वारण करै निषेध । किहां धारए पाठ है, धारक च्यारूं वेद ।। पारए.--पारगामी कह्यो, पडंगवेत्ता जाण। परिकर ए छ वेद मुं, तिण कारण फुन आण।। अथवा षडंगविद कह्य, विद् विचारणे धातु। तास विचारपणुं ग्रा, पुनरुक्त दोष न थातु ।। १३. धारए वारकोऽशुद्ध पाठनिषेधात् 'धारए' ति क्वचित्पाठः तत्र धारकोऽधीतानामेषां धारणात्। (वृ०-१० ११४) १४. पारए सडंगवी पारगामी पडङ्गविदि' ति षडंगानि-शिक्षादीनि वक्ष्यमाणानि, सांगोपांगानामिति यदुक्तं तद्वेदपरिकरज्ञापनार्थम्। (वृ०-प० ११४) १५. अथवा षडंगविदित्यत्र तद्विचारकत्वं गृहीतं 'विद विचारणे' इति वचनादिति न पुनरुक्तत्वमिति। (वृ०-५० ११४) १६. सतिंतविसारए, संखाणे सिक्खा-कप्पे 'संखाणे' ति गणितस्कन्धे। (वृ०-५० ११४) २७. 'सिक्खाकप्पे' त्ति शिक्षा-अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं कल्पश्च-तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेव । (वृ०-५० ११४) साटतंत्र शास्त्रे निपूण, गणित शास्त्र नं जाण । शिक्षा कल्प तणों बलि, अधिक जाण पहिछाण ।। वर्ण - स्वरूप-निरूपकः, शिक्षा तास कहाय । आचार-निरूपक शास्त्र नै, कल्प कहीजे ताय ।। श०२, उ०१, ढा० ३१ १६५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. शब्द शास्त्र व्याकरण ते, छंद शास्त्र नों जाण । निरुक्त व्युत्पत्तिकारकः, शास्त्र तेह पहिछाण ।। जोतिष न पिण जाण ते, अपर बहू वलि जाण । ब्राह्मण परिव्राजक तणां, नय में निपुण वखाण ।। १८. वागरणे छंदे निरुत्ते 'वागरण' ति शब्दशास्त्र 'छंदे' ति पद्य लक्षणशास्त्र 'निरुत्ते' त्ति शब्दव्युत्पत्तिकारकशास्त्र । (वृ०-५०११४) १६. जोतिसामयणे अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएमु परिव्वायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए या वि होत्था। (श० २०२४) 'जोतिसामयणे' त्ति ज्योतिः-शास्त्रे 'वंभण्णएसु' त्ति ब्राह्मणसंबंधिषु 'परिब्धायएसु यति परिव्राजकसत्केषु । (वृ०-५० ११४) ___ *खंधक बुद्धिवंतो। (ध्रुपदं) तिण सावत्थी नगरी मांहि वसंतो, पिंगल नामैं निग्रंथो रे। बैसालिक श्रावक सुखदायो, सुणे जिनवच रसिक सबायो रे ॥ २०. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पिंगलए नाम नियंठे बेसालियसावए परिवसइ। (श० २।२५) २१. २१. 'नियंठे' ति निम्रन्थः श्रमणः। (वृ०-५० ११४) सोरठा वृत्तिकार इण ठाम, अर्थ कियो निग्रंथ गें। निग्रंथ श्रमणज ताम, पिंगल व्याख्या नहि करी।। विशाल - कुल उत्पन्न, माता श्री महावीर नीं। तेह विशाला मन्न, तास पुत्र वर्धमान जिन ।। २३. वैशालिक भगवान, तेहना वच श्रवणे करी। तद् वचनामत पान, वैशालिक थावक कह्यो।। २४. *वत्तिकार कहै पिंगल नामैं संत, वैसालिक महावीर भदंत। श्रावक कह्यो तसु वच सुण लीन, ते पिंगल श्रमण प्रवीन ।। २५. केइ कहै पिंगल थमण छै एक, दूजो वैसालिक श्रावक देख। इह विध साधु श्रावक विहं माण, तत्व केवलज्ञानी जाण ।। २६. पिंगल निग्रंथ वेसालियथावक तिवार, अन्य दिवस कदाचित् धार। जिहां खंधक कात्यायनगोत्री त्यां आय, पूछ इह विध प्रश्न सोभाय ।। २२, २३. 'वेसालियसावए' त्ति विशाला–महावीरजननी तस्या अपत्यमिति वैशालिक:-भगवास्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिकथावकः, तद्वचनामृतपाननिरतः। (वृ०-प० ११४) २४, २५. पिंगलनाम नियंठे सोऽवि वेसालि-सावओ। संजय-सावयस्सावि तत्थं जाणंति अरिहंता॥ २७. हे मागध ! मगध देश नां वासी, स्यं सअंत लोक विमासी? के अनंत लोक कहीजे ताय ? ते अंत-रहित कहिवाय । २८. सअंत जीव ते अंत सहीत, कै जीव अंत रहीत ? सिद्धी ते मुक्ति-सिला है सअंता, के अंत-रहित सिद्धी मता? २६. अंत सहित छै सिद्ध भगवान, के अंत-रहित सिद्ध जान? किसा मरण थी संसार वधाव, किण मरणे संसार घटावै ? ३०. ए प्रश्न नों उत्तर दै अमन, म्है प्रश्न पूछ्या तुमनै । या प्रश्नां रो उत्तर दीधा फेर, बलि प्रश्न पूछसू हेर ।। ३१. इम पूछ्यै थकै खंधक मन मांह्यो, शंका कंखा वितिगिच्छा पायो। शंका ते इहां उत्तर ए होय, अथवा न ह ? अवलोय।। २६. तए णं से पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए अण्णया कयाइ जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता खंदगं कच्चायणसगोत्तं इणमक्खेव पुच्छे२७. मागहा ! 'मागह' ति मगधजनपदजातत्वान्मागधस्तस्यामन्त्रणं हे मागध ! (वृ०-५० ११८) २७-३०. कि सते लोए? अगते लोए? सते जीये? अणंते जीवे? सअंता सिद्धी? अर्णता सिद्धी? सअंते सिद्धे? अगंते सिद्धे ? केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा, हायति वा?–एतावताव आइक्खाहि वुच्चमाणे एवं। (श० २।२६) ३१. तए णं से खंदए कच्चायणसगोते पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए 'संकिए' किमिदमिहोतरमिदं वा? इति संजातशङ्कः। (बृ०-५०११४) *लय—समजू नर विरला १६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. ए उत्तर भलो न, ए पिण भलो नाही, तो किम उत्तर थाई ? उत्तर नी वंछा मन मांही, कंखा ते कहिवाई ।। ३२. कंखिए इदमिहोत्तरं साधु इदं च न साधु अतः कथमत्रोत्तरं लप्स्ये? इत्युत्तरलाभाकाङ्क्षावान् काशितः । ३३. ए उत्तर दीधां मानसी के नाय? ए वितिगिच्छा कहिवाय। भेद-समापन्न मति-भंग पायो, स्यं हिव कहि ताहो? ३३. वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वा? इत्येवं विचिकित्सितः। 'भेदसमावन्ने' मतेभंगं किकर्तब्बताव्याकुलतालक्षणमापन्नः । (व०प० ११४) ३४. कलुप-भाव हूं जाणू नां कांई, इम कलुपपणो मन माही। पिंगल निग्रंथ वैशालिक श्रावक नै, किंचित मात्र पिण तिण नै ।। ३५. उत्तर देवा समर्थ नांह्यो, जद रह्यो अबोल्यो ताह्यो। जद पिंगल निग्रंथ वैसालिक श्रावक, जिन-धर्म में परिपक्क ।। ३६. बे त्रिण वार ए प्रश्न पूछतो, हे मागध ! स्यूं लोक सअंतो? जाव किस मरणेज मरंतो, वृद्धि हानि संसार करतो? ३७. ए प्रश्न पूछ्या नों उत्तर दै अमन, इम प्रश्न पूछ्या म्है तुमनें। खंधक कात्यायनगोत्री तिवार, ए प्रश्न सुणीनै जिवारै।। ३८. पिंगल निग्रंथ वैशालिक श्रावक, पूछ्यै बे विण वारा प्रत्यख । शंका कंखा वितिगिच्छा पायो, भेद कलुष मन थायो ।। 'कलुषमापन्न: नाहमिह किञ्चिज्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुप्यं समापन्नः । (व०-प० ११४) ३५, ३६. णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालियसावयस किवि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठइ । (श० रा२७) तए णं से पिंगलए नियंठे बेसालियसावए खंदयं कच्चायणसगोत्तं दोच्चं पि तच्च पि इणमक्खेवं पूच्छे-मागहा! कि सते लोए ? जाव केण वा मरणणं मरमाणे जीवे बड्डति वा, हायति वा? ३७, ३८. एतावताव आइक्खाहि वुच्चमाणे एवं। (श०२।२८) तए णं से खंदए कच्चायणमगोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं थेसालियसावएणं दोच्च पि तच्च पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने ३६. णो संचाएइ पिंगलस्स नियंठस्स वेसालियसावयस्स किचि वि पमोक्खमक्खाइउ तुसिणीए संचिट्ठइ। (श० २१२६) ४०. तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्कः चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु मह्या जणसंमद्दे इ वा ४१. तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति वाक्यार्थः। तत्र जनसंमर्दः उरोनिष्पेपः। (व०प०११५) ४२. इति उपप्रदर्शने 'वा' समुच्चये। (वृ०-५० ११५) ३६. पिंगल निग्रंथ वैशालिक श्रावक नै, किचित मात्र पिण तिण नैं। जाव देवा नै समर्थ नाही, जब मौन रह्यो मनमाही ।। ४०. तिण सावत्थी नगरी में तिण वारे, सिंघाडग तिक चउक मझारे। महाजन संमति वा जाणो, उत्सुक जनता भीड़ भराणी ।। ४१. बहुजन एम बदै माहोमांय, आगल ए सम्बन्ध जड़ाय। तिहां जन-संमद उरो-नि:पेप, उरु सं उर अडी मूविशेप ॥ ४२. इति शब्द अर्थ छै एह, उपप्रदर्शने जेह। वा शब्द समुच्चय अर्थ कहाय, अन्य शब्द तणो अपेक्षाय ।। ४३. महाजन सद्देति वा कहिवाय, पाठांतरे वत्ति माय । शब्द बहु जन नों तिहां सुणिय, जन-व्यह नों अर्थ हिव भणिय ।। ४४. जन-व्यह तेह चक्रादि आकार, जन - समुदाय विचार। परिषद वंदन निकली पेख, सूत्र विष ए लेख ।। ४३. पाठान्तरे शब्द इति वा। (वृक्ष-१० ११५) ४४. जणवूहे इ वा जनव्यूहः-चक्राद्याकारोजनसमुदायः । (वृ०-प० ११५) श०२, उ०१, ढा० ३१ १६७ Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. गीतक-चंद ४६. जन-बोल जे अप्रगट अक्षर, सांभले ध्वनि रव छतो । जन-कलकले होज ध्वनि पिण, वच विभाग लहोजतो ॥ - सोरठा जन बोले इ आद, अंत सावत्थी मध्य थइ । निकल जन अहलाद, वृत्ति विषे सूत्रार्थ इम ॥ ४७. जनउमि' एहनों अर्थ, जन कल्लोल ने आकार हो। समुदाय जन नो एवो ए प्रथम अर्थ विचार हो । ४८. अथवा तिहां बहु लोक नों, समुदाय जन ऊपरोपरि मिले बहु, ए द्वितीय ४६. जण उक्क लिया अति ही लघु समुदाय संकीरण घणुं । अर्थ सुहामणुं || हीज कहीजिये । बहु एहवा स्थानक अछे, तिहां लोक रव सलहीजिये ॥ ५०. जन अपर अपरज स्थान थी, एकत्र आय मिले जिहां | जे इसा स्थानक तेहनें, जन- तन्निपात का इहां ॥ ५१. प्रभु कबंगला वन आविया, तसुं कारता सब कर रहा। हि हरव अधिक हुलास घन मन सावत्यी जन महगा । ५४. यतनी ५३. वचन ५२. बहुजन मांहोम इम आयें, आसामान्य थी दाख भासइ कहितां जे भातिके विशेष की अभिला ।। पूर्वे अर्थ कह्या जे दोय, आइवखइ भासइ सोय । तेहिज वे पद करहि कहिये नवे पवे सहिये ॥ तथा आइक्खइ सामान्य थो आखै, भासइ ते विशेष थी भाखे । पनवेद पर्याय, कहै प्रगट धर्म फल ताय ॥ ५५. परूये कहितां पपेक हेतु कारण करि जेह सुनवा वाला रैहिये अणावे, दृष्टांत देह इस मिश्] देवानुप्रिया ! जाण, श्रमण भगवंत वीर धर्म-आदि-कर्ता गुण-धामी, जाव मुक्ति जावा नां क्रम पूर्वानुपूर्व नगरी कबंगला दर्ता | ५६. ५७. मान 1 कामी ॥ विचरंता । मेह, चेत्य उपलास विषे ॥ चालता, गामानुसा १. टीकाकार ने जणुम्मि जन ऊर्मि शब्द के दो अर्थ किए हैं-जन- सम्बाध और कल्लोलाकार जन-समुदाय आनुपूर्वी के क्रम से पहले सम्बाध शब्द का ग्रहण होना चाहिए था, पर जयाचार्य ने अपनी जोड में 'कल्लोलाकार जन-समुदाय' इस अर्थ को प्राथमिकता दी है और दूसरे अर्थ में 'जन सम्बाध' को व्याख्यात किया है। १६८ भगवती जोड़ ४५. जगवोले इ वा ४६. जण कलकले इ वा बोल: अव्यक्तवर्णी ध्वनिः, लभ्यमानवचनविभागः । ४७. जणुम्मी इवा ४७, ४५. ऊर्मिः संवाध: कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः । ( वृ० प० ११५) ४१. वा कलकलः-- स एवोप ( वृ०१० ११५) उत्कलिका - समुदाय एव लघुतरः । ( वृ० प० ११५) ५०. जणणिवाए इवा जनसन्निपात: अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनं । (०-१० ११२) ५२, ५३. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ, एवं पण, एवं परूबेड़ ५६५७. एवं देवाचिया सम भगवं महावीरे आइ गरे जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविजकामे पुब्बाणुपुब्वि चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाणे इहमागए इहपोहे लाए नए बहिया छत्त पलासए चेइए Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, ५६. अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ६०.तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरह ताणं भगवंताणं नाम-गोयस्सवि सवणयाए ६१, ६२. किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसण-पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए? ६३. एगस्सवि आरियस धम्मियस्स सुययणरस सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? ५८. यथाप्रतिरूप जोग्य जाण, साध नैं कल्पै ते पिछाण। अवग्रह ते आज्ञा सुविचार, ग्रही मांगी से ज्या नी उदार ।। ५६. संजम तप कर आत्म भावंता, विचरै जिनजी जयवंता। प्रभु कयंगला वन आया, चिउं तीर्थ मांहि सोभाया ।। ६०. ते माटै निश्चै महाफल सार, अहो देवानुप्रिया! विचार। तथारूप अरिहंत भगवंत, तसं नाम गोत्र सुण्या हुंत ॥ तो स्यूं बलि कहित ताय, प्रभु सम्मुख गमन सहाय । वंदण वच स्तुति - कहिवाय, नमस्कार पंचांग नमाय ।। प्रश्न पूछण नों फुन पेख, सेवा करवा - महाफल लेख । सन्मुख गमन आदि सुभ जोग, सर्व जयणां स्यू कार्य प्रयोग ।। इक पिण आर्य धर्ममय सोय, भल बच सुण्या महाफल होय । तो किसु कहिव बलो जे अदंभ, विस्तीर्ण अर्थ ग्रहण न लभ ।। *सुगुण जन संचरै रे, बीर वंदन नै हेत। जनम सफलो करै रे, कयंगला नै चैत ।। (ध्रुपदं) ६४. ते माटै जावां अम्है रे, देवानुप्रिय ! सार। श्रमण भगवंत महावीर नै, करां वंदना नै नमस्कार ।। ६५. सत्कार ते आदर करां, सन्मान कहियै सोय। योग्य भक्ति अंगीकरी, हिब प्रभु केहवा जोय ।। ६६. 'कल्याणकारित्वात्, स्वाम कल्याणीको, विघ्न - उपशम हेतुपणात्, प्रभुजी मंगलीको, मंगलीको जश जिनजी को, देवयं-त्रिण लोक अधिप नीको। म्है तो जासां जासां वंदन वीर, त्रिभुवन-तिलक टीको।। ६७. चैत्य-अत्यंत प्रशस्त मनो हेतु स्वामी, ए चिहुं पद नों तंत, अर्थ कीधो धामी, कीधो धामी प्रभु हितकामी, वृत्ति रायप्रश्रेणी थी पामी। म्है तो जासां जासां वंदन वीर, प्रभू अंतरजामी ।। •धर्म ना धोरी जी, गोयम जिन जोड़ी जी। होजी एतो कयंगला नै बाग, जिनेश्वर आया जी। सुगुण हुलसाया जी॥(ध्रपदं) ६८. प्रभुजी नी सेवा करां कांइ, एह अम्हारै मान। परभव मांहै हित भणी कांइ, पथ्य अन्न नी पर जान ।। ६४. तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर वंदामो नमसामो ६५. सक्कारेमो सम्माणेमो 'सत्कारयामः' आदरं कुर्मः ‘सन्मानयाम' उचितप्रतिपत्तिभिः, किम्भूतम् ? (वृ०प०११५) ६६. कल्लाणं मंगल देवयं कल्याणं-कल्याणकारित्वात् मंगल-दुरितोपशमकारित्वात् देवतां-देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात् । (राय० वृ०-५० ५२) ६७. चेइयं चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात्। (रायः वृ०-५० ५२) ६८. पज्जुवासामो। एवं णे पेच्चभवे इहभवे य हियाए 'प्रेत्यभवे' जन्मान्तरे, "हिताय' पथ्यान्नवत् । (वृ०-प० ११५) *लय-कोडी चाली सासरै रे * लय-धिन-धिन भिक्खू स्वाम दीपाई दान दया 'लय-पायल वाली पदमणी श०२, उ० १, ढा० ३१ १६६ Jain Education Intemational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +वीर विराज रह्या। समवसरण विच गाज रह्या, कयंगला-बन छाज रह्या। सुर नर व दज आय रह्या श्री जिनवाण सुणाय र ह्या। सुण-सुण जन हरपाय रह्या । नगरी सावत्थी ना जन भणे, चालो प्रभुजी वंदन काज ।। (ध्रुपदं) सुख अर्थे एह छ, कांइ फन क्षम अर्थे एह। सहु वंछित वस्तु जिका, कांइ मिलबा समर्थपणेह ।। *बली मोक्ष नै अर्थ ए परंपराई हद । शुभानुबंधज सुख भणी होस्य जिन नी सेव ।। 'इम कहो ए कारण थकी, बहु उग्रकुले उत्पन्न । ऋषभदेवजी स्थापिया, कोटवाल वंश जन्न ।। *उग्र-पुत्र तेहिज कह्या, दय कुमार विख्यात । इम भोगा आदीश्वरे स्थापित गुरुवंश-जात ।। 'राजन्य कुल नां ऊपनां भगवंत ना जे मित्त । तास वंश में ऊपनां फुन तसुं पुत्र पवित्त ।। *क्षत्रिय कुल नां ऊपनां सामान्य राजकुलीन । बली क्षत्री नां सुत बहु जिन वंदन लहलीन ।। * ब्राह्मण फुन सुत तेहनां भट कहियै बलवंत । वलि तेहना बहु पुत्र ही जिन वंदन मन खंत ।। *जोधा तेहिज भट थकी अति विशिष्ट जोधार। सहस्रादिक सं जुध करै वलि तेहनांज कुमार। 'एम मल्लिकी लेच्छकी राज - विशेष कहाय । जिम नव मल्लइ लेच्छइ नृप चेडा रै सहाय ।। ७५. ६६.सुहाए खमाए 'सुखाय' शर्मणे 'क्षेमाय' सङ्गतत्वाय । (वृ०-५० ११५) ७०, निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ 'निःश्रेयसाय' मोक्षाय 'आनुगामिकत्वाय' परम्परा शुभानुबन्धसुखाय भविष्यति। (वृ०-प०११५) ७१. ७२, इति कटु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इतिहेतोबहवः 'उग्राः' आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजाता: 'भोगा.' तेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः । (वृ०-५० ११५) ७३. राइण्णा 'राजन्याः' भगवदयस्यवंशजाः। (वृ०-प०११५) ७४. खत्तिया 'क्षत्रियाः' राजकुलीनाः। (वृ०-५० ११५) ७५. माणा भडा "भटा:' शौर्यवन्तः। (वृ०-प० ११५) ७६. जोहा पसत्थारो 'योधाः' तेभ्यो विशिष्टतराः। (वृ०-प० ११५) ७७. मल्लई लेच्छई लेच्छईपुत्ता, मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः । (वृ०-प० ११५) ७८. अण्णे य बढे राईसर राजानः नृपाः, ईश्वराः युवराजास्तदन्ये च महद्धिकाः । (वृ०-प० ११५) ७६. तलवर 'तलवराः' प्रतुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः। (वृ०-५० ११५) ८०. माडंबिय-कोडुंबिय 'माडंबिकाः' संनिवेशविशेषनायकाः 'कौटुम्बिकाः' कतिपयकुटुम्बप्रभवो राजसेवकाः। (वृ०-५० ११५) *फुन अन्य बहु राजान ही ईश्वर ते चुवराज। द्वितिय अर्थ ईश्वर तणो महद्धिक अन्य समाज।। +अति तुष्टमान थइ नृप दियो पट्ट-बंध विभूषित अंग । राजस्थानीया जाणवा तलवर तेह सुचग ।। ८०. *सन्निवेशाधिप माडंबिका फुन कोडंबिक ताय । कतिपय कुटुंव-नायक सही नृप-सेवक कहिवाय ।। *लय-गूजरी पाण्यूं नोसरी *लय-पायल वाली पदमणी २०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *जे द्रव्य संचय नै विष, महागज नहिं दीसत । गज प्रमाण द्रव्य ढिग, जसु ईभ तिको धनवंत ।। *जेहनां मस्तक नै विषे, श्री देवी नो सोय । सुवर्ण-पट्ट सोभे रह्यो, नगर-सेट्ठि ए जोय ।। २. 'चतुरंग - सेना - नायका, सेनापति सार्थ नों नायक तिको, सार्थवाह सुखदाय । कहिवाय ।। ८४. *ए पूर्व कह्या ते आदि दे. जावत् ही उत्किष्ट । अधिक आनंद नी महाध्वनि, सिंहनाद रब इष्ट ।। 'अक्षर प्रगट रहीत जे, मोटो शब्दज होय । बोल कहीजै तेहनें, ए महाध्वनि अवलोप ।। इभ्यः यद्रव्यनिचयाच्छन्नो महेभो न दृश्यते । (राय० वृ०-५०४०) ८२. सेछि श्रेष्ठी श्री देवतामुद्रायुक्तसुवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गः । (राय० वृ०-प०४०) ८३. सेणावइ-सत्थवाह सेनापतिः नृपतिनियुक्तश्चतुरङ्गसेनापतिः। सार्थवाहः सार्थनायकः। (राय० वृ०-५० ४०) ८४. पभितओ जाव महया उक्किट्ठसीहनाय उत्कृष्टिश्च—आनन्दमहाध्वनिः। (वृ०-५० ११५) ८५. बोल बोलश्च-वर्णव्यक्तिवजितो महाध्वनिः । (वृ०-प० ११५) ८६, ८७. कलकलरवेणं पक्खुभियमहासमुद्दरवभूयं पिव करेमाणा कलकलश्च-अव्यक्तवचनः स एवैतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्ररवभूतमिबजलधिशब्दप्राप्तमिव । (वृ०-प० ११५) ८८. सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झणं निग्गच्छति। (श० २।३०) ८६. *कल कल अप्रगट वचन, क ा तेहिज लक्षण व्याप्त । एहवो जे रव तिण करी, उदधि शब्द जिम प्राप्त ।। 'जन नां बहुलपणां थकी उदधि तणा अभिराम । गर्जारव नै सारिखा शब्द करता ताम ।। *जे सावत्थी नगरी तणे मध्य-मध्य थइ जन्न । निकलै पाठ इहां लगे, वत्ति विष सुवचन्न ।। ८६. ८६. एतस्यार्थस्य संक्षेपं कुर्वन्नाह–'परिसा निग्गच्छति' (वृ०-५० ११५) दूहा एह अर्थ संक्षेप हो, करतो हिव कहिवाय । परिषद वंदन नीकली, इतरा में सहु आय ।। ६०. 'खंधक कात्यायन गोत्री तिवार, वहु जन कनै सुण समाचार । हिवड़ा में धार विचारण लागो, इम जजआ पाठ विभागो।। ६१. अयं कहितां प्रत्यक्ष छै एह, आगल कहिस्य तेह । खंधक कात्यायनगोत्री नां धार, उपजता मन ना विचार ।। ६०.तए णं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स बहुजणस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा निसम्म । ६१-६३. इमेयारूवे अयं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षः स च कविनोच्यमानो न्यूनाधिकोऽपि भवतीत्यत आह- (वृ०-प०११५) सोरठा फून विचारणा ताय, जेह कवी कहितो छतो। न्यून अधिक पिण थाय, तिण सू हिव आगल कहै ।। ६३. •एयारूवे कहितां अवलोय, एहिज रूप जसुं होय । न्यून अधिक इहां कहिय नांय, हुवै जिसा अध्यवसाय ।। + लय-गूजरी पाण्यू नीसरी *लय—पायल वाली पदमणी 'लय—समजू नर विरला श०२, उ०१, ढा० ३१ २०१ Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. अज्झथिए कहितां अवधार, आत्म विषय विचार । १४. अज्झथिए चितिए पत्थिए चितिए कहितां स्मरण रूप, पत्थिए अभिलाष तद्रूप ।। 'अज्झथिए' ति आध्यात्मिक आत्मविषयः चितिए' त्ति स्मरणरूपः 'पतिथए' त्ति प्राथितः--अभिलाषात्मकः। (वृ०-प० ११५) ६५. मनोगत मन मेंज रह्य जे न बार, संकल्प तास विचार। ६५. मणोगए संकप्पे वचन करीनै प्रकासी नाही, तेह विचारणा त्यांही।। 'मणोगए' ति मनस्येव यो गतो न बहिः बचनेनाप्रकाश नात्स तथा 'संकल्पः' विकल्पः। (वृ०-१० ११६) समुप्पज्जित्था ऊपनी ताय, ते विचारणा हिव आय। ६६, ६७. समुप्पज्जित्था एवं खलु समणे भगवं महावीरे इम निश्च श्रमण तपस्वी सधीर, भगवंत श्री महावीर ।। कयंगलाए नयरीए बहिया छत्रपलासए चेइए संजमेणं ६७. कयंगला नगरी रै बार, चैत्य छत्रपलास मझार। तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। संयम तप कर आत्म भावंता, विचरै जिनजी जयवंता ।। १८. तो हूँ जाऊ वंदू श्री महावीर, करूं नमस्कार गुणहीर। १८-१००. तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि नमश्रेय मुझ नैं निश्चै करि एह, वीर वंदी स्तुति करेह ।। सामि । सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता, काय जोगे करीनै नमस्कार, सत्कारी सन्मानी सार । नमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं मंगलं देवयं कल्याणकारी प्रभ कल्याणीक, दुरितोपशम हेत् मंगलीक ।। चेइयं १००. तीन लोक नां अधिप कहेव, तिण सं देवयं देवाधिदेव । सुप्रशस्त मन नां हेतु स्वाम, तिण सं चैत्य प्रभुजी रो नाम ।। १०१. एहवा प्रभु नी सेवा करि सार, ए एतारूप अर्थ उदार। १०१. पज्जुवासित्ता इमाइं च णं एयारूवाई अट्ठाई हेऊई हेतु प्रश्न कारण व्याकरण सोय, मुझ नै पूछवा श्रेय सजोय ।। पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छित्तए वा...-इमाइं च णं एतारूवाइं इत्यादि पाठ नों अर्थ-इमाइं च णं ति प्राकृत बा०-'इमाई च णं' ति प्राकृतत्वाद् इमान् अनन्तरोक्तपणां थकी। इमा कहितां ए अनंतरोक्तपण करी प्रत्यक्ष नजीक थी, च शब्द थकी स्वेन प्रत्यक्षासन्नान् च शब्दादन्यांश्च 'एयारूवाई' ति अन्य पिण । एयारूवाई कहितां एतत्रूप कह्या जे स्वरूप थी अथवा ए पूर्वे कह्या एतद्रपान उक्तस्वरूपान्, अथवैतेषामेवानन्तरोक्ताजिसा अर्थ नै एतत्रूप कहिये, प्रश्न नां सरीखापणां थकी ते तथा अठाई कहितां नामर्थानां रूपं येषां प्रष्टव्यतासाधात्तत्तथा तान् ते अर्थ कहियै लोक सअंतपणादि भाव प्रतै वलि तेहथी अन्य अर्थ प्रत। हेतुई अर्थान भावान् लोकसान्तत्वादीस्तदन्यांश्च 'हेऊई' ति अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुगम्यत्वाद्धेतवो-लोकसान्त - कहिता अन्वय व्यतिरेक लक्षण हेतु ना जाणवा जोग्यपणा थकी। हेतु, लोक स्वादय एव तदन्ये चातस्तान 'पसिणाई' ति प्रश्नसअंत पणादिक हीज वली तेहथी ते अनेरा हेतु प्रतै । पसिणाई कहितां प्रश्न एहीज विषयत्वात् प्रश्ना एत एव तदन्ये वातस्तान् लोक-सांतपणादि तथा तेहथी अन्य प्रश्न प्रत। कारणाई कहितां कारण ते युक्ति 'कारणाई' ति कारणम्-उपपत्तिमात्रं तद्विषयत्वामात्र ते लोक-सांतपणादि विषयपणा थो कारण एहीज अथवा अन्य कारण त्कारणानि एत एव तदन्ये वाऽतस्तानि 'वागरणाई' प्रतै । वागरणाई कहिलां व्याख्यायमानपणा थी व्याकरण ए लोक-सांतपणादिक ति व्याक्रियमाणत्वाद्वयाकरणानि एत एव तदन्ये हीज अथवा अनेरा ब्याकरण प्रतै। पुच्छित्तए त्ति कटु कहिता पूछिवू श्रेय इम वालस्लानि 'पुच्छित्तए' त्ति प्रष्टुं 'तिकट्ट' इतिकरीन। कृत्वा । (वृ०-प०११६) १०२. इम करी इम मन मांहि विचारी, जिहां परिव्राजक नों मठ धारी। १०२. इति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेता जेणेव परिव्वायगावतिहां आवै तिहां आवी नै तेह, विदंडादि ग्रहण करेह ।। सहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता-- १०३. 'त्रिदडक कमंडलु रुद्राक्षमाल, वलि माटीनों 'भाजन न्हाला १०३-१०५. तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च भिसियं कहितां "आसन-विशेष, पूजण अर्थे 'चीवर-खंड पेख ।। भिसियं च केसरियं च छण्णालयं च अंकसयं च पवि तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओ १०४. पन्नालका ते विकाष्ठिकी जाणो, य धाउरत्ताओ य गेहइ, गेण्हित्ता परिव्वायावसहाओ ___“अंकुस तरुपल्लव ग्रहिवा पिछाणो। पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तिदंड-डिय-कंचणियपवित्रका ते 'वींटी अंगुली नी, "गणेत्रिका आभरण चीनी।। करोडिय - भिसिय - केसरिय - छण्णालय - अंकुसय २०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. छत्र पानही पावडी सुजोई, गेरू रंग्या वस्त्र ग्रहै सोई । परिव्राजक नां मठ थी निकलिया प्रसीधा, त्रिदंडादि दश कर लीधा ॥ १०६. छ पानही संयुक्त पिछाणी, पहिर्या गेरू रंग्या वरत्र जाणी । सावत्थी मध्य-मध्य थइ सोय, नीकलियो अवलोय || १०७. जिहां फगला नगरी जान, जिहा छत्र पलास जिहां भगवंत विराजे भावे, संधक तिहां चल १०८ अंक इकवीस व १. ४. ५. देश न्हाल ए कहीं भिक्षु भारीमाल ऋपराय प्रसादै, 'जय जश' ६. ७. ८. * जशधारी शीस ! सयाणा लाल, गोयमा ! ( ध्रुपदं ) २. वीर है तूं देखिस लाल, गोयमा मित्र पूर्व संगतिक पेखिस हो । ३. हे भगवंत ! ते कुण तामो लाल, स्वामजी ! जिन भाखे खंधक नामो हो । ढाल : ३२ सोरठा गोतम! इति साह्लाद, इन्द्रभूति नो नाम ले । भगवंत वीर सुसाध, प्रभणे इम गोतम प्रतै ॥ उद्यान । आवै ।। इकतीसमी सुख अहलादै ॥ गोयम पूछें कि बेला होइस ते मित्र सुमेला । । साक्षात् दर्शण करि देखिस के श्रवण की तस पेखिस || लाल, स्वामजी । जग तारक आप प्रकाशो लय-सुखपाल हिव किता काल थी जाणी, मिलस्यै पुव्व मित्र पिछाणी || ए तीन प्रश्न पूछता, हिव भाखे जिन जयवंता ॥ इस निश्चै गोयम ! जाणी, ते काल समय पहिछाणी || हंती सावत्थी नामो, नगरी वर्णक अभिरामी ॥ सिंघासण लायजो राज पवित्रायगत्तिवत्व गए, रुद्राक्षकृता 'कुण्डिका' कमण्डलु 'काञ्चनिका' 'करोटिका' मृद्भाजनविशेष 'भूतिका' आसनविशेषः 'केशरिका' प्रमार्जनार्थं चीवर खण्डं 'षड्नालक' त्रिरित्वग्रहणाकृतिः 'पवित्रकम्' अंगुलीयकं 'गणेत्रिका' कलाचिकाऽऽभरणविशेष: 'धाउरत्ताओ' त्ति साटिका इति विशेष:, 'तिदंडे' त्यादि त्रिदण्डकादीनि दश हस्ते गतानिस्थितानि यस्य स तथा । ( वृ०० ११६) १०६ १०७. ताणत्ते धात्तत्वपरिहिए साथवीए नए ममझेगं निम्गच्छ, निम्बच्छिता जेणेव कयंगला नगरी, जेणेव छत्तपलासए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । (०२३१) १. गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी २. दच्छिसि णं गोयमा ! पुब्वसंगइयं । ३. कं भंते ! खंदयं नाम । ४. से काहे वा ? कस्यां वेलायामित्यर्थः । ५. किह वा ? केन वा प्रकारेण ? साक्षाद्दर्शनतः श्रवणतो वा । ६. केवच्चिरेण वा ? (१०० ११६) ? (२०२० ११६) (०२३२) (बु०या० ११६) ८६. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम नगरी होत्था - वण्णओ । श०२, ३०१, ढा० ३१, ३२ २०३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. वा० - 'सावत्थी नामं नगरी होत्थां', इहां होत्था शब्द किम कह्यो ? विभक्ति ना परिणाम थकी । होत्था कहितां अस्ति, अस्ति कहितां छै । अथवा काल नै अवसप्पिणी पणा थकी प्रसिद्ध गुण है जे सावत्थी नगरी नां, तिका नगरी जेहवी गये काले हुती तेहवी हिवड़ां नथी ते भणी होत्था कहितां हुती । तिहां गभाली-सीस सुभद्रक, कात्यायनगोत्री खंधक || परिव्राजक तिहां वसंतो, जिनको सहविरतो ।। जावत् इहां आवण सारी, संकल्पित मन में धारी ॥ ए दूर नहीं छे ताह्यो, इम कहिवै नजीक आयो || वा० -वले ते अदूर अवधि-स्थान नीं अपेक्षाय करिकं पिण हुवै अथवा अतिही दूर मार्ग नी अपेक्षा करिकै कोशादिक पिण अदूर हुवै इण कारण थी हि कहै छै । वंच्छित स्थानक थी ताह्यो, अल्प मार्ग रह्यो बहु आयो । सोरठा ते फन वीसामादि कारण वाग प्रमुख विपं । बैठो हुवै संवादि, इण कारण थी हिव कहै || "मारग परिवन्नो पाले व छे पंध २१. २२. २३. २४. , हिवडां इज देखिस नैणो, इम भाख्या प्रभुजी वैणो ॥ वा० -हूं किम देख सूं ? श्रवण थकी के साक्षात थकी ? ए दूजो प्रश्न पूछ्यो तेहनों उत्तर - अदूरागए कहितां खंधक नजीक आवै छँ इम कहिवै साक्षातहीज देखवूं हुवे ? तथा हूं किता काल सूं देखसूं ए तीजो प्रश्न तेहनों उत्तर अज्जेवणं दच्छसि हिवडाईज देखसी । अनैं किसी वेला देखसूं ए प्रथम प्रश्न तेहनों उत्तर समर्थपणा थकी जाणवो जे कारण थकी जदि भगवान मध्याह्न समये ए वार्ता तिवारे मध्याह्न प्रहर नैं ऊपर मुहर्त्तादि जिका वेला हुवै ते वेला नै विषे देखिसि इम समर्थपणा थकी का जे भणी अदूर आगतादि विशेषण नैं ते देश प्राप्ति नै विषे मुहुर्तादिक हीज काल हुवै पिण अति बहु काल न हुवै। हे भदंत ! इम यच धामी, जिन बंदी व सिरनामी ॥ गोतमजी एम वदंता प्रभु ने इम प्रश्न पूछता हे प्रभुजी ! बंधक ता देवानुप्रिय मुंड थई सुखकारो पर श्री नीकल अणगारपणां प्रति लेवा, ए समर्थ छै तब भावं श्री जिनराया, हंता समर्थ सुखदाया || इम जिन शिष्य नैं उपदेश, इतै आयो खंधक ते देशे ।। पायो । इहवारो ।। स्वयमेवा || * लय-सुखपाल २०४ भगवती-जोड़ सिंघासण लायजो राज विचाले || वा०-- 'सावत्थी नामं नयरी होत्थ' त्तिविभक्तिपरिणामादस्तीत्यर्थः अथवा कालस्यावसप्पिणीत्वात्प्रसिद्धगुणाः कालान्तर एवाभवन्नेदानीमिति । ( वृ० ११६) १०-१२. तत्थ णं सावत्थीए नवरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसगोते परिव्वायए परिवसइ । तं चैव जाव जेणेव ममं अंतिए, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । १३. से अदूराग वा० -स चावधिस्थानापेक्षयाऽपि स्यात् अथवा दूरतरमार्गापेक्षया कोशादिकमप्यदूरं स्यादत उच्यते । ( वृ० प० ११६) १४. ईषदूनसंप्राप्तो बहुसंप्राप्तः । (१०-१० ११६) १५. स च विश्रामादिहेतोरारामादिगतोऽपि स्यादत उच्यते । ( वृ० प० ११६) १६. अद्वाणपडिवण्णे अंतरा पहे वट्टइ। मार्गप्रतिपन्नः किमुक्तं भवति ? 'अंतरापहे वट्टइ' त्ति विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे वर्त्तत इति । १७. अज्जेव णं दच्छिसि गोयमा ! (१०० ११६) ( ० २०३३) बाक ? तरातादिविशेषणस्य साक्षादेव दर्शनं संभवति, तथा 'अज्जेव गं दच्छिसि' इत्यनेन कियच्चिरादित्यस्योत्तरमुक्तं, 'काहे' इत्यस्य चोत्तरं सामर्थ्यगम्यं यतो यदि भगवता मध्या वार्त्ताऽभिहिता तदा मध्याह्नस्योपरि मुहूर्त्ताद्यतिक्रमणे या वेला भवति तस्यां द्रक्ष्यसीति सामर्थ्यादुक्तम्, अदूरागतादिविशेषणस्य हि तद्देशप्राप्ती मुहूर्त्तादिरेव कालः संभवति न बहुतर इति । ( वृ० प० ११६) १८, १९. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी २०-२३. पहू णं भंते ! खंदए कच्चायणसगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता पभू । (२०३४) २४. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमट्ठ परिकहेइ, तावं च गं से खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देसं हवमागए । (श० २१३५) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. सोरठा महावीर भगवान, महाकल्याण निधि नोंज तुझ 1 मिलवो कल्याण-निदान, तेह थी शोभन आगमन || * अतिसय करि सोभन आया, अति भले प्रकार सुहाया || सोरठा अथवा किहि प्रकार, शोभन अति शोभन बलि । एकार्थक अवधार, एहिं शब्द उच्चारये ।। ३६. संभ्रम निमित्तपणे उभयवार कहता था। हवे अदूषित एह, पुनरुक्त दोष न जाणवो ॥ * अनुरूप आगमने आया, जिन दर्शन अध्यवसाया || शब्द कहाया ॥ शोभन अनुरूपे आया, वहां दो ४०. गोतम गणधर गुणखाणी, खंधक नैं नजीक जाणी || [गांयमत्री प्रेमे भीना लाल ] शीघ्र ऊठी ऊभा यावे, ऊभा व साहमा जावे || सामाज गोवम भाव, जिहां बंधक तिहां आये । दहां वृत्तिकारको एभो, ते सांभलज्यो घर प्रेमो ॥ ४१. हा असंजती साहमा गया, गोतमजी किण आस ? होणहार संजमी तण, पक्षपात थी तास ॥ अक्षीण रागपणे वलि, तथा कही जिन बात । बंधनां जे मन तो ते कहिया अवदात || ते कहिये भगवंत न अतिशय केवलज्ञान | प्रकाशवै करि ऊपजै, वीर विषै बहुमान || इह कारण करिने गया बंधक साहमा येन । टीकाकार को इसो, सूरि अभयदेवेन ॥ ●धक गोतम मिलिया लाल, स्वामजी ! जिहां बंधक तिहां आयी इम वचन वदे लसावी || तसुं नाम लेइ बतलाया, पूछे गोयम ऋषराया || तुम्ह भले प्रकारे आया, सोभन आगमन कहाया ॥ * लय-सुखपाल सिंघासण लायजो राज २५-२७. तए गं भगवं गोयमे खंदयं कच्वायणसगोतं अदूरागतं जाणिता खिप्पामेव अब्भुट्ठेति अब्भुट्ठेत्ता खिप्पामेव पच्चुवगच्छ्इ, जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ । २६. यच्च भगवतो गौतमस्यासंयतं प्रत्यभ्युत्थानं तद्भावि - संयतत्वेन तस्य पक्षपात (०० ११६) ३०. गोतमस्य चाक्षीणरागत्वात् तथा भगवदाविष्कृततदीयविकल्पस्य तस्तात्। (२००० ११६) ३१. भगवज्ज्ञानातिशयप्रकाशनेन भगवत्यतीवबहुमानोत्पादनस्य चिकीर्षितत्वादिति । ( वृ० प० ११६) ३३. उवागच्छित्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी३४. हे खंदया ! ३५. सागयं खंदया ! 'स्वागत' शोभनमागमनं तव स्कन्दक ! ( वृ० प० ११६) ३६. महाकल्याणनिभंगवतो महावीरस्य संपर्क तय, कल्याणनिबन्धनत्वात्तस्य । (१००५० १३६) ३७. सुसागयं खंदया ! 'सुसागयं' ति अतिशयेन स्वागतं । (१०-१० ११६) ३८, ३६. कथञ्चिदेकार्थी वा शब्दावेतौ, एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्टं संभ्रमनिमित्तत्वादस्येति । (बु०० ११६) ४०. अणुरागयं खंदया ! 'अन्वागतम्' अनुरूपमागमनं । ४१. सागयमणुरागयं खंदया ! ( वृ० प० ११०) श० २. उ० १, हा० ३२ २०५. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४२. शोभनत्वानुरूपत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतं तवागमनमित्यर्थः । (वृ०-५० ५१७) 9 ४२. शोभन शब्द संगीत, फुन अनुरूपपणुं प्रवर । ए बिहु धर्म सहीत, तुझ आगमन थयो इहां ।। ४३. *इम प्रश्न रूप बतलाया, पछयां दोषण नहिं पाया। खंधकजी! निसुणो वाणो लाल, खधया! ४४. हे खंधक ! तुझनै ताह्यो, इण नगरी सावत्थी माह्यो।। ४५. पिंगल निर्ग्रन्थ पिछ। णो, वैसालिक श्रावक जाणी।। ४६. ए प्रश्न पूछ्या बुद्धिवंते, मागध ! स्यू लोक सअंते ।। कै लोक अणत कहायो, इम तिमहिज सर्व सुणायो ।। ४८. जेणेव कहता जाणी, जे दिशा विषै पहिछाणी।। ६. इहं कहितां अवलोई, जिन समवसरण ए होई ।। ५०. तेणेव कहितां तिण दिश, झट आया छोडी अमरस ।। ५१. हे खंधक ! ते निश्चै कर, समर्थ ए अर्थ बराबर ॥ वा०—'अत्थेसमत्थे" एहनों अर्थ-अत्थि कहितां अस्ति—छ । एस कहितां ए पूर्वे कह्यो ते, अत्थे कहिता अर्थ। अछे समठेत्ति पाठांतरं। काकु पाठ थी कहिवो, अर्थ स्यूं समर्थ–साचो छै? इति प्रश्न । ५२. तब बोलै खंधक वाचो, हंता अत्थि ए साचो।। गोयमजी! तुझ किण भाखी लाल गोयमा!] ५३. खंधक गोतम प्रति सारो, बोलै तब वचन तिवारो। कुण तथारूप बर ज्ञानी, तिण ज्ञान बले करि जानी।। ५५. कुण अछ इसो तप ध्यानी, तप बल सुर सन्निधि जानी।। ४४-४७. से नणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिएमागहा ! कि सोते लोगे? अणते लोगे? एवं तं चेव जाव ४८, ४६. जेणेव इह, यस्यामेव दिशीद भगवत्समवसरणं। (व०प०११७) ५०. तेणेव हब्वमागए। तस्यामेव दिशि। (वृ०-प० ११७) ५१. से नूणं खंदया ! 'अछे समठे' ? वा०— 'अत्थेसमत्थे' ति अस्त्येषोऽर्थः ? 'अट्ठे समठे' ति पाठान्तरं, काक्वा चेदमध्येयं, ततश्चार्थः कि 'समर्थः' संगतः ? इति प्रश्नः स्यात्। (वृ०-५० ११७) ५२. हंता अत्थि। (श० २।३६) ५४. कण ५६. मुझ हृदय-वारता छानी, किण प्रगट करी? ते जानी।। गोतम कहै धर्माचारज, मुझ धर्मोपदेशक आरज ।। श्रमण तपस्वी धीरं, भगवत श्री महावीरं ।। उत्पन्न-ज्ञान • दर्शन - धर, ए क्षायिक भावे जिनवर ।। ६०. बंदनादि जोग्य वदीता, जिन रागद्वेष ने जीता। ५३, ५४. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी–से केस ण गोयमा ! तहारूवे नाणी वा ५५. तवस्सी वा, तपस्वी च तपः सामर्थ्याद्देवतासान्निध्याज्जानातीति। (वृ०-प० ११७) ५६. जेणं तव एस अट्ठे मम ताब रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं तुम जाणसि? (श०.२२३७) ५७-५६. तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोतं एवं वयासी-एवं खलु खंदया ! ममं धम्मायरिए धम्मोव देसए समणे भगवं महावीरे उप्पण्णनाणदंसणधरे ६०. अरहा जिणे अर्हद्वन्दनाद्यर्हत्वात्, जिनो रागादिजेतृत्वात्। (वृ०-प० ११८) ६१, ६२. केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणए केवली असहायज्ञानत्वात्, अत एवातीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकः। (वृ०-५० ११८) ६१. असहाय ज्ञान छ जेहन, तिण स क ह्या केवली तेहने ।। ६२. विहं काल विजानक ध्यानी, त्यांस बात नहीं कोइ छानी ।। *लय-सुखपाल सिंघासण लायजो राज १. भगवती श० २।३६ में 'से नणं खंदया! अछे समठे' पाठ है। इसी पाठ के आधार पर जोड़ की गई है। उससे आगे-वातिका में 'अत्थेममत्थे' पाठ देकर 'अस्त्येषोऽर्थः' यह रूपान्तरण किया है और 'अछे समठे' पाठ को पाठान्तर के रूप में स्वीकृत किया है। २०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. ६४. ६५, ६७. १. ३. ४. ५. सोरठा तीन काल रा जाण, देश थकी पिण इह कारण थी माण, आगल कहियै छै * सर्वज्ञ सर्व जाणंता, वलि सर्व भाव ए अर्थ जिणे मुख आख्या, तुझ रह्स प्रथम झट दाख्या || हूं जाणू तास पसायो, ए ढाल बतीसमी ताह्यो । भिक्खु भारीमाल ऋषरायो 'जग-जश' सुख संपति पायो । वर चरित खंधक नुं सुणियै लाल, सुगुणजी ॥ ढाल : ३३ दूहा तब संपकक गोतम प्रते चालो गोतम ताम थारा धर्माचार्य न धर्मोपदेशक स्वाम ॥ श्रमण भगवंत महावीर में बंदांते स्तुति ताम । नमस्कार सिर नामिये, जावकरां पर्युपास || अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा प्रतिबंध करेह | और भणी वंदन तणी, गोतम आज्ञा देह ॥ भगवंत गोतम तिह समय खंधक साथ प्रसिद्ध । श्रमण भगवंत महावीर त्यां, पधारवा मन किद्ध || कदा | हिवै ॥ देखता ॥ + शासण सिर सेहरा प्रभु प्यारा रे । तिण काले तिण समय सोहंतो रे, महावीर श्रमण भगवंतो रे । विपट्टभो नित्य आहार करतो || मोनो अर्थ वदीतो, दोलतरामजी कियो इण रीतो । निवर्त्या भोग थी धर प्रीतो ॥ ७. वीर - शरीर प्रधान उदारो, शृंगार तणी पर सारो । ओपम वाची शब्द अवधारो ॥ *लय -- सुखपाल सिंघासण लायजो राज -नमिनाथ अनाथां रा नाथो रे लय ६३. स च देशज्ञोऽपि स्यादित्याह (५०-५० ११०) ६४. सव्वष्णू सव्वदरिसी ६५, ६६. जेणं मम एस अट्ठे तव ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ णं अहं जाणामि खंदया ! (०२३६) १, २. तए णं से खंदए कच्चायणसगोते भगवं गोयम एवं वयासी — गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पवासामो २. हा देवाणिया! मा पबिंध ( श० २३९ ) ४. तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्थ गमणाए । ( श० २/४० ) ५. तेणं काले तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वियट्टभोई यावि होत्था | (०२१४१) 'वियट्टभोइ' त्ति व्यावृत्ते व्यावृत्ते सूर्ये भुंक्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी प्रतिदिन भोजीत्यर्थः । (१०-१० ११०) ७. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभोइस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं ओरालं ति प्रधानं शृंगारमिव शृंगारम् । (००० ११०, ११९) श० १, उ० १, ढा० ३३ २०७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, ६. कल्लाणं सिवं धन्नं 'कल्याणं' श्रेयः 'शिवम्' अनुपद्रवमनुपद्रवहेतुर्वा 'धन्य' धर्मधनलब्धृ तत्र वा साधु तद्वाऽर्हति । (वृ०-५० ११६) ८. श्रेय कल्याणकारी सोभायो, शिव-अनुपद्रव हेतु ताह्यो। धर्म-धन लही धन्य कहायो।। ६. अथवा धर्म-धने सोभायो, तथा धर्म-धन जोग्य ताह्यो। एहवा वोर प्रभु जिनरायो।। १०. हित-अर्थ-प्रापक मंगलीको, अरिहंता मंगल तहतीको। साधु मंगल शिवपद टीको।। ११. अलंकृत मुकुटादि रहीतो, नहि वस्त्र विभूपा प्रतीतो। लक्षण व्यंजन गुण करि सहीतो।। १०. मंगल्लं मङ्गले-हितार्थप्रापके साधु मांगल्यम् ।(वृ०-५०११६) ११. अणलंकियविभूसियं लक्खण-बंजण-गुणोववेयं अलंकृतं मुकुटादिभिः विभूषितं--वस्त्रादिभिस्तन्निषेधादनलंकृतविभूषितं। (वृ०-प० ११६) १२. लक्षणं-मानोन्मानादि व्यञ्जनं-मषतिलकादिकम् गुणा:--सौभाग्यादयः। (वृ०-५० ११६) १२. लक्षण मान उन्मान प्रमाणो, व्यंजन मस तिल प्रमुख पिछाणो। गुण सौभाग्य औदारादि जाणो।। सोरठा लक्षण कहिये मान, फुन उन्मानादिक भणी। तास अर्थ पहिछाण, कहियै छे ते सांभलो।। १४. जल-भृत कुंडी मांहि, पुरुष प्रवेश करै तिहां । १४, १५. तत्र मानं-जलद्रोणमानता, जलभृतकुण्डिकायां प्रवेश कीधै ताहि, तेहथी ते जल नीकले ।। हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते तत्प्रवेशे च यज्जलं ततो ते जल जो मापेह, द्रोण प्रमाण हुवे जदा। निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं भवति तदाऽसौ मानोपेत तदा पुरुष छ तेह, मान-सहीत कहीजिये ।। उच्यते। (वृ०-५० ११६) वाल-जल भरी कुंडी मांहि पुरुष पैठां जे जल नीकल, ते जल द्रोण प्रमाण हुवै, ते पुरुष नै मानोपेत कहिये। तिवारै कोइ पूछे द्रोण किणनै कहिय तेहनों उत्तर–दोय खोभले एक पुसली, दोय पुसली नै एक सेइ अनै च्यार सेइ नों एक कुडब, च्यार कुडब नो एक पात्थो ते पायली अन च्यार पात्था नों एक आढ़ो अनै च्यार आहा नों एक द्रोण, ए द्रोणमान । १६. मापण जोग्य पिछाण, पुरुष तुला रोपित हुवे। १६. उन्मानं त्वर्द्धभारमानता, मातव्यः पुरुषो हि तुलारोपितो अर्द्ध भार प्रमाण, नर उन्मान सहीत ते ।। यद्यर्द्धभारमानो भवति तदोन्मानोपेतोऽसाबुच्यते। (वृ०-१० ११६) वा०-तुला ते ताकड़ी नै विषे तोल्यां थकां जे पुरुष अर्द्ध भार मान जो हुवै ते वा०–स्यात् गुजा पञ्चमाषक: पुरुष उन्मान सहीत कहियै। ते तु षोडश कर्षोऽक्ष: पलं कर्षचतुष्टयम् कोई पूछ भार किण नै कहिय ? तेहनों उत्तर ५ चिरमी नो १ मासो, १६ विस्तः सुवर्णो हेम्नोऽक्षे कुरुविस्तस्तु तत्पले मासा नो १ सोनइयो, अन ४ सोनइयां नो १ पल, अनै १०० पल नी तुला ते तुला पलशतं तासां विशत्या भार आचितः ताकड़ी, अनै २० तुला नो १ भार । (अभिधान चिन्तामणि ५४७-५४६) १७. निज आंगुल करि जेह, इक सो अप्टांगुल पुरुष । १७. प्रमाणं पुनः स्वांगुलेनाष्टोत्तरशतांगुलोच्छ्यता। ऊचपणे ह तेह, प्रमाण सहित कहीजिये ।। (वृ०-५० ११६) वा०-व्यंजन-मस तिलकादि, अथवा लक्षण ते जन्म थकी चिह्न, अनै पछै थयो जे वाल-व्यञ्जन --मषतिलकादिकमथवा सहज लक्षणं चिह्न ते व्यंजन। पश्चाद्भवं व्यञ्जनम् । (वृत-प० ११६) १८. *लक्ष्मी सोभा करि सुविधानो, घण घण सोभायज मानो। १८. सिरीए अतीव-अतीव उबसोभेमाणं चिट्ठद।। तीथ महिमा सहित सुप्रधानो।। (श० २।४२) *लय-नमिनाथ अनाथां रा नाथो रे २०८ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. खंधक कात्यायन गोत्री तिवारी, तन वीर नुं देखी उदारो। हरष संतोष चित्त मझारो।। १६. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभोइस्स सरीरयं ओरालं जाव अतीवअतीव उवसोभेमाणं पासइ, सोरठा २०. हुष्ट तुप्ट तसं चित्त, अतिशय करिक तुष्ट मन। तथा हृप्ट विस्मित्त, तुष्ट तिको संतोष मन ।। २१. *आनंदिए थयो आनदो. णंदिए मन प्रीति पाबंदो। परम सुमन समन सुख कंदो।। २०. पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्त हृष्टतुष्टमत्यर्थ तुष्टं हृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं च सन्तोषवच्चित्तं-मनो यत्र तत्तथा। (वृ०-प० ११६) २१. आणदिए णदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए २२. 'आनन्दितः' ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धि मुपगतः । (वृ०-५० ११६) २३. नन्दितस्तैरेव समृद्धतरतामुपगतः। (वृ०-५० ११६) सोरठा २२. आ ईषत् कहिवाय, मुख सौम्यपणादिक भाव करि। समृद्धि पाम्यं ताय, आनंदित नों अर्थ ए। २३. फुन तदनंतर जेह, तेहिज जिन दर्शण करी। अति समृद्धि पावेह, नदित पद न अर्थ ए। २४. प्रीति तृप्ति अत्यंत, पाम्यं जेहना मन विषै। पीइमणे पद हृत, तास अर्थ ए आखियो । २५. थयो परम उत्कृष्ट, सुमनस्पणु मन जेहनै । अतही भलूंज इप्ट, परमसोमण सिए नुं अर्थ ए।। २६. *हर्ष नै वश करि कायो, हियो विस्तार पामतो ताह्यो। हर्ष सू हिवड़ो हुलसायो।। २४. प्रीतिः-प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य स तथा। (वृ०-प० ११६) २५. परमं सौमनस्यं सुमनस्कता संजातं यस्य स परमसौमनस्थितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्यिकः। (वृ०-६०११६) २६. हरिसवसविसप्पमाणहियए हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स तथा । सोरठा २७. तथा आनंदित आदि, एकार्थक ए पद सह । पद जुजुआ संवादि, अतिहि प्रमोद जणायवा।। २८. *जिहां श्रमण तपस्वी सधीरो, एहवा भगवन श्री महावीरो। तिहां आवै, आवी गुण-धीरो॥ २६. वीर प्रभु भणी सुखकारो, जोमणा पासा थी सुविचारो। देवै प्रदक्षिणा त्रिण वारो॥ ३०. यावत् सेव करी हुलसावै, अहो खंधक जिन बतलावै। तिण नै आगूच बात सुणाव।। ३१. ढाल तेतीसमी सुखदायो, भिक्खु भारीमाल ऋषरायो। सुख ‘जय-जश' संपति पायो । २७. एकाथिकानि वैतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थानीति । (०-प० ११६) २८. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता। २६, ३०. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ जाव पज्जुवासइ। (श० २।४३) * लय-नमिनाथ अनाथां रा नाथो रे श०२, उ०१,ढा०३३ २०६ Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३४ दूहा हे खंधक ! जे सावत्थि में, पिंगल नाम निग्रंथ । वैसालिक थावक तुझे, प्रश्न पूछया धर खंत ।। मागध ! लोक सअंत स्यू, तथा अनंत कहाय ? इम तिमहिज जावत् जिहां, मुझ पै तिहां झट आय ।। १, २. खंदयाति ! समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायण सगोत्तं एवं वयासी-से नणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए-मागहा ! कि सते लोए? अणते लोए? एवं तं चेव जाब जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए। ३. से नूणं खंदया ! अढे समठे? हंता अस्थि । (श० २।४४) ४, ५. जे वि य ते खंदया ! अयमेयारूबे अज्झस्थिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-कि सअंते लोए ? अणते लोए?–तस्स वि य णं अयमठे-एवं खलु मए खंदया ! चउबिहे लोए पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेतओ, कालओ, भावओ। खंधक ! अर्थ समर्थ ए? हंता अस्थि स्वाम! अर्थ अनुपम तेहनों, भाखै जिन गुण-धाम ।। जे पिण खंधक तुझ इसो, आत्म विषै ए जन्न। चितित प्राथित मन रह्य, विचार जे उत्पन्न ।। *वदै वर वीर विमल वानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी । (ध्रुपदं) खंधक ते चित्यू मन माह्यो, वलि मनमांहि विचार ऊपनों लोक सांत ताह्यो ? तथा स्यूं लोक अनंत कहिये, तेहन पिण ए अर्थ एम निश्चै खंधक लहिये । लोक ए चउविध मैं भाख्यो, द्रव्य, खेत्र नै काल, भाव थी जओ जओ आख्यो, __ तास हिव भेद कहूं छाणी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। द्रव्य थी लोक एक जाणी, तिण कारण ए अंत-सहित छै न्याय हिय आणी, खेत्र थी लोक इतो बहुलो, असंखेज्ज कोडाकोडी जोजन लांबो पहलो। परिधि हिव लोक तणी सुणिय, असंख्यात कोडा-कोडी जे जोजन नी गिणिय, तिको पिण अंत सहित ठानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। लोक ए काल थकी जोई, कदापि न हुवो, नहि है, न हुसी इम नहि छै कोई, हूओ ए काल अतीत मही, वर्तमान काले पिण छै ए हुसै अनागत ही। ६. दवओणं एगे लोए सअंते। खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अत्थि पुण से अंते। ७. कालओ णं लोए न कयाइ न आसी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ-भविस य, भवति य, भविस्सइ य-धुवे नियए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए निच्चे, नत्थि पुण से अंते। ___ *लय—सुगुरु की सीख हिय धरना रे २१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल भावे करि ध्रुव एही, एक स्वरूपपणां थी लोकज नियत का जेही, सास्वतो खिण-खिण सद्भावै, अक्षय कहितां अविनाशी छै नास नहीं थावै । अवस्थित कहितां तसं कहियै, अनंत पर्यायपणे करिने छै नित्य एम लहिये, तास फुन अंत नहीं जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। ८. ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह (वृ०-प० ११९) ६. नियत एकस्वरूपत्वात् । (वृ०-प० ११६) गीतक-छन्द ध्रुव शब्द अचलपणां थकी, ए लोक नै ध्रव दाखियै । फून तेह अनियत रूप पिण ह, इह थकी हिव आखियै ।। कह्य' णितए लोक नै, तम अर्थ नियत पिछाणिये। इक ही स्वरूपपणां थकी, ए नियतरूपज जाणिय ।। फून नियत तेह कदाचि पिणहू, इह थकी आगल कहै। सासए खिण-खिण तणा सद्भाव थी शास्वत रहै ।। फून सास्वतो ते नियत काल अपेक्षया पिण हूं तिको। इह कारणे हिव अक्खए, अविनाशि थी अक्षय जिको ।। फुन तेह अक्षय द्रव्य करि पिण ह्रतिको स्यूं लीजिये । इह कारणे हिव आगलै, अवट्ठिए पाठ अहीजिये ।। अवट्टिए रव नों अर्थ जे पर्याय अनंतपणे करी। अवस्थितपणा थी लोक नै, फून अवस्थित आख्यू फिरी ।। १०. नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्यादत आह-शाश्वत: प्रतिक्षणं सद्भावात्। (वृ०-१० ११६) ११. स च नियतकालापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-अक्षयोऽविनाशित्वात् । (वृ०-५० ११६) १२. अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह- (वृ०-प० ११६) १२. १३. अवस्थितः पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात । (वृ००प०११६) १४. १४. किमुक्तं भवति ? नित्य इति। (वृ०-५० ११६) १५. सोरठा निष्कर्ष रूप में जोय, निच्चे पाठ छै आगलै । लोक नित्य अवलोय, अंत रहित इम काल थी। *भाव थी लोक तणु निरj, वर्ण गंध रस फर्श तणां ए पजब अनंत भणु, बलि संठाण अनंत पजवा, गुरु-लघु बादर खंध तणां पिण पजव अनंत भवा। अगुरुलघु पजव अनंता ही, तसं फून अंत नहीं हे खंधक ! इम चउविध थाई, वर्दै प्रभुजी पूरणज्ञानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी ।। १५. भावओणं लोए अणंता वण्णपज्जवा, अणंता गंधपज्जवा, अणंता रसपज्जवा, अणंता फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। *लय-सुगुरु की सीख हिय धरना रे श०२, उ०१, ढा०३४ २११ Jain Education Intemational cation Intermational For Private & Personal Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. १७. १८. १९. २०. तिण कारण ए अंत-सहित एतले द्रव्य थकी भाली, अंत सहित ए लोक कहीजे निमल न्याय न्हाली, क्षेत्र की अंत सहित एही. काल की एलोक असे अंत-रहित जेही। भाव वी अंत-रहित कहिये, वर्णादिक नां जय अनंता एह इहां गहियें, प्रथम प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ जिके पिकतं तेमी, जाव सांत के अनंत जीव तास अर्थ एमो जीव चविध करि मैं भाग्यो, द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव थी जूओ जूओ आख्यो । द्रव्य थी एह जीव एको, परम न्याय पेखो हिवै सुण आगल वर वाणी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ क्षेत्र थी जीव तो कहिये, असंख्यात प्रदेश अछे से जिन यच संलहिये। तिके आकाश तणां जेही, असंख्यात प्रदेश ओगाह्या अंत-सहित एही। काल थी जीव एह ज्याही, कदाचित् नहि हुओ इसी विध कहियो तमु नाही जाव नित्य पूर्व पाठ भणवा, तेह तणुं फुन अंत नहीं छं थिर चित सूं थुणवा । सुधा जिन वाणी सुखदानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ भाव थी जीव प्रभू भा ज्ञान तणां पर्याय अनंता इस दर्शण आखे । अनंता चरित पजवधारी, गुरुलघु नां पिण पजव अनंता ए तनु सहचारी | अगुरुलघु पजव अनंता ही, तेह तणं फुन अंत नहीं है जिन वच सुखदाई, अदल वर न्याय हियै जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ औदारिकादि वृत्ति मध्ये इम २१२ भगवती-जोड़ सोरठा जाण, ते आधी मुरुलघु कथा। वाण, जीव अरूपी ते भणी ॥ १६. सेत्तं खंदगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणते, भावओ लोए अणते । (श० २२४५) १७. जे वि य ते खंदया ! जाव कि सअंते जीवे ? अणते जीवे ? तस्स वि य णं अयमट्ठे एवं खलु मए खंदया ! चउविहे जीवे पण्णत्ते, तं जहा- दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्व णं एगे जीवे सअंते । EUROHIT १०. जीव अपएसए, अंग अत्थि पुण अंते । कालओ गं जीवे न कयाइ न आसी जाव निच्चे, नत्थि पुण से अंते । १६. भावओ गं जीवे अणंता नाणपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा, अनंता चरितपज्जवा, अनंता गरुयल हुय पज्जवा, अणता अगरुयल हुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते । २०. अनन्ता गुरुलघुपर्याया औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य । ( वृ० प० ११९ ) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. २२. 'धर्माधर्म आकाश, जीवास्ति नैं काल ए। अगुरुलघु सुविमास, प्रथम शतक नवमें कह्यो।। बलि जीवास्तिकाय, तेह अरूपी भगवती। वर्णादिक नहिं पाय, द्वितिय शतक दशमें कह्यो ।। तिण कारण पहिछाण, जीव प्रतै गुरुलघु कह्यो। औदारिकादिक जाण, च्यार शरीर अपेक्षया' ।। (ज० स०) २३. २४. सेत्तं खंदगा ! दव्वओ जीवे सअंते, खेत्तओ जीवे सते, कालओ जीवे अणते, भावओ जीवे अणंते । (श० २।४६) *एतले द्रव्य थकी वारू, अंत सहित ए जीव कहीजै इक वचने चारू । क्षेत्र थी अंत-सहित कहिये, काल थकी ए. अंत-रहित छै प्रवर न्याय लहिये । भाव थी अंत-रहित जोवो, ए चिहविध करि जीव कह्यो प्रभ विमल ज्ञान दीवो। द्वितिय प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी।। जिके पिण खंधक तव पृच्छा, अंत-सहित ए सिद्धी छै के अंत-रहित ? इच्छा। __ तास पिण एह अर्थ थाई, म्हैं चिहं विधा परूपी सिद्धी सांभल चित ल्याई। द्रव्य थी एक सिद्धि थुणिजै, अंत सहित छै सिद्ध-शिला हिव क्षेत्र थकी सुणिजै। पैतालिस लख जोजन ताजी, लांबी चौड़ी मुक्ति-शिला छै त्रिगुणि परिधि जाझी। ___ मान तसु आगल कहिवा नी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी।। कोड इक बंयालीस लाख, तीस महंस बे सय गुणपच्चा जोजन श्रत साखं । परिधि किंचित अधिकी लेखो, क्षेत्र थकी फून छै तसं अतज विमल नयण देखो। काल अरु भाव थकी गुणवी, लोक तणो विस्तार कह्यो तिम अंत-रहित भणवो। बदै जगतारक जिन वानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी।। २५, २६. जे वि य ते खंदया ! पुच्छा कि सअंता सिद्धी? अणंता सिद्धी? तस्स वि य णं अयमठे। एवं खलु मए खंदया ! चउबिहा सिद्धी पण्णत्ता, तं जहा--दव्बओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगा सिद्धी सअंता। खेत्तओ णं सिद्धी पणयालीस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी...बायालीसं च सयसह साइं तीसं च सहस्साइं दोण्णि य अउणापन्नजोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवणं पण्णता, अत्थि पुण से अते। कालओ य भावओ य जहा लोयस्स तहा भाणियब्बा । नत्थि पुण सा अंता। *लय-सुगुरु की सीख हिय धरना रे श०२, उ०१, ढा०३४ २१३. Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. २८. २१. ३०. द्रव्य थी अंत सहित सिद्धी, क्षेत्र की पिग अंत सहित छे नभ प्रदेश लिखी । काल थी अंत-रहित आवी, भाव की पण अंत-रहित जे सिद्ध शिला भाखी। एम ए चिहुविध करि लहियै, सिद्ध क्षेत्र तमु नजीक मार्ट सिद्धी तसुं कहिये, तृतीय प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जवर जानी ।। जिके पि खंधक तुझ पितो, जावत् किस अणते सिद्धे तिमज जाव संतो । द्रव्य थी एक सिद्ध संतो क्षेत्र की सिद्ध असं प्रदेशिक अति गुणवंतो तिके आकाश तणा हुंतो, असंख्यात प्रदेश ओगाह्या त फुल छे अंतो तास ओलखिये गुणवानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानो || काल की सिंघ इक वचनंती आदि सहित रु अंत-रहित छै तसुं फुन नहि अंतो । भाव थी सिद्ध भणी कहियै, ज्ञान तणा छे पजव अनंता इम दर्शन लहियै । जान बलि अगुरुलघु आछा, पजव अनंता अमल अनोपम क्षय निष्पन जाचा । तास फुन अंत नहीं जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥ सोरठा 'इहां जाव' शब्द रे मांहि, चारित्र ना पज्जव कह्या । ते सिद्धां में नाहि, पांचू चारित्र मांहिलो || १. जयाचार्य के सामने जो आदर्श था उसमें सूत्र पाठ इस प्रकार था - 'भावओ णं सिद्धे अणंता नागपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा जाव अनंता अगरुयल हुय पज्जवा ।' इस जाव पद के द्वारा स्तवक में दो पाठ गृहीत हैं--'अनंता चरित्तपज्जवा, अनंता गरुयल हुयपज्जवा ।' किन्तु ये दोनों पाठ प्रासंगिक नहीं हैं। क्योंकि सिद्धों में न तो चारित्र है और न गुरुलघुपर्याय है। जयाचार्य को जाव पद रहित आदर्श उपलब्ध नहीं था । इसलिए उन्होंने जाव शब्द वाले पाठ को अशुद्ध नहीं बतलाया । अपेक्षा दृष्टि से उस पाठ में संगति बिठाने के लिए तेवीस सोरठों में एक लम्बी चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है— सिद्धों में चारित्र मोहकर्म का क्षायिक भाव है, उस अपेक्षा से यहां चारित्र के पत्रों का ग्रहण किया है। सिद्धों में गुरुलघुपर्वन का उल्लेख है, (शेष अग्रिम पृष्ठ पर २१४ भगवती जोड़ २७. सेत्तं खंदया ! दव्वओ सिद्धी सअंता, खेत्तओ सिद्धी अंता, कालओ सिद्धी अनंता, भावओ सिद्धी अनंता । ( श० २/४७ ) २८, २६. जे विय ते खंदया ! जाव कि अणते सिद्धे ? तं चेत्र जाव दव्वओ णं एगे सिद्धे सअंते । ओ सिद्धे अससेज्जएसिए, असवेजपा अस्थि पुण से अंते । कालओ णं सिद्धे सादीए, अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अंते । भावओ णं सिद्धे अनंता नाणपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा, अनंता अगरुयलहुय पज्जवा, नत्थि पुण से अंते । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ चारित्रावर्णी कर्म, खायक-निष्पन्न त्यां अछ। नहि अघ रोकण धर्म, पिण स्थिरता गुण तो सही।। ३२. चारित्रावर्णी कर्म, खायक-निपन्न नां गयो। तिण सू ए गुण पर्म, लाधै छै सिद्धां मझे।। वलि जाव शब्द रै मांहि, गुरुलघु ना पजवा कह्या। ए सिद्धां में नाहि, शरीर रहित छै ते भणी ।। ३४. गुरुलघु पजबा ताय, जाव शब्द में आविया। संलग्न पाठ जणाय, पिण लाभ ते लीजिये ।। संलग्न शब्द अनेक, देखी न्याय मिलावियै । लाभ ते छै लेख, नहिं लाभ ते टालिये ।। तथा अजोगी ठाण, तास चरम समय विर्ष । क्षायिक चारित्र जाण, वलि तनु तीन अछै तिहां ।। ३७. होणहार ए सिद्ध, हुवा जिसो उपचार थी। ते इहां सिद्ध समृद्ध, कह्यो नजीकपणा थकी।। क्षायिक चारित्र तास, ते चारित्र ना पर्यव तिहां। गुरुलघु पर्यव विमास, औदारिक तैजस तणा।। जिम अनुयोगजद्वार, जाणक-भविक-शरीर थी। व्यतिरिक्त ते सुविचार, द्रव्य शंख त्रिणविध कह्यो।। एक-भविक धुर भेद, शंख थकी जे प्रथम भव । द्वितिय बद्धायु वेद, शंखायू बंध्यां पछे ।। अभिमुखनामज गोत, जघन्य समय इक अंत जे। उत्कृष्टो इम होत, अंतर्महत चरम जे ॥ ४०. वह या तो पाठ की संलग्नता के कारण है अथवा चौदहवें गणस्थान के जीवों को सिद्ध माना गया है। क्योंकि वे तत्काल सिद्ध होने वाले हैं। चौदहवें गुणस्थान में जीव सशरीरी होता है, अतः वहां चारित्र और गुरुलघुत्व दोनों घटित हो जाते हैं। मैंने जब पहली बार भगवती की जोड़ पढ़ी, तब मेरे पास जो भगवती सूत्र के मूल पाठ की प्रति थी, उसमें जाव पद नहीं था।(देखें अंगसुत्ताणि भाग २, श०२।४८) भगवती की जोड़ के सामूहिक स्वाध्याय में मंत्री मुनि मगनलालजी भी उपस्थित थे। उन्होंने कहा- यदि जयाचार्य को यह प्रति उपलब्ध होती तो उन्हें ये तेवीस सोरठे नहीं लिखने पड़ते। अब हमारे सामने यह प्रति है, इसलिए आपको इस विषय पर एक टिप्पणी कर देनी चाहिए। मंत्री मुनि का कथन स्वीकार कर मैंने दो सोरठों में उक्त विषय पर टिप्पणी की किण ही प्रती मझार, जाब शब्द लाभ नहीं। ज्ञान, दर्शन, अवधार, अगुरुलघु पजवा कह्या ॥१॥ किण ही प्रती मझार, जाव शब्द है तेहथी। न्याय निमल निरधार, जयगणपति इम मेलव्यू ॥२॥ यह घटना सं० १९६४, बीकानेर की है। श०२, उ०१, ढा० ३४, २१५ Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ बद्धाय प्रति नैगम संग्रह सोय, बलि व्यवहार तणो धणी । विविध शंख अवलीय छै तीनं भणी ॥ ४३. ऋजुमूत्र सुविचार, वछै द्विविध शंख नै । धार, अभिमुख-नामज-गोत्र बलि ॥ तीन शब्द नय भाव, अभिमुखनामज गोत्र प्रति वछे छे धर न्याव, एहवूं आख्यो वृत्ति विषै इम वाय, यद्यपि ए त्रिण द्रव्य न वछे ताय, तो ए किम पाठ में ॥ कार्य शंख तणेह, प्रथम काल ए ढुकडुं । कारण रूप कहेह, तिण सूं अभिमुख मानियो । तिम चवदम गुणठाण, अंत समय तेहने विषै । सिद्ध को जाण, ते पिण जाणै केवली ॥ द्वितीय शतक उदंत, प्रथम उद्देशक नैं विपं । प्रासुकभोजी संत, संध्या भव-विस्तार जिण ।। सिद्ध कहीजे तास, बुद्ध मुक्त कहीजे तसुं सह दुख क्षीण विमास प कहीजे होणहार ए सिद्ध, हुआ सरीखो नय उपचार प्रसिद्ध तेम दहा आपो भृगूपुत्र गुण-रयण, मूनी का तेन ॥ तिके ॥ चवदम उत्तरक्षयण होणहार मुनिवर दमीश्वर तेनैं । अधिकार को मझार, ए होणहार मोटो मुनि ।। उत्तरज्झयण इम एपिण अवलोय, चरम समय चवदम गुणे । चारित गुरुलघु जोय, ते पिजा केवली ॥' (ज०स० ) ४२. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. मृगापुत्र ५३. ५४. 3 १. गुणस्थान में * लय- सुगुरु की सीख हियं धरना रे २१६ भगवती जोड़ भाव नय । मान्यो इणे || लेखवी । वै ॥ *एतले द्रव्य थकी जोई, अंत सहित ए सिद्ध कहीजै इक वचने होई । क्षेत्र श्री अंत-सहित ख्यातं काल थकी जे अंत-रहित छै वसुधा अवदातं । भाव थी अंत-रहित भारी, तिमहि यावत् सिद्ध अंत नहि आखे जगतारी। तुयं प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जब रजानी ॥ तेहनें। ५४. सेत्तं खंदया ! दव्वओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अणते, भावओ सिद्धे अणते । (म० २०४८ ) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. लोक अरु जीव तणों भाख्यो, मुक्ति-शिला नै सिद्ध तणों चिहुं उत्तर जिन आख्यो। हिव बे प्रश्न तणे निरण, किस मरण संसार वधावै हाणि किस मरण । ढाल चउतीसमी ए धामी, भिक्ष भारीमाल ऋपराय प्रशाद संपति 'जय' पामी। सुजश गण-वृद्धि हरष जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन-छटा जबर जानी।। ढाल:३५ दहा १.जे वि य ते खंदया! इमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए जाव समुप्पज्जित्था २. केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा, हायति वा? जे पिण खंधक तुझ इसो, एतत्रूप सुजन्न । आत्म विषै चितित वलि, जावत् हि उत्पन्न ।। किस मरण मरतो छतो, वृद्धि हुवै संसार । तथा हानि संसार नी, किण मरण हसार? तेहनों पिण ए अर्थ इम, निश्च खंधक ! धार। दोय प्रकारे मरण म्है, आख्यो तसं अधिकार ।। बाल-मरण धुर जाणवू, पंडित-मरण पिछाण । से कि तं ? अथ स्यूं तिको, बाल-मरण दुख-खान ।। बाल-मरण धुर छै तिको, आख्यो वार प्रकार । ते जिम छै तिम आगलै, कहियै छै अधिकार ।। ___ *खंधक गणरसियो। वीर वचन सुविशाल जेहन मन वसियो ।। (ध्रुपद) ६. भूख तृषा करि पीडियो रे, मूरिजन ! मरै करतो विलापात। तथा संजम छांडी मरै रे, सूरिजन ! ते वलय-मरण विख्यात ।। ३, ४. तस्स वि य णं अयमठे–एवं खलु खंदया ! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा--बालमरणे य, पंडियमरणे य। से कि तं बालमरणे? ५. बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा ७. इंद्रियवश पीड़यो मरै रे, भविजन! काम बस मातंग। इम अन्य इंद्रिय बस मर रे, भविजन ! वसट - मरण प्रसंग। (प्राणी गुण रसियो) ८. तोमरादिक द्रव्य शल्य थी, भाव शल्य अतिचार। तेह आलोयां विण मरै, अन्तोसल्ल अवधार ।। ६. वलयमरणे वलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन बलवलायमानस्य—संयमादा भ्रस्यतो यन्मरणं तद्वलन्मरणं। (वृ०-६० १२०) ७. वसट्टमरणे। वशेन-इंद्रियवशेन ऋतस्य–पीडितस्य । (वृ०-५० १२०) ८. अतोसल्लमरणे अन्तःशल्यस्य द्रव्यतोऽनुद्धततोमरादेः भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तः शल्यमरणं। (वृ०-प० १२०) *लय-पंखी गुणरसियो श०२,उ०१, ढा०३५ २१७ Jain Education Interational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ६. मनुष्य मरी ने मनुष्य हवं तिर्यच मरीने तिच कह्यो तसुं कर्म निदाने संच ॥ तद्भव-मरण १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. सोरठा तद्भव मरण सुजोय, तिरिक्ख मनुष्य नैं इज हुवे । अन्य गति में नहि होय, न्याय विचारी लीजिये ॥ कषाय से गिरि थी मरे, वृक्ष थी पड़ी पाणी माहे पेसी मरे, अग्नि प्रवेश कषाय थी विष खाय नैं, मरे शस्त्रे करि ताय । चोकही बस पासी लिये गिद्ध पंखी में सवाय ॥ भरत । करत ॥ सोरठा गृध्र-स्पृष्ट आयात पक्षी विशेष गृध । तथा गुद्ध फुन जात, मंग-सुधस्थालादि करि ।। स्पृष्ट-विदारित देह, गज खर करनादिक त तनु अंतर से गृध-स्पृष्टज मरण ते । द्वादशविध एख्यात, उपलक्षण थी अन्य कर । मरेकरी निज घात, द्वादश अंतर ते पिण ।। मुख्य थकी ए बार, वाल-मरण आख्या अच्छे । पूरण आदि विचार, तेहनों कथन नहीं रहा। *ए द्वादशविध बालमरण छै तिण कर मरतो जंत । भव अनंत नारकी तणां आत्म संघात जोडत ॥ तिर्यच मनु सुर भव बलि जेह अनादि अनंत | चिहुं गति रूप संसार में ते अरण्य विषै भमंत || वा० - इहां कह्यो ए बारे प्रकार नां बाल-मरण करिकै नारकी नां अनंता भवग्रहण आत्म संघात जोड़े, अन तिर्यंच, मनुष्य, देव चिहुं गति रूप संसार- कांतार में भ । जे सत्य सहित अग्नि जलादिक में पेसी मरे, ए सावज्ज कार्य थी सुभमनुष्यायु नै देवायुए पुन्य प्रकृति बंधे नहीं, ते सावज्ज कार्य स्यूं तो पापईज बंधै । अन इहां कह्यो - अनादि अनंत व्यार गतिरूप संसार कांतार में भम, ते भ्रमण नीं अपेक्षाय च्यार गति कही । २१८ भगवती जोड़ इहां कोइ कहै ते च्यार गति में तो शुभ मनुष्यायु, देवायु पिण आयो, जे अग्न्यादिक में पैसी मरे ते सावज्ज कार्य थकी शुभ आउखो बंध, इम कहै तेहनों उत्तरजे अग्न्यादिक में पैसी मरे ते एक भव में तो एक गति नो ईज आउखो बंधे, पिण एक भव में च्यार गति नो आउखो बंधे नहीं । अने इहां संसार कांतार नां वर्णन "लपंखी गुणरसियो ६. तब्भवमरणे तस्मै भवाय मनुष्यादेः मतो मनुष्यादावेव वापुषो ( वृ० प० १२० ) यन्मरणं तत्तद्भवमरणम् । १०. इदं च नरतिरश्चामेवेति । १२. पठ्ठे ( १०-१० १२० ) ११. गिरिपडणे तरुपडणे जलप्पवेसे जलणप्पवेसे । १२. १४. पनि गालादिभिः स्पृष्टस्य विदारितस्य करिकर भरासभादिवरीरान्तर्गतत्वेन वन्मरणं तद्वा पृष्ठ ा गृधैर्वा भक्षितस्य -- स्पृष्टस्य यत्तद्गृध्रस्पृष्टम् । ( वृ०० १२० ) १५. 'दुवालसविणं बालमरणेणं' ति उपलक्षणत्वादस्यान्येनापि बालमरणान्तःपातिना मरणेन म्रियमाण इति । ( वृ० प० १२० ) १७, १८. इच्चेतेणं दया ! दुवालसविणं बालमरणेणं मरमाणे जीये अणतेहि नरइयभवरगहणेहि अप्पाणं संजोएइ, अहि तरिहि अप्पा जोड ि मणुभयहर्णेहि भयाण सत्रोड, अहि ग्रहणेहि अप्पाणं संजोएइ, अणाइयं च णं अणवदग्गं चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियदृइ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अनादि अनंत च्या गति नो नाम का ते माटै भ्रमण नीं अपेक्षाय जाणवो । अन अतिचार शल्य सहित मरी कोयक देवता हुवै, ते अतिचार दोष-रूप शल्य थी देवता न हुवै और गुणा सूं देवता हुवै । तिम अग्नि जलादिक में पैंसी मरै ते पिण और शीलादिक गुण सूं देवता हुवै, पिण ते सावज्ज कार्य सूं देवता न हुवै । कोइ कहै अग्नि आदिक में पैसी मरं ते कष्ट थी देवता हुवै। तेह्नों उत्तरते तो आगला भव में अशुभ कर्म बांध्या ते उदै आया भोगवे छे, पिण ए जीव री हिंसा रूप सावज्ज कार्य ते निर्जरारी करणी नहीं । एहथी पुन्य पिण बंधे नहीं । इम सावज्ज कार्य नां कष्ट थी पुन्य बंधे तो नीलो घास काटतां कष्ट हुवै। संग्राम में मिनखां नै खड्गादिक थी भारतां हाथ ठंठ हुवै, कष्ट हुवै। मोटा अणाचार सेवतां, शीतकाल में प्रभाते स्नान करतां पिण कष्ट हुवै, तिण रैं लेख एह थी पिण पुन्य बंधे ते माटै ए सावज्ज करणी थी पुन्य बंधे नहीं । अनैं जे जीव - हिंसा रहित कार्य - शीतकाल में शीत खमैं, उष्णकाल में सूर्य नीं आतापना लेवें, भूख तृषादिकखमैं, निर्जरा अर्थ ते सकाम निर्जरा छ, तिण री केवली आज्ञा देवै, तेहथी पुन्य बंधे । अनै बिना मन भूख तृपा शीत तावड़ादि खम, बिना मन ब्रह्मचर्य पाल, ते निर्जरा रा परिणाम बिना तपस्यादिक करें, ते पिण अकाम निर्जरा आज्ञा मांहि है । तथा पूजा श्लाघा र अर्थ तपस्यादिक करें ते पिण अकाम निर्जरा छै। ए पूजा श्लाघा नी वंछा आज्ञा मांहि नथी, निर्जरा पिण नहीं हुवै ते वांछा थी, पुन्य पिण नहीं बंधे। अने जे तपस्या करें, भूख तृषा खमैं इण में जीव री घात नथी ते माटै ए तपस्या आज्ञा मांहि है। निर्जरा रो अर्थी थको न करें तिण सं अकाम निर्जरा है । एह थकी पिण पुन्य बंधे छै । पिण आज्ञा बारला कार्य थी पुन्य बंधे नथी । (ज० स० ) १६. २१. २२. वा०-- भृशं ते अतिहि बधाव इहां सूत्रे 'वड्ढती वड्ढती' वे वार कह्यो ते अति ही वृद्धि नै अर्थ २०. २३. ए मरणे मरतो तो संसार वृद्धि करे घणी २४. बती बढती ख्यात । तिण सूं द्विवच आत ।। बाल-मरण ए आखियो अतिहि बधारे संसार । ते माटे मुख्य जाणवा बाल-मरण ए बार || से किं तं ? अर्थ एहनू से कहितां अथ जाण । किं कहितां स्यूतं तिक पंडित मरण पिछाण ।। पंडित मरण द्विविध का पाओवगमन उदार दूजो भत्तपचखाण छे ए बिहुं अणसण सार ।। अथ पावोवगमन ते कवण छै ? तेहना दोय प्रकार । निहारिम करें ब्राम में अनिहारिमते उजार ।। नियमा अपनिकम्म किन कहनी सार त्याग च्याखंड आहार ना पाओवगमन मझार ॥ - १६. सेत्तं मरमाणे वड्ढइ-वड्ढइ । 'वड्ढइ वड्ढइ' त्ति संसारवर्द्धनेन भृशं वर्द्धते जीवः, इदं हि द्विर्वचनं भृशार्थे इति । ( वृ० प० १२० ) २०. सेत्तं बालमरणे । २१. से किं तं पंडियमरणे ? (म० २४४९) " २२. पंडिमरणे द्रविहे पण तं जहा प भत्तपच्चक्खाणे य । २३. से किं तं पाओवगमणे ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-नीहारिमेय अनीहारिमेय । २४. नियमा अप्पsिकम्मे । सेत्तं पाओवगमणे । इदं च चतुविधाहारपरिहारनिष्यन्नमेव भवति । (१००० १२० ) ०२, उ० १, ढा० ३५ २१६ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. अथ भतपचखाण ते कवण ? तेहनां दोय प्रकार । निहारिम ग्रामादिक विषै अनिहारिम करै उजार ।। वाo----निहरण ते निकासवै करी नीपनो जे मरण ते निहारिम कहिये । ग्रामादिक नै विषे जे मरै तेह. ए कलेवर नां निकासवा थकी, अन जे अटवी नै विष मरै ते अनिहारिम कहिये। नियमा सप्पडिकम्म छै तिको तनु नी सार करत। भतपचखाण मरण तणो आख्यो ए विरतंत ।। २५. से कि तं भत्तपच्चक्खाणे? भत्तपच्चक्खाणे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा—नीहारिमे य, अनीहारिमे य। वा०—निर्हारेण निर्वृत्तं यत्तन्निर्हारिमं प्रतिश्रये यो म्रियते तस्यतत्, तत्कडेवरस्य निरिणात् । अनिएरिम तु योऽटव्यां म्रियते इति। (वृ०-५० १२०) २६. नियमा सपडिकम्मे। सेत्तं भत्तपच्चक्खाणे। सोरठा २७. अन्य सूत्र रै माय, पंडित - मरणज त्रिविधे। पाओवगमन सुहाय, इंगित भतपचखाण फुन ।। इंगित - मरणज तेह, विशेष भतपचखाण नों। तिण कारण थी जेह, तृतिय भेद न कह्यो इहां ।। २८. २८. यच्चान्यत्रह स्थाने इंगितमरणमभिधीयते तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेष इति नेह भेदेन दशितमिति । (वृ०-प० १२०) २६. मुख्य थकी ए ख्यात, द्वि प्रकार पंडित-मरण । अण सण विण मुनि जात, मरै तिको न कह्य इहां ।। ३०. सर्वानुभूति साध, सुनक्षत्र मुनिवर बलि । पाम्या पद आराध, अणसण विण पंडित-मरण ।। ३१. वली अन्य मुनिराय, संथारा विण जे मरै। ते पंडित - मरण सुहाय, तेहनों कथन इहां नथी ।। (ज० स०) ३२. *ए द्विविध पंडित-मरण करी मरतो जीव सनूर। अनंत नरक नां भव थकी करै आत्म नै दूर ।। जाव संसार अतिक्रमै ए मरण मरतो थको जीव । संसार घटाव ते आखियो ए पंडित-मरण कहीव ।। ३४. हे खंधक ! ए द्विविध करी, मरतो थको जीव जाण । वद्धि कर संसार नी बले करै संसार नी हाण ।। खंधक सूण प्रतिबोधियो करि वंदणा नमस्कार । श्रमण भगवंत महावीर नै एम कहै सुविचार ।। ३६. सुणवो वांछं तुझ पै प्रभु जिन-भाषित धर्म जेह। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह ।। ३२, ३३. इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणतेहि नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं विसंजोएइ जाव वीईवयइ। सेत्तं मरमाण हाय-हायइ। सेत्तं पंडियमरणे। ३४. इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढइ वा, हायइ वा। (श० २।४६) ३५. एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयं वयासी३६. इच्छामि णं भंते। तुभं अंतिए केवलिपण्ण धम्म निसामित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया। मा पडिबंध। (श० २।५०) ३७. तए णं समणे भगवं महाबीरे खंदयस्स कच्चायणसगो त्तस्स, तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्म परिक A ३७. श्रमण भगवंत महावीर जी खंधक नै तिणवार । महा मोटी परषद विषै धर्म कहै हितकार ।। लय-पंखी गुणरसियो २२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. धम्मकहा भाणियव्वा। (श० २।५१) ३८. धर्म कथा भणवी इहां उबवाई रै माय। एह तणो विस्तार छ तेम इहां कहिवाय ।। ३६. *देवै श्री जिन देशना, अमृतवाणी ऐन, सयाणा! आर्य अनारज सांभली, चित मे पामें चैन, सयाणा! ४०. गीतक-छंद चित मांहि चैन अत्यंत पामैं, शरद नव घन सारखो। गभीर मधुर कोंच दुंदुभि, पवर रव स्वर पारखो।। भाषा भली अधमागधी, फुन वाणि योजन गामिनी। पणतीस गुण करि परवरी, भव्य सर्व नै हित-कामिनी।। ४२-४७. जह जीवा बझंती मुच्चती जह य संकिलिस्संती। जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा॥ अट्टनियट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडिति ॥ (वृ०-५० १२१) यतनी ४२. हितकार सर्व नै होय, जिन वाण परूपी जोय । जिम कर्म थी जीव बंधावै, तिकै कारण प्रति ओलखावै ।। ४३. बलि जेह उपाय करेह, जीव कर्म थकी मूकावेह । तसु कारण आप बताव, भिन भिन करिने दर्शावै ।। ४४. एह जीव संसार रै माय, जिम क्लेश दुःख अति पाय । तिका सावज करणी असार, जिका ओलखावै जगतार ।। जिम सर्व दुःख नो अंत, केइ जीव करै मतिवंत । जिका दूर किया मोह-जाल, चित आतध्यान थी टालै ।। ४६. जे आतध्यान थी नहि निवर्तत, आत्त-अनुगत चित अति हुंत। भव-सागर जेम भमंत, तेह कारण कहै भगवंत ।। ४७. जिम वैराग्य भावज पाया, राग-द्वेष नी लैर मिटाया। तिके कर्म डाबडो उघाडै, झट कर्म आठंड झाडै ।। ४८. पंच महाव्रत साधु नां सार, बलि श्रावक नां व्रत बार। ए द्विविध धर्म उदार, आराध्यां सुध गति सुखकार ।। ४६. .इत्यादिक उपदेश दियो जिन जी जानी, सरस संवेग विशेष परम पद नी सानी। नी सानी जी, उचरंग आनी, सुण हिय परिषदा हुलसानी, ऐ तो जयवंता जिनराज प्रभू नी वर बानी ।। 'खंधक तब प्रभुजी कनै धम सुणी हिय धार। हरप संतोष जावत् बली विकसित हृदय उदार ।। ५०. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे जाव हियए। *लय-तारा हो प्रत्यक्ष •लय—धिन-धिन भिक्षु स्वाम 'लय-पंखी गुणरसियो श०२, उ०१, ढा०३५ २२१ Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल भली पैंतीसमी भिक्ष भारीमाल ऋपराय। 'जय-जश' संपति साहिवी आनंद तास पसाय ।। ढाल : ३६ दूहा हिव खंधक ऊठी करी, वीर प्रते तिणवार । दक्षिण करे प्रदक्षिणा, दै वच वदै उदार ।। निग्रंथ-प्रवचन हे प्रभ ! श्रध्या' म्हैं सुखकार। प्रतीतिया म्है प्रीति करि, प्रत्यय वा सत्य सार । निग्रंथ प्रवचन बलि रुच्या, हूं करसं अंगीकार। एवमेयं इमहीज ए, सामान्य थी सुविचार ।। १. उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी२. सहामि णं भंते ! निगंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, प्रीति प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवं रूपं तत्र करोमीत्यर्थः । (वृ०-प० १२१) ३. रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते ! एवमेतन्नैर्ग्रन्थं प्रवचनं सामान्यतः। (वृ०-५०१२१) ४. तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! 'तहमेयं' ति तथैव तद्विशेषतः 'अवितहमेयं' सत्यमेतदित्यर्थः। (वृ०-प०१२१) ५. असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते! 'असंदिद्धमेयं' ति सन्देहजितमेतत् 'इच्छियमेयं' ति इष्टमेतत् 'पडिच्छियमेयं ति प्रतीप्सितं प्राप्तमिष्टम् । (वृ०-प० १२१) ६. इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! युगपदिच्छाप्रतीप्साविषयत्वात्। (वृ०-१० १२१) तहमेयं तिमहिज ए, विशेष थी कहिवाय । अवितह-ते सत्य ए, प्रवचन सूत्र सुहाय ।। असंदिद्ध संशय-रहित, हे प्रभु ! ए तुझ वाय । इच्छिय वांछ पडिच्छियं-पामवं वांछू ताय ।। इच्छिय-पडिच्छियं तसु अर्थ ए युगपत् समकाल। इच्छा बलि पामण तणी वांछा विषय निहाल ।। १. भगवती २।५२ का पाठ है सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोएमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं व्याकरण की दृष्टि से ये वर्तमान काल के उत्तम पुरुष में एक वचन के रूप हैं। टीकाकार ने भी वर्तमान काल के आधार पर ही टीका की है। जयाचार्य ने अपनी जोड़ में यहां भूतकाल का प्रयोग किया है। मूल के साथ यह विसंगति-सी प्रतीत होती है, किन्तु व्याकरण-शास्त्र के अनुसार वर्तमान काल में आसन्नभूत का और आसन्नभूत में वर्तमान का प्रयोग असम्मत नहीं है। जयाचार्य ने यहां वर्तमान में आसन्नभूत का प्रयोग किया है। २२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे तुम भाषी वारता, म्है धारी ओछाहि । एवमेय इत्यादि वा, एकार्थे वृत्ति मांहि ।। इम कहि जिन वदो करी, नमस्कार कर तंत। जइ ईशाणे निज उपधि, त्रिदंड आदि तजंत ।। ७. से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु। 'एवमेयं भंते !' इत्यादीनि पदानि यथायोगमेकार्थानि । (वृ०-प० १२१) ८. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंडं च कंडियं च जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, ६. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता जाव नमंसित्ता एवं वयासी (श० २।५२) वीर समीप आय नै, प्रदक्षिणा त्रिण वार । नमस्कार वनणा करी, इम दोल्यो गुणधार ।। *प्रभु ! अरज करूं छू बीनती। (ध्रुपदं) १०. प्रभु ! आलित्तण अभिविधि करी, ए तो जल रह्या जीव-लोय । प्रभ ! पलितेणं अतिहि जलै, बलि आलित्त पलित्त जोय ।। ११. जरा अन मरणे करी, जीव लोक जलै जग ताहि। जिम दृष्टांत कोइ गाथापती, तिण रै अग्नि लागी घर मांहि ।। १२. घर में भंड वस्तु हुवै, अल्प न्हानी तिका छै सार। बस्तु बहुमोली ग्रही आत्मना, जावै एकांत स्थान तिवार ।। १३. ए मुझ वस्तु काढ्यै छतै, पच्छा पुरा हियाए होय । इहलोक माहै होवै हित भणी, पेच्चा पाठ कह्यो नहिं कोय ।। १४. सुहाए ते सुख अर्थे हुवै, खमाए क्षम समर्थ काज । सुख जथ हुव, खमाए क्षम समथ काज। निस्सेसाए कल्याण अर्थे हुवे, दालिद्र मुकायव साज।। १५. जिहां जावं त्यां आवणहारी हुसै, ते पिण इह भव आश्री जोय। विवक्षित काल थी पच्छा-पुरा इह भव में सर्वदा होय ।। १०. आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्त पलिते णं भंते ! लोए। 'आलित्तणं' ति अभिविधिना ज्वलितः 'लोए' त्ति जीव लोकः 'पलित्तणं' ति प्रकर्षेण ज्वलितः । ११, १२. जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ। १३. एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए। १४. सुहाए खमाए निस्सेयसाए। १५. आणुगामियत्ताए भविस्सइ । 'पच्छापुरा य' त्ति विवक्षितकालस्य पश्चात् पूर्व च सर्वदैवेत्यर्थः। (वृ०-५० १२२) १६. एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया एगे भंडे इ8 कते। १७. पिए मणुण्णे मणामे १६. इण दृष्टांते हे देवानुप्रिया ! मुझ आत्म तिको इक भंड। इठे ते इष्ट वल्लभ अछ, कते अभिलाष जोग्य अखंड ।। १७. सदा प्रेयविषयपणा थी बली, प्रिय छै मुझ आतम एह। मनोज्ञ मनगमती भली, मणामे अति गमती कहेह ।। १८. थेग्जे-स्थैर्य-धर्म योग थी, तथा उववाई नी वृत्ति माहि। अस्थिर आत्मा पिण मुढ़ जे स्थिर भाव जाणै छै ताहि ॥ १६. वेस्सासिए कहिता बलि, विश्वास प्रयोजन तास। बहुलपणे करी पर-तनु तिको, अविश्वास हेतु विमास ।। २०. संमए तत्कृत कार्य ना, संमतपणा थी एह। बहुवार बहुजन मान्य ह्व, तिण बहुमत कहिए तेह ।। १८. थेज्जे स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः । (वृ०-५०१२२) १६. वेस्सासिए वैश्वासिको विश्वासप्रयोजनत्वात्। (व०प०१२२) २०. सम्मए बहुमए संमतस्तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् 'बहमतः' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशाद्वरिति वा मतो बहुमतः । (वृ०-प० १२२) *लय—मेरी तंबी देवोनी हो सेठजी श०२, उ०१, ढा०३६ २२३ Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. पोते अनिष्ट कार्य कीधो तो पिण, पछै मत-सम्मत मानेह | निज आत्म प्रति वोसिरावे नहीं, अणुमए नो अर्थ छै एह ॥ २२. भंड करंड सम वली, आभरण करंडिया समान । आदरवा जोग्य पणा थकी, मुझ आत्मा ए सुविधान || २३. 'माणं सीयं" रखे फर्शो शीत ने, णं शब्द अथवा मानं आत्म प्रतै फर्श, शीत नों वाक्यालंकार । कष्ट अपार || २४. र उष्ण क्षुधा तिरखा बलि रखे चोर सर्प 1 दंस मसक वातिक पैतिक श्लेष्मिक सान्निपातिक २५. विविध रोग दीर्घकालिका जिका शीघ्रघाती रोग परिसह उपसर्ग हुवै हुबै रखें इम पाली आतम फर्शत | होवंत || आतंक | अवंक] ॥ २६. भावे लाय थकी मुझ आतमा, बारे कायँ छतै हित सुख खम मोक्ष कल्याण है, फल साथै आसी २७. तिण सूं वा छू देवानुप्रिया ! स्वयमेव प्रव्रज्या रजोहरणादि वेस देवं करी, मुंड स्वयमेव लोच करेह ॥ परलोग | प्रयोग || देह | २८. सेहावियं पडिलेहणादिक क्रिया, स्वयमेव करावो ग्रहण | सुवार्थ स्वयमेव सीखावियै, इम बोलै खधक वयण || २६. स्वयमेव आचार सीखाविर्य श्रुत ज्ञानादि विषय अनुष्ठान | काले भणवी इत्यादि सीखो, गोचर-भिक्षा अटन रूप जान || ३०. तथा विनय रूप जे धर्म ने विनयफल ते कर्म क्षय होय । चरण पंच महाव्रत आदि दे, करण उत्तर गुण अवलोय ॥ ३१. जाया कहिल जात्रा संजम ती मात्रा ति अर्थ ले आहार | विनयादिक में विषे वर्तवो, सुणयो वा ते धर्मउदार ॥ १. 'माणं शीतं स्पृशतु' इस पाठ की टीकाकार ने दो प्रकार से व्याख्या की है। दूसरी प्रकार से व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है-मा एनं आत्मानं शीतं स्पृशतु । जयाचार्य ने दोनों व्याख्याओं के आधार पर जोड़ की रचना की है । २२४ भगवती जोड़ २१. अणुमए 'अनुमतः अनुविप्रियकरणस्य पश्चादपि मतोऽनु( वृ०० १२२) मतः । २२. भंडकरंडगसमाणे भाण्डकरण्डकम् - आभरणभाजन तत्समान आदेयत्वादिति । (१०० १२२) २३. मा णं सीयं माशब्दो निषेधार्थः णमिति वाक्यालङ्कारार्थः इह च स्पृशत्विति यथायोगं योजनीयम्, अथवा मा एनमात्मानमिति व्याख्येयं । ( वृ०० १२२) २४, २५. माणं उन्हं, मा णं खुहा, माणं पिवासा, माणं चोरा, माणं वाला, मा णं दंसा, माणं मसया, माणं वाइय-पत्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायंका पहोवा तु कि रोगा:- कालसहा व्याधयः आतङ्कास्त एव सद्यो घा तिनः । ( वृ० प० १२२) २६. एस मे नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसा आणुगामिता भविस २७. तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सयमेव पव्वाविय, सयमेत्र मुंडावियं, स्वयमेव भगवत्यर्थः वाजितं रोहरणादिवाने नात्मानमिति गम्यते मुि 7 (१००० १२२) २८. सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं, मेति सूत्रार्थग्राहणतः । २६. सयमेव आयार-गोयरं प्रत्युपेक्षणाविनिक्षितं ( वृ० प० १२२) तथाऽऽचारः श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि, गोचरो - भिक्षाटनम् । ३०. विषय वेणइय चरण करण ( वृ००० १२२) विनयः प्रतीतो वैनयिकं तत्फलं कर्मक्षयादि, चरणं-व्रतादि, करणं-पिण्डविशुद्धयादि । ( वृ० प० १२२) ३१. जायामायावत्तियं धम्मसाइक्खियं । (श० २१५२) यात्रा - संयमयात्रा माथा तदर्थमेवाहारमात्रा, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः - वर्त्तनं यत्रासौ विनयवनविकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं धर्मम् । ( वृ० प० १२२) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर प्रभु खंधक प्रति सीखवै। (ध्रुपदं) ३२. जब वीर प्रभ खंधक भणी, स्वयमेव प्रव्रज्या दिद्ध। जाव धर्म कहै रूड़ी रीत सूं, प्रभु वचन बदै सुप्रसिद्ध ।। ३३. इम चालवू हे देवानुप्रिया ! युग मात्र भूमि दृष्टि थाप। ते पिण जयणा सहित रुड़ी रीतसं, इम कहै जिनेश्वर आप ।। ३४. निक्खमण प्रवेशादि रहित स्थानके, पेखी पूजी रूड़ी रीत। संजम, आत्म, प्रवचन बाधा नहिं हुवै, इम ऊभो रहिवू जयणां सहीत ।। ३२. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोतं सयमेव पब्वावेइ जाव धम्ममाइक्खइ३३. एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, ३५. पहिला चक्षु थकी मही देखने, कर नैं संडासै कर ताय।। या सावधानपणे प्रमार्जन करी, इम वेसवू तुझ मुनिराय ! ३६. इम जयणां सहीत बलि सूयवं, इम भोगवि तज स्वाद। दोष धुम्र अंगारादि टालन, इम बोलवं मित मधुराद ।।। ३४. एवं चिठ्यिव्वं, निष्क्रमणप्रवेशादिवजिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधा परिहारेणोर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्। (वृ०-५० १२२) ३५. एवं निसीइयवं, उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः । (वृ०-५० १२२) ३६. एवं तुट्टियब्वं, एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं, ‘एवं भुंजियव्वं' ति धूमांगारादिदोषवर्जनतः ‘एवं भासियवं' ति मधुरादिविशेषणोपपन्नतयेति। (वृ०-प०१२२) ३७. एवं उट्ठाय-उट्ठाय पाहि भएहि जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमियब्वं, प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य-विबुद्ध्य प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यं--यतितव्यं । (वृ०-प० १२२) ३८, अस्सिं च णं अट्ठे णो किचि वि पमाइयव्वं । (श० २।५३) ३७. इम प्रमाद निद्रा छांडन, विबुध्य-विबुध्य जागी-जागी ताय। प्राण भूत जीव सत्त्व नै विपै, संजम करि यत्न करिव सवाय ।। 35. एह अर्थ संजम तेह. विप, किचित् समय मात्र पिण ताय। प्रमाद न कर सर्वथा, इम भाषै श्री जिन राय ।। धन्य-धन्य खंधक मोटो मुनि । (ध्रुपदं) ३६. खंधक कात्यायनगोत्री तदा, श्रमण भगवंत महावीर पाहि। इम पूर्वोक्त धर्म उपदेश नै, सम्यक् पडिव आणी ओछाहि।। ४०. वीर आज्ञा करीनै चालतो, ऊभो रहै वेसै सूर्व आण । बलि भोजन आज्ञा सू करै, आज्ञा स् वोले निरवद वाण ॥ ४१. तिम प्रमाद रूप निद्रा तजी, विबुध्य-विबुध्य जागी-जागी ताय। प्राण भूत जीव सत्त्व नै विष, संजम करि करै यत्न सवाय ।। ३६. तए णं से खदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएस सम्मं संपडि वज्जइ४०. तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, ४१. तह उट्ठाय-उट्ठाय पाणेहि भूएहि जीवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च णं अट्ठे णो पमायइ। (श० २।५४) ४२. ढाल भली छतीसमी, खंधक लीधो चरण स्खदाय । भिवख भारीमाल ऋपराय थी, सुख-संपति 'जय-जश' पाय॥ श०२, उ०१, ढा०३६ २२५ Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३७ दूहा कात्यायनगोत्री खंधक थयो तदा अणगार । पंच-समित मन-वच-तनु-समित गुप्ति निहु सार ।। १. नए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते.--- इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंधाणजल्ल-पारिट्ठावणियासमिए मणसमिए वइसमिए काय समिए मण गुते वइगुत्ते कायगुत्ते २. ईर्यायां---गमन समितः, सम्यक्प्रवृत्तत्वरूपं हि समितत्वम्। (वृ०-५० १२२) ईर्या-गमन विष मुनि, सम् सम्यक् प्रकार । इत कहितां जे प्रवत, ईर्या-समित उदार ।। भाषा-समित विचार नै, वदै वचन सुखदाय । बलि एपणा नै विषे, सम्यक् प्रवृत्ति ताय ।। आदान ग्रहण करी सहित, भंड मात्र ए मंत । उपकरणज-परिच्छद भणी, निवखेवणा मूकंत ।। तेह विर्ष शुध प्रवत, कहियै ए आदान । भंडमत्तनिक्षेपणा , समिति चतुर्थी जान ।। ४, ५. आदानेन --ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया-उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा-न्यासस्तस्यां समितो यः स (वृ०-५० १२२) तथा। गीतक छंद बड़ि नीत नै लघ नीत फुन जे, खेल-वलखो मुख तणो। संघाण श्लेषम नाक नं, जल्ल-मैल ए तनू नो गिणो ।। उच्चार नै पासवण फुन जे, खेल नैं संघाण ही। जल्ल परिठवा में सुध प्रवृत्ति, समित तेह सुजाण ही ।। ६. 'खेल' त्ति कण्ठमुख श्लेष्मा सिंघानकं च-नासिकाएलेष्मा। (वृ०-५० १२२) ८. मणसमिए' ति संगतमनः प्रवृत्तिकः । (वृ०-५० १२२) ६. मणगुत्ते' नि मनोनिरोधवान् । (वृ०-प० १२२) शुद्ध मन जसु प्रवर्तं, ते मन-समित पिछान । निपाप वचनज वागरे, वचन-समित ते जान ।। निपाप काया प्रवत, काय-समित कहिवाय । अशुभज मन प्रति गोपव, मनोगुप्त सुखदाय ।। अशुभ वचन प्रति गोपवै, वचन-गुप्त विख्यात । अशुभ काय प्रति गोपवे, काय-गप्त अखियात ।। मनोगप्तत्वादिक तणों, निगमन वच हिव आय । गत्ते कहितां गुप्त है, विहं गुप्त इह माय ।। एहिज विशेषण अर्थ हिव, आगल कहिये जेह। गत्तिदिए-इंद्रिय तणी, विपय गोपवी तेह ।। गप्त बंभयारो वलि, गुप्तियुक्त ब्रह्म सार। तेह प्रतै मुनि आचरै, खंधक गुण-भंडार ।। ११. गुत्ते मनोगुप्तत्वादीनां निगमनम्। १२. गुत्तिदिए (वृ०-५० १२२) १३. गुत्तबंभयारी गुप्तं -ब्रह्मागुप्तियुक्तं ब्रह्म चरति यः स तथा। (वृ०-प० १२२) २२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक-छंद १४. फून संग नै तजवै करी, मुनि पवर त्यागी छै सही। रिषि लज्जु संयमवान् अथवा, रज्जु जेम अवक ही। १५. दर धर्म धन पामी करी, जग मांहि धन्य कहावही। वच खमैं जे क्षमता करी, पिण न तु असमत्थ-भाव ही ।। १४. चाई लज्जू 'चाइ' त्ति संगत्यागवान् 'लज्जु' त्ति संयमवान्, रज्जुरिव वा रज्जुः-अवक्रव्यवहारः। (वृ०-प० १२२) १५. धन्ने खंतिखमे धन्यो-धर्मधनलब्धेत्यर्थः, क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्तिक्षमः। (वृ०-५० १२२) जितेंद्रिय इंद्रिय तणां, विकार तणु अभाव । नहीं विकार इंद्रिय तणु, ए उत्तम गुण साव ।। पूर्वे गुप्तेंद्रिय का, इंद्रिय - जन्य विकार। गोपन मात्र थको हुवे, ए अविकार विचार ।। १६. जिइंदिए 'जितेन्द्रियः' इन्द्रियविकाराभावात्। (वृ०-५० १२२) १७. यच्च प्राग्गुप्तेन्द्रिय इत्युक्तं तदिन्द्रियविकारगोपनमात्रे णापि स्यादिति विशेषः। (वृ०-प० १२२) गीतक-छंद १८. रव सोहिए तसं अर्थ त्रिण, शोभितो शोभावान ही। अतिचार मैं तजव करी, वा शोधितो गुणखान ही।। १६. फुन सर्व प्राणी विषै मैत्री, वर सखर समभाव ही। तसुं योग थी सौहृद करा, ए तृतिय अर्थ कहाव ही। २०. अनियाण-तेह निदान पुद्गल-सूख तणी वांछा नहीं। फुन अल्प उत्सुक ते उतावलपणां रहित मुनी सही।। २१. फुन चरण थी नहि बहिलेश्या-मनोवृत्ति मुनी तणी। सूध श्रमणभावे रक्त वा अति रक्त चरण रुचि घणी ।। १८, १६. सोहिए शोभितः शोभावान् शोधितो वा निराकृतातिचारत्वात् सौहृदं-मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहृदो वा। (वृ०-५० १२२, १२३) २०. अनियाणे अप्पुस्सुए 'अणियाण' त्ति प्रार्थनारहितः 'अप्पुस्सुए' त्ति 'अल्पौत्सुक्यः' त्वरारहितः। (वृ०-५० १२३)) २१. अबहिल्लेसे सुसामण्णरए अविद्यमाना बहिः-संयमाद्बहिस्ताल्लेश्या-मनोवत्तिर्यस्यासावबहिर्लेश्यः, शोभने थमणत्वे रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः। (वृ०-५० १२३) २२. दंते दान्तः क्रोधादिदमनात्, दृयन्तो वा रागद्वेषयोरन्तार्थ प्रवृत्तत्वात्। (वृ०-प० १२३) २३. इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ। (श० २।५५) २२. रव दंत ना बे अर्थ-क्रोधादिक दमन थी दंत ही। अथ राग-द्वप यान्त-करण-प्रवृत्त कहिये द्वचन्त हो। २३. सुध एह वर निग्रंथ प्रवचन, तेह प्रति आगल करी। विचरै भूनी गुण-सागरू, संवेग अति चित आदरी ।। २४. २५. दहा महावीर भगवन् श्रमण, कयंगला थी ताम। छत्रपलास उद्यान थी निकले निकली स्वाम ।। बाहिर जनपद देश में, विहार करी विचरंत। हिव खंधक अणगार ते, सीख सूत्र - सिद्धत ।। तथारूप जे वीर नां, स्थविर समीप सार । सामायिक नैं आदि दे, भणिया अंग इग्यार ।। २४-२६. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० २०५६) तए णं से खदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, २६. श०२, उ०१, ढा०३७ २२७ Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. २८. २६ ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. वा० सूत्रे का इग्यारे अंग भण्या, इहां कोइ कहै इग्यार अंग भण्या इण वचने करी खंधक चरित्र पहिलाहीज इग्यारं अंग नी निष्पत्ति संभावियै छै । पंचमा अंग अंतर्भूत एबंधक चरित हुवे इस किस प्रकार करके विरोध नथी? एहनों उत्तर कहै छै - श्रीमन् महावीर स्वामी ना तीर्थ नैं विषे ११ गणधर नी नव वाचना । सातमा आठमा गणधर नी एक वाचना। नवमा दशमा गणधर नी एक वाचना । अन ते सर्व वाचना नैं विषै खंधक चरित थकी पूर्व काल नें विषै बंधक चरित नै विष कह्या जे अर्थ, तिके अर्थ अन्य मुनि ना नाम करिकै परूपियै । अन बंधक चरित्र नी उत्पत्ति हुयां पछै सुधर्मं स्वामी जंबू नामै स्व शिष्य प्रत अंगीकार करीन ए अधिकृत वाचना नै विषै बंधक चरित नै हीज आश्रयी नै ते अर्थ नी परूपणा कीधी, इम विरोध नथी । अथवा और प्रकार करिकै हुवै ते पिण ज्ञानी जाण । २२८ हा ग्यारा अंग भणी करी, ज्यां प्रभु छै त्यां आय । नमस्कार वंदन करी, बोले एहवी वाय || • धिन धिन धक महामुनि जी कांइ, श्रमण- सिरोमण सार ॥ ध्रुपदं । एक मास नी भिक्खू पडिमा प्रत जी, प्रभु तुम आज्ञा थी सार । अंगीकार करीनें विचरवो जी कांइ, हूं वंछू इहवार जी कांइ ॥ अहासुह देवानुप्रिया प्रतिबंध म करो लिगार । वीर तणी आज्ञा हवां, हरप सहित अंगीकार || बंधक मुनि तिग अवसरे, भिक्षु-पडिमा सामान्यपणें सूत्रे कही, अणतिक्रमवै एक दात लै आहार नीं, पाणी नीं इक आचार है जिनकल्पी जिसो दमात पडिमा नां कल्प आचार नैं अणतिक्रमवै तथा प्रतिमा कल्प वस्तु प्रतं अणतिक्रमवै " तत्व अणअतिक्रम शब्दार्थ *लय म्हांरी साजी पांच पुत्र भगवती जोड मासीक संधीक || सार । ज्ञानादि मोक्ष मार्ग प्रतं अणअतिक्रम अथवा क्षयोपशम भाव में, अणअतिक्रमवै विचार || दात | आयात ॥ जाण । पिछाण || करी, तसुं भिक्षु-पडिमा मासीक । अणअतिक्रमवं तत्त्व अर्थ तहतीक ॥। 'एक्कारसगाई अनि ति इह कश्चिदागम्ब नेन स्कन्दकचरितात्प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते, गन्दरमिदमुपलभ्यते इति कथं न विरोधः ? उच्यते, श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनात सर्ववाचनासु स्कन्दकरितात्पूर्वका ये स्कन्धकारिताभिधेया अस्ति चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते, स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्पष्यकृत्याधितानायामस्यां द कचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः । (१०-१० १२४) २७. अहिज्जित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं बदासी २. गुण समाणे मासिय भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं वित्तिए । २६. अहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं । (०२१२७) तए णं से खंदए अणगारे समणेण भगवया महावीरेणं अण्णाए समाणे हट्ठे जाव नमसित्ता मासिय भिक्युपडिम उपसंपत्ति विरह (०२३५८) ३०. तए णं से खंदए अणगारे मासिय भिक्खुपडिमं अहासुतं 'अहासुतं ' ति सामान्यसूत्रानतिक्रमेण । ( वृ० प० १२४) ३२. अहाकम्प प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेण वा । (१००० १२४) ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा । (१०-१० १२४) ३४. अहातच्च यथातत्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिको भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलघनेनेत्यर्थः । (९०१० १२४) ३३. अहामगं Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहासम्म समभाव नै, अणअतिक्रमवै जोय । काय करि फर्श मुनि, पिण मनोरथ मात्र न होय ।। ३६. पालेद कहितां जाणवो जी, बार - बार उपयोग। तेणे करीनै सहित छ, पाल सावधान सुप्रयोग ।। ३७. सोभेद सोभाव पारण, कर गर्वादिक दत्त आहार । तथा सोधै अतिचार-पंक नै, प्रक्षालन थी सार ।। ३८. तीरेइ समाप्ति अर्थ में, तीर शब्द सुविचार । पूरण छतै तसु अवधि में, अल्प काल रहै सार ।। ३६. पूरण छत पिण महामुनि, प्रतिमा नी अवधि विषेह। तसं कार्य परिमाण पूरण थकी, पाठ पूरेइ कहेह ।। किट्रेड कहितां म्है कियो, पडिमा कार्य एह। अथवा ए कोधो बली, इम पारणक-दिन कीर्तेह ।। ३५. अहासम्म सम्म काएण फासेइ यथासाम्यं समभावानतिक्रमेण 'काएणं' ति न मनोरथमात्रण (वृ०-५० १२४) ३६. पालेइ असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात्। (वृ०-५० १२४) ३७. सोभेइ शोभयति पारणकदिने गुर्वादिदत्तशेषभोजनकरणात् शोधयति वाऽतिचारपङ्कक्षालनात्। (वृ०-५० १२४) ३८. तीरेइ पूर्णेऽपि तदवधौ स्तोककालावस्थानात् । (व०-५० १२४) ३६. पूरेइ पूर्णेऽपि तदवधौ तत्कृत्यपरिमाणपूरणात् । (वृ०-प० १२४, १२५) ४०. किट्टेइ कीर्तयति पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात्। (वृ०-५० १२५) ४१. अणुपालेइ आणाए आराहेइ, 'अणुपालेइ' त्ति तत्समाप्तौ तदनुमोदनात् । (वृ०-प० १२५) ४२. सम्मं काएण फासेत्ता जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ४३. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी४४. इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे दोमा सियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। ४५. अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तं चेव । (श० २।५६) ४६. एवं तेमासियं, चउम्मासियं, पंचमासियं, छम्मासियं, सत्त मासियं, ४७. पढमसत्तरातिदियं, दोच्चसत्तरातिदियं, तच्चसत्तराति अणपाले परिपूरण करी, अनुमोदै श्री जिन नी आज्ञा करी, आराधै मुनिराय । सुखदाय ॥ ४२. सम्यक् काया कर फरसणे, जाव आराधी एह। जिहां श्रमण भगवंत महावीर छ, तिहाँ आवै गुणगेह ।। ४३. आवै श्रमण भगवंत पै, आवी नै मुनिराय। जाद पंचांग नमाय नै, बोले इह विध वाय ।। ४४. दोय मास नी भिक्खू पडिमा प्रतै, तुम आज्ञा थी सार। अंगीकार करी नै विचरवो, हूं बछ गुणधार ।। अहाहं देवाणप्पिया ! प्रतिबंध म करो लिगार। तिणहिज विध आराधन, पहुंचावी मुनि पार ।। इम त्रैमासिक चउमासिकी, पंच मास, छ मास नी सार। सात मास नी सातमी, इक - इक दात वधार ।। आटमी सात अहोरात्र नी, नवमीं सप्त दिन-रात । दशमी सप्त अहोरात्रि नीं, ए तीन आख्यात ।। दियं, ४८. एतास्तिस्रोऽपि चतुर्थभक्तेनापानकेनेति, उत्तानकादिस्थानकृतस्तु विशेषः । (वृ०-५० १२५) सोरठा ४८. ए त्रिहं प्रतिमा मांहि, उदक रहित एकांत । उत्तानकादि ताहि, आसण विशेष जाणवू ।। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २०५६ में अहासम्म और सम्मं दो पाठ हैं और उसके पादटिप्पण में लिखा है-कुछ प्रतियों में सम्म पाठ नहीं है। जयाचार्य ने ऐसी ही किसी प्रति के आधार पर जोड की रचना की, इसलिए सम्मं पाठ की जोड उपलब्ध नहीं होती। श०२, उ०१,डा० ३७ २२६ Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. હું ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५६. *अहोराविनीं इवारमी, छठ भक्त चउविहार एक रात्रि नीं वारमी, अष्टम भक्त उदार ॥ २३० भिक्षु-पडिमा नीं विधि कही, दशाश्रुतबंध मझार । जिम सूत्रे कही तिण विधे, जाव आराधी सार ॥ सोरठा अंग धार, खंधक प्रति इम आखियो । बार ते पण तिण अंगीकरी ।। श्रुतवान, प्रतिमा ते अंगीकरै । ते जान, नवम पूर्व तृतीय वत्थु ॥ अवसोय, असंपूर्ण दश पूर्वधर । होय, तो संपक किम आदरी अपेक्षाय, पूर्व श्रुत नो नियम ए । ताय, धारयां दोष नहीं इहीं' || ( ज० स० ) *इम वारं भिक्षु-पदिमा वहीं, जहां प्रभु तिहां आय नमस्कार वंदना करी, वो छै हवी वाय || 'एकादश भिक्षु परिमा फुन विशेष जघन्य थकी उत्कृष्टो प्रतिमा धारक अन्य पुरुष जिन आज्ञा कर - गुणरत्न संच्छर तप भलो तुम आज्ञा थी सार अंगीकार करीने विच हूं वांछू जगतार ! अहाह देवानुप्रिया ! मकरो विलंब लिंगार इम प्रभु दीधी आगन्या, खंधक नै तिणवार ॥ बंधक मुनि ति अवसरे, जिन आज्ञा थयां सार । जाव पंचांग नमाय नं गुणरत्न संच्छर धार वा०- गुणरत्न- संवच्छर नुं अर्थ कहै छै – गुण - निर्जरा - विशेष तेह नौं रचिकरिवु, तीजा भाग सहित संवच्छर करिकै जे तप नै विष ते गुण-रचन-संवच्छर कहिये । अथवा गुण हीज रत्न जेहन विषे ते गुण रत्न, गुण-रत्न-संवच्छर जे तप नैं विषै ते गुण- रत्न संवच्छर तप, ए गुणरत्नसंवत्सर तप रूप कर्म नै स्वीकार करी में विचरा हो। प्रथम मास एकांतरे, अंतर रहित उदार । उत्थ उत्य सुखे का तप करि करि सार ॥ * लय- म्हांरी सासूजी रे पांच पुत्र । भगवती-जोड़ ४६. रातिदियं, एगरातियं । ( श० २२६० ) 'राइदिय' ति रात्रिन्दिवा एकादशी अहोरापरि माणा एवं पष्ठभक्तेन एगराइय' ति एकरात्रिकी, इयं चाष्टमेन भवतीति । ( वृ० प० १२५ ) ५०. तए णं से बंदए अणगारे एगरातियं भिक्खुपडिमं अहासुतं जाव ५५. आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी रय ५६. इच्छामि भंते! तुमेहि अन्नगुणाए समाणे गुणणसंबच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरितए । ५७. अहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं । (श० २२६१) ५८. तए णं से बंदए अणगारे समणेण भगवया महावीरेणं अब्भणुष्णाए समाणे हट्ठ-तुट्ठे जाव नमसित्ता गुणरथसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता गं विहरति । वा०---'गुण रयणसंयच्छर' नि गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं करणं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद् गुणरचनसंवत्सरं गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तद्गुणरत्नसंवत्सरं (१०० १२५) ५६. पढमं मासं चउत्थंच उत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं - तपः । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ६६. ७०. ७१. ७२. ७३. सोरठा चतुर्थ एह विचार, नाम का उपवास नुं । इम छठ आदि उदार, बेलादिक नुं नाम छै ॥ थाप । 7 * दिवस उकडू आसणं, सूर्य सनमुख आतापन-भूमी विषै आतापन ल आप || रात्री बीराण करें, वस्त्र रहित सुविचार। छठ-छठ वीजा मास में, पूरववत् सुप्रकार | इहा मिपासण ने ऊपर, बैसी ने नर पिग धरती ने दिये शखं पर्छ विषाण तल की परहो तिमहिज ते बैठो रहै, वीरासण * लय- म्हांरी सासूजी रे पांच पुत्र जेह । वेसेह ॥ ताय । कहिवाय || उदार । एवं गीजा पास में, अट्टम अठम चउथा मास विषै मुनि, दशम, दशम तप धार ॥ पंचम मा मुनि कियो, पंच पच तप पेख । छट्ठे मासे महामुनि, पट्, षट् तप सुविशेख || सातमा मास विषै वली, सात, सात उपवास । आठमा मास विषै वली, अठ, अठ तप गुण-राश || नवमैं मासे निर्मला, वर नव नव उपवास । दसमें मास दीपता, दश, दश दिन तप तास ॥ एकादशमा मास में, तप दिन ग्यार, इग्यार । वाश्म मासे महामुनि, वार, वार तप सार ॥ तंत तेरमा मास में, तेर, तेर उपवास । चवदम मास चूंप सूं, चवद, चवद दिन जास || पनरम मासे परवरा, पनर, पनर तप दिन्न । सोल, सोल तप सोलमैं, अंतर-रहित सुजन्न ॥ दिवस ऊकडू आसणं, रवि साहमी आताप । रात्रि वीण मुनिरहित मुख्या तप दिन मास तेरै सही, ऊपर दिन दश सात । दिवस तिहोत्तर पारणा, मास सोलै इम थात || जिम का ६०. चतुर्थभाक्तं स्वयते तच्चतुर्थम् इयं चोपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति । ( वृ०या० १२५) सूराभिमु आयाणभूमीए ६१६२. आपावेमा रतिं वीरास अवाउडेग प दोच्चं मासं छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुद्दे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रति वीरासणेणं अवाउडेण य । , ६३, ६४. 'वीरासणेणं' ति सिंहासनोपविष्टस्य भून्यस्तपादस्थापनीतसिंहासनस्येव यदवस्थानं तद्वीरासनं । ( वृ०००० १२५) ६५. एवं तच्चं मासं अट्ठमंअट्ठमेणं । चउत्थं मासं दसमंदस मेणं । ६६. पंचमं मासं बारसमंबारसमेणं । छट्ठ मासं चउद्दसमंमेणं । ६७. सत्तमं मासं सोलसमंसोलसमेणं । अट्ठमं मासं अट्ठारसमंअट्ठारस मेणं । ६८. नवमं मासं वीस इमंवीसइमेणं । दसमं मासं बावीसइमं बावीस इमेणं । ६६. एक्कारसमं मासं चउवीसइमंचउवीसइमेणं । वारसमं मासं छब्बीस इमंछवीसइमेणं । ७०. तेरसमं मासं अट्ठावीस इमं अट्ठावीसइमेणं चउदसमं मासं तिसइमंतिसइमेणं । ७१. पण रसमं मासं बत्तीसइमंबत्तीसइमेणं । सोलस मासं बोली महमोतीमहमे अणि तोकम्मे ७२. दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रति वीरासणेणं अवाउडेण य । (श० २०६२) ७३. इह च त्रयोदश मासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपः कालः, विसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति । ( वृ०० १२५) श० २, उ० १, दा० ३७ २३१ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक-छंद ७४. तप दिवस पर प्रथम मासे, बीस बीजें प्रवर ही । चवीस तप विन मास तीजं चतुर्थे चवीस ही ॥ ७५. पणवीस पंचम मास तप, चउवोस छट्ठे मास ए इकवीस तप दिन मास सप्तम, चउवीस अष्टम तास ए ।। ७६. नवमेज मासे सप्तचीसज, दशन मासं तीत ही । तेतीस तप दिन मास ग्यारम, वामं चउवीस हो । ७७. पदवीस तेरम मास तप दिन अष्टवीराज पदमे। कुन तीस तप दिन मास पनरम दिन बतीराज सोलमे ॥ ७८. हिव पारणा दिन प्रथम मार्स, पर दिन पहिला णिये । बलि पारणा दश मास बीजे, आठ तीजे आणिये ।। ७६. वर पारणा पट मास चउथै, पंच पारण पंचमै । फुल पारणा व मास छ, जाणिय ए अनुक्रमे ॥ ८०. बलि मास सप्तम अष्टमै, नवमेज मास सुचीन ए । वलि दशम ग्यारम मास में, छै पारणा तिण-तीन ए ।। १. वर वार ने तेरमं चवदर्भ पनरम मास ए । सोलमे मार्ग पारणा जे, दोय-दोयज तास ए ॥ ६२. ए बात आधी वृत्ति मांहे, तेही दाबी रहा। केइ आगला पाला दिन, मेल जा जो जिहां ॥ *बंधक महामुनिवर तदा गुणरत्न-संवर धार सूत्रे को जिण विधकरी, जाय आराधी सार । जिहां प्रभु तिहां आपने कर वंदना नमस्कार । उत्थ छट्ठ अट्टम घणां, दसम दुवालस सार ।। मासद्ध मासखमण करी, तप विचित्र प्रकारे ताय । विचरे आतम भावता, बंधक महामुनिराय ॥ ८४. ८५. ८६. १. डाल भली सैंतीसमी, भिक्षु भारीमात ऋषिराय । 'जय जय' संपति साहिबी, गण-वृद्धि हरप सवाय || ढाल : ३८ दहा तिण अवसर खंधक मुनि, ते तप करी उदार । उदार वांछा- रहित वर, प्रधान तप करि सार || *लय — म्हारी सासूजी रं पांच पुत्र । २२२ भगवती-जोड ७४-७७. पण्णरसवीसचउव्वीस चेव चडवीस पण्णवीसा य । चडवीस एक्कवीसा चडवीसा सत्तवीसा य ॥ तीसा तेत्तीसावि य चउव्वीस छवीस अट्ठवीसा य । तीसा बत्तीसावि व सोलमा तदिवसा || ( वृ०० १२५) ७८८१. पण्ण र सदसट्ठछप्पंचचउरपंचसु यतिणि तिष्णित्ति । पंचम दो दो व सहा सोपारा ॥ ( वृ० प० १२५ ) तसे खंदए अणगारे गुणवगवच्चरं तवोहम् अहासुतं महाकप्पंजाब वाराहेना ८४ ८५. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, वागच्छत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसिता वह उससे मासमासखमणेहिं विचितेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ | (८०२०६३) १. तए णं से खंदए अणगारे तेण ओरालेण 'ओरालेन' आशंसा रहिततया प्रधानेन । ( वृ० प० १२५ ) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा फुन प्रधान तप जेह, अल्प दिवस नों पिण हुवै। ते कारण थी एह, विपुल घणां दिन न प्रवर ।। विस्तीर्ण तप जेह, गुरु-आज्ञा विण पिण हुवै । तथा अप्रयत्नेह, इह कारण थी हिव कहै ।। २. विउलेणं प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह-'विपूलेन' विस्तीर्णेन बहुदिनत्वात् । (वृ०-प० १२५) ३. पयत्तेणं विपुलं च गुरुभिरननुज्ञातमपि स्यादप्रयत्नकृतं वा स्यादत आह (वृ०-६० १२५) यतनी पयत्तेणं पाठ पहिछान, प्रदत्त गुरु आणा थी जान। अथवा प्रयत्नवान कहेह, प्रमाद-रहित करि जेह ।। ४. 'पयत्तेण' ति प्रदत्तेनानुज्ञातेन गुरुभिः प्रयतेन वा प्रयत्न बता–प्रमादरहितेनेत्यर्थः। (वृ०-५० १२५) सोरठा एहवं तप पिण ताय, सामान्य थी प्रतिपन हवै। तेहथी हिव कहिवाय, पग्गहिए बहुमान करि ।। ५. पगहिएणं एवंविधमपि सामान्यतः प्रतिपन्नं स्यादित्याह-'प्रगृहीतेन' बहुमानप्रकर्षादाश्रितेन। (वृ०-५० १२५) यतनी ६. कल्लाणेणं कहितां कल्याणेह, निरोगता कारण एह। शिव मोक्ष नो हेतु बखाण, तिण तूं खंधक तप सिव जाण ।। ६. कल्लाणेणं सिवेणं 'कल्याणेन' नीरोगताकारणेन 'शिवेन' शिवहेतुना। (वृ०-प० १२५) दूहा धर्म धन्य सोभन करी, कह्य तास तप धन्य । विधनहरण सोभन करी, मंगलीक तप मन्य ।। ७. धन्नेणं मंगल्लेणं 'धन्येन' धर्मधनसाधुना 'माङ्गल्येन' दुरितोपशमसाधुना। (वृ०-५० १२५) यतनी ८. सस्सिरीए कहितां सोभा सहीत, सुध पालवा थी सुप्रतीत । जिम कीधो तप अंगीकार, तिम हिज ऊतार्यो पार ।। ८. सस्सिरीएणं सम्यक्पालनात्सशोभेन । (वृ०-प० १२५) दूहा उदग्गेणं नो अर्थ ए, उन्नत पर्यवसान। उत्तरोत्तर वर्द्धमान ए, छेहड़े उच्च पिछान । ९. उदग्गेणं उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तरं वृद्धिमतेत्यर्थः । (वृ०-प० १२५) १०. यतनी उदत्तेणं कहितां अवलोय, उन्नत चढ़ते भाव करि जोय । तप कीधो मुनिवर ताय, तिण करि थई दुर्बल काय ।। १०. उदत्तेणं उन्नतभाववता। (वृ०-प० १२५) उत्तम ज्ञान-सहीत छै, तम-अज्ञान थकीज । ऊर्ध्व कहतां दूर ए, तथा उत्तम सेवीज ।। ११. उत्तमेणं ऊध्वं तमसः-अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन ज्ञानयुक्तेनेत्यर्थः । (वृ०-५० १२५) श०२, उ०१, ढा० ३८ २३३ Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतनी १२. १२. उदारेणं महाणुभागेणं 'उदारेण' औदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात् 'महानुभागेन' महाप्रभावेण। (वृ०-५० १२५) उदारेणं कहितां अवधार, अति निस्पृहपणे विचार । सूत्र महाणुभागेणं जेह, अर्थ महा प्रभाव जणेह ।। *महिमा थारी मुलक में तपसी जी। (ध्रुपदं) १३. एहवै तप करवं करी तपसीजो, खंधक मुनि नो तन्न हो, गुण गिरुआ। सूको निरसपणां थकी तपसीजी, सुक्के पाठ कथन्न हो, गुण गिरुआ। १३. तवोकम्मेणं सक्के शुष्को नीरसशरीरत्वात् । (वृ०-५० १२५) दूहा १४. लुक्खे पाठ का बलि, लूखो भूख बशेन । रूक्षीभूतपणा थकी, तनु थयो विकट तपेन ॥ निर्मस मांस-रहित तन, अस्थी हाड कहाय । चरम चामडियै करी, बीटया तसु अधिकाय ।। १५. भनमतमा १४. लुक्खे बुभुक्षावशेन रूक्षीभूतत्वात्। (वृ०-५० १२५) १५. निम्मंसे अट्ठि-चम्मावणद्धे अस्थीनि चर्मावनद्धानि यस्य सोऽस्थिचर्मावनद्धः । (वृ०-प० १२५) निर्मस अस्थि संबंधि करी, उठत बैसत सोय। किडि-किडि शब्द विशेष प्रति भूत-प्राप्त जे होय ।। १६. किडिकिडियाभूए किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्ध्युपवेशनादिक्रियासमुत्थः शब्दविशेषस्तां भूत:-प्राप्तो यः स किटिकिटिकाभूतः। (वृ०-प० १२५, १२६) १७. किसे धमणिसंतए जाव यावि होत्था। 'कृशः' दुर्बलः 'धमनीसन्ततो' नाडीव्याप्तो मांसक्षयेण दृश्यमाननाडीकत्वात्। (वृ०-प० १२६) १७. “कृश दुर्बल तनु मुनि तणो, नाडी व्याप्तज ताय। निर्मस नाड्यां दीसती, इसो थयो मुनिराय ।। दहा १८. चालै जीव-बले करी, पिण तनु-बल करि नांहि । जीव-बले कर नै बलि, ऊभो रहैज ताहि ।। १६. *बोल्यां पछै किलामना, बोलत होय गिलान । बोलण नी मन ऊपनां, खेद लहै गुणखान ।। वा० से जहानामए-से कहितां जिम, जहा शब्दे दृष्टांत नै अर्थे, नाम शब्द संभावना नै विर्ष, ए शब्द वाक्यालंकारे। १८. जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, जीवबलेन गच्छति न शरीरबलेनेत्यर्थः । (वृ०-५० १२६) १६. भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामीति गिलाइ। 'से जहानामए' से' ति यथार्थ यथेति: दृष्टान्तार्थः नामेति सम्भावनायाम् 'इति' वाक्यालङ्कारे। (वृ०-५० १२६) दूहा यथा दृष्टांतज-काष्ठ करि, भरी गाडली जाण । पत्र पलाशादिक तणां, तिण करि भरी पिछाण ।। २०. से जहानामए कट्ठसगडिया इ वा, पत्तसगडिया इवा, *पत्र युक्त तिल सुं बलि, माटी ना सुविशेख । भंड भाजने करि भरी, जेह गाडली पेख ।। २१. पत्त-तिल-भंडग-सगडिया इ वा, पत्रयुक्ततिलानां भाण्डकानां च-मृन्मयभाजनानां भृता गन्त्रीत्यर्थः । (वृ०-५० १२६) ___*लय-शीतल जिन शिवदायका। २३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. हा एरंड काष्ठ नीपनी, जे अथवा एरंड काष्ठ करि, भरी एरंड काष्ठ तणो दहां ग्रहण तास शकटिका गाउली, सूकी थकीज * उष्ण विदधा छतां शब्द सहित चातिका गाडली गाडली जेह ॥ * तेह गमन आदिक विषै, अतिसय करि अधिकाय । शब्द सहित गाडी, वाजे अधिक सवाय ॥ होय । सोय ।। दूहा बनि अंगारा कोयला, तेह थकी पहिलान जेह शकटिका गाडी भरी थकी फुन जाण ।। असारवणेह 'लय शीतल जिन शिवदायका । इहा काष्ठादिक आला तणा, एह विशेषण दोय । यथा संभव तिम इहां, संयोजवु अवलोय ॥ *इम खंधक अणगार पिण, शब्द सहित चालत । शब्द सहित ऊभो रहै, इम दुर्बल तनु हुंत ॥ सूकां छतां अत्यंत शब्द सहित तिष्ठत ॥ दूहा उपचित-पुष्ट तपे करी, मंस लोही करि जेह अपचित- क्षीण थयो तनु, महामुनी गुणगेह || * अग्नि भस्म रासे करी, ढांकी तिम तनु किद्ध । तप लक्षण तेजे करी, ऋषि गुण करी समृद्ध ॥ वा० - इहां ए अभिप्राय जिम राखे करी ढांकी अग्नि बाहिर तेज रहित हुवै, अंतरवत्त दीप, इम खंधक पिण सरीर नैं विषै मांस लोही क्षीणपणां थकी बाहिर सरीर तेज रहित अनैं माहे सुभ ध्यान तप रूप अग्नि घणुं घणुं दीपं का, तेहिज अर्थ वलि कहै छै । चूहा ताय । उप तेजे सोभा करी, अतीव अतीव शोभायमान पj-घणं, रहे बंधक ऋषिराय ।। २२. एरंडा था, २३, २४. एरण्डकाष्ठमयी एरण्डकाष्ठभृता वा शकटिका, एरण्डकाष्ठग्रहणं च तेषामसारत्वेन तच्छकटिकायाः शुष्काया: सत्या अतिशयेन गमनादौ सशब्दत्वं स्यादिति । ( वृ० प० १२६ ) २५. इंगालसगडिया इ वा--- २६. उन्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, २७. 'उन्हे दिण्णा सुक्का समाणी' त्ति विशेषणद्वयं काष्ठादीनामार्द्राणामेव संभवतीति यथासम्भवमायोज्यमिति 1 ( वृ० प० १२६) २८. एवमेवचंद अगवारे स ग स चिट्ठ २९. उवचिए तवेणं अवचिए मंस-सोणिएणं, ३०. सचिव सरासिपढिन्छष्णे तवेगं तेएन, 1 'तवेगं ते ति तपोलक्षणेन तेजसा (४०-५० १२६) वा० - अयमभिप्रायः वा भरमच्छोनिया तेजोरहितोय तु ज्वनति एवं स्कन्दकोऽपि अपचितमांसशोणितत्वाद्वहिनिले अन्तस्तु ध्यानतपसा ज्वलतीति । उक्तमेवार्थमाह- ( वृ० प० १२६) ३१. अतीव अतीव उपसोनेमाणे-उसोभेमाणे चिट्ठ (०२६४) श० २, उ० १, डा० ३८ २३५ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. तिण काले नैं तिण समय रे, राजग्रह नगर सुजान। तिहां श्री वीर समोसऱ्या रे, जाव परपद गई स्थान || ३३. बंधक मुनिवर नां तदा अन्य दिवस किग वार पुव्वरत्तावरत्तकाल समये, धर्म जागरणा करतां सार ॥ ३५. ३६. ३७ ३६. ४०. * धिन मुनिराज खंधक सार । ऋषिराज खंधक पाज भवदधि, लाज उभय उदार । ( ध्रुपदं ) ४१. वा० - पुब्वरत्तावररत्तकालसमयंसि इहां इण पाठ ऊपर टीकाकार नो विवेचन मननीय छ- रात्रि नो पूर्व भाग ते पूर्वरात्र कहिये । वलि अपररात्र ते अपकृष्ट रात्रि, रात्रि नु पश्चिम भाग । पूर्व रात्रि अनैं पश्चिम रात्रि ए बिहुं लक्षण जे काल रूप समय तेहने कहियँ पुव्वरत्तावरत्तकाल समय । एतलं मध्य रात्रि नैं विषेपूर्व रात्रि नुं छेहलुं भाग अन पश्चिम रात्रि नुं पहिलं भाग, ए बिहुं भाग रात्रि ना ते वेला अर्द्ध रात्रि हुई, ते अर्द्ध रात्रि नैं विषे।' अथवा पूर्व रात्रि अपररात्रि काल समय इहां रेफ रा लोप थकी पुव्वरत्तावरत काल समयंसि इम पाठ हुई । • रूप आत्मविदं मन विषेश विचार इम ए उदार तपे चालूं जोव-बले करी, जीव- शक्ति चितित प्राचित पेख उपनों ताम विशेख ॥ इण यावत् पामू किलामना, यावत् दृष्टंत | शब्द सहित हूं पालतो, शब्द सहित तिष्ठत ।। ते इम पिण छै तिहां लग, म्हारे उठाण कम्म बल जान । वीर्य नै फुन पुरस्कार, वलि पराक्रम मान ॥ एवं करी, हूं जावत नाड़ी दीसंत | निष्ठत ॥ सोरठा इतसे आज सगेह, उट्टागादि क्षीण थया नहि एह शक्ति कहि " मार्ट जिहां लगे महारं छं उटा कम्म वल वीर्य शक्ति * लय- कपि रे प्रिया संदेशो कहै २२६ भगवती-जोह धीर । वलि जिहां लग मांहरा, धर्माचारज धर्म तणां उपदेशदाता भगवंत श्री महावीर ॥ रागद्वेष जित्या जिणं, भविक शुभार्थी स्वाम पुरसवर-गंध-हस्ती विच अभिराम ॥ तथा सर्वथा । मावज रही । , भासा मात्रज एह । पुरस्कार पराक्रम जेह || ३२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया। (श० २२६५) ३३. तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स (०२४६६) बा०] [पुवरतावर कालसमनि ति पूर्वरागाच रात्रः पूर्वो भागः अपररात्रश्च - अपकृष्टा रात्रिः पश्चिमतद्भाग इत्यर्थः, तल्लक्षणो यः कालसमय: कालात्मकः समयः स तथा तत्र, अथवा पूर्वरात्रापररात्रकालसमय इत्यत्र रेफलोपात् 'पुव्वरत्तावरत्तकालसम यंसि' त्ति स्याद् । ( वृ० प० १२०) ३४. इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - ३५. एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं जाव धमणिसंतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवजीवेण चिट्ठामि। २६. जालिम एवमेव समच्छामि ससद्दं चिट्ठामि । ३७. अति उद्याने कम्मे बने वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे । ३८. उत्थानादि न सर्वथा क्षीणमिति भावः । ( वृ० प० १२७ ) ३६. तं जावता मे अत्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार-परक्कमे ४०. जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ४१. 'सुहत्थि' त्ति शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती। (१००० १२७) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा अणसण करिवो मोय, फुन ते प्रभु साखे करी। तिण सं महाफल होय, इम अभिप्राय करी इहां ।। प्रभ निर्वाण जोय, शोकरूप दुख न रखे। भाजन हुवैज मोय, ए अभिप्रायज दूसरो॥ *त्यां लग मुज नैं श्रेय अछ, काल प्रभाते जास। प्रकाश प्रभा रजनी विष, प्रगट्य गगन उजास ।। दल उत्पल पंकज तणां, कमल कहितां मृगनेन । ए बिहं मृदू मिलिया तिकै, थया विकसित रवि उदयेन।। ४२, ४३. एतच्च भगवत्साक्षिकोऽनशनविधिमहाफलो भवतीत्यभिप्रायेण भगवन्निर्वाणे शोकदुःखभाजनं मा भूवमहम् इत्यभिप्रायेण वा चिन्तितमनेनेति । (वृ०-५० १२७) ४४. तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए, प्रकाशप्रभातायां रजन्यां। (वृक्ष-प०१२७) ४५. फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि फुल्लं-विकसितं तच्च तदुत्पलं च फुल्लोत्पलं तच्च कमलश्च -हरिणविशेषः फूल्लोत्पलकमली तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलित-दलानां नयनयोश्चो न्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तस्मिन्। (वृ०-५० १२७) ४६, ४७. अहपंडुरे पभाए, रत्तासोयप्पकासे, किसुय-सुयमुह गंजद्ध रागसरिसे, कमलागरसंडबोहए। ४८. रात्रि गयां प्रभात समय, रवि ऊगै आकाश । रक्त अशोक प्रकाश करिक, फूल केसू नों जास ।। शुक मुख अर्द्ध गुंजा जिसो, लाल सूर्य सुप्रमोद । कमलागर द्रहादिक नै विषै, करै नलिनिषंड नों बोध ।। सहस्र-किरण दिनकर इसो, तेज करी नैं जान। जाज्वलमान सुदीपतो, उदय छतै असमान ।। श्रमण भगवंत महावीर नैं, करि बंदणा नमस्कार । यावत् करि पर्युपासना, वीर आज्ञा ले सार ।। ४८. उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते। स्वयमेव पंच महाव्रत नै, उचरी बीजी वार। संत - सत्यां – खमाय नै, तथारूप स्थविर संग सार ।। कीधा अभ्यास पडिलेहणादिक, आदि शब्द थी विख्यात । प्रिय दढ़धर्मी एहवा, कडाइ स्थविर संघात ।। ४६. समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाब पज्जु वासित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए ममाणे। ५०. सयमेव पंच महव्वयाणि आरोवेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता तहारूवेहि थेरेहि। ५१. कडाईहि सद्धि आदिशब्दात् प्रियधर्माणो दृढ़धर्माण इत्यादि गृह्यते। (वृ०-५० १२७) सोरठा ५२. पाठ मांहि कड हंत, ते पद ना इक देश थी। पद समुदाय दोसंत, एहबू आख्यो वृत्ति में ।। ५३. कीधा अभ्यास सार, योग तिकै व्यापार ज्यां । पडिलेहणादि उदार, ते कृत-योगा पद इस ।। ५४. *विपुल नामे पर्वत ऊपर, धीरे - धीरै चढ़ ताम। पूढवी-शिलापट मेघ सरीखी, सजल - घटा सम श्याम ।। ५२, ५३. 'कडाईहि' ति, इह पदैकदेशात्पदसमुदायो दृश्य स्ततः कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगा:प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां संति ते कृतयोगिनः । (वृ०-५० १२७) ५४. विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं-दुरुहित्ता मेहघण संनिगासं विपुलं विपुलाभिधानं, ‘मेघधणसंनिगासं' ति घनमेधसदशंसान्द्रजलदसमान कालकमित्यर्थः । (वृ०-५० १२७) *लय-कपि रे प्रिया संदेशो कहै। श०२, उ०१,ढा०३८ २३७ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. अति रमणीकपणां थकी, सुर आगम ते ठाम । आसन विशेष पृथ्वी-शिला, पिण काष्ठ-शिला नहि ताम ।। ५६. पृथ्वी - सिला पडिले हिने, पाथरी डाभ संथार। ते ऊपर बैसी करी, संलेखणा सुखकार ।। कृश कीजै कर्म-देह जिण करि, ते सलेखणा तप साह । असणा सेवा तिण करी, सेवव आण ओछाह ।। ५५. देवसन्निवातं पुढवीसिलापट्टयं देवानां संनिपातः-समागमो रमणीयत्वाद् यत्र स तथा तं पुढविसिलापट्टयंति पृथिवीशिलारूपः पट्टक:--आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः, काष्ठशिलाऽपि शिला स्यादतस्तद्वयवच्छेदाय पृथिवीग्रहणं। (वृ०-५० १२७) ५६. पडिले हित्ता, दब्भसंथारगं संथरित्ता दब्भसंथारोवग यस्स सलेहणाझूसणाझूसियस्स ५७. संलिख्यते--कृशोक्रियतेऽनयेति संलेखना--तपस्तस्या जोषणा–सेवा तया जुष्टः-सेवितो जूषितो वा क्षयितो यः स तथा। (वृ०-प० १२७) ५८. भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंख माणस्स विहरित्तए ५६, ६०. त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव'' 'जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासइ। (श० २१६६) ६१. खंदया! समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं बयासी६२. से नूणं तव खंदया ! पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्स ६३, ६४. इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं एयारू वेणं तवेणं ओरालेणं विउलेणं तं चेव जाव कालं अणवकखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु भात-पाणी पचखी करी, पाओवगमन संथार। मरण प्रते अणवंछतो, श्रेय विचरवू सार ।। ५६. एम करीनै महामुनि, पूरव आख्यं तेम। मन माहै करी विचारणा, अणसण करवा प्रेम।। काले प्रकाश प्रभा रजनी विषै, जाव जलते जास। जिहांथमण भगवंत महावीर छ, जाव करै पर्यपास ।। हे खंधक ! इह विध कही, श्रमण तपस्वी ताय । भगवंत श्री महावीरजी, कहै खंधक प्रति इम वाय ।। ते निश्चै तूज खंधका, पुव्वरत्तावरत्त काल । जाव धर्म चिता प्रते, करतां छतां सुविशाल ।। ६३. इम एतत्रूप आतम विषै, जाव विचार उपन्न । निश्चै हूं इम एहवै, उदार तप कर जन्न ।। ६४. विस्तीर्ण तप तिमज यावत्, काल अवांछित जोय । मुझ नै श्रेय छै विचरबु, एम करी. सोय ।। ६५. इम मन मांहि विचार नै, काल प्रभा प्रगटेह । जावत् जाज्वल्यमान सूर्य, उदय थयो गगनेह ।। ६६. जिहां म्हारै समीप छै, तिहां आयो झट चाल । ते निश्चै करि खंधका ! समर्थ अर्थ विशाल ? खंधक भाखै हंता अत्थि, ताम प्रभुजी वदेह । अहासुहं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबंध करेह ।। तिण अवसर खंधक ऋषी, वीर प्रभु नी ताय। आण थयां मुनि हरषियो, तुष्ट जाव विकसाय ।। ऊठ, ऊठीनै पर्छ, श्रमण भगवंत नै सार। दक्षिण कर थी प्रारंभ नै, दे प्रदक्षिणा त्रिण वार ।। ७०. जाव पंचांग नमाय नै, पोतेइज स्वयमेव । पच महाव्रत उच्चरै, उचरी नै ततखेव ।। ६५, ६६. एवं संपेहेसि, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव ममं अंतिए तेणेव हब्बमागए। से नूर्ण खंदया! अठे समठे? ६७. हंता अस्थि अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध। (श० २।६७) ६८. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महाबीरेणं अब्भणुण्णाए–समाणे हट्ठ-तुढे जाव हियए। ६६. उट्ठाए उ8इ, उठेत्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, ७०. जाब नमंसित्ता सयमेव पंच महब्बयाई आरुहेइ, आरु हेत्ता २३८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. संत - सत्या नै खमाय नैं, तथारूप स्थविर नैं साथ । धीरे-धीरै गिरि विपुल ऊपरै, चढे मनि सविख्यात ।। ७२. सजल मेघज सारखी, अमर समागम तेथ । एहवी पृथ्वी-शिलपट्ट प्रते, पडिलेही धर चेत ।। उच्चार - पासवण - भूमिका, पडिलेहै पडिलेही ताय । डाभ सथारो संथरै, संथरी मुनिराय ।। ७४. पूर्व दिशि नैं साहमो, बैस पर्यकासन्न । करतल जोड़ी नख दसू, सिरसावत्तं जन्न ।। ७१. समणा य समणीओ य खामेइ, खामेत्ता तहारूवेहि थेरेहि कडाईहिं सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं द्रुहइ, दुहिता ७२. मेहधणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढविसिलापट्टयं पडिले हेइ, पडिलेहेत्ता ७३. उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता ७४. पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं ७५. संपलियंकनिसण्णेत्ति पद्मासनोपविष्टः । (वृ०-प० १२८) ७६. सिरसावत्तंति शिरसाऽप्राप्तम् अस्पृष्टम्, अथवा शिरसि आवर्तः यस्यासौ। (वृ०-१० १२८) ७७. मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्था सोरठा ७५. पर्यकासन पेख, पद्मासन कह्य वृत्ति में। केइ कहै सुबिशेख, नमोत्थणं गुण ते आसणे ।। सिरसावत्तं सोय, शिर करि के अप्राप्त कर। अथवा आवर्त जोय, ते शिर विषै कियो मूनि ।। *अंजलि कर मस्तक विषै, बोल्यो एहवी वान । नमोत्थणं अरिहत ने, जाव पहुंता शिव-स्थान ।। ७८. नमोत्थणं श्रमण भगवंत नै, महावीर नै जोय। जाव कामो शिव-स्थान नां, ए अरिहंत नै होय ।। ७९. ते समवसरण बैठा अछ, भगवंत श्री वर्द्धमान । ते प्रते ह वंदणा करूं, इहां रह्यो छतो जान ।। ८०. मुझने इहां रह्या प्रते, समवसरण रह्या स्वाम। देख रह्या छो इम करी, इम कहै वंदी सिर नाम ।। ८१. पूर्वे पिण म्है प्रभु समीपे, सर्व हिंसा पचखाण। जाव त्याग मिथ्यादसण तणां, जावजीव लग जाण ।। ७८. नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाब सिद्धि गतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स। ७६, ८०. वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ८२. हिवड़ा पिण प्रभ वीर समीपे, सर्व हिंसा पचखाण। जाव त्याग मिथ्यादर्शण तणा, जावजीव लग जाण ॥ ८१. पुबि पि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सब्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जाव मिच्छादंस णसल्ले पच्चक्खाए जावज्जीवाए। ८२. इमाणि पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। ८३. सव्वं असण-पाण-खाइम-साइम-चउब्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। ८४. जं पि य इमं सरीरं इट्ठ कंतं पियं जाव मा णं फुसंतु त्ति कटु। ८५. एयं पि णं चरिमेहि उस्सास-नीसासेहि वोसिरामि त्ति कटु ८३. सर्व अशन पाणी तणां, खादिम स्वादिम जाण । चउविध पिण जे आर नां, मुझ जावजीव पचखाण ।। जे पिण फून ए तनु अछ, इष्ट कांत प्रिय पेख। जाव शीतादिक रखे फर्श, एम करी सुविशेख ।। ८५. ए पिण तनु छै तेहनें, चरम उस्सास करेह। छेहले निश्वासे करी, वोसिराव छू एह ॥ ८४. *लय—कपि रे प्रिया संदेशो कहै । श०२, उ०१, ढा०३८ २३६ Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. संलेहणाझूसणाझूसिए ८६. एम करीनै संलेखणा, झूसणा सेवा तास । तेह सहित थई करी, आणी मन हुल्लास ।। भात पाणी पचखी करी, रही पाओवगमन संथार । मरण प्रते अणवंछतो, विचरै मुनि गुणधार ।। ८८. खंधक मनि तब वीर नां, तथारूप स्थविर नै पास । सामायिक आदे करो, अंग इग्यार अभ्यास ।। ८७. भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओबगए कालं अणबकखमाणे विहरइ। (श० २।६८) ८८.तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, ८६. बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउ णित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताण झूसित्ता, ६०. सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते । वह प्रतिपूर्ण बार वर्षे, पाली चारित्त पर्याय । मास संलेखणाई करी, आत्म प्रतिसेवी ताय ।। ६०. साठ भक्त नां अणसण करिक, छेदी तजी चिहुं आ'र । आलोइ फुन पडिक्कमी, निसल्ल थया गणधार ।। आलोवण न करूं सोरठा अवधार, अति चार कहै गुरु कनै। दूजी बार, पडिक्कते इम धारणा ।। ६२. तथा आलोवण सार, गुरु आगै आखै तिका। पडिक्कते सुविचार, मिच्छामि दुक्कडं प्रमुख ।। ६१. आलोचित-गुरूणां निवेदितं यदतिचारजातं तत् प्रति क्रान्तम्---अकरणविषयीकृतं येनासावालोचितप्रतिक्रान्तः । (वृ०-प० १२८) ६२. अथवाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात् प्रतिक्रान्तश्च मिथ्यादुष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः । (वृ०-५० १२८, १२६) ६३. समाहिपत्ते आणुपुवीए कालगए। (श० २।६६) ६३. *समाधि पाम्यो महामुनि, मानसी - पीड रहीत । काल अनुक्रम पामियो, पंडित - मरण पुनीत ।। ६४. स्थविर भगवंत तिण अवसरे, जाण्यो खंधक काल । परिनिर्वाण ते मरण नो, करै काउस्सग न्हाल ।। मरण हवै छतै तनु तणों, परिठव पिण निर्वाण । तेहिज प्रत्यय हेतु जेहनों, ते परिनिव्वाणवत्तियं जाण ।। वस्त्र पात्र ग्रही करी, धोरै - धीरै मुनिराय । विपुल गिरि थी ऊतरी, जिहां प्रभू तिहां आय ।। १४. तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसम्ग करेंति, करेत्ता (श० २०७०) १५. परिनिर्वाणं-मरणं तत्र यच्छरीरस्य परिण्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः । (वृ०-प० १२६) ६६. पत्त-चीवराणि गेण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, १७. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी९८, ६६. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे पगइभद्दए पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विणीए। से णं देवाणुप्पिएहि अब्भणुण्णाए समाणे १७. थमण भगवंत महावीर नै, वांदै प्रणमै पाय । वांदी पग प्रणमी करी, वोलै एहवी वाय ।। १८. इम शिष्य देवाण प्पिया तणो, खधक नामै मुनिराय । भद्र उपशांत स्वभाव थी, स्वभावे प्रतनु कषाय ।। कोमल निरहंकार-संपन्न, इद्रिय जीप विकार। भद्र विनीतज आपरी, आज्ञा लेइ उदार ।। ___ *लय-कपि रे प्रिया संदेशो कहै २४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. स्वयमेव पंच महाव्रत आरोपी, संत सत्यां नैं खमाय । मुझ संघाते विपुल गिरि चढ़, तं चेव सर्व कहाय ।। १०१. जाव अनुक्रम काल कीधो, आचार पालण नां एह । भंड-उपगरण मुनि तणां, देखाडै गुणगेह ।। १०२. हे भगवंत ! आमंत्र इह विध, वीर प्रभु नै ताय । नमस्कार वंदना करी, गौतम बोल वाय ।। १०३. इम शिष्य देवानुप्रिया तणों, खंधक नामै श्रमण्ण। काल मासे काल करिने, किहां गयो ? किहां उप्पण्ण? १००. सयमेव पंच महब्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहि सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुहिता १०१. जाव आणुपुवीए कालगए । इमे य से आयारभंडए । (श० २०७०) १०२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी१०३. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उबवण्णे? १०५. १०४. 'कहिंगए' त्ति कस्यां गतौ 'कहिं उबवणे' त्ति क्व देवलोकादौ? (वृ०-प० १२६) १०५. गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं बदासी–एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी खंदए नामं अणगारे १०६. पगइभद्दए जाव से णं मए अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महब्वयाई आरुहेत्ता । १०७. जाव आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते १०७. सोरठा किहां गयो कहिवाय, तेह किसी गति नै विषै। किहां ऊपनो ताय, किस देवलोकादिके ? *हे गोतम ! आमंत्र इह विध, गोयम ने कहै वीर। इम निश्चै शिष्य माहरो, खंधक मुनि गुणहीर ।। प्रकृति-भद्रक जाव ते मुनि, म्है आज्ञा दीधे सार। स्वयमेव पवर सूपंच महाव्रत, थाप थापी नै उदार ।। तिमहिज सर्व विशेष रहितज, कहिवू जेह वृतंत । जाव आलोइ पडिक्कमी, समाधि पाम्यो संत ।। काल मासै मरण अवसर, काल करीनै ताय । अच्युत - कल्पै ऊपनों, खंधक महा मुनिराय ।। तिहां कितायक सुर तणी, बावीस सागर जाण। आऊखा नी स्थिति कही, उत्कृष्टी पहिछाण ।। तिहां खंधक पिण सुर तणी, पवर सागर बावीस । आऊखा नी स्थिति कही, सांभल गोयम शीस ! ते प्रभु ! खंधक देवता, आयु-क्षय करि ताम। फुन ते भव नुं क्षय करी, वलि स्थिति-क्षय करि स्वाम ।। १०६. १०८. काल मासे कालं किच्चा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवण्णे। (श० २१७१) १०६. तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ११०. तत्थ णं खंदयस्स वि देवस्स बाबीसं सागरोबमाई ठिई पण्णत्ता। (श० २७२) १११. से णं भते ! खंदए देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं ११०. १११. ११२. सोरठा आयु कर्म छै जेह, तेह तणां जे दलिक प्रति । निर्जरिव करि एह, आयुष - क्षय आख्यो इहां ।। सुर संबंधी सोय, कर्म गत्यादिक जेहन । निर्जरिव करि जोय, भव-क्षय कहिये तेहनै ।। आयु: कर्म पिछाण, तेह तणी जे स्थिति प्रते। भोगविवै करि जाण, स्थिति-क्षय कर खंधक अमर ।। ११२. 'आउक्खएणं' ति आयुष्ककर्मदलिकनिर्जरणेन । (वृ०-प० १२६) ११३. 'भवक्खएणं' ति देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन। (वृ०-प० १२६) ११४. 'ठितिक्खएणं' ति आयुष्ककर्मणः स्थितेर्वेदनेन । (वृ०-५० १२६) ११४. *लय-कपि रे प्रिया संदेशो कहै श०२, उ०१, ढा०३८ २४१ Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५. *अंतर - रहित तिहां थकी, चयं चइत्ता ताम । किहां जास्य किहां उपजस्य ? खंधक सूरवर स्वाम ! ११५. अणंतरं चयं चइत्ता कहि गच्छिहिति? कहिं उववज्जि हिति? सोरठा ११६. अणंतरं अवलोय, सुरभव तणं जेह छै। ११६, ११७. 'अणंतर' ति देवभवसम्बन्धिनं 'चयं ति शरीर चयं शरीर सुजोय, तेह चइत्ता त्यज करी ।। 'चइत्त' त्ति त्यक्त्वा, अथवा 'चयं' ति च्यवं-च्यवनं ११७. तथा चयं ते च्यवन, चइत्ता तेह प्रते करी। 'चइत्त' ति च्युत्वा कृत्वाऽनन्तरं क्व गमिष्यति? अंतर रहित गमन, करस्य किहां जास्यै किहां? (वृ०-प० १२६) वा०-अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिंति--अनंतरं कहितां ते देव भव तणं, चयं कहितां शरीर, ते प्रतै चइत्ता कहितां छांडी नै, कहिं गमिहिति कहितां किहां जास्य ? अथवा चयं कहितां च्यवन, चइत्ता कहितां ते प्रत चवी नै एतलै करी नै, अनंतर कहितां अंतर रहित, कहिं गमिहिति किहां जास्यै ? ए क्रिया पद थी संबंध करिवो। ____+वीर प्रभु इम वदै गोयमजी ! (ध्रुपदं) ११८. जिन भाख सण गोयमा ! गोयमजी, महाविदेह खित्त मांय । ११८, ११६. गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झि हो गुण गहिरा। हिति मुच्चिहिति परिणिवाहिति सब्बदुक्खाणं अंतं निष्ठित-अर्था सीझस्य गोयमजी, बुझस्यै केवल पाय। करेहिति । (श० २१७३) हो गुण गहिरा॥ ११६. कर्म थकी मूकावस्यै, थास्य शीतलीभूत । अंत करिस्य सर्व दुक्ख नों, खंधक मुनि शुभ सूत ।। १२०. आंक थयो इकवीसमों, ए अडतीसमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' गण गणमाल ।। द्वितीयशते प्रथमोद्देशकार्थः ।।२।१।। ह ढाल : ३३ दूहा प्रथम उद्देशे मरण करि, वधै घटै संसार । इह विध पूर्व मरण प्रति, आख्यो कर विस्तार ।। समुद्घात मरणांतिकी, करै तास मृत्यु होय । समुद्घात करि रहित ने, मरण हवै फून सोप ।। इह संबंध थकी इहां, द्वितिय उद्देशक माय । समुद्घात जे सप्त है, तास सरूप कहाय ।। *लय—कपि रे प्रिया संदेशो कहै * लय--शीतल जिन शिवदायका साहिबजी ! १. 'केण वा मरणेण मरमाणे जीवे वड्डइ' त्ति प्रागुक्तं । (वृत-प० १२६) २, ३. मरणं च मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्यान्यथा च भवतीति समुद्घातस्वरूपमिहोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् (वृ०-प० १२६) २४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बधिवंत ज्ञान नयन करि देखो। (ध्रुपदं) ४. किता प्रभु ! समुद्घात परूप्या? श्री जिन भाखै सातो जी। वेदना - समुद्घात धुर कहियै, पद समुद्घात विख्यातो जी।। ४. कइ णं भंते ! समुग्घाया पण्णता? गोयमा! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-१. वेदणासमुग्धाए २. कसायसमुग्धाए ३. मारणंतियसमुग्घाए ४. वेउब्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्धाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। वा०—'समुग्घाए' त्यादि, हननानि-घाताः सम् - एकीभावे उत्-प्राबल्येन ततश्चकीभावेन प्राबल्येन च घाताः समुद्घाताः, अथ केन सहकीभावः ? उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः, अथ प्राबल्येन घाताः कथम् ? उच्यते, यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशः सह श्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, अतः प्राबल्येन पाता इति। (वृ०-प०१२६) वा०-समुद्घात शब्द नों अर्थ कहै छै-सम-एकीभाव उत्-प्रबलता अनै घात-हनन अर्थात् एकमेक थवा पूर्वक प्रबलता बड़े हनन ते समुद्घात । तेहर्नु सविस्तार विवेचन आ छै-जेम कोइ एक जीव बेदना-समुद्घात वालो होय तोते वेदना नां अनुभव ज्ञान नी साथे एकमेक थइ जाय छ, तेम थया सिवाय ते वेदनासमुद्घात वालो बनी शकतो नथी। एकमेक थयां पछी आत्मा साथे संबद्ध थयेला वेदनीय कर्म नां पुद्गलो ऊपर ते जीव प्रबलतापूर्वक प्रहार करै छ, मार हनन चलावै छ, अर्थात् जे वेदनीय कर्म कालांतरे वेदवा योग्य छै तेहनै उदीरणा-करण द्वारा खेंची उदय मां न्हाखी तेनै आत्मा थी सर्वथा जुदं करी न्हाखै छै। आ प्रकार नुं स्वरूप वेदनी-समुद्घात बाला D के वेदनीय समुद्घात - होय छ । एज रीते बीजा समुद्घातो माटै पिण जाणवू । तात्पर्य ए के जे समुद्घात मां आतमा वर्ततो होय तेनां अनुभव-ज्ञान साथे एकमेक थइ ते संबंधी को नै आत्मा थी सर्वथा जुदा करै छ, ए स्वरूप सामान्य समुद्घात नो हुवै। स्थूल दृष्टिए जेम कोइ एक पक्षी होय अन तेहनी पांखो ऊपरे खूब धूल चढ़ी गइ होय, त्यारे ते पक्षी पोता नी पांखो नैं पहोली करी तेहनां ऊपरली धूल खंखेरी न्हाखै छै । तेम आत्मा पोता ऊपर चढेल कर्म नां अणुओ नै खखेरवा आ समुद्घात नाम नी किरिया करै छ। ५. छद्मस्थ में समुद्घात कही छै, पन्नवणा सूत्र मझारो। तेह पाठ वर्जी नै भणवो, पट-तीसम पद सारो।। वा०—'कइ णं भंते छाउमत्थिया समूग्धाया पण्णत्ता?' इत्यादि सूत्र वर्जी नै 'समुग्घायपयंति' पन्नवणा नों छत्तीसमो समुद्घात-पद जाणवो कहिवो, ते लेश थी देखाडै छ । कइ णं भते समुग्घाया पणत्ता? गोयमा ! सत्त समुग्धाया पणत्ता। तं जहा—वेयणासमुग्धाए इत्यादि इह संग्रहणी वेयण कसाय मरणे वे उब्विय तेयए य आहारे । केवलिए चेव भवे जीवमणुस्साण सत्तेव ।। जीव-पद नै विर्ष अनै मनुष्य-पद नै विष सातूंइ समुद्घात कहिवी। नारकादिक नै विष यथायोग्य कहिवी। तिहां वेदना-समुद्धाते करी जीव वेदनीय कर्म-पुद्गल नों शातन करै-अलगा करै। कषाय समुद्घाते करी कषाय-पुद्गल नों शातन करै। मारणांतिक-समुद्घाते करी आयु-कर्म-पुद्गल नौं शातन करै। वैक्रिय-समुद्घाते करी जीव प्रदेशां प्रतै शरीर थकी बाहिर काढी शरीर-विष्कंभ ५. छाउमत्थियसमुग्घायवज्ज समुग्धायपदं नेयब्बं । (श० २१७४) जीवपदे मनुष्यपदे च सप्त वाच्याः, नारकादिषु तु यथायोगमित्यर्थः, तत्र वेदनासमुद्घातेन समुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलानां शातं करोति, कषायसमुद्घातेन कषायपुद्गलानां मारणान्तिकसमुद्घातेनायुःकर्मपुद्गलानां वैकुर्विकसमुद्घातेन समुद्धतो जीवः प्रदेशान् * लय- दया भगोती छै सुखदाई १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २१७४ में “छाउमत्थियसमुग्धायवज्ज समुग्घायपदं नेयब्वं' इतना पाठ है। इस सूत्र के पाद-टिप्पण में अन्य आदर्शों में उपलब्ध पाठ को उद्धृत किया गया है, पर उसे मूल में नहीं रखा गया है। जयाचार्य ने उस पाठ के आधार पर जोड की है, इसलिए जोड के समानान्तर वह पाठान्तर उद्धृत किया गया है । श०२, उ०२, ढा० ३६ २४३ Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहल्य मात्र एतले शरीर प्रमाणे चोड़ो अनै जाडो अनै आयाम ते लांबपण संख्येय योजन दंड प्रतै रचै, रची नै यथास्थूल वैक्रिय शरीर नां पुद्गल पूर्वे यह्या ते शातन करै, यथासूक्ष्म पुद्गल प्रतै ग्रहै यथोक्तम्-वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निसिरइ निसिरित्ता अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, अहासुहमे पोग्गले आइयत्ति ।। इम तेजस, आहारक समुद्घात पिण वखाणवा। केवली-समुद्धाते करि केवली वेदनीयादि कर्म पुद्गल प्रतै शातन कर। ए सर्व समुद्घात नैं विष शरीर नै विष थकी जीव प्रदेशा नों निर्गम हुवै। सर्व नो मान अंतर्मुहर्त नो छ। णवरं एतलो विशेष छै---केवली समुद्घात आठ समय प्रमाण छ। ए समुद्घात एकेंद्रिय विकलेंद्रिय नै पहिली तीन हुवै। वायुकाय नारकी नै पहिली च्यार हुवै। देव अनै पंचेंद्री तिर्यच नै पंच हुवै। मनुष्य सन्नी अनै जीव पदे सात समुद्धात हुवै। ६. जावत् वेमानिक नैं भण, कपाय जे समुद्घातो। अल्पबहुत्व कही छत्तीसमपद, त्यां लग कहि विख्यातो।। ७. हे प्रभु ! अणगार भावितआत्मा, जे केवली समुद्घातो। जावत् शाश्वत काल अनागत, शिव सख रहै विख्यातो।। ८. समुद्धात पद इहां भलाव्यो, बीजा शतक नों एहो। समुद्घात नों उद्देशो ए वीजो, दाख्यो जिन-वचने हो ।। द्वितीयशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।२।२।। शरीराबहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमाया मतश्च संख्येययोजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथा. स्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति यथासूक्ष्मांश्चादत्ते। (वृ०-प० १२६, १३०) एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमद्घातेन तु समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, एतेषु च सर्वेष्वपि समुद्घातेषु शरीराज्जीवप्रदेशनिर्गमोऽस्ति, सर्वे चैतेऽन्तर्मुहूर्त्तमानाः, नवरं केवलिकोऽष्टसामयिकः एते चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामादितस्त्रयो, वायुनारकाणां चत्वारः, देवानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां च पञ्च, मनुष्याणां तु सप्तेति। (३०-प०१३०) ६. जाव-वेमाणियाणं । कसायसमुग्घाया, अप्पाबहुयं । ७. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलीसमुग्धाए जाव-मासतं अणागयद्धं चिट्ठति? (श० २०७४) सोरठा द्वितीय उद्देश पिछाण, समुद्घात वर्णन का। ते समुद्घात में जाण, मारणांतिक समुद्घात छै ।। ए समवहत जोय, केइ पृथ्वी में ऊपजै। पृथ्वी नों अवलोय, उद्देशक तीजो हिवै।। ११. हे प्रभु ! केतली पृथ्वी परूपी, जिम जीवाभिगम मझारो। नारक नों उद्देशक बीजो, जाणवं ते अधिकारो।। ६, १०. द्वितीयोद्देशके समुद्घाता: प्ररूपिताः, तेषु च मारणान्तिकसमुद्घातः, तेन च समवहताः केचित्पृथिवीपूत्पद्यन्त इतीह पृथिव्यः प्रतिपाद्यन्ते । (वृ०-५० १३०) १०. ११. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! सत्त पुडवीओ पष्णत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा सक्करप्पभा बालुयप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा तमप्पभा तमतमा। जीवाभिगमे नेर इयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्यो। १२, १३. पुढवी ओग्गाहित्ता, निरया संठाणमेव बाहल्लं । विक्खंभ परिक्खेवो, वण्णो गंधो य फासो य ।। (संगहणी-गाहा वृ०-प० १३०) १२. पुढवी कहितां कितरी पृथिवी प्ररूपी? प्रथम प्रश्न ए जाणो। पृथवी अवगाही – नरकावासा, केतली दूर पिछाणो ।। नरकाबासा नों संस्थान बलि स्यूं? नरक जाडपणुं जाणी? नरकावासा नो विकंभ परिधि, फून वर्णादिक पहिछाणी ।। *लय-दया भगोती छै सुखदाई १. कुछ आदर्शों में जीवाभिगम के नारक नामक द्वितीय उद्देशक की अर्थ-सूचक संग्रह गाथा दी है । जयाचार्य ने उसी आदर्श के आधार पर जोड़ की है। २४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! या० तत्र पुढवी कहितां पृथ्वीतली हे भगवान् पृथिवी कही ? गोतम ! सात पृथ्वी कही । ते केही ? रत्नप्रभा इत्यादि । १६. 'ओगा हित्ता निरया' इति पृथ्वी अवगाही केतली दूर नरकावासा छ ? तिहां ए रत्नप्रभा पृथ्वी नैं विषै एक लाख असी हजार योजन नों पिंड छै । ते मांहै ऊपर एक सहस्र योजन अवगाहीजे नीचे एक सहस्र योजन मूकी नैं ते बीच में त्रीस लाख नरकावासा छै । इम शर्करप्रभादिक पृथ्वी नै विषै यथायोग कहिवा । 'संठाणमेव' त्ति नरक नो संठाण कहिवो तिहां जे आवलिका- प्रविष्ट नरकावासा छै, ते वर्तुल त्र्यंस चउरंस छै, अनैं आवलिका-बद्ध थी अनेरा नरकावासा पुष्पावकीर्ण बिखऱ्या फूल नैं आकारे, ते नाना प्रकार संस्थान छै । बाहल्य ते नरक नों जाडपणो कहिवो । त्रिण सहस्र योजन छँ, ते किम ? नीच एक सहस्र जोजन घन छै, मध्य एक सहस्र योजन सुसिर छै, उपरि एक सहस्र योजन संकोच छँ । तथा विक्खंभ- परिक्खेवो - विष्कंभ अनै परिधि कहिया । तिहां संख्यात योजन विस्तार वाला नों संख्यात योजन आयाम, विष्कंभ अन परिधि है । अ बीजा असंख्यात योजन नां विस्तार वाला नो आयाम, विष्कंभ अन परिधि असंख्यात योजन नीं जाणवी । १४. तथा वर्णादिक कहिवा । ते अत्यंत अनिष्ट इत्यादि घणो वक्तव्य छ । जाय जहां उद्देश तहका क जाव सर्व प्राण स्यूं पूर्व ऊपना ? तीस लक्ख नरकावासा मझारो । हता अनेक वार ते ऊपनां, अथवा अनंती बारो॥ १५. कई कई अव्यवहार राशि भी अपना ते अपेक्षायो। अनेक वार तथा अनंत बार कह्य तत्व जाणै जिनरायो || वा० - असकृत् ते अनेक बार ऊपनो, ते अनेक बार तो बे आदि वेला पिण हुई इण कारण थकी अत्यंत बहुलपणानां अंगीकार नैं अर्थ कहै छै । अदुवा अनंतखुत्तो अथवा अनंती बार ऊपनो इम वृत्तिकार कहै । द्वितीयमते तृतीयोदेशकार्यः || २|३|| सोरठा तृतीय उद्देश विषेह, कह्या नरक नां नेरिया । पंचेंद्रिय छै तेह, इंद्रिय परूपणा हिवै ॥ 1 १७. हे प्रभु! इंद्रिय केली परुपी ? जिन कहै इंद्रिय पंचो इंद्रियोद्देशक प्रथम जाग पनरम पदनों संबो वा० - इहां सूत्र पुस्तक नैं विषे द्वार त्रिणहीज लिख्या छै अने शेष ते अर्थ जाव शब्द करिकै जाणवा । * लय-दया भगोती छँ सुखदाई वा० -कइ णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त, तं जहा - रयणप्पभेत्यादि । 'ओगाहित्ता निरय'त्ति पृथिवीमवगाह्य कियद्दूरे नरकाः ? इति वाच्यं तत्रास्यां रत्नप्रभायामशीतिसहस्रोत्तरयोजनलक्षबाहल्यायामुपयँक योजनसहस्रमवगाह्याधोप्येकं वर्जपित्वाविशन्नरकलक्षाणि भयंति एवं शर्कराभादिषु यथायोगं वाच्यम्, 'संठाणमेव' त्ति नरकसंस्थानं वाच्यं तत्र ये आवलिकाप्रविष्टास्ते वृत्तास्त्र्यस्त्राश्चतुरस्राश्च, इतरे तु नानासंस्थाना:, 'बाहल्ले 'ति नरकाणां बाहुल्यं वाच्यं नमस्याणि कथम् ? अध एक मध्ये च संकोच' एकमिति । 'पति एती वा तातविस्तृतानां संख्यातयोजन आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्च इतरेषां त्वन्यथेति । तच्च त्रीणि योजरिमेकम् उपरि तथा वर्णादयो वाच्याः, ते चात्यन्तमनिष्टा इत्यादि बहु वक्तव्यं यावदयमुका (१०० १२०) १४. जाव किं सव्ये पाणा उववण्णपुब्वा ? हंता गोवमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो । ( श० २४७५, ७६ ) बा० - असकृद् - अनेकशः, इदं च वेलाद्वयादावपि स्पायतोऽन्ततिपादनावाह'अ' त्ति अथवा 'अतखुत्तो' त्ति अनन्तकृत्वः' अनन्तवारानिति । ( वृ०-५० १३० ) १६. तृतीयोदेशके नारका उक्ताः ते च पञ्चेन्द्रिया इतीन्द्रयप्ररूपणाय चतुर्थोद्देशकः । ( वृ० प० १३१) १७. कइ णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वो, (म० २००७) वा० - इह च सूत्र पुस्तकेषु द्वारत्रयमेव लिखितं, शेषास्तु तदर्था यावच्छब्देन सूचिताः । (२०१० १३१) १. उपरि संकुचिता शिखराकृत्या संकोचमुपगता योजनसहस्रम् । (जीवाभिगम ० ५० १०६) श०२, उ० ३, ४, ढा० ३६ २४५ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. संस्थान इंद्रिय पंच तणों धुर, वाइल्य जाडापणं जेहो। १८. संठाणं बाहल्लं पोहत्तं जाव अलोगे। (श०२२७७) पोहल चोडापण तास जाणव, जाव अलोक ल गेहो।। वा...-तिहां संस्थान श्रोत्रादि इंद्रि य न कहि । ते इम-श्रोतेंद्री न संस्थान वा०-तत्र संस्थान थोत्रादीन्द्रियाणां वाच्यं, तच्चेदकदंब वनस्पती नां फूल नै आकारे । चक्षु इंद्रिय नु सस्थान मसूरक चन्द्र नै आकारे थोत्रेन्द्रियं कदम्बपुष्पसंस्थित, चक्षुरिन्द्रियं मसूरकचन्द्रछ.-मसूर ते आसन विशेष (गाल मसूरीयो इति लोक भाषा) चन्द्र कहिता संस्थित, मसूरकम्-आसनविशेषश्चन्द्रः- शशी, चन्द्रमा । अथवा मसूरचन्द्र ते धान्य विशेष, तेहना अर्द्ध एतले मसूर नी दाल नै अथवा मसूरकचन्द्रो-धान्यविशेषदलं, घ्राणेन्द्रियमतिआकार वृत्त-गोल । घ्राणेंद्रिय नुं संस्थान अतिमुक्तक चंद्र ते फूल-विशेष नो दल, मुक्तकचन्द्र कसंस्थितम्, अतिमुक्तचन्द्र क:-पुष्पवितेहन आकारे अनै पन्नवणा ना अर्थ में का ते अतिमुक्तक वृक्ष नां फूल नै तथा शेषदलं, रसनेन्द्रियं क्षुरप्रसंस्थितं स्पर्शनेन्द्रियं नानाचन्द्रमा नै संस्थान संस्थित छ । रसनेंद्रिय न संस्थान क्षुरप्र ते पाछणा नै आकारे। कारम् । स्पर्शनेंद्रिय नुं संस्थान नाना आकार ते अनेक आकारे। ____ 'बाहल्ल' कहिता इंद्रिय नु बाहल्य ते जाडपणुं कहि । सर्व इंद्रिय नों अंगुल 'बाहल्लं' ति इन्द्रियाणां वाहल्यं वाच्यं, तच्चेदं—सर्वानों असंख्यातमो भाग बाहल्य छ। ण्यंगुलासंख्येयभागबाहल्यानि। जो स्पर्शन इंद्रिय नु जाडपणु अंगुल नै असंख्यातमें भाग छै, तो खड्ग, छूरी आदि करिकै हणिय छते शरीर नै अंतर-मांहि किम वेदना भोगवै ? तेहनों उत्तर-स्पर्श इंद्रिय नों विषय शीत आदि स्पर्श हुई, जिम चक्षु इंद्रिय नों विषय रूप, घ्राणेंद्रिय नों विषय गंध, जिह्वा-इंद्रिय नों विषय रस, थोत्रंद्रिय नों विषय शब्द अनै छुरी आदि करि हणिय छते अंतः शरीर नै विर्ष शीतादि स्पर्श नों अनुभव नहीं हुवे । केवल दुख रूप वेदन नों हीज अनुभव हुवे। अनै ते दुख रूप वेदना नो अनुभव तो आत्मा समस्त शरीर करिके करै, केवल स्पशेंद्रिय थीज नहीं करै ज्वरादि वेदनवत् । ते मार्ट स्पशेंद्री नी नान्ही अवगाहणा छै ते दोष नहीं। अथ शीतल पाणी आदि पीधे छते अन्तर-मांहि शीत आदि स्पर्श पिण भोगविय, ते कारण थकी किम स्पर्श इंद्रिय नें अंगुल नै असंख्यातमे भाग जाडपणो मिलै ? तेहन पिण उत्तर-इहां स्पर्श इंद्रिय सर्व शरीर में विषै पिण प्रदेश पर्यंतत्ति छै । अभ्यंतर पिण शुशिर-पोलाड नै ऊरि स्पर्श इंद्रिय नां भाव थी दोष नथी।' (ज०स०) - 'पोहत्तं' कहिता पोहलपणों ते चोडापणों । इम श्रोत्र, चक्षु, घ्राण नों अंगुल नों असंख्यातमो भाग पोहलपणो। जिह्वेद्रिय नुं प्रत्येक अंगुल न पोहलपणों । ते 'पोहत्तं' ति पृथुत्वं, तच्चेदं-थोत्रचक्षुर्घाणानामंगुआत्मांगुले जाणव । स्पर्शन इंद्रिय शरीर प्रमाण पोहलपणुं । तेहनों मान उत्से लासंख्येयभागो, जिह्वेन्द्रियस्यांगुलपृथक्त्वं स्पर्शनेन्द्रि यस्य च शरीरमानम्। धांगुल करिक। 'कइपएस' कहिता इंद्रिय केतले प्रदेशे नीपनी? पांचंइ इंद्रिय अनंत प्रदेश 'कइपएस' त्ति अनन्तप्रदेशनिष्पन्नानि पञ्चापि । करी नीपनी छ। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २१७७वें सूत्र के अन्त में 'पद्धमिल्लो इंदिय उद्देसो नेयवो जाव' कहकर अगले सूत्र में अलोक सम्बन्धित प्रश्न उपस्थित किया है। भगवती की जोड़ में इन्द्रियों के संस्थान आदि की सूचना देकर जाव शब्द के द्वारा अलोक सम्बन्धी प्रसग की सूचना दी गई है। उसके बाद वातिका में पूर्व सूचित सब पहलुओं को विस्तार से बताकर 'अलोगे णं भते किण्णा फुडे ? कतिहि वा काएहि फुडे ?' पाठ दिया है, किन्तु उस पर जोड़ नहीं लिखी गई है । इसलिए श० २१७८वें सूत्र की जोड उपलब्ध नहीं होती। श० २।७७ के पाद-टिप्पण में लिखा है कि 'अतोऽग्रे सर्वादर्शेषु संठाणं बाहल्लं पोहत्तं जाव अलोगे इति पाठोऽस्ति' जयाचार्य ने इसी पाठ के आधार पर जोड़ लिखकर यावत् शब्द से संग्राह्य शेष अर्थों को वात्तिका में निबद्ध किया है। २४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ओगाढे' त्ति असंख्येयप्रदेशावगाढानि । 'अप्पाबहु' त्ति सर्वस्तोकं चक्षुरवगाहतस्ततः श्रोत्रघ्राणेन्द्रिये कमेण संख्यातगुणे ततो रसनेन्द्रियं असंख्यगुणं ततः स्पर्शनं संख्येयगुणम् । 'पुट्ठपविट्ठ' त्ति श्रोत्रादीनि चक्षूरहितानि स्पृष्टमर्थ प्रविष्टं च गृह णन्ति। 'ओगाढ़े' कहितां केतला आगासत्थिकाय नां प्रदेश नै अवगाह्या छै? पांचूंइ इंद्रियां आकाशास्तिकाय ना असंख्याता प्रदेश अवगाह्या छ । ___'अप्पाबहु' कहितां पांचू इंद्रियां आकाश-प्रदेश अवगाह्या तेहनी अल्प बहुत्व, ते इम-इहां वृत्तिकार का - सर्व थोड़ा आकाश प्रदेश अवगाही नै चक्षु इंद्रिय रही। तेहथी धोत्रेन्द्रिय घ्राणेंद्रिय अनुक्रमे करिक संख्यात गुणा अवगाह्या । तेहथी रसनेंद्रिय असंख्यात गुणा अवगाह्या । तेह थकी फर्शनेंद्रिय संख्यात गुणा अवगाह्या, इत्यादि जे पन्नवणा में कह्य ते खरूं। स्पृष्ट अर्थ प्रत अनैं प्रविष्ट अर्थ प्रतै ग्रहण करै, ते इम-श्रोत्रंद्रिय फा शब्द प्रत सुण पिण अफा न सुण। अनैं चक्षुरिद्रिय फा रूप प्रत न देखें, अणफा प्रतै देखे । अन घ्राणेंद्रिय फा गंध प्रत सूधै। रसनेंद्रिय फर्ष्या रस प्रतै आस्वाद। स्पर्शन इंद्रिय फा स्पर्श प्रतै वेदै पिण अणफा प्रतै न संघ, न आस्वादै, न वेदै । इम थोत्रादिक विवर नै विष पैठा पुद्गल पिण कहिवा।। विषय कहिता इंद्रिय नी विषय, इहां वृत्तिकार कह्य--पांच इंद्रिय नी विषय जघन्य अंगल नै असंख्यातमे भाग कही। अनै पन्नवणा १५ पदे केयक परत में पांचू इंद्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै असंख्यातमै भाग कही, अनै केयक परत में चक्षु इन्द्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै संख्यातमै भाग कही, ते घणी परतां देख निर्णय कीजो'। उत्कृष्ट थी श्रोत्र नों बार योजन विषय, चक्षु नों साधिक लक्ष योजन विषय, शेष सब इन्द्रियां नो नो योजन। 'विसय' त्ति सर्वेषां जघन्यतोऽङ्गलस्यासंख्येयभागो विषयः । उत्कर्षतस्तु थोत्रस्य द्वादश योजनानि, चक्षुषः सातिरेकं लक्षं, शेषाणां च नव योजनानीति । १. भगवती की वृत्ति में पांचों इन्द्रियों के विषय जघन्यतः अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है। जयाचार्य ने इस विषय की समीक्षा करते हुए लिखा है--- प्रज्ञापना (पद १५) के कुछ आदर्शों में भी पांचों इन्द्रियों का विषय जघन्यतः अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है, किन्तु इसका निर्णय अनेक प्रतियां देखकर किया जाए। जयाचार्य द्वारा प्रदत्त इस सूचना के आधार पर यह पाठ समीक्षणीय है। हमने प्रज्ञापना के पाठ-शोधन में जिन आदर्शों का प्रयोग किया, उन सब में चक्षु का जघन्य विषय अंगुल का संख्येय भाग और शेप इन्द्रियों का असंख्येय भाग उपलब्ध है----"चक्खिंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जति भागओ।" मुनि पुण्यविजयजी ने भी यही पाठ स्वीकार किया है। उन्हें कुछ आदर्शों में 'असंखेज्जति' पाठ भी मिला है। यह सम्यक् नहीं है। इस टिप्पणी के साथ वह पाद-टिप्पणी में उद्धृत है। आवश्यक नियुक्ति के विवरण में मलयगिरि ने भी प्रज्ञापना के पाठ का अनुसरण किया हैचक्षुरिन्द्रियमपि जघन्यतोऽङ्ग लसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति (आवश्यक-नियुक्ति पत्र २६) उन्होंने अपने प्रतिपाद्य की पुष्टि में विशेषावश्यक भाष्य को भी उद्धृत किया है अवरमसंखेजंगलभागातो नयणवज्जाणं ॥ संखेज्जइभागातो नयणस्स मणस्स न विसयपरिमाणं । पोग्गलमित्तनिबंधाभावातो केवलस्सेव ।। (विशेषावश्यक भाष्य ३४६, ३५०) इनके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवती की वृत्ति में पांचों इन्द्रियों का जघन्य विषय अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है, वह सम्मत नहीं है। १. भगवती की वृत्ति का मुद्रित पाठ शुद्ध प्रतीत नहीं होता। जयाचार्य ने वृत्ति के पाठ को प्रामाणिक बताया है और उसकी पुष्टि प्रज्ञापना के (५१।१३) पाठ से की जयाचार्य ने भगवती वृत्ति के जिस पाठ का अनुवाद किया है, प्रज्ञापना में उसका संवादी पाठ मिलता है। इससे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि मुद्रित पाठ शुद्ध नहीं है। प्रस्तुत पाठ इस प्रकार होना चाहिएसर्वस्तोक चक्षुरवगाहतस्ततः थोत्रघ्राणेन्द्रिये क्रमेण संख्यातगुणे ततो रसनेन्द्रियं असंख्येयगुणं ततः स्पर्शन संख्येयगुणम्। हमने वृत्ति का यही पाठ अनुवाद के सन्दर्भ में उद्धृत किया है। श०२, उ०४, ढा०३६ २४७ Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहां पन्नवणा नां अर्थ में कह्यो ते लिखिये छ—-इहां कोइ कहै जे आगमांतरे चक्षु विषय धणों दीसै छै। जे भणी पुष्कराद्ध द्वीप नां मानुषोत्तर समीपवर्ती मनुष्य उत्कृष्ट दिवसई एकवीस लाख चउत्तीस हजार पांच सौ सैतीस प्रमाणांगुले निष्पन्न योजन थकी सुर्य ऊगतो आथमतो देखै छ। ते माटे इहां साधिक लक्ष योजन नों चक्षु विषय कह्यो ते किम घटै ? तत्रोत्तरं-एह सूर्य अतिप्रकाश्य थाई ते मार्ट अधिक विषय दीस छ, पिण अप्रकाश्य वस्तु ते लक्ष योजन उपरांत न दीस। इहां अप्रकाश्य वस्तु आश्रयी नै विषय कह्यो छ। अनै प्रकाश्य वस्तु नों विषय तो अधिक पिण होइ तेहनों दोष नहीं। इहां एह इंद्रिय विषय प्रमाण आत्मांगुले जाणवू, पिण उत्सेधांगुले न कहिवू । इहां कोइ कहै छ जे जो शरीरप्रमाण उत्सेधांगुल को छ तो शरीर प्रतिबद्ध जे इंद्रिय तेहनों विषय उत्सेधांगुले ज कहीई, पिण आत्मांगुलै न कहिइं? तत्रोत्तरं-शरीर जे उत्सेधांगुले कह्या छ पिण इंद्रिय-विषय न जाणवो। जो उत्सेधांगुल इंद्रिय-विषय कहीइं तो पांच सौ धनुष ना मनुष्य नै विषय व्यवहार न पोहच, यथा जे भरत चक्रवर्ती ने आत्मांगुल ते प्रमाणांगुल कह्य। ते प्रमाणांगुल ए का, ते प्रमाणांगुल एक सहस्र उत्सेधांगुल थाइ। तिहां भरत नी अयोध्या नगरी तथा स्कंधावार ते आत्मांगुल बार योजन प्रमाण कह्या ते उत्सेधांगुले तो अनेक सहस्र गम योजन थाइ। तिहां विजय ढक्का भेरी प्रमुख नों शब्द सर्व नैई किम संभलाइ ? अन ते शब्द तो समग्र नगर तथा समग्र स्कंधावार व्यापी सिद्धांत कह्य छ, ते व्यवहार न पोहचै ते माट इहां इंद्रिय नों विषय ते आत्मांगुलज जाणवो। 'अणगारे' कहितां हे भगवंत ! भावितात्म अणगार मारणांतिक समुद्घात समवहत नां जे छहला शैलेशी काल नां अंत्य समय नां जे निर्जा पुद्गल अति सूक्ष्म ते पुद्गल सर्व लोक प्रतै अवगाही नै ब्यापी नै रह्या छ। छद्मस्थ-केवलज्ञान-रहित तथा विशिष्ट अवधि ज्ञानादि पिण रहित ते । हे भगवन् ! ते निर्जऱ्या पुद्गल नु अन्यत्व परस्पर भिन्नपणुं अर्थात् ए पुद्गल एहना अन ए पुद्गल अनैरा नां इम जाण ? देखै ? हे गोतम ! ए अर्थ समर्थ नहीं। इहां मरण नै अंत हवं ते माटै मारणांतिक कही, पिण ए केवली समुद्घात जाणवी । केवली नै मारणांतिक समुद्घात न हुवै, मारणांतिक समुद्घात छद्मस्थ नै ईज हुवे ते माटे । आहारे कहितां ते चरम निर्जऱ्या पुद्गल प्रतै नरकादिक न जाण न देखै अनै आहरै तो छ, इत्यादि घणों विस्तार छ। हिवै केतला लगै ए उद्देशो कहिवो ते कहै छ-जाव अलोको कहितां यावत् अलोक सूत्र नो अंत ते इम-अलोगेणं भंते किण्णा फुडे काहि काएहि फुडे ? गोयमा ! नो धम्मत्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासस्थिकाएणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासत्थिकायस्स पएसेहि फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धा समएणं फुडे। एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अणंतेहि अगुरुलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागणेति।। अलोक छै तिको धर्मास्तिकायादि अलोक में नहीं, ते माट। जे अलोकांत नै लोकांत फज छ ते फर्शवू इहां न लेखव्यू, इहां फर्शवू नाम व्याप्तपणां नों छै। जे अलोक धर्मास्तिकायादिके करी व्याप्त नथी ते माटै इहां स्पृष्ट नाम व्याप्तपणां नो छ। अनै आकाशास्तिकाय काय नां देश प्रदेश करी स्पृष्ट कहितां व्याप्त छै, ते आकाशास्तिकाय नां देश प्रदेश अलोक नै विष छै ते माट। अनै एक अजीव द्रव्य नों देश ते आकाशास्तिकाय द्रव्य नां देशपणां थकी ते अलोक नै स्पृष्टव्याप्त छ। 'अणगारे' ति अनगारस्य समुद्घातगतस्य ये निर्जरापुद्गलास्तान्न छद्मस्थो मनुष्यः पश्यतीति। 'आहारे' ति निर्जरापुद्गलान्नारकादयो न जानन्ति न पश्यन्ति आहारयन्ति चेत्येवमादि बहु वाच्यम् । अथ किमन्तोऽयमुद्देशकः? इत्याह-यावदलोकः' अलोकसूत्रान्तः, तच्चेदम् - नालोको धर्मास्तिकायादिना पृथिव्यादिकार्यः समयेन च स्पृष्टो--व्याप्तः, तेषां तत्रासत्त्वात्, आकाशास्तिकायदेशादिभिश्च स्पृष्टः, तेषां तत्र सत्त्वात्, एकश्चासावजीव द्रव्यदेशः, आकाशद्रव्यदेशत्वात्तस्येति । (वृ०-५० १३१) २४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. *संठाण बाहल्य पृथक् पोहलपण, जाव किण करि फर्यो अलोगो। अर्थ ए दूजा शतक नों चउथो इंद्रियोइसक ' मा शासक सूयोगा। ॥द्वितीयशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।२।४।। भुक्त। सोरठा २०. इंद्रिय नों अधिकार, चउथै उद्देशै कह्यो। २०, अनन्तरमिन्द्रियाण्युक्तानि, तद्वशाच्च परिचारणा स्याते बस थी परिचार, तास निरूपण पंचमे ।। दिति तन्निरूपणाय पञ्चमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् । (वृ०-प० १३१) २१. *हे प्रभु ! अन्यतीर्थी इम आखै, इम निश्चै निग्रंथो। २१,२२. अण्ण उत्थिया णं भंते ! एबमाइक्खंति भासंति काल किये छतै देव थई नैं, निज आतम करि मंतो।। पण्णवंति परवेति-एवं खलु नियंठे कालगए समाणे २२. ते निग्रंथ नुं जीव देवता, अन्य देव प्रति त्यांही। देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अण्णे देवे, नो अण्णेसि ___ अन्य देव नी देवी प्रति वश करि, आलिंगी भोगवै नांही ।। देवाणं देवीओ अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परियारेइ, 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति परि (वृ०-प०१३२) २३. आत्म संबंधि पोता नी देवी, तेह प्रत पिण त्यांही। २३. नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुजिय-अभिमुंजिय वश करि-करि आलिंगि-आलिगि, ते सुर भोगवै नांही ।। परियारेइ, २४. निज आतम करि ते सुर पोते, स्त्री पुरुष रूपपणेहो। २४. अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउब्बिय परियारेइ । _ विकूर्वी - विकुर्वी भोग भोगवे, निग्रंथ सुर थयु तेहो।। २५. इक पिण जीवज एक समय में, दोय वेद वेदंतो। २५. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहाइत्थि-वेद फुन पुरुष-वेद प्रत, इम तसं वेदवू हुतो।। इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च । २६. इम परउत्थिक तणी वारता, सर्व जाणवी सोयो। २६. एवं परउत्थियवत्तव्वया णेयब्बा जाव इत्थिवेदं च, जावत् इत्थि-वेद प्रतै फुन, पुरुष-वेद प्रति जोयो।। पुरिसवेदं च। (श० २।७६) २७. ते किम? ए प्रभु ! गोयम पूछ, तब भाखै जिनरायो। २७, २८. से कहमेयं भंते ! एवं? जे माटै ते अन्यतीथिका, एम कहै छै ताह्यो। गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव २८. जाव स्त्री-वेद वेद प्रतै, फून ए बिहं वेद कहायो। इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च। इण प्रकार कर एक जीव ते, वेदै समय इक मांह्यो।। २६. जे पाखंडी ते इम भाखै, हे गोतम ! सुणवायो। २६. जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु । ते अन्यतीर्थी मिथ्या-खोटं, इम वचन वदै छै ताह्यो। वा०--अन्यतीर्थी नों मिथ्यापणो ते इम-पुरुष छ तिको स्त्री रूप कीधे छते वा...मिथ्यात्वं चैषामेवं-स्त्रीरूपकरणेऽपि तस्य पिण ते देव नै पुरुषपणां मारी पुरुष वेद नों हीज एक समय में विष उदय छ, पिण देवस्य पुरुषत्वात् पुरुषवेदस्यैवैकत्र समये उदयो न स्त्रीस्त्री-वेद नों उदय नथी । अथवा वेद पलट्य छते एतले स्त्री, पुरुष नों रूप कीधे छते वेदस्य, स्त्रीवेदपरिवृत्त्या वा स्त्रीवेदस्यैव न पुरुषस्त्री-वेद नों हीज उदय छै पिण पुरुष-वेद नों उदय नथी, माहोमाहि विरुद्ध वेदोदयः, परस्परविरुद्धत्वादिति। (वृ०-प० १३२) भाव थी। ३०.हूं पिण गोतम ! एम कहूं छु, सामान्य थी सुविचारो। ३०, ३१. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि पण्ण बलि विशेष थकी इम भाखू, पन्नवू हेतु करि सारो॥ वेमि परूवेमि–एवं खलु णियंठे कालगए समाणे अण्ण३१. एम परूपू भेद कहिवा थी, इम निश्चै निग्रंथो । यरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति-- काल किये इक देवलोक में, देवपणे उपज हंतो।। *लय—दया भगोती छ सुखदाई श०२, उ०५, ढा०३६ २४६ Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. महिड्ढिएसु जाव महाणुभोगेसु ३३. दूरगतीसु चिरठितीएसु। वा०-देवलोएसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति। देवलोक ते देवजन मध्ये देवपण ऊपजै । ते देवलोक कहितां देवजन केहवा छ ? इहां प्रथम देवजन नुं विशेषण कहै छ। ३२. महिड्ढिएस महाऋद्धिवंता, जसं परिवारादि रिद्धो। जावत् महा अनुभाग अमर-जन, महा शक्तवंत समद्धो।। ३३. दूरंगतिसु ऊर्ध्व देव गति, चिर स्थितिवंता तेहो। एहवा अमर-जन देवलोक छ, तेह विष उपजेहो।। एहवा अमर-जन देवलोक छ, तेह विर्षे सूविचारी। ते निग्रंथ - जीव काल करि, देव हुवै अति भारी ।। ३५. महिढिए कहितां महा ऋद्धिवतो, जसं परिवारादि ऋद्धो। जाव दशं दिश उद्योत करतो, ते सुर अधिक समद्धो।। ३४. से णं तत्थ देवे भवइ ३५. महिड्ढिए जाव दस दिसाओ उज्जोएमाणे सोरठा इहां जाव शब्द रै माय, पाठ कह्या तसं अर्थ इम। महाद्युति कांति सुहाय, महाबल महायश महासुखी। ३७. महाअनुभाग सुशक्त, सोभित हार हिया विषै। कडा बहिरखा युक्त, तिण करि स्तंभित उभय भुज ।। ३८. अंगद कहितां देख, वाह नां आभरण नों। आख्यो एह विशेख, कंडल आभरण कान नां ।। कंडल करिक मृष्ट, गल-स्थले रेखा पडै । कर्णपीठ धर श्रिष्ठ, कर्णाभरणज एह फून ।। ३६. 'महिड्ढिए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-महज्जुइए महाबले महायसे महासोक्खे। (वृ०-५० १३२) ३७. महाणुभागे हारविराइयवच्छे कडयतुडियथंभियभुए त्रुटिका-बाहुरक्षिका। (वृ०-५० १३२) ३८. अंगदानि—बाह्वाभरण विशेषान् कुण्डलानि–कर्णाभरणविशेषान् । (वृ०-प० १३२) ३६. मृष्टगण्डानि-उल्लिखितकपोलानि, कर्णपीठानिकर्णाभरणविशेषान् धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा। (वृ०-प०१३२) ४०. 'विचित्तहत्थाभरणे विचित्तमालामउलिमउडे' (वृ०-प०१३२) ३६. ४०. हस्ताभरण विचित्त, विचित्र माला पुष्प नी। मस्तक विष पवित्त, मुकुट विराजै जेहने ।। ४१. कल्याणकारी मान, माल्य प्रवर उत्तम भली। बलि विलेपन जान, धरणहार छै तेहनो।। देदीप्यमान शरीर, फून प्रलंब वनमाल धर । दिव्य वर्ण करि हीर, करै उद्योतज दश दिशा ।। दिव्य गंध करि देख, दिव्य रस दिव्य फर्श करि। दिव्य संघयण विशेख, पुद्गल शक्ती रूप ए।। दिव्य संस्थान करेह, दिव्य ऋद्धि परिवार करि । दिव्य युति करि जेह, वंछित-अर्थ-संयोग ए॥ दिव्य प्रभा दीपंत, ते यानादि विमान करि। फुन दिव्य छाया हुंत, ए उत्तम शोभा करी।। दिव्य अचि सुविशाल, रत्नादिक तन में रहा। तास तेज जे ज्वाल, तिण करिनै उद्योत अति ।। ४७. दिव्य तेज करि तेह, एह किरण तनु नी कही। दिव्य लेश फुन जेह, शरीर नै वर्णे करी॥ ४४. ऋद्धि:-परिवारादिका, युतिः–इष्टार्थसंयोगः । (वृ०-प० १३२) ४५. प्रभा-यानादिदीप्तिः, छाया-शोभा। (वृ०-५० १३२) ४६. अच्चि:-शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला, तेजः-शरीराचिः । (वृ०-प० १३२) ४७. लेश्या-देहवर्णः। (वृ०-प० १३२) २५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. एकार्था वैते। ४८. जुओ - जुओं अर्थ एह, पूर्वे भाख्या शब्द नों। वलि एकार्थपणेह, जाव शब्द में ए कह्या॥ (वृ०-६० १३२) ४६, ५०. दस दिसाओ उज्जोएमाणे पभासेमाणे पासाइए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरुवे। वा०-'पासाइए' द्रष्ट्रणां चित्तप्रसादजनक: 'दरिसणिज्जे' यं पश्यच्चक्षुर्न थाम्यति 'अभिरूबे' मनोज्ञरूप: 'पडिरूवे' त्ति द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्य स तथेति । (वृ०-प० १३२, १३३) ५१. से णं तत्थ अण्णे देवे, अण्णेसि देवाणं देवीओ अभि जुंजिय-अभिमुंजिय परियारेइ, वा०-'से णं' ति असौ निग्रंथदेवः 'तत्र' देवलोके 'नो' नैव 'अण्णे' ति अन्यान् आत्मव्यतिरिक्तान् 'देवान्' सुरान् । तथा नो अन्येषां देवानां सम्बन्धिनीर्देवीः 'अभिजुंजिय' त्ति 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति' परिभुक्ते। (वृ०-५० १३२) ४६. *दस दिश में उद्योत करतो, उद्योत तेह प्रकाशो। बलि दस दिश में शोभ रह्यो सुर, ए निग्रंथ जीव विमासो।। ५०. जाव पडिरूवे प्रतिरूप सुर, जाव शब्द में जाणी। पासाइए दरिसणिज्जे कह्यो छै, फुन अभिरूप पिछाणी ।। वाo.-पासाइए--देखणहार नों चित्त प्रसन्न करणहार, दरिसणिज्जे-जे प्रत देखता छतां चक्षु खेद न पामै, अभिरूवे-मनोज्ञ रूप छ, पडिरूवे-देखणहार देखणहार प्रतिरूप छै जेहन, एतल जोइवा जोग्य छै। ५१. तेह निग्रंथ तिहां अन्य देवे, अन्य सुर नी देवी प्रति त्यांही। आलिगी-आलिंगी वश करि-करि, परिचारणा करि ज्यांही।। वा.....'सेणं तत्थ कहितां' ते तिहां अण्णे देवे कहितां अन्य देव प्रतै, अण्णेसि देवाणं देवीओ कहिता अनैरा देव नी देवी प्रतै, अभिजुजिय-अभिजुजिय कहितां वश करी-करी तथा आलिंगी-आलिंगी, परिचारणा करै-भोगवै ए प्रथम अर्थ । ___इहां अनैरा देव प्रति भोगवं एहबू अर्थ कीध केई कहै—ए पश्चिम द्वारीपर्यु हुवै । पिण ए निग्रंथ न जीव इसो महद्धिक देवता एहवं करिवा अयोग्य कार्य किम करै? ते माटै अन्य देव थी पश्चिमद्वारी बिना मुखादिक नी कुचेष्टा रूप परिचारणा कर, इम हुवै ते पिण ज्ञानी जाण । अथवा 'सेणं--ते निग्रंथ न जीव तेहिज 'तत्थ'--तिहां देवलोक नै विष 'अण्णे देवे'-अन्य देव छ तिको 'अण्णे देवाणं देवीओ'-अनेरा देव नी देवी प्रत बश करी तथा आलिंगी भोगवै ए दूजो अर्थ । जद कोई पूछै निग्रंथ ना जीव नै अन्य देव किम कह्यो? तेहनों उत्तर-जे अनेरा देव नी देवी प्रति भोगव ते देवता नी अपेक्षाय ए निग्रंथ नुं जीव अन्य देव छ । ते अनेरा देवता नी देवी प्रतै भोगबै, एहवू अर्थ हुवे ते पिण ज्ञानी जाण । निज पोतानी देवी प्रत पिण, आलिगी-आलिंगी तेहो। वश करी-करी भोगवे, जीव निग्रंथ न जेहो।। ५३. आपणपैज निजात्म प्रतै ते, इत्थि पुरुष नों रूपो। विकुर्वी-विकुर्वी भोगवै नांही, सुर वर तेह अनूपो।। वाल-अथ यहां कह्यो आपको रूप विकुर्वी ने आप परिचारणा नहीं कर-एहनों ए परमार्थ-एक समय बे वेद नहीं वेदै, तिण आधी कह्यो छै बाकी तो आपको रूप विकुर्वी नै परिचारणा कर छ। इक पिण जीव जे एक समय में, एकज वेद वेदंतो। इत्थि-वेद प्रतै अथवा ते, परिस वेद - प्रति मंतो।। जेह समय विष इत्थि-वेद प्रति, वेदै भोगवै ज्यांही। तेह समय विर्ष पुरुष-वेद प्रति, वेदै भोगवै नांही ।। जेह सभय विष पुरुष-वेद प्रति, वेदै भोगवं जेहो। तेह समय विप इत्थि-वेद प्रति, वेदै भोगवै न तेहो।। *लय-दया भगोती छ सुखदाई भ ५२, ५३. अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुजिय-अभिमुंजिय परियारेइ, नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्बिय-विउब्विय परियारेइ। ५४. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेदेइ, तं जहा-इत्थिवेदं वा, पुरिसवेदं वा। ५५, ५६. जं समयं इत्थिवेदं वेदेइ नो तं समयं पुरिसवेदं वेदेइ। जं समयं पुरिसवेद वेदेइ नो तं समयं इत्थिवेदं वेदेइ। श०२, उ०५, ढा०३६ २५१ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. ५८. ACC इत्थि-वेद ना उदय करी नैं, पंवेद भोगवै नांही। पुरुष-वेद ना उदय करी ने, न भोगवै स्त्री-वेद त्यांही ।। इम निश्च करि नैं इक जंतू, एक समय रै मांह्यो। एक वेद प्रतै वेदे अछ, ते स्त्री तथा पुरिस कहायो । स्त्री छै ते स्त्री-वेद उदय थयां थी, पुरुष प्रत वांछंतो। पुरुष छै ते पुरुष-वेद उदय थयां, स्त्री तणी वांछा करतो। ए बिहुं मांहो मांहै इम वांछ, स्त्री पुरुष प्रतै जाणी। अथवा पुरिस वांछे इत्थि प्रति, ए जिन वयण पिछाणी ।। देश पचीसमां अंक तणो ए, गुणचालीसमी ढालो। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति मालो।। ५७. इत्थिवेदस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेदेइ, पुरिसवेदस्स उदएणं नो इत्थिवेदं वेदेइ । ५८. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेदेइ, तं जहा-इत्थिवेदं वा, पुरिसबेदं वा। ५६. इत्थी इथिवेदेणं उदिण्णणं पुरिसं पत्थेइ । पुरिसो पुरिसबेदेणं उदिण्णणं इत्थि पत्थेइ। ६०. दो वि ते अण्णमण्णं पत्थेति, तं जहा—इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थि। (श० २८०) ढाल : ४० पूर्वे परिचारण कही, परिचारण थी जाण । गर्भ हुवै मनु तिरि तणे, गर्भ प्रश्न हिव आण ।। उदक गर्भ भगवंत जी ! कालान्तर करि ताम । जल वर्षण हेतु जिको, पद्गल नो परिणाम ।। ते उदक-गर्भ इम काल थी, कितो काल हजास। जिन कहै इक समयो जघन, उत्कृष्टो षट् मास ।। १. परिचारणायां किल गर्भः स्यादिति गर्भप्रकरणम् । (वृ०-५० १३३) २, ३. उदगम्भे णं भंते ! उदगब्भे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा ! जहणणं एक समयं, उक्कोसेणं छम्मासा॥ (श०८१) २. तत्रोदकगर्भ:-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः । (वृ०-प० १३३) ४. अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशाखान्तेषु सन्ध्यारागमेघोत्पादादिलिंगो भवति। (वृ०-प० १३३) वत्तिकार कह्यो मगसिरे, पोष प्रमुख रै मांहि। अंत वैशाख विषै हुवै, संध्या-रागादि ताहि ।। *सूरिजन ! थी जिन-वच सुखदाई। (ध्रुपदं) ५. तिर्यंचणी गर्भ हे भगवंत जी ! तिर्यंचणी गर्भपणेह । काल थकी कितो काल हुवै ए, गर्भ विष रहै एह रे ।। श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतर्मुहर्त कहाइ। उत्कृष्टो ते आठ वर्ष लग, रहै गर्भ रै मांहि ॥ गर्भ मनुष्यणी नों हे भगवंत जी!, मणुस्सी गर्भपणेह । काल थकी ए किता काल लग, गर्भ विष रहै जेह ? श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतर्मुहर्त कहाय । उत्कृष्टो ते बार वर्ष लग, गर्भ विषै रहिवाय ।। ५.तिरिक्खजोणियगम्भे णं भंते ! तिरिक्खजोणियगब्भे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? ६. गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराई। (श० २०८२) ७. मणुस्सीगभे णं भंते ! मणुस्सीगब्भे त्ति कालओ केबच्चिर होइ? ८. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं। (श० २।८३) *लय-आधाकर्मी थानक मैं साधु रहै २५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education international Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. काय - भवस्थ हे भगवंतजी ! काय - भवस्थपणेहे। काल थकी किता काल लगै ए रहै, गर्भ नां तनु नै विषेहे ।। वा०-काय-भवस्थ किण नै कहिय ? काय ते माता ना उदर नै विषे रह्यो जे निज शरीर, भव कहितां जन्म ते काय-भव । तेहनै विषै रहै कायभवस्थ । ते काय भवस्थ इम एणे पर्याये करी। एतलै माता नां उदर नै विषै गर्भ नो शरीर तेहनै विष जीव कितो काल रहै ? १०. श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतमहतं कहीव । उत्कृष्टो जे वर्ष चउवीसज रहै, गर्भ नां तनु विषै जीव ।। ६. कायभवत्थे णं भंते ! कायभवत्थे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? वा....काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो-जन्म स कायभवस्तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्थः, स च कायभवस्थ इति, एतेन पर्यायेणेत्यर्थः । (वृ०-प० १३३) १०. गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीस संवच्छराई। (श० २०८४) ११. १२. ११, १२. स्त्रीकाये द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मि नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुर्विशतिवर्षाणि भवन्ति । (वृ०-प० १३३) इम सोरठा स्त्री नां उदर विषेह, गर्भ विष वर्ष बार रही। मरि निज तनु उपजेह, बार वर्ष बले ते रहै ।। इम चउबीसज वास, जे माता नां उदर में। गर्भ शरीरे जास, जीव रहै उत्कृष्ट थकी।। केइ कहै वर्ष वार, रही वली अन्य बीज करि। तेहिज शरीर मझार, उपजी द्वादश वर्ष स्थिति ।। १४. *मनुष्य पंचेंद्रिय तिर्यंच नै प्रभु, बीज ते वीर्य कहाय । अणविणठो जे योनि विर्ष छ, ते कितो काल रहिवाय? १५. जिन कहै अंतर्महतं जघन्य थी, उत्कृष्ट मुहर्त बार। तिहां लग सन्नी मनु तिरि उपजे, पछै सन्नी न ऊपजै लिगार ।। १६. एक जीव प्रभ! इक भव मांहै, केतला नो कहिवाय । पत्रपणे शीघ्र आवी उपजै, किता पिता तणो पुत्र थाय ? १७. श्री जिन भाखै जघन्य एक नों, तथा बे त्रिण नो सुत थाय। उत्कृष्ट पृथक्-सौ नों सुत है, एतले जनक पृथक्-सौ ताय ।। १३. केचिदाहु:--द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजेन तच्छरीरे उत्पद्यते, द्वादशवर्षस्थितिरिति । (वृ०-५० १३३) १४. मणुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते ! जोणि भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ ? १५. गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। (श०२।८५) १६. एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ? १७. गोयमा ! जहण्णेणं इक्कस्स वा दोण्ह वा तिण्ह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमा. गच्छंति। (श० २।८६) १८. सोरठा मनुष्य अनै तिर्यच, तसं वीर्य ते बीज छै। बार मुहतं लग संच, योनिभूत रह्य योनि में ।। पृथक - सौ नों जेह, बीज हीज वीरज तिको। गाय प्रमुख नी तेह, योनि विष पैलु रह्य ।। ते बीज-समुदाये ताय, एक जीव कोइ ऊपजै। तेह जीव कहिवाय, सर्व तणो सुत हतिको ।। ते माटे इम ख्यात, उत्कृष्ट पृथक्-सी तणो। पुत्र तेह विख्यात, पिता पृथक्-सौ इम हुवै ।। २०. १८. मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादश मुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति । (वृ०-प० १३४) १६. ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव। (वृ०-१० १३४) २०. तत्र च बीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां ___ बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवति। (वृ०-५० १३४) २१. अत उक्तम्-उक्कोसेणं 'सयपुहत्तस्से' त्यादि। (वृ०-प०१३४) . *लय-आधाकर्मो थानक में साधु रहै श०२,उ०५,ढा०४० २५३ Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-बे थी मांडी नव तांइ पृथक् (प्रत्येक) संज्ञा छै। तिण कारण बे सौ थी लेइ नव सौ नै पृथक्-सौ कहिये । इण न्याय नव सौ नों पिण पुत्र संभव। __एक जीव नव सौ नों पुत्र किम हुइ? ते कहै छै-नव सौ सांड प्रमुख नों वीर्य छै ते एक गाय प्रमुख नी योनि मांहि पेर्छ, एतलै नवसौ तिर्यच भोगवी तेहगें बीज एकळू थयु । तिण मांहि एक जीव ऊपनों, ते जीव नव सौ नो पुत्र थयो, नव सौ नां बीज में ऊपनां मारी। *एक जीव - हे भगवंतजी ! एकण भव रै माय । जीव केतला पुत्रपण जे, शीघ्र ऊपजै आय? २३. श्री जिन भाखै जघन्य एक वा, बे तथा त्रिण सुत थाय । उत्कृष्टा पृथक्-लक्ष जीवा, शीघ्र सुतपणे ऊपजे आय ।। २२. २२. एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हब्बमागच्छति? २३. गोयमा ! जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हब्वमागच्छति । (श० २।८७) २४, २५. मत्स्यादीनामेकसंयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भ उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्यैक भवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति। (वृ०-५० १३४) सोरठा मत्स्यादिक नै जेह, एक संयोगे पिण जिके। मछली योनि विषह, तेह तणां जे गर्भ में ।। पृथक् - लक्ष उपजेह, निपजै जनम पिण बली। तिण सू एक भवेह, इक ने पृथक्-लक्ष सुत ।। फुन मनु योनि विषेह, एक संयोगे पिण जिके। पृथक्-लक्ष उपजेह, पिण निपजै जनमै नहिं बहु ।। २७. *ते किण अर्थे ? इम कहिये प्रभु, जाव शीघ्र उपजेह। गर्भ विष पृथक् लक्ष जीवा?, ए गोयम प्रश्न करेह ।। २८. जिन कहै-स्त्री नै बलि पुरुष नै, कर्म कृता योनि मांही ।। मिथुनवत्तिए नाम संयोग उपजै, बिहु नो रुधिर शुक्र रहै त्यांही। २६. मनुष्ययोनौ पुनरुत्पन्ना अपि बह्वो न निष्पद्यन्त इति । (वृ०-प० १३४) २७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव हव्वमागच्छंति ? २६. तिहां जघन्य एक तथा बे, अथवा त्रिण जीव ऊपजै आय। उत्कृष्टा पृथक्-लक्ष जीवा, शीघ्र सुतपणे उपजाय ।। वा०-स्त्री पुरुष नै कम्मकडा नाम कर्म-निवत्तित योनि नै विष, अथवा कर्ममदनोद्दीपक व्यापार कीधो जेहनै विष तिका कर्म-कृता योनि मिथुन नी प्रवृत्ति छै जेहनै विय ते मिथुन-वृत्ति कहिई अथवा मिथुन प्रत्यय-हेतु छै जेहनै विष ते मैथुनप्रत्ययिक संजोए---संजोग, संपर्क ते स्त्री पुरुष बिहु थकी स्नेह----शुक्र, रुधिर लक्षण तेह प्रत, तिणे एकत्र तिहां संबंध थया नै विषै जघन्य थकी एक अथवा दोय अथवा तीन जीव पुत्रपणे गर्भ मांहै उपज। उत्कृष्ट थी नव सत-सहस्र पृथक् संज्ञा छ । ते नव लाख जीव पुत्रपणे उपजै इत्यर्थः । ३०. ते इण अर्थे करिने हे गोतम, जाव शीघ्र ही आय । पुत्रपणे नव लक्ष ऊपज, ए सन्नी तणो अपेक्षाय ।। वा....इहां कोई पूछ भरत नै सवा कोड पुत्र थया ते किम? उत्तर-रुधिर, शुक्र बिहं मिल्या तेहनै विष उत्कृष्ट नव लक्ष जीव गर्भे ऊपज ते एक माता नी अपेक्षाय नव लक्ष संभवै, वली बहुश्रुत कहै ते सत्य । *लय-आधाकर्मी थानक में साधु रहै २८. गोयमा ! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्पज्जइ । ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता २६. तत्थ णं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। वा---'कम्मकडाए जोणीए' ति नामकर्मनिवतितायां योनौ, अथवा कर्म-मदनोद्दीपको व्यापारस्तत् कृतं यस्यां सा कर्मकृताऽतस्तस्यां मैथुनस्य वृत्तिः-प्रवृत्तिर्यस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको मैथुन वा प्रत्ययो-हेतुर्यस्मिन्नसौ मैथुनप्रत्ययिक:..."संयोगः' संपर्कः, 'ते' इति स्त्रीपुरुषी 'दुहओ' ति उभयतः 'स्नेह' रेतः शोणितलक्षणं 'संचिनुतः' सम्बन्धयतः इति। (वृ०-प० १३४) ३०. से तेणठेणं जाव हब्वमागच्छति। (श० २।८८) २५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा पूर्वे मिथुनज ख्यात, तेह मिथुन प्रति सेवां। किसो असंयम थात, तेह परूपण हिव कहै ।। *मिथुन सेवतां थकां प्रभुजी, केहवो असंयम करंत ? तब भगवंत कहै हे गोतम ! यथानाम दृष्टंत ।। कोई पुरुष वंश तणी भंगली, भरी रूई सूं तेह। अथवा बूर वनस्पति अवयव, तेह थकी भरी जेह। ३१. 'मेहुणवत्तिए नामं संजोए' ति प्रागुक्तं, अथ मैथुनस्यैवा. संयमहेतुताप्ररूपणसूत्रम्३२. मेहणणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जइ? गोयमा ! से जहानामए ३३. केइ पुरिसे रूयनालियं वा बुरनालियं वा रूत-कासविकारस्तभृता नालिका- शुषिरवंशादिरूपा रूतनालिका ताम्, एवं बूरनालिकामपि, नवरं बूरं-वनस्पतिविशेषावयवविशेषः। (वृ०-प० १३४) ३४. तत्तेणं कणएणं समभिद्धंसेज्जा, तप्त जाज्वलमान अग्नि तपावी, लोह-शलाका ताय । तेह भंगली माहै चांपै ते, रूई बूर विध्वंसज थाय ।। इम एहवो हे गोतम ! मिथुन सेवतां करै असंयम तेह। योनि विर्ष जे जीव रह्यां प्रति हणे पुरुष-लिंगेह ।। ३५. एरिसएणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। (श०२।८६) एवं मैथुन सेवमानो योनिगतसत्त्वान् मेहनेनाभिध्वंसयेत्। (व०-प०१३४) ३६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। (श० २६०) तए णं समणे भगवं महावीरे ३७. रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० २।६१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव गोतम विचरंत। तिण अवसर प्रभु श्रमण तपस्वी महावीर भगवंत ।। नगर राजगह गुणसिल बाग थी निकले निकली तेह। बाहिर जनपद देश विषै प्रभु, विहार करी विचरेह ।। अंक पचीस न देश क ह्यो ए, ढाल चालीसमी ताजी। भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति जाझी।। ३७. ढाल : ४१ पूर्व तिर्यच मनुष्य नी, उत्पत्ति तणो विचार । हिवै उत्पत्ति देव नी, विचारणा अधिकार ।। तिण कालै नै तिण समय, पवर तुंगिया नाम । नगरी हुंती वर्णक तसं, उववाई थी ताम ।। ते तंगिया नगरी बाहिरे, ईशाण कूण रै माय । नाम पूष्पवति चैत्य थो, वर्णक तसं अधिकाय ।। १. पूर्व तिर्यमनुष्योत्पत्तिर्विचारिता, अथ देवोत्पत्ति विचारणायाः प्रस्तावनायेदमाह- (वृ०-प० १३४) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नाम नयरी होत्थावण्णओ। (श० २।६२) ३. तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था---वण्णओ। (श० २।६३) ४. तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहबे समणोवासया परिवसति –अड्ढा , 'अड्ढ' त्ति आढ्या धनधान्यादिभिः परिपूर्णाः । (वृ०-१० १३४) ते तंगिया नगरी विर्ष, श्रावक घणां वसेह। आढया परिपूर्णा अछ, धन्य धान्यादि करेह ।। *लय-आधाकर्मी थानक में साधु रहै श०२, उ० ५, ढा०४०,४१ २५५ Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दित्ता दीप्त प्रसिद्ध है, दर्पवंत वा देख । विस्तीर्णा विस्तारवंत, बह घर भवन विशेख ।। ५. दित्ता वित्थिण्णविपुलभवण दीप्ता:-प्रसिद्धा: दप्ता बा--दष्पिता:''विस्तीर्णानि -विस्तारवन्ति विपुलानि–प्रचुराणि भवनानि गृहाणि । (वृ०-५० १३४, १३५) ६. सयणासण-जाणवाहणाइण्णा शयन पल्यंकादिक बलि, आसन बाजोटादि । यान वाहन रथ हय प्रमुख, तिण आकीर्ण सुवादि ।। तथा विपुल आसन शयन और भवन विस्तीर्ण । यान अनै वाहन विविध उपकरणे आकीर्ण ।। बहु धन गणिमादिक तसु, वली घण घर माय । जातरूप सुवरण वरण, रजत रूप्य अधिकाय ।। दुगुणादिक करवा भणी, धन दै ते आयोग। प्रयोग व्यापारादि फुन, तिण करि सहित सुयोग ।। विविध प्रकार न्हाखीजतो, विपुल घणो अन पान । बह लोक जीमण थकी, शेष वधै अति जान ।। ८. बहुधण-बहुजायरूव-रयया बहु-प्रभूतं धनं-गणिमादिक तथा बहु एव जातरूपं --सुवर्ण रजतं च--रूप्यं येषां ते तथा । (वृ०-५० १३५) ६. आयोग-पयोगसंपउत्ता आयोगो....द्विगुणादिवृद्धयाऽर्थप्रदानं प्रयोगश्च----- कलान्तरं तौ संप्रयुक्तौ-व्यापारितौ यस्ते तथा। (वृ०-५० १३५) १०. विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा विदितं—विविधमुज्झितं बहुलोकभोजनत उच्छिष्टा वशेषसम्भवात् विदितम् । (वृ०-प० १३५) ११. बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया गवेलका-उरभ्राः। (वृ०-५० १३५) १२. बहुजणस्स अपरिभूया बहोर्लोकस्यापरिभवनीयाः। (वृ०-प० १३५) १३. अभिगयजीवाजीबा उबलद्धपुण्ण-पावा आसव-संवर निज्जर वह दासी नै दास फुन, बलि वषभ नै गाय । महिष गवेलक अज अजा, गाडर पिण बहु ताय ।। अति धनवंतपणां थकी, घणां लोक नै ताय । पराभव्या जावै नहीं-जीत्या ते नहिं जाय ।। *जीव-अजीव नै जाणिया, ओलखिया पुन्य पाप। आश्रव संवर निर्जरा, स्थिर चित सेती थाप ।। काइयादिक क्रिया कही, फून अधिकरण यंत्रादि ।। बंध मोक्ष – जाणवै, अति निपुण अगाधि । असहेज्ज पाठ तणो इहां, अर्थ टीका माय। इण रीते कीधो अछ, ते सुणज्यो चित ल्याय ।। १४. किरियाहिक रणबंध-पमोक्खकुसला क्रिया:-कायिक्यादिका: अधिकरणं गन्त्रीयन्त्रकादि । (वृ०-५० १३५) १५. असहेज्जा १६. आपद्यपि देवा दिसायकानपेक्षाः। (वृ०-प०१३५) सोरठा असहेज्ज पाठ ना जाण, अर्थ दोय है वत्ति में। आपद पड़यं सुजाण, स्हाज न वंछ देव नों। पोते कीधा पाप, ते पोतेइज भोगवै। अदीन मनोवृत्ति स्थाप, एक अर्थ तो इम कियो ।। बलि पाखंडी आय, चालै समकित आदि थी। तो नहि वंछ स्हाय, समर्थ स्वयम् हटायवा ।। वलि जिन-शासन मांय, अत्यंत भावित आसथा। ते माटै असहाय, अर्थ दूजो इम वृत्ति में । *लय-प्रभवो मन में चितवं १७. स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः । (वृ०-५० १३५) १८, १६. पाषण्डिभिः प्रारब्धा: सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्य मपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वाज्जिनशासनात्यन्तभावितत्वाच्चेति। (वृ०-५० १३५) २५६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. 'तुंगिया नै अधिकार, उभय अर्थ ए आखिया। तास न्याय सुविचार, चित्त लगाई सांभलो ।। दूजो अर्थ पिछाण, सम्यक्त्व व्रत सेंठापणो। प्रवर मूल गुण जाण, ए अवश्य गुण चाहिजै ।। ए गुण खंडित थाय, तो होय विराधक पांत में। शुद्ध हुआं सूं ताय, आराधक पद आखियो । जो पाखंडी नै जेह, जाब देवा समरथ नहीं। पर सहाय बिण तेह, तास चलायो नां चलै ।। तो पिण मूल गुण तास, तेहनों न गयो सर्वथा। सम्यक्त्व व्रत नी राश, अखंडपणे राखी तिणे ।। आपद पडियां आय, सुर सहाय वांछै नहीं। ए धुर अर्थ कहाय, उत्तर-गुण ते जाणवू ।। मुनि धुर पहर सझाय, द्वितिय पहर में ध्यान वर। तृतिय गोचरी जाय, चउथै पहर सझाय फुन ।। उत्तर-गुण ए च्यार, कह्या विचक्षण मुनि तण । जो न करै अणगार, तो संजम में भंग नहिं ।। तिम श्रावक रै एह, उत्तर गुण असहायता। सुर सहाय वछेह, तो सम्यक्त्व विषै न भंग तस ।। आनंदादिक सार, 'असहेज्ज' पाठ कह्यो तिहां। छह छंडी आगार, देवाभिओगे पाठ में।। अन्यतीर्थी नैं धार, तथा देव जे तेहनां । श्रद्धा-भ्रष्ट अणगार, आनंद का ए त्रिहुं भणी।। न करूं वंदन ताहि, नमस्कार पिण नां करूं। पहिला बोलू नांहि, असणादिक देवू नहीं।। अभिग्रह एह विशेष, छ छंडी आगार त्यां। राजा नै आदेश, तथा कुटंब आदेश थी। बलवंत तणे प्रयोग, देव तणे परवसपणे । कुटंब बड़ा नै जोग, अटवी विषेज कारण ।। ए षट् तणे प्रकार, अन्यतीर्थादिक विहं भणी। वंदे करि नमस्कार, असणादिक दै तेहनें ।। जाण सावज तास, पिण सम्यक्त्व व्रत नां गया। सुर आगार विमास, असहेज्जा पिण पाठ त्यां।। आपद उपजै आय, अथवा तेहनां भय थकी। वांछै देव - सहाय, जाण सावज तेहनें ।। तसं सम्यक्त्व किम जाय, सम्यक्त्व तो श्रद्धा अछ। हिये विचारो न्याय, श्रद्धा कारज जुआ ।। ३०. ३ ه mr ع ه ३ مي श०२, उ०५, ढा०४१ २५७ Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२ ५३. ५४. ५५. त्याग, ए पिण गुण अधिकार है। बैराग, व्रत सांकड़ा जेहना ॥ भगवती ॥ इक त्रस नां पचखाण, कीधां सू श्रावक हुवै। शतक सतरमैं जाण, द्वितिय उद्देशे अनर्थदंड परिहार, एह आठमों व्रत कह्यो । अर्थ तणो आगार न्याय हि तेहनों सुणो ॥ में एह, आठ आगारज आखिया । सुगडांगे, द्वितिय अध्ययने देख लो | पर तेथ, परिवार ने मिव कारणे । मित्र हेत, हिंसादिक आरंभ करें ॥ आखिया अर्थदंड विलिय आत्म ज्ञात नाग, भूत, यक्ष अर्थ - दंड ₹ नाग, भूत, मांहि, ए आइ यक्ष ताहि, श्रावक रै धारणी नों तिहवार, अकाल धन देलो अभयकुमार, ज्ञाता सुर कृष्णे पिण सुविशेख, लघु बंधव देव आराध्यो देख, अंतगट सुसोय, देवी देव जोय, अट्टम कर बाण, नमस्कार सुर नैं चक्री भरत जंबूद्वीपपन्नत्ती बलि मूक्या छै ए प्रत्यक्ष ही पहिछाण, वंछ्यो सहाय देव बलि चक्री स्वारथ भरतेश चक्र तणी पूजा इमहिज सुर संपेख, पूर्व शांतिकुंभु अर जाण, पत्र रत्न पुग्यो कनां ? पट खंड साधत पाण, अद्रुम तेर किया क नां? लवणसुट्टियो देव, कृष्णे पिण आराधियो । ज्ञाता सोलम भेव, सुर सहाय वांछ्या ति ॥ पूर्वोक्त पहिछाण, देव सम्यग् दृष्टी जाण, सावज छ छंडी विण अधिकेरो २५८ भगवती जोड़ आगार है || दोहना अरथ । आराधियो || कारण। कह्यो । भणी तिर्णे । आराधिया ॥ रे महे लिख्यो । नो ॥ करी कारणं ॥ सम्यक्त्व तास न जाय, नवि जावं जो सुर पूजे नांव, तो गुण नारद केरा नथी । ए गुण पाय, द्रुपद-सुता अधिकाय, पिण पंडु करी ॥ नारद भणी । जाव शब्द रे मांहि, कृष्णे पिण प्रणमन कीधी ताहि, पिणत समकित नवि गई ।। प्रत्यक्ष ही ही पहिचान, समदृष्टि धावक तिकै । शीस नमावे जाण, म्लेच्छां नां राजा प्रतं ॥ । सहायज वांछ। लौकिक कृत्य करें ।। अधिकेरो प्रणम्या प्रणमन भावरूपणो । गर्छ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिमहिज डरता ताय, अथवा स्वारथ कारण। प्रणमैं सुर नां पाय, ते मारग लौकीक छै ।। ते माटे पहिछाण, पाखंडी थी नहिं चले। दृढ़ आसथा जाण, मूल अर्थ असहेज्ज नों। सूत्र उववाई मांहि, अम्मड नै अधिकार पिण । जाव शब्द में ताहि, असहेज्जा ए पाठ है। तास अर्थ वृत्ति मांय, एक ईज कीधो अछ। आपद सुर असहाय, एह अर्थ कीधो नथी॥ कुतीथिक प्रेरित्त, सम्यक्त्व सू अविचलपणो। पर सहाय नवि चित्त, उववाइ-वृत्ति में कह्यो।। रायप्रणि वृत्त, असहेज्जा नों अरथ। कीधो अधिक पवित्त, चित्त लगाई सांभलो। कुतीर्थिक प्रेरित्त, सम्यक्त्व थी अविचलपणो। पर सहाय नहिं चित्त, ए अर्थ इक ईज त्यां।। आपद सुर असहाय, एह अर्थ कीधो नथी। कुतीथिक थी ताय, न चलै एहिज अर्थ त्यां ।। तुगिया नगर पिछाण, श्रावक नां वर्णन मझे। असहेज्जा नां जाण, दोय अर्थ है वृत्ति में ।। उववाई नी वृत्त, रायप्रवेणि वृत्ति में। असहेज्जा नों पवित्त, अर्थ एक कीधो अछै ।। ए बे साख विचार, तुंगिया नां श्रावक गुणे । असहेज्जा नों धार, द्वितिय अर्थ तो अवश्य ह॥ आपद सुर असहाय, ए गुण व अथवा न है। कारण तिण नों नांय, बिहं उपंग-वृत्ति देखतां ।। बलि जे कहै इम वाण, सुर सहाय नहि वांछणो। तो चउवीस जिन नां जाण, चउवीस यक्ष यक्षणी कहै ।। सासण - देव सहाय, तसं थुइ पडिकमणे पढे । बलि सेवजे ताय, पूजे केम चक्रेश्वरी? जती थका प्रत्यक्ष, गोरा काला भैरवै। माणभद्रादि यक्ष, आराधै रक्षा भणी।। ए लेखै तो जोय, सहाय देव नों वांछवै। निज श्रद्धा अवलोय, तुम गुरु पिण नहिं समकती ।। पूजै भैरू आद, श्रावक परणीजे तदा। शीतलादि अहलाद, तुझ लेखै नहिं श्रावकपणो ।। तिण सू इहां असहाय, सम्यक्त्व नों सेठापणो। श्रावक तंगिया माय, नियम नहीं गुण अधिक नों ।। (ज० स०) श०२, उ०५, ढा०४१ २५६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. *देव वैमानिक जाणिय, असुर नागकुमार। सुवर्ण कहिये जोतिषी, यक्ष राक्षस धार ।। किनर किंपुरुष व्यंतर कह्या, गरुड-ध्वज ते सुवन्न । भवनपति नों विशेष ए, गंधर्व महोरग जन्न ।। ७५. ७४, ७५. देवासुरनागसुवण्ण जक्ख रक्खस्स किन्नरकिंपुरिस गरुलगंधव्वमहोरग देवा-वैमानिकाः,... सुवण्ण' त्ति सद्वर्णाः ज्योतिष्काः, यक्ष राक्षसकिनरकिंपुरुषा:-व्यन्तरविशेषाः, 'गरुल' त्ति गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा:-भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाश्च-व्यन्त रविशेषाः। (वृ०-प० १३५) ७६. आदिएहिं देवगणेहि निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्क मणिज्जा, ७६. आदि देई सुर-गण तिक, निग्रंथ तेहथी चलावी सकै नहीं, रक्त प्रवचन्न। जिन-शासन्न ।। सोरठा ७७. 'असहेज्ज' पाठ पवित्त, मनुष्य चलावी ना सके। इहां सुर करि अचलित्त, बिहुं पद सम्यक्त्व दृढ़पणुं ।। *निग्रंथ ना प्रवचन नैं, संका रहित सुतेह । अन्य दर्शन वंछा नहीं, धर्म फले निसंदेह ।। लद्धदा अर्थ लाधा जिणे, सांभलवा थी सोय । गहियट्टा अर्थ ग्रह्या बलि, हिय धारण थी जोय ।। ७८. निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निविति गिच्छा, णात्। ८०. पुच्छियट्टा अर्थ पूछिया, संशय ऊपने जेह। पूछ्या अर्थ जाणवा थकी, अभिगहियट्ठा कहेह ।। विणिच्छियट्टा अर्थ नै, निश्चय कीधा विशेख । अर्थ तणां पर्याय नै, जाणवा थी संपेख ।। ८२. हाड मीजा रंगी तेहनीं, जिन प्रवचन माय। प्रेम प्रीति कसूबादि करि, रंग्या जिम कहिवाय ।। ७६. लट्ठा गहियट्ठा 'लद्धट्ठ' ति अर्थश्रवणात् 'गहियट्ठ' त्ति अर्थावधार (वृ०-प० १३५) ८०. पुच्छ्यिट्ठा अभिगयट्ठा 'पुच्छियट्ठ' त्ति सांशयिकार्थप्रश्नकरणात् 'अभिगहियद्र' त्ति प्रश्नितार्थस्याभिगमनात्। (वृ०-प० १३५) ८१. विणिच्छियट्ठा 'विणिच्छियट्ठ' त्ति ऐदम्पर्यार्थस्योपलम्भाद् । (वृ०-प० १३५) ८२. अलिमिजपेम्माणुरागरत्ता प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण । (वृ०-५० १३५) वा०—'अट्ठिमिजपेम्माणुरागरत्ता' अस्थीनि चकीकसानि मिजा च-तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा, अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा। (वृ०-५० १३५) ८३. अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमठे आयुष्मन्निति पुत्रादेरामन्त्रणं। (वृ०-५०१३५) ८४. सेसे अणठे, शेष-निर्ग्रन्थप्रवचनव्यतिरिक्तं धनधान्यपुत्रकलत्रमित्रकुप्रवचनादिकमिति । (वृ०-प० १३५) वा०–'अलिमिजपेम्माणुरागरत्ता'-हाड-मिजा ते हाड मध्यवर्ती धातु सर्वज्ञवचन प्रीतिरूप कुसुंबादि रागे करी रंगवा नी परै रंग्या छै जेहना, अथवा अस्थि, मिजा नै विष जिनशासन-गत प्रेमानुरागरक्त छै जिके, अथवा अट्ठि असंख्याता प्रदेश अनै मिजा कहितां तेहन मध्यवर्ती अष्ट रुचक प्रदेश ते सर्वज्ञ वचन-प्रीत रूप कसूभादि रागे करी रंगवा नी परै रंग्या छ। ८३. पुत्रादिक नै इम कहै, अहो आउखावंत । एह निग्रंथ प्रवचन ते, अर्थ परम-अर्थ तंत।। ८४. ए निग्रंथ प्रवचन बिना, धन धान्य सुत मित्त । कलने अनै पाखंडिका, ते अनर्थ अपवित्त ।। *लय-प्रभवो मन में चितवै २६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. उसिहफलिहा नुं अर्थ ए, उन्नत अधिक स्फटिक तणौ पर तेहना, निर्मल अति ८६. ८७. 55. ८६. ६०. 13 २.१. ६३. ६४. मीनींद्र प्रवचन से विषे मन वृद्ध व्याख्या नुं अर्थ ए, जिन-धर्म अन्य आचारज इम कहै, ऊंची घर नां द्वार जड़े नहीं, भिक्षु ६५ अवगुयद्वारा घर अतिहि कला, कपाटादि द्वार जड़े नहीं, राखे अन्य आचारज इम कहै, भिक्षु घर नां द्वार जड़े नहीं, अतिहि सोरठा विषे इसो ॥ वर्द्धमान बलि थकी ॥ 'द्वितिय सूयगडांग मांहि दूजा अध्ययन नैं ए बिहुं पद नों ताहि, अर्थ दीपिका में २२. उसियफलिहा ताम, उच्च स्फटिक चित्र जेहना । परिणाम, एकहीज ए अर्थ त्यां ॥ अवगुयद्वार पर नो द्वार जड़े नहीं। पाम्या सुध मग सार, न करै भय किणही इस इक अर्थ उदार, विण भिक्षु प्रवेश नों न कियो तिहां लिगार, निर्णय कोज्यो चतुर सप्तम अध्ययन मांहि, कियो दीपिका में अरथ । उसिहफलिह ताहि निर्मल स्फटिक तणी परं ॥ वलि अवगुपद्वार, घर नो द्वार परतीर्थिक पिण धार तमु घर वैसी अरथ । नर । ६६. ६७. तनुं परिजन पिण जेह, सम्यक्त्व थकी चलायवा । समर्थ नहीं है तेह तसं उरतो द्वार जड़े नहीं ॥ १८. बिपद न पहिछाण, अर्थ कियो इण रीत सूं जाण, नाम तिहां आस्यो नथी । सीस, हर्ष कुशल कृत दीपिका । सुजगीस, अर्थ कियो तिम आखियो || पिण भिक्षू न २६. सरि तपागच्छ संतुष्ट | मांहै पुष्ट || कीध । प्रसीध । आगल अर्थे पवित्त । चित्त ॥ शुद्ध सम्यक्त्व लाभ करी, किहि पाखंडी सं जेह डरता किंवाड़ जड़े नहीं, वृद्ध व्याख्या अर्थ एह ॥ करेह | उपाड़ा जेह ॥ प्रवेशन काज । उदार समाज ॥ I जड़े नहीं । धर्म कहै । ८५. ऊसियफलिहा उच्छ्रितम् -- उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चित्तं येषां ते उच्छ्रितस्फटिका | (बृ०२० १३५) ६. मौनीन्द्रवचनावादा परितुष्टमानसा इत्यर्थ इति वृद्धव्याख्या । ( १०-१० १३५) अर्गलास्थानादपनीयो येत्या कृतः... परिघः - अर्गला येषां ते उच्छ्रितपरिघाः, अथवोच्छ्रितो- गृहद्वारादपगतः परिघो येषां ते उच्छ्रितपरिषा ओदार्यातिशयादित्वेन भिक्षुकाण गृहप्रवेशनार्थमनर्गतद्वारा इत्यर्थः । ( १०-१० १३५) अदुवारा अप्रावृतद्वारा: कपाटादिभिरस्थतिगृहद्वारा इत्यर्थः । ( वृ०-१०-१३५) ८. सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पाषण्डिकाद्विभ्यति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या । (०१० १२५) १०. अन्ये त्वाहु: - भिक्षुक प्रवेशार्थ मौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः । (१०-१० १२५) श० २, उ० ५ ढा० ४१ २६१ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. अथवा वृत्ति मझार, द्वितीय अध्ययन अर्थ इम । उसिहफलिहा सार, स्फटिक जेम अंत:करण ।। १०१. इहां का छ एह, मौनींद्र दर्शण पामवै । अति ही तुष्टपणेह, मन छै ते श्रावक तणां ।। १०२. बलि अवगुयद्वार, घर नां द्वार जड़े नहीं। रहै उघाड़े द्वार, तस कारण आगल कहै ।। १०३. सम्यग् दर्शण पाय, डरै नहीं किणही थकी। शोभन मारग ताय, ते प्रति आदर करी॥ १०४. बली सातमें झयण, जाव शब्द में पाठ ए। उसिहफलिहा वयण, स्फटिक तणी पर निमल जश ।। १०५. तथा अवंगुयद्वार, घर नों द्वार जड़े नहीं। परतीथिक पिण धार, तस घर में पैसी करी।। १०६. जो कोइ भाख जेह, तसं परिजन पिण छै तिकै। सम्यक्त्व थकीज तेह, चलायवा समरथ नहीं ।। १०७. शीलंकाचार्य ताम, बिहुँ पद अर्थ कियो इसो। न कह्यो भिक्षुक नाम, संवत् सात सौ ते थया ।। १०८. ए चिहुं ठामै सार, अर्थ एकहिज आखियो। पिण भिक्षुक नों धार, द्वितिय अर्थ कोधो नथी ।। १०६. भगवती - वृत्ति मझार, अन्य आचार्य नों कथन । द्वितीय अर्थ विस्तार, भिक्ष - प्रवेश नों कियो।। ११०. मुनि नैं दे चिहुं आ'र, अप्रासुक अनेषणीक । अष्टम शतक मझार, अल्प पाप बहु निर्जरा।। १११. तिहां वृत्ति रै माय, कारण पडियां थी कह्यो। अन्य आचारज वाय, कारण बिण पिण थापियो।। ११२. ए बिहुँ विरुद्ध कहाय, मानं कारण सं जिकै । अन्य आचारज वाय, निकारण मानै न किम ।। ११३. मान भिक्षु प्रवेश, अन्य आचार्य नों कथन। बिण कारण दै एस, ते पोते पिण मानै नथी। ११४. वृत्ति विर्ष जे वाय, सूत्र थकी मिलतो अरथ । तेह मानणो ताय, अणमिलतो नहिं मानणो।। ११५. भिक्षु मुनि ने काज, द्वार उघाड़ा राखवै। ए पिण अर्थ समाज, मिले न्याय इण रीत सं ।। ११६. सहजै खुल्या किवाड़, जड़े नहीं ते द्वार प्रति । मुनी भावना सार, भावे श्रावक दान नी॥ ११७. वलि अपर भेषधार, पट खोली माहै धसे । मुनि नांवे खोल किवाड, तिण सं ए कहि भावना ।। २६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. असणादिक अवलोय, निग्रंथ नै प्रतिलाभता। विचरै श्रावक सोय, आगल एहवो पाठ छै ।। ११६. पिण अन्य भिक्षु प्रतेह, विचरै दान देता छता। इसो पाठ न कहेह, तिण सू मुनि नै अर्थ ह ।। १२०. आणंद श्रावक सार, जाव शब्द में पाठ है। उसिह - फलिहा धार, अवंगुयद्वारा बली ।। १२१. अन्यतीर्थी नै दान, देवण देवावण तणा। आणंद त्याग सुजान, प्रत्यक्ष आख्यो पाठ में ।। १२२. अन्यतीथि नां ताहि, भिक्षु प्रति देव नहीं। बली दिवावै नाहि, विचरै मुनि प्रतिलाभतो ।। १२३. तिण सं आनंद जोय, द्वार उघाड़ा राखवै । ए किण अर्थे होय ?, बुद्धिवंत न्याय विचारजो ।। १२४. द्वितीय अंग नी ताय, वृत्ति दीपिका नै विषै। सम्यक्त्व दढ़ सवाय, अर्थ एकहिज आखियो।। १२५. शीलंकाचार्य सोय, अर्थ बिहं पद नों कियो। अति सम्यक्त्व दृढ जोय, बली दीपिका ने विषै। १२६. अन्य आचारज वाय, बार - बार मूख आणता । पिण शीलांक सहाय, कह्य तिको मानै न किम ।। १२७. श्रावक जश नै काज, दान दियै अन्य भिक्ष प्रति । पिण धर्म पुन्य सुख साज, तिण माहै जाण न ते॥ १२८. *इहां तुंगिया अधिकार, उसिहफलिहा आखिया। बलि अवंगयद्वार, तास न्याय ओलखाविया' ।। (ज० स०) १२६. प्रोतिकारक लोकां भणी, प्रतीतिकारक थाय। अन्त:पुर वा घर विषै, प्रवेश छै अधिकाय ।। १३०. अतिहि धार्मिकपणे करी, सर्व स्थान विषेह। गयां आशंका न ऊपजै, प्रीति हीज उपजेह ।। वा०—अन्य आचार्य कहै छ–तेहना घर मां कोई सत्पुरुष प्रवेश कर तो तेहथी तेहनै अप्रीति न हुवे, कारण तेहनै ईर्ष्या भाव नथी। अथवा अप्रीतिकारिया अंत:पुर अनै पर-घर नै विष प्रवेश छोड्यो छ जिण। तथा दूजै श्रुतखंध सूयगडांग अध्येन सातवै की वृत्ति में शीलंकाचार्य कह्यो ते कहै छ-निषेध्यो अन्य जन नों प्रवेश जे स्थानक-भंडार, अंतःपुरादिक, तेहनै विष पिण प्रसिद्ध श्रावक नां गुण करी अस्खलित प्रवेश छै जेहनों। १३१. पर्व दिवस अनुष्ठान ते, पोसह अरु उपवास। चउदश नै फुन अष्टमी, पूनम अमावस तास ।। १२६. चियत्तंतेउरधरप्पवेसा 'चियत्तो' ति लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा। (वृ०प० १३५) १३०. अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त इत्यर्थः । (व०-५०१३५) वाल-अन्ये त्वाहु:---'चियत्तो' ति नाप्रीतिकरोऽन्तः पुरगृहयो. प्रवेशः-शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते तथा, अनीर्ष्यालुताप्रतिपादनपर चेत्थं विशेषणमिति, अथवा 'चियत्तो' त्ति त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथा कथञ्चित्प्रवेशो यस्ते तथा। (व०-प० १३५, १३६) १३१. चाउद्दसट्ठ मुद्दिठपुण्णमासिणीसु पौषधं--पर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवास:--अवस्थानं पौषधोपवासः... उद्दिठ्ठ' त्ति उद्दिष्टा--अमावस्या। (वृ०-प० १३६) *लय-प्रभवो मन में चितवै श०२, उ०५, ढा०४१ २६३ Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२. प्रतिपूर्ण पोसह भलो, आहार अब्रह्म व्यापार छोडवै, पालतां तनु-संस्कार। छतां सार ।। १३२. पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणा, 'पडिपुण्णं पोसह' ति आहारादिभेदाच्चतुर्विधमपि सर्वतः । (वृ०-५० १३६) १३३. समणे निगंथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं । १३४. पीढ-फलग-सेज्जा संथारएणं ओसह-भेसज्जेणं १३३. श्रमण तपस्वी निग्रंथ नै, फासु एषणीक चिहुं आ'र । वस्त्र पात्र कांबलो, रजोहरण उदार ॥ १३४ पीढ़ अनै फलग पाटियो, सेज्या स्थानक उदार। दर्भादिक लघु साथ रै, ओषध भेषज सार ।। वा०- ओषधि ते एक द्रव्य आश्रय, भेषज्य ते द्रव्य-समुदाय रूप । तथा ओषधि ते त्रिफलादि, भेषज्य ते पथ्य। १३५. इम मुनि ने प्रतिलाभतां, ग्रह्या जे यथाजोग। ते तप करि आतम भावता, विचरै सुप्रयोग। १३५. पडिलाभमाणा... अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणा विहरति । (श० २।६४) १३६. अंक पच्चीस न देश ए, इकचालीसमी ढाल। भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति न्हाल ।। ढाल : ४२ दूहा तुंगिया नां थावक भला, पालै व्रत पचखाण । कवण प्रकार थयो तदा, सांभलजो सुविहाण ॥ _ *आज आनन्दा रे।(ध्रुपदं) २. तिण कालै नै तिण समय आनंदा रे, पार्श्वसंतानिया जान के, आज आनंदा रे। स्थविरा श्रुत-वृद्धा जिके आनन्दा रे, भगवंत महिमावान के, आज आनंदा रे॥ जाति-संपन्ना जाणवा, जाति-माता नों पक्ष । संपन्ना उत्तम युक्त ही, कुल-पितृ-पक्ष सुदक्ष ।। बल-संपन्ना आखिया, रूप - संपन्ना सार। विनय-संपन्ना विमल ही, ज्ञान-संपन्ना उदार ।। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासाबच्चिज्जा थेरा भगवंतो 'थेर' त्ति श्रुतवृद्धाः । (वृ०-प० १३६) ३. जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना ४. बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना नाणसंपन्ना सोरठा बल संघयण विशेख, तेह थकी जे ऊपनों। प्राण जोर सपेख, संपन्न तिण कर युक्त ही।। रूप-संपन्ना एस, शोभन जे आचार करि। युक्त मुनि ने वेस, अथवा तनु सुंदर पणो।। ६. 'रूवसंपन्न' त्ति इह रूपं---सुविहितनेपथ्यं शरीरसुंदरता वा तेन सम्पन्नाः । *लय-बाड़ी फली अति भली मन भमरा रे २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. *विनय, ज्ञान, दर्शन बलि, चरित्त-संपन्ना समाज। लज्जा-संपन्ना प्रसिद्ध ही, अथवा संजम लाज ।। फुनि मुनि लाघव-संपन्ना, द्रव्य थी अल्प उपद्धि। भाव थी तीन गारव तज्या, छोड़ी अहंकार नी बुद्धि ।। ओयंसी मन-वल युक्त है, तेयसी तनु-प्रभा जन्न । वच्चसी विशिष्ट प्रभाव ही, अथवा विशिष्ट वचन्न ।। ७. सणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लज्जा–प्रसिद्धा संयमो वा। (वृ०-प० १३६) ८. लाघवसंपन्ना लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्यागः । (व०-प०१३६) ६. ओयंसी तेयंसी वच्चंसी 'ओजस्विनो' मानसावष्टम्भयूक्ता: 'तेजस्विनः' शरीरप्रभायुक्ता: 'वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा' विशिष्टवचनयुक्ताः । (वृ०-५० १३६) १०. जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा . 'जसंसी' ति ख्यातिमन्तः । (वृ०-५० १३६) ११. जिइंदिया जियपरीसहा ११. १०. जसंसी जशवंत प्रसिद्ध ही, जीता क्रोध जोता मान । जीता माया जीता लोभ नै, जीता निद्रा जान ।। जीता इंद्रिय नै मुनि, जीता परीसह जेह। क्रोधादि उदय आयां प्रतै, निर्फल करिव जीतेह ।। जीवण री आशा नहीं, मरण तणो भय नाय। जाव कुत्रिकापण जिसा, महामोटा मुनिराय ।। १२. जीवियास-मरण भयविप्पमुक्का जाव कुत्तियावणभूया १३, १४. इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'तवप्पहाणा गुणप्प हाणा' गुणाश्च संयमगुणाः, तपः संयमग्रहणं चेह तपःसंयमयोः प्रधानमोक्षांगताभिधानार्थ। (वृ०-प० १३६) १५ सोरठा १३. इहां जाव शब्द रै मांहि, तपसा करी प्रधान है। गुण संयम-गुण ताहि, तिण कर प्रधान ते स्थविर ।। १४. इहां तप सयम ग्रहण, ते बिहु प्रधान आखिया। शिव-अंग श्री जिन वयण, तस् फल अघ तोड़े रुकै।। करणे करी प्रधान, पिंडविशुद्धयादिक करी। चरण-प्रधान सुजाण, ते महाव्रतादिक करी॥ निग्रह-प्रधान जेह, दंड अन्याय करै जसु । अनाचार सेवेह, तास निषेधी दंड दिये ।। निश्चय करी प्रधान, अवश्यमेव करिवं जिको। करै मुनी गुणखान, तथा तत्त्व-निर्णय प्रवर ।। मार्दव करी प्रधान, तेह मान-निग्रह करी। आर्जव प्रधान जान, ए माया-निग्रह करी।। जितक्रोधादि पणेह, मार्दव आदि गणां तणो। प्रधानपणों जणेह, तो स्यू मार्दव आदि फुन ? २०. जितक्रोधादि विषह, क्रोधादी उपजै कदा। तथापि तेह प्रतेह, करै विफलता महामुनि ।। २१. मार्दव आदि सुजान, प्रधानपणां विष बली। उदय-अभाव पिछाण, तिण सं मार्दव आदि फन ।। वा०-अथवा जे भणी ए क्रोधादिक जीता छै, इण कारण थकीज क्षमादि प्रधान, इम हेतु-हेतुवान् भाव थकी विशेष छ। *लय-बाड़ी फली अति भली मन भमरा रे १५. करणप्पहाणा चरणप्पहाणा तत्र करणं-पिण्डविशुद्धधादि, चरणं-व्रतश्रमण धर्मादि। (वृ०-प० १३६) १६. निग्गहप्पहाणा निग्रहः-अन्यायकारिणां दण्डः। (वृ०-प०१३६) १७. निच्छयप्पहाणा निश्चयः-अवश्यंकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वा। (वृ०-प० १३६) १८. 'मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा' १६. ननु जितक्रोधादित्वान्माई वादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्कि मार्दवेत्यादिना? (वृ०-प० १३६) २०, २१. उच्यते, तत्रोदयविफलतोक्ता मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति। (वृ०-प० १३६) श० २, उ०५, ढा०४२ २६५ Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. २२. लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा लाघवं-क्रियासु दक्षत्वं । २३. मुत्तिप्पहाणा (वृ०-प०१३६) २४. विज्जाप्पहाणा २५. मंतप्पहाणा २७. वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा २८. नयप्पहाणा नियमप्पहाणा २६. सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा लाधव करी प्रधान, दक्षपणूंज क्रिया विषै। क्षांति प्रधान जान, तेह क्रोध-निग्रह करी॥ गुप्ति' कर सुप्रधान, मनोगुप्ति आदिक करी। मुक्ति प्रधान जान, ते निर्लोभपण करी।। विद्या करी प्रधान, ते प्रज्ञप्ती आदि करि । देवी साधन जान, अक्षर अनुके. तिका ।। मंत्र करी प्रधान, हरिणगमेषी प्रमुख ही। अधिष्ठित सविधान, तेह तणा पिण जाण मुनि ।। अथवा विद्या सोय, साधना करी सहित जे। मंत्र जिको अवलोय, साधना करी रहित ते ।। वेद करी सुप्रधान, आगम चिहं वेदज्ञ वा। ब्रह्म प्रधान सुजान, ब्रह्म कुशल अनुष्ठान वा ।। फन नय करी प्रधान, नैगमादि वा नीतिवर । नियम प्रधान पिछाण, अभिग्रह कर उत्तम पवर ।। सत्य करी सुप्रधान, सम्यग् वादे कर पवर। शौच प्रधान सुजान, द्रव्य भाव भेदे करी ।। द्रव्य शौच गुण एह, वर निर्लोभपणे करी। वा निर्लेपपणेह, भाव शौच आचार शुद्ध ।। चारू वण्णा हीर, वर्ण-कीत्ति जेहनी भली। वा गौरादि शरीर, अथवा प्रज्ञा जसुं भली ।। शुद्धि हेतु भावेह, अथवा सुहृद मित्र छ । सर्व जीव नै जेह, सोही रव नों अर्थ ए॥ निर्मल भावे तेह, शोधी कहिय तेहन। अथवा सुहृद जेह, मित्र सर्व जीवां तणा ।। बलि नियाणा रहीत, वजित उत्सुक भाव फुन । संजम पवर वदीत, तेहथी बाहिर लेश नहिं ।। भला चारित्र में रक्त, प्रश्न अनै व्याकरण जसं। वच निर्दषण व्यक्त, तथा विरल छेटी नथी ।। जाव शब्द में जान, पाठ वृत्ति में आखिया। तेह थकी पहिछान, एह अर्थ दाख्या इहां ।। कुत्रिक - आपण भूत, स्वर्ग मृत्यु' पाताल भू । लोक विहूं नी सूत, वस्तू जसु हाटै लहै ।। ३१. चारुपण्णा mr ३२. सोही - ३३. शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः सुहृदो वा-मित्राणि जीवानामिति गम्यम्। (वृ०-५० १३६) ३४. अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा ३५. सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणा ३७. कुत्तियावणभूया कुत्रिक-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिक तत्संपादक आपणो--हट्टः कुत्रिकापणः। (वृ०-५० १३६) १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २।९५ में 'गुत्तिप्पहाणा' पाठ नहीं है। टीका में भी यह पद व्याख्यात नहीं है। जयाचार्य ने इस पाठ की जोड़ की है। संभव है उन्हें कोई ऐसा आदर्श प्राप्त था, जिसमें उक्त पाठ रहा है। २. मर्त्य लोक २६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. तद्भूताः समीहितार्थसम्पादनलब्धियुक्तत्वेन सकल गुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः। (वृ०-५० १३६, १३७) ३८. तेह सरीखा स्वाम, वंछित अर्थ पमाडवा। लब्धि युक्त करि ताम, तथा सर्व गुण सहित जे ।। वाल-कु कहितां भूमि, त्रिक कहितां स्वर्ग, मृत्यु, पाताल लक्षण, एतलै स्वर्ग मृत्यु पाताल एत्रिहुं पृथ्वी नै विषे जे वस्तु हुइं ते इहां लाभ, तेह थी ते कुत्रिकापण। ए हाट देवाधिष्ठित छ ते माटै वंछित वस्तु मिले। ते सरीखा स्थविर वंछित अर्थ पमाडवानी लब्धियुक्त पण करी, अथवा सकल गुण सहित पण करी ते ओपमा। ३६. *घणां सूत्र ना जाण छै, वलि जसं बहु परिवार । पांच सौ संत संघात ही, परिवरचा परिकर सार ।। ४०. जिम अनुक्रमैं चालता थका, गमन करता ग्रामानुग्राम । सुखे सूखे विचरता थका, निज इच्छा करि ताम ।। जिहां तुंगिया नगरी अछ, जिहां पुष्पवती चैत्य । तिहां आवै आवी करी, साधु नां वृंद समेत्य ।। यथा जोग्य अवग्रह प्रतै, आज्ञा लेइनै जेह । संजम तप करि आतमा, भावंता विचरेह ।। ४३. तुंगिया नगरी में तदा, स्थान सिंघाड़ आकार। त्रिक त्रिण पंथ जिहां मिले, चउक्क मिले पंथ च्यार ।। ४२. ४४. चच्चर' पंथ घणा मिले, राजमार्ग जाव एक दिशि सामने, लोक घणा महापंथ । जावंत ।। ३६. बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहि अणगारसएहि सद्धि संप रिवुडा ४०. अहाणुपुब्वि चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुह सुहेणं विहरमाणा ४१. जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुप्फवइए चेइए तेणेव उवाग च्छति, उवागच्छित्ता ४२. अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। (श० २०६५) ४३. तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क 'सिंघाडग' त्ति शृंगाटकफलाकारं स्थानं त्रिक-रथ्यात्रयमीलनस्थानं चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम् । (वृ०-प०१३७) ४४. चच्चर-च उम्मुह-महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति। (श० २।६६) चत्वरं-बहुतररथ्यामीलनस्थानं महापथो-राज मार्गः। (वृ०-प०१३७) ४५. तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्ठतुट्ठ जाव सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी४६. एवं खलु देवाणुप्पिया ! पासाबच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना ४७. जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। ४८. तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं थे राणं भगवं ताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, ४६. किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमसण-पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए जाव गहणयाए? ५०. तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! थेरे भगवते वदामो नम सामो जाव पज्जुवासामो। ४५. श्रावक सुण ए वारता, हरष संतोष सुपाय । जाव माहोमांहि तेड़ी करी, बोल एहवी वाय ।। इम निश्चै देवानुप्रिया ! पास - संतानिया जाण । स्थविर भगवंत पधारिया, जाति-संपन्न गुणखाण ।। ४७. जाव यथायोग्य आज्ञा ग्रही, संजम तप करि सोय । आत्मा नै भावता छता, विचरै छै अवलोय ।। ४८. महाफल हे देवानुप्रिया ! तथारूप स्थविर भगवंत । तास नाम गोत्र सांभल्यां, गुण सुण हरष धरंत ।। ४६. तो किस कहिवो साहमो जायन, वंदणा नै नमस्कार । प्रश्न पूछण सेवा तणो, जाव ग्रहिवा अर्थ सार ।। ते भणी हे देवानुप्रिया ! चालो स्थविरां पास । नमस्कार वंदणा करां, जाव सेवा करां तास ।। *लय-बाडी फली अति भली मन भमरा रे १. बहत से आदर्शों में चच्चर के बाद चउम्मूह पाठ नहीं है। अंगसूत्ताणि भाग २ श०२।१६ में यह पाठ है। पर जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में संभवतः यह पाठ नहीं था। टीका में भी इसकी कोई व्याख्या नहीं है। इसलिए इस पाठ की जोड़ प्राप्त नहीं है। श०२, उ०५, ढा०४२ २६७ Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. ५२. ५३. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. ११. इसी इह भव ए सेवा अम्ह ने जावत साथै आवसी, सेवा इम कहिनें मांहो मांहि नो वचन आप आपणा घर मझे, आया अंक पचीस न देस ए बयालीसम भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' हरष विशाल || ढाल । पर भव मांय सुखदाय ॥ अंगीकार । सहु तिन वार ॥ २६५ भगवती-जोड़ फल ढाल : ४३ वहा स्नान करि बलि-कर्म कृत, तास अर्थ अर्थ कीधो गृह-देवता, देखो हिये कहे हेव । 1 देव कहेव ॥ 'केइक इहां गृह देवता जिन प्रतिमा पिण इतलो जान नहीं, ए किन पर नो देव ॥ तीर्थकर तो सही, तीन लोक नां देव छै ते किम जिन प्रतिमा भणी, घर नां जिन प्रतिमा जिन सारिखी, इम पि वलि स्थाप घर - देवता, ए किम कदापि कुल देवी प्रत, कहिये लौकिक हेते पूजता, श्रावक पिण स्वयमेव ॥ कहिता जाय ।। मिलसी न्याय ? घर नां देव । बा०—शतक ७ में उ० ९ में वृत्ति में न्हाया 'कयबलिकम्मा' बलि-कर्म ते देवता इको, ए किस देवता ? जिन-प्रतिमा हुवै तो जिन प्रतिमा कहिता, पिण देवता कहिया से कांइ प्रयोजन ? करी राणोज विशेष । शेष ॥ हेत । दूहा बलि-कर्म तो अर्थ धर्म-सी, स्नान कोषो बलि-कर्म शब्द करी, आया कारज ज्ञाता अध्येन दूसरे, सुत वांछा नें नागभूत यक्ष पूजवा गई सुभद्रा पोखरणी में स्नान करि, कीधा बलि-कर्म आम । देव नीं प्रतिमा पूजी ओढणो, एहवी छतीज कमल वह ग्रही नीकली, पुष्करणी थी तेथ ॥ बाव मध्य कि ताम || भीनी साड़ी बहु पुष्प गंध कांडे जे मूक्या धूपणो माध्य प्रमुख प्रथम, तेह गृही नैं पाछे नाग घर आयने प्रतिमा पुजी जाव वेसमण नी बलि पूजी आखी 1 वृतिकार | विचार ॥ तेह | जेह ॥ अवलोय ॥ । सोय || आम । ताम || ५१. एवं भत्रे जाव आणुगामियताए भविस्सति ५२. इति कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठे पडिसुर्णेति, पडिसुता जेणेव सवाई-पाई मिहाईमेव उपागच्छति १. पहाया कयबलिकम्मा स्नानान्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा । (१०-१० १३०) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. बलि-कर्म पोखरणी विषै, कीधो धुर आख्यात । ते पुष्करणी नै विषै, किसा देव नी जात ? सार सोरठा १३. मल्लि पिता रै पास, आवंतां न्हाया कह्यो। जाव शब्द में तास, बलिकम्मा ए पाठ छै ।। १४. बलि मल्लि पट राजान, समझावा आवी तदा। जाव शब्द में जान, बलिकम्मा ए पाठ छै ।। १५. देखो मल्लि भगवान, प्रतिमा पूजी केहनीं। अध्येन अष्टम जान, आख्यो ज्ञाता नै विष ।। १६. बलिकम्मा नों जाण, अर्थ कहै पूजा तणो। ए जिन-प्रतिमा नी माण, के पूजा कूल-देव नी? १७. जो स्थापै जिन - बिब, तो मल्लि तीर्थकर छता। पूजे तेह अचंभ, वलि प्रतिमा किण जिन तणी।। जिन-प्रतिमा नी ताय, मल्लिनाथ पूजा करी। तो भावे मुनि पाय, देखी प्रणमैं के नहीं ? १६. बलि अढी द्वीप रे मांय, भावे जिन उत्कृष्ट थी। इक सो सित्तर थाय, जघन्य बीस थी नहिं घटै।। तिहां द्रव्य-जिन घर मांय, भावै-जिन वंदै क नहीं? बलि तसं वाण सुहाय, तसु लेखै किम नहिं सुण ? २१. मल्लिनाथ घर मांहि, जिन-प्रतिमा पूजी कहै। तो द्रव्य-जिन पिण ताहि, भावे-जिन वंदै न किम? जो थापै कुल - देव, मल्लिनाथ पूजा करी। सुर सहाय स्वयमेव, किम न करै श्रावक समकती? २३. स्नान तणोज विशेष, अर्थ करै बलिकर्म नों। तो टल्यो क्लेश अशेष, सह ठाम विशेषण स्नान नों।। २०. २४. भगवती नवमा शतक में, तेतीसम उद्देश । जमाली मज्जनघरे, स्नान बलिकर्म शेष ।। २५. अलंकार कर नीकल्यो, मज्जनघर थी हेव । इण न्हावा नै घर विषै, केहो पूज्यो देव ? वर्णनाग जे नत्तुओ, मज्जन - घर में स्नान । बलिकर्म करिनै नीकल्यो, मज्जन - घर थी जान ।। शतक सातमैं भगवती, नवम उद्देशै हेव । तिण न्हावा नैं घर मझै, केहो पूज्यो देव ? देवानंदा ब्राह्मणी, बलिकर्म मज्जन गेह । तिण न्हावा नै घर किसो, पूज्यो देव कहेह ।। श०२, उ०५, ढा०४३ २६९ Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उपग प्रदेशि नृप, देव पहिला न्हावा पर विये, बलिकर्म ज्ञाता अध्येन सोलमै, द्रोपदी स्नान बलिकर्म कोतुका, प्रदर वस्त्र मज्जन घर सूं नीकली, आधी इतरा सूधी पाठ छै, देख ३२. पहिला तो न्हावो कह्यो, पछे ३१ २६. ३०. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. आपात चिलाती जंबूद्वीपपणती पूजवा कीधो मज्जन पर्छ वस्त्र पहिरया कह्या हिव स्त्री जाति स्वभावे नग्न थइ, न्हावा त्यां न्हावा ने घर मलै केहो दूहा कोणक जिन वंदन गयो, कह्यो दलिकमं शब्दज मूलगो, नत्थि विचारों कह्यो जोवो जिन घर मांय जाय । ताय ॥ गेह - पूज्यो स्नान तिहां पहिरेह || न्याय ॥ बलिकर्म । ए बैठी जिन प्रतिमा तणी । क्रिम ? महाया तिहां सोरठा बलिकर्मशब्दे जेह, पूजा तो कोणिक अधिकारेह, जिन-वंदन समये न बलि जंबूद्वीपपणती मांहि भरतेश्वर कोणक भी परे ताहि, बलिकर्म शब्द न स्नान तणो जिण स्थान, विस्तर पणे न तिहां बलिकम्मा जान पाठ देख निर्णय जलांजली परमुख, स्नान करती जे करें। कुरलादिक परतख, स्नान विशेषण एह एह छ । मूलगो ॥ वर्णव्यो । करो ॥ " ते मार्ट अवलोय, बलिकम्मा जे पाठ नुं । स्नान विशेषण सोय, अर्थ धर्मसी इम कियो ॥ १. ओवाइयं सू० ६३ जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ अणुपविसित्ता समत्तजनाउनाभिरामे विचित्तमणिरयकृमितरमभिन्नेन्हाणडवंसि नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुणिसणे सुहोदएहि गंधोदएहि पुफ्फोदएहि सुद्धोदएहि पुणो-पुणो कल्लाणग-पवरमज्जण विहीए मज्जिए तत्थ कोउयमहिला मावसा गंधकासासूहियंगे सरससु रहिगोसीसचंदा गुत्तिगतं अह्यसुमहम्पसरणसंबुए बुहमालावण्णगविलेव य आदिकविहार हा तिसरा पतंवमाणकटि सुतसोमे पिवेज्ज अनिलवंगक्लयिकाभरणे...। २७० भगवती जोड मर्म ॥ हेव । सोरठा न्हाय, कय बलिकम्मा पाठ त्यां । मांय किसो देव तिहां पूजियो ? , देव ? विस्तार | अवधार' ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. वृत्तिकार कह्यताहि, बलिकर्म ते गृह देवता। तसं पूजा करि ताहि, इहां कुल देवी संभवै ।। स्नान विशेषण सोय, वा पूजी गृह देवता। उभय अर्थ अवलोय, सत्य सर्वज्ञ वदै तिको'। (ज० स०) ४३, ४४. कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता कौतुकानि–मषीतिलकादीनि, मंगलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतदुर्वांकुरादीनि। (वृ०-प० १३७) हिव श्रावक तुंगिया तणा, स्नान बलिकर्म कीध । बलि कोतुक कीधा तिणे, तिलकादि सूप्रसीध ।। मंगलीक नै अर्थ बलि, सरसव दही अक्षत। द्रोब अंकूरादिक ग्रहै, वृत्तिकार ए कृत ।। ४५. जिम ए मग लोकीक है, सावज्ज कारज जाण । बलिकम्मे पिण इमज है, न्याय हिया में आण ।। दुःसुपनादिक टालिवा, करिवा योग्य अवश्य । ते कार्य मंगलीक करी, लोकिक मग ए रहस्य ।। वा०—सुद्धप्पावेसाइति । सुद्धप्पा कहितां शुद्ध आत्मा ते महान आत्मा, वेसाई कहितां जोग्य वेस । अथवा सुद्धप्पावेसाई कहितां राजादिक नी सभा नैं विर्ष प्रवेश करवा जोग्य प्रवर मंगलीक वस्त्र पहिर्या । ४६. दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वात् । (वृ०-५० १३७) वा०—'सुद्धप्पावेसाई' त्ति शुद्धात्मनां वैष्याणिवेषोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि चराजादिसभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि । (वृ०-५० १३७) ४७. सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया ४७. नपति प्रमुख नी जे सभा, प्रवेश योग्य' पिछाण । शुद्ध वस्त्र मंगलीक वर, पहिरचा उत्तम जाण ।। ४८. वस्त्र पवर बहु पहिरिया, ए प्रथम पाठ अर्थ पेख। पवर हुवै जिम पहिरिया, द्वितीय पाठ अर्थ देख ।। ४६. अल्प भार अरु मोल बहु, अलंकृत करि देह। निज-निज घर सूं नीकल्या, थया एकठा तेह ।। पग विहारचारी थका, तुगिया नै मध्य होय । पुप्फवती जिहां चैत्य है, तिहां आया अवलोय ।। ४८. 'वत्थाई पवराई परिहिय' ति क्वचित्दृश्यते, क्वचिच्च 'वत्थाई पवरपरिहिय' ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथाभवत्येवं परिहिताः प्रवरपरिहिताः। (वृ-प०१३७) ४६. अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा सरहि-सएहि गिहेहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, ५०. पायविहायचारेणं तुंगियाए नयरीए मझमज्झेणं निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता जेणेव पुष्फवतिए चेइए तेणेव उवागच्छंति, ५०. *हो म्हारा तिरण तारण जिन राज पार्श्वना स्थविर संतानिया सारं। (ध्रुपदं) ५१. स्थविर भगवंत - पंच प्रकारे, अभिगमण साचवंत। सचित द्रव्य नै अलगा मेल्या, पुष्पादि जेह तजंत ।। ५१. थेरे भगवते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति, तं जहा–सच्चित्ताणं दव्याणं विओसरणयाए सच्चित्ताणं त्ति पुष्पताम्बूलादीनां। (व०-५० १३७) लय-हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी श०२, उ०५, ढा ४३ २७१ Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. अचित्त द्रव्य वस्त्रादिक अणतजिर्व, छत्रपानही शस्त्रादि छोडे । इक पट वस्त्रे उत्तरासंग कीधो, देख्यै छतै बिहु कर जोड़े || ५३. चंचल मन ने एकस्व कीधो स्थविर भगवंत पे आया। जीमणा कर थी प्रारंभी प्रदक्षिण, करें तीन बार हुलसाया || ५४. जाव करै त्रिहुं जोग थी सेवा स्थविर भगवंत तिवार । ते श्रमणोपासक हवी मोटी परपद में प्यार याम धर्म कहे सार ॥ , ५५. केसी श्रमण जिम वाण प्रकासी, जाव पाली श्रावक नों धर्म । आज्ञाए करो आराधक होवे, जाव धर्म का पर्म ॥ ५६. तिण अवसर ते बहुला श्रावक, ते स्थविर भगवंत रे पाह्यो । धर्म सुणी फुन हृदय धरी ने पाया हरष संतोष सवायो || ५७. जाव हियो विकस्यो छे तेहनं तीन सुविचार | दक्षिण कर थी प्रारंभी प्रदिक्षण, करं तिवार ।। ५८. जाव करै त्रिहुं जोग थी सेवा, अवलोय | 1 हे भगवंत संजम नों स्यूं फल ? ५६. तब स्थविर भगवंत कहै श्रावका ने, नवा इम बोल्या स्वामी! तपनो फल स्यूं होय ? अहो आर्य संजम फल सोय । कर्म अणउपजाय ते अनाश्रवपणो संवर होय || , ६०. तपनं फल बोदा को है, पूर्व कर्म रूप वन गहन प्रत जे लूणं ६१. अथवा जेह पूर्वलो तास शोधन ते अलगा बार करीने कीधो, कचरो करिखूं, आत्म अवलोय | छेदवूं होय ॥ कृत कर्म रूप प्रति शुद्ध जेह | करेह || १. पांच अभिगमों में एक है 'अचित्ताणं अविउसरणाए' टीकाकार ने इस पाठ की व्याख्या करते हुए लिखा है— अचित्ताणं ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् अविसरणपाए त्ति अत्यागेन' जयाचार्य ने इस व्याख्या के अनुरूप जोड़ करके आगे लिखा है— 'छत्र पानही शस्त्रादि छोडे' यह अर्थ न तो मूल पाठ से निकलता है और न टीका के आधार पर ही संभव है यहां जयाचार्य ने अपनी स्वतन्त्र मनीषा से यह रहस्य निकाला है | आगम- सम्पादन के समय हमारे सामने यह पाठ आया था। उस समय एक चिन्तन आया कि अचित्त द्रव्यों को नहीं छोड़ना अभिगम कैसे हो सकता है ? यदि इस पाठ के स्थान पर अचित्ताणं अ (च) विउसरणयाए पाठ हो तो छत्र, जूते, शस्त्र आदि के छोड़ने की बात सम्मत हो सकती है। जयाचार्य कृत उक्त जोड़ से भी यह तथ्य पुष्ट होता है। २७२ भगवती जोड़ ५२. अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए, एकसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गणं । 'अचित्ताणं' ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् अविउसरणयाए ति अत्यागेन । (२०-२० १३७) ५३. मणसो एगत्तीकरणेणं जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उपागच्छतावित आया-पाह करेंति करेत्ता ५४. जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । (श० २२६७ ) तणं तेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महत्वपरिसाए पाउना धम्मं परिकति ५५. जहा केसिसारस जान समगोवासिवत्ताए आणाए आराहए भवंति जाव धम्मो कहिओ । ( श० २1१८ ) " ५६. तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवताणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा ५७. जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिणपाहि करेति ५८. करेत्ता एवं वयासी संजमेणं भंते ! किंफले ? तवे फिले? ( श० २/६९ ) ५६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं व्यासीसंजमेणं अशो! अगले 'अफ' त्ति न आश्रवः अनाश्रवः, अनाश्रवो-नव कम्मनुपादानं फलमस्येत्वनाचफल- संयमः ॥ ( वृ० प० १३८) (०२०१००) ६०. तवे वोदाणफले व्यवदा पूर्ववनगनस्य सवनम् । ( वृ० प० १३८ ) ६१. प्राक्कृतकर्म्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य तद्वयवदानफलं तप इति । (बु०-१० १२० ) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. स्थविरां प्रत तब श्रावक बोल्या, अनाश्रव-फल संजम जोय। तप-फल बोदाण तो किण कारण, देवलोक उपज होय? ६३. संयम सू आवता कर्म रोके, तप सूं पूर्व कर्म खपाय। स्वर्ग तणां कारण नहिं दोन, तिण सं निःकारणे स्वर्ग जाय ।। ६४. तिहां कालिक-पुत्र स्थविर कहै आर्यो ! पूर्व-तप सूं स्वर्ग मांहि जायो। वीतराग - तप नी अपेक्षाए, पूर्व सराग-तप कहिवायो।। ६५. तिहां मेहिल नामै स्थविर कहै आर्यो ! पूर्व-संजम करि सुर थाय। वीतराग - संजम री अपेक्षा, पूर्व सराग - संयम आय ।। ६६. तिहां आणंदरक्षित नाम स्थविर जे, श्रावका नैं कहै इम वाय। हे आर्यो ! जे कर्मपणे करि सुर ह तथा कर्म शेष रह्यां थाय ।। ६२. तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी-जइ णं भंते ! संजमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले। किपत्तियं णं भंते ! देवा देवलोएसु उववज्जति ? (श० २।१०१) ६३. निष्कारणमेव देवा देवलोकेषुत्पद्यन्ते तपः संयमयोरुक्त नीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः। (वृत-प० १३८) ६४. तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी-पुब्बतवेणं अज्जो !देवा देवलोएसु उववज्जति। पूर्वतप:--सरागावस्थाभावि तपस्या, वीतरागावस्थाsपेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात्।। (वृ०प० १३८) ६५. तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी---- पुव्वसंजमेणं अज्जो ! देवा देवलोएसु उववति । ६६. तत्थ णं आणंदरक्खिए नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी-कम्मियाए अज्जो! देवा देवलोएस उवव ज्जति। ६७. तत्थ णं कासवे नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति । ६८. पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववज्जति । ६६. सच्चे णं एस अट्ठ, नो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए । (श० २११०२) ७०. तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवतेहि इमाइं एयारू वाई वागरणाई वागरिया समाणा हट्ठतुट्ठा ७१. थेरे भगवंते वंदंति नमसंति, पसिणाई पुच्छंति, अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता ७२ उठाए उठेति उठेत्ता थेरे भगवंते तिक्खुत्तो वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता ७३. थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुप्फवतियाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति । जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया। (श० २११०३) ७४. तए णं ते थेरा अण्णया कयाई तुंगियाओ नयरीओ पुप्फवतियाओ चेइयाओ पडिनिग्गच्छंति, बहिया जणवयविहारं विहरंति। (श० २।१०४) . ६७. कासव स्थविर कहै हे आर्यों! संग-भाव करी सुर थाय। संयम-युक्त पिण द्रव्यादि ऊपर, संग करतां मुक्ति नहिं जाय ।। ६८. सराग-तपसा सराग-संजम कर, कर्म करी संग कर ताह्यो। देवलोक देवजन विष आर्यो ! सुरपणे ऊपजै जायो।। ६६. सत्य अर्थ ए च्यारूइ आख्या, निज अभिप्राय थी कह्या नांह्यो। अभिमान बुद्धि थकी अम्है न कह्या, परमार्थ थी कहिवायो ।। ७०. तिण अवसर ते श्रावक बहुला, स्थविर भगवंते एहो। एहवे रूपे वर अर्थ प्रश्न ना, कह्या छता हरहो।। ७१. तुष्टमान थइ स्थविर भणी ते, वंदी करी नमस्कार। प्रश्न पूछे प्रश्न प्रति पूछी नै, अर्थ ग्रहै अर्थ ग्रही सार।। ७२. ऊभा थायवै करी ऊठ ऊठी, स्थविर भगवंत नै तिणवार। वंदै वचन स्तुति नमस्कार कर, वंदी करी नमस्कार ।। ७३. स्थविर भगवंत समीप थकी जे, पुप्फवती सखदाय। चैत्य थकी निकलै निकली ने, आया जिण दिशि जाय ।। ... ७४. ताम स्थविर अन्यदा तुंगिया थी, पुप्फवति चैत्य थी जेह। नीकलै नीकली बाहिर जनपद, विहार करी विचरेह ।। १. 'उठाए....पडिनिक्खमति' अंगसुत्ताणि भाग २ श०२।१०३ में यह पाठ नहीं है। जयाचार्य ने इसकी जोड़ की है। अंगसूत्ताणि में यह पाठान्तर के रूप में स्वीकृत किया गया है। श०२, उ०५, ढा०४३ २७३ Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ७५. तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था--- सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। (श० २।१०५) तिण काले नैं तिण समय, नगर राजगृह जान। जाव परिषदा पडिगता, जिन वंदी निज स्थान ।। *हो म्हारा तिरण तारण महावीर प्रभु नां शिष्य इंद्रभूती अणगारं ।। (ध्रुपदं) ७६. तिण कालै तिण समय विषै, जे वीर तणां सुविशेष। जेष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूती ते, जाव संखित्त-विपुल तेय-लेश ।। ७७. अंतर-रहित करै तप छठ-छठ, संजम तप करि सोय । जावत् आत्मा भावत विचरै, हिव छठ्ठ पारण जोय ।। ७८. पहिली पोहरसी सझाय कीधी, बीजी पोहरसी ध्यानज ध्याया। तीज पोहर काय मन अचपलता, असंभ्रांतपणे मुनिराया।। ७९. मुख-वस्त्रिका पडिले है पडिलेही, भाजन वस्त्र पडिलेही। भाजन पंजै भाजन प्रति पूंजी, भाजन ग्रहण करेही ।। ७६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जाव संखित्तवि पुलतेयलेस्से ७७. छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० २०१०६) तए णं भगव गोयमे ! छट्ठक्खमणपारणगंसि ७८. पढमाए पोरिमीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसं भंते ७६. मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाई पडिले हेइ, पडिलेहेत्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भाय णाई उन्गाहेइ उग्गाहेत्ता ८०. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी८१. इच्छामि णं भंते ! तुभेहि अब्भणुण्णाए समाणे छट्ठक्ख मणपारणगंसि रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। ८०. जिहां प्रभु तिहां आवै, आवी नै स्वाम प्रतै सुखदाय। वंदै वंदी नमस्कार करीन, इम बोल मुनिराय ।। ८१. वांछू हे पूज्य ! तुम्हारी आज्ञा थी, छठ पारण राजगृह माय । ऊंच-नीच मज्झम कुल बहु घर नी, भिक्षाचरी अटन कराय ।। ८२. सोरठा बह घर भिक्षा लेह, समुदाणिक भिक्षा भणी। भिक्खायरियाए जेह, भिक्षा वर आचर करी ।। ८३. हे देवानुप्रिया ! जिम सुख तिम कर, जेज न कीजै लिगार । ताम गोतम भगवंत प्रभु नी, आज्ञा थयै छतै सार ।। ८४. श्रमण भगवंत महावीर कनां थी, गुणसिल चैत्य थी ज्यांही। नीकलै त्वरितपणों न काया नों, मन नी चपलता नाही। ८५. असंभ्रांत थका चाल्या गोतमजी, जुगंतर झूसर प्रमाण । भूमि प्रते देखै दृष्टि करी नै, आगल ई सोधता जान ।। ८२. गृहेषु समुदानं-भक्ष गृहसमुदान तस्मै गृहसमुदानाय 'भिक्खायरियाए' ति भिक्षासमाचारेण । (वृ०-५० १४०) ८३. अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। (श० २।१०७) तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणु प्रणाए समाणे ८४,८५. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुण सिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहमाणे-सोहेमाणे 'अतुरियं' ति कायिकत्वरारहितम् 'अचवलं' ति मानसचापल्यरहितम्। (वृ०-प० १४०) वा०...'जुगंतरपलोयणाए' त्ति युग-यपस्तत्प्रमाणम्, अन्तरं-स्वदेहस्य दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या । (व०-प० १४०) वा०-'जुगंतर पलोयणाए दिट्ठीए' जुग कहितां झूसरो तेह प्रमाण, अंतर कहितां आपणा देह रूप देश नै जे भूमिका नै विष दृष्टि पड़े ते दृष्टिपात देश नै विचाल, पलोयणाए कहितां देखै एहवी दृष्टि करि । लय हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी २७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. "जिहां राजगृह नगर तिहां आये ऊंच नीच मज्झम कुल घर मैं विपै, अटन करता । महामतिमता ॥ नगरी वार | , ८७. राजगृह नगर विदे तव गीतम, जावत् घणां मनुष्य नां मुख भी शब्द जे सांभले ८८. इम निश्चे देवानुप्रिया ! जे तुंगिया पुप्फवती रवि पार्श्व न स्थविर भगवंत ने सार । श्रमणोपासक इम एहवे रूपे पूछ्या प्रश्न नां अर्थ उदार । हे भगवंत ! संजम नों फल स्यूं ? स्यूं तप फल सुखकार ? २०. ताम स्थविर आयको ने कहा, इम अहो आर्य ! मृणो वाय । संजम - फल अनाश्रवपणुं छै, तप फल कर्म खपाय ॥ ६१. तिमहिज जाव सराग तपे करि, सराग संजम करि सोय । शेप कर्म करो संग करी ने देवलोक विसुर होय ॥ २२ सत्य ए अर्थ ए नहि अभिमाने, किम एस्थविर नीं वाय गोतम बहू जन पास मुणी ए, धडा प्रवर्ती ताय || ८. २३. यावत् अति ही कोतुहल उपनों ग्रही पूर्ण भिक्षा समुदाणं । नगर थकी जाव ईर्ष्या सोधंता, आया वीर समीपे जाणं || आयी नगर राजगृह मांहि ॥ भिक्षा अर्थे फिर ताहि । २४. नहीं अति दूर न निकट वीर थी, गमनागमन एषणीक बहिर्यो अनेपणीक छोड्यो तेह प्रत ९६. ऊंच नीच मज्झिम कुल फिरता, 1 २५. भात पाणी देखावी जिन बंदी जाव बोल्या इम हे प्रभु! हूं तुझ आज्ञा लेइने, नगर राजगृह पक्किमे । आलोवेह || * लय- हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी शब्द सुण्या बहु जन पास । तुंगिया बाग पार्श्व स्थविरां ने पूछया श्रावकां प्रश्न प्रकाश ।। वाय मांय ॥ ९७. संजम स्यूं फल ? स्यूं फल तप नो ? तिमज जाव सत्य अर्थ ए नहि अभिमाने, ए पुरजन पे १८. हे प्रभु! स्थविर भगवंत समर्थ छे, धावको ने एहवा प्रश्न नां उत्तर देवा के समर्थ नहीं है सोय ? सर्व जाणी । सुणी वाणी ।। अवलोय । ८६. जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायन नगरे उच्च-नीमा कुलाई घरम दाणस्स भिक्खायरियं अडइ । (० २०१०) ८७. तए णं भगवं गोयमे रायगिहे नगरे जाव अडमाणे बहुजगस निसामेश ८८. एवं देवा तुनियाए नमरीए बहिया पुष्पवइए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो ८६. समणोवासएहिं इमाई एयाख्वाइं वागरणाई पुच्छियासंजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? ६०. तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासीसंजमे पंजी ! अफले त बोदारले ११. जाणं पृथसंगमे कम्मवाए, संदि पाए वो देवा देवलो उपति । ६२. सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तन्वयाए । से हमे मन्ने एवं (०२११०२) तणं भगवं गोयमे इमीसे कहाए लट्ठे समाणे जायसहदे ६३. जाव समुप्पन्न कोउहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गेव्हइ, हित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ अतुरिय जात्र सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ६४. उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमनागमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता एसणमणेस आलोएड. ६५. भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ जाव एवं वदासी - एवं खलु भंते! अहं तुम्भेहि अमाए समाणे रामनरे ६६. उच्च-नीय मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणरस भरिया अदमास निसामि एवं धनु देवानिया! तुनिया नवरी बहिया पुलाइए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूबाई वागरणाई पुच्छिया ६७. संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? तं चैव जाव सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तव्त्रयाए । ६८. तं पभू णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु अप्पभू ? श० २, उ० ५ ढा० ४३ २७५ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. सम्यक् हे प्रभु ! स्थविर भगवंत ए, श्रावकां ने अवधार। इम ए प्रश्न नां उत्तर देवा, अथवा असम्यक् उच्चार? वा०–समियाणं कहितां सम्यग् शब्द प्रशंसा वाची निपात है। तिण करिके सम्यकपणां नै विष स्थविरे प्रश्न ना अर्थ उत्तर देवू वत्त । अविपर्यास ते भ्रांति रहित अथवा समंचंतीति सम्मंचए-अंच धातु गति अर्थ नै विषै, गति अर्थ ते ज्ञानार्थे सम्यक् प्रकारे ज्ञानवंत अथवा समिता ते सम्यक् प्रवृत्ति, अथवा श्रमिता ते भलीभांत अभ्यासवंत। १००.हे प्रभ ! उपयोगवंत जाण छ, पार्श्व स्थविर भगवंत। श्रावकां नै जाव देवै एहवा, अथवा अण उपयोगवंत? ६६. समिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए? उदाहु असमिया? वा..... 'समिया णं' ति सम्यगिति प्रशंसाओं निपातस्तेन सम्यक् ते व्याकतु वर्तन्ते अविपर्यासास्त इत्यर्थः समञ्चन्तीति वा सम्यंचः समिता वा-सम्यक्प्रवृत्तयः, धमिता वा-अभ्यासवन्तः। (व०-प०१४०) १०१. प्रभु! समस्त प्रकारे उपयोगवंत छ, स्थविर भगवंतज ज्यांही। श्रावका नै जाब देवै एहवा, अथवा सर्वथा जाणें नाही? १०२. सराग-तप-संजम कर्म संग करि, देवलोक में जाय । सत्य अर्थ पिण नहि अभिमाने, एहवा जाब दिया वर न्याय ।। १०३. जिन कहै स्थविर भगवंत समर्थ छै, तेहवा श्रावक नै सोय । इम ए प्रश्न नां उत्तर देवा, असमर्थ नहीं छै कोय ।। १००, आउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणो वासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए? उदाहु अणाउज्जिया? १०१. पलि उज्जिया णं भते ! ते थेरा भगवतो तेसि समणो वासयार्ण इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए? उदाहु अपलिउज्जिया? १०२. पुन्वतवेणं अज्जो! देवा देवलोएसु उबवज्जति । पुव्व सजमेणं, कम्मियाए, संगियाए, अज्जो! देवा देवलोएमु उववज्जंति। सच्चे णं एस मठे, नो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए। १०३. पभू णं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए, नो चेव णं अप्पभू। १०४. तह चेव नेयव्वं अविसेसियं जाव पभू समियं आउज्जिय पलिउज्जिय जाव सच्चे णं एस मठे, नो चेव णं आय भाववत्तव्वयाए। १०५. अहं पि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि, पण्ण वेमि, परूवेमि-पुव्वतवेणं देवा देवलोएसु उव वज्जति। १०६. पुब्वसंजमेणं देवा देवलोएस उववज्जंति । कम्मियाए देवा देवलोएस उववज्जति । संगियाए देवा देवलोएसु उववज्जति । 'सच्चे णं एस मठे, नो चेव णं आयभाववत्तव्बयाए। (श० २।११०) १०४. तिमिज जाणवू सर्व थाकतुं', जाव समर्थ सम्यक् जान। उपयोगी अति उपयोगवंता, जाव सत्यार्थ नहीं अभिमान ।। १०५.१ पिण गोतम ! इम कहूं भाखू, पन्नवू पूर्व - तप कर देवलोक में, देव परूपू हुवै छै एम। तेम।। १०६. पूर्व - संजम करि सुर ब, फुन शेष कर्म थी जानं । संग करी सुर ह देवलोके, ए सत्य अर्थ, नहि मानं ।। १०७. अंक पचीस नों देश अर्थ ए, तीन चालीसमी ढालं। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालं ।। १. अवशेष २७६ भगवती-जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४४ १. अनन्तरं श्रमणपर्युपासनासंविधानकमुक्तम, अथ सा यत्फला तद्दर्शनार्थमाह- (वृ०-५० १४०) २. तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमा णस्स किंफला पज्जुवासणा? वा० --'तथारूपम्' उचितस्वभाव कंचन पुरुषं श्रमणं वा तपोयुक्तम्, 'उपलक्षणत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः, 'माहनं वा' स्वयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति मा हनेतिवादिनम्, उपलक्षणत्वादेव मूलगुणयुक्तमिति भावः, वाशब्दो समुच्चये, अथवा 'थमणः' साधुः 'माहनः' श्रावकः ।(व०-प०१४१) दूहा समण तणी पर्यपासना, कह्य विधानक तास । हिव सेवा नां फल तणों, गोयम प्रश्न प्रकाश ।। तथारूप जे श्रमण प्रति, वा माहण प्रति जान । सेवंतां नै हे प्रभु! स्यूं फल पर्यवसान ? वाल-तथारूप जे योग्य स्वभाबवंत, श्रमणं वा कहितां तप-युक्त। उपलक्षण पणां थकी ए श्रमण उत्तर गुणवंत। माहणं वा कहितां माहन, पोते हणवा ना निवृतपणा थकी, अन्य प्रति कहै मत हणो। उपलक्षणपणा थकीज मूल गुण युक्त । बे ठिकाण वा शब्द ते समुच्चय अर्थ नै विष, इम वृत्ति में प्रथम अर्थ कियो । ते शुद्ध छै । पछै दूजो अर्थ कियो ते कहै छै—अथवा श्रमण-साधु, माहण-श्रावक ए दूजो अर्थ अशुद्ध। 'पर्यपासन साधु तणी, सूतर में वह ठाम। श्रावक नी पर्युपासना, किहांई न चली ताम ।। कल्लाणं मंगलं देवयं, चैत्य नाम चिउं जास। जिन ना वा मुनि ना कह्या, तास कही पर्युपास ।। ठाम-ठाम सूत्र कह्या, जिन मुनि ना ए नाम । पर्युपासना पिण तसं, आखी छै बहु ठाम ।। ए चिहुं नाम थावक तणा, किणहि सूत्रे नांहि । पर्यपासना पिण तसं, किहांई न कही ताहि ।। जिन मुनि ना चिहुं नाम त्यां, पाठ कह्यो पर्युपास । पिण श्रमणोपासक तणी, पर्यपास नहिं तास ।। कल्लाणं मंगलं देवयं, चेइयं नै पजुवास । दूजे शतक उदेश धुर, इहां जिन सेव हुलास ।। कल्लाणं मंगल देवयं, चेयं नै पज वास । तंगिया ने अधिकार पिण, सेव स्थविर नी तास ।। कल्लाण मंगल देवय, चेइयं नै पजवास। निरावलिया पहिले झयण, जाव शब्द में तास ।। कल्लाण मगल देवयं, चेयं नै पजवास। जिन सेवा नवमे शतक, जाव शब्द में तास ।। कल्लाण मंगल देवयं, चेइयं नै पजुवास। सूयगडांग तेवीस में, त्यां श्रमण माहण मुनि तास ।। कल्लाणं मंगल देवय, चेइयं नै पजुवास । पंचम शतक उद्देश छठ, त्यां श्रमण माहण मुनि तास ।। कल्लाणं मंगलं देवयं, चेइय नै पजुवास। श्रमण माण नै त्यां कह्यो, शतक पनरमे जाम ।। १४. श०२, उ०५, ढा०४४ २७७ Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादिक बह सूत्र में, ए पांचूं पद जाम । जिन मुनि ने स्थानक कह्या, श्रावक नै नहि ताम ।। प्रतिमा तथा कुटुंब में, बडो पुरुप कहिवाय। ते स्थानक ए पंच पद, लौकिक खाते आय ।। माहण नाम मुनी तणो, हिंसा छोडी आप। अन्य भणी कहै मत हणो, आगम साख मिलाप ।। तिण सं श्रमण माहण तणी, पर्युपासना सेव । ए सेवा जिन मुनि तणी, पिण श्रावक नों नहि भेव ।। तथारूप थमण माहण भणी, दे सचित्त असूझतुं आहार। अल्प आउ पंचम शतक, छठा उद्देश मझार ।। जो माहण कहै श्रावक भणी, दे सचित्त असझतुं आहार। तसं लेखै अल्प आउखो, बंध निगोद अपार ।। जो सुर अल्पायु कहै, तो सेवै हिंसा झूठ। तसुं पिण अल्पायू कह्यो, तसुं श्रद्धा गइ ऊठ।। मुनि ना चवदै नाम में, माहण मुनि नों नाम । श्रुत-खंध दूजै सुयगडांग, प्रथम उद्देशै ताम ।। सर्व पाप सू निवो, माहण कहिये तास । सयगडांग सोलम झयण, माहण संत विमास ।। श्रमण माहण नै आपणी, ऋद्धि दिखावा जेह । ठाणांग तीजै कह्यो, सुर तारारूप करेह ।। श्रमण माहण श्रुत परम तसुं, त्रिण चक्षु कहिवाय। तृतिय ठाण उद्देश तुर्य, पूरवधर मुनिराय॥ परम अवधिवत नै कह्या, श्रमण माहण ठाणंग। तृतिय ठाण उद्देश तुर्य, माहण संत सुचंग।। श्रमण माहण पे इक वचन, धारयां थी सुर होय । ते धर्माचारज थकी ऊरण किण विध जोय? दुर्भिक्ष रोग अरण्य दुख, मेट्यां ऊरण नांहि । ऊरण धर्म पमाय फिर, ठाणांग तीजा मांहि ।। कला-शिल्प-धर्म - आयरिया, रायप्रश्रेणी मांहि । तिण सं धर्माचार्य नैं, इहां माहण कह्या ताहि ॥ ज्ञाति संग बंधव तज्या, आश्रव पंच तजेण । त्रिण जोगे ब्रह्म माहण ते, पणवीसम उत्तरज्झेण ।। ज्ञाति पेज्ज बंध ना मिट्यो, पडिमा ग्यारमी मांहि । दशाश्रुतखंध छठे का, तिण सू श्रावक माहण नांहि ।। गौतम उदक प्रतै कह्यो, अहो उदक आउखावंत ! जे श्रमण माहण त्रसभूत इम, कहि पचखाण करंत ।। २७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmm m 10 निश्चै अम्ह नै नहि रुचे, ते समणा वा निग्रंथ । अशुद्ध भाषा कहियै तसं, पर अनुताप करंत ।। सुयगडांग तेवीस में, माहण शब्द नै ठाम । निग्रंथ शब्द कह्यो अछ, तिण तूं माहण निग्रंथ नु नाम ।। सिलोग नाम श्लाघनीक ते, समण माहण कहिवाय । सर्व अतिथि तणो कह्यो अनुयोगद्वार रे मांय ।। ते माटै अन्य मत तणा, श्रमणादिक कहत। माहण ब्राह्मण नैं का, जग में गुरु वाजत ।। हे श्रावक ! हे धर्मप्रिय ! हे उपासक ! धामिक ! आचारग दूजे कह्यो, पिण माहण न कथिक ।। तिण कारण श्रावक भणी, माहण कहिजै नाय । माहण मुनिवर तेहनी, सेवा फल सुखदाय ।। श्रमण माहण नै दुख दियै, कोप्यो मूकै तेज। तथा तेज सुर मूकतो, तथा उभय मुकेज ।। ठाणांग दशमै ठाण ए, समण माहण मुनि एक। बीजो सूर ए बिहुं कह्या, पिण श्रावक न कह्यो पेख ।। विशेषण समुच्चय अर्थ ए, वा शब्द का विचार। श्रमण विशेष्य पद अछ, माहण विशेषण सार ।। ४२. श्रमण माहण वीतराग रै, ऊपर मूकै तेय । मुकण वाला में धसै, दशमै ठाण कहेय ।। ४३. इत्यादिक बहु स्थान के, श्रमण माहण मुनि नाम । वा रव समुच्चय अर्थ है, जोय विचारो ताम ।। ४४. श्रमण माहण नी सेव नु, सिद्ध गमन फल अंत । ते सेवा मुनिनीज है, जोवो सूत्र सिद्धंत' ।। वा०—पूर्वे समण माहण ना च्यार नाम अन तेहनी पर्युपासना अनै साधु नों समण माहण नाम संक्षेपे करि का, हिवै तेहिज सूत्रार्थे करि कहै छ ज्ञाता अध्येन १६ में कह्यो मेघकुमार भगवंत नै देखी पंच अभिगमन साचव al ० AK १. समणं वा माहणं वा' ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, मुनि के वाचक हैं किन्तु टीका कार ने इसका एक अर्थ यह भी किया है--समण-साधू, माहण-श्रावक । कूछ सम्प्रदायों ने इस अर्थ को मान्यता दे दी। जयाचार्य ने इस अभिमत से अपनी असहमति व्यक्त करने के लिए बहुत गंभीर समीक्षा की है। भगवती के प्रथम शतक ढाल २२ गाथा २८-११६ तक ८६ पद्यों में 'समणं वा माहणं वा' पर समीक्षा लिखने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उन्होंने श०२।१११ पर लम्बी समीक्षा करते हुए पहले ४२ पद्यों में (ढाल ४४ गाथा ३-४५) और उसके बाद एक विस्तृत वातिका में आगम के पचीसों प्रमाण देकर इस तथ्य को सिद्ध किया है कि माहण नाम श्रावक का नहीं, साधु का है। इसे पढ़ने से जयाचार्य के आगम-सम्बन्धी अगाध और तलस्पर्शी अध्ययन तथा आगमों के प्रति प्रगाढ़ आस्था का परिचय प्राप्त होता Jain Education Intemational Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदना नमस्कार करी हवी पाठ को-जनावन्ने नाइडुरे सुस्सुसमाने नमसमाणे अंजलिउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासति । इहां पिण तीर्थंकर नी पर्युपासना-सेवा कही १ । तथा ज्ञाता अध्येन ५।१७ कृष्ण अरिष्टनेमि कनै आया तिहां एहवो पाठ'जाव पज्जुवासइ' । अरिष्टनेमि नी पर्युपासना - सेवा कही २ । तथा ज्ञाता अध्येन १३|१० में नंदण भगवान कनै आयो तिहां एहवो पाठ कोजा पज्जुवासह इहां महावीर स्वामीनी पपासना-सेवा कही है। तथा छट्ठे अंगे जे श्रुतबंधे अ०] १२१२ राजगृह महावीर स्वामी पधातिह कह्यो - " परिसा निग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ । इहां पिण महावीर स्वामी नीपपासावा कही ४ तथा छट्ठे अंगे श्रु॰२ वर्ग ? अध्येन १११६ पार्श्वनाथ भगवंत पधार्या परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ । इम धर्मकथा में घणी जागां परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ पाठ कह्यो ५ । तथा अंतगड १।३ में कह्यो-आर्य सुधर्म स्वामी समवसऱ्या 'अज्ज जंबू जाव पज्जुवासति' ६ । तथा अणुत्तरोववाइ १११ में कह्यो– 'अज्ज सुहम्मस्स समोसरणं जाव जंबू पज्जुवासइ' ७ । तथा विन्दिसा सू० १६ में कह्यो अरिष्ट नेमनाथ पधार्या कृष्ण वासुदेव 'जाव पज्जुवासइ' ८। - तथा उपासग-दसा अध्येन २।४३ में कह्यो - महावीर स्वामी पधार्या कामदेव श्रावक 'जहा संखे जाव पज्जुवासइ' ६ । तथा निरियावलिया अध्येन ११४ में कह्यो- सुधर्म स्वामी पधार्या तिवार भगवंत जंबू नै ऊपनी प्रश्न पूछवानी श्रद्धा 'जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी' १० । तथा भगवती शतक १ उ० ६ सू० २८६ में कह्यो- रोहा अणगार नैं ऊपनी श्रद्धा 'जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी' ११ । तथा भगवती शतक १२ में उ० १ सू० २ में कह्यो- सावत्थी नगरी भगवंत महावीर स्वामी पधार्या 'परिसा जाव पज्जुवासई', तिवारे ते संख आदि श्रावक एवार्ता सुयां जहा आभियाए जाय पज्जुवासंति' १२ । तथा भगवती १११ राजीव गौतम स्वामी जाय पर्युपासना करता इम बोल्या १३ । तथा भगवती शतक १२ उ० २ सू० ३६ कोसंबी नगरी भगवंत महावीर स्वामी पधार्या, तिवारे मृगावती जयंति श्राविका जिम देवानंदा जाव बंदी नमस्कार करी उदाई राजा ने आगल करी नै 'ठिया चेव जाव पज्जुवासइ' १४ । तथा भगवती शतक ११० ११ सू० ११५, ११६ में वाणिया ग्राम महावीर स्वामी पधाऱ्या 'जाव परिसा पज्जुवासइ', तिवारं सुदर्शण सेठ पिण वीर पँ आवी पंच अभिगमन साचवी 'तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ' १५ । तथा भगवती शतक २ उ० १ सू० ३६ बंधक विचार्या श्रेय नैं श्रमण मुझ भगवंत महावीर ने वंदना नमस्कार करी सत्कारी सनमानी कल्याणीक मंगलीक दैवत चैत्य एहवा भगवंत नीं पर्युपासना सेवा करिए प्रश्न पूछें। इहां महावीर स्वामीनी पर्युपासना कही ते तीर्थकर ना ए च्यार नाम कह्या वलि खंधक गौतम न कह्यो चालो गौतम ! थारा धर्माचार्य धर्म-उपदेशक नैं वंदणा नमस्कार करां जाव पर्युपासना सेवा करां । इहां तीर्थकर नीं सेवा कही १६ । २० भगवती जोड Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उपासगदसा अध्येन श२० भगवान बाग आयां सं आणंद विचार्योतथारूप अरिहंत भगवंत नो नाम गोत्र सुण्यां पिण महाफल है तो किसु कहिवं सन्मुख जइ वंदणा नमस्कार करवा नो, प्रश्न पूछवा नों---पर्युपासना, सेवा करवा नों, विस्तीर्ण अर्थ ग्रहण नों, तो हूं जावू जाव पर्युपासना-सेवा भगवंत नी करूं । इहां पिण भगवंत नी पर्युपासना-सेवा कही, ते सेवा नो मोटो फल कह्यो १७ । तथा उपासगदसा अ० ७.१० में कह्यो सकडाल-पुत्र नै देवता कह्यो-काले महामाहण पुरुष उत्पन्न-केवलज्ञान-दर्शनधर तीन काल ना जाण इत्यादिक गुण करी कह्यो, देवता मनुष्य नै अच्चणिज्जे पूयणिज्जे वंदणिज्जे णमंसणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासणिज्जे तच्चकम्मसंपयासंपउत्ते तंणं तमं वंदेज्जाहि जाव पज्जूवासेज्जाहि'--इहां कह्यो देवता मनुष्य नै अच्चिवा जोग्य, बांदवा जोग्य, पूजिवा जोग्य, सत्कारवा जोग्य, सनमान देवा जोग्य, किल्लाणीक, मंगलीक, दैवत, चैत्य एहवा भगवंत नी सेवा करिवा जोग्य छै ते माट तूं वंदजै जाव पर्युपासना-सेवा कीजै। इहां भगवान ना च्यार नाम कह्या तेहनी पर्युपासना-सेवा कही १८ । तथा सुयगडांग द्वितीय श्रुतखंधे उद्देशै ७।३३ में गौतम उदक पेढाल-पुत्र नै कह्यो ते पाठ-"आउसंतो! उदगा! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म अप्पणो चेव सुहमाए पाडेलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे सो वि ताव तं आढाइ पडिजाणेइ वंदइ नमसइ सक्कारे इ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जूवासइ। इहां गौतम कह्यो ए आउखावंत उदक ! जे निश्चै तथारूप श्रमण माहण कनै एक पिण आर्य धर्ममय भलो वचन सांभली हिय धारी आत्माई सूक्ष्म बुद्धि करी आलोची नै प्रधान-रूडो मुक्ति साधन जोग क्षेम पद लाभे छतै, ते पिण ते श्रमण माहण प्रत आदर देवै, भलं जाण वंदणा-नमस्कार करै, सत्कार दिये, सन्मान दिये, कल्याणकारी ते कल्याण, विघन उपसम ना हेतुपणां थकी-मंगलीक, ए धर्मदेव ते माटै देवयं चित्त प्रसन्नता नों हेतु ए साधु ते चैत्य, इसु जाणी 'पज्जुवासई' पर्युपासनासेवा करै। इहां पिण कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं ए ४ नाम श्रमण माहण ना कह्या । अन तेहनी पर्युपासना-सेवा कही १६ । तथा भगवती शतक १५ सू०१०४ में सर्वानुभूति गोसाला नैं कह्यो ते पाठ-जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव वंदति नमंसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति । इहां कह्यो-जे पिण हे गोसाला ! तथारूप श्रमण माहण कनै एक पिण आर्य धर्ममय भलो वचन सुणी धारै ते पिण ते प्रत वंदै, नमस्कार करै, जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं एहवा श्रमण माहण नी सेवा करै । इहां पिण ए ४ नाम श्रमण माहण नां कह्या, तेहनी सेवा कही २० । तथा भगवती शतक ५ उ०६ सू० १२७ में एहवू पाठ-कहाणं भंते ? जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति? गोयमा ! नो पाणे अइवाएत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता "अण्णयरेणं मणुण्णणं, पीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता---एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्म पकरेंति । इहां कह्यो-जोव न हणे, झूठ न बोले, तथारूप श्रमण माहण प्रति वंदी नै जाव पर्युपासना करी नै अनेरो मनगमतो प्रीतिकारियो असणादिक ४ प्रति लाभी न, इम तीन प्रकारै शुभ दीर्घ आउखो बांधे । इहां श०२, उ०५, ढा०४४ २८१ Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण जाव शब्द में कल्लाणं आदि ४ नाम श्रमण माहण ना कह्या अन तेहनी पर्युपासना सेवा कही,तेहनै असणादिक प्रतिलाभ्यां शुभ दीर्घ आउखो बांध कह्यो २१ । तथा रायप्रश्रेणी सू०६ (पाठान्तर) में कह्यो-आमलकप्पा नगरी ना बाग में भगवान पधाऱ्या, सुरियाभ विचार्यो ते पाठ----तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहताणं णामगोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसणपडिपुच्छण-पज्जुवासणाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अदुस्स गहणयाए? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं 'वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि'। एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति। इहां कह्यो---ते मोटो फल अरिहंत भगवंत नो नाम गोत्र सुणवं करी, तो किसु कहि सन्मुख जइ वंदणा नमस्कार करवा नो, प्रश्न पूछवा नो, अनैं पर्युपासना--- सेवा करवा नो, एक पिण आर्य धर्ममय भलं वचन सुण वा नो मोटो फल, तो किसुं कहिवो विस्तीर्ण अर्थ ग्रहदै करी? तो हूं जावू श्रमण भगवंत महावीर प्रते वंदणा नमस्कार करूं । कल्याणकारी माटै भगवान नै कल्लाणं कह्या । विघ्न उपशम हेतु पणा थकी भगवंत नै मंगल कह्या। तीन लोक ना अधिपतिपणा थकी भगवंत नै देवयं कह्या । अति सुप्रसन्न मन ना हेतुपणा थकी भगवंत नै चैत्य का । एहवा भगवंत नी हूं पर्युपासना-सेवा करूं ए सेवा म्हारै परलोक नै हित नै अर्थे, सुख नै अर्थे, क्षम-समर्थपणा नै अर्थे, मोक्ष नै अर्थे, अनैं परलोक में सेवा ना फल साथे आसी इम सुरियाभे का २२ । उववाई सू० ५२ में कह्यो-तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-बंदणणमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। एयं णे पेच्चभवे इहभवे य हियाए खमाए निस्सेयसाए अणुगामियत्ताए भविस्सइ।" इहां पिण महावीर स्वामी नी पर्युपासना-सेवा नो मोटो फल कह्यो। अनै भगवंत ना कल्लाणं आदि ४ नाम कह्या। अनं जे भगवंत नी पर्युपासना--सेवा परभवे इहभव नैं विष हित, सुख, क्षम, मोक्ष नै अर्थे भव अनै नी परंपराई शुभ अनुबंध भणी हुस्य इम बहु जन नैं का २३ । भगवती शतक ६ उद्देशे ३३ सू० १३६ में कह्यो-तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विपुलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो जाव पज्जुवासामो । एयं णे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । इहां पिण महावीर स्वामी नी पर्युपासना-सेवा नों मोटो फल कह्यो। अनै भगवंत ना कल्लाणं आदि ४ नाम जाव शब्द में कह्या । अन भगवंत नी पर्यपासना-सेवा इहभव, परभव नै विर्ष हित, सुख, क्षम अने भव नी परंपराई शुभ अनुबंध भणी हुस्य इम ऋषभदत्त देवानंदा नै कह्य २४ । तथा भगवती शतक २ उद्देशे ५ सू०६७ में कह्यो ते पाठ---तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग २८२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण अभिगमण-बंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुबासणयाए जाव गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! थेरे भगवंते वंदामो णमसामो जाव पज्जुवासामो। एयं णे इहभवे वा परभवे वा आणुगामियत्ताए जाव भविस्सति । इहां पिण स्थविरांनी पर्युपासना-सेवा नो मोटो फल कह्यो। अनै स्थविरा ना कल्लाणं आदि ४ नाम जाव शब्द में कह्या । अन जे स्थविरांनी सेवा नों फल इहभव, परभव नै विष तथा आणुगामियत्ताए–भव नी परंपराइं शुभ अनुबंध भणी हुस्यै । इम तुंगिया नगरी नां श्रावका कह्य २५। इम अनेक ठांमे तीर्थकर नी तथा स्थविरां नी तथा समण माहण नी पर्युपासनासेवा कही । अन तेहनी सेवा नो मोटो फल कह्य । इहभव परभव नै विष हियाए आदि मोक्ष नै अर्थे, अन आणुगामियत्ताए कह्यो । इहभवे मोक्ष ते दलद्र नो मुकायवो, ते दलद्र नी मोक्ष इहभव नै विष हई। अनै परभव नै विष कर्म नों मुकायवो, ते कर्म नी मोक्ष ए सेवा नो फल हुई। अनै तीर्थकर स्थविर समण माहण ना कल्लाणं आदि ४ नाम ठाम-ठाम कह्या पिण श्रावक ना ए ४ नाम न कह्या। अन श्रावक नी पर्युपासना पिण न कही। अनै श्रावक री पर्युपासना नों महाफल तथा इहभव, परभव नै विष हियाए आदि, मोक्ष अर्थे अनै आणुगामियत्ताए नथी कह्यो। अनैं इहां बीज शतक पंचमे उद्देशे पिण गौतम पूछ्यू-तथारूप समणमाहण साधु नी पर्युपासना--सेवा कियां छेहड़े स्यूं फल हुई?तिवारे भगवान कहैसुणवो पाम, पछ ज्ञान-विज्ञानादिक छेहडै 'सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता' एहवं पाठ कह्य । सिद्धिगमन-पर्यवसान ते छेहडै ए फल का । इहां श्रमण माहण नी सेवा नों मोक्ष रूप फल कह्यते माटै समण माहण साधु छ, पिण श्रावक नहीं। सूत्र में घणे ठिकाणे माहण नाम साधु रो कह्यो , ते केतला एक पाठ लिखिये छैकि नामे? कि गोते ? कस्साए व माहणे? (उत्त०१८।२१) इहां पिण क्षत्रिय राजऋषि संजती नै पूछ्यो—स्यू नाम ? स्यू गोत्र ? किण अर्थे माहण—साध तूं थयो? इहां पिण माहण नाम साधु नुं कह्यो छ। तयसं व जहाइ से रयं, इइ संखाय मुणी न मज्जइ। गोयणतरेण माहणे, अहऽसेयकरी अण्णेसि इंखिणी।। (सूयगडो० श्रु० १।२।२३) इहां कह्यो—जिम सर्प आपणी त्वचा---कांचली छांडै तिम साधु कर्म-रज छांड । वले मद करीन माचै-गोत्रादिक नो मद न करै ते माहण कह्यो। इहां शीलाङ्काचार्य कृत टीका में माहण नों अर्थ साधु कियो। अनै टब्बा में ब्राह्मण कियो। दूर अणुपस्सिया मुणी, तीय धम्ममणागयं तहा । पुढे फरसेहि माहण, अवि हण्णू समयसि रीयइ ।। (सूयगडो १।२।२७) इहां कह्यो-धर्म बिना मोक्ष दूर, अतीत काले रुलवा रो सभाव, तिम तिम अनागत काले जे जीव स्वरूप जाणी नै लज्यावंत मद न करै, कठोर परिसह फरस्यै क्रोध न करै ते माण कह्यो। श०२, उ०५, ढा०४४ २८३ Jain Education Interational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णसमत्ते सया जए, समता धम्ममुदाहरे मुणी। सुहमे उ सदा अल्सए, गो कुज्झे णो माणि पाहण ।। (सूयगडो ११२।२८) इहां कह्यो-प्रज्ञावंत पंच समिते करी संपूर्ण, सदा यत्नवत, कषाय रहित समभाव करी अहिंसादिक धर्म कहै । मुनि संजम ना पालक, सदा अविराधक क्रोध न करै, मान न करै, एहवा गुणां सहित नैं माण कह्यो। भगवती शतक ५ उद्देशो ६ सूत्र १२४ में अल्प आउखा नै अधिकारे कह्यो ते पाठ---- कहण्णं भंते ! जोवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! पाणे अइवाइत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलाभेत्ता-एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्म पकरेंति । (भग० ५।१२४) इहां कह्यो-जीव हण, झूठ बोल, तथारूप श्रमण माहण नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ तो अल्प आउखो बांधे। जे माहण शब्द नों अर्थ श्रावक करै तेहन लेखै तो श्रावक नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ्यां अल्पायु निगोद नों बंधै । जीव हणे, झूठ बोल तेहन जोड़े श्रमण माहण नै अप्रासुक-अनेषणीक प्रतिलाभ एहवं कह्य । ते भणी ए त्रिहुं बोले करी अशुभ अल्पायु बंधै पिण शुभ अल्पायु न बंधै। बलि इहां श्रमण माहण नों अर्थ वृत्तिकार कर्यु ते वृत्ति लिखिये छ। समणं ब'त्ति श्राम्यते-तपस्यतीति श्रमणोऽतस्त, माहणं ब'त्ति मा हनेत्येवं योऽन्यं प्रति वक्ति स्वयं हनननिवतः सन्नऽ सौ माहनः, ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठान वाऽस्याऽस्तीति ब्राह्मणोऽतरत वा शब्दो समुच्चये। (ब्याख्या-प्र० वृ०-५० २२६) इहां समण माहण बेहुं शब्दे साधु नैं फलाव्या । श्रमण ते तप सहित, तप ते उत्तर-गुण जाणवो। अनै माहन ते अन्य प्रति कहै 'म हणो' अनै पोते हिंसा थकी निवयो ए मूल-गुण जाणवो, ते भणी वा शब्द कह्यो। तथा सूयगडांग श्रुतखंध २ उद्देश ७ में गोतम स्वामी उदक पेढाल-पुत्र नै कह्यो-तथारूप श्रमण माहण कनै एक वचन ही धारै तिण नै सूक्ष्म दृष्टि करी परम उपगारी जाणी वंदना-नमस्कार करै,सत्कार-सनमान देव, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति एहवा पाठ कह्या। तिहां माहण रो अर्थ टीकाकार शीलाङ्काचार्य इम कियो-तथाभूतथमणस्य ब्राह्मणस्य चांतिके। इहां माहण नों अर्थ ब्राह्मण कियो, पिण स्थूल प्राणातिपात थकी निवौं न कह्यो तथा परम गीतार्थ श्रावक नै न कह्यो। इण लेखै माहण नों अर्थ श्रावक कहै ते विरुद्ध । ___ वलि सूयगडांग श्रुतखंध २ उदेशै ७ सू० ३१ में गोतम उदक ने कह्यो---जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ--जे समण माहण नै निदै, अनैरा जीवां सं मित्रीपणो मान, ज्ञान-दर्शण-चारित्रियो घणो गुणवंत पिण समण माहण नै निंदवा थी परलोक नो तथा संजम नो विराधक थाय । अन जे ज्ञान-दर्शण-चारित्रवंत घणो गुणवंत छै ते श्रमण माहण नै न निदै तो परलोक नो तथा संजम नो आराधक थाय । इहां शीलाङ्काचार्य टीका में श्रमण माहण रो अर्थ इम कियो-श्रमणं ते २८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोक्त क्रिया ना करणहार, माहण ते भला ब्रह्मचर्य सहित, इमहीज अर्थ दीपका मे कियो, पिण माहण नों अर्थ श्रावक नथी कियो । ते भणी माहण नों अर्थ श्रावक कहै ते विरुद्ध छ। तिवारे कोई कहै प्राणातिपात थी पोते निवयो ते माहण अथवा देश थकी ब्रह्मचर्यवंत ते ब्राह्मण, देशविरती ए माहण शब्द नों अर्थ छ, इम मरोड़ी अर्थ करै ते विरुद्ध छ । सूत्र में सर्व प्राणातिपातादिक थकी निवों तथा सर्व थकी ब्रह्मचर्यवंत ते माहण-ब्राह्मण । ए माहण शब्द नों अर्थ सूत्र कहा छै ते लिखियै छउत्तराध्ययन अ० २५ में जयघोष मुनि विजयघोष ने कह्यते पाठ--- तसे पाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर० २५।२२) अथ इहां कह्यो–त्रस थावर जीव नै विविधे-त्रिविधे न हणे, तेहनै अम्है माण-ब्राह्मण कहूं धूं। कोहा वा जइवा हासा, लोहा वा जइ वा भया। मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर० २५५२३) अथ इहां कह्यो-क्रोध थकी हास थकी लोभ थकी भय थकी मषा न बोल, तेहनै अम्है माहण-ब्राह्मण कहूं छु । चित्तमंतमचित्त वा, अप्पं वा जइ वा बह । न गेण्हइ अदत्त जो, तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर०२।२४) अथ इहां कह्यो-सचित्त अथवा अचित्त अल्प अथवा बहु वस्तु अणदीधां न लिय, तेहनै अम्है माहण-ब्राह्मण कहूं धूं । दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर० २५।२५) अथ इहां कह्यो—देव मनुष्य तिथंच संबंधिया मिथुन मन वचन कायाई करी न सेवे, तेहनै अम्है माहण--ब्राह्मण कहूं छु। जहा पोम जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तो कामेहि. तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर०२५।२६) अथ इहां कह्यो—जिम कमल जल नै विष ऊपनों पिण पाणी करकै लिपावै नहीं। इम कामभोगे करी अलिप्त, तेहनै अम्है माहण-ब्राह्मण कहूं धूं । अलोलुयं मुहाजीबी, अणगारं अकिंचणं। असंसत्तं गिहत्थेसु, तं वयं बूम माहणं ।। (उत्तर० २।२७) अथ इहां कह्यो-लोलपणा-रहित अज्ञात कुल नी गोचरी करै। घर-रहित परिग्रह-रहित ग्रहस्थ सू संसर्ग-रहित अणगार, तेह. अम्है माहण--ब्राह्मण कहूं छु । इण वचने पडिमाधारी श्रावक नै पिण माहण-ब्राह्मण न कहिये। श०२, उ०५, ढा०४४ २८५ Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहित्ता पुत्र संजोगं, नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ एएहि, तं वयं बूम माहणं ॥ ( उत्तर० २५।२७ के बाद ) अथ इहां कह्यो- पूर्व संजोग ज्ञाती संजोग बंधवादिक तजी नै काम भोग नैं विषं गृद्धपणो न करै तेहनें अम्है माहण-ब्राह्मण कहूं छू । इम अनेक प्रकारे करी माण ब्राह्मण नाम साधु नों कह्यो। ए तो प्रत्यक्ष पाठ मे साधु न माहण-ब्राह्मण कह्या, पिण श्रावक नैं न कह्या अन शीलांकाचार्य मा नो अर्थ ब्राह्मणकियो ते भणी माहण नामसाधु नो छँ पिण श्रावक नो नथी । इहां पंच महाव्रतधारी नैं माहण को ते मार्ट पडिमाधारी श्रावक नैं पिण माहण न कहिवो । इण लेख स्थूल प्राणातिपात थकी निवत्य तथा देश थकी ब्रह्मचर्यवंत ए माहण शब्द नों अर्थ करें ते विरुद्ध छै । वलि कोइ कहै—समणं वा माहणं वा ए बिहु शब्दे साधु छे तो वा शब्द क्यूं कह्यो ? तेनों उत्तर- ए साधु नों बीजो नाम, तेहनी अपेक्षा वा शब्द का छ, एहवा पाठ घर्णं ठिकाण का है। तथा सूयगडांग श्रुतबंध ? अध्येन १६ में कह्यो ते पाठअहाह भगवं – एवं से दंते दविए वोसकाए त्ति बच्चेमाहणेति वा समणेति वा २ भिक्खू तिवा ३ नियेति वा ४ पूर्वोक्त पनरमा अध्येन नैं विषँ जे अनुष्ठान भाख्यो छँ तेहनों करणहार निग्रंथ कहियँ । इम भगवंते कह्ये हुते शिष्य बोल्यो - भगवन् ! किम दांत - वोसराव जे काय-विनयोग्य इम कहियो ? 3 - १ - - - १ पडिआ भंते! कहं देते दविए बोसकाए त्ति बच्चे-माने ति वा? समति वा? २ भिक्खू शिवा ? ३ निग्नयेति वा ? ४ वं णो ब्रूहि महामुणी ! इतिविरतसव्वपावकम्मे पेज्ज- दोस- कलहअभयाण पेण परपरिवाद अरतिरति मायामोस मिच्छादंसणसल्ले विरते समिए सहिए सयाजए, णो कुज्झे णो माणी 'माहणे' त्ति बच्चे | - ( सूयगडो १।१६।१-३ ) अथ इहां माहणेति वा समणेति वा भिक्खूति वा निग्गंथेति वा ए नाम साधु नां कह्या । तिहां च्यारूं ठिकाण अन्य नाम नीं अपेक्षाए वा शब्द कह्यो । अनै निवर्त्यो सर्व पाप थकी राग द्वेष कलह अभ्याख्यन पैशुन्य परपरिवाद अरति रति मायामोसो मिथ्यादर्शणसल्ल यां थकी निवर्त्यो, पंच सुमतिवंत, ज्ञान दर्शण चारित्र सहित, सदा संजम ना यत्नवंत, क्रोध न करें, मान न करें तेहने माहण प्रत्यक्ष पाठ में कह्यो । ते भणी स्थूल प्राणातिपातादिक ना त्यागी नैं तथा देश थकी ब्रह्मचर्यवंत माण कहै ते अर्थ विरुद्ध छै । तथा सूयगडांगे साधु रा चवदै नाम कह्या ते पाठ लिखिये छै- एवं से भिक्खू परिण्णायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसंते समिए सहिए समाज से एम वणिज्जे तं जहा-समति वा १ माहणेति वा २ खतेति वा ३ दंतेति वा ४ गुत्तेति वा ५ मुत्तं तिवा ६ इसी तिवा ७ मृणीति वाकतीति वा विदूति वा १० भिक्खू ति वा ११ लूहेति वा १२ तोरट्ठीति वा १३ चरण करण पारविउ त्ति १४ बेमि । ( सूयगडो श्रु० २।१।७२ ) २८६ भगवती-जोड़ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहां कह्यो-ग्रहस्थावास छोड्यो, इंद्रिय नों दमणहार, पंच सुमतिवंत, तीन गुप्तिवंत, ज्ञान दर्शण चारित्र सहित एहवा साधु तेहनै एतले नामै करी बोलाविये। तिण में माहण नाम साधु नों आयो ते भणी माहण नाम श्रावक नो नथी। अनै इहां बीच में सर्व ठिकाण अन्य नाम नी अपेक्षाए वा शब्द को जिम च शब्द किहांक तो अन्य वस्तु नी अपेक्षाय अनै किहांक च शब्द एक वस्तु नों दूजो नाम छ । ते नामंतर नी अपेक्षाय नवमा तीर्थकर ना बे नाम छै—सूविध अनै पुष्पदंत, लोगस्स में एहवू पाठ छै___ 'सुविहं च पुष्पदंत' नबमा सुविध च पुनः वलि दूजो नाम पुप्फदंत । इहां एक तीर्थकर ना दूजा नाम नी अपेक्षाय च शब्द का । तिवारे कोइ कहै—पुष्प जिसा दांत ते माटै पुष्फदंत कह्या, पिण सुविध नो पुष्पदंत बीजो नाम नथी। तेहनों उत्तर-ठाणांग ठाणे २ उ०४ दोय तीर्थकर नो श्वेत वर्ण कह्यो-चंद्रप्रभ अनै पुष्पदंत । इहां सुविध नो नाम पुष्पदंत कह्यो। तथा भगवती शतक २० उदेशै ८ सू०६७ में कह्यो ते पाठ...इमीसे ओसप्पिणीए कति तित्थगरा पण्णत्ता? गोयमा ! चउवीसं तित्थगरा पण्णत्ता तं जहा-- उसभ १ अजिय २ संभव ३ अभिनंदण ४ सुमति ५ सुप्पभ ६ सुपास ७ ससि ८ पुष्पदंतहसीयल १० सेजस ११ वासुपूज्ज १२ विमल १३ अणंत १४ धम्म १५ संति १६ कुंथु १७ अर १८ मल्लि १६ मुणिसुब्वय २० नमि २१ नेमि २२ पास २३ बद्धमाणा २४ । अथ इहां चउबीस तीथंकरांना चउबीस नाम कह्या । तिहां नवमां तीर्थकर नो पुष्पदंत नाम कह्यो। जिम तेवीस तीर्थकर ना २३ नाम तिम नवमां तीर्थकर नो पुष्पदंत नाम जाणवो । तथा हेमी नाममाला प्रथम कांडे नवमा तीर्थकर ना बे नाम कह्या । सुविधिस्तु पुष्पदंतो। इहां प्रथम सुविधि नाम अनै पुष्पदंत बीजो नाम कह्यो । जिम चंद्रमा नी पर प्रभा–सौम्य लेश्या जेहनी ते चंद्रप्रभ आठमा तीर्थकर नो गुण-निप्पन्न नाम, तिम पुप्फ नी कली नी परै मनोहर दांत जेहना ते पुष्पदंत, ए पिण नवमा तीर्थंकर नुं गुण-निप्पन्न बीजू नाम जाणवू । ते माटै लोगस्स में सुविहि च पुप्फदंत ए नवमा तीर्थकर ना बे नाम कह्या। अनै बीजा नाम नी अपेक्षाय च शब्द कह्यो। तिमहिज समणं वा माहणं वा साधु रा ए बे नाम घणे ठिकाण कह्या छ। अनै बीजा नाम नी अपेक्षाय समुच्चय अर्थ नै विष वा शब्द जाणवो। तथा भगवती शतक २० उ०२ में जीव रा २३ नाम कह्या छ, तिहां सर्व ठिकाण अन्य नाम नी अपेक्षाय वा शब्द कह्यो छै। तथा तीन प्रकारे ऊरण हुवै ठाणांग ठाणे ३ उ०१ में क ह्यो, तिहां तीजा बोल नों एहवो पाठ कह्यो छकेति तहारू वस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरिय धम्मियं सुवयण सोच्चा णिसम्म कालमासे काल किच्चा अन्नय रेस देवलोएम देवत्ताए उबवण्णे । तए ण से देवे त धम्मायरियं दुभिक्खाओ वा देसाआ सुभिक्खं देसं साह रेज्जा, कंताराओ वा णिकतार करेज्जा, दोहकालिएण वा रोगातकेण अभिभूतं समाणं विमोएज्जा तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति । (ठाणं ३।१८७) अथ इहां कह्मो-तथारूप श्रमण माहण कनै धर्ममय एक पिण सुवचन सुणी धारी देवता थई ते धर्माचार्य रो कष्ट मेट तो पिण ऊरण नहीं हवै। इहां माहण शब्द नों अर्थ टब्बा में ब्राह्मण कियो अन उत्तराध्येयन अ०२५ में पंच महाव्रत श०२,उ० ५, ढा०४४ २८७ Jain Education Intemational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ धारी ने ब्राह्मण कह्यो ते माटे ए माह्ण शब्दे साधु छै । वलि इहां श्रमण माण धर्माचार्य पिण कह्या । ए धर्माचार्य पंच पद मे छँ । धर्माचार्य तो लक्षण रायप्रश्रेणी में कह्यो ते पाठ जत्थेव धम्मारियं पासिज्जा तत्वेव वंदेज्जा णमसेज्जा सक्कारेज्जा सम्माज्जाकल्लाणं मदलं देवयं चेइयं पञ्जवासेज्जा फासण ज्जेणं असण- पाण- खाईम - साइमेणं पडिलाभेज्जा पाडिहारिएणं पीढफलग सेज्जा-संचार एवं उवनिमंतेज्जा, (रायपसेणइय सू० ७७६) इहां कल्ला आदि ४ नाम ए धर्माचार्य नां कह्या । वलि तेहनी पर्युपासना कही, वलि प्रासुक- एषणीक प्रतिलाभ कह्यो, वलि ते धर्माचार्य नैं पाडिहारा पीढ फलग सेज्या संथारो निमंत्र । ए प्रासुक एषणीक आहार ना भोजी अनै पाडिहारा पीढादिक ना भोगवणहार धर्माचार्य साधु जाणवा, ते माटै श्रमण माहण नैं धर्माचार्य कह्या । ते श्रमण माहण साधु जाणवा । इहां पिण वा शब्द अन्य नाम नीं अपेक्षाय छँ । तथा ठाणांग ठाण ३ उ०१ में तीन प्रकार देवता विज्जुतारा रूप करें। वेक्रिय करतो छतो १ परिचारणा करतो छतो २ तथारूप श्रमण माहण नैं ऋद्धि द्युति जश बल वीर्य पुरुषाकार प्राक्रम देखाड़तो छतो इहां श्रमण माहण ते साधु जाणवा । 1 तथा सुयगडांगे गोतम उदक पेढाल - पुत्र नैं कह्यो ते पाठआउसंतो! उदगा! णोबलु अम्हं एवं एवं शेय जे ते समा या माहणा वा एमाइक्वंति जान परूवेति । यो खलु ते समणा वा णिगंदा वा भासं भाति अणुतावियं खलु भासं भासति । 'ते (यगड २०११) इहां कह्यो — जे श्रमण अथवा माहण भूत शब्द घाली त्रस जीव नों पचखाण कीजै, इम परूपै ते श्रमण निग्रंथ शुद्ध भाषा न भाख, उपताप नीं भाषा भाखे । इहां पहिला तो श्रमण माहण कह्यो पछँ श्रमण निग्रंथ कह्यो । माहण नैं ठिकाण निग्रंथ शब्द आयो ए तो प्रत्यक्ष माहण नाम साधु नो ठहर्यो । साधु ना अनेक नाम छँ समणं वा माहणं वा साधु ना बीजा नाम नी अपेक्षाय वा शब्द कह्यो । समणा वा णिग्गंथा वा इहां पिण वा शब्द कह्यो छँ । तिम समणं वा माहणं वा अनेक ठिकाणै वा शब्द कह्यो ते जाणवो । तथा क्रिया रे ठिकाण एवं का ते पाठइच्चेलाई दुवाल किरियाडाणाई दविएणं समणेणं वा माहणेणं वा सम्म सुपरिजाणिवा भवति। ( सूयगडो २।२।१५) अथ इहां बार क्रिया ना स्थानक मुक्ति गमन योग्य संजमवंत तपस्वी साध माहणो एहवी प्रवृत्ति ६ जेहनी ते सम्य प्रकारे संसार ना कारण जागी ने प्रत्याख्यान- परिज्ञाई परिहरवा हुई। इहां पिण समण माहण साधु नै कह्या । शीलाङ्काचार्य पिण टीका में समण माहण साधु नै फलाव्या । इहां पिण वा शब्द कह्यो । भगवती जोड़ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा ठाणांग ठाण दसमें कह्यो ते पाठदसहि ठाणेहि सह तेयसा भासं कुज्जा, तं जहा-केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते तस्स तेयं णिसिरेज्जा। से तं परितावेति से तं परितावेत्ता तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा। (ठाणं १०।१५६) इहां कह्यो-श्रमण माहण नी असातना कीधा ते श्रमण माहण कोप्यो छतो तेज लेस्या काढे तेहनै परितापना उपजावी तिण नै तेज़ करके भस्म करै। इहां समण माहण नों अर्थ वृत्ति कार कियो. ते टीका लिखियै छै-. के इति कश्चिदनार्यकर्मकारी पापात्मा तथारूपं तेजोवद्धिप्राप्तं श्रमण तपोयुक्तं माहनं मा विनाश येत्येवंप्ररूपणाकारिणं वा शब्दो विशेषणसमुच्चयार्थावत्याशातयेदात्यंतिकीमाशातनां तस्य कुर्यात् । इहां वा शब्द कह्यो समण ते तपोयुक्त अन माहण ते मत विणास एहवी परूपणा नों करणहार बे ठिकाण वा शब्द ते विशेषण-समुच्चय नै अर्थ का। तथा अनुयोगद्वार में एहवो कह्यो ते पाठ लिखियै छसे कि तं सिलोगनामे ? समणे माहणे सव्वातिही। (अणुओगदाराई सू० ३६१) अथ इहां श्रमण माहण सर्व-अतिथि नो नाम कह्यो पिण श्रावक नों नाम श्रमण माहण न कह्यो। जे जैन में गुरु तेहनों नाम समण माहण तथा अन्य मत में जे गुरु समण साक्यादिक, माहण ब्राह्मण ते पिण गुरु बाजै, ते माटै सर्व अतिथि नै समण माहण कह्या । पिण श्रावक नै माहण कह्या नथी। तथा आचारंग श्रुत० २ अ० ४ उ० १ में कह्यो ते पाठ--- से भिक्ख वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे एवं वएज्जा अमुगे ति वा आउसो ति वा आउसंतो ति वा सावगे ति वा उपासगे ति वा धम्मिए ति वा धम्मपिये ति वा-एयप्पगार भासं असावज जाब अभूतोवघाइयं अभिकख भासेज्जा। (आयार चूला ४११३) अथ इहां एतलै नामे करी बोलावणो कह्यो तिण में नाम लेइ बोलावणो तथा हे श्रावक ! हे उपासक ! हे धार्मिक ! हे धर्मप्रिय ! ए नाम कह्या। पिण हे माहण इसो श्रावक रो नाम न कह्यो। तथा ठाणांग ठाणे ३ उद्देश ४ में कह्या ते पाठतिविध अभिसमागमे पण ते तं जहा-उड़ढं अहं तिरियं । जया ण तहा रूवस्म वा समणस्स वा माहणस्स वा अतिसेसे णाण-दसण समुपज्जति से ण तप्पढमताए उड्ढमभिसमेति ततो तिरिय ततो पच्छा अहे । अहोलोगे णं दुरभिगमे पण्णत्ते समणाउसो ! (ठाणं ३।५००) इहां पिण परम अवधिवंत ने श्रमण माहण कह्यो तिहां वा शब्द अन्य नाम नी अपेक्षाइं कह्यो इत्यादिक अनेक ठामे सूत्र में माहण शब्दे साधु नै का, पिण श्रावक नै माहण नथी कह्यो। ते माटै साधु नी सेवा नो इहां भगवती श०२ उ०५ श०२, उ०५, ढा०४४ २८१ Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में छहड़े मोक्ष नो फल कह्यो छ। तेहनों अर्थ 'दरियापुरी धर्मसी कृत भगवती' नो यंत्र, ते मध्ये पिण साधुहिज फलायो छै। तथा लूकां री सूत्रां री ५८ बोलां री हुंडी ते मध्ये जे समणं वा माहणं वा एक साधु नै बिहुँ नामे करी क ह्या। तथा वा शब्द पिण का एहवू कह्य । तिहां सूयगडांग १७ अध्ययन नी साख दीधी छ। समणे ति वा माहणे ति वा इत्यादिक साधु रा नाम कह्या तिहां तेरै ठिकाण वा शब्द का छै। एहवं ते हुण्डी मध्ये पिण कह्य छ। इम अनेक ठामे सूत्र नै विषे समणं वा माहणं वा साधु नै कह्या छ। अनै तेहनी सेवा नो मोक्ष नुं फल कह्यो छ। तथा अन्यतीर्थी ना एबे नाम कह्या छै पिण श्रावक ना नथी कह्या। विवेकलोचन करी विचारी जोइज्यो। ___अनै वृत्ति में इहां दूजो अर्थ माहण शब्दे श्रावक कह्य तथा भगवती श०१ उ०७ में सांभलवा नै अधिकारे स्थूल प्राणातिपातादिक थकी निवो त श्रावक नै माहण कह्यो। तथा रायप्रश्रेणी नी वृत्ति में परम गीतार्थ श्रावक नै माहण कह्यो। अनै उत्तराध्ययन अध्येन २५ में सर्वथा प्रकारे पंच आथव त्याग्या, पंच महाव्रतधारी, न्याती-संग पूर्व-संजोग छोड्या, तेहनै माहण कह्यो। तथा सूयगडांग अध्येन १६ में सर्व पाप थी निवयो तेहनै माहण कह्यो। इम अनेक ठामै सूत्र माहग साधु कह्या ते पाठ देखतां वृत्ति में माहण शब्दे श्रावक कह्यो ते विरुद्ध । वृत्ति चूणि में तो अनेक वारता विरुद्ध कही छ। ते केतलाएक बोल लिखिये छ। आचारंग श्रु०२ अ०१ उ०१ कारणे आधाकर्मीआदि लेणो वृत्ति में कह्यो ते कहै छैतथाप्रकारमेवंजातीयमऽशुद्धमशनादि चतुर्विधमऽप्याहारं परहस्ते दातहस्ते परपात्रे वा स्थितं अप्रासुकं सचित्तम् अनेषणीयम् आधाकर्मादि दोषदुष्टम् इति एवं मन्यमानः स भावभिक्षुः सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयादित्युत्सर्गत: अपवादस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयादपि, तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं, क्षेत्रं साधारणद्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभावित वा, कालो भिक्षादि, भावो ग्लानतादिः इत्यादिभि: कारणरुपस्थितैरल्पवहत्वं पर्यालोच्य गीतार्थो गलीयादिति।। (आचारांग-वृत्ति पत्र ३२१) इम शीलांकाचार्य टीका में नीलण-फूलण तस-जीव सहित उत्सर्ग मार्गे न लेणो अनै कारण पडियां लेणो कह्यो। आधाकर्मी प्रमुख दोष दुष्ट उत्सर्ग मार्गे न लेणो अनै कारण पडियां द्रव्य क्षेत्र काल भाव, थोड़ो घणो टोटो आलोची गीतार्थ ग्रहै, इम कह्य ते प्रत्यक्ष विरुद्ध छ। भगवती शतक १८ उद्देशे १० सोमल नै महावीर स्वामी सचित्त नै असूझतो आहार साधु नै अभक्ष कह्य । तथा पुफिया उपंगे पिण सोमल नै पार्श्वनाथ सचित्त अनै असूझतो आहार साधु नै अभक्ष का । तथा थावरचा-पुत्रे पिण सुखदेव नै सचित्त नै असूझतो आहार साधु नै अभक्ष का। एहवो आहार साधु कारण पडियां किम लेवे ? अनै श्रावक सचित्त असूझतो साधु रै कारण जाणी किम बहिरावै ? __उबवाई, रायप्रश्रेणी, भगवती, उपासगदशा प्रमुख सूत्रे श्रावक साधु नैं प्रासुक एषणीक बहिरावं एह कह्य, पिण कारण पडियां अप्रासुक अनेषणीक देव एहवो नथी का । २६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा भगवती शतक ५ उद्देशे ६ आधाकर्मी प्रमुख ए निर्वद्य छै इम मन में साधु धार तो विराधक कह्य । ते भणी सचित्त असूझतो तथा आधाकर्मी कारण लेणो थाप्यो ते टीका विरुद्ध छै। आचारांग श्रुतखंध १ अध्येन ६ उद्देशे ४ कह्यो—हीण-आचारी ते इम कहै--जेणे गिलाणपणो पामै, जेहन टालवा भणी आधाकर्मी आदिक आहार पिण लै, ए पिण करिवो इत्यादिक विपरीतपणे पहुंचे इम बड़ा टब्बा में कह्यो। तथा टीकाकार पिण इमहिज कह्यो यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकर्माद्यपि कार्य, स्यादेतत्--कि तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपायाः यथाशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति । (आचारांग वृत्ति-पत्र ३४६) ग्लायते कहितां गिलानपणो पामै । तस्य कहितां ते साधु नै, तदपनयनार्थ कहितां ते गिलानपणो टालिवा नै अर्थे, आधाकर्मादि कहितां आधाकर्मी आदि पिण लै । कार्य स्यात् कहिता ए पिण करिवो। ते कुशीलिया नै आसातना-बहुल नै दीर्घ संसार हुदै, एहवं शीलांकाचार्य कृत 'टीका में कह्यो। तेणे लेखै पिण इहां आधाकर्मी कारणे लेणो कह्य ते विरुद्ध। तथा भगवती शतक १५ सू० १५२ में कोहला पाक भगवान नै अर्थे कियो ते लेवा नी भगवान आज्ञा न दीधी। तिहां एहवो पाठ कह्यो तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोय-सरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो। इहां कह्यो-रेवती गाथापतणी म्हारै अर्थे दोय कपोत-शरीर कोहला ना फल ते रांध्या तेहथी अर्थ नहीं। तिहां टीकाकार इम कह्य तेहि नो अट्ठोत्ति बहुपापत्वात् । इहां भगवंत नै इसो मोटो कारण त्यांरे अर्थे कीधो तिण में महापाप कह्यो। अनैं भगबान लेवा नी आज्ञा दीधी नहीं । ते भणी अप्रासुक-अनेषणीक आधाकर्मी आदिक कारणे लेणो कहै ते विरुद्ध जाणवो। तथा व्यवहार सूत्रे नवमै उद्देशके मलयगिरि कृत टीका तेहनों सारोद्धार तेहनै विष इम कह्यते कहै छै___ साधूनामाम्राणि सचित्तत्वात् न कल्पन्ते, सूरिराह--तेषामाम्रफलानां ग्लानत्वे अध्वनि शेषभिक्षाया अलाभे अवमौदर्ये च ग्रहणं दर्शितं कथितं महर्षिभिः । इहां कह्यो---आंबा सचित्तपणा थकी साधु नैं न कल्पै । सूरि कहै छै-ते ग्लानपणो पामै छतै, मार्ग नै विर्ष, शेष भिक्षा ना अलाभ छत वली ऊणोदरी छत आंबा ना फल नों ग्रहण करिवू । एहवं महाऋषि कह्य । ए मलयगिरि व्यवहार नीं टीका ना सारोद्धार मध्ये सचित्त आंबा नो फल कारणे लेणो थाप्यो ते प्रत्यक्ष विरुद्ध छ। तथा जिनदास गणि कृत निशीथ नी चूणि अठावीसहजारी तेहनै विष उद्देशे १५ में इम कह्य ते कहै छ'जे भिक्ख सचित्तं अंबं भंजइ' इत्यादि सचित्ते सचित्तपति दिए य दोस् वि सुत्तेसु इमो अववातो-वितियपद गाहा-४६६५ खेत्तादिगो अणप्पज्झो वा भुजति, सेहो अविकोवियत्तणओ अजाणतो, रोगोवसमणिमित्तं वेज्जवदेसितो गिलाणो वा भुजे, अद्धाणो मेसु वा असंथरंता भुंजता विसुद्धा। (४६९५ की चूणि) श० २, उ० ५, ढा० ४४ २६१ Jain Education Intemational cation International Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहां पिण सचित्त आंबो शिष्य अपंडित अथवा रोग-निमित्त ग्लान वैद्य उपदेश थकी भोगवं। अथवा मार्ग नै विषै ऊणोदरी छतै अणसरत भोगवै तो विशुद्ध । इम सचित्त आंबो भोगवणो थाप्यो ते सूत्र थकी विरुद्ध ३ । तथा वबहार नी टीका ना सारोद्धारे नवमै उद्देशै इम कह्य ते कहै छ--- 'दंडको दीर्घः स्थविरश्च ततस्तं दुर्गे व्याघ्रादिपरिवारण निमित्तं परिवहति' इहां कह्यो दीर्घ दांडो स्थविर राखै विषम जायगां व्याघ्रादिक नै निवारण अर्थे । ते विरुद्ध ४। __ तथा बृहत्कल्प नी वृत्ति में अथवा चूणि में रात्रि भोजन करवो कह्यो ते लिखिये छइदाणि कप्पया भण इ अणाभोगे दार-गाहा-अणाभोगेणं वा राइभत्तं भंजेज्ज गिलाण कारणेण वा अद्धापडिसेवणं वा दुल्लह दव्व वनो वा १ उत्तमट्टप डिवण्णो राया भणइ रायाभत्तं भुजेज्जा य स कालमि गच्छानु कपियाए वा रायाभत्ताणण्णा सुतत्थविसारए वा रायभत्तागुण्णा एस संखेवत्थो। इहां बहत्कल्प नी चूणि तथा निशीथ नी चूणि नै विष कह्यो। रोगादिक कारण रात्रिभोजन करणो अनै बृहत्कल्प उद्देशे ५ में साधु निरोग शरीर नों धणी समर्थवंत नै तथा रोगे करी सहित एहवा असमर्थवंत नै पिण सूर्य ऊगां थी आहार लेवा नी वृत्ति कही। आथम्यो नहीं तठा ताई भोगवणो कह्यो। आहार बहिर्या पछै जाण्यो सूर्य न ऊगो तथा मूहढा में घाल्या पछै आथम्यो जाण्यो तो महढा मांहि हुई तथा हाथ नै विष तथा पात्रा मांहि हुई ते परठणो कह्य । भोगव तो चोमासी प्रायश्चित कह्यो। ए तो प्रत्यक्ष असमर्थवत नै पिण रात्रि-भोजन वयो । ते माटै चूणि मध्ये रात्रि-भोजन थाप्यो ते विरुद्ध छ। तथा वलि ते चूणि मध्ये अनंतकाय नो दांडो साधु नै ग्रहण करिवू का ते लिखिये छै--- गिलाणो बालो उवही पलं बाणि वा अद्धाणे व झंति सावयभए णि वारणा घेप्पति,उवहिं सरीराण वहणट्ठा तेणगपडिणीय साण मादीण णि वारणा पुव्व अचित्त पच्छा मोसं सेसा परित्ताणता पुव्वं परित्त जाव पच्छा अनंतं । (नि० भा० गा० २०००) इहां कह्यो—मार्गे स्वापद ना भय निवारण अर्थे, उपधि शरीर वहण नै अर्थे चोर, प्रत्यनीक, श्वान आदि नै निवारण अर्थ प्रथम अचित्त, ते न मिले तो पछ मिथ परित काय नो, ते न मिले तो पछै अनंतकाय नो दांडो धारण करै, एह मध्य वार्ता कही ते प्रत्यक्ष विरुद्ध । ते न्यायवादी किम मानै ६। तथा निशीथ उद्देश ६ चूणि मध्य राजा नै अभियोगे करी करिवो कह्यो ते पाठ अर्थ लिखियै छ हिवै अभियोगद्वार कहै छैइयाणि 'अभिओगे' त्ति दारं कुल वसम्मि-भा० गाहा (२२४२) अभियोगे ण पडिसेवेज्जा। तत्थिमं उयाहरण-कोइ अपुत्तो राया अमच्चेहि भणिओ अपुत्तस्स तुज्झ कुल वंसे पहीण अकुमारस्स य परो पेल्लेहिति रज्ज, कि कज्जउ, भणह-"तुज्झ बुद्धीए पाहण्णं वट्टति” । २६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational lucation international Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंतीहि भणियं-अंतपुरे कोइ खिप्पउ, तुह खेत्तज्जायया तुह ते पुत्ता। राया भणइ-अयसो मे भविस्सति । ते भणंति "जहा अयसो ण भवति तहा कज्जति । इमे समणा णिग्गंथा ण कस्सति कहंति, एते पक्खिप्पंतु । एवं कीरउ । ताहे जे तरुणसंजता ते गहिया एक्कम्मि पासाए छुढा । तरणोण-गाहा (२२४३) । सुठुल्लसितेगाहा (२२४४) एव ता अहिओगेण पडिसेंवतस्स जयणा भणिया। (नि० भा० गा० २२४२-२२४४) इहां राजा नै अभियोगे करी कुशील सेवै तेहनै जयणा कही पिण अणाचार न कह्यो। एहवा प्रत्यक्ष विरुद्ध वचन अणाचार्या ना कह्या ते किम मानिये ? जे कहै अम्हारै पंचांगी प्रमाण छै ते पंचांगी नै विर्ष चूणि मध्ये एहवा विरुद्ध वचन कह्या ते किम मानिये ? अनै पचांगी नै विष वृत्ति पिण, ते आचारांग नी वृत्ति में अप्रासूक-सचित्त आधाकर्मी आदिक दोष-दुष्ट कारणे लेणो कह्यो। वले वृत्ति चणि मध्ये कारणे सचित्त अंब फल खाणो अनैं रात्रि भोजन करवो कह्यो। इत्यादिक अनेक विरुद्ध बातां कही ते माटै ए पंचांगी ना बोल प्रमाण किम कीजै। विवेक लोचने विचारी जोइज्यो। तथा समवायांग में कह्यो---ऋषभ, भरत, बाहुबल, ब्राह्मी, सुंदरी ए ५ नो सरीखो आउखो ८८ लाख पूर्व नो छ। अनै आवश्यक-नियुक्ति मध्ये कह्यो--- ऋषभ ६६ पुत्र सहित एक भरत टाली नै अनै भरत ना आठ पुत्र ए १०८ उत्कृष्टी अवगाहनावंत एक समै सिद्धा, ते गाथा उसहो उसहसुया, भरहेण विवज्जिया नवनवइ । भरहस्स अट्ट सुया, सिद्धा एगंमि समयंमि ।। तथा ऋषिमंडल में पिण कह्यो। निनाणुं ऋषभ ना पुत्र आठ भरत ना पुत्र संयुक्त ऋषभदेव सहित---१०८ एक समय मैं सिद्ध कह्या, ते गाथा निन्नाण रिसहसूयं, अट्ठ भरहस्स पुत्त-संजुत्तं । एगममाएणं सिद्ध, रिसहजयं तं च पणमामि ।।१।। इहां ऋषभ अनै बाहुबल सरीखा आउखा ना धणी साथे सिद्धा कह्या ए विरुद्ध, तथा ठाणांग ठाणे ४ भरत चक्रवर्ती गजसुखमाल, सनतकुमार चक्रवर्ती, मरुदेवी माता नै अंतक्रिया कही अन आवश्यक-नियुक्ति में तथा ठाणांग नी टीका में तीज देवलोक कहै छ। ए सूत्र विरुद्ध । उववाइ, भगवती, पन्नवणा में कह्यो पांच सौ धनुष्य उपरंत न सीजै, उपरत युगलियो कहिये । अन आवश्यकनियुक्ति में कह्यो जे मरुदेवी माता नी अवगाहना सवा पांच सौ धनुष नी, ते सिद्धा कहै, ए विरुद्ध' । (ज०स०) ४५. श्रमण माहण साधू तणी, सेवा कीधां सोय । स्यूं फल ह?तब जिन कहै, सांभलजो अवलोय ।। *श्री जिनवर भणे (ध्रुपदं) जिन भाखै गोयम ! सेवा थी सोयो रे। श्रवण सिद्धांत नो, धुर फल ए जोयो रे ।। w: ४६. गोयमा ! सवणफला । सिद्धान्तश्रवणफला। (वृक्ष-प० १४१) *लय-भावै भावना पा०२, उ० ५, ढा०४४ २६३ Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुणवा नो स्यू फल? तब भाखै स्वामो। सुण वा थी लहै, वर ज्ञान अमामो॥ प्रभु ज्ञान नों स्यू फल ? जिन कहै विज्ञानो। पामै ज्ञान थी, हेयोपादेय जानो। ४८. विज्ञान नो स्यू फल ? जिन कहै पचखाणो । विशिष्ट ज्ञान थी, अघ त्याग पिछाणो।। पचखाण नों स्य फल ? जिन कहै संजम्मो । त्याग किये छतै, हुवै संजम-धम्मो।। संयम नों स्यूं फल ? अनाश्रव संधो। जे संयम थकी, नवं कर्म अबंधो।। अनाथव नों स्य फल ? तप फल जिन भाखै । आवता रूधियां, तप – अभिलाखै ।। ४७. से णं भंते ! सवणे किंफले ? नाणफले। श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानमवाप्यते। (वृ०-५० १४१) ४८. से ण भंते ! नाणे किफले? विण्णाणफले। श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारि विज्ञानमुत्पद्यत एव । (वृ०-प० १४१) ४६. से णं भंते विष्णाणे किंफले? पच्चक्खाणफले। विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्याख्याति। (वृ०-५०१४१) ५० से णं भंते ! पच्चक्खाणे किंफले? संजमफले। कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्येव । (वृ०-५० १४१) ५१. से णं भंते ! संजमे किंफले ? अणण्हयफले । संयमवान् किल नवं कर्म नोपादत्ते। (वृ०-प० १४१) ५२. से णं भंते ! अणण्हए किफले? तवफले । अनाथवो हि लघुकर्मत्वात् तपस्यतीति। (वृत-प० १४१) ५३. से णं भंते ! तये किंफले? वोदाणफले । तपसा हि पुरातनं कर्म निर्जरयति। (व०प० १४१) ५४. से णं भंते वोदाणे किंफले? अकिरियाफले। कर्मनिर्जरातो हि योगनिरोधं कुरुते। (वृ०-५० १४१) ५५. सा णं भंते ! अकिरिया किंफला ? सिद्धिपज्जवसाण फला---पण्णत्ता गोयमा ! सकलफलपर्यन्तत्ति फलं यस्यां सा तथा । (वृ०-५० १४१) स्यूं फल है तप नो? जिन , कहै बोदाणं । तप कीधै छतै, निर्जरै पराणं ।। निर्जरा न स्यू फल? जिन कहै अकिरिया। योग - निरोध ते, वर फल अनुचरिया ।। अकिरिया नो स्यं फल ? सिद्धि लक्षण सारो। छेहडै एह ते, फल कह्यो उदारो।। सोरठा श्रवण ज्ञान विज्ञान, पचक्खाण संजम बली। अनाथव तप वोदाण, पुन: अकिरिया नै सिद्धि ।। ५६. सवणे णाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी॥ (२।१११ संगहणी-गाहा) ५७. तथारूपस्यैब श्रमणादे: पर्युपासना यथोक्तफला भवति, नातथारूपस्य। (वृ०-५० १४१) तथारूप मुनिराय, तसु सेवा ना फल कह्या। अतथारूप नी ताय, सेवा कीधां फल नहीं ।। तथारूप वर रोत, श्रमण माण नी सेव न । आख्यो फल संगीत, पर्यवसान सिद्धी-गमन ।। असत्यभापी जेह, तसू सेवा न फल नहीं। अन्ययथिक छै तेह, कहियै तास परूपणा ।। *प्रभु अन्यतीथिक, भाखै इम वाणी। राजगह बाहिरै, गिरि वेभार जाणी।। तिण पर्व हेठे, इक मोटो तामो। हरए द्रह अछ, 'अघ' तसु नामो।। ५६. असम्यग्भाषित्वादिति असम्यग्भाषितामेव केषाचित् दर्शयन्नाह _ (वृ०-प० १४१) ६०, ६१. अन्न उत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, भासंति, पण्णवेति, परूवेति—एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे, एत्थ णं महं एगे हरए अघे पण्णते---- *लय-भाव भावना २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ६३. ६४. ६५. ६७. ६८. ६६. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. ७५. वलि किहांइक हरए, ए अर्थ इण स्थानके, अप्पे अप्पे तणुंज कहिये अप्प संसेयंति संमुच्छति *तिहां मेह अधिकपणां पाठ रव न "वह योजन लाबो, चोटो नाना तरु करि, मंडित सिरि सोभ सहित से, जायत् जोबा जोग्य ए, रमणीक तिहां बहू विस्तीर्ण, मेह बादल तणे, सन्मुख फुन उपजवा सोरठा कहेह, उपजवा सन्मुख थयो । उपजेह, वासंते रखे उदक ॥ रखें छे, द्रह पूरण पानी। थकी, सदा समित पिछाणी ॥ उष्ण ते, नीसरतो अन्यतीचिक इसी भा अप उष्ण ते किम ए वच प्रभु ! हिव अन्यतीथिक तणी, मिथ्या सोरठा मिध्यापणज तास, गिर तल बहु जोजन वली । विरुद्ध ॥ करिकै तेहना। अन्यथा जाणवा || तेनुं कथन विमास, सर्वज्ञ वच थी फुन व्यवहारिक जान, प्रत्यक्ष बहुलपण पहिछाण, वचन * पिण इम कहूं छू, भा पन्नवूं छू बलि, परूपू निश्वं करिने, राजगृह गिरि वैभार छं, तेहथी अति दूर नहीं एत्थ णं ते इम फुन, अति इहां, जिन सोरठा अर्थ, अपनी उत्पत्ति छै तिहां । तदर्थ, द्रह ईज ए जाणवूं || छै भाखे ए दोर्स | ह्रीं ॥ सुविशेषो । तसुं देशो ॥ प्रतिरूपो । अनूप ॥ निपजै । उपजै ॥ कथने जाणी । वाणी ॥ नाणी । वाणी ॥ नजीक सामानो । जानो । वारो । सुविचारो ॥ नांही । ज्याही ॥ चौपाई ७६. महातपोपतीर प्रभव इह नाम प्रश्रवण झरणो मोटो ताम महातप ने उपतीरे जोय, प्रभव से उत्पत्ति जिहां होय ॥ * लय-भाव भावना ६२. क्वचित्तु 'हरति न दृश्यते, अचेत्यस्य च स्थाने'' त्ति दृश्यते । (०१० १४१) ६३. तत्र चाप्यः - अपां प्रभवो हद एवेति । ( वृ० प० १४१ ) ६४. अणेगाई जोयणाई आयाम विक्खभेणं, नाणामसंड उद्देसे, ६५. सस्सिरीए जाव पडिरूवे । ६६. तत्थ णं बहवे ओराला बलाह्या संयंति संमुच्छेति वासंति । ६७. 'संसेयंति' 'संस्विद्यन्ति' उत्पादाभिमुखीभवन्ति 'संमुच्छंति' ति 'संमुच्छन्ति' उत्पद्यन्ते । ( वृ०-१० १४१) ६८, ६६. तव्वइरिते य णं सया समियं उसिणे-उसिणे आउकाए अभिनिस्सवइ । (श० २०११२) ७०. से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाजाने ते एवमादति मि ते एवमाइक्खति । ७१. मिथ्यात्वं चैतदाख्यानस्य विभंगज्ञानपूर्वकत्वात् प्रायः सर्वज्ञवचनविरुद्धत्वात् । (०.०० १४२) ७२. व्यावहारिक प्रत्यक्षेण प्रायोऽन्यथोपलम्भाच्चावगन्तव्यम् । ( वृ०० १४२) ७२. अहं पुण गोवमा ! एवमाश्यामि भातामि, पण्णवेमि पख्त्रेमि ७४, ७५. एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं ७६. महातवोवती रप्पभवे नामं पासवणे पण्णत्ते- श०२, उ० ५ ढा० ४४ २६५. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-आतप नी पर आतप-उष्णता, महा इसो आतप ते महाआतप । महातप नै उपतीर ते तीर समीप, प्रभव कहितां उत्पाद जे पर्वत नै विषे तिको महातपोपतीर प्रभव नामै प्रश्रवण झरणो परूप्यो। वा०--आतप इबातप:-उष्णता महांश्चासावातपश्चेति महातपः महातपस्योपतीरं---तीरसमीपे प्रभवउत्पादो यत्रासौ महातपोपतीरप्रभवः, प्रश्रवति–क्षर तीति प्रश्रवणः प्रस्यन्दन इत्यर्थः। (वृ०-प०१४२) ७७. पंच धणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, नाणादुमसंडमंडिउद्देसे ७८. सस्सिरीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे ७६, ८०. पडिरूवे । तत्थ णं बहर उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमंति ८१. चयंति उववज्जति । *ते धनुष पांच सौ, लंब चोड विशेषो। नाना तरु करी, मंडित तसु देशो।। सोभायमान ते, चित थाय प्रसन्नो। जोवा जोग्य छ, मनोहर जन्नो ।। प्रतिरूप देखतां, तृप्ति नहि थायो। त्यां बह ऊपजै, उदकपणे आयो।। बहु उष्णयोनिया, पुद्गल नैं जीवा। उपजे नै विणसिय, जलपणे अतीवा ।। एहीज अर्थ हिव, विपर्यय कजिये । तेह चवै अछ, फुन ऊपजिये ।। तिहां जल अधिको हुवै, उष्ण अपकायो। सदा श्रवै झरे, सुण गोयम ! वायो। महातपोपतीरज, प्रभव पासवणो। तेहनों अर्थ ए, भाख्यो छै निरणो।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! सुविचारो। गोतम वीर नै, वंदै नमस्कारो।। ए दूजा शत नै, पंचम उद्देशे। आख्यो अर्थ ए, वारू सुविशेषे ।। ढाल चोमालीसमी, भिक्ख भारीमालो। ऋषराय प्रसाद थी, 'जय-जश' सविशालो।। द्वितीयशते पंचमाद्देशकार्थः ।।२।५।। ८२, ८३. तब्बइरित्ते वि य णं सया समियं उसिणे-उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ। एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवे पासवणे। एस णं गोयमा ! महातबोवतीर प्पभवस्स पासवणस्स अट्ठे पण्णत्ते। (श०२।११३) ८४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ। (श०२११४) १. पञ्चमोद्द शकस्यान्तेऽन्ययूथिका मिथ्याभाषिण उक्ताः, अथ पष्ठे भाषास्वरूपमुच्यते। (वृ०-५० १४२) ढाल : ४५ सोरठा पंच मुदेशे अंत, मिथ्याभाषी अन्ययुध । हिव छ? पभणत, भाषा स्वरूपज सांभलो ।। +प्रभु वच वारू जी, हे देव ! जिनेन्द्र ! दयाल जन्म सुधारू जी (ध्रुपदं) ___ गोयम प्रश्न दियै जिन उत्तर' ।। (ध्रुपदं) *लय-भावै भावना *लयसाच बोलोजी तथा प्रभवो चोर चोरों ने समझाव १.पैतालीसवीं ढाल की लय दो प्रकार की दी गई है, इसीलिए वहां 'ध्रुपद' भी दो प्रकार का है, प्रथम पद पहली लय के अनुसार लिया जाता है और दूसरा पद दूसरी लय के अनुसार। २६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से नणं भंते ! तसं अर्थज, से कहितां अथ जाणी जी। अथ शब्द ते वाक्य तणां जे उपन्यासे पहिछाणी जी। उपमान अवधारण तर्के, प्रश्न हेतु में जोयो। ननं शब्द एण अर्थे छै, इहां अवधारण होयो ।। ४. हे भदंत ! ए शब्द कह्य जे, गुरु आमन्त्रण काजो। इह विध विनय करीनै पूछ, भाषा प्रश्न समाजो।। २. से नूणं भंते ! सेशब्दोऽथशब्दार्थे स च बाक्योपन्यासे । (वृ०-५० १४२) ३. 'नूनम्' 'उपमानावधारणतर्कप्रश्नहेतुषु' इह अवधारणे । (वृ०-५० १४२) ४. 'भदन्त' इति गुर्वामन्त्रणे। (वृ०-५० १४२) सोरठा ५. पूरव जे आख्यात, पद नुं अर्थ का तिको। वाक्य अर्थ विख्यात, कहियै छै हिव आगलै ॥ ६. *अथ भदंत ! हूं इम मानूं छु, इम जाणूं छू जेहो। एह अवश्य अवधारिणी भाषा, अवबोध-वीजभूत तेहो।। ६. मन्नामी ति ओहारिणी भासा? 'मन्ये' अवबुध्ये इति, एवमवधार्यते--अवगम्यतेऽनयेत्यवधारणी, अवबोधबीजभूतेत्यर्थः। (वृ०-५० १४२) वा०-इहां शिष्य पूछ ए जीव अजीवादिक पदार्थ हूं इम मानूं छु । हूं इम जाणू छ । ए पदार्थ जाणवा नी भाषा अवबोध बीजभूत कहियै । अवबोध ते ज्ञान छ, तेहिज बीजभूत माटै अवबोध बीजभूत जाणवी। ७. सूत्र पन्नवणा न भाषा पद, एकादशमो आख्यो। ___ द्रव्य क्षेत्र काल भाव प्रमुख करि, ते इहां सह अभिलाख्यो।। ७. एवं भासापदं भाणियव्वं । (श०२।११५) एवममुना सूत्रक्रमेण भाषापदं प्रज्ञापनायामेकादशं भणितव्यमिह स्थाने, इह च भाषा द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्यादिभिश्च भेदैरन्यैश्च बहुभिः पर्यायविचार्यते ।। (वृ०-५० १४२) ८. भाषाविशुद्धेर्देवत्वं भवतीति देवोद्देशक: सप्तमः समारभ्यते। (वृ०-प० १४२) ८. बीजा शतक नों छठो उदेशो, भाषा नो विस्तारो। ते भाषा-विशुद्धि थी देवपणो है,तिण सू सप्तम सुर अधिकारो।। द्वितीयशते षष्ठोद्देशकार्थः ।।२।६।। ६. हे प्रभु ! देवा कितै प्रकारे? जिन कहै चउविध देवा। भवनपति, वाणव्यंतर, जोतिषी, वैमानिक पिण लेवा।। १०. किहां प्रभु ! भवनपति ना स्थानक, स्थान-पदे जे बीजै। देव विस्तार सह इहां भणवो, णवरं भवण भणोज ।। ६. कति णं भंते ! देवा पण्णत्ता? गोयमा! चउब्बिहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवइ वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया। (श० २।११६) १०. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया सा भाणियव्वा। ११. उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे एवं सव्वं भाणि यव्वं, जाव सिद्धगंडिया समत्ता। १२. नवरं 'भवणा पण्णत्त' त्ति क्वचिद् दृश्यते, तस्य च फलं न सम्यगवगम्यते। (वृ०-प० १४२) ११. ऊपज करि लोक तणो जे, असंख्यातमै भाग। एवं सर्व भणोज यावत, सिद्धि-गंडिका साग ।। १२. वृत्तिकार कहै णवरं भणवा, ए पद दीसै त्यांही। तेहना फल सम्यक् प्रकार, म्है नवि जाणिय ज्यांही। *लय—साचू बोलोजी श०२, उ०६, ७, ढा०४५ २६७ Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. १४. " सर्व कल्प केहनैं आधारे, विमान नों महि-पिंडो । जाडपण तसं ऊंचपणो जे बलि संठाण सुमंडो ॥ जीवाभिगम विषै यावत्, वैमाणिक ते इहां सगलोइ कहिवो, वारू रीत १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. । सोरठा स्थान तों अधिकार, पूरव जे आयो अछे आगल वलि अवधार, अपर स्थान पिण आखिये || २८. सोरठा ते इह विध सुविचार, विमान बे धुर कल्पनां । घनोदधि आधार, वलि आगल इम आखिये || घन वायू आधार, तीजो चोथो पंचमो । उभय आधार विचार, पष्ठम सप्तम अष्टमो || ऊपर स्वर्ग अठार आणत थको अनुत्तरा । सहू आकाश आधार, महि-पड जाणो हि ॥ सौधर्म ने ईशाण, कल्प विमान नी पृथ्वी । सत्तावीसौ जाण, योजन जाप कही ॥ तृतीय तुर्य महि-पिंड, छब्बीसौ योजन बाहुल्य । पंचम षष्ठम मंड, पणवीसौ योजन तभी ।। महाशुक्र सहसार, चउवीसौ योजन बाहुल्य ऊपर कल्पज च्यार, तेवीसौ योजन तणी ॥ ग्रैवेयक महि पिंड, बावीसौ योजन बाहुल्य । पंच अनुत्तर मंड, एकवीसौ योजन मही ॥ ऊंचपणो हिव जाण, सौधर्म ने ईशाण नों पंच सया परिमाण, ऊंचा महिल सुहामणां ॥ सनतकुमार महिंद छह सौ योजन महिल छै । ब्रह्म लंतक सुख-कंद, ऊंचा योजन सात सौ ॥ महाशुक सहस्रार, ऊंचा योजन आठ सौ । ऊपर कल्पज च्यार, नव सौ योजन महिल तसुं ॥ नव ग्रैवेयक धार, ऊंचा योजन सहस्र नां । पंच अनुत्तर सार, म्यारा सी जोजन महिल ॥ हिव विमान संस्थान, सौधर्म ने ईशाण में । जे आवलिकाबढ जान, वह तंस चउरंस ते ॥ जे आवलिका वार से नाना संठाण है। एवं जाव विचार, विमाण ग्रैवेयक तणां ॥ * लय - साचू बोलो जी २६८ भगवती जोड़ उद्देशे । विशेषे ।। १३. इह च देवस्थानाधिकारे यत्सिद्ध गण्डिकाभिधानं तत्स्थानाधिकारवलादित्यवसेयं तथेदमपरमपि जीवाभिगमप्रसिद्धं वाच्यं । (20-40 882) १४. कप्पाण पट्ठाणं, बाहुल्लुच्चत्तमेव संठाणं । , १५. जीवाभिगमे जो वेमाणिउद्देसो सो भाणियव्वो सव्वो । (०२११०) १६१७.द्वाषा सुरभवा होति दो कप्पे । तिसु वाउपडाणा तदुभयसुपइट्ठिया तिसु य ॥ (१०० १४३) १८. तेण परं उवरिमगा आगासंतरपइट्ठिया सब्वे । तथा 'बाहल्ल' त्ति विमान पृथिव्याः पिण्डो वाच्यः । ( वृ००० १४३) १६-२१. सत्तावीस सयाई आइमकप्पेसु पुढ़वीबाहल्लं । एक्सिकहाणि सेसेदु दुगे प दुगे चउनके व ॥ ( वृ० प० १४३) 1 २२. ग्रैवेयकेषु द्वाविंशतिर्योजनानां शतानि अनुत्तरेषु त्वेकविंशतिरिति । (१०-२० १४३) २३-२५. पंच आहोत विमाणा । एक्सेक्सबुड सेने दुगे व दुगे चक्के य ।। (१०-१० १४३) २६. ग्रैवेयकेषु दश योजनशतानि अनुत्तरेषु त्वेकादशेति । ( वृ० प० १४३) २७, २८. विमानस्थानं वाच्यं तचैवम्— 'मोहम्मीसासु णं भंते! कप्पेसु विमाणा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! जे आवलियापविट्ठा, ते बट्टा तंसा चउरंसा, जे आवलियाबाहिरा ते नाणासंठिय' त्ति ! ( वृ० प० १४३) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अनुत्तरे आख्यात, आवलिकाबद्ध ईज छै । फूल बिखरिया थात, तिण आकारै छै नहीं। ३० आवलिकाबद्ध जाण, द्विविध तेह अनुत्तरा। व तंस संठाण, पिण चउरंस तिहां नथी। ३१. विमाण तणों प्रमाण, वर्ण प्रभा गंधादि जे। इत्यादिक पहिछाण, जीवाभिगम विषै तिमिज ॥ ३२. *दूजा शतक नों सप्तमुद्दे शो, अर्थ थकी ए आख्यो। पन्नवण जीवाभिगम भलावण, अति हितकर अभिलाख्यो ।। द्वितीयशते सप्तमोद्देशकार्थः ।।२।७।। ३१. जीवाभिगमेत्यादि, स च विमानानां प्रमाणवर्णप्रभा गन्धादिप्रतिपादनार्थः । (वृ०-५० १४३) सोरठा कह्या देव नां स्थान, तेह तणा अधिकार थी। चमरचंचा अभिधान, सुर स्थानादिक अष्टमे ।। ३४. *किहां प्रभु ! चमर असुर नां इंद्र नीं, असुर तणां राजा नीं। सभा सुधर्मा आप प्ररूपी, अन्य जिन पिण आख्यानी।। ३३. अथ देवस्थानाधिकाराच्चमरचञ्चाभिधानदेवस्थाना दिप्रतिपादनायाष्टमोद्देशकः। (वृ०-५० १४३) ३४. कहिणं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररणो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? ३५. असुरेन्द्रस्य, स चेश्वरतामात्रेणापि स्यादित्याह-असुर राजस्य, वशवय॑सुरनिकायस्येत्यर्थः । (वृ०-प० १४४) ३६. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं सोरठा कह्यो इहां असुरिंद, हुवै ईश्वरता मात्र पिण । असुरराज आखिद, बस छै असुर निकाय जसु ।। ३६. *श्री जिन भाखै सांभल गोयम! जंबुद्वीप ए नामो। तेह द्वीप ना मंदरगिर थी, दक्षिण दिश में तामो।। ३७. तिरछा द्वीप समुद्र असंख जे, अतिक्रमी नैं सोयो। द्वीप अरुणवर नी बाहिरली, वेदिका अत थी जोयो।। ३८. अरुणोदय समुद्र प्रतै जे, योजन सहस्र बयाली। अवगाही ने इहां चमर नु, तिगिच्छ कूट सुविशाली। ३६. तिगिच्छ कूट उत्पात-पर्वत ते, तिरछो आवा काजो। तिहां आवी – आगल जइय, तिण सं गिरि उत्पात समाजो।। ३७. तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ ३८. अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसयसहस्साई ओगा हित्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तिगिछिकूडे नामं ३६. उप्पायपव्वए पण्णत्ते तिर्यग्लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति। (वृ०-५० १४४) ४०. सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए उड्ढं उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उब्वेहेणं ४१. मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं, मज्झे चत्तारि चउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उरि सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, ४०. सतरै सौ इकवीस योजन नों, ऊंचपणे गिरि जाणी। च्यार सौ तीस योजन नै कोस इक, भूमि विर्ष पहिछाणी ।। ४१. मूल विष दश सय नै बावीस, जोजन चोडो गिरवर। मध्य च्यार सौ चउवीस योजन, सात सौ तेवीस ऊपर ।। *लय—साचू बोलोजी श०२, उ०७,८.ढा०४५ २६६ Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. मूले तिण्णि जोयणसहस्साई, दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयण___सए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, ४३. मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगयाले जोयणसए किचि विसेसूणे परिक्खे वेणं, ४४. उरि दोष्णि य जोयणसहस्साई, दोण्णि य छलसीए जोयणसए किंचि विसेमाहिए परिक्खेवणं, ४७. मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले । ४२. मूल विष तीन सहस्र योजन नी, दोय सौ नै बत्तीस । काइक ऊणी परिधि कहीजै, हिव मध्य परिधि जगीसं ।। ४३. मध्य विष इक सहस्र तीन सय, जोजन वलि इकताली। कांइक विशेषज ऊणी परिधिज, वारू न्याय विशाली ।। ४४. ऊपर दोय सहस्र नैं वे सय, योजन फर छयासी। किंचित् विशेष अधिक जिन आखी, परिधिपणे सुविमासी ।। ४५. वत्ति विषै भारूषो इण रोते, पुस्तकांतरे ताह्यो। ए सगलो विस्तार कह्यो छै, किहांइ गोस्तुभ भलायो ।। ४६. गोस्तुभ लवण-समुद्र मध्य छ, पूर्व दिशि रै मांह्यो। नाग - राजा नों आवास पर्वत, तेह प्रमाण कहिवायो।। ४७. णवरं जे प्रमाण ऊपरलो, ते इहां मध्य भणीज। जाव मूल चोडो मध्य सांकडु, ऊपर विशाल गुणीजै ।। वा०--गोथूभस्स इत्यादि-तिहां गोस्तुभ लवण-समुद्र मध्ये पूर्व दिशि नै विर्ष नाग राजा नों आवास पर्वत, तेहनों आदि मध्य अंत नै विष विष्कंभ प्रमाण इमविष्कंभ ते गोस्तुभ पर्वत एक हजार बावीस जोजन आदि ने विषे चोड़ो, चार सौ चोबीस जोजन मध्य विषै चोडो, सात सौ तेबीस योजन ऊपर चोडो। ए गोस्तुभ पर्वत नो विष्कंभपणो कह्यो। अन इहां ए तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत नों विशेष कहै छै-नवरं इत्यादि गोस्तुभ पर्वत नों ऊपरलो विक्खंभ परिमाण ते तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत ना मध्य नै विष विष्कंभ परिमाण कहिवो। जाव मूल नै विषे विस्तार, मध्य नै विष सांकड़ो, ऊपरे विशाल, तेह थकी विष्कंभ परिमाण इम पाम्यो। मूल नै विर्ष एक हजार बावीस जोजन विष्कंभ, मध्य नै विर्ष च्यार सौ चोबीस योजन विष्कभ, ऊपरे सात सौ तेवीस योजन विष्कंभ, ए तिगिच्छ-कूट उत्पात-पर्वत नुं विष्कंभपणुं कह्य । हि एहनी परिधि कहै छै—मूल नै विष तीन हजार दोय सौ बतीस योजन किंचित् विशेष ऊणी परिधि, मध्य नै विषे एक हजार तीन सौ इकतालीस जोजन किंचित् विशेष ऊणी परिधि, ऊपर दोय हजार दोय सौ छयालीस जोजन किंचित् विशेषाधिक परिधि, अन पुस्तकांतर नै विर्ष ए सर्व छ हीज। वाल-तत्र गोस्तुभो लवणसमुद्र मध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावासपर्वतस्तस्य चादिमध्यान्तेषु विष्कम्भप्रमाणमिदम्---- मूले दसबाबीसे जोयणसए विक्खंभेणं । मज्झे चत्तारि चउवीसे उरि सत्ततेवीसे ॥ ४८. वर वज्र आकारे मध्य कृश छै, मोटा मुकंद संठाणो। सर्व रत्नमय अच्छ निर्मल यावत्, प्रतिरूप पिछाणो ।। वा०-इहां जाव शब्द थकी इम जाणवू–सण्हे-श्लक्षण कोमल पुद्गल निर्वृत्तपणां थकी। लण्हे-मसृण घट्टे-घृष्ट नी पर घृष्ट, खरशाण कहितां तीक्ष्ण शाण करी घसी प्रतिमा नी पर। मट्ठे मठाऱ्या नी परै मठार्यो-सुकुमार सुहाली शाण करी घसी प्रतिमा नी परै। अथवा पूजणी करिक प्रमार्जन करै तेहनी परै शोधित, इण कारण थकी हीज नीरए-रज रहित । निम्मल-कठिन मल रहित। निप्पंक--आला मल रहित । निक्ककडच्छाए-निरावरण दीप्ति। सप्पभेभली प्रभा। समरिईए-किरण सहित। सउज्जोए--नजीक वस्तु नैं उद्योतक । पासादीए४। 'मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि विसेमणे परिक्खेवणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगुयाले जोयणसए किचिविसेसणे परिक्खेवेणं, उरि दोष्णि य जोयणसहस्साई दोण्णि य छलसीए जोयणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' पुस्त कान्तरे त्वेतत्सकलमस्त्येवेति । (वृ०-प०१४४, १४५) ४८. वरवरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए सब्बरयणामए अच्छे जाव पडिरू। बा०-- 'सण्हे' श्लक्ष्णः श्लक्ष्णपुद्गलनिवृत्तत्वात्, 'लण्हे' मसृण: 'घट्टे' घृष्ट इव घृष्ट: खरशानया प्रतिमेव 'मढे' मृष्ट इब मृष्टः सुकुमारशानया प्रतिमेव, प्रमार्जनिकयेव वा शोधितः अतः एव 'नीरए' नीरजा रजोरहित: निम्मले' कठिनमल रहितः 'निप्पके' आर्द्रमल रहितः निक्कंकडच्छाए' निराव रणदीप्तिः 'सप्पभे' सत्प्रभावः ‘समरिईए' सकिरण : 'सउज्जोए' प्रत्यासन्नवस्तूद्योतकः पासाईए ४। (वृ०-५० १४५) ३०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. ते इक पद्मवर-वेदिका करके, इक वनखंड करि जाण्यो। सर्व प्रकारे सगलै वीट्यो, वर्णक बिहं नो बखाण्यो। ४६. से णं एगाए पउमवरवेइयाए, वणसंडेण य सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। पउमवरवेइयाए वणसंडस्स य वण्णओ। (श० २०११८) वाल..पद्मवर-वेदिका नों अनै वनखंड नो वर्णक जाणवो। तिहां वेदिका नो वर्णक इम सा णं पउमवरवेइया अद्धं जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सब्वरयणामई तिगिच्छिकूड उवरितलपरिक्खेवसमा परिक्खेवेणं, तिगिच्छ कूट ना ऊपरला तला नी परिधि नी पर बीटी रही छ। ते पद्मवर-वेदिका केहवी छ-तीसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, वर्णकव्यास ते वर्णकबिस्तर । वइरामया नेमा--बज्रमय नेमा ते थांभा नां मूल पाया। परिक्खेवेणं इत्यादि । अनै बनखंड नों वर्णक ते इम-से णं वणसंडे इत्यादि। किण्हा कहितां कृष्ण वर्ण, किण्हाभासे कहितां कृष्ण वर्ण द्युति इत्यादि । ५०. ते तिगिच्छ-कट उत्पात-पर्वत रे, ऊपर बह सम जाणी। अत्यंत - सम - रमणीक - भूमिभाग, वर्णक तास पिछाणी।। ५०. तस्स णं तिगिछिकूडस्स उप्पायपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते-वण्णओ। (श० २।११९) वा०-मृदंग जो जे मुख ते सरिखे वा भूमिभाग का वर्णक-से जहा नामए 'आलिंगपुक्खरेइ वा' मुरज वाजंत्र विशेष तेहनो जे मुख ते सरिखो, 'मुयंगपुक्खरेइ बा' 'सरतलेइ वा' पाणी सू भर्यो तलाब नों तलो ते सरीखो, 'करतलेइ वा' हाथ ना तला सरीखो, 'आयसमंडलेइ वा' आरीसा नां मंडल सरीखो, 'चंदमंडलेइ वा' चंद्रमंडल सरीखो, इत्यादि। ५१. ते बह-सम-रमणीय भूमिभाग नै, बह मध्य देश भागे हो। प्रासाद-अवतंसक इक मोटो, मुकुट सरीखो तेहो ।। ५२. अढा ताप अढी सौ योजन ऊंच पण ते, सवा सौ जोजन चोड़ो। प्रासाद-वर्णक, उल्लोक-वर्णक, बलि भूमि नों वर्णक जोड़ो।। ५१. तस्स णं बहुसम-रमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस भागे, एत्थ णं महं एगे पासायव.सए पण्णते५२. अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पणुवीस जोयणसयं विक्खंभेणं । पासायवण्णओ। उल्लोयभूमिवण्णओ। सोरठा अति ही ऊंचो प्राप्त, प्रकर्ष हसित तणी परै। प्रभा-पटल परिव्याप्त, तिण करिक प्रहसित अछै ।। t अथवा प्रभा करेह, सित ते शुक्ल कहीजिये। अथवा संबद्ध एह, पाठ पहसिए अर्थ त्रिण ।। मणी चंद्रकांतादि, सूवर्ण रत्न तणीं बलि। भांति करी प्रासादि, चित्र इत्यादि सुवर्णक ।। ते प्रासादवतंस, तसं ऊपरला भाग न । वर्णक इसो प्रसंस, प्रभू परूप्यो ते सुणो।। पद्म-लता नी भांति, तिण करि चित्रित जाव सहु। तवणिज्जमए सुकांति, अच्छ जाव प्रतिरूप जे ।। ते प्रासादवतंस, तेहन बहु-सम-रमणीय । भूमिभाग सुप्रसंस, आख्यो ? ते सांभलो।। ५३. अभ्युद्गतश्चासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः, अत्यर्थ मुच्च इत्यर्थः, तथा प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया प्रहसितः । (व०-प०१४५) ५४. प्रभया वा सित:-शुक्लः संबद्धो वा प्रभासित इति। (वृ०-५० १४५) ५५. मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः --विच्छित्तिभिश्चित्रो विचित्रो यः स तथा। (वृ०-५० १४५) ५६. उल्लोचवर्णकः प्रासादस्पोपरिभागवर्णकः, स चैवम् (वृ०-५० १४५) ५७. पउमलयभत्तिचित्ते जाव सब्बतवणिज्जमए अच्छे जाव पडिरूवे। (वृ०-५० १४५) ५८. तस्स णं पासायडिसयस्स बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते। (वृ०-५० १४५) श०२, उ०८, ढा०४५ ३०१ Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. मुरज वाजिव विशेख, तेहनुं मुख ते सारिखूं । अति ही सम संपेख, इत्यादिक वर्णक तसुं ॥ ६०. * आठ जोजन मणि तणी पीठिका, चमर सीहासण धारो । बलि तेहना परिवार दणा पिण, भगवा भद्रासण सारो || वाo -ते चमर नां सहासण नैं वायव्यकूणे अन ईशाण कुणे चमर नां चौसठ हजार सामानिक नां चौसठ हजार भद्रासण परूप्या । इम पूर्व दिशे पंच अग्रमहेसी परिवार सहित नां पांच भद्रासण परिवार सहित अग्निकूणे अभितर परिषदा नां चौबीस हजार देवता नां चौबीस हजार भद्रासण, इम दक्षिण दिशे मज्झिम परिषदानां अट्ठाईस हजार देवता नां अठ्ठाईस हजार भद्रासण, नैऋत्य कूण बाहिरली परिषदा नां बत्तीस हजार देवता नां बत्तीस हजार भद्रासण, पश्चिम दिशे सात अनीकाधिपति नां सात भद्रासण, चिहुं दिशि नैं विषं दोय लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देवता नां दोय लाख छप्पन हजार भद्रासण । तिण में एकेकी दिशि चोसठ चोसठ हजार आत्मरक्षक देवता नां चोसठ-चोसठ हजार भद्रासण कया । ' तेत्तीस भोम त्ति वाचनांतरे दृश्यते' तिहां तेतीस भोम ते विशिष्ट स्थान अन अन्य आचार्य कहै नगर नै आकार छं । ६१. ते गच्छकूट सूं दक्षिण दिशि में, जोजन पचपन कोड पैंतीस लदा बलि, सहस्र ६२. अरुणोदय समुद्र में तिरछो, अतिक्रमी ने पांही हेठे रत्नप्रभा पृथ्वी नें चालीस सहस्र योजन अवगाही || ६३. इहां चमर असुरेन्द्र तणी छै, चमरचंचा राजधानी इम लख योजन चोड़ी, जंबूद्वीप प्रमाण जानी ॥ लांबी छ सय कोड़ो । पचास गुजोड़ो || 3 ६४. प्राकार उंचपणं दोसौ योजन मुले पचास जोजन विस्तारो ऊपर साढा बारा जोजन, विवखंभ विस्तार विचारो || ६५. कोसीसा' अर्द्ध जोजन लांबा, कोश एक विभो। देसूण अर्द्ध जोजन ऊंचा, पेखत पा ६६. इक-एक पास पंच पंच सौ दरवाजा मुख । अढोसौ जोजन ऊंचपणे ते सवासो योजन विभो ।। ६७. उपकारिका-लयण सोल सहस्र योजन, लंब विक्खंभ पचास सह पत्र सो सत्ताणं किचित् ऊभी * लय - साचू बोलोजी १. कपिशीर्ष - प्राकार के ऊपर का भाग । ३०२ भगवती जोड़ अचंभो ॥ रंगो सुऋद्धो । परिद्धी ॥ ५६. आलिंगपुक्खरे इवेत्यादि । ( वृ०-५० १४५) ६०. अट्ठजोयणाई मणिपेढिया । चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं । ( ० २०१२० ) वा० - तस्स णं सिंहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ गं चमरस्स चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सी सीए भहाणसाहसीओ पष्णताओ, एवं पुरमे पंच अन्नमहिसीय सपरिवारा व भट्टालाई सपरिवाराई दाहिणपुरठिमेण अस्मित रियाए परिसाए चब्बीसाए देवसाहस्सीणं चउव्वीस भद्दास साहसीओ एवं दाहिणेयं मज्झिमाए अा वो महाणसाहसीओ हमे बाहिरि याए बत्तीस भट्रायसाहसी पञ्चरमेणं सत अणियाहिवईण सत्त भद्दासणाई चउद्दिसि आय रक्खदेवा चारि भासण सहसच उडीओ' ति तेत्तीस भोम' त्ति वाचनान्तरे दृश्यते, तत्र भौमानि - विशिष्टस्थानानि, नगराकाराणीत्यन्ये । ( वृ० प० १४५, १४६ ) ६९. तर तिनिछिस्स दाह में उनकोसिए जन्न च कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पण्णासं च सहस्साई 7 ६२. अरुणोद समुद्दे तिरियं नीता अहे रमणभाए पुढवीए चत्तालीस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, ६३. एत्थ णं चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमार रण्णो चमरचंचा नाम रायहाणी पण्णत्ता एवं जोयणसयस हस्तं आयाम विक्यंभेणं दीप्यमाणा । ६७. ओवारियलेणं सोलसजोयणसहस्साई आयाम - विक्खभेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसए किचि विशेषे परिवे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. 'उवयारियलेणं' ति गृहस्य पीठबन्धकल्पं । (वृ०-५० १४६) सोरठा चमर-प्रासाद अमूल्य, तेह प्रमुख नी पीठिका। गृह-पीठि बंध तुल्य, ते उपकारिक-लयन छै ।। वा०–ते बहु सम रमणीक भूमिभाग ना बहु मध्य देश भाग नै विषै इहां अतिहि मोटो उपकारिका-लयन परूप्यो । ते चमर असुरेन्द्र संबंधी प्रसादावतंसकादिक नीं पीठिका अनै अन्य स्थानके ए उपकार्य उपकारिका इति प्रसिद्धा। ६६. *वैमानिक नां विमान गढ नो, प्रामाद सभादि प्रमाणो। तेह थी अर्ध प्रमाण कह्यो छ, राजधानी में जांणो।। वाल-सौधर्म वैमानिक नां विमान नों प्राकार-गढ़ तीन सौ जोजन ऊंचपण अन ए चमर नी राजधानी नों प्राकार—गढ़ दोढ़ सौ जोजन ऊंचपण । तथा सौधर्म वैमानिक नों मूल प्रासाद पांच सौ जोजन ऊंचापण । ते मूल प्रासाद नै चउफेर च्यार प्रासाद अढाई सौ योजन ऊंचपण । तेहन चउफेर सोल प्रासाद सवा सौ योजन ऊंचपण । तेहनै चउफेर चउसठ प्रासाद साढ़ा बासठ जोजन ऊंचपण। तेहनै चउफेर दोय सौ छप्पन्न प्रासाद सवा इकतीस जोजन ऊंचपण । ए सुधर्म देवलोक ना विमान नी च्या र परपाटी कही। इहां चमर नी राजधानी में उपकारिकालयन ते पीठिका - विष चमर नों मूल प्रासाद अढी सौ जोजन ऊंचपण, तेहनै चउफेर च्यार प्रासाद सवा सौ योजन ऊंचपण, तेहनै च उफेर १६ प्रासाद ६२॥ योजन ऊंचपण, तेहनै चउफेर ६४ प्रासाद सवा इकतीस योजन ऊंचपण, तेहनै च उफेर २५६ प्रासाद १५ योजन, एक जोजन ना ८ भाग कीज ते माहिला ५ भाग एतलो ऊंचपर्ण । एहिज वाचनांतरे कह्य-चत्तारि परिवाडीओ पासायवडंसगाणं अद्धदहीणाओं' ए च्यार परिपाटी नै विषे ३४० प्रासाद अन एक मल प्रासादावतंसक ए ३४१ हुवे । ए प्रासाद थकी ईशाण कूणे सुधर्मा-सभा, सिद्धायतन, उपपात-सभा, द्रह, अभिषेक-सभा, अलंकार-सभा, व्यवसाय-सभा ते पुस्तक-सभा, ए चमर नीं सौधर्म सभादिक छै। ते सौधर्म वैमानिक सभादिक प्रमाण थकी अर्द्ध प्रमाण छ। ते भणी इहां ए चमर संबंधी सभादि ऊंचपणे ३६ योजन, लांबपण ५० जोजन, चोड़पणे २५ जोजन छ। ६६. सव्वप्पमाणं बेमाणियप्पमाणस्स अद्धं नेयब्वं । (श०२।१२१) वा०-सौधर्मवैमानिकानां विमानप्राकारो योजनानां त्रीणि शतान्युच्चत्वेन, एतस्यास्तु सार्द्ध शतं, तथा सौधर्मवैमानिकानां मूलप्रासादः पञ्च योजनानां शतानि तदन्ये चत्वा रस्तत्परिवारभूताः साढे द्वे शते ४, प्रत्येकं च तेषां चतुर्णामप्यन्ये परिवारभूताश्चत्वारः सपादशतम् १६, एवमन्ये तत्परिवारभूताः सार्दा द्विषष्टिः ६४, एवमन्ये सपादैकत्रिंशत् २५६, इह तु मूलप्रासादाः साढ़े द्वे योजनशते एवमद्धिहीनास्तदपरे यावदन्तिमाः पञ्चदश योजनानि पञ्च च योजनस्याष्टांशाः । एतदेव वाचनान्तरे उक्तम्-चत्तारि परिवाडीओ पासायवडेंसगाणं अद्धद्धहीणाओ त्ति एतेषां च प्रासादानां चतष्वपि परिपाटीषु त्रीणि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति, एतेभ्यः प्रासादेभ्यः उत्तरपूर्वस्यां दिशि सभा सुधर्मा सिद्धायतनमुपपातसभा ह्रदोऽभिषकसभाऽलङ्कारसभा व्यवसायसभाचेति, एतानि च सुधर्मसभादीनि सौधर्मवैमानिकसभादिभ्यः प्रमाणतोऽर्द्धप्रमाणानि, ततश्चोच्छ्य इहैषां षट्त्रिंशत्योजनानि पञ्चाशदायामो विष्कम्भश्च पंचविंशतिरिति। (वृ०-५० १४६) ७०. 'सभा सुधर्मा थी ईशाण, जिण-घर तिहां कहिवायो। बलि उपपात सभा पिण कहिवी, बलि द्रह वर्णन आयो ।। बलि अभिषेक सभा पिण त्यां छै, राजा बेस तिहां आवी। बलि अलंकार सभा पिण त्यां छे, अलंकार तनु भावी।। जिम विजय सर नों ऊपजवो, जीवाभिगम मझारो। आख्यो छै विस्तार तिमिज ते, इहां कहिवं अधिकारो।। उपपात सभा में नवो ऊपनों, चितवियो मन माह्यो। पहिला पछै मुझ नै स्यूं करिवू ? राज तणी विध ताह्यो। *लय-प्रभवो चोर चोरां ने 'लय—साचू बोलोजी ७२. सर्व च जीवाभिगमोक्तं विजयदेवसम्बन्धि चमरस्य वाच्यं । (वृ०-प० १४६) ७३. उपपातसभायां सङ्कल्पश्चाभिनवोत्पन्नस्य कि मम पूर्व पश्चाद्वा कर्तुं श्रेयः? (व०-प०१४६) श०२, उ०८, ढा०४५ ३०३ Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतः। ७५. अभिषेकश्चाभिषेकसभायां महद्धर्या सामानिकादिदेव (वृ०-प० १४६) ७६. विभूषणा च वस्त्रालंकारकृताऽलंकारसभायां । __ (वृ०-५० १४६) ७७. व्यवसायश्च व्यवसायसभायां पुस्तकवाचनतः । (वृ०-५० १४६) ७८. ७४. नवो ऊपनों तेह स्थान नीं, विध नी खबर न कायो। तास सामानिक परिषदा ना सुर, कार्य सर्व बतायो। ताम ऊठ द्रह स्नान करीन, सभा अभिषेकज आयो। मह ऋद्धि करि सामानिक प्रमुख, राज-अभिषेक करायो ।। अलंकार सभा में आवी नै, किया सर्व अलंकारो। वस्त्रादि करी अधिक विभूषित, पेखत पामै प्यारो।। ७७. वलि व्यवसाय सभा में आवी, पुस्तक वांचे ताह्यो। धम्मियं जे व्यवसाय कह्या छ, ते कुल-धर्म कहायो।। 'दशमें ठाणे धर्म कह्या दश, त्यां कूल-धर्म कहायो। आर्य नव कह्या पन्नवण धुर पद, पिण धर्म नहीं सहु मांह्यो ।। ७६. कर्म आर्य वस्त्र ना व्यापारी, सूत कपास व्यापारी। तास कार्य करिवा नै डाहा, ते कर्म-आर्य अधिकारी ।। शिल्प आर्य वस्त्र नै तूण, डाहा वस्त्र बणेवा। लेप, चित्र लिखवा नै डाहा, ए शिल्प आर्य में लेवा।। तिम धम्मियं व्यवसाय कह्या ते, कूल धर्म कहिवायो। ज्ञान दर्शण चारित्र आर्य ते, सूत्र चारित्र धर्म मांह्यो' ।। (ज० स०) सिद्धायतन सिद्ध शाश्वती प्रतिमा प्रमुख अर्चन करने । सभा सुधर्मा आवै सुर-वंद, एहवी ऋद्धि चमर नै ।। 16 वृत्तिकार का एवमहिड्ढिए, इत्यादि वच करि ताह्यो। इहां न कह्यो पिण कहिवू एहन, पाठ सह सुखदायो।। अन्य वाचना विष बली ए, अर्थ थकी अधिकारो। बहलपणे करि अवलोकित छ, वारू न्याय विचारो।। ८५. द्वितीय शतक नै अष्टमुद्देशे, पंच चालीसमी ढालो। भिक्खु भारीमाल ऋपराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो।। द्वितीतशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।२।८।। ८२. अर्चनिका च सिद्धायतने सिद्धप्रतिमादीनां, सुधर्मसभागमनं च सामानिकादिपरिवारोपेतस्य चमरस्य। (वृ०-प० १४६) ८३. ऋद्धिमत्त्वं च ‘एवंमहिड् िढए' इत्यादिवचनर्वाच्यमस्येति। (वृ०-५० १४६) ८४. एतद् वाचनान्तरेऽर्थतः प्रायोऽवलोक्यत एवेति । (वृ०-५० १४६) ढाल : ४६ दूहा चमरचचा नो क्षेत्र का, अष्ट मुद्देशा मांय । क्षेत्र तणा अधिकार थी, समयक्षेत्र हिव आय ।। १. चमरचञ्चालक्षणं क्षेत्रमष्टमोद्देशक उक्तम्, अथ क्षेत्राधिकारादेव नवमे समयक्षेत्रमुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्। (वृ०-५० १४६) समय-काल तेणे करी, उपलक्षित जे खेत। समयक्षेत्र कहिये तसुं, तास प्रश्न हिव एथ ।। ३०४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ton Intemational Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. किमिदं भंते ! समयखेत्ते त्ति पवुच्चति ? समयः-कालस्तेनोपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्र, कालो हि दिनमासादिरूपः। (वृ०-५० १४६) *प्रभुजी जशधारी। (ध्रुपदं) ३. प्रभु ! समयक्षेत्र स्यूं कहियै ? समय काल भणीज सद्दहियै हो। ते दिवस मासादिक रूप, ऋतु हेमंतादि तद्रूपं हो। गोयम गुणधारी। (ध्रुपदं) ४. जिन भाखै द्वीप अढ़ाई, वलि दोय समुद्र धुर आई। इतो समयक्षेत्र ए कहिये, अद्धा दिवस मासादिक लहिये ।। ५. रवि गति थी भूम ऊपर जानं, ओ तो मनुष्य-क्षेत्र में मान । मनुष्य-क्षेत्र रै वारं, नहि चन्द्र सूर्य नो चारं ।। त्यां ए जंबद्वीपज नाम, ए तो द्वीप अछै अभिराम। सर्व द्वीप समुद्रां मांय, अभितर ए कहिवाय ।। इम जीवाभिगमे जाणं, सह वक्तव्यता पहिछ। णं । जाव अभितर पुक्ख रार्द्ध लहिई, ज्योतिषि वार्ता नहिं कहिई।। ४. गोयमा ! अड्ढाइज्जा दीवा, दो य समुद्दा, एस णं एवइए समयखेत्तेति पवुच्चति। (श० २।१२२) ५. सूर्यगतिसमभिव्यङ्गयो मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, परतो हि नादित्याः संचरिष्णव इति । (वृ०-५० १४६, १४७) ६. तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वब्भं तरे। ७. एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयव्वा जाव अभितरपुक्खरद्धं जोइसविहूणं। (श०२।१२३) ८. वाचनान्तरे तु 'जोइसअट्ठविहूणं' ति इत्यादि बहु दृश्यते। (वृ०-५० १४७) सोरठा ८. अन्य वाचना मांहि, जोइसअट्ठविहूणं इसो। पाठ दीसै छै ताहि, एहवं आख्यो वृत्ति में। . ज्योतिषि ते रवि शशि जाणं, तेहनी संख्या पहिछाण । ते जीवाभिगम मझार, ते वर्जी इहां विचार ।। १०. जिन समय बादर बिजु गाज, बादल नै अग्नि समाज। आगर निहि नइ ग्रहण रवि चारं, नहि अयन अढी द्वीप बारं ।। ११. बीजा शतक नों नवमों उद्देश, कह्यो क्षेत्र विस्तार सूलेश । ते अस्तिकाय नों देश, हिवै अस्तिकाय कहेस ।। द्वितीय शते नवमोद्देशकार्थः ।।२।६।। १०. अरहंत समय बायर विज्जू, थणिया बलाहगा अगणी। आगर निहि नइ उबराग निग्गमे वुड्ढिवयणं च ॥ (वृ०-५० १४७) ११. अनन्तरं क्षेत्रमुक्तं तच्चास्तिकायदेशरूपमित्यस्तिकायाभिधानपरस्य दशमोद्देशकस्यादिसूत्रम् (वृ०-प० १४७) १२. प्रभु ! केतली कही अस्तिकाय ? अस्ति शब्दे प्रदेश कहाय। तसं काय-राशि छै सोय, ते अस्तिकायज होय ।। १२. कति णं भंते ! अत्थिकाया पण्णत्ता? अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया-राशयोस्तिकायाः। (वृ०-प० १४८) अथवा अस्ति निपात है, कहै काल त्रिहं तास । थयो अछे थास्यैज ए, काय प्रदेशज-राश ।। १३. अथवाऽस्तीत्ययं निपातः कालत्रयाभिधायी,ततोऽस्तीति सन्ति आसन् भविष्यन्ति च ये काया:-प्रदेश राश यस्तेऽस्तिकाया इति। (वृ०-प० १४८) १४-१६. गोयमा ! पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, जीव १४. *जिन कहै पंच अस्तिकाय, धर्मास्तिकाय कहाय। अधर्मास्तिकाय है बीजी, आगासत्थिकाय छ तीजी ।। *लय-खटमल मेवासी श० २, उ०६, १०, ढा०४६ ३०५ Jain Education Intemational cation International Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. जीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय में सुजाणं, पुद्गलास्तिकाय तास, किता वर्ण गंध रस अफर्श १६. जिन कहै अवर्ण अगंध, अरस ते सास्वत अरूपी अजीब, अवस्थित लोक द्रव्य १७. संक्षेप थी पंच प्रकार, द्रव्य थकी क्षेत्र थी काल थकी भाव भी जाणं, बलि गुण भी कीजें पिछाणं ।। १८. द्रव्य थी धर्मास्तिकाय, इक द्रव्य कहीजे ताय। धार । क्षेत्र थकी लोक प्रमाणं, पिण अलोक में नहि जाणं || १२. कालपी विहं काल रे मांहि नित्य सामती कहिजे ताहि । भाव थी वर्णादि रहितं, गुण थकी गमन गुण सहितं ॥ २०. एवं अधर्मास्तिकाय णवरे गुण ठाण जीव पुद्गल युद्ध समाज, तसुं स्थिर रहिवानं सहाज कहाय । २१. एवं लोकालोक २२. प्रभु ! जीवास्तिकाय में तास, किता वर्ण गंध जिन कहै - वर्ण नहीं पाय यावत् अरूपी २३. जीव द्रव्य सासतो वेद, अवस्थित पर्याय बधवुं घटवूं छै नांय, ए द्रव्य जीव २४. ते संक्षेप थी पंच प्रकार, द्रव्य थी जाव गुण द्रव्य श्री जीवास्तिकाय, जीव द्रव्य अनंत पिछाणं । फास ? प्रबंध | कहीव ॥ आगासत्विकाय णवर क्षेत्र की कहियाय । अनंत, गुण अवगाहण हृत ॥ रस फास ? कहाय ॥ न भेद । २५. क्षेत्र लोक प्रमाण निहाल, काल थकी नित्य त्रिहुं कालं । थकी वर्णादि रहीतं, गुण थी उपयोग वदीतं ॥ भाव ३०६ भगवती जोड़ अपेक्षाय || थी धार । कहाय ॥ २६. पुद्गलास्तिकाय में तास, प्रभु ! किता वर्ष जाव फास ? जिन कहै— वर्ष रस पंच, वे गंध अठ फास विरंच ।। २७. रूपी अजीव शाश्वतो जाणी, अवस्थित लोक द्रव्य माणी । ते संक्षेप थी पंच प्रकार, द्रव्य थी जाव गुण थी धार ॥ २८. द्रव्य थकी पोग्गलरियकाय, तसुं द्रव्य अनंता पाय लोक प्रमाणे वित्त, काली विहं काल में नित्त । थिकाए, पोगलत्थिकाए । ( ० २०१२४) धम्मत्थिकारणं भंते ! कतिवण्णे ? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? गोयमा ! अवणे, अगंधे, अरसे, अफासे अवी, असा अगद १७. से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, त्तओ का भाव, गुणओ। १८. दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे । खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्तं, १६. कालओ न कयाइन आसि, न कयाइ जाव णिच्चे । भावजय, अगंधे, अरसे, अफाने गुणओ म गुणे । (०२११२५) २०. अधम्मत्थिकाए एवं चेव नवरं गुणओ ठाणगुणे । (श० २।१२६ ) जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भहेतुः । ( वृ० प० १४८ ) २१. आगासत्थिकाए वि एवं चैव नवरं खेत्तओ णं आगासत्काए लोपालोप्यमाणमेते अपते चैव जात्र गुणओ अवगाहणागुणे । (स०] २०१२७) २२, २३. जीवथिकाए णं भंते! कतिवण्णे ? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? गोयमा ! अवण्णे, जाव अरूवी, जीवे, सासए, अवट्ठिए लोगवे । २४. से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- दव्वओ जाव गुणओ । दव्वओ णं जीवत्थिकाए अनंताई जीवदव्वाई । २५. खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते । कालओ न कयाइ न आसि, जागिये भावो भव, अगंधे अरसे अफासे गुण उचओगे। 1 7 (श० २११२८ ) २६. पोग्गल त्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे ? जाव कतिफासे ? गोमा पंच पंच २७. रूबी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदब्बे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वओ, खेत्ताओ कालओ, भावओ, गुणओ । २८. दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अनंताई दव्वाई | खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते । कालओ न कयाइ न आसि, जाव णिच्चे । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भाव की वर्णमत कहिये, बलि गंध फर्श रस लहिये। गुण थकी ग्रहण गुण ताहि संबंधन माहीमहि ॥ ३०. प्रभु! धर्मास्तिकाय नुं जोय, इक प्रदेश ने धर्मास्तिकाय वदोजे, जिन भाखं ३१. बे त्रिण चिउं पंच छ एम, सत अठ नव जाव असंख प्रदेश नै ताय, न कहिये अवलोय । नहीं कहीजे ॥ दश पिण ते म । धर्मास्तिकाय || ३२. एक प्रदेश ऊणी भंत !, धर्मास्तिकाय तब भास्त्रे श्री जिनराय, एह अर्थ समर्थ न ३३. प्रभु ! किण अर्थ ए वाय, एक प्रदेश धर्मास्ति नांय । जाव ऊणी एक प्रदेश, धर्मारित नहीं कहेश || ३४. जिन शिव्य में पूछे अव प्रभु ! सगल चज कहिये, ३५. इम छत्र चर्म दंड जाणं, वस्त्र आयुध मोदक माणं । तिण अर्थे ए इम वाय, बंध आश्री कहिये नांय || खंड चक्र के गली बफ ? पण खाडो चक्र न लहिये । वदंत ? याय ।। ३६. अर्थ कियो वृत्ति मांग ए निम् नव अभिप्राय । इहां ववहार नये इक देश, कभी धर्मास्ति कस ॥ ३७. खांडो पिण घड़ो कहीजे, छिन्न- कर्णो श्वान वदीजै । इक देश विकृत छै जेह, अन्यवत् नहीं छै तेह || ३८. से किखाइ णं भंते !, से कहितां खाइ ते पुनः विचार णं ते ३६. भंते ! कहितां भगवंत, धर्मास्तिकाय अथ ए वदते । वाक्यालंकार || वदंत । धर्मास्तिकाय स्यूं कहिये ? हिवै श्री जिन उत्तर दयै || ४०. धर्मास्तिकाय अशेप, तसं असंख्यात प्रदेश | सर्वे ते सर्व समस्तु, कसिणा संपूरण ४१. पडणा प्रतिपूर्ण निरवशेष एक शब्द धर्मास्तिकाय, तेणे करी ते हि गृहीत वस्तु ॥ न्यून कहाय ॥ | २६. भावओ वण्णमंते गंधमंते, रसमंते, फासमंते । गुणगहणगुणे । ( श० २।१२९ ) ग्रहणं परस्परेण सम्बन्धनं जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैः । ( वृ०० १४८) ३०. एगे मंते ! धम्मत्विकायदे धम्मत्किाएति बत्तन्वं सिया ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । (श० २।१३० ) ३१. एवं दोण्णि, तिणि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा, असंखेज्जा । भंते! धम्मत्थिकायपदेसा धम्मत्किाए त्ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! णो इणट्ठे समडे (०२१३१) ३२. एगपदेसूणे वि य णं भंते! धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा जो इस समट्ठे । ३५. एवं (श० २४१३२) ३३. से केणट्ठेण भंते ! एवं बुच्चइ - एगे धम्मत्थिकायपदे से नो धम्मत्किाए ति त सिया जाएगपणे वि यणं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? ३४. से नूणं गोयमा ! खंडे चक्के ? सगले चक्के ? भगवं ! तो खंडे चक्के, सगले चक्के । चम्मे दंडे से आउ मोदए से गोयमा ! एवं वच्चइ - एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मथिकाए त्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया । (श० २।१३३) ३६. एवं धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्याद्, एतच्च निश्चयनयदर्शनं, व्यवहारनयमतं तु --- एकदेशेनोनमपि वस्तु वस्त्वेव । (१००२० १४९) ३७. यथा खण्डोऽपि घटो घट एव, छिन्नकर्णोऽपि श्वा श्वैव, भजन्ति च एकदेशविकृतमनन्यदिति । ( वृ० प० १४६ ) ३८. से किखाइ णं भंते ! अथ किं पुनरित्यर्थः । ३६. धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? ( वृ० प० १४९) ४०. गोएमा ! असंखेज्जा धम्मत्थिकायपदेसा, ते सब्वे कसिणा ४१. पडिष्णा निरवसेमा एका एक ग्रहणेन -- एक शब्देन धर्मास्तिकाय इत्येव लक्षणेन गृहीता । (g०० १४९) श० २. उ० १०, ढा० ४६ ३०७ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. एक शब्द अभिधेया, अथवा ए एकार्थक ज्ञेया । ए धर्मास्तिकाय कहाय एवं अधर्मास्तिकाय || ४३. आकाशास्ति जीवास्तिकाय, पोगलत्थि विहं इम ताय णवर प्रदेश अनंता, तिमहिज शेष विरतंता ॥ सोरठा जीवां तणां प्रदेश पूर्व आख्या छै इहां । उपयोग गुण सुविशेष, पूर्वे ते विण आखिया ।। जीव तणो हिव तेह, देशभूत गुण छै जिको । उत्थानादिक एह प्रश्न तास गोयम करें I! ४६. हे भयंत जीव विचार, उद्वाण सहित अवधार ! कर्म कार्य सहित सुजोय, बल सहित तिको अवलोय || बलि वीर्य सहित वदीत पुरुषाकार पराक्रम सहीत ए जीव संसारी जाण, तिको जोग सहित पहिचाण ।। आत्म भाव करीने तेह, उत्थान शयन करि जेह । गमन भोजन आदि संपेल, तेह आत्म-भाव करि देख || । 3 ४४. ४५. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२ ५३. *लय जीवपणं चेतनपणं तास देखाई करे हां गोतम ! जीव उठा यावत् देखा किण अर्थे ए संपेख ? जीवपणुं देखावे विशेख | तसु न्याय कहै भगवंत, मति ज्ञान ना पज्जव अनंत || इम पज्जवा श्रुतना जोय, वलि अवधि ज्ञान ना होय । मन- पज्जव केवल केरा, पर्याय अनंत घणेरा ॥ विहं अज्ञान चिडं दर्शण ना पर्याय अनंत जीव उट्टाणादि विषेह, उपयोग प्रत उपयोग चेतना विशेख, ते प्रति उपयोग लक्षण करि जेह, जीवपणों - खटमल मेवासी ३०८ भगवती जोड़ प्रकाश ? जाण ॥ उपकरणा । पामेह || पामै संपेख | दिखाड़े तेह || ४२. एस णं गोयमा ! धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया । (श० १११३४ ) एवं अधम्मत्थिकाए वि । एक शब्दाभिधेया इत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दाः । ( वृ० प० १४९ ) ४३. आगासत्थिकाय जीवत्थिकाय-पोग्गलत्थिकाया वि एवं चैत्र नवरं तिष्टं पि पदेसा अनंता भाणियव्वा । सेसं तं चैव । (श० २।१३५) ४४. उपयोगगुणो जीवास्तिकायः प्राग्दर्शितः । ( वृ० प० १४९) ४५. अशी उत्थानादिगुण इति दर्शयन्नाह( वृ० प० १४९ ) ४६, ४७. जीव णं भंते! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सरकार-परवकमे ४८. आयभावेणं आत्मभावेन उत्थानशयन गमनभोजनादिरूपेणात्मपरिणामविशेषेण । ( वृ० प० १४९) ४६. जीवभाव उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाद उवदंसेतोति वत्तव्वं सिया । (०२१३६) 'जीवभाव 'ति जीवत्वं चैतन्यम् उपदर्शयति प्रकाशयतीति । (२०-१० १४६) ५०, ५१. से केणट्ठेणं जाव वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! जीवेणं अनंताणं आभिणिबोयिनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाणपत्रवाणं अनंतानं ओहिनाणपरवाणं, अताणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं, अणंताणं केवलनाणपज्जवाणं, ५२. अनंताणं मइअण्णाणपज्जवाणं अनंताणं सुयअण्णाणपज्जवाणं, अणंताणं विभंगनाणपज्जवाणं, अनंताणं पणपरवाणं अगता अवस्पजवाण अनंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अनंताणं केवलदंसणपज्जवाणं उवओगं गच्छइ । ५३. उवओगलक्खणे णं जीवे । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०–'उवओगे' त्यादि, अत उपयोगलक्षणं जीवभावमुत्थानाद्यात्मभावेनोपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यादेवेति । (वृ०-प० १४६) वाo-अथ जो उत्थानादिक आत्म-भाव विष वर्त्ततो थको जीव मति ज्ञानादिक उपयोग प्रत प्राप्त हुवै, ते स्यूं एतला मात्र थीज जीव भाव प्रत दिखाई इसो कहिवू जोइए? इसी आशंका करै, तिवारे भगवान कहै-'उवओगलक्खणे णं जीवे' जीव नों लक्षण उपयोग छै, इण कारण थकी उपयोग-रूप जीवत्वे उत्था नादिक आत्म-भाव करिकै देखाई, इम कहिवू जोइएज। ५४. तिण अर्थ उट्टाणादि सहीत, जाव जीवपणोज कहीत । कह्य जीव सूत्र सुविमास, हिवै तसं आधार आकाश ।। ५५. प्रभु ! कतिविध कह्य आकाश ? जिन भाखै द्विविध तास । लोकाकाश ते लोक-मझार, अलोकाकाश लोक नै बार ।। ५४. से एएणढेणं एवं वुच्चइ--गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाव...जीवभाव उवदंसेतीति बत्तवं सिया। (श०२।१३७) अनन्तरं जीवचिन्तासूत्र मुक्तम्, अथ तदाधारत्वेनाकाशचिन्तासूत्राणि । (वृ०-५० १४६) ५५. कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा--लोयागासे य अलोयागासे य। (श०२।१३८) ५६. लोयागासे णं भंते ! कि जीवा? जीवदेसा? जीवप्प देसा? ५७. अजीवा ? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा? ५८. ५६. प्रभु ! लोकाकाशे जीवा, स्यूं खंध रूप कहीवा ? के जीव तणा छै देश? वलि जीव ना बह प्रदेश ? ५७. के अजीव, अजीव ना देश, के अजीव ना बहु प्रदेश ? ए पट प्रश्न पछंत, हिव जिन भाखै सूण संत ।। लोक विप जीव खंध जाण, जीव देश-प्रदेश पिछ।ण । अजीव अजीव ना देश, छै अजीव ना प्रदेश ।। ५६. जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया नै तेइंदिया। चरिदिया नै पंचेंदिया, वलि सिद्ध प्रमुख अणि दिया।। ६०. जे जीव-देशा सुविशेषा, ते नियमा एगिदिय-देशा। जाव अणिदिय - देशा, ए सिद्ध प्रमुखज कहेसा ।। ५८. गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि। ५६. जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचिदिया अणिदिया। ६०. जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदिय देसा। ६१. जीवस्यैव बुद्धिपरिकल्पिता द्यादयो विभागाः । (वृ०-५० १५०) ६२. सोरठा ६१. जीव तणाज संवाद, बुद्धि परिकल्पित अछ। विभाग जे बे आद, जीव तणां बहु देश ते ।। धर्मास्तिकायादि द्रव्य एक, तेहनां देश कह्या नथी। अनंत जीव द्रव्य पेख, बुद्धि परिकल्पित देश तसं ।। ६३. *जे जीव तणा परदेशा, ते नियमा एकेन्द्री पएसा। जाव अणिदिय प्रदेशा, ए सिद्धि प्रमुख गणेशा ।। ६४. जे अजीव ते बे प्रकारा, रूपो नै अरूपी सारा। रूपी चिउं विध खंध देशा, प्रदेश परमाणु विशेषा ।। ६३. जे जीवापदेमा ते नियमा एगिदियपदेसा जाव अणि दियपदेसा। ६४. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--रूवी य अरूबी य। जे रूवी ते चउब्विहा पण्णता, तं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा, परमाणुपोग्गला। ६५. जे अरूबी ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, ६५. अरूपी पंचविध ताय, खंध आश्री धर्मास्तिकाय । धर्मास्ति नो नहीं देश, धर्मास्ति नां बहु प्रदेश ।। *लय-खटमल मेवासी श०२, उ०१०, ढा०४६ ३०६ Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. अधम्मत्थिकाए, नो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्म त्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए। (श० २।१३६) ६७. अलोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? पुच्छा तह चेव। गोयमा ! नो जीवा जाव नो अजीवप्पदेसा; ६८. एगे अजीवदबदेसे अगरुयलहुए ६६. अणतेहि अगरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सब्बागासे अणंतभागणे। (श० २।१४०) खध आश्री अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति नों देश नांय। अधर्मास्ति नां प्रदेशा, अद्धा समय काल सूविशेषा ।। अलोक आकाश में जेम, स्यं जीवा? पूछा तेम। जिन भाख जीव न कहेवा, जाव अजीव प्रदेश न लेवा ।। एक अजीव द्रव्य आकाश, तस देश अगरुलघु जास। स्व - पर्याय पर - पर्याय, गुण अगुरुलघु कहिवाय ।। एहवा अगुरुलघु गुण अनंता, तिण गुण संयुक्त कहता। सर्व आकाश पिछाणं, ऊणो भाग अनंतमो जाणं ।। लोकाकाशेणं हे भगवत ! किता वर्ण? गोयम पूछत। अवर्ण जाव अफर्श कहाय, इक अजीव द्रव्य देश थाय ।। एक अजीव द्रव्य आकाश, तसं देश अगुरुलघु जास । स्व - पर्याय पर - पर्याय, गुण अगुरुलघु कहिवाय ।। एहवा अगुरुलघु गुण अनंता, विन गुण संयुक्त कहता। सर्व आकाश पिछाण, तिण सं भाग अनंतमो जाण' ।। धर्मास्तिकायादिक जाण, पूर्व आख्या पहिछाण । तेहिज प्रमाण थी जोय, हिव प्रश्न तास अवलोय ।। हे प्रभु ! धर्मास्तिकाय कितली मोटी कहिवाय । जिन भाखै लोक मझार, ते लोक प्रमाण विचार ।। ७५. लोक फर्यो निज प्रदेश, लोक फरशी रहै विशेष। एवं अधर्मास्तिकाय, इम लोकाकाश जणाय ।। जीवास्ति पोग्गल त्थिकाय, इम पंच आलावा कहिवाय । फर्शन अधिकार ते साधी, हिव फर्शन अधोलोकादी ।। ७३. अनन्तरोक्तान् धर्मास्तिकायादीन् प्रमाणतो निरूपयन्नाह-- (वृ०-५० १५१) ७४. धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए लोय मेत्ते लोयप्पमाणे ७५, ७६. लोयफुड़े लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठा। (श० २।१४१) . एवं अधम्मत्थिकाए लोयाकासे जीवस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए पंच वि एक्काभिलावा । (श० २।१४२-१४५) स्पर्शनाऽधिकारादधोलोकादीनां धर्मास्तिकायादिगता स्पर्शनां दर्शयन्निदमाह- (वृ०प० १५१) ७७. अहोलोए णं भते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्धं फुसति। (श० २११४६) ७८. तिरियलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! असंखेज्जइभागं फुसति। (श० २।१४७) ७६. उड्ढलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फूसति ? गोयमा ! देसूणं अद्ध फुसति। (श० २११४८) देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वादूर्ध्वलोकस्येति । (वृ०-५० १५२) ८०. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसति ? असंखेज्जइभागं फुसति ? ७८. अधोलोक अहो भगवान ! धर्मास्तिकाय पिछान । कितल फर्श ते कहिये ? जिन क है साधिक अर्ध लहियै ।। प्रश्न तिरछा लोक न की, तब जिन उत्तर इम दी●। लोक तणो सुविचार, भाग असंख्यातमो धार ।। प्रश्न अर्ध्व लोक नो जेह, तसं जिन उत्तर इम देह। फर्श देसूण अद्ध लोय, सात राज मठेरो होय ।।। ८०. प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी ताय, फर्श धर्मास्तिकाय । स्य संख्यातमो भाग कहिये, के असंख्यातमो लहिये ।। १. ४६वीं ढाल में ७०-७२ तक पद्यों का आधारभूत पाठ वर्तमान आदर्शों में उपलब्ध नहीं है। संभव है, जयाचार्य के पास जो आदर्श था, उसमें यह पाठ रहा होगा अथवा इस सन्दर्भ में इन पद्यों को लिखने का और भी कोई कारण हो सकता है। हमने जोड़ के तीनों पद्यों को उसी रूप में प्रस्तुत किया है। २. रज्जु ३१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ucation International Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. के घणा संख्याता भाग, के घणा असंख्याता लाग। के सर्व लोक फर्शाय ? हिव उत्तर दे जिनराय ।। रत्नप्रभा पृथ्वी ताय, फर्श धर्मास्तिकाय। भाग असंख्यातमो हृत, चिहं प्रश्ने नहि फर्शत ।। प्रभु! रत्नप्रभा पहिछाणं, तेह तणो धनोदधि जाणं । फर्श धर्मास्तिकाय? तस पंच प्रश्न पूछाय ।। कह्य रत्नप्रभा ने जेह, तिम घनोदधि पिण एह। इमहिज कहिये घनवाय, तनवाय तिमज छै ताय ।। प्रभ ! रत्नप्रभा नों जाण, आकाशांतर पहिछाण । फर्श धर्मास्तिकाय, तसं प्रश्न पंच पूछाय ।। ८५. ८१. संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति ? सव्वं फुसति? ८२. गोयमा ! णो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, णो संखेज्जेभागे फुसति, णो असंखेज्जे भागे फुसति, णो सव्वं फुसति। (श० २।१४६) ८३. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही धम्मत्थि कायस्स कि संखेज्जइभागं फुसति ? असंखेज्जइभागं फुसति ? संखेज्जे भागे फुसति ? असंखेज्जे भागे फुसति ? सव्वं फुसति? ८४. जहा रयणप्पभा तहा घणोदही-घणवाय-तणुवाया वि। (श० २।१५०) ८५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्म त्थिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसति ? असंखेज्जइ भागं फुसति ? संखेज्जे भागे फुसति ? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति? ८६. गोयमा ! संखेज्जइभागं फुसति, नो असंखेज्जद भार्ग फुसति, नो संखेज्जे भागे फुसति, नो असंखेज्जेभागे फुसति, नो सव्वं फुसति। ८७. ओवासंतराई सब्वाई। (श० २११५१) जहा रयणप्पभाए पुढवीए बत्तव्वया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए। ८८. जंबुद्दीवाइया दीवसमुद्दा एवं सोहम्मे कप्पे जाव इसी पदभारा पुढवी८६. एते सव्वे वि असंखेज्जइभागं फुसंति। सेसा पडिसेहियब्वा । (श० २।१५२) १०. एवं अधम्मत्थिकाए, एवं लोयाकासे वि। ८६. जिन कहै संख्यात मो भाग, फर्श छै ए इम लाग। चिउं प्रश्ने नवि फर्शत, तसं न्याय जाणै बुद्धिवंत ।। जिम रत्नप्रभा नो आकाश, इम सह आकाश विमास । इम जाव सातमी केरा, पूर्ववत् न्याय समेरा।। ८८. जंबूद्वीप आदि दे जाण, सहु द्वीप-समुद्र पिछाण । इह विध सुधमं सुर लोग, जाव मुक्ति-शिला लग योग ।। ८६. सहु असंख्यातमै भाग, फर्श धर्मास्ति लाग। चिउं शेष प्रश्न र ह्या सोय, नहि फर्श ते अवलोय ।। १०. एवं अधर्मास्तिकाय, इम लोकाकाश कहाय । इहां संग्रह - गाथा आखी, पुढवोदही आदि सुभाखी ।। पृथ्वी घनोदधि घन वाय, तनवाय बार कल्प ताय । नव ग्रेवेयक सुविचारा, पंच अनुत्तर इसिपब्भारा।। एहना आकाशांतर ताय, संख्यातमो भाग फर्शाय। शेप असंख्यातमै भाग, ए अक्षरार्थ नो विभाग। 'अनुत्तर-विमान सुं धार, सिद्ध-शिला योजन बार। ते अंतर धर्मास्ति नु ताय, असंख्यातमो भाग फर्शाय ।। इहां सूत्र गाथा में सुमाग, अंतर संख्यातमै भाग। ते अन्य अन्तर अपेक्षाय, पिण सिद्ध-शिला नो नांय ।। पृथ्वी' घनोदधि' घनवाय', तनुवाय' कहीजे ताय । सातं पृश्वी सहित च्यार च्यार, ए अठावीस अवधार। ६१, १२. पुढवोदही घण-तणू, कप्पा गेवेज्जणुत्तरा सिद्धी। संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा। (श० २।१५३ संगहणी-गाहा) ४. श०२, उ०१०, ढा०४६ ३११ Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. जंबुद्वीपादि द्वीप असंख", लवणादि समुद्र अवंक" । सौधर्मादि कल्प बार", त्रिण ग्रैवेयक त्रिक धार ।। ६७. पंच अनुत्तर जेह", सिद्धसिला एकावन" एह। ए धर्मास्तिकाय नो ताय, असंख्यातमो भाग फर्शाय ।। १८. सातं नरक ना अंतर सात, बारै कल्पना आठ विख्यात"। ए पनरै अंतर सुचीन, विण त्रिक ना अंतर तीन" ।। EE. वेयक थी पंच अनुत्तर, विचलो एक आकाशांतर । ए धर्मास्तिकाय नं ताय, संख्यातमु भाग फर्शाय ।। १००. अनुत्तर सिद्धसिला विचाल, द्वादश योजन अंतरालै। ते धर्मास्तिकाय न ताय, असंख्यातम भाग फर्शाय' । (ज० स०) १०१. बीजा शतक नो दशमों उद्देश, छयालीसमी ढाल अशेष। भिवखु भारीमाल ऋषिराय, 'जय-जश' संपति सुख पाय ।। गीतक छंद श्री पंचमांग विष रह्या बहु शतक सरस सुहामणा। महासूत्र पिड अछै जिहां ते अधिक ही रलियामणा ।। २. सद्गुरु प्रसाद सूत्रार्थ ज्ञाता वचन अनुसारे करी। ___ शत द्वितीय अर्थ विचारियो म्है जोड़ रूपज चित धरी ।। द्वितीयशते दशमोद्देशकार्थः ।।२।१०।। १, २. श्रीपञ्चमाङ्गे गुरुसूत्रपिण्डे, शतं स्थितानेकशते द्वितीयम् । अनैपुणेनापि मया व्यचारि, सूत्रप्रयोगज्ञवचोऽनुवृत्त्या ॥ (वृ०-प० १५२) ३१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P. २. ३. ४. ५. ६. ७. ह. १०. ढाल : ४७ सोरठा दूजा शतक मझार, आखी अस्तिकाय नं। तसुं विशेष हिव धार, विविध धर्म जीवास्ति नुं ॥ तृतीय शतक हा चमर विकुवंग शक्ति धुर मोत्यात पिछान क्रिया काइयादी तृतीय, मुनि जाणे सुर यान ॥ स्त्रियादि विकुर्वे मुनि, राजगृहे विकुर्वत । लोकपाल चिरं नां वर्णन, सुर-अधिपती उदंत ॥ नवमं इंद्रिय विषय नं परपद दशम विशेष । तृतीय शत उद्देश दश हिव पहिलं उद्देश ॥ तिण काले नैं तिण समय, मोया नगरी जान । पुर बाहिर ईशान में नंदण चैत्य उद्यान ॥ , 1 तिण कालै नैं तिण समय, समवसऱ्या वर्द्धमान । परषद वंदन नीकली, वच सुण आवी स्थान || *भव जीवां रे, रूडा लागे स्वाम वच सार । भव जीवां रे, रूडा लागे गोयम गणधार || ( ध्रुपदं ) तिण काले ने तिण समय रे लाल, भगवंत श्री तसुं अंतेवासी दूसरो रेलाल, अग्निभूति गोयम नाम गोत्रे करी, सप्त हस्त जाव सेव करता छता, इम बोले गुणस्थान || चमर प्रभु ! असुरेंद्र से असुर तणो जे राय केहवो महादिवत है, केहवो कांति कहाय ? केहवो महाबल न घणी के महायश महासुक्ख केहवो महाजनुभाग से दक्षिण असुर प्रमुख | * लय-भवि जीवां रे रूडो लागे जीत मुनिंद महावीर । गुण-हीर ॥ देहमान । १. अनन्तरमतेऽस्तिकाया उक्ताः इह तु तद्विशेषभूतस्य जीवास्तिकायस्य विविधधर्मा उच्यन्ते । (०-० १५३) २४. १. केरिसविउव्वणा २. चमर ३. किरिय ४, ५. जाणित्थि ६. नगर ७. पाला य ८. अहिवइ ६. इंदिय १०. परिसा, ततियम्मि सए दसुद्देसा ॥ ( श० ३१ संगहणी -गाहा ) ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नामं नयरी होत्थावण्णओ। ( श० ३|१) तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे—नंदणे नामं चेइए होत्था वण्णओ। (श० ३।२) ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा निरगच्छs, पडिगया परिसा । (०२२) ७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्भूिई नाम अणगारे ८. गोय गोणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि ६. चमरे भते अरिदे असुरराया केमहिद्धीए ? महज्जुतीए ? १०. केमहाले ? केमहायसे ? महासोले ? महाणुभागे ? श०३, उ० १, ढा० ४७ ३१३ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसू सामर्थ विकुर्ववा? हिव भाखै जिनराय । चमर असुर नो इंद्र ते, महाऋद्धिवान कहाय ।। जावत् महानुभाव छ, भवन लाख चउतीस। चउसठ सहस्र सामानिका, मंत्रीस्वर तेतीस ।। ११, १२. केवइयं च ण प विकुबित्तए? गोयमा ! चमरे णं असुरिदे असुरराया महिड्ढीए जाव महाणुभागे। मे गं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्माणं, च उमट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, १२. 'तायत्तीमगाणं' ति मंत्रिकल्पानाम्। (व०-५० १५४) १३. जाव विहरइ । एमहिड्ढीए जाव एमहाणुभागे। जावत् विचरै विलसतो, एहवो महद्धिक जाव। एहवो महानुभाव छै, प्रभाव सहित कहाव ।। हिव इतरी विकुर्वणा, करवा समर्थ जेह। ते केहवी विकुर्वणा, सांभलज्यो गुण-गेह ।। यथा दृष्टांते स्त्री प्रतै, हस्ते करी युवान । हस्त ग्रहे काम वस थकी, हस्तांगुल करि जान ।। १४. एवतियं च णं पभू बिकुब्वित्तए। अथवा नाभी चक्र नी, आरे करी सहीत । तिम बह देव देवी करी, जंबू द्वीप भरै इण रीत ।। वृद्ध-व्याख्या यात्रा विषै, युवती युवान ताय । हस्ते प्रतिबद्धा छता, उचित प्रदेशे जाय ।। इम बहु रूप विकुर्वता, इक कर्तरि प्रतिबद्ध । चक्र नाभि इक बहु अरा, यथा हवै संबद्ध ।। इण दृष्टांते गोयमा! चमर असूर-इंद सार। समुद्घात वैक्रिय करी, निज प्रदेश विस्तार ।। १५. से जहानामए---जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, कामवशाद्गाढतरग्रहणतो निरन्तरहस्तांगुलितयेत्यर्थः । (वृ०-५० १५४) १६. चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, 'एवमेव' ति...प्रभुर्जम्बुद्वीपं बहुभिर्देवादिभिराकीर्ण कर्तुमिति योगः। (वृ०-प० १५४) १७. वृद्धस्तु व्याख्यातं यथा यात्रादिषु युवतियूनो हस्ते लग्ना-प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे। (वृ०-५० १५४) १८. एवं यानि रूपाणि विकुब्बितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि, यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिररकैः प्रतिबद्धा घना निश्छिद्रा। (वृ०-५० १५४) १६. एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया वेउव्विय समुग्धाएणं समोहण्णइ, समुपहन्ति–प्रदेशान् विक्षिपति। (वृ०-५० १५४) २०. एवमात्मशरीरप्रतिबद्धरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति । (वृ०-५० १५४) २१. संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ, शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः । (वृ०-५० १५४) २२. तं जहा–रयणाणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिमाडेता अहासुहमे पोग्गले परियायइ, २३. इह च यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिका वैक्रियसमुद् घाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति । (वृ०-५० १५४) २४. तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपाद नाय रत्नानामित्याद्युक्त। (वृ०-प० १५४) २५. अन्ये त्वाः-औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैकियतया परिणमन्तीति। (वृ०-प०१५४) इम निज तन प्रतिबद्ध करी, देव देवी करि तेह। पूरे संक्षेपे कह्यो, हिव विस्तार करेह ।। संख्याता योजन तणों, ऊर्ध्व दंड निसरंत । बाहल्य शरीर प्रमाण ते, जीव प्रदेश काढंत ।। सोलै जाति नां रत्न तें, बादर तजे असार । सूक्ष्म पुद्गल सार ते, करै तास अंगीकार ।। वत्तिकार कहै रत्न नां, पद्गल औदारीक । समुद्घात वैक्रिय विषै, वैक्रिय ग्रहिवा ठीक ।। तो पिण पुद्गल रत्न नां, तेहनी पर जे सार। इम तसं उपमाये करी, कह्यो रत्न अधिकार ।। अन्य आचार्य इम कहै, औदारिक पिण रीत । ग्रह्या छता वैक्रियपणे, परिणमै छ धर प्रीत ।। ३१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजी वार वलि वैक्रिय-समुद्घात करि सोय। रूप निपावा कारण, चमर असुर-इंद जोय ।। केवल-कल्प जंबुद्वीप नै, केवल ते पडिपुण्ण । कल्प-स्वकार्य करण नैं समर्थ सहित सुजन्न ।। अथवा केबल-कल्प ते, केवलज्ञान सरीस । ते परिपूर्णपणे करी, सरीखापणों कहीस ।। अथवा केवल-कल्प ते, संपूरण नो ताम । पर्यायवाची नाम है, अन्य नाम ते पर्याय नाम ।। केवल-कल्प जंबूढीप ने, बहुला असुरकुमार। देवता नै देवी करी, कडोकड़ भरै तिह वार ।। आइण्णं आकीर्ण ते, वितिकिण्णं इत्यादि। एकार्थ ए शब्द छै, अतिव्याप्ति देखाडण साधि ।। २६. दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति । चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थम्। (वृ०-५० १५५) २७. 'केवलकप्पं' ति केवलः–परिपूर्णः कल्पत इति कल्पः स्वकार्यकरणसामोपेतः। (वृ०-५० १५५) २८. अथवा 'केबलकल्पः' केवलज्ञानसदृशः परिपूर्णतासाधात् । (वृ०-५० १५५) २६. सम्पूर्णपर्यायो वा केवलकल्प इति शब्दः ।(वृ०-प०१५५) U असंख्यात विषयमात्र द्वीप-समूद्र ते, वह देव देवी करिसोय । विकुविवा, क्रिया-शून्य अवलोय ।। ३ m गए काल ए संपदा, विकुर्वी नहीं ताहि। वर्तमान नहीं विकुबै, विकुर्वसे पिण नांहि ।। प्रभु ! चमर असुरेंद्र ते, इसो महाऋद्धिवान । यावत् इति विकुर्वणा, करवा समर्थ जान ।। तो सामानिक चमर नां, केहवा प्रभु ऋद्धिवान । जावत वैक्रिय करण नै, समर्थ किसा सुजान ? mr ३०. पभू णं गोयमा! चमरे असुरिदे असुरराया केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि असुरकुमारेहि देहि देवीहि य ३१. आइण्णं वितिकिणं उवत्थडं संथडं फुडं अबगाढावगाढं करेत्तए। 'आइन्न' मित्यादय एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनायोक्ताः। (वृ०-प०१५५) ३२. ...तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहुहि असुरकुमारेहि देवेहि देवीहि य आइपणे...एस णं गोयमा !चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, 'विसयमेत्ते' त्ति विषय एवविषयमात्र–क्रियाशून्यम् । (वृ०-५० १५५) ३३. णो चेव णं संपत्तीए विकुब्बिसु वा विकुब्वति वा विकुव्विस्सति वा। (श० ३।४) ३४. जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, ३५. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररणो सामाणिया देवा केमहिड्ढीया ? जाव केवइयं च णं पभू विकु ब्वित्तए? ३६. गोयमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुर रण्णो सामाणिया देवा महिड्ढीया जाव महाणुभागा। ३७. ते णं तत्थ साणं-साणं भवणाणं, साणं-साणं सामाणि याणं, साणं-साणं अग्गमहिसीणं ३८. जाव दिब्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति । एमहि ड्ढीया ३६. जाव एवइयं च णं पभू विकुब्बित्तए । से जहानामए. जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, ४०. चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव गोयमा ! चम रस्स असुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ ४१. जाव दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ। पभू णं गोयमा ! जिन भाखै जे चमर नां, सामानिक सुर साव । महाऋद्धिवान अछै घणा, जावत् महानुभाव ।। अपणां-अपणां भवन में, निज-निज सामानीक । निज-निज अग्रमहेषिय, तेह संघात सधीक ।। यावत् देव संबंधिया, भोग भोगवा जोग । भोगवता विचरै तिहां, महद्धिक इसा प्रयोग ।। जाव समर्थ वैक्रिय इति, यथा दृष्टांते ख्यात । युवान ते युवती प्रतै, हस्ते करी ग्रहै हाथ ।। चक्र नाभि आरे करी, छिद्र न दीसे येन । सामानिक जे चमर नां, वैक्रिय समुद्घातेन ।। जावत् बीजी वार ते, करि वैक्रिय समुद्घात । रूप करण समर्थ अछ, सण गोयम ! अवदात ।। शा० ३, उ० १, ढा० ४७ ३१५ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, ४३. चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणिय देवे केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि असुरकुमारेहि देबेहि देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं...करेत्तए। चमर असुर नां इंद्र नों, सामानिक इक एक । जंबूद्वीप प्रत तिको, संपूर्ण सुविशेख ।। घणां असुर देवे करी, देवी करि आइन्न । वितिकिन्नादि पाठ जे, एकार्थेज सचिन्न ।। वैक्रिय देव देवी करी, जंबूद्वीप भरत । हिवे बीजो समर्थपणों, सामानिक नों कहंत ।। असंख्यात द्वीप-समुद्र ने, भरवा नी समर्थाय । भरया भरै भरसी नहीं, तीन काल रै माय ।। प्रभु ! चमर असूरिद नां, सामानिक सुर ताय । महद्धिक इम यावत् तस, इति वैक्रिय समर्थाय ।। तावतीसक प्रभु चमर नां, केहवा महद्धिक देव । जिम सामानिक आखिया, तिम तावतीसक पिण भेव ।। लोकपाल तिमहिज अछ, नवरं जे संख्यात। द्वीप समद्र भरवा तणी, वैक्रियकरण विख्यात ।। लोकपाल प्रभु ! चमर नां, एहवा महद्धिक जाव। वलि करवा विकुर्वणा, समर्थ इसा कहाव ।। ४४. एवतियं च णं पभू विउब्वित्तए जाव केवलकप्पं जंबुदीवं। __ (वृ०-५० १५८) ४५. ...तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहि असुरकुमारेहि देवेहि देवीहि य आइण्णे...करेत्तए। ...नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुब्वंति वा, विकुव्विस्संति वा। (श० ३१५) ४६. जइणं भते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो सामाणिय देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकु वित्तए, ४७. चमरस्स णं भंते ! अमुरिदस्स असुररण्णो तावत्तीसया देवा केमहिड्ढीया? तावत्तीसया जहा सामाणिया तहा नेयव्वा। ४८. लोयपाला तहेव, नवरं---संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियवा। (श०३।६) ४६. जइ णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो लोग पाला देवा एमहिड्डीया जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, ५०. चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओ केमहिड्ढियाओ जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? ५१. गोयमा ! चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो अग्गम हिसीओ देवीओ महिड्ढियाओ जाव महाणुभागाओ। ताओ णं तत्थ साणं-साणं भवणाणं, ५२. साणं-साणं सामाणियसाहस्सीणं, साथ-साणं महत्तरि याणं, साथ-साणं परिसाणं जाव एमहिड्ढीयाओ। ५३. अण्णं जहा लोगपालाणं अपरिसेसं। (श० ३१७) तो अग्रमहेषी चमर नीं, केहवो महाऋधवंत । जाव किती विकुर्वणा, करवा समर्थ हुंत? जिन कहै अग्रमहेषियां, महाऋद्धिवान कहाय । जावत् महानुभाव छ, निज-निज भवनै ताय ।। AC निज-निज सहस्र सामानिका, निज निज महत्तरिकाय । निज-निज परषद जाव इम, महद्धिक इसी कहाय ।। अन्य सहु विस्तार ते, लोकपाल जिम जाण । संपूर्ण कहिवो इहां, अग्रमहेषी आण ।। सेवं भंते ! कही वीर ने, कर वंदना-नमस्कार । वायुभूति गोतम कन्है, आया अग्निभूति अणगार ।। ५४. सेवं भंते ! सेवं भते ! ति भगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे तेणेव उवागच्छइ, अंक इकतीस नं देश ए, सैंतालीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति माल । ३१६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४८ अग्निभूति तिण अवसरै, कहै वायुभूति नै वाय। चमर महाऋद्धिवंत छ, तिमज सर्व कही ताय ।। अणपूछयां सहु वारता, दोधी तास सुणाय। जाव अग्र महिषी तणी, विवरा सुध बताय ।। वायुभूति तिण अवसर, वचन न सरध्यो तास । प्रतीतियो रुचियो नहीं, आयो प्रभु रे पास ।। जाव सेव करि इम कहै, इम निश्चै भगवान । अग्निभूति मुझ नै कहै, चमर महाऋद्धिवान ।। १, २. तच्च गोयमं वायुभूति अणगारं एवं वदासि-एवं खलु गोयमा । चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए तं चेव एवं सब्वं अपुट्ठवागरणं नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं वत्तब्वया समत्ता। (श० ३।८) ३. तेणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे दोच्चस्स गोय मस्स अग्गिभूतिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स... एयमढें नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एयमट्ठ असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छा ४. जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते ! दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे ममं एवमाइक्खइ भासइ पण्णवेइ परूवेइ-एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए ५. जाव महाणुभागे। से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं तं चेव सव्वं अपरिसेसं भाणियव्वं जाव अगमहिसीणं बत्तव्यया समत्ता। (श० ३१६) से कहमेयं भंते! एवं? ६. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे तच्चं गोयमं वायुभूति अणगार एवं वयासी तिमज सर्व जावत् कही, अग्रमहिषी लग वात। ते किम छै भगवंत ए? तब बोल्या जगनाथ ।। हे गोतम ! इम आदि दे, भगवंत श्री महावीर। तीजा गोतम मैं कहै, सुणज्यो साहस धीर ।। _ *वीर कहै सुण गोयमा रे। (ध्रुपदं) दूजा गोतम तुझ नै कही रे, अग्निभूति अणगारो रे। हे गोयम ! चमर महऋद्धिक छ रे, जाव अग्र महिषि लग सारो रे।। ७. जागो ८. एह अर्थ साचो सहु, हूं पिण कहूं इण रीतो। चमर महद्धिक तिमहिज सह, बीजो आलावो वदीतो।। यावत् अग्रमहेषो लगै, सर्व अर्थ ए साचो। बे वार सेवं भते ! कही, प्रभु बांदै वायुभूति जाचो।। ७. जंणं गोयमा ! तव दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे एवमाइक्खइ...एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिदे असुरराया महिड्ढीए तं चेव सव्वं जाव अग्गमहिसीओ। ८. सच्चे णं एसमझें। अहं पि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि...एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुर राया महिड्ढीए तं चेव ६. जाव अग्गमहिसीओ। सच्चे णं एसमठे (श०३।१०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, १०. जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभई अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोच्चं गोयमं अग्गिभूई अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमनै सम्म विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेइ। (श० ३।११) ११. तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूति अणगारे दोच्चे णं गोय मेणं अग्गिभूतिणा अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे १०. दूजा गोयम पास आय नै, करै वंदना नै नमस्कारो। ए अर्थ सम्यकपणे सही, खामै विनय करी वारंवारो।। ११. तीजा गोतम तिण अवसरै, अग्निभूती नै संघातो। वीर प्रभु पै आय नै, जाव सेवा करै जोडी हाथो।। *लय--राजा दशरथ दीपतो रे श०३, उ०१, हा० ४८ ३१७ Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वायुभूति पूछे भगवान नैं, जो चमर इसो ऋद्धिवानो । जाव एहवी विकुर्वणा, करिवा समर्थ भगवानो ।। १३. तो प्रभु ! दक्षिण नां असुर थी, विशिष्ट रोचन दीपंदो। उत्तर दिशि नां असूर नों, बली वैरोचन - इंदो।। १२. एवं वयासी-जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाब एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, १३. बली णं भंते ! वइरोयणिदे वइरोयणराया 'वइरोयणिदे' त्ति दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं-दीपनं येषामस्ति ते वैरोचनाऔदीच्यासुरास्तेषु मध्ये इन्द्रः-परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः। (वृ०-५० १५७) १४. केमहिड्ढीए ? जाब केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? १४. केहवो महा ऋद्धिवान छै, यावत् केहवी जाणी। विकूर्वणा करिवा तणी, समर्थाइ पहिछाणी? १५. जिन भाखै बली नाम छै, वेरोचन नों राजा। महद्धिक जाव भवन तसुं, तीस लाख है ताजा ।। १६. साठ सहस्र सामानिका, शेष चमर जिम लेखो। तिम बली नै पिण जाणिय, णवर इतलो विशेखो।। १७. जाझो बूद्वीप नै, शेष तिमज सर्व ताह्यो। णवर भवण सामानिका, नानापणों कहिवायो ।। १८. बे वार सेव भंते ! कही, तीजा गोतम तिण वारो। वायभति तिण अवसरे, जावत विचरै सारो।। बीजा गोतम तिण अवसरे, अग्निभति अणगारो। वीर प्रतै वांदी करी, बोलै करी नमस्कारो॥ जो वली वैरोचन इंद्र ते, एहवो महाऋद्धिवानो। जाव इतो विविवा, समर्थ छै भगवानो। २८. तो प्रभु धरण दक्षिण दिशै, नागकुमार नो रायो। केहवो महाऋद्धिवान छै, जाव वैक्रिय समर्थायो? जिन कहै धरण नागेंद्र ते, एहवो महाऋद्धिवंतो। जाव भवन तेहना तिहां, लाख चम्मालीस तंतो।। १५. गोयमा! बली णं बइरोणिदे वइरोयणराया महिड् ढीए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं। (वृ०-प० १५६) १६. सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं। (वृ०-५० १५६) जहा चमरस्स तहा बलिस्स वि नेयब्वं, नवरं-. १७. सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दोवं दीवं भाणियब्वं, सेसं तं चेव निरवसेसं नेयवं, नवरंनाणतं जाणियव्वं भवणेहि सामाणिएहि य। (श० ३।१२) १८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति तच्चे गोयमे वायुभई अणगारे जाव पज्जुवासइ। (श०३।१३) १६. तते णं से दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी---- २०. जइ ण भंते ! बली वइरोणिदे वइरोयणराया एमहि ड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, २१. धरणे णं भंते ! नागकुमारिदे नागकुमार राया केमहिड् ढीए ? जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? २२. गोयमा ! धरणे णं नागकुमारिदे नागकुमारराया महि ड्ढीए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं, २३. छहं सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, छण्हं अग्गमहिसीणं, २४. सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, २५. चउव्वीसाए आयरक्ख देवसाहस्सीण अण्ण सि, च जाव विहरइ। २६. एवतियं च णं पभू विउम्बित्तए। से जहानामए जुवती नुवाणे २३. सामानिक षट सहस्र छै, तावतीसक तेतीसो। लोकपाल चिउं तेहने, छ अग्रहिपि जगीसो।। २४. सपरिवार महिषियां, परषद तीन विख्यातो। अणीकटक' तसं सात छ, सप्त अणिक नां नाथो ।। २५. आत्मरक्षक देवता, चउवीस सहस्र उदारो। अन्य सुर बहु नों अधिपति, यावत् बिचरै सारो।। विविवा समर्थ इसू, यथा दृष्टांत कहातो। युवान पुरुष युवती प्रत, ग्रहै हस्त करि हाथो ।। ६ . १. सेना। ३१८ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. जाव भरै जंबद्वीप नै, तिरछा दीप-समुद्र संखेज्जो। विषय कही भरवा तणी, पिण विहं काल न कहेज्जो ।। २८. सामानिकतावतीसगा, अग्रमहिपि लोकपालो। चमर नां जेम धरण तणां, एहवा महद्धिक न्हालो ।। णवरं इतलो विशेष छै. दीप-समुद्र संख्याता भणवा। इम जाव थणिय कूमार ने,व्यंतर जोतिषी पिण इम थुणवा ।। ३०. णवरं दक्षिण दिशि तणां, अग्निभूति पूछतो। उत्तर दिशि नां सर्व नों, पूछ वायुभूति धर खंतो।। २७. जाव पभू केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं जाव तिरियं संखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहि नागकुमारीहिं जाब विकुब्बिस्सति वा। २८. सामाणिया तावत्तीस-लोगपालग्गमहिसीओ य तहेब जहा चमरस्स, २६. नवरं----संखेज्जे दीव-समुद्दे भाणियब्वे। (श० ३।१४) एवं जाव थणियकुमारा, वाणमंतरा जोईसिया वि, ३०. नवरं—दाहिणिल्ले सब्बे अग्गिभूई पुच्छइ, उत्तरिल्ले सव्वे वायुभूई पुच्छइ। (श० ३।१५) ३२. सोरठा व्यंतरेंद्र पिण जाण, कहिवा धरणेंद्र नी परे। सपरिवार पहिछाण, बे बे इंद्रज तेहनां ।। ते व्यंतर नै न्हाल, बलि ज्योतिषि नै पिण न छ। तावतीसक लोकपाल, तिण सू ते भणवा नथी । सामानिक छै तास, च्यार सहस्र संख्या करी। आत्मरक्ष विमास, सामानिक थी चिहं गुणा ।। अग्रमहेसी च्यार, ए सहु दक्षिण-इंद्र नों। वलि रवि न विस्तार, अग्निभूति पूछा करी ।। ३१. व्यन्तरेन्द्रा अपि धरणेन्द्र वत्सपरिवारा वाच्याः । (वृ०-५० १५७) ३२. एतेषां ज्योतिष्काणां च त्रायस्त्रिशा लोकपालाश्च न सन्तीति ते न वाच्याः। (वृ०-प०१५८) ३३. सामानिकास्तु चतुःसहस्रसंख्याः, एतच्चतुर्गणाश्चात्मरक्षाः। (३०-प० १५८) ३४. अग्रमहिष्यश्चतस्र इति, एतेषु च सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यानिन्द्रानादित्यं चाग्निभूतिः पृच्छति । (वृ०-६० १५८) ३५. उदीच्यांश्चन्द्रं च वायुभुतिः। (वृ०प०१५८) ३४. ३७. ३ उत्तर - इंद्र उदार, वली चंद्र नो जाणवू । वायुभूति विचार, पूछा कीधी छै इहां ।। ए दक्षिण सहु इंद, वलि सूर्य केवल-कल्प । जबुद्वीप भरंद, इत्यादिक विस्तार जे॥ उत्तर नां सहु इंद, वली चंद्र पिण अधिक ही। जंबुद्वीप भरंद, इत्यादिक कहिवो सहु ।। इहां वाचना मांहि, प्रगट एह आख्यो नथी। वाचनांतर थी ताहि, ए विस्तारज जाणवू ।। काल - इंद्र न जाण, आलावो इम आखियै । काल प्रभु ! पहिछाण, पिसाच नुं जे इंद्र ते ।। केहवु महाऋद्धिवान, शक्ती किती विकुर्विवा? तब भाखै भगवान, काल महा ऋद्धिवंत छै ।। नगर असंखज लाख, सामानिक चिहुं सहस्र तसं । आत्मरक्ष वर साख, सोल सहस्र छै तेह.।। ३६. तत्र च दाक्षिणात्येष्वादित्ये च केवलकल्पं जम्बुद्वीपं संस्तृतमित्यादि। (वृ०-प० १५८) ३७. औदीच्येषु च चन्द्रे च सातिरेक जम्बूद्वीपमित्यादि च वाच्यं । (वृ०-५० १५८) ३८. यच्चेहाधिकृतवाचनायामसूचितमपि व्याख्यातं तद्वा चनान्तरमुपजीव्येति भावनीयमिति । (वृ०-५० १५८) ३६. तत्र कालेन्द्रसूत्राभिलाप एवं-काले भंते पिसाइंदे पिमायराया। (वृ०-५० १५८) ४०. केम हिड्डीए केवइयं च णं पभू विउवित्तए? गोयमा! काले महिड्ढीए। (वृ०-प०१५८) ४१. से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरवाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं । (वृ०-५० १५८) ४२. च उपहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं अण्णेसि च बहणं पिसायाणं देवाणं देवीण य। (वृ०-५० १५८) ४२. अग्रमहेषी च्यार, सपरिवार अछै तिकै। अन्य बहु अधिक उदार, पिसाच नां सुर सुरि तणो।। श० ३, उ० १, ढा० ४८ ३१६ Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , अधपतिपणों करत जावत विचरं छं तिको एहवो छे ऋद्धिवंत, महति प्रमुख बोल पट ।। इती मक्ति है तास, वैक्रिय नी जावत कही। केवल कल्प विमास जंबूद्वीप प्रत भरे ॥ जावत् तिरछी जाण, संख्याता द्रोपोदधि । इत्यादिक पहिछाण, वृत्ति थकी ए वारता ॥ ४६. "हे भगवंत इह विध कही, दूजा गौतम अग्निभूती । नमस्कार वंदना करी प्रश्न करे विधिती ॥ जो प्रभु ! इंद्र जोतिषि तणों, एहवो महाऋद्धिवानो । जाव इति विकुर्वणा, करिया समर्थ जानो ।। हे प्रभु ! शक देवेंद्र ते केवो महाद्वियंतो । जाव केहवी विकुर्वणा, करिया समर्थ अत्यंतो || जिन कहे एक देवेंद्र ते महऋद्धिवान सुजानो। यावत् महानुभाग छै, बत्तीस लाख विमानो ॥ चोरासी लाख सामानिका, जाव चोगुणा आत्मरक्षो अन्य बहु सुर नों अधिपति, जावत् विचरं सुदक्षो । एहवो महाऋद्धिवान छै, जाव एहवी समर्थाइ । जेम चमर तिम एह छै, णवरं दो जंबू भराइ ॥ शक्र ४३. ४४. ४५. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. १. असंख्याता द्वीप समुद्र नै भरिया नी समर्था । न भरचा न भरै भरसी नहीं, ए विषय मात्र कहिवाइ ॥ अंक इकतीस नों देश ए. अड़तालीसमी डालो। भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' हरष विशालो ।। ढाल : ४६ दूहा जो प्रभु ! शक्र देवेंद्र ते, एहवो महाऋद्धिवान | जाव इति विकुर्वणा, करिया समर्थ जान ॥ इस निश्वं करि आपरो अंतेवासी प्रकृति-भद्र अणगार ते जाव विनीत सोय । सुजोय ॥ * लय --- राजा दशरथ दीपतो रे २२० भगवती-जोड़ ४३. आहेच्या विर एवं महिदीए ( वृ० प० १४८) ४४. एवतियं चणं पभू विउब्वित्तए जाव केवल कप्पं जंबूद्दी ( वृ० प० १५०) ४५. जाव तिरियं संखेज्जे दीवस मुद्दे इत्यादि । ( वृ० प० १५८) ४६. भंतेत्ति ! भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी ४७. जइ णं भंते! जोइसिंदे जोइसराया एमहिड्डीए जाव एवतियं च प विकुत्तिए ४८. सक्के णं भंते! देविदे देवराया केमहिड्ढीए ? जाव केवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए ? ४६. गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्डीए जाव महाणुभाने से गं बत्तीसार विमाणावास सहस्ताणं, ५०. चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं... च उन्हें चउरासीणं, आप रक्खसाहसी, असि न जाव विहर। ५१. एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं जदेव चमरस्म तव भागवद जद्दीने दी ५२. अवसेसं तं चैव । एस णं गोयमा ! सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुब्वति वा विकुव्विस्सति वा । ( श० ३।१६) १. जइ णं भंते ! सक्के देविदे देवराया एमहिड्डीए जाव एवति भू विकुचितए २. एवं देववाण अवासी तीस नाम अगा पगइभद्दए जाव विणीए Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कल्पे ४. होजी प्रभु ! मास तणी जी संलेखणा, साठ भक्त अणसण छेद । होजी प्रभु ! आलोवणा निज मन करी, गुरु कनै पडिकमी संवेद || ५. पाम्या समाधि मुनीस्वरू, काल मासे करि काल । सुधर्म ऊपनों, निज विमाण विज्ञान ॥ विधै, देव सेज्या नें अनुराग । अंतरे, आंगुल ने असंख्यातमै भाग ।। सुरराय मों सामानिकपणे उपन्न । ततकाल नों, पंच पर्याप्ति प्रतिपन्न ॥ *म्हारा प्रभुजी रे, ज्ञान से पार पामै नहीं । ( ध्रुपदं ) होजी स्वामी! तीसक नाम महामुनि, होजी स्वामी! छठ छठ अंतर रहीत। होजी स्वामी! तप करि आतम भावतो, होजी स्वामी! चरण वर्ष अठ प्रीत | ६. ऊपजवा नीं सभा ने देव - दुष्य ७. शत्रू सुरिद्र तीस मुर 5. आहार शरीर नैं इंद्रिय, सास पर्याप्ती पंच, पाम्यो भाषा-मन ६. होजी सुगुणा ! वृति में कह्यो सर्व स्थानके, आखी छै पर्याप्ति सुहाय । होजी सुगुणा ! भाषा मन इक सुर नै गिणी, बहुश्रुत किणहिक न्याय || १०. होजी स्वामी ! सामानिक परषद देवता, करतल जोडी दश नक्ख । होजी स्वामी! मस्तक आवर्तन करी जय विजय बघावं प्रतक्ख ॥। ११. अंजलि करि ने इम कहे आश्चर्यकारी अभ्रांति दिव्य ऋद्धि देवानुप्रिया तणी, दिव्य देव नी कांति || १४. तीसक , नामै देव ते केवो यावत् केहवी उस्सास पर्याप्त १२. दिव्य प्रधान सुदेव नों, लाधो पाम्यो अनुभाव । सन्मुख आया सुख भला, पाम्या है आप साव || १३. जेवी ऋद्धि देवानुप्रिया तणी तेही ऋद्धि शत्र तणी सोय जेवी ऋद्धि शक इंद्रनीं तेवी ऋद्धि आपरी होय ॥ ! 1 कहाव । भाव || +लय - ऐसी जोगणी री जोग युक्ति जाण महाबुद्धिवान विकुर्वणा, करिया ने समर्थ सुजान ? ३. छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे पाई असंवछराई सामण्णपरिवार पाउणित्ता, 7 ४. मासिवाए गए अता सेता सत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते ५. समाहिपत्ते कलमासे कालं किच्या सोहम्मे कप्पे स विमाणसि ६. उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंवेदभागमेत्तीए ओगाए ७. सक्कर देविदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उवण्णे । तीस देवे अण्णमेसमा पंचविहा पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ ८. तं जहा आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपती आणापापन्नत्तीए, भासा-मणपज्ज तीए । ६. सा चान्यत्र षोढोक्ता, इह तु पंचधा, भाषामनः पर्यात्योर्बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात् । ( वृ० प० १४९) १०, ११. एतं तीस देवं पंचविहाए पती प तिभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोववण्णया देवा करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एणं विजएणं वद्धाविति वद्धावित्ता एवं वयासी - अहो णं देवाणुप्पिएहि दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुइ १२. भाल पत्ते अणिगए। १२. जारिसिया गं देवापिएहि दिव्या देविदा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, रसिया के विदेविदेष देवरा दिव्या देवी जाव अभिसमण्णागए । जारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए । तारिथिया देवापिएहि दिव्या देवडी जाव अभिसमण्णा गए । १४. से णं भंते ! तीसए देवे केमहिड्डीए जाव केवतियं च विकृति? श०३, उ० १, ढा० ४६ ३२१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. हां रे गोयम ! वीर कहै सुण गोयमा ! तीसक महाऋद्धिवान । हां रे गोयम ! यावत् महानुभाग छ, ते तिहां पोता नै विमान । १६. च्यार सहंस सामानिक अछ, अग्रमहेषी च्यार। सपरिवारे सोभती, परषद तीन उदार ।। १७. सात अणीक छै जेहन, सात अणीक नां नाथ । आत्मरक्षक देवता, सोलै सहंस आख्यात ।। १८. अन्य घणां वैमाणीक जे, देव देवी नों नाथ। ____ अधिपतिपणों करतो छतो, यावत् विचरै विख्यात ।। १६. एहवो महाऋद्धिवंत तेह छ, जाव एहवी समर्थाय । जेम युवान युवती प्रतै, हस्ते करि हस्त ग्रहाय ।। २०. जेम कह्यो छै शक नै, तिमहिज तीसक देव । जाव असंख द्वीप विषय छ, काल विहं न भरेव ।। १५. गोयमा ! महिढीए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ सयस्स विमाणस्म, १६. च उहँ सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, १७. सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आय रक्खदेवसाहस्सीणं, १८. अण्णेसि च बहूणं वेमाणियाणं, देवाणं देवीणं य जाब विहरइ। १६. एमहिड्ढीए जाब एवतियं च णं पभू विकुम्वित्तए । से जहानामए जुवती जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेज्जा, २०. जहेव सक्कस्स तहेव जाव एस णं गोयमा ! तीसयस्स देवस्स अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुर्दिवसु वा विकुब्वति वा विकुब्बिस्सति (श० ३।१७) २१. जइ णं भंते ! तीसए देवे महिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो अवसेसा सामाणिया देवा के महिड्ढीया ? २२. तहेब सव्वं जाव एस णं गोयमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरणो एगमंगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुब्बिसु वा विकुब्वति वा विकुब्बिस्सति वा। २३. तावत्तीसय--लोगपालग्गमहिसी ण जहेव चमरस्स, नवरं----दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अण्णं तं चेव । (श० ३।१८) २४. 'जहेव चमरस्स' ति, अनेन लोकपालाममहिषीणां 'तिरियं संखेज्जे दीवस मुद्दे ति वाच्यमिति सूचितम् । (वृ०-प० १५६) वा। २१.होजीस्वामी! महाऋद्धिवान तीसक इसो, जाव विषय इति जान। होजी स्वामी ! शेष सामानिक शक्र नां, केहवा महऋद्धि शक्तिमान ? २२. हां रे गोयम ! तिमज सर्व जाव एहवी, शक सामानिक इक एक। हां रे गोयम ! विषय असंख द्वीप-समुद्र नीं, पूर्वे कह्यो ज्यूं अशेष ।। २३. तावतीसक लोकपाल ते, अग्रमहेषी पिण जेम चमर तणां तेम ए, णवरं जंबूद्वीप जोय। दोय ।। २४. होजी सुगणा! वृत्ति विषै कह्य चमर नां, लोकपाल अग्रमहीष । होजी सुगुणा! विषय संख्याता द्वीप-समुद्र नीं, तिम इहां संख्याता कहीस ।। होजी स्वामी ! बे वार सेवं भंते ! कही, दूजा गोयम गणधार । होजी स्वामी ! जाव विचरै आतम भावता, हिव तीजा गोयम प्रश्न सार ।। २६. हे भदंत ! इह विध कही, तीजा गोयम भगवान । वायुभूति भगवंत नै, जाव वदै इम वान ।। २५. सेव भंते ! मेवं भंते ! ति दोच्चे गोयमे जाव विहर इ। (श० ३।१६) २६. भंतेति ! भगवं तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बदासी२७. जइ णं भंते ! सक्के देविदे देवराया महिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया केमहि ड्ढोए ? एवं तहेव, २७. जो शक यावत् महद्धिक इसो, यावत् इति समरथाय । ईशाण इंद्र महद्धिक किसो? एवं तहेब कहाय ।। ३२२ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. हां रे गोयम ! नवरं जे एतलो विशेष छै, अधिक जंबुद्वीप दोय। हां रे गोयम ! अवशेष सर्व विस्तार ते, पूर्वली पर जोय ।। २६.होजी स्वामी! ईशाण देवेंद्र महद्धिक इसो, जाव एहवी समर्थाय । होजी स्वामी ! निश्चय अंतेवासी आपरो, कुरुदत्त-पूत्र मुनिराय ।। ३०. प्रकृति भद्रिक जाव विनीत ते, अठम-अठम अंतर-रहीत । पारण आयंबिल आदरी, तप करि आतम लीधी जीत ।। ३१. ऊंची बाहु रवि सन्मुखे, आतापना पिण तास । छ मास चारित्र पालन, संलेखणा अर्ध मास ।। ३२. तीस भक्त अणसण छेद नै, आलोई पडिकमी सजाण। पाय समाधि काल करी हुओ, ईशाणे निज विमाण । २८. नवरं–साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तहेव। (श० ३।२०) २६. जइ णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुब्बित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अणगारे ३०. पगतिभद्दए जाव विणीए अट्ठमंअट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं ३१. उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आया वणभूमीए आयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, ३२. तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे सयंसि विमाणंसि... ३३. जा तीसए वत्तव्वया सच्चेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि, नवरं—सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेस तं चेव। ३४. एवं सामाणिय-तावत्तीसग - लोगपाल - अग्गमहि सीणं जाव एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविदस्स देवरणो एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए ३५. अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वति वा विकुब्बिस्सति वा। (श० ३।२१) एवं सणंकुमारे वि, नवरं—चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे ३३. हां रे गोयम ! तीसक मुनि नी जे वार्ता, कुरुदत्त पुत्र नी तिम हीज। गोयम! णवरं जंबू दोय अधिक छ, अवशेष तिमज कहीज ॥ ३४. एवं सामानिक तावतीसगा, लोकपाल अग्रमहीष । जाव ईशाण सुर इंद्र नीं, इक इक अग्र महिपी दीस ।। ३५. विषय संख्याता द्वीप-समुद्र नी, भरै नहीं त्रिहुं काल । इमहिज सनतकुमार पिण, णवरं चिउं जंबूद्वीप निहाल ।। ३६. अर्थ अदुत्तरं पाठ नो, बीजै प्रकार थी जोय । ३६. अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे । तिरछा असंख्य द्वीपोदधि, विषय मात्र अवलोय ।। ३७. एवं सामानिक जाणजो, तावतीसक लोकपाल । ३७. एवं सामाणिय-तावत्तीसग-लोगपाल-अग्गमहिसीणं । अग्रमहिषी भोग अपेक्षया, असंख्य द्वीपोदधि न्हाल । असंखेज्जे दीव-समुद्दे सब्वे विकुब्वंति, ३८. हां रे सुगुणा! सूत्र सामान्य कह्यो इहां, अग्रमहिषी आय । हां रे सुगुणा ! सूत्र विशेष आगल हिवै, तिहां अग्रमहिषी कही नांय ।। ३६. उपजै बे कल्पे अपरिग्रही, ते आवै ऊपरला रै भोग । तिण सू अग्रमहिषि कही सनत नै, विषय संखेज्ज दीसै जोग ।। ४०. समयाधिक पल्य थी दश पल्य लगै, सूधर्म नी अपरिग्रही सोय । ४०. समयाधिकपल्योपमादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिभोग आवै तीजा तण, वृत्ति माहै अवलोय ।। गृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां भोगाय संपद्यन्ते। (वृ०-५० १६०) ४१. हां रे गोयम! सनतकुमार थी आदि दे, ऊपरला लोकपाल। ४१. सणंकुमाराओ आरद्धा उवरिल्ला लोगपाला सवे वि हां रे गोयम ! असंख द्वीपोदधि विषय छै, इहां अग्रमहिषी दीधी टाल ।। असंखेज्जे दीव-समुद्दे विकुब्वंति। (श० ३।२२) श०३, उ०१, ढा ४६ ३२३ Jain Education Intemational nal Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. एवं माहिदे णवरं एतल, जाझा जंबूद्वीप च्यार । ब्रह्मलोक पिण इमज छ, णवरं अठ जंबुद्वीप उदार ।। ४३. इमहिज लंतक णवरं एतल, जाझा अठ जंबू विचार । सोल जंबू महाशुक्र छ, जाझा सोलै सहस्सार ।। ४२. एवं माहिदे वि, नवरं--सातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे बीये। एवं बंभलोए वि, नवरं--अठ्ठ केवलकप्पे। ४३. एवं लंतए वि, नवरं-सातिरेगे अट्ठ केवलकप्पे । महासुक्के सोलस केवलकप्पे। सहस्सारे सातिरेगे सोलस। ४४. एवं पाणए वि, नवरं-बत्तीस केवलकप्पे । एवं अच्चुए वि, नवरं—सातिरेगे बत्तीस केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीये। ४५. अण्णं तं चेव। (श० ३।२३) ४४. एवं पाणत णवरं इतो, केवल जंबू बत्तीस। एवं अच्च णवरं इतो, जाझा बत्तीस जगीस ।। ४५. तिमहिज अन्य विस्तार छ, विमान सामानिक में फेर। दक्षिण दूजा गोतम पूछिया, उत्तर वायुभूती हेर ।। ४६. होजी स्वामी ! बे वार सेवं भंते ! कही, वायुभूति अणगार। होजी स्वामी ! वीर प्रतै वंदी नमी, यावत् विचरै ध्यान मझार ।। ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ जाव विहरइ। (श० ३।२४) ४७. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ मोयाओ नयरीओ नंदणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श०३।२५) ४७. हां रे सुगुणा ! भगवंत श्री महावीर जी, अन्य दिवस तिणवार । हां रे सुगुणा ! मोया ना नंदनवन थी तदा, जनपद देश विहार ।। ४८. अंक इकतीस नों देश ए, गुणपचासमी ए ढाल । भिवख भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : ५० १. इंद्रां नी वैक्रिय शक्ति, आखी पूर्व ईशानेंद्र वैक्रिय हिवै, तेजू लेस ताय। कहाय ।। २. तिण कालै नै तिण समय, राजगृह महावीर । जाव परषदा वीर नी, सेव करै गुणहीर ।। तिण कालै नै तिण समय, कल्प इशाणे ईश । सूलपाणी वाहन वृषभ, उत्तरढ लोक-अधोश ।। ४. लख अठवीस विमाणपति, वस्त्र निमल रज-रहित। यथास्थानके ओपता, माला मुकुट सहित ।। सुवर्ण नवो मनोहर, वलि चित्राम सहीत । चपल इसा कुंडल तणी, रेख गलस्थल रीत ।। यावत् दस दिशि नै विषै, अति उद्योत करंत । प्रभा तेज करि दीपतो, कल्प ईशाण हंत ।। ईशाण अवतंसक भलो, प्रवर विमाणे न्हाल । रायप्रश्रेणी मांहि जिम, तिम कहिवो सुविशाल ।। १. इन्द्राणां वैक्रियशक्तिप्ररूपणप्रक्रमादीशानेन्द्रेण प्रकाशितस्यात्मीयस्य वैक्रियरूपकरणसामर्थ्यस्य तेजोलेश्या सामर्थ्यस्य चोपदर्शनायेदमाह- (वृ०-५० १६०) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था वष्णओ जाव परिसा पज्जुवासइ। (श० ३।२६) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूल पाणी वसभवाहणे उत्तरड्ढलोगाहिवई ४. अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे आलइयमालम उडे ५. नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे ६. जाब दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे ईसाणे कप्पे ७. ईसाणवडेंसए विमाणे जहेब रायप्पसेणइज्जे ३२४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जाव प्रभु पै आयनै, नाटक पाइयो ताय । जाव आयो जिह दिशि थकी, तिणहिज दिशि प्रति जाय।। ६. हे भदंत ! इम वच कही, वीर प्रभु नै ताम। नमस्कार वंदना करो, पूछ गोतम स्वाम ।। १०. *अहो आश्चर्य हे भगवान ! महद्धिक ईशाण सुर राजान । प्रभुजी ! तेहनी दिव्य ऋद्धि, किहां गई क्यां पैठी समृद्धि ? ८. जाव...दिव्वं बत्तीसइबद्धं नट्टविहि उवदंसित्ता जाव जामेव दिसि पाउब्भूए, तामेव दिसि पडिगए। (श०३।२७) ६. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नम सइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी१०. अहो णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया महिड्ढीए जाव महाणुभागे। ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहि अणुपविठे? ११. गोयमा ! सरीरं गते, सरीरं अणुपविठे। (श० ३।२८) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–सरीरं गते? सरीरं अणुपविठे? १२. गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया कुटाकारेण-शिखराकृत्योपलक्षिता (व०प० १६३) १३. दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा। ११. जिन भाखै शरीर मझार, प्रवेश करती सार। किण अर्थे प्रभु इम कहिये, तनु मांहि प्रवेशज लहिये ? १२. तब भाखै श्री जिन राय, यथानाम दृष्टांत कहाय । शिखर ने आकार जे शाल, कुटाकार ते न्हाल ।। १३. बिहुं दिशि लिप्त ते छोहै, गुप्त द्वार तसु सोहै। अतही वायु करनैं रहीत, निरवात गंभीर संगीत ।। १४ ते कूट आकारे शाल, इहां जाव शब्द है विचाल । कुटाकार शाल नों दृष्टंत, भणवो कहिवो मतिवंत ।। १५. हिवै गोतमजी धर खंत, इण रो पाछल भव पूछत। प्रभ ! ईशाण देवेंद्र जाण, देवता नों राजा पिछाण ।। १६. तिका दिव्य देव तणी ऋद्धि, दिव्य सूर धति कांति समृद्धि । दिव्य देव तणों जे प्रभाव, किण हेतु करी लाधो साव ? १७. किम पाम्यो ए ऋद्धि किम आवी, कुण हुँतो पूर्व भव भावी ? अथवा हुंतो एहनो स्यूं नाम , स्यूं गोत्र हुँतो अभिराम ? १८. कुण ग्राम नगर विष वास, यावत् सन्निवेस विष तास? किसू दोधो सुपात्र दान ? असणादिक चिउंविध जान? १४. तीसे णं कूडागारसालदिळेंतो भाणियव्वो। (श० ३।२६) १५, १६, ईसाणेणं भंते ! देविदेणं देवरण्णा सा दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिब्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? १७. किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमण्णागए ? के वा एस आसि पुव्वभवे ? किनामए वा? किंगोत्ते वा? १८. कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा? किं वा दच्चा? दत्त्वाऽशनादि (वृ०-५० १६३) १६. कि वा भोच्चा ? किं वा किच्चा ? किं वा समायरित्ता? भुक्त्वाऽन्तप्रान्तादि, कृत्वा तपः शुभध्यानादि, समाचर्य च-प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि २०. कस्म वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए १६. किस भोगवियो अंत-प्रांत ? कीधो तप शभ ध्यानादि शांत । किस् समाचरयो जिन राज, जीव नी जयणादिक म्हाज? २०. कुण तथारूप जे जोग्य, श्रमण तपस्वी उत्तर गुण प्रयोग्य । माहण ते मूल गुण करि सहीत, एहवा मुनि नै समीप मुरीत ।। आचरिवा जोग्य इण पिण सार, धर्म-वचन सांभल हिय धार। जेहथी ईशाण देवेंद्र जान, पायो देव नी ऋद्धि प्रधान ? २१. एगमबि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म ? ज णं ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिब्बा देविड्डी... लद्धे...? (श० ३।३०) २२. एवं खलू गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं २२. तब भाख थी जिनराय, पूर्व भव ईशाणंद्र न ताय । इम निश्चै गोयम ! सार, तिण काले तिण समय विचार ।। *लय-एकण रै दे रे चपेटी श०३, उ०१, ढा० ५० ३२५ Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. एहिज जंबद्वीप भरतखेत, तामलिप्ति नगरी सुहेत। तामली नामै मोरिज - पूत, गाथापति हृतो वर सूत ।। २४. ऋद्धिवंत दीप्तवंत देख, यावत् बहु जन नै सुविशेख । कोइ पराभवी सकै नांय, घणं ऋद्धिवंत माटै कहिवाय ।। २५. ते तामली मोरिज-पुत्र नैं सोय, एकदा मध्य-रात्रि में जोय । कुटंब चितवणा करतां ताय, ऊपनां एहवा अध्यवसाय ।। २३. इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलित्ती नाम नयरी होत्था–वण्णओ। (श० ३।३१) तत्थ णं तामलित्तीए नयरीए तामली नाम मोरियपुत्ते गाहावई होत्था२४. अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था। (श० ३।३२) २५. तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ पुवरत्ताबरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूये अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था२६. अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं 'सुचिण्णाणं' ति दानादिसुचरित रूपाणां, सुपरक्कंताणं' ति सुष्ठु पराक्रान्त...सुभानामर्थावहत्वेन कल्याणा नामनर्थोपशमहेतुत्वेनेति (वृ०-५० १६३) २७. कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसे, जेणाह २६. म्हारै छै पूर्व भव में कीधा, पुराणा दानादिक प्रसीधा। भला पराक्रम शुभ जाण, अनर्थ-उपशम हेतु कल्याण ।। २७. एहवा कीधा कर्म पुन्य हेतू, तेहनां कल्याण फल हूं लभेतु। जेणे दानादिक करि जोय, हं तो हओ ऋद्धिवंत सोय ।। २८. अणघडिया सुवर्ण कर ताय, हूं तो बाध्यो अधिक सवाय । बध्यो घट ते सुवर्ण करि शेष, धन धान्य करी बध्यो देख ।। २६. पूत्र करी बध्यो अधिकाय, पश गाय प्रमुख करि ताय । पूर्व कह्यो तेहिज अर्थ लहिये, सुविशेष थकी हिव कहिये ।। ३०. विस्तीर्ण धन गणिमादि जाण, कनक सवर्ण ते पहिछाण । रत्न कतनादिक जोय, मणि चंद्रकांतादि होय ।। २८. हिरण्णेणं वड्ढामि सुवण्णेणं वड्ढामि, धणेणं बड्ढामि, धण्णणं वड्ढामि, २६. पुत्तेहि वड्ढामि, पसूहि वड्ढामि, ३१. मुक्ताफल दक्षिणावर्त - शंख, शिला प्रवाल ते विद्रुमंक । अन्य कहै शिला राजपट्ट, प्रवाल विद्रम सुवट्ट ।। ३२. रक्त-रत्न ते पद्मरागादि, विद्यमान सार द्रव्य साधि । तेणे करी घण घणु ताय, हूं तो बध्यो अछू अधिकाय ।। ३०. विपुलधण-कणग-रयण-मणि इह धनं-गणिमादि रत्नानि-कतनादीनि मणयः -चन्द्रकान्ताद्याः । (वृ०-प० १६३) ३१. मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि, अन्येत्वाहुः—शिला राजपट्टादिरूपाः प्रवाल-विद्रुमम्। (वृ०-५० १६३) ३२. रत्तरयण-संतसारसावएज्जेणं अतीव-अतीव अभि वड्ढामि, रक्त रत्नानि-पद्मरागादीनि, एतद्रूपं यत् 'संत' त्ति विद्यमानं सारं–प्रधानं। (वृ०-प० १६३) ३३. तं कि णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसो खयं उवेहमाणे विहरामि? नवानां शुभकर्मणामनुपार्जनेन। (वृ०-५० १६३) ३४. तं जावताव अहं हिरण्णणं वड्ढामि जाव अतीव-अतीव अभिवड्ढामि, ३५. जावं च मे मित्त-नाति-नियग-सयण-संबंधि तत्र मित्राणि-सुहृदो ज्ञातयः--सजातीयाः निजकागोत्रजा: सम्बन्धिनो-मातृपक्षीयाः। (वृ०-प०१६३) ३३. ते ई पुरा पुराण सुचरित्त, जाव करचा कर्म परिणित्त। विचरूं छं एकांते क्षय करतो, नवा शुभ कर्म अणआदरतो ।। ३४. जिहां लगै सुवर्ण करि सोय, वद्धि पाम्यो छू अवलोय । जाव पूर्वे कही वस्तु ताय, तिण सूं घणु घणुं वृद्धि पाय ।। ३५. मुझ नैं ज्यां लग मित्र सखाई, न्याती सजातिया कहिवाई। नियग ते इक गोत्र नां ताय, संबंधि मात-पक्ष कहिवाय ।। ३२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. अथवा संबंधी श्वसुर कुलीन, परिजन ते दासादिस्व आधीन । सहु आदर दे अधिकाय, स्वामीपण जाणै छै ताय ॥ ३७. देवै सत्कार नै सनमान कल्याणकारी मंगलीक जान । देवता भी परे मुझ मान, वारू विनय करी सुविहान ३८. चित्त अहलादकारी विचार, म्हारी सेव करें इहवार । मुझ नैं त्यां लग श्रेय छै सोय, काले प्रगट प्रभात सुहोय ।। ३६. जाव जाज्वलमान समाज, रवि जगते करिबू ए काज स्वयमेव पोतेईज सोय, काष्ठ नों पालो करिने जोय || ४०. विस्तीर्ण चिउँ आहार रंधाय मित्र व्याती निजग कहियाय । स्वजन संबंधी परिजन ताय, यां सगला ने बोलाय || ४१. ते माती प्रमुख परिजन ने विस्तीर्ण चि आहारज करने वस्त्र गंध माला अलंकार, सत्कार सन्मान ने सार || ४२. मित्र न्याती प्रमुख आगे सार, जेष्ठ सुत नै स्थापी घर भार । त्यां ने पूछी काष्ठपाल, वलि मस्तक मुंड करेय ।। ४३. प्रव्रज्या प्राणाम सुहाय, मुझ आदरवी श्रेय ताय । आदरिये छतं ते पवज्जा करिबू एवं अभिग्रह सका। ४४. कल्पै जावजीब लग जोय, छठ छठ निरंतर सोय । सूर्य साहमी ऊंची बाहु स्थाप, आतापन - भूमि ४५. छठ पारणे हय धरी ने आतापन भूमिका थी वली ने काष्ठपाव ग्रही ने ताहि, तामलिप्ती नगरी मांहि ॥ आताप || - ४६. ऊंच नीच मझम कुल मांय, बहु घर भिख्या अटन कराय । शुद्ध उदन कूर इक अन्न, लेवू पिण शाकादिक तजन्न || ४७. ते कूर प्रतं एकवीस वार, पाणी करि पखाली ते आहार । तठा पर्छ आहार करिं मोय, इम चितवणा करी सोच ।। ४८ दूजै दिन प्रगटी प्रभा जान, जाव सूर्य उदय पिछान । पोते काष्ठपात्र करी ताय, विस्तीर्ण असणादिक रंधाय ॥ ४९. कीधा स्नान अने बलिकर्म कीधा कोतुक तिलकादि मर्म । ए तो लौकिक हेते पिछान, तिम अन्य स्थान पिण जान ॥ ५०. दही द्रोव अक्षत मंगलीक दुःस्वप्न टालण तहतीक । यति परिघा वस्त्र प्रधान, मोल हवा ने हलका जान || ५१. एहवा आभरण करी अमीर, अलंकृत कियो है शरीर । भोजन-मंड बैठा समेला ॥ भोजन देला, सुख-आसन ३६. परियणो आढाति परियाणाइ श्वसुरकुलीना वा परिजनो— दासादिः । 'परिजानइ' त्ति परिजानाति स्वामितया । ( वृ०२०१६३) ३७. सकारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं विणएणं ३८. चेइयं पज्जुवासइ, तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए ३६. जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं करेत्ता ४०. विउलं असण- पाण- खाइम साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्तनाइ नियग-सयण संबंधि परियणं आमंतेत्ता, ४१. तं मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि-परियणं विउलेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य गहरे सम्माता ४२. स्वमित-नाइनिधि-परिवार पुर जेठपुत्त कुटुंबे ठावेता मिलना-नियन-सय-संबंधि ---परिवर्ण जेठपुत्त आच्छिता, सदमेव दामपं डिगं गहाय मुंडे भवित्ता, ४३. पाणामाए पव्वज्जाए पब्वइत्तए । पब्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि ४४. कप्पइ मे जावज्जीवाए छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेण उड्ढं बाहाओ परिज्झिय परिज्झिय सुराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स बिहरितए, ४५. घट्ट विणं पाणयति आपणभूमीओप भित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं गहाय तामलित्तीए नपरीए ४६. उच्च-नीय मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गात्ता ४७. तं तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारितए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, ४८. कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सुरे सहस्रस्तिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयमेय दारुमयं पडिग्गहग करेइ, करेत्ता विउलं असण पाण- खाइमसाइमं वक्खडावे, ४६. ततो पच्छा पहाए कयवलिकम्मे कयकोउय ५०. ५१. मंगल - पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगललाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहन्याभरणालंकियसरीरे भोयणबेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए ०३, उ० १, डा० ५० ३२७ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. मित्र न्याती निजक नै स्वजन्न, संबंधी परिजन सुमन्न। तेह साथ विपुल असणादि, आस्वादतो ईषत् स्वादि ।। ५३. विसादेमाणे स्वाद विशेख, परिभाए ते देवो पेख । परिभजेमाणे भोगवतो. एह रीत करी नै विचरतो।। ५४ इम जीमी नै तप्ति होय, चल करी चोखो थयो सोय। परम शुचिभूत इम थाय, मित्र जाव परिजन ने ताय ।। ५५. विस्तीरण पुष्प वस्त्र सुगंध, मल्ल अलंकार करि संध । इम सर्व भणी सत्कार, वलि सन्मानी नै सार।। ५६. तेज मित्र न्यातीला जाण, जाव परिजन आगै पिछाण। जेष्ठ-पुत्र प्रतै तिणवार, थाप कुटंब विषै तसु भार ।। ५७. मित्र न्याती जाव परिजन नैं, वस्त्र गंध माला अलंकर नै। देइ सन्मान नै सत्कार, जेष्ठ-मृत थापी कूटव अधिकार ।। ५८. मित्र न्याती जाव परिजन ने, वलि पूछी जेष्ठ-सुतन ने। मुंड थइ प्रव्रज्या प्राणाम लेवै एहवो अभिग्रह ताम ।। ५२. तेणं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सद्धि तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसादेमाणे 'आसाएमाणे' त्ति ईषत्स्वादयन् । (वृ०-५० १६३) ५३. वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। 'वीसाएमाणे' त्ति विशेषेण स्वादयन् स्वाद्यविशेष परिभावेमाणे' त्ति ददत् । (वृ०-प० १६३) ५४. जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयते चोक्खे परम सुइन्भूए तं मित्त जाब परियणं ५५. विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंधमल्लाल कारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ, ५६. तस्सेव मित्त-नाइ जाव परियणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेइ, ५८. तं मित्त-नाइ जाव परियणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छइ, आपुच्छित्ता मुंडे भवित्ता पाणामाए पब्बज्जाए पब्वइए। पवइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभि गिण्हइ-- ५६. कप्पइ मे जावज्जीवाए छठैछट्टैणं जाब आहारित्तए ५६. कल्पै जावजीव मुझ सोय, छठ-छठ निरंतर जोय । जाव शुद्धोदन इकवीस वार, जल सं धोई करिव आहार ।। ६०. एहवो अभिग्रह जावजीव धार, छठ-छठ निरंतर सार। दोन बाहू प्रतै ऊंची थाप, लेवै सूर्य साहमी आताप ।। ६१. छठ पारणा नै विष ताय, आतापन-भूमि थी पाछो आय । काष्ठपात्र ग्रही संचरतो, तामलिप्ती निहुं कुल फिरतो।। ६०. इमं एयारूवं अभिन्गहं अभिगिण्हित्ता जावज्जीवाए छठंछठेणं अभिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आया वेमाणे विहरइ। ६१, ६२. छठ्ठस्स वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता सयमेय दारुमयं पडिग्गहगं गहाय तामलित्तीए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ, अडित्ता सुद्धोयणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेइ, पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारेइ। 'सुद्धोयणं' ति सूपशाकादिवजितं कूरं 'तिसत्तखुत्तो' त्ति त्रिसप्तकृत्वः एकविंशतिबारानित्यर्थः । (वृ०-५० १६३) ६२. घणां घर नी भिक्षा सुध अन्न, कर ग्रहै शाकादि तजन्न। धोई उदक सं इकवीस वार, तठा पछै भोगवै ते आहार ।। ६३. तीजे शतक पहिला नो देश, ढाल पचासमी सुविशेष । __ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, 'जय' संपति तास पसाय ।। ३२८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ३. ५. ६. ढाल : ५१ दूहा किण अर्थ प्रभु ! इम कह्यो, प्रव्रज्या दीक्षा प्राणाम | जिन कहै प्राणाम प्रब्रज्या ते सीधे छतेज ताम || रुद्र जे काले जे देश में, इंद्र बंधक ते कार्तिक अच्छे स् व्यंतर विशेष शिव प्रतं तथा तेहनें शिव कहिवूं इहां, वली ७. देख तिको प्रशांत रूपे चंडिका, आर्या रौद्र रूप रूप जे चंडिका, कोट्टक्रिया स्वयमेव । महादेव ।। || रुद्र बेसमण *लय पर नारी नो संग न कीज कहिये साकार । सार ॥ ताय । कहिवाय ॥ राजा यावत् सार्थवाह, काक स्वान चंडाल | उच्च पूज्य प्रति देख नैं अधिक प्रणाम विशाल || । , नीच अपूज्य निहाल में अन्य प्रणाम करत जे जिम देखे तिम तसुं करें प्रणाम नमंत ॥ तिण अर्थ करि गोपमा ! हम कहिये प्राणाम | एहबु, अर्थ पाठ नों ताम ॥ जाव प्रव्रज्या * देव जिनेंद्र कहै गोयम नें । ( ध्रुपदं ) ८. तामली मोर्यपुत्र तिग अवसर तप वांछा रहित उदार | विस्तीर्ण बहु दिवस ते माटै, प्रयत्न गुरु आज्ञा धार ॥ ह. बहुमाने करि नैं ते संग्रह्य्, एहवा वाल तपे करि तामो । निरसपणां थी ते तन सूको, भूख तणें वस आमो ॥ १०. जाय नाड़ी नों समूह व्याप्त ते, एहबो दुर्बल भयो सो तामली बाल-तपस्वी ने अन्यदा, मध्य राते अवसोयो । ११. शरीरादिक नुं अनित्य चित ते अनित्य विणा करतां । एहवा अध्यवसाय जाव ऊपनां, मन में विचारणा धरतां ॥ १२. ए हैं उदार विस्तीर्ण तप करि जान दिन-दिन तप वृद्धि । चढते परिणाम तप उत्तम, महानुभाव करि सिद्धि ॥ १. से केणट्ठेण भंते ! एवं बुच्चइ - पाणामा पव्वज्जा ? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वज्जाए पव्वइए समाणे २. जं जत्थ पासइ इंदं वा खंदं वा रुदं वा स्कन्दं वा कात्तिकेय' वा महादेव (०१०१६४) ३. सिवं वा वेसमणं वा 'सिव' तियन्तरविशेष आकारविशेषधरं रुद्रमेव । आकारविशेषो दृष्य, ( वृ० प० १५४) ४. कोरियं वा आर्या प्रशान्त कामेव रौद्ररूपां । 'कोरियं व' ति नष्टि ( वृ० प० १६४ ) ५. रायं वा जाव सत्थवाहं वा काकं वा साणं वा पाणं वाउच्च पासइ उच्च पणामं करेइ, 'उच्च' ति पूज्यं 'उच्चं पणमति' अतिशयेन प्रणमतीत्यर्थः । (70-70 ?88) ६. नीयं पासइ नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ । 'नीयं' ति अपूज्यं 'नीयं पणमति' अनत्यर्थं प्रणमतीत्यर्थः । (२०-१० १६४) ७. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ पाणामा पव्वज्जा । (स० २०२४) ८. तए णं से तामली मोरियपुत्ते ते ओरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं ६. पहिल १०. जाव धमणिसंतए जाए यावि होत्था । (श० २०३५) तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अण्णया कयाइ पुव्वरताव रत्तकालसमयंसि ११. अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जान समुप्यज्जित्था १२. एवं खलु अहं इमेणं ओरालेगं विपुलेणं जाव उदग्गेणं उदन्तेष उत्तमेगं महाणुभागेणं श०३, उ०५, ढा० ५१ ३२६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. एहवा तप करि सूखो भूखो, जाव चर्म बीटयां नाडो। छै मुझ उठाण कम्म बल वीर्य, यावत् पराक्रम पुरुषाकारो।। १४. तावत श्रेय अछै मुझ कल्पे, जाव ज्वलंत सूर्य उदयेहो। तामलिप्त नगरी रै मांहि, देखी बोलाव्या तेहो।। १५. अथवा पाखण्ड मांहि रह्या जे, गृह में अथवा रहायो। गृहस्थ थका हुंता मुझ मित्र, दीक्षा लियां पछै हुवा ताह्यो।। १६. दीक्षा ना पर्याय करी सरिखा, साथ भण्या सुखदायो। ते सहु नै पूछी प्रभाते, तामली बीचै थइ ताह्यो ।। १७. पादुका कुंडिका प्रमुख उपकरण, काष्ठपात्र बलि जाणो। ए सहु नै एकांत न्हाखी नै, तामलिप्ति थी ईशाणो ।। १३. तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतए जाए, तं अत्थि जा मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे १४. तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उठ्ठि यम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते तामलित्तीए नगरीए दिट्ठाभट्ठे य 'दिट्ठा भट्टे य' त्ति दृष्टाभाषितान् । (व०-प० १६७) १५. पासंडत्थे य गिहत्थे य पुव्वसंगतिए य परियाय संगतिए य 'पुव्वसंगतिए' त्ति पूर्वसंगतिकान् गृहस्थत्वे परिचितान् । (वृ०-प०१६७) १६. आपुच्छित्ता तामलित्तीए नगरीए मझमज्झेणं निग्गच्छित्ता १७. पादुग-कुंडिय-मादीयं उवगरणं दारुमयं च पडिग्गहगं एगते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए १८. णियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता सलेहणाझूसणा झूसि यस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स निवर्तन-क्षेत्रमानविशेषस्तत्परिमाणं निवर्तनिक, निजतनुप्रमाणमित्यन्ये। १६. पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, २०. संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्स रस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जाव आपुच्छइ आपुच्छित्ता तामलित्तीए एगते एडेइ जाव भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निषण्णे । (श०३।३६) १८. निवर्तन क्षेत्र-मान-विशेषे, तथा निज शरीर प्रमाणो। मंडल आलेखी करवी संलेखना, भात-पाणी नों पचखाणो। १६. अणसण पाओपगमन करीन, मरण वांछा अणकरतो। मुझ नै विचरिवू श्रेय इसी विध, रात्रि चितवणा धरतो।। २०. एहवो विचार करी प्रभाते, जाव सहु नैं पूछी नैं। सहु उपकरण एकांत न्हाखी नै, जाव पादोपगमन करीनै ।। २१. अंक इगतीस न देश को ए, एकावनमी ढालो। भिक्खु भारीमाल ऋषराय प्रसादे, 'जय-जश' हरप विशालो। ढाल : ५२ तिण काले नै तिण समय, बलिचचा रजधानि । थइ इंद्र-रहित पुरोहित-रहित, नहि शांति कर्मकर जानि ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरोहिया या बि होत्था। (श० ३।३७) 'अपुरोहिय'त्ति शांतिकर्मकारिरहिता (वृ०-६० १६७) २. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थब्बया बहवे असूरकुमारा देवा य देवीओ य तामलि बालतवस्सिं ओहिणा आभोएंति, बलिचंचा नां तिह समय, वसिवा वाला सोय। असुर देव देवी घणां, अवधे तामली जोय ।। ३३० भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्ण तेडी इम कहै, इम निश्चै संगीत। वलिचंचा रजधान ते, इंद्र पुरोहित रहीत ।। ३. अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरो हिया, अम्है देवानुप्रिया ! अछां, इंद्र तणे वस साज। इंद्र तणज अधिष्ठिता, इंद्र तणे वस काज ।। ते भणी देवानुप्रिया! एह तामली बाल । तामलिप्ति रै बाहिरै, ईशाण-कूण विचाल ।। स्व तनु प्रमाण मंडलो, आलेखी नै सार । भक्त-पाण पचखी करी, पादोपगमन उदार ।। ते कारण श्रेय अम्ह भणी, तामली प्रत विचार । निदान बलिचंचा तणो, कराविय इह वार ।। अन्योऽन्य ए अर्थ प्रतै, अंगीकार करी भेव। बलिचंचा मध्य - मध्य थइ, नीकलिया ते देव ।। रुचकेंद्र उत्पात - गिरि, तिर्यग लोक मग ख्यात । तिहां आवै आवी करी, करि वैक्रिय समुद्घात ।। जाव उत्तर - वे करी, विकुर्वे अन्य रूप। उत्कृष्ट उत्कर्ष गति करी, आकुल त्वरित तद्रूप ।। ४. अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्ठिया, इंदाहीणकज्जा ५. अयं च णं देवाणुप्पिया! तामली बालतवस्सी तामलि त्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभागे ६. नियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवणे, ७. त सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तामलिं बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु ८. अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता बलिचंचाए रायहाणीए मज्झमझेणं निग्गच्छंति, ६. जेणेव रुयगिदे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवा गच्छित्ता वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहणंति, १०. जाब उत्तरबेउब्वियाई रूवाई विकुवंति, विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए त्वरितया' आकुलतया। (वृ०-५० १६७) ११. चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए 'चपलया' कायचापलोपेतया 'चण्डया' रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन 'जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् 'छकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः। (वृ०-५० १६७) १२. सीहाए सिग्घाए उद्ध्याए दिव्वाए देवगइए 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया उद्धतया वा सदर्पया। काया चपल चपला कही, चंड रोद्र गति जाण । जयणा अन्य गति जीपवै, छेक निपुण गति आण ।। सीह गति सम अरु गति उद्धतया दर्प-सहीत । दिव्य प्रधान गती करी, आवै तन मन प्रीत ।। तिरछा द्वीप समृद्र ते, असंख्यात मध्य होय । जंबूद्वीप जिहां अछ, जिहां भरत अवलोय ।। १३. तिरियं असंखेज्जाणं दीवसमुदाणं मज्झंमज्झेणं वीईव यमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे १४. जेणेव तामलित्ती नगरी जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, जिहां तामलिप्ती अछ, जिहां तामली जेह । मोरिजपुत्र तिहां सहु, आव्या छै धर नेह ।। १. अगंसुत्ताणि भाग २ श० ३।३८ में देवों की गति के साथ अनेक विशेषण पद हैं। उनमें एक पद है उद्भूयाए । वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इस पद की व्याख्या करते हुए लिखा है----'उद्धृतया' वस्त्रादीनामुद्भूतत्वेन, उद्धतया वा सदर्पया। (वृ० ५० १६७) जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में वैकल्पिक पाठ को स्वीकार कर उसी का प्रयोग किया है। संभव है, उनके पास जो आदर्श था उसमें केवल 'उद्धयाए' पाठ रहा होगा। श०३, उ०१, ढा०५२ ३३१ Jain Education Intemational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *अहो तापस स्वामी ! म्हारी अरज सुणो अंतरजामी ! (ध्रुपदं) १५. तामली बाल तपस्वी रे जानो, रह्या ऊपरे चिउं दिशि स्थानो। दिव्य सुर ऋद्धि दिव्य सुर कांति, दिव्य सुर अनुभाव सुशांति ।। १५. तामलिस्स बालतवस्सिस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि ठिच्चा दिव्वं देविड्ढिं दिव्वं देवज्जुति दिव्व देवाणुभागं 'सपक्खि' ति समाः सर्वे पक्षा:-पार्वाः पूर्वापरदक्षि णोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम्। (वृ०-५० १६७) १६. दिव्वं बत्तीसतिविहं नट्टविहि उवदंसेंति, १६. दिव्य मनहर वर प्रधानो, नाटक बत्तीस विध पहिछानो। कह्या रायप्रश्रेणी मझारो, तिम देखा. विविध प्रकारो।। १७. तामली बाल-तपस्वी ने तेही, तीन वार प्रदक्षिण देई। करी वंदना नै नमस्कारो, विनय सहित बोलै तिणवारो॥ १७. तालि बालतस्सि तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिण करेंति, करेत्ता वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी१८. एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे बलिचंचारायहाणी वत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य १६. देवाणुप्पियं बंदामो नमसामो जाव पज्जवासामो । २०. अम्हण्णं देवाणु प्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरोहिया, २१, २२. अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, २३. तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचं रायहाणि आढाह, १८. अहो देवानुप्रिया ! सुण प्यारा, अम्हे बलिचंचा नां रहिणहारा। धणां असुरकुमार सुजाणी, ए तो देव देवी पहिछाणी।। १६. अहो देवानुप्रिय ! तुझ तामो, म्है तो वंदां करां गुणग्रामो। नमस्कार करां सिर नामी, जाव सेव करां सुख-धामी।। २०. अहो देवानप्रिया! अम्हारी, राजधानी बलिचंचा सारी। थइ इंद्र-रहित इहवारी, नहीं पुरोहित शांति-कर्मकारी। २१. म्हारो इंद्र हंतो ते चव्यो तासो, तिण सूं हुआ अत्यंत उदासो। अम्है इंद्र तणां छां अधीनो, वलि इंद्र अधिष्ठित चीनो ।। २२. ए तो इंद्र अधिष्ठित सारा, स्वामी सर्व कार्य छै म्हारा। ते इंद्र विना करां केमो, तिण सू सर्व दुखी थया एमो ।। २३. तिण अर्ज करां म्है तुम्हने, आप आदर दीजै अम्ह नैं। बलिचंचा राजधानी, करो अंगीकार दिल आनी।। २४. बलै स्वामीपण थे जाणो, मन माहै समरण आणो। प्रयोजन निश्चय कीजै, म्हारी वीनतडी मानीजै ।। २५. वलि कीजै आप नियाणो, प्रार्थना विशेष सुजाणो। राजधानी बलिचंचा ऊपर, स्थिति-संकल्प करि मन में धर ।। २६. कृपानिधि ! कृपा कीजै, या तो अर्ज म्हारी मानीजै। एहवो नियाणो चित धरी नै, काल अवसर काल करी नैं ।। २७. बलिचंचा राजधानी, तिहां ऊपज-स्यो गुणखानी। तुम्है थासो इंद्र अम्हारा, अहो प्राणवलभ सुण प्यारा॥ २८. जब आप अम्हारे संघातो, देव संबंधिया विख्यातो। भोगविवा योग्य सुभोगो, भोगवता विचरस्यो सुजोगो।। २६. तामली बाल-तपम्वी तिवारै, एहवा वचन सुणी नैं जिवार। एह अर्थ आदरै नांही, स्वामीपणों न जाणे काई ।। २४. परियाणह, सुमरह, अट्ठ बंधह, २५. निदाणं पकरेह, ठितिपकप्पं पकरेह, २६. तए णं तुब्भे कालमासे कालं किच्चा २७. बलिचंचाए रायहाणीए उववज्जिस्सह, तए णं तब्भे अम्ह इंदा भविस्सह, २८. तए णं तुब्भे अम्हेहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरिस्सह । (श० ३।३८) २६. तए णं से तामली बालतवस्सी तेहि बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहि देवीहि य एवं वुत्ते समाणे एयमढें नो आढाइ, नो परियाणेइ, *लय-सुण चिरताली ३३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. मौन धरी में वले बलिचंचा ना ३१. तामली मोरियपुत्र प्रतं पारो बने दोजी वार तोजी वारो। जीमणां पासा श्री लेवे तीन बार प्रदक्षिणा देवं । ३२. जाव अम्है देवानुप्रिया जानी, आ तो वलिचंचा राजधानी । आतो इंद्र विणी कहीजे, जाव स्थिति तो प्रकल्प करीजे ॥ ३३. जावबीजी वार तीजी वारो इम कहै पर्क सुविचारो । अणबोल्यो, ओ तो तामली मूल न डोल्यो । जाव र ३४. तामली अणआदर दीर्घ, यां से वांछित कार्य अणसीधे बहु असुर देव देवी ताह्यो, एतो आया जिण दिशि जायो || रहीयो, इण तो नियाणो मूल न कीयो । वसवान, घणां असुर सुरा सुरी जान ।। ३५. तामली वाल तपस्वी रे जाणो इस रे आई अधिक रसाणो तप सेती कर्म वह तोड्या, छेहडै परिणाम अधिका जोड्या | ३६. अंक इकतीसमां नुं देशो, ढाल बावनमी सुविशेषो । भिक्खु भारीमाल ऋषरायो, 'जय' संपति तास पसायो । ३. ५. ढाल : ५३ हा कल्प तिण काल ने तिण समय, दूजो थयो इंद्र करि रहित तब, अपुरोहित पिण तिण अवसर ते तामली, बाल-तपस्वी साठ सहस्र वर्ष प्रतिपूर्ण, पाली संलेखणा वे मास नीं, भक्त अणसण नैं छेदी करी, काल कियो सुजगीस ॥ ईशाण कल्प ईशाणावतंसक प्रवर विमाण एक सौ बीस । विषं देव सेज्या में जाण ॥ 7 नं उपजवानी सभा देवदूष नै अंतरे, आंगुल नैं असंख्यातमां भाग नीं, अवगाहन ईशाण सुरेंद्र नो विरह, काल समय ईशाण सुरेंद्रपणे सही, ऊपजियो ईशाण सुरेंद्र तिथ अवसरे, उपजियो पंच ईशाण । जाण ।। ताय । पर्याय ।। पहिछाण । देह माण ।। तिह वेल । रंगरेल || तत्काल । पज्जत्तीए लहघो, पज्जत्तिभाव विशाल ॥ ३०. तुसिणीए संचिट्ठइ । (श० २०२९) तए णं ते वलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ३१. तामलि मोरियपुत्तं दोच्चं पि तच्च पि तिक्खुत्तो आया हि-पयाहिणं करेंति ३२. जाय अहं देवागुप्पिया! बनिचंचा राहाणी अणिदा जाव ठितिपकप्पं पकरेह ३३. जात्र दोच्चं पि तच्च पि एवं वृत्ते समाणे एयमट्ठ नो डाइनोरिया, सिणीए संचि ( ० २०४०) ३४. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिणा बालतवस्सिणा अणाढाइज्जमाणा अपरियाणिज्जमाणा जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया । (०२१४१) १. ते काले ते समए ईसा कप्पे अगि अपुरोहिए या विहोत्था । २. (०२१४२) से तामली वालतवस्ती बहुपरिपुणाई सि वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, ३. दोमाया गाए अत्ताणं मिता सवी भक्त सयं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा ४. ईसाईसा विमा उदासभाए देवपणिसि ५. देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए ६. ईसापासमपति उववण्णे | ७. नए पं से ईसा देविदे देवराया अगोद विपत्तीए पतिभा ईसाणदेविदत्ताए (२०४३) (० ३।४४) ३३३ श० ३, उ० १, डा० ५२, ५३ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. * चतुर नर ! कडुआ क्रोध विपाक । ( ध्रुपदं ) इण अवसर बलिचंचा तणा रे, रहिण बाला देवी देव । तामली बाल-तपस्वी प्रतं रे काल गयो जाणी स्वयमेव ॥ ईशाण कल्प ऊपनो, इंद्रपण अवलोय । महा शीघ्र कोप क्रोध उदय थी, रुद्र रूप प्रगट ही जोय ॥ देदीप्यमान क्रोध अग्नि थी, बलिचंचा विच होय । उत्कृष्टी गति कर आविया, जाव भरतक्षेत्र जिहां जोय ।। तामलिप्ति नगरी जिहां तामली तणों तिहां आये दावा पग वर्ण, दोरडी बांध माय तीन बार के मुख में विषं नामली नगरी सिंघोडा नैं आकारे स्थान छै, त्रिक चउक चच्चर कहिवाय ।। चोमुख महापथ पंथ में, उरहो परहो घींसाल । मोर्ट मोट शब्दे करी, करे उदघोषणा विणकाल || अहो लोको ! एकुण किसो, पोते लिंग ग्रह्मो अपचंद तामली प्रव्रज्या गुरु विना, किसो ईशाण सुर-इंद? इम कही तामली नां तनु भणी जात्यादि दोष निर्द तास मनै शरीर । भीर ॥ हीलंत । करी, वच स्वसाये खिसंत ॥ गरहा लोक साखे करी, करै अवज्ञा अपमानंत । तजें अंगुली करि शिर भणी, हस्तादि करितात ।। करें सर्व श्री कदर्थना, अतिही व्यथा उपजाय पीसी एकांत म्हाखी करी आया जिग दिशि जाय ।। * लय — भविक जन ! लोभ बुरो संसार ३३४ भगवती-जोड़ ८. चारागाहने अर कुमारा देवाय देवीओ य तामलि बालतवस्सि कालगतं जाणित्ता, ६. ईसाणे य कप्पे देविदत्ताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता राकृविया डिकिया 'आसुरुत्ता: ' शीघ्र कोपविमूढबुद्धयः, 'कुविय' त्ति जातकोपोदयाः 'चंडक्किय' त्ति प्रकटितरौद्ररूपाः । (०१०१६७) १०. मिसिमिसेमा बनिबंचाए रायहागीर मज्मण निग्गच्छंति, निम्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव भारहे वासे 'मिसिमिसेमाणे' त्ति देदीप्यमानाः क्रोधज्वलनेनेति । (१०० १६७) ११. जेणेव तामलित्ती नयरी जेणेव तामलिस्स बालतव स्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए सुंबेण बंधति, १२, १३. तिक्खुत्तो मुहे निहंति, तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर- चउम्मुह महापह पहेसु कवि करेमाणा महवा-महवा स उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासी १४. केस णं भो ! से तामली बालतवस्सी सयंग हियलिंगे पाणामाए पव्वज्जा ए पव्वइए ? केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविदे देवराया ? १५. इति 'कट्टु तामलिस्म बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलंति निदति खिसंति 'होलेंति' त्ति जात्याद्युद्घाटनतः कुत्सन्ति, 'निदति' त्ति चेतसा कुत्सन्ति 'खिसंति' त्ति स्वसमक्षं वचनैः कुत्संति । ( वृ० प० १६७) १६. गरति अवमण्णंति तज्जेति तालेति 'गति' सिलोकसमक्षं कुत्सत्व 'अवमन्यति' ति अवमन्यन्ते – अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यन्ते, 'तज्जिति' त्ति अंगुलीशिरश्चालनेन 'तालेति' ताडयन्ति हस्तादिना । ( वृ० प० १६७) करेंति होता जाव आकड्ढ विकडिं करेत्ता एगते एडंति, एडेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। १०. पति आडविक (180212) परिवति'ति सर्वतोदयन्ति पति' त्ति प्रव्यथन्ते प्रकृष्टव्यथा मिवोत्पादयन्ति 1 (२००१६०) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. तिण अवसर ईशाण नां, बह देव देवी तिणवार । एहवो विरतंत देखनै, कोप्या शीघ्र अपार ।। १६. ईशाण देविंद्र पै आयन, बे कर जोड़ तिवार। दश नख शिर आवर्त नै, करि अंजली नमस्कार ।। जय विजय एहवा शब्द थी, वधावी . बोलत। हे स्वामी! बलिचंचा तणां, बह देव देवी मति-भ्रत ।। २१. काल गया जाणी आपने, ईशाणेद्रपणे पेख । कोप्या शीघ्र ऊंतावला, जाव एकांते न्हाखी विशेख ।। २२. करी शरीर कदर्थना, आया जिण दिशि जाय। ईशाण-इंद्र सूण कोपियो, जाव मिसमिसे थाय ।। १८. तए णं ते ईसाणकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणि वत्थव्वएहि बहुहिं असुरकुमारेहि देवेहि देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निदिज्जमाणं जाव आकढ़ विकड्ढेि कीरमाणं पासंति पासित्ता आसुरुत्ता १६. ...जेणेव ईसाणे देविदे देवराया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट २०. जएणं विजएणं वद्धावेंति वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य २१. देवाणुप्पिए कालगए जाणित्ता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववण्णे पासेत्ता आसुरुत्ता जाव एगंते एडेंति, एडेता २२. जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। (श० ३।४६) तए णं ईसाणे देविदे...एवमट्ठे सोच्चा निसम्म आसु रुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे २३. तत्थेव सयणिज्जवरगए तिवलियं भिडि निडाले साहटु बलिचंचारायहाणि अहे सपक्खिं सपडिदिसि समभिलोएइ। (श० ३१४७) २४. तए णं सा बलिचंचा रायहाणी...दिव्बप्पभावेणं इंगा लब्भूया मुम्मुरब्भूया छारियभूया तत्तकवेल्लकब्भूया तत्ता समजोइन्भूया जाया यावि होत्था। (श० ३।४८) २३. ते सेज्या ऊपर बेठौ थको, विवलि भृकुटी निलाड। बलिचंचा राजधानी प्रत, चौफेर जोवै तिवार ।। २४. बलिचंचा तिण अवसरे, थइ अंगार समान। अग्नि नां कणिया सारिखी, भोभर सरिखी जान ।। २५. तप्त कवेलु सारिखी, अति ताती अग्नि सरीस । एहवी बलिचचा थई, देव प्रभावे जगीस ।। अंक इकतीस न देश ए, ए तेपनमीं ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। २६. ढाल:५४ दहा १. बहु देव देवी वलिचंचा तणां, अग्नि सरीखी जान। बलिचंचा नै देखनैं, भय पाया असमान ।। कंपण लाग्या भय करी, आनंद रस सोपंत। मन उद्वेग लह्य घणं, अतिही भय उपजंत ।। १. तए णं ते बलिचचारायहाणिवत्थब्बया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंच रायहाणि इंगालब्भूय जाव समजोइब्भूयं पासंति, पासित्ता भीआ २. तत्था तसिआ उब्बिग्गा संजायभया 'उत्त्रस्ताः' भयाज्जातोत्कम्पादिभयभावाः 'मुसिय' त्ति शुषिताऽऽनन्दरसाः। (वृ०-प० १६७) श०३, उ०१, दा०५३, ५४ ३३५ Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ४. ५. ६. ७. ८. E. १०. ११. १४. १५. १६. , "महाराजा! आप छो दुख भंजना जी, होजी धारी महिमा महि पर भारी । महाराजा ! आप दुख भय भंजणाजी । ( ध्रुपदं ) आश्चर्यकारी ऋद्धि तिहारी, होजी आ तो दिव्य देव ऋद्धि भारो। दिव्य देव कांति अधिक उदारी होती आतो दिव्यानुभाव विचारी ॥ एहवी ऋद्धि कांति लावी ने पांमी, सनमुख थई अमामी । देखों दिव्यद्धि देवाणियारी, जाय सनमुख व सारी ॥ आप तणां जश डंका बाजे, थांरा नाम थकी अरि भाजै । एहवी ऋद्धि कांति ते नहि छानी, निश्चय करि म्है जानी ॥ आप तणी जिन पर कुमया थावे निश्चय सजा ते पार्व कोप हुवै जिण सेती तुम्हारो, तास न कोई आधारो ॥ १२. म्हैं कीधा जिसा फल पाया स्वामी ! मोटी पडी म्हाम खामी । ए अपराध खमावां छां तुम्ह ने गुनही बगसीजे अम्हने ।। हे देवानुप्रिया ! खमो तुम्है सारो, कीधो अपराध अपारो । खमवा नैं योग्य तुम्हें गुण हीरा, आप गुणकर गैहर गंभीरा ॥ काम इस अम्हे कदेयन करिस्यां नित्य प्रति डरता रहिस्यां । आप तण मुभ निजर म्हे चाय, तुझ सरण पकी सुख पावा ।। चावां, एम कही देव देवी तिवारा, बलिचचा ने रहिणहारा एह प्रयोजन भने प्रकार, खामैं विनय करी वारंवार ॥ स्वाम ईशाण देवेंद्र प्रसिद्धी, जाव तेजू लेस्या खांच लीधी । ते दिन भी जवानां वासी बहु देव देवी सुविमासी ॥ १३. * लय ३३६ सर्व विदिशि दिशि ने विये, दोडे अन्योऽन्य सर्व सर्व काया मझे करें प्रवेश बलियावासी तदा देव देवी बहु ताम । ईशाण- सुर- इंद्र कोपियो, जाण लियो तिण ठाम ॥ ईशाण - सुर- इंद्रनीं तदा, दिव्य देव ऋद्धि कंत । देव प्रभाव प्रधान वलि, तेजू ले स सर्व विदिशि दिशि में रही, करतल दश नख सिर आवर्तनं, मस्तक विषै अंजली प्रत करने बलि, जय-विजय करी अधिक विनय इम साथवी बोलं एहवी प्रकार । तिवार ॥ -आज अंबाजी रै नोपत बाजे भगवती-जोड़ असहंत ॥ जोडी तेह | करेह || वषाय वाय ॥ ३. सव्वओ समंता आधावेंति परिधावेंति, आधावेत्ता परिधावेत्ता अणमणस कार्य समतुरयमाणा समतुणेमाणा चिट्ठेति । (श० ३०४९) 'समतुरंगमाण' ति समानप्यन्तः अन्योन्यमनुप्रविशन्त इति वृद्धाः । ( वृ० प० १६७ ) ४. चिंचारामहाविया वह अमुराकुमारा देवाय देवीओ य ईसाणं देविदं देवरायं परिकुवियं जाणित्ता २. सारस देवरस देवरणोतं दिव्वं देवि दिव्वं देवज्जुई दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा ६. सव्वे सक्खि पडिदिसि ठिच्चा करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए ७. अंजलि कट्टु एणं विजएणं वद्धावेति वद्धावेत्ता एवं वयासी P ८. अहो ! णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिवाणुभा अभियागए, तं चिट्ठा देवाि दिव्या देवि नाव अभिमन्याराए १२.पिया ! १३. मंतु देवार्णिया! तुमहिति देवागुणिया ! १४. णाइ भुज्जो एवं करणयाए नैव भूय एवंकरणाय संपत्स्यामहे । ( वृ०१० १६०) १५. इति कट्टु एयम सम्मं विणएणं खामेति । भुज्जो - भुज्जो (श० २०५०) १६. तए गं से ईसाणे देविदे देवराया... जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ । तप्पभिति च णं गोयमा ! ते बलिचंचा रायहाणिवत्थन्त्रया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. आदर ईशाण देवेद्र नै देव, जावत् तिणनै सेवै । ईशाण देव देवेंद्र राजा नी, आज्ञा मानै चित आनी ।। १८. ए तुझ कार्य करिवू ए आणा, उपपात ते सेव सुजाणा। वचन अभियोग-पूर्वक आदेश, कार्य भलावै अशेष ।। १६. निर्देश पूछयां नों उत्तर देवो, आज्ञादिक ने विष रहेवो। ईशाण देवेंद्र इम ऋद्धि पामी, गोयम ने कहै स्वामी।। १७. ईसाणं देविदं देवरायं आढति जाब पज्जुवासंति, ईसा णस्स य देविदस्स देवरण्णो १८. आज्ञा-कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्यादेशः उपपात:--सेवा वचनं—अभियोगपूर्वक आदेशः।। (वृ०-५० १६७, १६८) १६. निर्देश:-प्रश्निते कार्ये नियतार्थमुत्तरं। (वृ०-५० १६८) आणा-उववाय-वयण- निसे चिट्ठति । एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविदेणं देव रण्णा सा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। (श० ३१५१) २०. ईसाणस्स भंते ! देविदस्स देवरणो केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! सातिरेगाई दो सागरोबमाई ठिई पण्णत्ता। (श०३३५२) २१. ईसाणे णं भंते ! देविदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहि गच्छिहिति? कहि उववज्जि हिति? २२. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति । (श० ३१५३) प्रभजी ! आप भव दुख-भंजना जी। (ध्रुपदं) २०. हे प्रभु ! ईशाण देव-राजा नी, होजी प्रभु ! केतली स्थिति कहानी ? उत्तर वीर दिये इम हेरी, सागर दोय जाझेरी॥ ईशाण देवेंद्र हे भगवान ! देवलोक थी जान। आउ-क्षय जावत् पहिछान, उपजसी किण स्थान ? २२. वीर कहै सुण गोयम ! वानी, खेत्र विदेह सुजानी। चारित लेइनें सीजेस्य, यावत् अंत करेस्यै ।। २३. अंक इकतीस न आख्यो ए देश, ढाल चोपनमीं कहेस । भिक्खु भारीमाल ऋषराय पसायो,सुख 'जय-जश'हरष सवायो।। ढाल : ५५ दूहा ईशाणेद्र नी वारता, कही हिवै पिण तेह । जाव उद्देशक अंत लग, सूत्र - समूह कहेह।। हे प्रभु ! शक्र-विमाण थी, ईषत् उच्च प्रमाणगुण करि कायक उन्नत ते, ईशाणेद्र विमाण? १. ईशानेन्द्रवक्तव्यताप्रस्तावात्तद्वक्तव्यतासंबद्धमेवोद्देशक - समाप्ति यावत् सूत्रवृन्दमाह- (वृ०-प० १६८) २. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरणो विमाणेहितो ईसा णस्स देविंदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि उच्चतरा चेव ईसि उन्नयतरा चेव ? उच्चत्वं प्रमाणत: उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम् । (वृ०-५० १६६) ३. ईसाणस्स वा देविदस्स देवरणो विमाणेहितो सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि णीयतरा चेव ईसि निण्णतरा चेव ? ४. हंता गोयमा ! सक्कस्स तं चेव सवं नेयव्यं । (श० ३।५४) से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ तथा ईशाण देवेंद्र नां, विमाण थी पहिछाण । ईषत् नीचो निम्नतर, शक देवेंद्र विमाण? ४. प्रभु कहै हंता गोयमा ! वलि शिष्य पूछै वाय । किण अर्थे आख्यो प्रभु ! दीजै मोय बताय ।। श०३, उ०१, ढा० ५४, ५५ ३३७ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. * परम ज्ञान आगला प्रभुजी ( ध्रुपदं ) ६. हे प्रभु ! शक्र देवेंद्र ते, जिनवरजी ! ईशाणेंद्र ने पास हो, निस्नेही । आविवा नै समर्थ अछे, साहिबजी ! जिन कहै हंता तास हो, निस्नेही ।। ७. ८. ह. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. 1 जिन कहै हस्ततला विषै देश उच्च उन्नत्त । देश नीच निम्नतर तिण अर्थे ए वत्त ॥ १७. 1 प्रभु ! स्यूं समर्थ अ, आदर दे बोलाय । अथवा ते अणत्रोलावियां समर्थ शक्र कहिवाय? प्रभु भा आदर दिया, समर्थ सक-इंद अणदोलायां समर्थ नहीं, हम भाखं जिन चंद ॥ प्रभु ! ईशाण सुरेंद्र ते शक्र देवेंद्र ने पास आविवा नै समर्थ अछे ? जिन कहै हंता तास ॥ हे प्रभु ! स्यूं तेडाविया के अगतेडया आय ? जिन कहे समर्थ तेडिया, अणतेचा पिण जाय ।। T हे प्रभु चिरं दिशि तिनै जोयवा, समर्थ छै अवलोय ? जिम आवा नां अखिया, शक्र ईशाण नां सोय । तिमहिज अवलोकन तणां कहिये आलावा दोय || हे प्रभु ! शक्र देवेंद्र ते, ईशाण इंद्र ने साथ । एक बार बार-बार ते, समर्थ करिया बात ? जिन भारी समर्थ अछे जिम आवा नो दोष आलावा जे आखिया, तिमज संभाषण जोय || , ! शक देवेंद्र ते ईशाजेंद्र ने सोय । 1 छै " प्रभु ! शक ईशाण नैं कृत्य प्रयोजन जाण । कार्य करिया योग्य ते ? हंता कहै जिन भाषण || अथ किम ते कार्य करें ? जिन कहै शक्र सुरराय । आवे ईशाण इंद्र पे ईशाद्रक आय ।। ए कार्य भो आमंत्रणे, शकेंद्र ! सुरराय ! दक्षिणार्द्ध लोक नां अधिपति ! ईशाणेंद्र वर्द वाय ॥ *लय शीतल जिन शिवदायका ३३८ भगवती - जोड़ ५. गोयमा ! से जहानामए करयले सिया - देसे उच्चे, देसे उन्नए । देसेणीए, देसे निष्णे । से तेणट्ठेणं गोयमा ! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो जाव ईसि निण्णतरा चेव । ( ० २०१५) ६. पभूणं भंते! सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवष्णो अंति पाउभक्त्ति हंता प (१० ३।२६) ७. से भते ! कि आढामाणे पभू ? अणाढामाणे पभू ? ८. गोयमा ! आठामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू I (श० २०२७) ६. पभू णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया सक्क्स्स देविंदस्स देवी अंति पा उम्मविए ? ताप (०२।२० ) १०. से कि आदामा पभू? अगादामाणे पभू ? गोयमा ! आढामाणे विपभू, अणाढामाणे वि पभू । (०२०५९) ११. पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया ईसाणं देविदं देवरायं पक्खि पडिदिसि समभिलोइत्तए ? १२ जहा पादुब्भवणा तहा दो वि आलावगा णेयव्वा । (श० ३१६०-६३) १३. पभू णं भंते! सक्के देविदे देवराया ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सद्धि आलावं वा संलावं वा करेत्तए ? १४. हंता पभू । (२०२०६४) जहा पादुब्भवणा तहा दो वि आलावगा णेयव्वा । (४० २१६२-६७) १५. अस्थि णं भंते ! तेसि सक्कीसाणाणं देविदाणं देवराईणं किच्चाई कर णिज्जाई समुप्पज्जंति ? हंता अत्थि । (म० २०६८) 'किच्चाई' ति प्रयोजनानि 'करणिज्जाई' ति विधेयानि । ( वृ० प० १६९ ) १६. से कहमिदाणि पकरेंति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवति, ईसाणे वा देविंदे देवराया सक्करस देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवति १७. इति भो ! सक्का ! देविंदा ! देवराया ! दाहिणड्ढलोगा। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ए कार्य भो आमंत्रणे, ईशाणेंद्र ! उत्तरार्ध लोक नो अधिपति ! शक व भो इति आमंत्रण कही प्रयोजने कार्य करिया योग्य ते करता हे प्रभु! म ईमाण नं, देवराजा विवाद माहोमां है ऊपजै ? जिन कहै ते किम विवाद का करें जिन क सुरेंद्र सनतकुमार सनतकुमार नै मन में शक ईशाण सुरेंद्र ते सनतकुमार देवेंद्र ते सुरराय ! इम वाय ॥ मांहोमाय । राय ॥ विचरै 永 हंता श धारं ताय । थाय ॥ ईशाण । जाण ॥ ताय । मनसा कीधै उभय कने ते, उभय कनै झट आय || सुविहान । - P आज्ञा उपपात वचन ते, निर्देश भाव ते वि रखा, उभय इंद्र हे प्रभु! सनतकुमार ते, देवराजा ते स्यूं छै भवसिद्धियो के अभवसिद्धियो जान ? समदृष्टी के मिच्छट्टिी परित अनंत-संसार सुलभ दुर्लभ योधि अछे आराधक विराधक धार ? नरिम के अपरिम, पूछा द्वादश एह वर्तमान काल नीं पूछा कीधी जिन कहै सनतकुमार ते, भवसिद्धियो छै नहीं है ते अभयसिद्धियो, म समदृष्टी परित संसारी ते अर्थ, सुलभ सुलभ - बोधी आराधक चरिम सुरभवे, प्रशस्त बोल षट बोल । सनतकुमार । तिणवार || अमोल || सोय । जोय || तेह एह ॥ ताय । for अर्थे प्रभु ! एक ह्या बोल भला पट जिन कहै सनतकुमार ते, देवेंद्र देव नो राय ।। बहु समण अनं समणी तणों, दह धावक धावकोनो ताय हित सुख प्रति वंछे अछे, सनतकुमार सुर- राय ॥ पत्थकामए पाठ ए, दुक्ख त्राण अर्थ वृत्ति मांहि । दुख न हेतु कर्म छे से टलवा बांछे ताहि ।। आणुकंपिए कृपावान है, निःश्रेयस मोक्ष कहाय तेह विधै नियुक्त नीं परे, जिन्सेसि का ताय ।। हित जे सुख दुख का ते सर्व नों छणहार । सनतकुमार सुरेंद्र ते, एहवु छे अधिक उदार ।। १८. इति भो ! ईसाणा ! देविंदा ! देवराया ! उत्तरढलोगावि १६. इति भो ! इति भो ! त्ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति । (०३०६६) २०. अत्थि णं भंते ! तेसि सक्कीसाणाणं देविदाणं देवराईणं विवादसमुपज्जति ? हा अि (स० २४०० ) २१. से कहमिदाणि पकरेंति ? गोमा ! ताहे चेव णं ते सक्कीसाणा देविंदा देवरायाणो सकुमारं देविदं देवरायं मणसीकरेंति । २२. तए से कुमारे देवि देवराया तेहि सह देविदेहि देवराईहि मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविदाणं देवराईणं अंतियं पाउन्भवति, २३. जं से वदइ तस्स आणा उववाय वयण निद्देसे चिट्ठति । (०२३२७१) २४. कुमारेणं ते देविदे देवराया कि भवसिद्धिए? अभवसिद्धिए ? २५ २६ सम्म ? मिनविट्टी परितसंसारिए ? अनंतसंसारिए ? मुलवोहिए? दुल्लवोहिए? आराविराह? चरिमे ? अचरिमे? २७. गोयमा ! सणकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए सम्मीिमो मच्छी 1 २८. परितारिए नो अनंतसंसारिए। सुलभबोहिए, नो दुल्लभवोहिए। वराहए नो विराहए। परिमे, मो अचरिमे । ( श० ३।७२ ) २१. से भी ! - गोयमा ! सणकुमारे णं देविदे देवराया ३०. समागमणी बहू सावया बहू साविधायिकामए मुकाम ३१. पत्थकामए पथ्यं - दुःखत्राणं । ३२. आप नियसिए 'आणुकंपिए' त्ति कृपावान्, नियुक्त इव नैःश्रेयसिकः । (१०-१० १६९) निश्रेयसं मोक्षस्तत्र (२०-५० १६६) ३३. हिय-सुह- निस्सेसकामए । हिम् अदुःखानुबन्धमित्यर्थः तन्निः शेषाणां-सर्वेषां कामयते - वांछति यः सः । (१०-१० १६९) श० ३, उ० १, ढा० ५५ ३३६ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. सोरठा च्यार तीर्थ नै सार, वंछ हित सुख पथ्य शिव । लक्षण एह उदार, विशिष्ट समदृष्टी तणां ।। *तिण अर्थे करि गोयमा ! सनतकुमार सुरराय । भवसिद्धियो जाव चरिम छै, अचरिम कहिये नांय ।। ३५. 'तिण अर्थे करि गोयमा ! सनतकुमार सुरराय। ३५. से तेपट्टेणं गोयमा ! मणकुमारे देविदे देवराया ३५. से तेणट्टेणं गोयमा ! सणंकूमारे णं देविदे देवराया भवसिद्धिए जाब चरिमे नो अचरिमे। (श० ३।७३) ४२. सोरठा 'सनतकुमार सुरराय, देवभवे चिउं तीर्थ नों। हित प्रमुख कहिवाय, वांछ छै इहां इम कह्यो ।। केइ अज्ञानी धार, कहै पाछल भव नैं विषै। च्यार तीर्थ नैं आर-पोख्या तिण सू इंद्र हुओ।। इहां आख्यो वर्तमान, सुर भव केरी वारता। पिण पाछिल भव नी जान, न कही सनतकुमार नीं। पाछिल भव नी जाण, पूछा ईशाण-इंद्र नी। तीजे शतक पिछाण, प्रथम उद्देश पाठ' ए।। किण्णालद्धे आद, पाठ कह्या छै सूत्र में। किण करणी ऋद्धि लाध, पूर्वभव में कुण तो।। कवण नाम कुण गोत, कवण ग्राम नगरे हुंतो। जाब सन्निवेसे होत, एहवी पूछा छै तिहां ।। तीजे शतक पिछाण, दूजै उद्देशै बली। चमर पूर्वभव जाण, त्यां पिण एहवा पाठ छै ।। अठारमै शतक सोहंद, दूजे उद्देश वली। पूरवभव सक इंद, त्यां पिण एहवा पाठ छै ।। सुबाहु मृगापूत, विपाक माहै वारता। प्रश्न पूर्वभव सूत, त्यां पिण एहवा पाठ है ।। शुक्र चंद्रमा सूर, पूरवभव बहुपुत्तिया। पुफिया उपंग पंडर, जाव शब्द में पाठ ए।। इत्यादिक बहु ठाम, पूर्वभव नां पाठ ते। इहां नहि आख्या नाम, देखो ज्ञान दृष्टे करी।। सनतकुमार अधिकार, एहवा पाठ कह्या नहीं। तिण सूं पूर्वभव विस्तार, नहीं छै सनतकुमार नों।। ए वर्तमान-भव बात, पत्थ-काम दुख-त्राण ए। हित विशेष आख्यात, पिण इहां पत्थ ते आहार नहि ।। *लय-शीतल जिन शिवदायका १. ईसाणेणं भंते ! देविदेणं...किण्णा लद्धे? किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमण्णागए ? के वा एस आसि पुब्वभवे ? किनामए वा? किंगोत्ते वा ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा?... (श० ३।३०) ३४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. चवदम उत्तराझेण, गाथा अडतालीसमी। पत्थ ते हित अर्थेण, पिण अर्थ आहार नों त्यां नहीं ।। भगवती पनरमै पेख, पत्थकामए नों अरथ। आनंद कारण देख, पत्थ इव पत्थ क ह्यो तिहां।। तिम इहां पिण अवलोय, पत्थकामए नों अरथ । दुःख-त्राण आख्यो सोय,पिण इहां आहार कह्यो नहीं।। सनतकुमार देवेंद, बांछै छै हित मुख प्रमुख। एहवो पाठ अमंद, इह विध आख्यो इंद्र नैं ।। तिण सं वांछा एह, इंद्र तणां भव नीज छै। वलि षट बोल कहेह, ते पिण इंद्र तण भवै।। पूर्वभव कह्यो नाय, वर्तमान भव ए कह्यो। हिव निसणो सुखदाय, भव-स्थिति अरु आगामिके' ।। (ज०स०) ५५. *सनतकुमार देवेंद्र नी, किता काल नी स्थित्त ? जिन कहै सात सागर तणी, परम आउखो पवित्त ।। ५६. प्रभु ! आयु-भव-स्थिति क्षय करी, चव जासी किण ठाम ? जिन कहै महाविदेह सीझसी, सेवं भंते ! स्वाम ।। ५५. सणकूमा रस्स णं भंते ! देविदस्स देवरणो केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! सत्त सागरोवमाणि ठिती पण्णत्ता। (श० ३।७४) ५६. से णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अतरं चयं चइत्ता कहि गच्छिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति। (श० ३१७५) सेवं भते ! सेवं भंते ! (श०३७६) ५७. छ्ट्ट मासो अद्धमासो वासाइं अदु छम्मासा। तीसग-कुरुदत्ताणं, तव-भत्तपरिण्ण-परियाओ ।। ५८. उच्चत्त विमाणाणं, पाउब्भव पेच्छणा य संलावे। किच्च विवादुप्पत्ती, सणंकुमारे य भवियत्तं ।। (श० ३।७६ संगहणी-गाहा) ५७. छठ अठम मास अर्द्धमास नों, आठ वर्ष पट मास । तीसक, कुरुदत्त-पत्र न, तप अणसण दीक्षा तास ।। विमान न ऊंचापणं, प्रगट थायवो तसं पेख । संभाषण कार्य विवाद ए, सनतकुमार भव्य देख ।। ५६. अर्थ अंक इकतीस नं, पच्चावनमीं ढाल। भिक्खु भारीमाल ऋपराय थी, 'जय-जश' संपति माल ।। तृतीयशते प्रथमोद्देशकार्थः ।।३।१।। ढाल : ५६ दहा पढमुद्देश सर-विकुर्वण, द्वितीये तास विशेख । असर तणीं गति-शक्ति नीं, जेह परूपणा देख ।। १. प्रथमोद्देशके देवानां विकुर्वणोक्ता, द्वितीये तु तविशेषाणामेवासुरकुमाराणां गतिशक्तिप्ररूपणायेदमाह (वृ०-५० १६६) *लय-शीतल जिन शिवदायका श०३, उ०१, २, दा०५५, ५६ ३४१ Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ४. ५. तिण काल ने तिण समय, नगर राजगृह नाम जावत परपद वीर नीं सेव करे गुण-धाम ॥ लिए काले ने ति समय, चमर असूर दंद्र जान चमरचचा रजधानीए सभा सुधर्मा मान ।। चमर घाण ने दिये, उस सहस्र सामान'। जाव नाटक देखाल नैं गयो आपण स्थान || हे भदंत ! इह विध कही, कर वंदना नमस्कार । भगवंत गोतम वीर ने, इम बोल्या गुणधार ॥ * प्रभुजी ! थांरी वचनामृत झरी प्यारी, वचनामृत शरी प्यारी भविक गुण, ६. छै प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वीतल असुर वसे सुख भेट ? वीर कहे अर्थ समर्थ नाही, इम जाव तमतमा हेठ हो । ७. सुधर्म - कल्प हेठ इम यावत्, सिद्ध- शिला तल जाणी ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ए, इहां असुरकुमार न ठाणी ॥ तन मन हरष अपारी ॥ ( ध्रुपदं ) ! ८. हे भगवन्! ! अथ पनि किहो प्रभु जिन कड़े इक लक्ष असी सहस, मही C. इक सहस्र योजन ऊपर तल, मूकी विच तसुं वासं । एम असुर नीं वक्तव्यता ते जाव विचरै करत विलासं ॥ १०. प्रभु! असुर नों अधोगति विषय ? जिन कहै हंता जाणी । हे प्रभु! कितरो असुर तनों तल-गमन विषय पहिछाणी ? ११. जिन कहै रत्नप्रभा थी मांडी, विषय तीजी मही लग पूर्वे गया छै, जास्यै १२. किस कारण प्रभु तीजी महिलग, असुर जिन कहै पूर्वभव अरि-नारक, देवा तसुं गया असुरकुमार बसाई ? योजन रत्नप्रभाई ॥ १. सामानिक देव *लय असवारी नीं १३. अथवा कोइक जीव पूर्वभव, मित्र-नरक बेदन ३४२ भगवती-जोड़ सातमी अनागत तांई । ज्यांही ॥ जासी ? दुख-रासी ॥ दुख-रासी । तास मिटावा अर्चे, तृतिय गया ने जासी ॥ मैं २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्या जाव परिसा पज्जुवासइ । (८० १२००) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुम्माए, ४. चमरंसि सहायसि चट्ठीए सामाि जाय नटविहि उपाजामेव दिसि पाउए तामेव दिसि पडिगए । (श० ३।७८) ५. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं व्यासी ६. अस्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठे । (०२४७९) एवं जाय असत्तमाए डीए ७. सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अत्थि णं भंते ! ईसिप्पभारा पुढवीए अहे असुरकुसारा देवा परिवसंति ? इट्ठे समट्ठे । (श० ३1८०) ८. से कहि खाइ णं भंते ? असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोपमा इमीगणभावीए असीत रोषण सयसहस्सबाहल्लाए १. एवं असुरकुमारदेववतव्या जाय दिलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । (०२३२८१) १०. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं आहे गतिविसए ? हंता अस्थि । (श० ३1८२) केवतियण्णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं आहे गतिविसए पण्णत्ते ? ११. माजा असत्तमा वीएस पुरवि गयाय गमिस्संति य । (१० २००३) १२. किं पत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढवि गया य गमिस्संति य ? गोयमा ! पुव्ववेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, १३. पुण्यसंगतियरस वा वेदण उवसामगवाए एव तु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढवि गया य गमिस्संति य । (०२२०४) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. छै प्रभु ! तिरछो गमन-विषय तसं ? जिन कहै हंता जाणी। हे प्रभु ! कितरो असुर तणो, तिरिच्छ-गति-विषय पिछाणी? १४. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरिय गति विसए पण्णत्ते? हंता अत्थि। (श० ३८५) केवतियण्णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गति विसए पण्णत्ते? १५. गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव-समुद्दा, नंदिस्सरवरं पुण दीवं गया य गमिस्संति य । (श० ३८६) १५. जिन कहै जाव असंख द्वीपोदधि, विषय - मात्र ए जाणी। द्वीप नंदीस्वर गया जायस्यै, हिव तसं न्याय पिछाणी ।। १६. असर दक्षिण नां उत्तर कानी, द्वीप नंदीस्वर जावै। उत्तर नां पिण दक्षिण कानी, नंदीस्वर लग धावै ।। १७. किण कारण प्रभु ! असुर नंदीस्वर, द्वीप गया नै जासी? जिन कहै अरिहंत भगवंत केरा, जन्म - महोत्सव रासी ।। १८. दीक्षा-महोत्सव केवल-महोत्सव, महिमा वलि निरवाणं । असुर नंदीस्वर गया जायस्यै, इम निश्चै कर जाणं ।। १६.छै प्रभु ! ऊर्ध्व गति-विषय तेहनों? जिन कहै हंता जाणी। हे प्रभु ! कितरो असुर देव नों, ऊर्ध्व-गति-विषय ठाणी ? २०. जिन कहै यावत् अचू-कल्प लग, सुधर्म गया रु जासी। किस कारण प्रभु ! गया सधर्मे, बलि जास्यै सखरासी? २१. जिन कहै असुर वैमानिक सुर रै, भव - प्रत्यय जे वैरो। क्रोध करी महारूप विकुर्वे, तास डरावण केरो।। २२. तथा भोग पर - देवी संगे, आत्म - रक्षक नै तपावै। रत्न लघ ले एकांते जावै, मोटा रत्न गोपवणी नावै ।। १७. कि पत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवर दीवं गया य गमिस्संति य? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो, एएसि णं जम्मण महेसु वा, १८. निक्खमणमहेसु वा, नाणुप्पायमहिमासु वा, परिनिव्वा णमहिमासु वा-एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदिस्स रवर दीवं गया य गमिस्संति य। (श० ३८७) १६. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढे गतिविसए? हंता अत्थि। (श०३८८) केवतियण्णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढं गति विसए? २०. गोयमा ! जाव अच्चुतो कप्पो, सोहम्म पुण कप्पं गया य गमिस्संति य। (श०३६) कि पत्तियणं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य? २१, २२. गोयमा! तेसि णं देवाणं भवपच्चइए बेराणुबंधे, ते ण देवा विकूधमाणा परियारेमाणा वा आयरक्खे देो वित्तासेंति अहालहुसगाई रयणाई गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति। (श०३।६०) 'विउव्वेमाणा 'व' ति संरम्भेण महक्रियशरीरं कुर्वन्तः परियारेमाणा व'त्ति परिचारयन्तः परकीय देवीनां भोग कर्तुकामा इत्यर्थः। (वृ०-५० १७४) २३. अस्थि णं भंते! तेसि देवाणं अहालहसगाई रयणाई? हंता अत्थि। (श० ३।६१) २४. से कहमिदाणि पकरेंति ? अथ किमिदानी रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिका रत्नादातणामिति । (वृत-प० १७४) २५. तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति। (श० ३।६२) तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्महतमुत्कृष्टतः षण्मासान् यावत्। (वृत-प०१७४) २३. छै प्रभ ते वैमानिक मर नै, नान्हा रत्न सयोग्य ? श्री जिन भाखै हंता अत्थि, छै लघु रत्न प्रयोग्य ।। २४. रत्न लेइ एकांत गया पछै, वैमानिक सुर सोय। रत्न तणां जे लेणहार ने, कवण करै अवलोय ? २५. जिन कहै तेह असुर नां तनु नै, हण जघन्य अंतर्मुहूत्तं उत्कृष्टो, छ पीड उपजावै। मासे दुख पावै ।। श०३, उ०२, ढा०५६ ३४३ Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. तेह असर सुरलोक रह्यो छतो, ते अपछर साथै ज्यांही। भोग भोगविवा समर्थ छै प्रभु ! जिन कहै समर्थ नाही ।। २७. निज भवने ल्यावै अपछर नै, अपछर आदर तो तिण सेती भोग भोगविवा समर्थ मिथुनज देवै। सेवै॥ २८. देवी असुर नैं आदर न दिये, स्वामीपणे न जाणें । अपछर साथे भोग भोगविवा, समर्थ नहीं ते टाणे ।। २६. असुर मुधर्म गया जास्य इम, बलि शिष्य प्रश्न विमासी। काल कितै प्रभु ऊंचो यावत्, सुधर्म गया रु जासी? ३०. श्री जिन भाखै काल इतो थयां, अव-उत्सर्पिणी आश्चर्यभूत अच्छेरग जग में, असुर सुधर्म अनंती। जती॥ २६. पभू णं भंते ! असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए? णो इणठे समझें। २७. ते णं ततो पडिनियत्तंति, ततो पडिनियत्तित्ता इहमाग च्छंति । जइ णं ताओ अच्छराओ आढायंति परियागंति, पभू णं ते असुरकुमारा देवा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए। २८. अह णं ताओ अच्छराओ नो आदति, नो परियाणंति, नो णं पभू ते असुरकुमारा देवा ताहि अच्छराहि सद्धि दिब्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरित्तए। २६. एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य। (श० ३।६३) केवइयकालस्स णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्प यति जाव सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य? ३०. गोयमा ! अणंताहिं ओसप्पिणीहि, अणंताहि उस्सप्पि णीहि समतिक्कंताहि अत्थि णं एस भाबे लोयच्छेरयभूए समुप्पज्जइ, ज णं असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। (श० ३।६४) ३१. कि निस्साए णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो? गोयमा ! से जहानामए इहं सबरा इ वा बब्बरा इ वा टंकणा इ वा चुचुया इ वा, पल्हा इ वा पुलिंदा इ वा शबरादयोऽनार्यविशेषाः। (वृ०-प०१७४) ३२. एग महं रणं वा गड्ढं वा दुग्गं वा दरि वा विसमं वा पब्वयं वा नीसाए 'गड्ढे व' त्ति गर्ता 'दुग्गं व' त्ति जलदुर्गादि। (वृ०-५० १७४) ३३. सुमहल्लमवि आसवलं वा हत्थिबलं वा जोहबलं वा धणुबलं वा आगलेंति, आकलयन्ति जेष्याम इत्यध्यवस्यन्तीति । (वृ०-१० १७४) ३४, ३५. एवामेव असुरकुमारा वि देवा नण्णत्थ अरहते वा अरहंतचेतियाणि वा अणगारे वा भाविअप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । (श० ३।६५) ३१. किण नेश्राये असुर सुधर्म, जिन कहै दे दृष्टंद। सबर बबर ढंकण चुचु पल्हव, देश अनार्य पुलिद ।। ३२. एक महाअटवी में गर्ता, दुर्ग जले करि ताय । गुफा विषम पर्वत नेथाये, ते जुद्ध करिवा जाय। ३३. महा हय गय रथ सुभट धनुर्धर, वल प्रति हूं जीतेतूं। इम चितवनै जाय अनार्य, भागां त्यां छिप रहेसू ।। ३४. असुरकुमारा देवा पिण जे, इण दृष्टांते ताह्यो। तीन सरण बिण अन्य सरण थी, स्वर्ग सुधर्म न जायो। ३५. अरिहंत अथवा अरिहंत-चैत्यज, तथा भावितात्म अणगारं । यां नेथाये ऊंचो जावै, जाव सुधर्मे सारं ।। सोरठा ३६. केवलज्ञान - सहीत, ते अरिहंत पहिलो सरण । छास्थ - जिन संगीत, चैत्य सामान्यज्ञानी तिको ।। ३४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजे वर अणगार, भावित संजम तप करी। ए त्रिहुं शरण विचार, असुर सुधर्मे गति कही ।। चमर गयो सुधर्म, शके मूक्यो वज्र तब । पछै विचारचो मर्म, इह शरणे आवै चमर ।। अरिहंत, अरिहंत-चैत, भावित-आत्मा मुनिवरू। मूक्यो वज्र सुहेत, ते माटै होवै रखे। अरिहंत नै भगवंत, आसातना अणगार नी। चैत्य ठाम ए तंत, आख्यो छै भग पाठ ए।। इहां भग कहिय ज्ञान, चैत्य स्थान भग पाठ है। तिण सं अर्थ चैत्य जान, ज्ञान होवै इह कारण ।। तिण सू चउनाणी अरिहंत, अरिहंत-चैत्यज जाणवा। ए दूजो शरण कहंत, तीजै शरण अन्य मुनि ।। ए विहं नी नेवाय, सूधर्म जाये असुर जे। यां सरणांविण नहि जाय, बलि हिव गोयम प्रश्न इम'।। (ज० स०) ४४. *सह पिण असुरकुमारा देवा, हे प्रभु ! ऊंचा जाई ? जाव सौधर्म-कल्प तव जिन कहै, अर्थ समर्थ ए नांही। ४५. महाऋद्धिवंतज असुरकुमारा, देवा ऊंचा जाई। जाव सौधर्म-कल्प लग जाणी, ए जिन-वाण सुहाई।। ४६. ए प्रभु! चमरज ऊंचो पूर्वे, जावत् गयो सुधर्म । श्रीजिन भाखै हंता गोयम! इह भव आश्री मर्म ।। ४४. सव्वे वि णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? गोयमा ! णो इणठे समठे। ४५. महिड्ढिया णं असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। (श० ३।९६) ४६. एस वि य णं भंते ! चमरे असुरिदे असुरराया उड्ढे उप्पइयपुब्वे जाव सोहम्मो कप्पो? हंता गोयमा ! एस वि य णं चमरे असुरिंदे असुरराया उड्ढं उप्पइयपुब्वे जाव सोहम्मो कप्पो। (श० ३१९७) ४७. अहो णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए महज्जुईए जाव कहिं अणुपविठे ? कूडागारसालादिळंतो भाणियव्वो। (श० ३।६८) ४७. आश्चर्यकारी प्रभु ! चमर नी, महाऋद्धि नै महाकांत । जाव किहां पइट्ठी? तब जिन कहै, कुटागारसाला नो दृष्टांत ।। ४८. अंक बत्तीस नुं देश का ए, ढाल छपनमी वारू । भिवखु भारीमाल ऋषराय प्रसादै, 'जय-जश' संपति सुधारू । ढाल:५७ दहा चमर प्रभु ! असुरेंद्र ते, ते सुर ऋद्धि प्रधान। तं चेव तिमहिज किम लही, किम पामी भगवान ? १. चमरेणं भते ! असुरिदेणं असुररण्णा सा दिब्वा देविड्ढी तं चेव किण्णा लद्धे ? पत्ते ? अभिसमण्णागए? (श० ३।६६) *लय-असवारी नीं श०३, उ०२, ढा०५६,५७ ३४५ Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर कहै सुण गोयमा ! इम निश्चै करि जान । पाछिल भव कहूं चमर नों, सुणो सूरत दे कान ।। *पूर्वभव का चमर नों रे । (ध्रुपदं) गोतम! तिण काल ने तिण समैं रे, एहिज जंबू भरत सुविशेष रे, गोयम ! विजगिरी मूल नै विष रे, बिभेल नाम सन्निवेस रे, गोयम ! ४. तिहां पूरण गाथापति वस, ऋद्धिवंत दीप्ति विख्यात । जेम तामली नी वारता, तिम पूरण नों अवदात ॥ ५. णवरं चिहुं पुड छै जेहनै विष, एहवो काष्ठ पात्र करी ताम । जाव विपुल असणादि निपाय नै, जावत् तेह पात्र ग्रही आम ।। ३. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दी। भारहे वासे विझगिरिपायमले बेभेले नाम सणिवेसे होत्था–वष्णओ। (श० ३।१००) ६. मुंड थइ दानमय प्रव्रज्या, तिमहिज जाव आतापन-भूम। तेहथी पाछो वली नै चउ-पुडो, काष्ठ-पात्र ग्रही तज नम ।। ७. आवि बिभेल नामैं सन्निवेस में, ऊंच नीच मझम कूल मांहि। बहु घर समुदाय भिक्षाचरी, अटन करी आहार ग्रही ताहि ।। ८. प. पडगांना पहिला पुड विषै, ते पंथी पथग - देव आहार । ___ आहार पडै दूजा पुड नै विषै, काग स्वान नै देवू तिवार ।। ६. तीजा पुड में पदार्थ प. तिको, मच्छ कच्छप नैं देवू ताय । चउथा पुड में पडै ते कल्पै मुझे, पोत आहार करेवू काय ।। ४. तत्थ णं बेभेले सण्णिवेसे पूरणे नामं गाहावई परिवसइ अड्ढे दित्ते जहा तामलिस्स वत्तव्वया तहा नेतव्वा, ५. नवरं चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहयं करेत्ता, जाव विउलं असणपाणखाइमसाइमं जाब सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय६. मुंडे भवित्ता दाणामाए पब्वज्जाए पव्वइत्तए। पव्वइए विय णं समाणे तं चेव जाव आयावणभूमीओ पच्चोरु भित्ता सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय ७. बेभेले सण्णिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमु दाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता । ८. जं मे पढमे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं पंथे पहियाणं दल इत्तए । जं मे दोच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं काग-सुणयाणं दल इत्तए। ६. जं मे तच्चे पूडए पडइ कप्पइ, मे तं मच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए। जं मे च उत्थे पुडए पडइ कप्पइ मे तं अप्पणा आहारं आहारेत्तए१०. एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए तं चेव निरवसेसं जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ तं अप्पणा आहारं आहारेइ। (श० ३।१०१,१०२) ११. तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं १२. पग्गहिएणं बालतबोकम्मेणं तं चेव जाव बेभेलस्स सण्णिवेसस्स मझमझेणं निग्गच्छइ १३. पादुग-कुंडिय-मादीयं उवगरणं चउप्पुडयं दारुमयं च पडिग्गहगं एगते एडेड, एडेत्ता १४. बेभेलस्स सण्णिवेसस्स दाहिणपुरथिमे दिसीभागे अद्ध नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणा-झूसणाझूसिए १५. भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे । (श० ३।१०३, १०४) १०. इम रात्रि समै चितवी करी, काले प्रगटी प्रभा गइ रात। तिमहिज सर्व चउथे पुड पडै, पोते आहार करै विख्यात ।। ११. पूरण बाल-तपस्वी तदा, ते तो वांछा-रहित उदार। विपुल दिवस घणां नु तप तिको, गुरु-आज्ञा प्रयत्न विचार ।। १२. पग हिएणं बहुमाने ग्रह्य, बाल-तप करिवै करी तेह। तिमहिज जाव बिभेल सन्निवेस में, मध्योमध्य थइ निकलेह ।। १३. पादुका कुंडिका आदि दे, उपधि काष्ठ-पात्र अवलोय। सर्व एकांते न्हाखी करी, हिवै अणसण धारै सोय ।। १४. बिभेल नामै सन्निवेस थी, ओ तो अग्निकूण माहै जाय। अर्ध निज तनु मात्र मंडल प्रत, आलेखी नै संलेखणा ठाय ।। १५. भात-पाणी पचखी करी, ओ तो पाओवगमन सुपेख। अणसण धार रहै तिहां, इण रा मन मांहि हरष विशेख ।। *तय-हंसा नदिय किनार रूंखडो रे हंसा ३४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. तिण कालै नै तिण समय, म्हारै हुँतो छद्मस्थ काल। दीक्षा लियां नै वर्ष ग्यारै थया, अंतर-रहित छठ-छठ न्हाल॥ १७. संजम तप करि आतमा, भावतो ते वसावतो सार । पूर्वानुपूर्वे चालतो, ग्रामानुग्राम करतो विहार ।। १८. जिहां सुंसुमार पुर नामै नगर छै, जिहां अशोक वन खंड उद्यान । जिहां अशोक प्रवर सुवृक्ष छै, जिहां पृथ्वी-सिला-पट्ट जान ।। १६. तिहां हूं आयो तिण अवसरे, अशोक - तरु - तल जाण । पृथ्वी-सिला-पट्ट नैं विषै, अट्ठम-भक्त ग्रहीधरचोध्यान।। २०. जिन - मुद्राए बे पग संहरी, प्रलंबित-भुज लांबी बांहि । एक पुद्गल विषै दृष्टि स्थाप नै, नासाग्रे दृष्टि अर्थ मांहि ।। १६. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालि याए एक्कारसवासपरियाए छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं १७. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे १८. जेणेव सुंसुमारपुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे जेणेव असोयबरपायवे जेणेव पुढवीसिलावट्टए १६. तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि, २०. दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणी एगपोग्गलनिविट्ठ दिट्ठी 'वग्धारियपाणि' त्ति प्रलम्बितभुजः। (वृ०-५० १७४) २१. अणिमिसणयणे ईसिपब्भार गएणं काएणं, अहापणिहि एहिं गत्तेहिं, सबिदिएहि गुत्तेहिं 'ईसिपब्भारगएणं' ति प्राग्भारः-अग्रतोमुखमवनतत्वम् । (वृ०-५० १७४) २२. एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जेत्ता णं विहरामि । (श० ३।१०५) २१. चक्षु भणी अटमकारव, आगल थकी थोडो नम्यों सुलक्ष । गात्र स्थाप्यूं यथावस्थितपण, सर्व-इंद्रिय-गुप्त प्रत्यक्ष ।। २२. एक रात्रि नी महापडिमा प्रतै, अंगीकार करी विचरंत । भिक्खु-पडिमा ए बारमो, वारू धर्म शुक्ल चित शंत ।। २३. आख्यो अंक बत्तीस न देश ए, वारू सात पचासमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, सुख संपति 'जय-जश' न्हाल ।। ढाल : ५८ दूहा १. तिण कालै नै तिण समय, चमरचंचा अभिधान । राजधानी हुइ इंद्र बिण, पुरोहित-रहित पिछान ।। पूरण वाल तपस्वी तदा, दान-प्रव्रज्या देख । बार वर्ष पाली करी, मास संलेखण पेख ।। साठ-भक्त अणसण प्रतै, छेदी नै करि काल। चमरचचा रजधानीए, उपपात-सभा विशाल ।। ४. जाव इंद्रपणे ऊपनों, अधुनोत्पन्न चमरंद। पंच पर्याप्ति करी हुओ, पर्याप्तो सुखकंद ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया यावि होत्था। (श०३।१०६) २. तए णं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई परियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, ३. सठिं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए ४. जाव इंदत्ताए उववण्णे। (श० ३।१०७) तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया अहुणोववण्णे पंचबिहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ। (श० ३।१०८) श०३, उ०२, ढा०५७,५८ ३४७ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *आवै सुधर्म असुराधिप चमरिंद। (ध्रुपदं) ५. पंच पर्याप्ति करी पर्याप्त-भाव प्रतै असुरिंद। पाम्य छत ऊर्ध्व सहज स्वभावे, अवधि करी जोविद ।। ६. जाव सुधर्म-कल्प अवलोकै, तिहां शक्र सुरेंद्र पहिछान। मेघमाली सुर छै बस जेहन, तिण सूं नाम मघवान ।। ७. पाक नामैं बलवंत रिपु जे, निराकरतो तास । पाकशासन कहिये इण कारण, एहवो है शक प्रकास ।। ५. तए णं से चमरे अमुरिदे असुरराया पंचविहाए पज्ज तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे उड्ढे वीससाए ओहिणा आभोएइ ६. जाव सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ सक्क देविदं देव रायं मघवं 'मघवं' ति मघा-महामेघास्ते यस्य वशे सन्त्यसौ मघवानतस्तं। (वृ०-५० १७४) ७. पाकसासणं। पाको नाम बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति-निराकरोत्यसौ पाकशासनोऽतस्तं । (वृ०-प० १७४) सयक्कतुं शतं ऋतूना-प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कात्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ शतक्रतुरतस्तं । (वृ०-प० १७४) ८. पडिमा पंचम बूहो सौ वेला, कात्तिक भव तिण कारण शतक्रतु नाम छै, एहवो शक अपेक्षाय। महाराय ।। ११. १२. 'वृत्ति विषै कह्य पंचमी, पडिमा जे सौ वार । कीधी छै तिह कारण, शतक्रतु नाम उदार ।। धर पडिमा दर्शन विषै, द्वितीय बार व्रत धार। सामायिक तीजी विष, देशावगासी सार ।। षट पोसा इक मास में, पडिमा तुर्य सुजोय । ए तो चिहं पडिमा सदा, हुवैज छै अवलोय ।। तिण सूं पडिमा ए चिहुं, सौ वेलांज करेह । एहवो नियम नथी तसं, न्याय विचारी लेह ।। वारू पडिमा पंचमी, करी वार सौ ताय। तिण सुं शतक्रतु नाम तसुं, इसो संभवै न्याय' ।। (ज० स०) *मंत्री पंच सय इंद्र तणे मुर, सहस्र-चक्षु छै ताय । इंद्र तणे प्रयोजन वत, तिण सू सहस्राक्ष इम वृत्ति मांय ।। १४ १४. सहस्सक्खं इन्द्रस्य किल मन्त्रिणां पंच शतानि संति, तदीयानां चाक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्यापृततयेन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात्तस्य सहस्राक्षत्वमिति । (वृ०-प०१७४) अथवा सहस्र-चक्षु नो तेज छै, एहवो तेज सलीह। इंद्र तणीं चक्षु नो लहिये, एम कह्यो धर्मसीह ।। वज्र आयुध कर छै तिण कारण, वज्रपाणी कहिवाय । असुर नां पुर नै विदारै तिण सू, कह्यो पुरंदर ताय ।। १६. वज्जपाणि पुरंदरं। 'पुरंदरं' ति असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरस्तम् । (वृ०-प० १७४) १७. जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं यावत् इंद्र दशू दिशि मांहै, तन आभरण नी जाण। कांति करीनै उद्योत करतो, प्रभा तेज पहिछाण ।। __*लय-आव लवणांकुस सझ साझा ३४८ भगवती-जोड़ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. सुधर्म नामा कल्पविषे ते सुधमवतंसक सभा सुधर्मा सिंघासण, तिहां ते १६. जाव प्रधानज देव संबंधिया, भोग एहवो अध्यात्म चिंतित मन में, संकल्प २०. २२. २१. हीणपुन्य चउदस नों अपनों २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. कुण रे एह अपत्थिय - पत्थए, मरण - वांछक दुरंत पंत दुष्ट लक्षण न घणी लज्जा लक्ष्मी दिव्य प्रधान जे देव तणी ऋद्धि, जावत् देव तणों अनुभाव लाधो अम्है, बलि सन्मुख भोगविया में पुन, ते अल्प थोडो छै ओत्सुक्य जेहने, भोग इममितव सामानिक परषद नां, सुर एह कवण रे अपत्थ- पत्थए, जाव काली बूली अमावस जायो । जेह भणी मुझ ए एहवा, एहवें रूप करि युक्त ताह्यो । ताम सामानिक परषद नां सुर, चमर हरष संतोष पाया मन अधिको, जाव भोगवतो देख ऊपनों विशेख || १. चमरेन्द्र के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ । विमान | सुर-राजान ॥ तणी हियो देदीप्यकाय व क्रोधे करि सामानिक बलै परषद नां ऊपना सुर नैं, बोले ह अहो सामानिक ! अमेरो एक अहो सामानिक! अछे अनेरो, चमर दिव्य प्रधान । पाम्यो सुविधान ।। मुझ ऊपर एह । भोगवतो विचरेह || तेजी कहिवाय भोगवै ताय ? भोग हाथ जोडी दश नख कर एकठा, मस्तक नैं विषे ताह्यो । सिर आवर्तन करी साचै मन, बलि अंजलि अधिकायो । जय-विजय करीनैं बधावी, बोले हे देवानुप्रिया ! एह । शक देवेंद्र देव न राजा यावत् ए विचरेह् || अपार । ताम चमरए वचन सुणी नैं, कोप्यो शीघ्र रूठो कोधन उदय यो अति रूद्र रूप हुआ तिणवार ॥ ने विपरीत | रहीत ॥ सुरेंद्र असुर सुण वाय । विगसाय || विध ताय । वाय ॥ सुरराय । इंद ताय ॥ १८. सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कसि सीहाससि १२. जादिव्वाई भोग भोगाई भुजमान पास पाविता इमेयारूये अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जत्था २०. केस एहरिगिरि परिवज्जिए 'दुरंतपंतलक्खणे' त्ति दुरन्तानि - दुष्टावसानानि अत एव प्रान्तानि - अमनोज्ञानि लक्षणानि यस्य स तथा । ( वृ० प० १७४) २१. हीणपुण्ण चाउट से जं णं ममं इमाए एयारूवाए 'ही पुन्नचाउदसे' त्ति हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो होनपुण्यचादेशः किल चतुर्दशी तिथिः पुष्पा जन्मा श्रित्य भवति सा च पूर्णा अत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति अत आक्रोशतयोक्तम् । ( वृ०० १७४) २२२२ए जान दिन्छे देवा भावे ल पत्ते अभियमाग उणि अणुस्सुए विवाई भोग भोगाई भुजमाणे विहरह २४. एवं संपेहेइ संपेत्ता सामाणियपरिसोववण्णए देवे सहावे साता एवं बयासी केस एम देवाणलिया अपत्यपत्याए वाय दिव्वाई भोगभोगाई जमा बिहर ? (१० ३।१०६) २५. तए णं ते सामाणियपरिसोववण्णगा देवा चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा एवं बुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जावया २६. कर दस सिरसावतं मत्यए अंजलि कट्टु २७. जएणं विजएणं वद्भावेति, वृद्धावेत्ता एवं क्यासी-एस गं देवापिया ! सक्के देवि देवराया व दिव्वाई भोगभोगाई जमाणे विहर ( ० २०९१०) २८. तए से चमरे असुरिदे असुरराया तेसि सामाजियपरिसोवा देवागं अंतिए एमट्ठे सोना निसम्म आसुरुते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए २६. मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी ३०. अण्णे खलु भो ! से सक्के देविदे देवराया, अण्णे खलु भो ! से चमरे असुरिदे असुरराया, श ३, उ० २, ढा०५८ ३४६. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. अहो सामानिक ! छे महाऋद्धिवंत, शफ सुरेंद्र सुरराय अहो सामानिक ! छे अल्प ऋद्धिवंत, चमर असुर इंद्र ताय ॥ ते भणी हूं छं छू मक नीं, देवेंद्र देव राजा नीं । आशातना करवी इम कहीनें, थयो उष्ण उष्णभूत जानी ॥ सोरठा उष्ण कोप संताप, तेही जे पनी उष्ण भाव प्रति व्याप, स्वभाव थी पिण ते हुवै ।। तिण सूं आगल ताम, उष्णभूत ए क्रोध करि । उष्णपणुं ए पाम, स्वाभाविक ए उष्ण नहि ॥ * ताम चमर ते असुर तणो इंद्र, अवधि करी अवलोय । मुझनें देख इसो अध्यातम जायत् अपनों सोय ॥ श्रमण भगवंत महावीर निश्चे इम, जंबूद्वीप भरत सुंसुमार । अशोक वन खंड अशोक तरु तल, पृथ्वी - शिलापट्ट सार ।। एक रात्रि नीं महापडिमा प्रति विचरे कर अंगीकार । थेंब मुझ वीर नेवाय शक्र नी, करू आशातना इह वार ॥ इम चितव सेज्या थी ऊठी, देवदूप्य पहिरंत जे उपपात -सभा नैं पूरव-द्वार करी निकलंत || जिहां सुधर्मा सभा बलि छै, जिहां चोफाल प्रहरण कोश | ए आयुध नीं शाल अछे जिहां आवै धरती जोस || भोगल में आकार एवं फलिह रमण यही हाथ सखाइया विण चाल्यो एकलो, बीजो को नहीं साथ || ॥ सोरठा इहां एक कहिवास, बहु परिवार विर्ष अपि । वंचित नहीं सहाय, ते पिण इक वबहार थी । अथवा आगल एह, बीजो को नहिं इम कह्यो । पिंड मात्र पिण तेह, द्वितीय तणाज अभाव थी । *परिग्रही महाअमरस धरतो, चमरचंचा मध्य पद आयो तिगिच्छकटे, गिरि उत्पात जावत् दूजी बार बार वैकिय, समुद्घात ताम चमर संख्यात जोजन नों, दंड करें * लय - आवे लवणांकुस सझ साझा ३५० भगवती जोड़ राजधानी । पिछानी || करि सोय । अवलोय || ३१. महीए भो से सबड़े देवि देवराया, अ डीए खलु भो से मरे अि ३२. तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कट्टु उसिणे उसिणब्भूए यावि होत्या । ( ० ३।१११) ३३. 'उसिणे' त्ति उष्णः कोपसन्तापात् कोपसन्तापजं चोष्णत्वं कस्यचित् स्वभावतोयस्याविवाह (२०१० १०५) ३४. 'उसिणभूए' त्ति अस्वाभाविक मोष्ण्यं प्राप्त इत्यर्थः । ( वृ० प० १७५ ) ३५. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहि पउंजइ, पउंजिला ममं ओहिणा आभोएड, आभोएता इमेयावे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था ३६. एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे भारहे वासे सुसुमारपुरे नयरे असोगसंडे उज्जाणे असोगवरपायवस्स आहे २७. अट्टमभन्त्तं परिष्टिता एमराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरति तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं णीसाए सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासाइतए ३. इति एवं स संपेतास अट्ठेत्ता देव परिपा ३६. जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेव उबागच्छइ, ४०. फलिहरयणं परामुसइ, एगे अबीए ४१, ४२. एकत्वं च बहुपरिवारभावेऽपि विवक्षित सहायाभावाद् व्यवहारतो भवतीत्यत आह- 'अबिइए' त्ति अद्वितीय पिंडरूपमात्रस्यापि द्वितीयस्याभावादिति । (१०० १७५) ४३. फलिहरयणमायाए मया अमरिसं वह्माणे चमरचिंचाए रायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ ४४. उपागता वेव्ययसमुग्धापूर्ण समोहम्मद Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. जाव उत्तर वैक्रिय रूप ते, नवो विकर्वे ते उत्कृष्टी गति करि यावत्, आयो म्हारै शरीर। तीर ।। ४६. तीन प्रदक्षिण दे मुझ वंदी, नमण करी कहै वाय। वांछं प्रभु ! तुझ नेवाय शक नी, करवी आशातन ताय ।। ४७. इम कही ईशाण कण में जइ नै, करि वैक्रिय - समुद्घात। जाव बीजी वार समुद्घात करि, मोटी देह रची विख्यात ।। ४८. इक महा घोर डरावण रूप जे, बीहामणो भय उपजावणहार भीम ते, आकार आकार। भयदातार ।। ४६. भासुर ते देदीप्यमान छ, भय हेतू सेन्य सरीस। उल्का स्फुलिंगादिक सेन्या, बिखरया अवयव दीस ।। याद आयां पिण उद्वेग ऊपजे, अमावस्या अधं रात। उडद नी रास सरीखी काया, योजन लक्ष विख्यात ॥ ४५. समोहणित्ता जाव उत्तरवेउब्वियं रूवं विकुबइ, विकु वित्ता ताए उक्किट्ठाए...जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, ४६. उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ जाब नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भ नीसाए सक्क देविदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए ४७. इति कटु उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमेइ, अब क्कमेत्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता जाव दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ ४८. एग महं घोरं घोरागारं भीमं भीमागारं 'घोरं' ति हिंस्रां, कथम् ?–यतो 'घोराकारां हिस्राकृति 'भीम' ति 'भीमां' विकरालत्वेन भयजनिकां, कथम् ? –यतो 'भीमाकारां' भयजनकाकृति । (वृ०-५० १७५) ४६. भास भयाणीयं गंभीर 'भासुरं' त्ति भास्वरां 'भयं भयहेतुत्वादनीकं-तत् परिवारभूतमुल्कास्फुलिंगादि सैन्यं यस्याः सा भयानीका, 'गंभीर' ति गंभीरां विकीर्णावयवत्वात् । (व०-प०१७५) ५०. उत्तासणयं कालड्ढरत्त-मास रासिसंकासं जोयणसय साहस्सीयं स्मरणेना युद्वेगजनिकां। (वल-प०१७५) ५१. महाबोंदि विउव्व इविउव्वित्ता, अप्फोडेइ 'महाबोंदि' न्ति महाप्रभावतनुम् 'अप्फोडेइ' त्ति करास्फोटं करोति। (वृ०-प० १७५) ५२. बग्गइ गज्जइ, यहेसियं करेइ, हत्थिगुलगुलाइयं करेइ, रहघणघणाइयं करेइ, ५३. पायदद्द रगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयइ, 'पायदद्दरगं' ति भूमेः पादेनास्फोटनम् ।(वृ०-५० १७५) ५४. सीहणादं नदइ, उच्छोलेइ पच्छोलेइ 'उच्छोलेइ' त्ति अग्रतोमुखां चपेटां ददाति 'पच्छोलेइ' त्ति पृष्ठतोमुखां चपेटां ददाति। (वृ०-प०१७५) ५५. तिवति छिद, 'तिवई छिदइ' ति मल्ल इव रंगभूमौ त्रिपदीच्छेद करोति। (वृ०-प० १७५) ५६. वाम भुयं ऊसवेइ, दाहिणहत्थपदेसिणीए अंगुट्ठणहेण य वितिरिच्छं मुहं विडं वेइ, 'ऊसवेइ' त्ति उच्छृतं करोति 'विडंबेइ' त्ति विवृतं करोति। (वृत-प०१७५) ५७. महया-महया सद्देण कलकल रवं करेइ एगे अबीए फलि हरयणमायाए उड्ढे बेहासं उप्पइए ५१. एहवी मोटी देह विकूर्वी, कर-आस्फोटन करतो। दोनइ हाथ भेला कर पीटै, भूमि आलिंगन धरतो।। ५२. शब्द गर्जारव करै घन सरीखो, गज नी पर गुलगुलाट। हय नी पर हींसारव करतो, रथ नी पर घणघणाट ।। पगे करी पृथ्वी आस्फोटन, करतो अधिक अपार। भमि चपेटा प्रहार करीन, विदारै तिणवार ।। सीहनाद रव सिंघ तणी पर, दै आगल मुख नै चपेटा। पूठ थकी पिण दिय चपेटा, रूप विकराल सुधेटा ।। ५५. रंग-भमिका विष मल्ल जिम, त्रिपदी छेद करतो। विविध प्रकारै करै कुचेष्टा, पिण किण सं न डरतो।। ५६. वामी भुजा प्रतै करि ऊंची, जीमणा कर नों जोय। अंगूठा नां नख सूं तिरछो, मुख विटंबै सोय ।। ५७. मोटे शब्दै कलकल फलिह नामै रत्न करतो, एकलो अवर न साथ । लेइन, गगने चलियो जात ।। श० ३, उ०२, ढा०५८ ३५१ Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. ५६. अधोलोक खोभावतो जाणक, जाण मेदनीतल कंपातो। जन थी आकर्षतो तिरछा-लोक नै, सुधर्म स्वर्गे जातो॥ जाणक अंबर तल फोडतो, किणही स्थान गाजतो। किणही स्थानक बीजल नी पर, चमकत नै झबकंतो।। किणही स्थानक मेह बरसाव, रजो वष्टि किहां करतो। अंधकार ते तमसकाय प्रति, किणही स्थानके धरतो।। व्यंतर - सुर नै त्रास विशेष, उपजावतो हरषावै। जोतिषि बे भागे करतो, बीच निकलतो जावै॥ आत्मरक्षक नै त्रास पमावत, करतो अति तोफान । परिघ आयुध नै आकाशतल में, उलालतो द्युतिमान ।। ६१. भाषा ६२. ६३. ते उत्कृष्टी गति कर चालत, जाव तिरछा असंख्यात। द्वीप समुद्र नै मध्य थइ नै, उलांघतो थको जात ॥ ६४. जिहां सुधर्म - कल्प सुधर्म-अवतंसक बीच ए शक विमाण। जिहां सुधर्मा शक सभा छ, तिहां आयो धर माण ।। इक पग पद्मवेदिका ऊपर, सुधर्मा-सभा पग एक। अजाणचकरो' आवी ऊभो, रूप विकराल विशेख ।। परिघ रत्न ते आयुध करिकै, मोटै मोटै रव ताय । प्रतोली कपाट युग मध्य प्रतै ए, तीन बार कूटी कहै वाय ।। ५८. खोभते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं साक ड्ढते व तिरियलोयं ५६. फोडेमाणे व अंबरतलं कत्थइ गज्जते, कत्थइ विज्जु यायंते, ६०. कत्थइ वासं वासमाणे, कत्थइ रयुग्घायं पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, ६१. वाणमंतरे देवे वित्तासेमाणे-वित्तासेमाणे जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे-विभयमाणे, ६२. आयरक्खे देवे विपलायमाणे-विपलायमाणे, फलिहरयणं अंबरतलसि वियट्टमाणे-वियट्टमाणे, विउब्भाएमाणे विउब्भाएमाणे ६३. ताए उक्किटठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुट्टाणं मझमझेणं वीईवयमाणे-बोईवयमाणे ६४. जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ ६५. एगं पायं पउमवरवेइयाए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ, ६६. फलिहरयणेणं महया-महया सद्देणं तिक्खुत्तो इंदकील आउडेइ आउडेता एवं वयासी-- 'इंदकील' त्ति गोपुर कपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम् । (वृ०-५० १७५) ६७. कहि णं भो ! सक्के देविदे देवराया ? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ? कहि णं ते तायत्तीस यतावत्तीसगा? कहि णं ते चत्तारि लोगपाला? ६८. कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसा हस्सीओ ? कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? ६६. अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज बहेमि, अज्ज मर्म अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु ७०. इति कटु तं अणिटुं अकंत अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं फरुस गिरं निसिरइ। (श०३।११२) ६७. किहां रे शकसुर इंद सुरराजा,किहां सामानिक चउरासी हजारं। किहां तावतेतीसक देवता, लोकपाल किहां च्यारं ।। ६८. किहां आत्म-रक्षक तीन लाख अरु, ऊपर छतीस हजारं। अनेक अपछरा कोडांगमैं ते, किहां गई इहवारं ।। हणस्यू आज मथू दही नीं पर, वध करूं हूं आज। पूर्वे वस नहीं जेह अपछरा, मुझ वस थइ नमियै समाज ॥ ७०. इम कहीनै अनिष्ट अकांतज, अप्रिय असुभ अगमता। मन में नहीं रुचै तेहवा कठण वच, निशंकपणे इम वमता ।। ७१. अंक बत्तीस न देश कह्य ए, अठावनमीं ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादै, 'जय-जश' मंगलमाल ।। १. अचानक ३५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ५६ दूहा शक देवेंद्र तिण अवसर, अनिष्ट शब्द अपार । जावत् अणगमता घणां, चित अणरुचता धार ।। पूर्वे कदेइ नां सुण्या, वचन इसा सुण कान। कोप्यो शीघ्र ऊतावलो, जाव मिसमिसायमान ।। १. तए णं से सक्के देविदे देवराया तं अणिठे जाव अम णाम २. अस्सुयपुवं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे *प्रबल क्रुध अनल जल सबल कल शक्र नों, शीघ्र मुख अरुण अति रोस जानं । प्रगट ही क्रोध नों उदय अति दीसत, जाज्वलमान देदीप्यमानं ॥ ४. तिवलियं त्रिण जे वलय सल चाढनै, भकूटी त्रिसूल जे दृष्टि स्थाप। ४. तिवलियं भिडि निडाले साहटु चमरं असुरिंदं असुर तेह निलाड नै विष चढाय नै, चमर असुरेंद्र ने कहै आप ॥ रायं एवं वदासी५. हंभो चमरा! असुरेंद्र ! असुराधिप ! अपत्थियपत्थिया ! मरणकामी ! ५.हं भो! चमरा ! असुरिदा ! असुरराया ! अपत्थिय अंत अति प्रांत जे लक्षण नां धणी, लज्जा लक्ष्मी-रहित तूं हरामी॥ पत्थया ! दुरंतपंतलक्खणा ! हिरिसिरिपरिवज्जिया ! ६. हीण पुण्ण चउदसि अमावस्य जाइयो, आज तूं नहीं तुझ सुक्ख नाही। ६.हीणपुण्णचाउद्दसा ! अज्ज न भवसि, नाहि ते सुह इम कही तेह सिंघासण ते छतुं, हाथ में वज्र लीधो छ त्याही॥ मत्थीति कटु तत्थेव सीहासणवरगए बज्ज परामुसइ, ७. जाज्वलमान ते वज्र जलतो छतो, प्रगट ही फूट-फूट शब्द करतो। ७. तं जलतं फुडतं तडतडतं उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणं बट-त्रट शब्द बलि वज्र करतो छतो, सहस्रगमे उलकपात झरतो। विणिम्मुयमाणं, ८. सहस्रगमे ही ज्वाला प्रति मंकतो, बखेरतो सहस्रगमे अंगारा। ८. जालासहस्साई पमुंचमाण-पमुंचमाणं, इंगालसहस्साई फुलिंग ते अग्नि नां कणिया ज्वाला तसं, माल पंक्ति जसुं सहस्र धारा॥ पविक्खिरमाण-पविक्खिरमाणं लिंगजालामाला सहस्सेहि ६. चक्षु-विक्षेप भ्रम ऊपजै नेत्र में, दृष्टि-प्रतिघात दर्शन अभावो। ६. चक्खुविक्खेवदिपिडिघातं पि पकरेमाणं तेह प्रकर्षे अतिहीज करतो छतो, एहवो वज्र अरि हणण दावो।। चक्षुर्विक्षेपश्च-चक्षुभ्रंम: दृष्टिप्रतिघातश्च—दर्शना भावः चक्षुविक्षेपदृष्टिप्रतिघातं। (वृ०-५० १७५) १०. अग्नि थकी पिण अधिक तेजे करी, देदीप्यमान जयी वेगवंत। फूल्या केसूला नों वृक्ष ते सारिखो, महाभय नुं उपजावणहार मंत ।। महब्भयं 'जइणवेगं' ति जयी शेषवेगवद्वेगजयी वेगो यस्य । वृ०-५० १७५) ११. भयंकर भय तणं एह कर्ता अछ, एहवो वज़ ले शक हाथ। ११. भयंकरं चमरस्स असुरिंदस्स असुर रणो वहाए वज्ज मूकियो तामस अधिक कोपे करी, चमर असुरेंद्र नी करण घात ।। (श० ३।११३) 'भयंकर' भयकर्तृ । (वृ०-प० १७५) १२. ताम असराधिप चमर असुरेंद्र ते, जलत् यावत् भय करणहारा। १२. तए णं से चमरे अरिदे असुरराया तं जलतं जाव भयं एहवा वज्र ने सन्मुख आवतो, देखी ने करवा लागो विचारो॥ कर बज्जमभिमुहं आवयमाणं पास इ, पासित्ता १३. झियाइ ए स्यूं आवै ? इम चितवै, पिहाइ कहितां अभिलाष धरतो। १३. झियाइ पिहाइ, आयुध एहवं म्हारै ह तो भल,तथा स्वस्थान गमन अभिलाष करतो।। 'झियाइ' त्ति 'ध्यायति' किमेतत् ? इति चिन्तयति, तथा 'पिहाइ'त्ति 'स्पृहयति' यद्येवंविधं प्रहरणं ममापि स्यादित्येवं तदभिलषति स्वस्थानगमनं वाऽभिलषति । *लय-कडखा नीं (वृ०-प० १७५) श०३, उ०२, ढा०५६ ३५३ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अथवा पिहाइ ते आंख ढांकै बलि, पिहाइ झियाइ बलि पाठ आख्यो। १४. पिहाइ झियाइ, पूर्वे क्रिया कहि तेहिज बे बार ही, अधिक आकुलपणों तास दाख्यो।। अथवा 'पिहाइ' त्ति अक्षिणी पिधत्ते--निमीलयति, 'पिहाइ झियाइ' त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति अनेन च तस्यातिव्याकुलतोक्ता।(वृ०-५०१७५) १५. ध्यावतो तिमज तत्काल पाछो वल्यो, भागो छै मुकुट-विस्तार रचना। १५. झियाइत्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंबहस्त नां आभरण हालता कर ग्रहै, अधोमुख गमन वसथीज लछना ।। हत्थाभरणे 'तहेब' ति यथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः 'संभग्गम उडविडवे' त्ति संभग्नो मुकुटविटपः शेखरकविस्तारो यस्य स तथा 'सालंबहत्थाभरणे' त्ति सहआलम्बेन-प्रलम्बेन वर्तन्ते सालम्बानि तानि हस्ताभरणानि यस्याधोमुखगमनवशादसी सालम्बहस्ताभरणः। (वृ०-प०१७५) १६. ऊर्ध्व पग मस्तक नीचो है जेहनों, कक्ष विष ज्यूं प्रसेद आवै। १६. उड्ढपाए अहोसिरे कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणेओपम ए कही अधिक भय थी लही, सुर नैं पसेवो तो नांहि भावै।। विणिम्मुयमाणे भयातिरेकात् कक्षागतं स्वेदमिव मुञ्चयन, देवानां किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिवशब्दः। (वृ०-५० १७५) १७. गति उत्कृष्ट वेग करि भाजतो, जाव तिरछा असंखेज्ज जाणो। १७. ताए उक्किटठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दीव-सम द्वीप-समृद्र नै मध्ये-मध्ये करी, अधिक उलांघतो त्रास आणी। हाणं मझमझेणं वीईवयमाणे-बीईबयमाणे १८. जिहां जंबूनामा द्वीप जिहां भरत छ, जाव अशोक तरु छै प्रधानं। १८. जेणेव जंबुदीवे दीवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव मुझ कनै आवियो अधिक भय पामतो, भय करी गर्गर वदत वानं ।। ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे १६. हे भगवंत ! तुझ सरण मुझ नै अछ, एम वच बदत असुरेंद्र आपो। १६. भगवं सरणं इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि मुझ पग उभय अंतर बिचै शीघ्र थी,वेग करि छिप रह्य मन संतापो।। झत्ति वेगेणं समोवडिए। (श० ३।११४) २०. शक्र देवेंद्र सुरराज तिण अवसरै, चित विचार इम ताम करतो। २०. तए णं तस्स सक्कस्स देविदस्स देव रण्णो इमेयारूवे सक्त समर्थ अरु विषय नहीं चमर नी, आपणी नेश्राय आय अडतो।। अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे असुरिदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिदे असुरराया, नो खन्नु विसए चमरस्स असुरिदस्स असुर रणो अपणो निस्साए २१. उडढं उप्पइत्ता ते ऊंचो आवी करी, जाव सौधर्म - कल्पेज आय। २१. उडढं उप्पडत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, तीन नेत्राय विण अन्य नेश्राय थी, चमर नी पोहच नहीं छै ताह्य। २२. अरिहंत, अरिहंत-चैत्य, अणगार नी, नेश्राय जाव सुधर्म आवै। २२. नण्णत्थ अरहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा महादुख अरिहंत भगवंत अणगार नी,आसातन सोभ थी भ्रंस थावै ।। साभाविअप्पाणो नीमाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहताणं भगवं ताणं अणगाराणय अच्चासायणाए २३. इम कहा अवाषअजूज मुख दाखया, हा हा एखद वचन कहाया। २३. इति कट्ट ओहि पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएइ, अहो ! ए आश्चर्य-वचन शके कह्य, हं हणाणु छु इम कहिनै ध्यायो॥ आभोपत्ताहा! हा ! अहो ! तो अहमिति कट २४. ते उत्कृष्ट गति वेगवती करी, जाव दिव्य देवगति करि अथायो। २४. ताए उक्किटठाए जाव दिवाए देवगईए वज्जस्स बीहि वज्र नां मार्ग केड जाते थके, द्वीपोदधि असंख मध्य थइनै ताह्यो। अणगच्छमाणे-अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाणं दीव समुदाणं मज्झमज्झेणं २५. यावत वक्ष अशोक अछे जिहां, मुझ समीप इम शीघ्र आयो। २५. जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव मुझ थकी वज्र चउ आंगुल अलग प्रति, संहरै शक सौधर्म-रायो। उवागच्छद, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ। ३५४ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अंक बत्तीस न देश आख्यो इहां, तोस गुणतीसमी ढाल ताजी। भिक्ष भारीमाल ऋषराय प्रसाद थी, 'जय-जश' संपति सरस जाझी ।। ढाल : ६० १. अवियाई मे गोयमा ! मुट्ठिवाएणं केसग्गे वीइत्था । (श०३।११५) ३. तए णं से सक्के देविदे देवराया बज्ज पडिसाहरिता ४. ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ अति वेगे करि गोयमा ! वज्र ग्रहण नै काज। मुष्टि-वाय करि माहरा, केशाग्र वीजिया साज ।। मुष्टि बांधवं करि तदा, उपनों वायू ताय । तिण मुष्टी-बाये करी, मुझ केश अग्र कंपाय ।। _ *गोयम! चित लगाय ने सांभलो। (ध्रुपदं) शक देविंद्र तिण अबसर, रूडो ते सुरराय हो, गोयम ! शीघ्र वज्र प्रति संहरी, तुरत ग्रही वज्र ताय हो, गोयम ! मुझ तीन वार तीखे मनै, दक्षिण कर थी देख । प्रदक्षिणा दे प्रेम सं, वंदै हरष विशेख ॥ नमस्कार चित निरमल, वारू कर कहै वाय हो, प्रभुजी ! इम निश्चै भगवंत हूं, इण कारण इहां आय हो, प्रभुजी ! [हूं अरज करूं छू वीनती) ६. तुझ नेश्राये चमर ते, असुरिद सुधर्मे आय । आपणपैज आसातना, कीधी मुझ अधिकाय ।। ७. तब हूं कोप्यो तुरत ही, मूक्यो वज्र महाराय । चमर हणेवा चित करी, भारी द्वेष भराय ।। बज्र मूक्यां पछै मुझ बली, पाम्यो संकल्प पूज्य । नहीं शक्ति ए चमर नों, यावत् अवधि प्रयुज्य ।। ५. नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि—एवं खलु भंते ! ६. अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिदेणं असुर रण्णा सयमेव अच्चासाइए। ७ तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसठे । ८. तए णं ममं इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था नो खलु पभू चमरे असुरिदे असुरराया तहेव जाव ओहि पउंजामि, ६. देवाणुप्पिए ! ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता हा ! हा ! अहो ! हतो अहमंसि त्ति कटु ताए उक्किट्ठाए अवधि करी अवलोकिया, देवानप्रिय देख । हा ! हा! इति खेदे कहो, यावत् सर्व संपेख ।। जाव १०. जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरामि, ११. वज्जपडिसाहरणट्ठयाए णं इहमागए १०. हे देवानुप्रिया नै कनै, निश्च आयो हूं आज । आंगुल च्यार अणपामियां, संहरियो वज्र साज।। वज्र प्रतै ग्रहिवा भणी, आयो इहां चलाय। ईणहिज तिरछा लोक में, अवर कारण नहि आय ।। १२. ए सुंसुमारपुर नगर नै विर्ष, समोसरयो अवधार। संप्राप्त थयो स्वामजी ! उद्याने इह वार ।। १२. इह समोसढे इह संपत्ते *लय-स्वामी म्हारा राजा ने धर्म श०३, उ०२, ढा०६० ३५५ Jain Education Intemational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. १. ३. ४. दुहा पुद्गल पाषाणादि प्रति, न्हाखी ने नर तेह | जाता प्रतै वलि झेलवा, समर्थ नहि दीसे ह || सुर स्यूं ते समर्थ हुवै ? जिण कारण ते जोय | वज्र बने शक बलि, संहर योज] सोय || तथा वज्र तिण संहरघो, तो चमरभणी तिणवार । किम न ग्रह्यो शक्रे तदा, ए अभिप्राय उदार ॥ तेहना ए प्रस्ताव तैं, प्रश्नोत्तर निर्गुणों चित्त लगाय ने वारू अर्थ हे भदंत ! इण विष कही वीर प्रभु नमस्कार करने पहिछाण | बिनाण || प्रति बंद बलि, कहै गोयम सुखकंद ॥ * जय-जय ज्ञान जिनेंद्र तणो छै । (ध्रुपदं ) ६. हे भगवंत देव महाऋद्धिवंत जावत् महानुभाव सुजोय । ! पहिला पुद्गल न्हाखी ते पुद्गल नैं पूठ जइ ग्रहवा समर्थ होय ? -आ अणुकंपा जिन आज्ञा में ३५६ भगवती जोड़ ५. अज्ज पाठ नों अर्थ ए, आज दिवस अवधार । अथवा आरज ! हे मुनि ! विरुआ पाप थी बार ॥ *लय धार ॥ अंगीकार कर आपने, विचरूं हूं इण वार । ते माटै खमाऊं तुझे, देवानुप्रिय ! खमो तुम्हे देवानुप्रिया ए म्हारो अपराध । खमवा योग्य तुम्हे खरा, सम दम भाव समाध ॥ आज पर्छ काम एहयो, अनि न करूं दूजी बार इम कही मुझ नै इंद्र ते वंदे स्तुति विचार ॥ नमस्कार करि नै तदा, जइ ईशाण कोण जिवार । पग डावे पृथ्वी प्रतै, विदारै त्रिण वार ॥ बलिश चमर ने इम वर्द, अहो चमर! असुरिद ! मूक्यो छे तुझनै अम्है, स्वाम प्रभावे सोहिंद || हिवदां तुझने भय नहीं, मुझ सेती मत ल्याय । एम कही एक दंद्र से आयोजिण दिशि जाय ।। अंक बत्तीस नुं देश ए. ए हाल साठमी होय । भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' संपति जोय ॥ ढाल : ६१ १३. इहेब अज्ज 'अज्जे' ति 'अद्य' अस्मिन्नहनि अथवा हे आर्य ! पापकर्म बहिर्भूत ! (२०१० १७६) १४. उवसंपज्जित्ता गं विहरामि । तं खामेनि णं देवाशुपिया ! १५. मंतु देवालिया ! तुमरिति गं देवाडिया ! १६. नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कट्टु ममं वंदइ १७. नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कम, वामेणं पादेगं तिक्खुत्तो भूमि विदलेइ, १८. विदलेत्ता चमरं असुरिदं असुररायं एवं वदासिसुक्को भी चमरा! अमुरिया ! असुरराया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स पभावेणं १६. नाहि ते दाणि ममातो भयमत्थि त्ति कट्टु जामेव दिसि पाउएतामेव दिसि पडिए । (० २०९१६) १. इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावद्ग्रहीतुं न शक्नोतीति दृश्यते । ( वृ० प० १७६) २. देवस्तु किं शक्नोति ? येन शक्रेण वज्र क्षिप्तं संहृतं च । ( वृ० प० १७६) ३, ४. तथा वज्र चेद्गृहीतं चमरः कस्मान्न गृहीत इत्यभिप्रायतः प्रस्तावनोपेतं प्रश्नोत्तरमाह ( वृ० प० १७६ ) ५. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं बदासी- ६. देवेने महिए जाव महाणुभायामेव पोगताप तमेव अपरिवट्टित्ता हित्तए ? Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.हंता जिन कहै समर्थ होवै, किण अर्थे प्रभुजी ! कहिवाय। ७. हंता पभू । (श० ३।११७) जिन कहै पुदगल न्हाख्यो थको जे, पूर्व शीघ्र हवै गति ताय॥ से केणठेणं जाव गेण्हित्तए ? गोयमा ! पोग्गले णं खित्ते समाणे ८. पहिला उतावली चाली नैं पुद्गल, हलवै हलवे पछै मंद-गति हाले । ८. पुवामेव सिग्धगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, महद्धिक सर पहिला नै पछै पिण, ते शीघ्र अत्यंत शीघ्र गति चालै ।। देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभागे पुवि पि पच्छा वि सीहे सीहगति चेव है. त्वरित त्वरित-गति मन उत्सक ते, शीघ्र त्वरित ते एकार्थ सोय। ६. तरिए तूरियगती चेव । से तेणठेणं जाव पभ् गेण्डित्तए। तिण अर्थे करि गोयम ! यावत्, समर्थ पुद्गल ग्रहण सुजोय ।। (श० ३।११८) 'त्वरितगतिः' मानसौत्सुक्यप्रवर्तितवेगवद्गतिरिति। (वृ०-५० १७८) १०. जो प्रभु ! देवेंद्र महद्धिक यावत्, पुद्गल ग्रहण करै पूठे जाय। १०. जइ णं भंते ! देवे महिड्ढीए जाव पभू तमेव अणुपरितो प्रभ! शक स्व-हस्त करी ने, चमर ग्रहण किम समर्थ नांय ? यट्टित्ता णं गेण्हित्तए, कम्हा णं भंते ! सक्केणं देविदेणं देबरण्णा चमरे असुरिदे असुर राया नो संचाइए साहित्थं गेण्हित्तए? ११. जिन कहै असरनों अधोगति-विषय, शीघ्र-शीघ्र त्वरित-त्वरित विशख। ११. गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए सीहे. ऊर्ध्वगति - विषय अल्प-अल्प छै, मंद-मंद ते अतिमंद पेख ।। सीहे चेव तुरिए-तुरिए चेव, उड्ढं गइविसए अप्पे-अप्पे चेव मंद-मंदे चेव। १२. वैमाणिकनी ऊर्ध्वगति-विषय, शीघ्र-शीघ्र त्वरित-त्वरित विशेख। १२. वेमाणियाणं देवाणं उड्ढे गइविसए सीहे-सीहे चेव। अधोगति-विषय अल्प-अल्प छै, मंद-मंद ते अधिक मंद पेख ।। तुरिए-तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे-अप्पे चेव मंद-मंदे चेव। १३. शक्र देवद्र ते एक समय में, जेतलो खेव ऊंचो जाय चीन। १३. जावतियं खेतं सक्के देविदे देवराया उडट उप्पय पक्के तेतलं क्षेत्र वन बे समये, जे वज बे समय ते चमर ने तीन । समएणं, तं वज्जे दोहिं, जं वज्जे दोहिं तं चमरे तिहि । १४. सर्व थोडो काल लागै शक नै, ऊर्ध्व-लोक जातां कालखंड। १४. सव्वत्थोवे सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो उड्ढलोयकंडए, अति शीघ्रपणां थकी कालखंड तसं, समय रूप कहियै छै सुमंड। 'सर्वस्तोक' स्वल्पं शक्रस्य ऊर्वलोकगमने खण्डक कालखण्डं ऊर्ध्वलोककण्डक ऊर्ध्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात्तस्य। (वृ०-५० १७८) १५. तेहथी अधोलोक जाता थकां जे, संख्यातगुणो दुगुणो कालखंड। १५. अहेलोयकंडए संखेज्जगुणे। अधोलोक गमन विष शक नँ, मंद-गति छ तेहथी ए मंड ।। अधोलोकगमने कण्डक कालखण्डमधोलोककण्डक संख्यात गुण, ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः अधोलोकगमने शक्रस्य मंदगतित्वात्। (व-प० १७८) १६. चमर असुरेंद्र ते एक समय में, जेतलो खेत्र नीचो जावै चीन। १६. जावतियं खेत्त चमरे असुरिदे असुरराया अहे ओवयइ एक्केणं समएण, तं सक्के दोहि, जं सक्के दोहि, तं वज्जे ते क्षेत्र शक वे समय में जावे, जे शक्र वे समय ते वज्र ने तीन ॥ तीहि। १७. सर्व थोडो काल लागै चमर नैं, अधोलोक जातां कालखंड। १७. सव्वत्थोवे चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो अहेलोय अति शीघ्रपणां थकी कालखंड ते, समय रूप कहिये छै समंड।। कंडए, तेथी ऊर्वलोक जातां चमर ने, संख्यातगुणो कालखड साय। १८. उढलोयकंडए संखेज्जगणे अधोलोक कालखंड नी अपेक्षा, ऊर्ध्वलोक जातां दुगुणो काल होय ।। १६. इम निश्चै गोयम शक देविंद्र ते, चमर असुरिंद्र असुरराजा ने। १६. एवं खलु गोयमा ! सक्केणं देविदेणं देवरगणा चमरे पोते नैं हाथे करी नै प्रत्यक्ष, समर्थ नहीं छै तास गृहिवा नै ।। अरिदे असुरराया नो संचाइए साहस्थिं गेण्हित्तए। (श० ३।११६) श० ३, उ०२, ढा० ६१ ३५७ Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हे प्रभु ! शक्र देवेंद्र तणी जे, ऊर्ध्व अधो तिरि गति-विषयेह। २०. सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उड्ढं अहे तिरियं गति नों विषय कुण-कुण थी अल्प छै, कुण-कुण थी बहु तुल्य अधिकेह? च गइविसयस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? २१. जिन कहै सर्व थी थोडो खेत्र जे, एक समय शक नीचो जाय। २१. गोयमा ! सव्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविदे देवराया अहे गति मंदपणां थकी क्षेत्र आश्रय, इक समय नीचो थोडो जावै ताय॥ ओवयइ एक्केणं समएणं २२. तेहथी तिरछो संख्यात भाग जायै, इहां कल्पना करि देखा.। २२. तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ, इक समये एक योजन नीचो जाव, तिरछो जाय दोढ जोजन तिवारै ।। कल्पनया किलैकेन समयेन योजनमधो गच्छति शक्रः, तत्र च योजने द्विधाकृते द्वौ भागौ भवतः, तयोश्चैकस्मिन् द्विभागे मीलिते त्रयः संख्येया भागा भवन्ति अतस्तान् तिर्यग् गच्छति, सार्द्ध योजनमित्यर्थः । (वृ०-५० १७८) २३. ऊध्वं संख्या ते भाग अधिक गति-कल्पना ए दोय योजन कहाय। २३. उडढं संखेज्जे भागे गच्छद। (०३।१२०) जोजन एक नां भाग करणा बे, इक-इक भाग अधिक इण न्याय ।। यान् किल कल्पनया त्रीन् द्विभागांस्तिर्यग्गच्छति तेषु चतुर्थेऽन्यस्मिन् द्विभागे मीलिते चत्वारो द्विभागरूपाः संख्यातभागाः संभवन्ति अतस्तान् ऊवं गच्छति । (व०-५०१७८) २४.हे प्रभ! चमर अमरिंद्र तणी जे, ऊध्वं अधो तिरि गति-विषयेह। २४. चमरस्स णं भंते ! असूरिदस्स असुररण्णो उड्ढं अहे गति-विषय कुण-कुण थी अल्प है, कुण-कुण थी बहु तुल्य अधिकेह? तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए ग? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? २५. जिन कहै सर्व थी थोडो खेत्र जे, चमर ऊर्ध्व इक समये जाय। २५. गोयमा ! सब्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिदे असुरराया गति मंदपणां थकी क्षेत्र आथये, इक समये ऊर्ध्व अल्प जावै ताय । उड्ढं उप्पयइ एक्केणं समएणं २६ तेच थी तिरछो भाग संख्याते जावे, नीचो संख्यातमें भाग निहाल। २६. तिरिय संखेज्जे भागे गच्छइ, अहे संखेज्जे भागे गच्छइ । सूत्र मांहि इम समचै भाख्यो, बुद्धिवंत न्याय मेलै सुविशाल ।। (श० ३११२१) २७. वज्र ने जेम शक ने कह्यो तिम, णवरं विसेसाहिए कहिवाय। २७. वज्जं जहा सक्कस्स तहेव नवरं विसेसाहियं कायव्वं । वृत्ति मांहि कह्यो वाचनांतरे, साख्यात पाठ अछै इम ताय।। (वृ०-प० १७७) २८. हे प्रभु ! बज्र तणों गति-विषय, ऊंचो नीचो तिरछो छै तेह। २८. वज्जस्स णं भंते ! उड्ढ अहे तिरियं च गइविसयस्स गति-विषय कुण-कुण थी अल्प है, कुण-कुण थी बहु तुल्य अधिकेह? कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसे साहिए वा? २६. जिन कहै सर्व थी थोडो खेत जे, एक समय वन नीचो जाय। २६. गोयमा ! सब्वत्थोव खेतं बज्जे अहे ओवयह एक्केणं तिरछो विशेष अधिक खेत्र जाय तेहथी, ऊंचो विशेष अधिक खेत्र ताय ।। समएणं, तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ, उड्ढे विसेसाहिए भागे गच्छइ। (श० ३।१२२) ३०. एक योजन नां बारै भाग तेहवा, एक समय मांहै शक्र तिवार। ऊंचो तो भाग च उवीस जाय छ, तिरछो अठारै मैं नीचो बार ।। ३१. वज्र समय में बारे भाग ऊंचो, तिरछो दस नीचो आठ जगीस। चमर ऊंचो आठ भाग जाय छ, तिरछो सोलै नीचो भाग चउवीस ।। ३२. ए भाग नी बात अर्थ में कही छै, सूत्र माहै तो समचै बाय । पाठ सू मिलती तिका मान लेणी, अणमिलती नहीं मानणी ताय ।। ३५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. कह्यो गति-विषय क्षेत्र नों अल्प बहपणं, ३३. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरण्णो ओवयणकालस्स हिव अल्पबहुत्व गति काल नों देख। य, उप्पयणकालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पे वा? बहुए प्रभु ! शक नै ऊंचो नै नीचो गमनकाल, वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? कुण थी अल्प बहु तुल्य विशेष? ३४. सर्व थी थोडो शक सरेंद्र ने, ऊंचो जावा - काल सुजेह। ३४. गोयमा ! सव्वत्यो सक्कस्स देविदस्स देवरणो उप्प शकनी ऊंची घणी गति तिण सू, नीचो आवानों काल संखेज्ज गुणेह ।। यणकाले, ओबयणकाले संखेज्जगुणे। (श० ३।१२३) ३५. धर्मसीह कह्यो थोडी बेला माहै, शक्र ऊंचो बहु जोजन जाय ।। जिम इक चिपटी' मांहै चोवीस योजन, हेठो बारै योजन इक चिपटी में आय ।। चमर - जेम शक नैं कह्यो तिम, ३६. चमरस्स वि जहा सक्कस्स, नवरं सव्वत्थोवे ओवयणणवरं सर्व थोडो नीचो आवा नों काल । काले, उप्पयणकाले संखेज्जगुणे। (श०३।१२४) नीची शीघ्र-गति तिण तूं काल थोडो छ, संख्यातगुणो ऊंचो जावा नों न्हाल ।। ३७. वज्र नीं पूछा जिन दियै उत्तर, सर्व थोडो ऊंचो जावा नों काल। ३७. वज्जस्स पुच्छा नीचो आवा नों काल विशेषाधिक, गति मंद थी अद्धा अधिक निहाल ।। गोयमा ! सब्बत्थोये उप्पयणकाले, ओवयणकाले विसे साहिए। (श० ३।१२५) हिव तीनइ नी अल्पाबहत्व नों प्रश्न, ३८. एयरस णं भंते ! बज्जस्स, वज्जाहिवइस्स, चमरस्स य प्रभु ! वज्र शक बलि चमर नैं पेख । असुरिदस्स असुर रण्णो ओवयणकालस्स य, उप्पयणनीचो आवा नुं ऊंचो जावा न काल ते, कालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले कुण थी अल्प बहु तुल्य विशेख? वा? विसेसाहिए वा? ३६. जिन कहै शक नै ऊर्ध्वगमन-अद्धा, चमर नै हेठो ऊतरवा - काल। ३६. गोयमा ! सक्कस्स य उप्पयणकाले, चमरस्स य ओवयण ए विहं तुला सर्व थी थोडो, निज स्थान बेहुं सम न्हाल ।। काले-एए णं दोगिण वि तुल्ला सब्वत्थोवा । ४०. शक नैं नीचो उतरवा न अद्धा, वज्र नै ऊंचो जावा न काल। ४०. सक्कस्स य ओवयणकाले, वज्जस्स य उम्पयणकाले ए बिहुं तुल्य छै पूर्व कह्या थी, अथवा संख्यातगुणो संभाल ।। एस णं दोण्ह वि तुल्ले संखेज्जगुणे । ४१. चमर नै ऊंचो जावा - काल, वज्र नैं नीचो ऊतरवा - काल। ४१. चमरस्स य उप्पयणकाले, वज्जस्स य ओवयणकाले ए विहं तुल्ये विशेषाधिक छै, ए अल्प बहुत्व तीन नी निहाल ।। एस णं दोण्ह वि तुल्ले विसेसाहिए। (श० ३।१२६) ४२. तीज शतक दूजा उद्देशा नो देशज, एक न साठमी ढाल रसाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादै, 'जय-जश' संपति मंगलमाल ।। ढाल : ६२ दूहा असुर-इंद्र तिण अवसरै, वज्र - भये विप्रमुक्त । अधिक शक्र अपमानिये, तुझ मूक्यो इम उक्त ।। १. एक चुटकी बजाने जितना काल १. तए णं से चमरे असुरिदे असुर राया बज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाण श०३, उ०२, ढा०६१, ६२ ३५६ Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हण्यो द मन चमरवंचा रजधानिए, सभा बैठो चमर सिंघासणे, अति चित संकल्प विचार जे चिंता सोग समुद्र में बेठो अधोमुख करतल विषै स्थायो छे घ्यावे आर्त्तध्यान नैं दृष्टि भूमि सामानिक परिषद मुरा, अपहृत मन चमर नों कां यावत् ध्यावतो देखी, हो लाल । करतल जाव बधाय नैं शिर आवर्तन करी नैं, कोइ बोल्या एम विरोधी हो लाल । किण कारण हे देवानुप्रिया ! मन नों संकल्प हणाणो, जावत घ्यावी केमो ? असुर-द्रविण अवसरे, सामानिक परिषद नां सरप्रतं कहे एमो ॥ देवानुप्रिया ! शक्र तणी आशातन, म्है करी वीर नेथायो । छतो मुझ वध का मुक्यो, बच्च आयुध अधिकायो । देवानुप्रिया ! वीर प्रभु नैं थावो, मंगलीक भद्र कल्याणं । इम निश्च हे ताम शक्र कोप्यो ते भणी हे जेहनें प्रभाव आयो इहां, निवेदन अताडित, परितापन रहित पिछाणं ।। समोसरो स्थान पामियो, एस्थान अंगीकर विचरू, प्रशस्त थइ नैं वारू । ते भणी हे देवानुप्रिया ! आपण सगला जयं वंदा भगवंत उदारू || नमस्कार प्रभु नें करी, यावत् पर्युपासना, सेवा करिय साची । एन कही असुरेंद्र से चउराठ सहस्र सामानिक, यावत् सगली ऋद्धि जाची ॥ ११. जरा तिहां जिहां मुझ पास आवी में तिणवारे । मुझ में दक्षिण भी दे सोन बार प्रदक्षिण यावत् नम तिवारी ॥ ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. * लय-पातक छानो नहीं रहे ३६० भगवती जोड़ सुधर्मा अर्ती 1 १२. नमस्कार कर इम कहै, इम निश्च हे प्रभुजी ! हूं आप तणी नेश्रायो कधी शक आशातना, जाय देवानुप्रिया ! तुझ भद्र कल्याण सुबायो । सोय । अवलोय || हर्षादि । । असमाधि ॥ तिणवार । । इकधार ॥ २. नमनाए राहाणीए समाए हम्माए चमरंसि सीहाससि २. तापसागरसंपवि ४. करयल पल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाति । (श० ३।१२७) ५. तए णं चमरं असुरिदं असुररायं सामाणियपरिसोवaणया देवा ओहमण संकष्पं जाव झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टू जणं विजएणं, वद्धावेति वद्धावेत्ता एवं वयासी ६. देवाणुपिया ! पण जावाय? (०२१२६) तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया ते सामाणियपरिसोवण दे एवं बासी ७. एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए समणं भगवं महावीरं बीसाए सक्के देविदे देवराया सयमेव अच्चासाइए । तए णं तेणं परिकुविएणं समाणेण ममं वहाए वज्जे निसट्ठे । ८. तं भद्दण्णं भवतु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स जस्सम्हि पभावेणं अकिट्ठे अव्वहिए अपरिलाबिए 'अकिट्ठे' त्ति 'अकृष्ट:' अविलिखितः अक्लिष्टो वाअनिमियर्थः । (१०० १८०) ६. इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । १०. देवालिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो त्ति कट्टु चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि जाव सव्विड्डीए ११. जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उपागच्छ उपागच्छता मम तिक्त आवाहन पयाहिणं जाव... १२. नमसित्ता एवं व्यासि एवं खलु भंते! मए तुब्भं नीसाए सक्के देविदे देवराया सयमेव अच्चासाइए जाव तं भद्दणं भवतु देवाणुपियाणं 3 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जेहनै प्रभाव करी अम्है, निवेदन छतो विचारी जावत् विचरूं इहवारी। १३. जस्सम्हि पभावेणं अकिठे जाव विहरामि । तं खामेमि तिण सूखमाऊ हे देवानुप्रिया! जावत एम कहीनै आयो ईशाण उदारी।। णं देवाणुप्पिया जाव उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमइ, १४. यावत् बत्तीस प्रकार नां, नाटक-विधि देखाडे, १४. जाव बत्तीसइंबद्ध नट्टविहिं उबदंसेइ, उवदंसेत्ता जामेब देखाडी नैं तिहवारै। दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए। (श० ३।१२६) जिण दिशि थी आयो हंतो, तिह दिशि स्व स्थाने, पाछो गयो तिवारै ।। इम निश्चै करि गोयमा ! चमर असुर नों राजा, १५. एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिदेणं असुररणा सा दिव्य देव ऋद्धि भारी। दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। लाधी - पामी भली, जावत् सन्मुख थइ छै, भोगविवा नैं इह वारी ।। स्थिति एक सागर तणी, महाविदेह सिझिस्यै, १६. ठिई सागरोवमं महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाब अंत यावत् दुख अंत करिस्य । काहिइ। (श० ३।१३०) भव-प्रत्यय वेर कह्यो असुर नों, तेहनै विषैज हेतु, अन्य कहिवा हिव उचरिस्यै ।। हे प्रभु ! असुर किण कारण, ऊंचो जायै यावत् १७. किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति स्वर्ग सुधमें भावै। जाव सोहम्मो कप्पो? गोयमा! तेसि णं देवाणं अहुणोजिन कहै तत्काल नों ऊपनो, अथवा चवन अवसरै, ववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झथिए तसं विचारणा इम आवै ।। जाव समुप्पज्जइअहो ! आश्चर्य अर्थे, अम्है दिव्य देव ऋद्धि लाधी, १८. अहो ! णं अम्हेहि दिव्या देविड्ढी जाब अभिसमण्णापामी आश्चर्यकारी। गए, जावत भोगविवा भणी, सन्मुख थइ उदारी, एहवी ऋद्धि छै म्हारी॥ जेहवी म्है दिव्य ऋद्धि लही, तेहवी शक सुरेंद्रज, १६. जारिसिया णं अम्हेहि दिव्वा देविड्ढी जाब अभिसमदिव्य देव ऋद्धि लाधी। प्रणागए, तारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरणा दिव्वा जेहवी शक्र दिव्य ऋद्धि लही, तेहवी म्हैं पिण लाधी, देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए। जारिसिया ण सक्केणं देविदेणं देव रण्णा जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया णं एहवी मन मांहि साधी ।। अम्हेहि वि जाव अभिसमण्णागए। ते माटै जाव अम्है, शक्र देव-राजा नै २०. तं गच्छामो णं सक्कस्स देबिदस्स देवरण्णो अंतियं पाउसमीप प्रगट थाऊं। भवामो पासामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरगणो दिव्वं देखू हूं ऋद्धि शक नीं, अम्है पायो ऋद्धि भारी, देविडिढ जाव अभिसमण्णागयं, ए शक्र भणो देखाऊं ।। २१. पासउ ताव अम्ह वि सक्के देविदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाणं हं ऋद्धि शक नीं, म्है पिण दिव्य ऋद्धि पामी, जाव अभिसमग्णागयं । तं जाणामो ताव सक्कस्स देविते शक भणो जणाऊं। दस्स देवरण्णो दिव्वं देविढि जाव अभिसमण्णागयं, इम निश्चै करि गोयमा ! असुर सुधर्मे जावै, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के देविदे देवराया दिवं देविड्ढि जाव अभिसमण्णागयं । एवं खलु गोयमा सेवं भंते ! हुलसाऊं।। असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। (श० ३३१३१) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति। (श० ३।१३२) ०३, उ०२,ढा०६२ ३६१ Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. तीजा शतक नों दूजो उदेशो कह्यो, ढाल बासठमीं वारू, आखी अधिक उदारू । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' मंगल माल, संपति संघ सुधारू ।। तृतीयशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।३।२।। ढाल : ६३ दूहा द्वितीय उदेश विषै कह्य, चमर तणो उत्पात। ते तो क्रियाज रूप है, तीजै क्रिया कहात ।। तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह नाम । जाव परिषदा जिन बचन, सुण पोहती निज ठाम ।। तिण कालै नैं तिण समय, जाव वीर शिष्य जाण । मंडियपुत्र नामैं मुनि, प्रकृति-भद्र पहिछाण ।। जाब सेव करतो छतो, वीर प्रतै इम बाय । बोलै जोडी कर बिहुँ, सांभलज्यो सुखदाय ।। ५. *क्रिया किती भगवान ! जिन भाखै इम जान । हे मंडिपुत्र ! पंच क्रियापरूपी सही ।। ६. काइया ते क्रिया करि हुवै जान, अहिक रणिया अशुभ अनुष्ठान । हे मंडिपुत्र ! अथवा शस्त्र थकी कही। १. द्वितीयोद्देशके चमरोत्पात उक्तः स च क्रियारूपोऽतः क्रियास्वरूपाभिधानाय तृतीयोद्देशकः । (वृ०-५० १८१) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था जाव परिसा पडिगया। (३।१३३) ३. तेणं कालेणं तेणं ममएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी मंडिअपुत्ते नाम अणगारे पगइभदए ४. जाव पज्जुवाममाणे एवं वयासी-- ५. कइ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? मंडिअपुत्ता ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ तं जहा ७. पाउसिया ते मच्छर थी व्याप, परितावणिया ते परिताप । हे मंडिपुत्र ! पाणाइवाय हणे तसुं ।। ६. काइया, अहिंगरणिआ अधिकरणं-अनुष्ठानविशेषः बाह्यं वा वस्तु चक्रखड्गादि तत्र भवा तेन वा निवृत्तेत्याधिकरणिकी। (वृ०-प० १८१) ७. पाओसिआ, पारियावणिआ, पाणाइबायकिरिया। (श० ३।१३४) प्रद्वेषो—मत्मरस्तत्र भवा तेन वा निर्वत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी। (वृ०-प० १८१) ८. ए पांचूई पिछाण, ज्यांरा भेद जुआ जुआ जाण । ___ आछे लाल, मंडियपुत्र पूछ इसू ।। है. प्रभ ! काइया कितले प्रकार, वीर कहै तिणवार। हे मंडिपुत्र! द्विविध काइया क्रिया कही।। १०. अव्रत सर्व थी चोथा लग जाण, बलि अशुभ जोग नीं पिछाण । हे मंडिपुत्र ! ए छठा गुणठाण लगै लही ।। ६. काइया णं भंते किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता,तं जहा१०. अणुव रयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य । (श०३।१३५) अनुपरतः- अविरतस्तस्य कायक्रियाऽनुपरतकायक्रिया, इयमविरतस्य भवति। (वृ०-५० १८१) *लय-आछे लाल रो देशी ३६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education Intermational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. प्रभु ! अहिकरणिया एह, कितै प्रकार कहेह ? हे मंडिपत्र ! द्विविध जिन इम भाखता।। १२. पूर्व नीपनां एकठा करत, तेह संयोजवू हुंत। __ आछे लाल, बलि शस्त्र नवा निपजावता। १३. पाउसिया पहिछाण, भेद किता जगभाण ! आछे लाल, द्विविध जिन इम वागरै।। १४. जीव-पाउसिया देख, जीव ऊपर करै धेष। हे प्यारे लाल, अजीव-पाउसिया अजीव ऊपरै ।। ११. अहिगरणिआ णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता ! दुविहा पण्णता, तं जहा१२. संजोयणाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य। (श०३।१३६) संयोजन----हलगरविषकूटयन्त्राद्यङ्गाना पूर्वनिर्वत्तितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया, निर्वर्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरण क्रिया निर्वर्तनाधिकरणक्रिया। (वृ०-५० १८२) १३. पाओसिआ णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडि अपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१४. जीवपाओसिआ य, अजीवपाओसिआ य (श०३।१३७) जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा, अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्या क्रिया (वृ०-प० १८२) १५. पारियावणिआ णं भंते ! किरिया कइबिहा पण्णत्ता? मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--- १६. सहत्थपारियावणिआ य स्वहस्तेन स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापनादअसातोदीरणाद्या क्रिया परितापनाकरणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी। (वृ०-प० १८२) १७. परहत्थपारियावणिआ य । (श०३।१३८) १५. प्रभु ! पारितावणिया पेख, कितै प्रकार विशेख ? आछे लाल, द्विविध कहै त्रिभुवन-धणी ।। १६. सहत्थपरितावणिया सोय, स्व हस्ते करि जोय। हे मंडिपुत्र ! पीड करै निज पर भणो।। १७. परहत्थपरितावणिया पेख, पर हस्ते करि देख। हे नीके लाल, पीड करै निज पर तणे ।। १८. इम बे भेद पाणाइवाय, स्व कर बेहुं हर्णै ताय । आछे लाल, पर कर थी निज पर हणे ॥ १६. पूर्व क्रिया आख्यात, वेदन तेहथी थात। हे मंडिपुत्र ! ए बेहु अधिकार कहै अछ।। २०. पहिला क्रिया भगवान, पछै वेदना जान। ___ आछे लाल, कै पहिला वेदन क्रिया पर्छ ? २१. जिन कहै पहिला क्रिया जोय, पछै वेदन अवलोय । हे मंडिपुत्र! पहिला वेदना पछै क्रिया नहीं। २२. क्रिया-करणं ते जीव-व्यापार, तेहथी ऊपना कर्म तिवार। आछे लाल, तिण स कर्म नै पिण क्रिया कही। २३. अथवा क्रियते क्रिया-कर्म जाण, ए कही टीका में वाण। आछे लाल, हिवै क्रिया नां स्वामी भणी॥ २४. छै श्रमण निग्रंथ नै भदत ! क्रिया थी कर्म बंधत ? हे मंडिपत्र ! हंता अत्थि कहै त्रिभुवन-धणो।। १८. पाणाइवायकिरिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा-सहत्थपाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य (श० ३३१३६) १६. उक्ता क्रिया, अथ तज्जन्यं कर्म तद्वेदनां चाधिकृत्याह-- (वृ०-५० १८२) २०. पूवि भंते ! किरिया, पच्छा वेदणा? पूब्बि वेदणा, पच्छा किरिया? २१. मंडिअपुत्ता ! पुवि किरिया, पच्छा वेदणा । णो पुब्वि वेदणा, पच्छा किरिया। (श० ३।१४०) २२. क्रिया-करणं तज्जन्यत्वात्कर्मापि क्रिया। (वृ०-५० १८२) २३. अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मैव...क्रियामेव स्वामि भावतो निरूपयन्नाह- वृ०-प० १८२) २४. अत्थि णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि। (श० ३१४१) श० ३, उ० ३, ढा० ६३ ३६३ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. प्रभु ! श्रमण निर्णय ने सोय, किम क्रिया-कर्म-बंध होय । हे मंडिपुत्र ! जिन कहै प्रमाद जोग निमित्त सूं ॥ एम, पांचू क्रिया आश्री मंडिय पूछ्यूँ जान, साधु ने किम लागे तेम । २६. इहां धर्मसी कह्यो आछे लाल, २७. ए प क्रिया अशुभ सेव आछे लाल, जिन कह्यो प्रमादे २८. जोग निमित्त असुभ जोग जाण, प्रमाद नों संघात आछे लाल, तिण संजोग ते २९. प्रमाद नैं अशुभ जोग जोय, बोल आछे लाल, तिण में आज्ञा ३०. मुनि रे अशुभ जोग री जोय, आलोवणा आछे लाल, पिण अव्रत नहीं साधु ३१. इम साधु रे किया होय, अंक तेतीस नो देश तेसठमी नीके लाल, ढाल ३२. भिक्खु भारीमाल हे प्यारे लाल, १. ४. ५. ऋपराव तास 'जय जय' सुख इहां ए नहीं केवली पसाय संपति *लय - वाल्हा वारी रे अब लग ३६४ भगवती जोड़ इसूं ।। भगवान ? करी ॥ ढाल : ६४ हा 1 क्रिया तणां अधिकार थी, क्रिया प्रश्न हिव जोय । जीवे गं भंते! कयो, एक वचन अवलोय || वतें जे आरंभ में विये प्रश्न तास पहिछाण मंडियपुत्र पूछयो मुनि, उत्तर पिण तसुं जाण ।। • गुणमेहामुनि जन परम नाम खप कीजिये ३. प्रभु ! जीव प्रमाण सहित सदा कंपतो, बलि विविध प्रकार कंपायो जी एक स्थानक थी अन्य स्थानके, जावै तेह चलित कहिवायो जी || (ध्रुपदं ) उदीरति ते अन्य पदारथ, प्रेरे तास अथवा अन्य पदार्थ प्रसे जे अंगीकार करे पिछान | धरी ॥ दोय | तणी ॥ । फंदति ते किचित् चले, घटति स दिशि में चलायो । अथवा अन्य पदार्थ फॉ, खुमइ पे पृथ्वी मांह्यो । अवलोय । भणी ॥ जोय ए कही ।। सवाय । लही ॥ विशेयो। पेखो ॥ २५. कण्णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? मंडिअपुत्ता ! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च । ३१. एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ । १. क्रियाधिकारादिदमाह (१० ३१९४२) ( वृ० प० १८२ ) ३. जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति 'समियं' ति सप्रमाणं 'एयइ' त्ति एजते-कम्पते 'वेयइ' त्ति 'व्येजते विविधं कम्पते 'चलई' त्ति स्थानान्तरं गच्छति । ( वृ० प० १८३) ४. फंदइ घट्टइ खुम्भइ 'फंद' त्ति स्पन्दते किञ्चिच्चलति 'घट्टइ' त्ति सर्वदिक्षु चलति पदार्थान्तरं वा स्पृशति 'खुब्भइ' त्तिक्षुभ्यति पृथिवीं प्रविशति । ( वृ०१० १०३) ५. उदीरह 'उदीरह' त्ति प्राबल्येन प्रेरयति पदार्थान्तरं प्रतिपादयति ( वृ० प० १८३) था। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह (वृ०-५० १८३) हिव शेष क्रिया नां भेद नै, सग्रहण नै अर्थ कहोजे । तं तं भावं परिणमइ, ए पाठ नों अर्थ सुणीजै ।। ते ते भाव प्रत परिणमैं, वैसण ऊठण लेवो देवो। संकोचवो नै पसारणादिक, परिणाम प्रतै पामेवो।। हंता मंडियपूत्र ! जिन भाखै, जीव सदा परिमाण सहीतो। कंपे जाव ते ते भाव नै परिणमै छैज वदीतो।। हे प्रभु ! ज्यां लग जीव तिको नित्य,समित जावपरिणाम। तिहां लग मरणते ते स्यं, अन्तक्रिया नै पामै ? ७. तं तं भावं परिणमइ? उत्क्षेपणावक्षपणाकुञ्चनप्रसारणादिकं परिणाम यातीत्यर्थः। (वृ०-५० १८३) ८. हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति जाव तं तं भावं परिणमइ। (श० ३३१४३) ६. जावं च णं भंते ! से जीवे सया समितं जाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? 'अंते' त्ति मरणान्ते। (वृ०-५० १८३) १०. नो इणठे समठे। (श० ३३१४४) 'अंतकिरिय' ति सकलकर्मक्षयरूपा। (वृत-प० १८३) श्री जिन भाखै एह अर्थ ते, समर्थ नहीं छै ताह्यो। वृत्तिकार कहै 'सकल-कर्म-क्षय', ते अंत-क्रिया कहिवायो। सोरठा ११. 'ठाणांग चौथे ठाण, पहिला उद्देशा मझे। अंत-क्रिया चिउं जाण, प्रत्यक्ष देखो पाठ में ।। १२. त्यां चको सनतकुमार, तेहनै अंत-क्रिया कही। सकल - कर्म - क्षयकार, इण लेखे शिव गति लही ।। तिहां का टीकाकार, चक्री सनतकुमार ने। गयो तीजा कल्प मझार, एह अर्थ विपरीत छै॥ १. स्थानांग की मुद्रित वृत्ति में सनत्कुमार की अन्तक्रिया के सन्दर्भ में तीसरे कल्प का उल्लेख नहीं है। वहां यही बतलाया गया है कि सनत्कुमार चक्रवर्ती भवान्तर में सिद्ध होंगे। वह पूरा प्रसंग इस प्रकार है-यथाऽसौ सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती, स हि महातपा महावेदनश्च स रोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण सिद्धः, तद्भवे सिद्धयभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति । (स्थानांग वृ०-प०१७२) किन्तु आवश्यक-नियुक्ति में सनत्कुमार चक्रवर्ती के तीसरे स्वर्ग में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है--- मघवं सणंकुमारा सणंकुमारं गया कप्पं । (आवश्यक-नियुक्ति गा० ४२३) उत्तराध्ययन की सुखबोधा वृत्ति में भी यही उल्लेख मिलता है। (सुखबोधा पत्र २४२) जयाचार्य ने इस प्रसंग में समीक्षा करते हुए लिखा है तिहां का टीकाकार, चक्री सनतकुमार ने। गयो तीजा कल्प मझार, एह अर्थ विपरीत है। इस पद में तिहां शब्द का प्रयोग है। इसका सीधा अर्थ होता है-स्थानांग की वृत्ति में तीसरे कल्प में जाने का उल्लेख है। किन्तु स्थानांग की मुद्रित वृत्ति में यह उल्लेख उपलब्ध नहीं है। हो सकता है जयाचार्य के सामने इस उल्लेख वाली कोई प्रति रही हो। दूसरा विकल्प यह है कि तिहां का अर्थ इस प्रसंग में करें तो उसके साथ आवश्यक-नियुक्ति और सुखबोधा के मत को उद्धृत किया जा सकता है। श० ३, उ०३, दा०६४ ३६५ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत क्रिया सूत्र मांय, तृतीय स्वर्ग वृत्तिकार कहै । ते नवि मिलतो न्याय, पक्ष छोड निर्णय करो ।। अर्थ अंत क्रिया नों अनूप, इहां पिण एहवो आखियो । सकल - कर्म - क्षय रूप, त्यां पिण ए अर्थ कीजिये' || (ज० स० ) १६. *किण अर्थे प्रभुजी ! इम कहिये, जिहां लग जीव सदाई | जाव मरण नैं अंते तेहनें, अंत क्रिया नहि थाई ॥ १७. जिन भाखं ते जीव सदाई, समित जाव परिणमतो | करे आरंभ सारंभ समारंभ तिहां लगे बले तीनू विषे वरतंतो॥ 3 १४. १५. १८. + सारंभ ते हणवा तणुं आरंभ ते जीवां हर्णे, १६. *आरंभ सारंभ समारंभ करतो, बले वर्त्ततो तीनू मांह्यो । घणां प्राणभूत जीव सत्व नै वर्ते दुख उपजावा ताह्यो । २०. दुख ते मरण दुख हेतु २१. * सोग ते दीनपणां ने २४. मन, समारंभ परितापना । सर्व विशुद्ध नय नीं स्थापना || पमावै, तेह सोन अधिक थी शरीर जीरणता ते २५. सोरठा कहाय, इष्टवियोगादिक कहिवाय, वर्ते तेह २२. तिप्पाणया आंसू न्हाखवा विप, पिट्टावणयाए पहिछाणो । परितावणयाए परितापना, पमाया वि व जाणो || विषै २३. तिण अर्थ करी इम का जिहां लग जीव कंपायो । जाव परिण मैं त्यां लगे, अंते अंत-क्रिया नहि थायो || *लय - वाल्हा वारी रे अब लग +लय-पूज मोटा भांज टोटा ३६६ भगवती जोड़ तथा । पमायवा ।। पहिछाणी । रावण जागी ॥ सोरठा वृत्ति मांहि इम वा क्वचित् पठ्यते दुक्खणयाए । इत्यादिक कहिवाय, किलामणयाए बलि का ॥ उद्दवणवाए जास, अधिक पाठ कहिये विहं किलामना अरु वास, अर्थ एहनों जानिये || १६. से केणट्ठेणं भंते ! एवं बुच्चइ - जावं च णं से जीवे सया समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति ? १७. मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समितं जाव परिणमइ, तावं च णं से जीवे- -आरभइ सारभइ समारभइ आरंभ बट्टइ सारंभे वट्टइ समारंभ बट्टइ १८. संरभते तेषु विनाशसंकल्पं करोति, समारंभ' ति 'समारभते' तानेव परितापयति, आह चसंकप्पो संरंभी परितिावकरो भवे समारंभो 1 आरंभी उदओ सम्वनयागं विद्वाणं ॥ ( वृ० प० १०२, १०४) १६. आरभमाणे सारभमाणे समारभमाणे आरंभ मा सारंभ बट्टमागे समारंभ बट्टमाने बहु पाणणं भुवाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणयाए २०. 'दुःखापनायां' मरणलक्षणदुःखप्रापणायाम् अथवा इष्टवियोगादिदुःखहेतुप्रापणायां वर्तत इति योगः । (१०-१० २६४) २१. सोयावणयाए जूरावणयाए 'शोकापनाया' दैन्यंप्रापणायो 'रावणताएं' ति तिरेकाच्छरीरजीर्णताप्राणाया ( वृ० प० १८४) २२. पाषणवा परियाणा ब 'तेपापनायां' शोकातिरेकादेवाश्रुलालादिक्षरणप्रापणायां... परितापनायां शरीरसन्तापे वर्त्तते । ( वृ० प० १८४) २३. से तेणट्ठेणं मंडिअपुत्ता ! एवं बुच्चइ जावं चणं से जीवे सया समितं एयति जाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति । (श०३।१४५ ) २४, २५. क्वचित् पठ्यते 'दुक्खणयाए' इत्यादि, तच्च व्यक्तमेव यच्च तत्र कलामया उडवणवाए' इत्यधिकमभिधीयते तत्र किलामणयाए' त्ति ग्लानिनयने 'उद्दवणयाए त्ति' उत्त्रासने । (র०ता० १६४) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ 'ए कंपन का जाण, अर्थ धर्मसी इम आरंभे वर्तमान, ते आरंभी छट्टा थी अवधार, जीवठाणा तेरमा हासे अणगार तो स्वं आरंभी पण चाले सुभ जोग, तिण सूं आरंभी असुभ जोग दुःप्रयोग, तेहनीं बात जुदी इहां आम है एह, ते आयू आरंभी हालतो पिण जेह, आरंभ में वर्त्ते अछे ॥ अणारंभी अणगार, सव्व जग जीव- वच्छलकरा । मूलगो । व ते माटे अच्छे || कारणे , सुविचार, ए आरंभी नहि मुलगा ॥ तिण कारण इम जोय, मुनि आश्री ए पाठ नहीं । अर्थ इसो अवलोय, धर्मसीह कीधो जीवे ण पहिछाण, एक वचन तिण चवदम विण गुणठाण, कंप पिण सहु नहिं इहां । आरंभे वर्तमान, तेहिज लेखवियो इहाँ । अणारंभे कंपान से इहां लेखावियो नथी' || ( ज० स० ) को चलन अधिकार तास विजय हिव कहूं। कंप नहि अणगार, प्रश्न तास निसुणो सहु ॥ ३५. हे प्रभु! ते जीवडो, सदा समित सोतो कंपे नहीं यावत् नि, ते ते भाव नहीं परिणमतो ? जिन कहै हंता जीव जे, सदा सहीतो। यावत् भाव न परिण में, ए अयोगी आधी प्रतीतो ॥ 1 परमाण २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३६. ३७. ३८. ३६. ४०. प्रभु ! ज्यां लग जीव कंप नहीं यावत् त्यां लग मरणंते तसुं, अंत क्रिया - लय-वाल्हा वारी रे अब लग कियो । मूलगो ॥ लगे। थया ? परिणमै स्यूं नहीं। अछे ।। अर्थ कर जिन कहै हंत जावत हुवै, किण यावत् अंत क्रिया हवे ? हिव उत्तर दे जेतले कालै जीव ते सदा समित न यावत् भाव न परिणमैं, तिहां लग आरंभादि विहुं नह्यो । कंपायो । नांही। थाई ? ती वर्ष से नहीं, ए वि न करतो सोयो । ए तीनूं विषै अणवर्त्ततो, किणरी हिंसा न करें कोयो । ताह्यो ? जिगरायो । ३४. उतार्थविपर्ययमाह- ३५. जीवे णं भंते ! सया समितं नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमइ ? ३६. हंता मंडिअपुत्ता ! जीवे णं सया समितं जाव नो तं तं भावं परिणमइ । (०२१४६) शैलेशीकरणे योगनिरोधान्नो एजत इति । ( वृ० प० १८४) एयति जाव नो तं तं भावं जीवस्स अंते अंतकिरिया ३७. जावं च णं भंते ! से जीवे नो परिणमइ, तावं च णं तस्स भवइ ? (१०१० १०४) ३८. हंता जाव भवइ । (श० २०९४७) सेकेणट्ठेणं जाव भवइ ? ३६. मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं से जीवे नो आरभइ नो सारभइ नो समारभइ, ४०. नो आरंभे वट्टइ, नो सारंभ बट्टइ, नो समारंभ वट्टइ अगारभमाणे असारभमाणे असमारभमाणे, आरंभ अट्टमा सारंभ अट्टा समारंभ अवमा श० ३, उ० ३, ढा० ६४ ३६७. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. घणां प्राण भूत जीव सत्व नै, दुख पमा नाही। यावत् परितापन विष, ए वतै नहि काई ।। जोग-निरोध शुक्ल-ध्यान सं, सकल - कर्म - क्षय रूपो। अंत-क्रिया होवै तिहां, दृष्टत दोय अनूपो।। ४१. बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खावणयाए जाब अपरियावणयाए वट्टइ। ४२. योगनिरोधाभिधानशुक्लध्यानेन सकलकर्मध्वंसरूपाऽन्तक्रिया भवति तत्र दृष्टान्तद्यमाह (वृ०-प० १८४) ४३. से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडिअपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ? ४४. हंता ! मसमसाविज्जइ। जिम कोइ नर सुका तृण तणो पूलो प्रक्षेपै अग्नि मझारो। हे मंडियपुत्र! अग्नि में न्हाखै छतै,शीघ्र दहन हुवै तिणवारो।। ४४. इम पूछ्यै थकै मडिपुत्र कहै, हां प्रभु ! शीघ्र बलंतो। वलै दूजो दृष्टंत देवै करी, प्रश्न करै भगवंतो।। ४५. कोइ अय-तप्त कडाहलै विष, जल-बिंदू प्रक्षेपै सोयो। हे मंडियपुत्र ! ते प्रक्षेपियां, शीघ्न विध्वंसज होयो ।। ___ मंडिपुत्र कहै हां प्रभु ! शीध्र विध्वंसज थायो। हिवै उपनय थी देखाडिय, सामर्थ्य जोग कहायो ।। ४५. से जहानामए केइ पुरिसे तत्तसि अयकवल्लंसि उदयबिदूं पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडिअपुत्ता ! से उदयबिंदू तत्तंसि अयकवल्लसि पविखत्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंस मागच्छद? ४६. हंता विद्धसमागच्छइ। इह च दृष्टान्तद्वयस्याप्युपनयार्थः सामर्थ्यगम्यः । (वृ०-प०१८४) ४७. यथा-एबमेजनादिरहितस्य शुक्लध्यानचतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्यदहनं स्यादिति। (वृ०-५० १८४) ४८. अथ निष्क्रियस्यैवान्तक्रिया भवतीति नौदृष्टांतेनाह (वृ०-५० १८४) ४६. से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे ५०. ५०. बोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठति । ४७. इम कंपन कर रहित नैं, शुक्ल ध्यान तणों चोथो पायो। तेह रूप अग्ने करो, पुलो कर्म रूप जल जायो।। ४८. हिवै क्रिया-रहित नै इज हुवै, अंत - क्रिया सुखदायो। नावा मैं दृष्टते करी, भाखै छै जिण रायो।। ४६. यथा दृष्टांते द्रह जिको, पूर्ण जलभृत हुँतो। पूर्ण-प्रमाण ऊणो नथी, तल उलसत बेल बधतो ।। वोसट्टमाणे चिहं दिशै, पसरयो जल - विस्तारो। जिम घडो भरयो तिम द्रह भरयो,इम द्रह तिष्ठ तिवारो।। अथ कोइ पुरुष ते द्रह विषै, इक मोटी नाव कहायो। सदा श्रवती लघु-महा-छिद्र ते, मेली द्रह रै मांह्यो। ५२. हे मंडिपुत्र ! नावा तिका, आश्रव द्वारे करीनै भराई। लिगार मात्र ऊणी नहीं, वेल वृद्धि तलो हुलसाई ।। ५३. ऊपर चिउं दिशि पसरती, रहै भरया घडा जिम ताह्यो। 'हंता चिट्ठति" इसो पाट, किणहि पडत मांह्यो ।। १. जयाचार्य ने आगमों का पद्यानुवाद करते समय मूल पाठ के साथ पाठान्तर और वत्ति का भी मुक्त-मन से उपयोग किया है। कुछ स्थलों पर उनका उपयोग मूल पाठ के प्रवाह में किया गया है और कहीं-कहीं उसकी सूचना भी दी गई है। भगवती-जोड की ६४वीं ढाल की ५३वीं गाथा में पाठान्तर का उल्लेख करते हए जयाचार्य ने लिखा है'हंता चिट्ठति' इसो पाठ किणहि पडत माह्यो। (शेष अग्रिम पृष्ठ पर) ५१. अहे णं केइ पुरिसे तसि हरयसि एगं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाहेज्जा, ५२. से नूणं मंडिअपुत्ता ! सा नाबा तेहि आसवदारेहि आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्ट माणा ५३. वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति। ३६८ भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. हिवै कोइ पुरुप ते नाव नैं, सर्व थी समस्त प्रकारो। पाणी आवा नां द्वार नैं, ढांकी नै तिणवारो। जल उलींचवा नां भाजन करी, काढे उदक उलींची बारो। ते उदक वारै काढयां छतै, शीघ्र ऊंची आवै तिणवारो।। ५४. अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता आसव दाराई पिहेइ, पिहेत्ता ५५. नावा-उस्सिचणएणं उदयं उस्सिचेज्जा से नणं मंडिअपुत्ता ! सा नावा तसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उदाइ? ५६.हंता उदाइ। इम वीर प्रभु पुछ्यै थकै, वर मंडियपुत्र कहै बायो। हंता हां आवै, प्रभु ! तब भाखै जिनरायो ।। ५७. इण दृष्टांते हे मंडियपुत्र ! मुनि ! आत्म-संवृत अणगारो। ईा-समिति करि सहित छै, जाव गुप्त - ब्रह्मचारो।। उपयोग सहित चालतो थको, संवत संत वदीतो। उपयोग सहित ऊभो रहै, वेसै सूवै रूडी रीतो।। ५६. वस्त्र पात्र बलि कंबलो, पायपूछणो ते रजोहरणं । लेतां मेलता छता, उपयोग सहित आचरणं ।। जाव चवखुपम्हणिवायमवि, आंख टमकार इतरो कालो। सूक्ष्म इरियावही क्रिया कही, ते बेमात्राइं न्हालो ।। अंतर मुहूर्त आदि दे, देश ऊणो पूर्व कोड थाई। क्रिया काल नां विचित्रपणां थकी, विविध मात्रा बेमात्रा कहाई।। ५७. एवामेव मंडिअपुत्ता ! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स जाव गुत्तबंभयारिस्स, ५८. आउत्तं गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस्स तुयट्टमाणस्स, ५६. आउत्तं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणं गेहमाणस्स निक्खिवमाणस्स ६०. जाव चक्खुपम्हनिवायमवि बेमाया सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ६१. 'वेमाय' त्ति विविधमात्रा, अन्तर्मुहर्तादेर्देशोनपूर्वकोटी पर्यन्तस्य क्रियाकालस्य विचित्रत्वात् । (वृ०-प० १८४) ६०. सोरठा ६२. वृत्तौ वृद्ध आख्यात, स्तोक - मात्र बेमात्र ते। चक्षु - पम्ह - निपात, इतै काल पिण जे क्रिया ।। ६३. *किहां बेमाया पाठ नै स्थानके, 'संपेहाए" पाठ दीसंतो। चक्खुपम्हणिवाय स्व इच्छा करी,पर इच्छा किंचित न करतो।। ६२. वृद्धाः पुनरेवमाहुः--यावता चक्षुषो निमेषोन्मेषमात्रापि क्रिया क्रियते तावताऽपि कालेन विमात्रया स्तोकमात्रयाऽपि। (वृ०-प० १८४) ६३. क्वचिद् विमात्रेत्यस्य स्थाने 'सपेहाए' त्ति दृश्यते तत्र च 'स्वप्रेक्षया' स्वेच्छया चक्षु पक्ष्मनिपातो न तु परकृतः। (वृ०-प० १८४) अंगसुत्ताणि ३३१४८ में 'हंता चिट्ठति' ऐसा पाठ है। जयाचार्य ने जिस आदर्श के आधार पर जोड़ की रचना की, उससे अतिरिक्त किसी प्रति में उनको चिट्ठति पाठ मिला होगा अथवा कुछ आदर्शों में संक्षिप्त पाठ की दृष्टि से ऐसे स्थलों को अनुल्लिखित ही छोड़ दिया जाता है। जयाचार्य द्वारा प्रयुक्त आदर्श में यह पाठ न हो और उन्हें उपलब्ध किसी अन्य आदर्श में हो तो उसकी सूचना देने के लिए उन्होंने 'हता चिट्ठति' पाठ उद्धृत किया हो, किन्तु लिपिदोष के कारण चिट्ठति पर अनुस्वार लग गया हो, यह भी संभव लगता है। प्रस्तुत प्रकरण की दृष्टि से 'चिट्ठति' पाठ ही शुद्ध प्रतीत होता है। *लय-वाल्हा वारी रे अब लग १. भगवती-जोड़ की ६४वीं ढाल की ६३वीं गाथा में जयाचार्य ने 'बेमाया' पाठ के पाठान्तर का उल्लेख करते हुए 'संपेहाए' पाठ उद्धृत किया है। वृत्तिकार ने इस स्थान पर 'सपेहाए' पाठ लिखकर उसका संस्कृत रूपान्तर किया है-'स्वप्रेक्षया'। इस दृष्टि से 'सपेहाए' पाठ ही अधिक संगत प्रतीत होता है। जयाचार्य को उपलब्ध किसी आदर्श में 'संपेहाए' पाठ रहा होगा, यह उनके उक्त निर्देश से स्पष्ट होता है। श०३, उ०३, ढा०६४, ३६६ Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. सूक्ष्म - इरियावहि बंधै तिका, कर्म साता-वेदनी सूसंधो। उपशांत-मोह क्षीण-मोह रे, सजोगी केवली रे बंधो॥ ६५. ए तीन गुणठाण वीतरागपणे, सक्रियपणां थी सोयो। ___ साता - वेदनी कर्म नों, बंध होब अवलोयो ।। ६४, ६५. 'सुहुम' त्ति सूक्ष्मबन्धादिकाला 'ईरियावहिय' त्ति ईर्यापथो—गमनमार्गस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः 'किरिये' ति कर्म सातवेदनीयमित्यर्थः 'कज्जइ'त्ति क्रियते भवतीत्यर्थः, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्ती वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात् सातवेद्यं कर्म बध्नातीति भावः। (वृ०-प०१८४) ६६. सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, वितियसमयवेइया, ततिय समयनिजरिया। बद्धा कर्मतापादनात् स्पृष्टा जीवप्रदेशः स्पर्शनात् । (वृ०-५० १८४) ६७. सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया निज्जिण्णा सेयकाले अकम्म वावि भवति। ६६. पहिलै समय बंध क्रिया तिका, जीव - प्रदेशे ते फर्शायो। बीजै समय उदय ते वेदवू , तीजै निर्जर दूर थायो।। ६७. पछै आगमिया काल विर्ष ए, कर्म रहित पिण होई। एहवी बात कही छै सूत्रे, इहां वृत्तिकार कह्यो सोई ।। सोरठा तठा पछै अवलोय, अकर्म आगामिक अद्धा। इण वचने करि होय, अकर्मता चोथै समय ।। यद्यपि तिहांज ख्यात, तृतीय समय अघ निर्जरै। इण वचने करि थात, अकर्मता तीजै समय ।। द्वितीय समय रै माय, भाव कर्म अति निकट थी। तीजै समय कहाय, द्रव्य कर्म सुद्ध द्रव्य नय ।। ७१. *तिण अर्थ मंडियपुत्र ! इम कह्य, ज्यां लग जीव सदा सप्रमाणो। न कंपे जाव तेहनै अंते, अंत-क्रिया हवै जाणो ।। ६८. ततश्च 'सेयकाले' त्ति एष्यत्काले 'अकम्मं वावि' त्ति अकर्माऽपि च भवति। (व०-प० १८५) ६६, ७०. इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्माकर्म भवति तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीर्ण कर्मेति व्यपदिश्यते। (वृ०-५० १८५) ७१. से तेणठेणं मंडिअपत्ता ! एवं वुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरिया भव। (श० ३।१४८) सोरठा 'कह्यो इहां धर्मसी एम, जीव जिको हालै नहीं। अछ अजोगी खेम, अंत-क्रिया तेहिज करै ।। जोग मध्ये बे लंभ, सुभ अनैं बलि असुभ छ । सुभ जोगे अणारंभ, असुभ जोगे आरंभ छै ।। तिम हालतां नी बे जात, सुभ जोगे मुनि हालतो। अणारंभी पिण थात, अंत-क्रिया न करै तिको ।। असुभ जोगे हालत, तसं आरंभी पिण का। अंत-क्रिया न करत, ए तो प्रत्यक्ष ईज छै ।। सुक तृण अग्नि दहंत, तप्त कडाहे जल-बिंदु । शीघ्र विध्वंसज हंत, भस्म कर इम मुनि कर्म ।। द्रह में सछिद्र नाव, पाणी भर तल बूडिई। तिम मिथ्यात्वादि भाव, आश्रव द्वारज छिद्र सम।। ७७. *लय--वाल्हा वारी रे अब लग ३७० भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए संसार मझार, काणी नावा सारिखो। कर्म-उदक करि भार, भ्रमण करै इम बूडियै ।। नाव छिद्र रूंधत, उदक उलिंची काढियै । नाव नहीं बूडत, शीघ्र आवै जल ऊपरै।। तिम मिथ्यात्वादि-छिद्र, सम्यक्त्व संवर आदि दे। संवर पंच अखुद्र, तेहथी आश्रव रूंधियै ।। पर्व संचित जेह, आवश्यकादिक तप करी। कर्म-उदक काढेह, मरणते सहु कर्म क्षय' ।। (जस) ८१. श्रमण तणां अधिकार ते, प्रमत्त - संजती न्हाल । वलि अप्रमत्त - मुनि तणों, कहियै छै हिव काल ।। ८२. अथ यदुक्तं श्रमणानां प्रमादप्रत्यया क्रिया भवतीति, तत्र प्रमादपरत्वं तद्विपक्षत्वात्तदितरत्वं संयतस्य कालतो निरूपयन्नाह-- (वृ०-५० १८५) ८३. पमत्तसंजयस्स णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सब्बा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिर होइ? ८३. *प्रमत्त-संजती हे प्रभु ! प्रमत्त-संजम वर्तमानो। सहु पिण प्रमत्त अद्धा तिको, काल थकी केवच्चिरं जानो? ८४. वनि ८५. सोरठा वत्ति विष इम न्हाल, प्रमत्त अद्धा नों अरथ। प्रमत्त गुणस्थानक काल, काल थकी काल आथयी।। केवच्चिर वलि ख्यात, कितो काल जावत् हुई। ए प्रश्न अवदात, मंडितपुत्रे पूछियो।। वा०-इहां ए तर्क कीधी-केवच्चिर एणे कहिवे करी काल थकी नों अर्थ प्राप्त थयो । तो काल थकी कहिवा नों स्यूं प्रयोजन ? एहनों उत्तर-क्षेत्रतः ते क्षेत्र थकी एह भाव टालेवा नै अर्थ क्षेत्रतः केवच्चिरं क्षेत्र केतलो काल इसो पिण प्रश्न हुई, जिम अवधिज्ञान क्षेत्रतः केवच्चिर-क्षेत्र थकी केतलो काल हुई, तेतीस सागरोपम अनुत्तर विमान क्षेत्र नै विर्ष अवधिज्ञान हुई अनै काल थकी ६६ सागरोपम जाझेरो हुई ते माटै इहां काल थकी कहिन केवच्चिरं पाठ कह्यो। ८६. 'जिन भाखै मंडियपुत्र ! सांभले, एक जीव आश्री इम जोडो। जघन्यपणे इक समय ह, उत्कृष्ट देसूण पूब्व - कोडो।। ८४. 'प्रमत्ताद्धा' प्रमत्तगुणस्थानककालः 'कालतः प्रमत्ता द्धासमूहलक्षणं कालमाश्रित्य । (वृ०-प० १८५) ८५. 'कियच्चिर' कियन्तं कालं यावद् भवतीति प्रश्नः । (वृ०-५० १८५) वा०-नतु कालत इति वाच्यं, कियच्चिरमित्यनेनैव गतार्थत्वात्, नैव, क्षेत्रत इत्यस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, भवति हि क्षेत्रतः कियच्चिरमित्यपि प्रश्नः, यथाऽवधिज्ञानं क्षेत्रतः किच्चिरं भवति? त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि, कालतस्तु सातिरेका षट्पष्टिरिति। (वृ०-५० १८५) ८६. मंडिअपुत्ता ! एगं जीवं पडुच्च जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। ८७. सोरठा प्रमत्त-संजम पाय, समयानंतर हीज मति । तेह थको कहिवाय, जघन समय इक इम वृत्तौ ।। जघन्य समय इक न्हाल, तास न्याय पूर्वे कह्यो। हिव उत्कृष्टज काल, देसूण पूरव कोड किम? ८७. 'एक्कं समयं' ति, कथम् ? उच्यते, प्रमत्तसंयमप्रतिपत्ति समयसमनन्तरमेव मरणात्। (वृ०-५० १८५) ८८. *लय-वाल्हा वारी रे अब लग श० ३, उ०३, ढा०६४ ३७१ Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. ६०. ६१. ६२. ६३. ९४. ६५. ६७. वा०- ए अप्रमादी उपशम-श्रेणि चढ तिको जीव ग्रहिवो, जो आठमैं गुणठाण उपशम-श्रेणि चढतो प्रथम समय मरे तो पिण सातमैं गुणठाणे अप्रमत्तपणे अंतरह्यो मा जघन्य अंतर्मुहूर्त, इहां उपशम-श्रेणी चढ तिको अप्रमत्त ग्रह्यो । पिण अन्य अप्रमत्त ग्रहण न कियो । ६. 25. • वृत्तिकारक प्रमत्त अप्रमत्त, बेहं गुणठाणं लहै । कहै अन्य आचार्य काल ए सह छठे गुणठाणेज तं ॥ नाना बहु जीव आश्रवं छठा गुणठाणा रो कालो। सदा काल रहे सासतो, प्यार नियंठा निहालो । अप्रमत्त-संजती हे प्रभु! अप्रमत्त-संजमे वर्तमानो । सर्व काल अप्रमत्त तणुं रहे केतलं काल विछानो ? जिन भाखे काल अप्रमत्त तणो, इक जीव आश्री जोडो । अंतर्मुहू जघन्य थी, उत्कृष्टो देसूण पुव्व-कोडो । *हां वृत्तिकार का काल अप्रमत्त, अंतर्मुहूर्त्त रहै सही। अंतर्मुहूर्त मांहि न मरे, तेहथी ए जघन्य ही ॥ चूर्णिकार मत - प्रमत्त वरजी, संजती जे सर्व ही। प्रमत्त-भाव तिहां नहीं || अप्रमत्त कहियै तिणा नैं ६६. 명 उपराम श्रेण चढतो मुहूर्त ने भीतर सही। काल करतो छतो पार्म जपन्यकाल इतोज ही ।। वहा काल क अप्रमत्त तणुं हि सर्वकाल में जेह भावी भावांतर वर्षा गोयम प्रश्न करेह || १००. हे भवंत! इह विध कही, वीर नं गोयम बंदी। नमस्कार करिने बलि, इस बोल्या आनंदी ॥ १०१. हे प्रभुजी ! किंण कारणे, लवणोदधि जल रासी । चवदस आठम ने विषै अमावस्या पूर्णमासी ॥ ३७२ काल उत्कृष्ट अप्रमत्त नों, देसूणों पूर्व कोड है । तेरमै गुणठाण गुणिये, वृत्ति थी ए जोट है । 'अप्रमत्त नाना जीव आसरी, सदा काम केवली रे न्यायो । सेवं भंते! सेवं भंते! कही, मंडियपुत्र ऋषिरायो ॥ वंदना नमस्कार करि वीर नैं संजम तप कर ताह्यो । आत्मा ने भावता यका, विचरं महामुनिरायो । "लय-पूज मोटा भांज तोटा + लय-वाल्हा वारी रे अब लग भगवती-जोड़ कोकिल प्रत्येकमन्तर्मुहुर्त्तप्रमाणे एव प्रमत्ता मत्तगुणस्थानके । (१०० १०५) (०२१४९) ६०. नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । ६१. अप्पमत्त संजयस्स णं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ? ९२. मंडिअपुत्ता ! एवं जीवं पडुच्च जहणेणं अंतोमुहुत्तं, कोसेणं देणा पुथ्वकोडी ९३. 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति किलाप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्यान्तर्मुहूर्तमध्ये मृत्यु न भवतीति । ( वृ० प० १८५ ) ६४. चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभावात् । ( वृ०० १०५) ५. जघन्यकालो लभ्यत इति । ६६. देशोनपूर्व कोटी तु केवलिनमाश्रित्येति । ( वृ० प० १८५) ९७. नाणाजीवे पडुच्च सच्वद्धं । (श० ३।१५०) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं मंडिअपुत्ते अणगारे ६८. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (स०] २०१५९) ९६. अथ सर्वाद्वाभाविभावान्तरप्ररूपणायाह कालं कुर्वन् (१०-१० १०५) ( वृ०१० १०५) १००. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं व्यासी ! १०. सिणीसु उण्णमा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. अनेरी तिथि नीं अपेक्षया, ए पट तिथि नैं मांह्यो । जल अधिक वर्ध अथवा घटे, हे प्रभु! ते किणन्यायो ? १०२. जीवाभिगम माहे मांहै कह्य, लवणोदधि विस्तारो । जावत् लोक नी स्थिति वर्ग इहां कहियूँ अधिकारो ॥ 3 १०४. सवधि मध्य भाग चिरं दिशि पाताल - कलशा चि अछे । भाग लिंग तसुं तले वायु ऊपर जल विच उभय छ । १०५. वलि लघु कलशा सप्त सहस्रज, अठ सय चउरासीइं । विण भाग त तल वायु विच उभय, कध्वं जल इम वासी ।। १०६. वायु नां विक्षोभ ती वृद्धि अष्टम्यादिक तिथि व हामी जल तणीं। लोक स्थिति थकी भणी ।। १०७. लवणोदधि में जल करी ए, जंबू लोपातो नथी । पीड अणउपजावतो, जिन प्रमुख पुन्य प्रभाव थी । १०० इक उदक ते निज न करें, लोक नुं अनुभाव ही । सेवं भंते ! कही गोयम, जाव विचरंता सही ।। १०२. अर्थ १. अंक तेतीस नं, ढाल भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' तृतीयतृतीयकार्थः ॥३॥३॥ चोटमी बंगी। संपति सुरंगी || ढाल : ६५ बूहा पूर्व उद्देशे कहि कहि क्रिया, तेह्नों ईज विशेष । विचित्रपणों दिखाया कहिए उद्देश || "हे भदंत ! अणगार रे, संजय तप करी। भावित आत्म तणों पणी ए ॥ लय-पूज मोटा भांजं टोटा १. जलमय न बनाना * लय-वाल्हा वारी रे अब लग लयबे कर जोडी ताम रे १०२. अतिरेगे वड्ढइ वा ? हायइ वा ? 'अतिरेगं ति' तिथ्यन्तरापेक्षया अधिकतरमित्यर्थः । ( वृ०० १६६) १०३. लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयव्वा जाव लोयट्ठिई, लोयाभावे । (श० ३।१५२) 'लवण समुद्दवत्तब्वया नेयव्व' त्ति जीवाभिगमोक्ता, कियद्दूरादित्याह जावोत्यादि । कलशाः । ( वृ० प० १८६) १०४. लवणसमुद्रस्य मध्यभागे दिक्षु चत्वारो महापाताल( वृ०० १०६) १०५. तासका योजनमप्रमाणाश्चतु रशीत राष्टताधिकसप्तसहा वाय्वादियुक्तत्रिभागवन्तः सन्ति । (१०-१० १०६) १०६. तदीयवातविक्षोभवशाज्जलवृद्धिहानी अष्टम्यादिषु स्याताम् । (२०१० १०६) २०७. मीनापति ? दा दिप्रभावाल्लोकस्थितिर्वेषा इति । ( वृ० प० १८६ ) १०. गोद करे लाभ ( वृ०-५० १८६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति । (श० ३।१५३) १. अनन्तरोदेश के क्रियोक्ता, सा च ज्ञानवतां प्रत्यक्षेति तदेव कियाचित् विचित्र दर्श देवकमाह(१०-१० १०६) २. अणगारे णं भंते ! शाविअप्पा श० ३, ३० ३, ४ ० ६४, ६५ ३७३ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. एवंविधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्तीति कृत्वा भावितात्मेत्युक्तं। (वृ०-५० १८६) आख्यो इम वृत्तिकार, बहुलपण करी। अवधि ज्ञानादिक ते भणी ।। धर्मसीह कह्यो एम, मिथ्यात्वी पिण हुवै । नियम नहीं मुनिवर तणों ।। घर तजवै अणगार, ते निज मत करी। तसं भावित आतमपणो।। शतक चवदमै पेख, प्रथम उद्देशके। बाल-तपस्वी नैं कह्य ।। भावितात्म अणगार, असुर में ऊपजै। विभंग अज्ञान तिणे लह्य ।। सुर वैकिय-समुद्धात, तेणे करि कियो। उत्तर-वैक्रिय तनु छतो।। ८. देवं, बेउब्बियसमुघाएणं समोहयं 'समोहयं' ति विहितोत्तरवैक्रियशरीरमित्यर्थः । शिविकादि आकार, विमान बेसने। किणहिक स्थानक जावतो।। ६. जाणरूवेणं जामाणं 'जाणरूवेणं' ति यानप्रकारेण शिबिकाद्याका रवता वैक्रियविमानेनेत्यर्थः 'जायमाणं' ति यान्तं गच्छन्त । (वृ०-५० १८६) १०. जाणइ-पासइ? 'जाणइ' त्ति ज्ञानेन 'पासई'त्ति दर्शनेन । (वृ०-प० १८६) ते सुर जातां प्रति सोय, जाण छै प्रभु ! बलि देखे दर्शन करी? १२. गोयमा ! अत्थेगइए देवं पासइ, नो जाणं पासइ। १३. अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देव पासइ । १४. अत्थेगइए देवं पि पासइ, जाणं पि पासह । तब जिन भाखै एम, सांभल गोयमा ! चिउं भंगे इहां अनुसरी ।। कोइयक तिहां देखंत, देव जातां प्रतै । विमाण नैं देख नहीं ।। कोई एक अणगार, देखे जान नै। सुर नै नहि देखै सही।। कोइ एक वलि अणगार, देखै देव प्रतै । ___यान प्रतै पिण देखतो।। कोइ एक वलि अणगार, न देखै देव नैं। यान प्रतै नहिं पेखतो।। हे भदंत ! अणगार, भावित - आतमा। दर्शण अवधि तणो धणी ।। उत्तर - वैक्रिय रूप, विमान बेसनै । देखें सुरी जाती भणो ।। एवं ए चिउं भंग, देव तणां कह्या। इम देवी नां जाणिय ।। हे भदंत ! अणगार, भावित-आतमा। अवधि सहित पिछाणिय ।। १५. अत्थेगइए नो देवं पासइ, नो जाणं पासइ। (श० ३१५४) १६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा १७. देवि बेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाण रूवेणं जामाणि जाण इ-पासइ? १८. गोयमा ! एवं चेव। (श०३।१५५) १८. १६. १६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा ३७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. देवं सदेवीअं वेउव्वियसमग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं २१. जामाणं जाण इ-पासइ? २२. गोयमा ! अत्थेगइए देवं सदेवीअं पासइ, नो जाणं पास। २३. एतेणं अभिलावेणं चत्तारि भंगा। (श०३।१५६) २४. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स कि अंतो पासइ? 'अंतो' ति मध्यं काष्ठसारादि। (वृ०-५० १८६) २५. बाहिं पासइ ? चउभंगो। (श० ३१५७) 'बाहि' ति बहिर्वति त्वक्पत्रसंचयादि । (वृ०-प० १८६) २६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स कि मूलं पासद? २७. कंदं पामइ? देवी सहित देव, करि उत्तर - वैक्रिय । विमान में बैसी जिहां ।। जातां प्रतै जिवार, ए अणगार ही। जाण नै देख तिहां? कोइयक तिहां देखंत, देव देवी प्रतै। विमान ने देखै नहीं ।। इण आलावै एह, चउभंगी इहां। कहिवी पूर्ववत् सही।। प्रभु ! भावितात्म अणगार, स्यू देखै रूंख नों। मध्य काष्ठ सारादि मैं ।। कै वाह्य त्वचा पत्रादि, ते देखै अछै ? चउभंगी इहां कही जिने ।। इम स्यूं देखै मूल? तिरछो जाय तें। मूल कहीजे तेहनै । मूल ऊपरै जेह, गांठि अछ जिका। कंद कहीजे तेहने । मल ए कंद नी जाण, रूंख तणी कही। प्रथम चउभंगी परवरी ।। मूल भणो देखत, देखे खंध नै? ए दूजी कहिये खरी ।। इम यावत् पहिछाण, मूल करी इहां। बीज संघात पिण लही। एवं कंद संघात, संयोजन अछै । यावत् बीज संघात ही। एवं यावत् जाण, पुष्प संघात ही। वीज संघाते आखियै ।। हिव एहनों विस्तार, जुदो जुदो कहूं। ते श्रोता अभिलाषियै !! सर्व चउभंगी जाण, पैंतालीस छ । ___संक्षेपे सूत्रे लही ।। 'मूल-कंद नी एक, मूल रु खंध नी। ते तो पूर्व कही सही ।। 'मूल-त्वचा नी जाण, 'मूल-शाखा तणी । ___ "मूल-प्रवाले पंचमी ।। 'मूल-पत्र पेखंत, "मूल रु पुष्प नीं। "मल र फल नी अष्टमी। २८. एवं कि मूलं पासह ? कंदं पासइ? चउभंगो। (श० ३।१५८) २६. मूलं पासद? खंधं पासइ? चउभंगो। (श०३।१५६) ३०. ३०. एवं मूलेणं जाव बीजं संजोएयव्वं । (श० ३।१६०) ३१. एवं कंदेण वि समं संजोएयव्वं जाव बीयं । (श० ३।१६१) ३२. एवं जाव पुप्फेण समं बीयं संजोएयव्वं । (श० ३११६२) श०३, उ०४,ढा०६५ ३७५ Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. ४०. ४४. ४७. 'मूल बीज नी होय, नवमीं चउभंगी। ए मल संघाते नव कही ।। ___ कंद संघाते आठ, कंद रु खंध नी। ___ चउभंगी पहिली सही ।। कंद-त्वचा नी जोय, 'कद-शाखा तणीं। कंद-प्रवाल चउथी लही ।। "कंद-पत्र 'कंद-पुष्प, कंद-फल सातमी। कंद-बीज अष्टमी सही ।। खंध संघाते सात, 'खंध-त्वचा तणी। खंध-शाखाखंध-प्रवाल नीं।। 'खध-पत्र खंध-पप्प, खंध फल नी छठी। सप्तमी खंध नैं बीज नी ।। षट है त्वचा संघात, त्वचा-शाखा तणी। दूजी त्वचा-प्रवाल नी ।। त्वचा-पत्र 'त्वच-पप्प, त्वच-फल नी बली। छठी त्वचा रु बीज नी ।। शाखा संघात पंच, शाख-प्रवाल नी। शाख-पत्र दूजी जमी।। 'शाखा-पुष्प पिछाण, शाखा-फल तणी। "शाखा-बीज ए पंचमी ।। प्रवाल साथै च्यार, 'प्रवाल-पत्र नीं। प्रवाल-पुष्प तणी वली ।। 'प्रवाल-फल नी पेख, प्रवाल-बीज नीं। प्रवाल सूं ए चिउं मिली। पत्र संघाते तीन, 'पत्र रु पुष्प नीं। ___पत्र-फले पत्र-बीज री।। पुष्प संघाते दोय, 'पुष्प र फल तणी। पुष्प-बीज नी दूसरी ।। फल संघाते एक, फल नै बीज नी। पंतालीस सर्व कही ।। नव अठ सत पट पंच, चिउं त्रिण द्वि इक । इम पैंतालीस लही ।। हे भगवत! अणगार, भावित - आतमा। फल देखै स्यूं तरु तणु ? कहै देखें तसं बीज, इहां पिण चउभंगी। पैतालीसमी ए भणुं ।। ४८. ५४. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स कि फलं पासइ? ५५. बीयं पासइ? च उभंगो। (श० ३।१६३) ३७६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मूल कंद १. कंद- स्कंध २. कंद-त्वचा ३. कंद - शाखा ४. कंद प्रवाल ५. कंद-पव १. स्कंध त्वचा २. स्कन्ध शाखा ३. स्कन्ध- प्रवाल ४. स्कन्ध-पत्र १. त्वचा शाखा २. त्वचा प्रवाल ३. त्वचा-पत्र १. पत्र-पुष्प २. मूल-स्कन्ध ३. मूल - त्वचा ४. मूल - शाखा ५. मूल-प्रवाल १. पुष्प फल १. फल-बीज १. शाखा- प्रवाल २. शाखा-पत्र ३. शाखा- पुष्प ४ शाखा फल ५. शाखा- बीज १. प्रवाल- पत्र २. प्रवाल-पुष्प ३ प्रवाल- फल ४. प्रवाल- बीज चौभंगी यंत्र २. पत्र फल २. पुष्प-बीज ३. पत्र- बीज ६. कंद - पुष्प ७. कंद-फल ५. स्कन्ध- पुष्प ६. स्कन्ध-फल ७. स्कन्ध-वीज ४. त्वचा - पुष्प ५. त्वचा - फल ६. मूल-पत्र ७. मूल-पुण्य ६. चा-बीज ८. मूल-फल १. मूल-बीज ८. . कंद-वीज मूल के साथ नौ, कन्दर के साथ आठ, स्कन्ध के साथ सात, त्वचा के साथ छह, शाखा के साथ पांच, प्रवाल के साथ चार पत्र के साथ तीन, पुष्प के साथ दो और फल के साथ एक चौभंगी करने से सब मिलकर पैंतालीस चोभंगी होती है। श० ३, उ० ४, ढा० ६५ ३७७ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा वैक्रिय - समुद्घात, पूर्वे देव तणो कह्य । आगल बलि अवदात, वैक्रिय वाऊकाय नुं ।। *हे प्रभु ! वाऊकाय, इक महास्त्री तणो। तथारूप जे पुरुष नुं ।। अथवा गज नों रूप, बलि गाडा तणों। युग गोल-देश प्रसिद्ध न ।। ५६. 'विउव्वियसमुन्धाएणं ममोहा ति प्रागुक्तमतो वैक्रियाधिकारादिदमाह--- (वृ०-५० १८७)। ५७. पभ णं भंते ! वा उकाए एगं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं ५७. ५६. गज अंबाबाडी जोय, गिल्लि कहिये तसं। हय-पलाण थिल्लि अखी ।। सिविका कूट-आकार, आच्छादित हवै। संदमाणी ते पालखी।। विकुर्वे ए रूप? इम पूछ्यै छतै। जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं ।। वाऊ वंक्रिय रूप, इक मोटो तिहां । संठाण पताका नों सही ।। ५८. हत्थिरूवं वा जाणरूवं वा जुग्गरूवं वा 'जाणं' ति शकटं 'जुग्गं' ति गोल्लविषयप्रसिद्धं । (वृ०-प० १८७) ५६. गिल्लिरू वं बा थिल्लिरूवं वा 'गेल्लि' ति हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुष गिलतीव 'थिल्ली' ति लाटानां यदश्वपल्यानं तदन्य विषयेषु थिल्लीत्युच्यते। (वृ०-५० १८७) ६०. सीयरूवं वा संदमाणियरूबं वा 'सिय' ति शिबिका कुटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः 'संदमाणिय' नि पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । (वृ०-प० १८७) ६१. विउवित्तए? गोयमा ! णो इणठे समझें। ६२. वाउकाए णं विकुव्वमाणे एगं महं पडागासंठियं रूवं विकुब्बइ। (श० ३।१६४) महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं । (वृ०-५० १८७) ६३. स्वरूपेणव वायोः पताकाकारशरीरत्वाद् । (वृ०-प० १८७) ६४. वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति । (वृ०-५० १८७) ६५, ६६. पभू णं भंते ! बाउकाए एग महं पडागासंठियं रूवं विउब्वित्ता अगाई जोयणाई गमित्तए? हंता पभू । (श० ३।१६५) पताका नै आकार, वाऊकाय नों। मूलपणेज शरीर छै ।। वैक्रिय हुवै तिवार, वायू नां तदा। तेहिज आकार हुवै पछै ।। हे प्रभु! वाऊकाय, इक मोटो तिहां। पताकाकारे विकुर्वी ।। जावा बह जोजन, ते समर्थ छै? हंता इम जिन अनुभवी ।। ते भगवंत ! स्यूं जाय, आत्म ऋद्धि करी। के पर शक्ते जाइये ? जिन भाख ते जाय, निज शक्ते करी। पर शक्ते नवि ध्याइये ।। ६७. से भंते ! कि आइड्ढीए गच्छइ ? परिड्ढीए गच्छइ ? ६८. ६८. गोयमा ! आइडीए गच्छइ, नो परिड्ढीए गच्छइ। (श० ३।१६६) *लय-बे कर जोडी ताम रे ३७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. जिम आतम ऋद्धि लब्धि, इमहिज जाइयै । निज आत्म-किरिया करी॥ ६६. 'आइड्ढिए' त्ति 'आत्मर्या' आत्मशक्त्याऽऽत्मलब्ध्या वा। (वृ०-प०१८७) से भंते ! कि आयकम्मुणा गच्छइ ? परकम्मुणा गच्छइ ? गोयमा ! आयकम्मुणा गच्छइ, नो परकम्मुणा गच्छइ। (श०३।१६७) ७०. से भंते ! कि आयप्पयोगेण गच्छइ? परप्पयोगेण गच्छइ? गोयमा ! आयप्पयोगेण गच्छद, नोपरप्पयोगेण गच्छद। (श०३।१६८) ७१. से भंते ! कि ऊसिओदयं गच्छइ? पतोदयं गच्छद? ७०. इम आत्म-प्रयोग, जावै ते सही। नहीं पर प्रयोग अनुसरी ।। ७१. ते भगवंत ! स्यूं जाय, 'ऊर्ध्व-पताक थी। के पडी-पताकाकार छै? जिन कहै ऊर्ध्वपताक, पडी पताक पिण। गति तसु बेहुं प्रकार छै ।। ते प्रभु ! 'एक-पताक, कै 'बेहुं-पताक नै। ___आकारै ते जाइये ।। जिन कहै एक-पताक, आकारे गति । बेहुं पताक न थाइये ।। ७३. ७२. गोयमा ! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं पि गच्छइ । (श०३।१६६) ७३. से भंते ! कि एगओपडागं गच्छइ? दुहओपडागं गच्छइ? ७४. गोयमा ! एगओपडागं गच्छइ, नो दुहओपडागं गच्छइ। (श०३।१७०) ७४. GG ७५. 'एगओपडागं' ति एकतः-एकस्यां दिशि पताका यत्र तदेकतः पताक। (वृ०-५० १८७,१८८) ७६. 'दुहओपडाग' ति द्विधापताक। (वृ०-प० १८८) ७७. से भंते ! कि वाउकाए? पडागा? ७७. सोरठा एक दिशे अबलोय, ध्वजा-पताका छै जिहां । जिम दंड नै ध्वज जोय, तेह पताका एक थी। दुहओ पडाग देख, ते दंड ने बिहं दिशि विषै। केइ करै इम लेख, केइ कहै इक दिशि बेहं ।। *ते प्रभु ! स्यूं कहिवाय, वाऊकाय छ । के पताक कहियै सही? तब भाखै जिनराज, वाऊकाय ते। पिण पताक निश्चै नहीं। रूपांतर क्रिय जाण, तस अधिकार थी। प्रश्न मेघ नुं हिव करै ।। ७८. ७८. गोयमा ! वाउकाए णं से, नो खलु सा पडागा। (श० ३।१७१) ७६. रूपान्तरक्रियाधिकाराबलाहकसूत्राणि। (वृ०-५० १८८) ७६. *लय—बे कर जोडी रे ताम श०३, उ०४, ढा०६५ ३७६ Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. ८६. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. भंते ! प्रभु – समर्थ मेघ, इक महास्त्री तणों । रूप परिणमावी जरै ॥ जाव पालखी रूप परिणमवा भणो । समर्थ स्वभाव एहवो ? इसो । हंता समर्थ होय, जिन भावे बादल स्वभाव तेहवो || भंते ! प्रभु – समर्थ मेघ, इक महास्त्री तणो । रूप परिणमावी पछै ॥ जावा वहु जोजन्न ? हंता जिन कहै । ए स्वभाव घन नुं अच्छे ॥ हे भगवंत! स्वं तेह जावे निज ऋद्धे । कं पर शकते जाइये ? पर ऋद्धे । सुर, वायु थी ध्याइये || जिन कहै नहि निज ऋद्धि, जावै आत्म-शक्ति कर एम, समर्थ छै नहीं । जावं पर-क्रिया करी ॥ नहीं आत्म-प्रयोग, नहीं निज पर प्रयोग जावै ऊर्ध्व-पताक आकार, पड्यै-पताक ते । जावै ते पर शक्ति थी । उद्यमे । फिरी ॥ हे प्रभु ! स्यूं ते मेघ, कै ते स्त्री अछे ? जिन कहै मेष पिण स्त्री नवी ॥ पुरुष रूप इम जाण, हय गय रूप पिण । स्त्री-रूप तिम जागिये ॥ यान रूप हिव जोय, तास विशेष छ । ते हिव आगल आणियं ॥ हे भगवंत ! ए मेघ, इक मोटो तिहा सकट रूप परणमी पर्छ || बहु जोजन लग जाण, जावा नैं तिहां । मेघ तिको समर्थ अछै ? ३८० भगवती जोड़ ८० ८१ पभू णं भंते ! बलाहए एवं महं इत्थिरूवं वा जाव संदमाणियत्वं वा परिणामेत्तए ? ८२. हंता पभू । ( श० ३।१७२ ) ८३, ८४. पभू गं भंते ! बलाहए एवं महं इत्थिरूवं परिणामेला अमेगाई जोगाई मिल हंता पभू । (श० ३।१७३ ) ४. सेक आइडीए गरिएछ ? ८६. गोयमा ! नो आइडीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छइ । (०३०१७४) वायुना देवेन वा प्रेरितस्य तु स्यादपि गमनम् । ( वृ० प० १००) से भंते! कि आयकम्मुणा गच्छइ ? परकम्मुणा गच्छइ ? ८७. गोयमा ! नो आयकम्मुणा गच्छइ, परकम्मुणा गच्छइ । (श० २०१७५) ८ से भंते! कि आयप्पयोगेणं गच्छइ ? परप्पयोगेणं गच्छइ ? गोयमा ! नो आयप्पयोगेणं गच्छइ, परप्पयोगेणं गच्छइ । ( श० ३।१७६) ८. से भंते! कि ऊसिओदयं गच्छन् ? पतोदयं गच्छइ ? गोयमा ! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं पि गच्छइ । (*α 21200) ६०. से भंते ! किं बलाहए ? इत्थी ? गोयमा ! बलाहए णं से, नो खलु सा इत्थी । (०३।१००) (२० ३०१७९) ६१. एवं पुरिसे, आसे हत्थी । " १२.पी (०.१० १००) ६३, ९४. पभू णं भंते ! बलाहए एवं महं जाणरूवं परिणामेसा गाजणार ? Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. जिम भाख्यो स्त्री रूप, भणवो तिह विधे । णवरं इतो विशेष छै ।। चक्रवाल पिण एक, बे चक्रवाल पिण । ए गाडा - पेडु अछ । जग गिल्लि पिण जाण, थिल्लि सेवका। संदमाणी ते पालखी। १८. ए सर्व रूप परिणमाय, गति बहु जोजने। स्त्री रूप जिम ए अखी।। ६६. अर्थ चोतीस न अंक, तेहन देश ए। ___ढाल पैसठमी निर्मली। १००. भिक्खु भारीमाल ऋषराय, तास प्रसाद थी। 'जय-जश' संपति रंगरली ।। ६५. जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्वं । (श० ३.१८०) नवरं ६६. एगओचक्कवाल पि दुहओचक्कवालं पि भाणियव्वं । (श० ३.१८१) ६७. जुन्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिया तहेव । (श० ३१८२) ६८. ततश्च युग्यगिल्लिथिल्लिशिबिकास्यन्दमानिकारूप सूत्राणि स्त्रीरूपसूत्रवदध्येयानि। (वृ०-५० १८८) ढाल : ६६ परिणत नां अधिकार थी, प्रश्न गोयम पूछत। नरक उपजवा योग्य प्रभु ! किण लेसे उपजंत ? जिन कहै जे लेश्या तणां, द्रव्य ग्रहण कर जेह । भावे परिणामे मरी, ते लेस्ये उपजेह ।। कृष्ण नील कापोत ए, बिहुं मांहिली एक। लेश विप इज ऊपज, नरके ए त्रिण पेख ।। भव नां प्रथम समय विषै, लेस्या नांव कोय। नावै चरम समय विषै, सर्व जीव नै जोय ।। १. परिणामाधिकारादिदमाह- (वृ०-५०१८८) जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तए, से णं भंते ! कि लेस्सेसु उववज्जइ? २. गोयमा ! जल्लेस्साई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, 'परिया इत्त' त्ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन कालं करोति-म्रियते। (वृ०-प०१८८) ३. तं जहा-कण्हलेस्सेसु वा, नीललेस्सेसु वा, काउलेस्सेसु वा। ४. लेस्साहि सव्वाहि, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ।। लेसाहिं सव्वाहि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ।। (उत्तरज्झयणाणि अ० ३४ गा० ५८, ५६) ५. अन्तमुहुत्तम्मि गए, अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।। (उत्तरज्झयणाणि अ० ३४ गा०६०) ५. अंतर्गत अंतर्मुहुर्त थाकत', लेश्या आवै ताय । परभव अंतमहत्तं लग, ते लेश्या रहिवाय ।। वा०---कृष्ण लेश्यावंत नारकी कृष्ण लेश्यावंत नारकी नै विष तथा पंचेंद्रिय तिर्यंचे जे लेश्यावंत नारकी नुं आयु बांध्यो हुई तेहनै अंतर्मुहूर्तायु थाकतै ते लेस्या १. शिविका २. शेष रहने पर श०३, उ०४, ढा०६५, ६६ ३८१ Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिण में । लेस्यावंत थको तिहां थी मरी नै नारकी मां ऊपज ते मारी। तथा कृष्ण लेश्यावंत थकोज उद्वर्त्तई, नारकी नैं भव पर्यत एक लेस्या हुवै अनैं मरीनै जिहां जाइं तिहां पिण अंतर्मुहर्त लगते लेस्या हुवै ते माट। पर्याप्ता नों अंतर्मुहूर्त लहुडो अनै लेस्या नों अंतर्मुहुर्त मोटो जाणिव, पिण पर्याप्तावस्थाइं परभव नी ते लेस्या संभवै । अंतर्मुहर्त नां असंख्याता भेद छै, इत्यर्थः। दूहा एवं नारक - सुत्रवत्, असुरादिक नै जाम । जेहनै जे लेस्या हुवै, तसं ते भणवी ताम ।। जावत् हे प्रभु ! जीवडो, जेह जोतिषी माय । उपजावा नै जोग्य तसं, लेश्य प्रश्न पूछाय ।। जे लेश्या नां द्रव्य ग्रहि, भाव परिणाम वसेण । जोतिषि नै विष ऊपजै, तेज विर्ष सुश्रेण ।। हे प्रभु ! वैमानिक में, जीव ऊपजवा जोग्य । ते किण लेस्से ऊपजै ? हिव जिन कहै प्रयोग्य ।। जे लेश्या नां द्रव्य ग्रहि, भावे करि मर ताहि । वैमानिक में ऊपजै, भली लेश त्रिहुं मांहि ।। कोइ कहै एवं का, हवै अर्थ नी सिद्धि । जोतिष वैमानिक पृथक क्यू करी सूत्र नी वृद्धि ? चरम सूत्र देखाडिवा, वैमानिक कहिवाय । सूत्र जोतिषी न वलि, ए कह्य किण न्याय ? जोतिषि नै वैमानीक नै, लेश्या हुवै प्रशस्त । ते देखाडण नै निमित्त, सूत्र विचित्रता स्वस्थ ।। सुर परिणाम अधिकार थी, द्रव्य देव अणगार । प्रश्न तास पूछ हिवै, श्री गोयम गणधार ।। १५. *हे प्रभुजी ! अणगार, भावित-आतम धणो, प्रभजी ! बारला पुद्गल जेह के, अणलीधै मुणो, प्रभुजी ! औदारिक थी अन्य, पुद्गल जे जाणिय, प्रभुजी ! बारला पुद्गल तेह, वृत्ति में माणिय, प्रभुजी ! समर्थ ते अणगार, वेभार नामैं गिरी, प्रभुजी ! एक बार बार-बार, उलंघवै फिरी ? प्रभजी ! थी जिन भाखै समर्थ, नहीं छै अर्थ ए, गायमजी! बारला पुद्गल लेइ, उलंघण समर्थ ए, गोयमजी ! *लय-थारां महिलां ऊपर ६. एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियब्या । जाव (श०३।१८३) 'एव' मिति नारकसुत्राभिलापेनेत्यर्थः 'जस्स' त्ति असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा लेश्या तस्यासुरकुमारादेर्भणितव्येति । (वृ०-प०१८८) ७. जीये णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उवज्जित्तए, से णं भंते किलेस्सेसु उव वज्जइ? ८. गोयमा ! जल्लेसाई दब्बाई परियाइत्ता काल करेइ तल्लेस्सेसु उबवज्ज इ, तं जहा--तेउलेस्सेसु । (श० ३।१८४) ६. जीवे णं भंते ! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! किलेस्सेसु उववज्जइ? १०. गोयमा ! जल्लेस्साई दवाइं परियाइत्ता काल करेइ तल्लेस्सेसु उववज्ज इ, तं जहा---तेउलेस्सेसु वा, पम्ह लेस्सेसु बा, सुक्कलेसे वा। (श०३।१८५) ११. नन्वेतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थ भेदेनोक्तं । (वृ०-५० १८८) १२. एवं तहि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति। (वृ०-५० १८८) १३. ज्योतिष्कवैमानिकाः प्रशस्तलेश्या एव भवन्तीत्यस्य दर्शनार्थ तेषां भेदेनाभिधानं । (व०-५० १८८, १८६) १४. देवपरिणामाधिकारादनगाररूपद्रव्यदेवपरिणामसूत्राणि। __ (वृ०-प० १८६) १५. अणगारे ण भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरि याइत्ता 'बाहिरए' त्ति औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान् वैक्रियानित्यर्थः। (वृ०-प० १८६) १६. पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा ? पल्लंघेत्तए वा ? गोयमा ! नो इणठे समझे। (श० ३।१८६) अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभ वेभार पव्वयं उल्लंघत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? हंता पभू। (श० ३१८७) ३८२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. हे प्रभु! ते अणगार, पुद्गल लीधां विना, जितरा राजवही में रूप, ते विकुर्वी पना । बेभार-गिरि में पेस भेदी सम विषम करें, , तथा विषम सम करण, समर्थाई धरे ? जिन कहै समर्थ नाहीं आलावो दूसरो इमहिज णवरं पुद्गल लेइ समर्थ खरो । हे प्रभु ! माई कथाई प्रमादी विकुर्वे, अथवा अमाई अणगार नै विकुर्वणा हुवे ? जिन कहै माई प्रमादी कपाई विकुर्वे, माईति ने तो विकुर्वण नहीं हु हे प्रभु! ते किण अर्थ कह्यो आप इण परे ? माई विकुर्व अमाई विकुर्वणा नहीं करे? जिन कहै माई प्रणीत पाण अरु भोजनं, गलत-स्नेह भोगवी वमन विरेचनं । वर्ष बलादिक अर्थ सरस भोजन करी, पुनः बलादिक अर्थ वमन रेचन परी ॥ कार्य कर एह स्वभाव माईपणुं, इस वैक्रिय करण स्वभाव पिण छै माई तणुं । ते माई न सरस पाणी भोजने करी, हाड र हाड नी मींजा पुष्ट घनो खरी | पातला लोही नै मंस हुवै छ तेहनां, प्रणीत रस थी पुष्ट मींजा अस्थि जेहनां । जे पण या योग्य बादर पुद्गल जेह वर्ण, ते पण परिण तास पंच इंद्रीपणं ॥ हाड मींजा केश मूंछ रोम बलि नखपणे, शुक्र शोणितपणे परिणमे द्रव्य सरस धर्म अमाई लूखो पण भोजन करि नहीं वर्म निरस भोजन जल करने हाड पुष्ट नहीं जमे || हाड ने हाथ नी मीज, तास पतली हवे मंस अन वलि रुधिर बहुल तसु अनुभव | जे पिण यथायोग्य बादर पुद्गल जेह तणै, ते परिणमै मल मूत्र जाव शोणितपर्ण ॥ 1 १७. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोगले अपरियाइत्ता जावइयाई रायगिहे नगरे रुवाई एवइयाई विकुलिता भार तो अणुष्यविभत्ता पस वा विसमं वा करेत्तए ? विसमं वा समं करेत्तए ? १८. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । (श० ३११८८) एवं चैव वितिओ वि आलावगो नवरं परियातिइत्ता पभू । ( ० २०१०) से भंते! कि माई विकुव्वइ ? अमाई विकुब्वइ ? 'मायी' ति मायावान् उपलक्षणत्वादस्य सकषायः प्रमत्त इति यावत् । ( वृ०-५० १८६) १६. गोयमा ! माई विकुब्वइ, नो अमाई विकुब्बइ । (० २०१०) भंते! एवं बदमाई विकुब अमा विकु ? २०. गोयमा ! माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा-भोच्चा वामेति । प्रणीत स्नेहमेत मन करोति विरेचनां वा करोति वर्णबलाद्यर्थ, यथा प्रणीतभोजनं तद्वमनं च । ( वृ०-१० २०९) २१. विक्रियास्वभावं मायित्वाद् भवति एवं वैक्रियकरणमपीति तात्पर्य 'बहलीभवन्ति' घनीभवन्ति, प्रणीतसामर्थ्यात् । ( वृ०१० १०२) पाय-भोपमा गं गं पण बहतीभवति, २२. पयणुए मंससोणिए भवति । जे विय से अहावायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा- सोइंदियत्ताए जा फासिदि २३. मावमं रोमनाए, मुक्कताए सोणियत्ताए । अमाई णं लूहं पाण-भोयणं भोच्चाभोच्चा णो वामेइ । तस्स णं तेणं लूहेणं पाण-भोयणेणं २४. मानवति पहले मंस-सीलिए जे वि य से अहावायरा पोम्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा- -उच्चारत्ताए पासवणत्ताए श०३, उ० ४, ढा० ६६ ३८३ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. सोरठा जाव शब्द थी जाण, खेल संघाण वमन पित। राधपणे पहिछाण, लूखा भोजनवंत नै ।। उच्चारादिपणेह , आहारादिक नां पोग्गला। परिणम इण रीतेह, असार भोजन ते भणी।। २५. इह यावत्करणादिदं दृश्यम्। (वृ०-५० १८६) खेलत्ताए सिंघाणत्ताए वंतत्ताए पित्तत्ताए पूयत्ताए सोणियत्ताए २६. रूक्षभोजिन उच्चारादितयवाहारादिपुद्गलाः परिणमंति अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तेरिति । (वृ०-प० १८६, १६०) २७. से तेणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-माई विकुब्बई, नो अमाई विकुव्वई। (श० ३।१६१) अथ माय्यमायिनोः फलमाह- (वृ०-५० १६०) २८. २६. *तिण अर्थे करि गोयम ! इह विध दाखिय, वैक्रिय माई करत अमाई न आखिये। अथ आगल अवलोय माई अमाई तणां, फल कहियै छै सोय जिन-वयण सुहामणा ।। माई ते स्थानक आलोयां पडिकमियां विना, काल कर तो नहीं छै तास आराधना । भोजन सरस नै वमन तथा वैक्रिय तणं, स्थानक एह आलोयां विण विराधकपणं ।। पूर्वे माईपण वैक्रिय कीधो छै जिणे, अथवा प्रणीत भोजन करिनै वमियो तिणे । पछै करो पिछ्याताप दंड सन्मुख हुओ, अमाई स्थानक तेह आलोई नै मूओ।। सुध थयो ते एम छै तास आराधना, सेव भते ! सेवं भंत ! गोयम शिव-साधना, अंक चोतीस नुं अर्थ ढाल छ्यांसठमी भली, भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी 'जय-जश'रंगरली।। तृतीयशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।३।४।। २८. माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहणा। तस्मात्स्थानाद्विकुर्वणाकरणलक्षणात्प्रणीतभोजनलक्षणाद् वा। (वृ०-५० १६०) २६, ३०. अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा। (श० ३।१६२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ३।१६३) पूर्व मायित्वाद्वैकियं प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाज्जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात्स्थानादालोचितप्रतिकान्तः सन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति । (वृ०-६० १६०) ढाल : ६७ १. चतुर्थोद्देशके विकुर्वणोक्ता, पंचमेऽपि तामेव विशेषत आह (वृ०-५० १६०) चउथै उद्देशै कह्य, विकुर्वणा - विस्तार । पंचम पिण तेहिज हिवै, विशेष थी अवधार ।। 'सुगुणा ! स्वाम-वचन दिल ग्रहिये । स्वाम-वचन वर साचा जाचा, प्रीत धरी अवधार । सरध्यां शिव-सुख पामै सार, शंका कखा दूर निवार।। सुगुणा ! स्वाम-वचन चित लहियै । (ध्रुपदं) *लय--थारां महिला ऊपर 'लय-नीकी सीखडी रेलहिय ३८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intenational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. भावितात्म-अणगार प्रभुजी ! बाह्य पुद्गल अणलेय । इक महास्त्री जाव रूप पालखी नों समर्थ विकुर्वेय ? २. अणगारे णं भंते !भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरिया इत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउब्वित्तए? ३. नो इणठे समठे। (श० ३।१६४) ३. जिन कहै ए अर्थ समर्थ नाहीं, प्रथम आलावै ख्यात। द्वितीय आलावै हिव कहं आगल, सांभलज्यो अवदात ।। ४. भावितात्म-अणगार समर्थ प्रभु ! बाह्य पुद्गल लेह । इत्थी जाव संदमाणी विकुर्वण ? जिनवर हंत कहेह ।। ५. अणगार हे प्रभु ! भावित-आतम, केतला स्त्री नां रूप। वैक्रिय करवा ते समर्थ छै? हिव जिन कहै तद्रूप ।। ६. जिम युवती प्रति युवान पुरुष ते, हस्तै करि ग्रहै हाथ । चक्र नी नाभि अरा जिम भरिया, ए दूजो दृष्टांत आख्यात ।। ७. इण दृष्टांते अणगार पिण जे, भावित - आतम सोय । वे - समुद्घात करि गोयम ! रूप विकू जोय ।। भावितात्म - अणगार अछै ते, संपूर्ण जंबूदीप । बह इत्थी रूप करीनै आकीर्ण विकीर्ण अतिहि समीप ।। ६. जाव विषय इति ते अण गार नीं, विषय-मात्र कही एह। निश्चै करी इता रूप विकुर्वण, बिहुँ काले न करेह ।। ४. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परिया इत्ता एग महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए? हंता पभू। (श० ३।१६५) ५. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइआई पभू इत्थिरूवाई विउवित्तए? ६. गोयमा ! से जहानामए-जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थंसि गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, ७. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा ! ८. अणगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बर्हि इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिणं ६. जाव एस णं गोयमा ! अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा, विउव्वति वा, विउव्विस्सति वा। १०. एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संदमाणिया। (श० ३।१६६) ११. से जहानामए केइ पुरिसे असिचम्मपायं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा १२. असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढे बेहासं उप्पएज्जा? हंता उप्पएज्जा। (श० ३।१६७) १०. स्त्री-रूप आख्यू तेम पुरुष-रूप, आदि देइन तद्रूप। परिपाटी अनुक्रमेज जाणव, जाव संदमाणी रूप ।। ११. यथा दृष्टांते कोइ पुरुष, असि-चर्म-पात्र ग्रही जाय। भावितात्म-अणगार साधु पिण, इणहिज रीते ताय ।। असि-चर्म-पात्र हस्त विष जस्, कृत्य-कार्य गत ताय । आत्म करी ऊर्ध्व जाय आकाशे? जिन कहै हंता जाय ।। १३. १४. सोरठा असि - चर्मपात्रेह, ढाल भणी कहिय अछ । तथा असी खड्गेह, चर्मपात्र ते ढाल है। कृत्य-सघादि-कार्य, गत-आश्रित ते कृत्यगत। अमूक कार्य हित आर्य, असि-चर्मपात्र ग्रहि गगनगत।। अथवा असि-चर्म-पाय, कृत्वा-रूप करी तिको। हस्त विपै कर ताय, स्वत: गगन में संचरै।। *भावितात्म अणगार प्रभु ! तिका, असि-चर्मपात्र हाथ। कार्य ऊपनै रूप विकुर्वण समर्थ? तब कहै नाथ ।। १३. असिचर्मपात्रं- स्फुरकः, अथवाऽसिश्च-खड्गः चर्मपात्रं च-स्फुरकः। (वृ०-प० १६१) १४. तथा कृत्यं-संघादिप्रयोजनं गतः-आश्रितः कृत्यगतः अतस्तेनात्मना। (वृ०-प० १६१) १५. अथवाऽसिचर्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं येनासौ असिचर्म पात्रहस्तकृत्वाकृतस्तेन। (वृ०-५० १६१) १६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइयाई पभू असिचम्म पायहत्थकिच्चगयाई रूवाई विउवित्तए? १६. * लय-नीकी सीखडी रे लहिये श०३, उ०५, हा०६७ ३८५ Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम युवती प्रति पुरुष युवानज, ग्रहै हस्त करि हाथ। तं चेव यावत् त्रिहुं काल नी, विषय-मात्र कही बात ।। १७. गोयमा ! से जहानामए--जुबई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, तं चेव जाव बिउब्बिसु वा, विउव्वति वा, विउब्बिस्सति वा। (श० ३.१६८) १८. से जहानामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं गच्छेज्जा, यथा दृष्टंते कोइ पुरुष बलि, एक दिशे कहिवाय । ध्वजा-पताका छै तिहां एहवो, करिनै चाल्यो जाय ।। भावितात्म अणगार इसी विध, एक पताका हाथ । कार्य ऊपनै जाय आकाशे ? जिन कहै हंता जात ॥ अणगार हे प्रभु! भावित-आतम, इक दिशि पताका हाथ । रूप किता विकूर्वण समर्थ ? जाव त्रिहं काल बात ।। १६. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओपडागाहत्थ किच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? हंता उप्पएज्जा। (श० ३।१६६) २०. अणगारे णं भंते भाविअप्पा केवइयाई पभू एगओपडागा हत्थकिच्चगयाई रूवाई विकुवित्तए? एवं चेव जाव विकुब्बिसु वा, विकुब्वति वा, विकुव्विस्सति वा । (श० ३२००) २१. एवं दुहओपडागं पि। (श० ३।२०१) बेहं दिश कानीं पताका इह विध, ते दुहओ पहिछाण। जिम दंड नै ध्वज हवै इक दिश, तेम बेहुं दिशि जाण ।। यथा दृष्टांते कोइ पुरुष, एक पास जनोई ताय । एक जनोई सहित रूप करिने, मारग चाल्यो जाय ।। इम साध पिण भावित-आतम, जनोई एक पास। कार्य आश्री पोते जाय गगने ? जिन कहै हंता तास ।। भावितात्म अणगार प्रभु ! किता जनोई इक दिशि कृत्य । रूप विकुर्वण समर्थ तिमहिज, जाव अद्धा त्रिहुं वृत्य ।। इम बिहं पास जनोई कहिवी, से जहानाम दृष्टंत। कोइ पुरुष एक पास पालथी, इम करि तिहां रहंत ।। २२. से जहानामए केइ पुरिसे एगओजण्णोवइतं काउं गच्छेज्जा, २३. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओजण्णोवइतकिच्च गएणं अप्पाणेणं उड्ढं बेहासं उप्पएज्जा? हता उप्पएज्जा। (श०३।२०२) २४. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइयाई पभू एगओ जण्णोवइतकिच्चगयाई रुवाई विकुवित्तए? त चेव जाब विकुब्बिसु वा, विकुब्वति वा, विकुविस्सति वा। (श०३।२०३) २५. एवं दुहओजण्णोवइयं पि। (श०३।२०४) से जहानामए केइ पुरिसे एगओपल्हत्थियं काउं चिट्ठज्जा, २६. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओपल्हत्थियं किच्च गएणं अप्पाणणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? तं चेव जाव विकुव्विसु वा विकुब्वति वा विकुब्विस्सति वा। (श०३।२०५) एवं दुहओपल्हत्थियं पि। (श०३।२०६) २७. से जहानामए केइ परिसे एगओपलियंक काउं चिठेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओपलियंककित्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? त चेव जाव विकुविसु वा, विकुब्वति वा, विकुव्विस्सति वा । (श० ३।२०७) २८. एवं दुहओपलियंक पि। (श० ३।२०८) २६. इम साधु पिण भावित-आतम, तं चेव जाव त्रिकाल । इम बेहं दिशि थी पालथी वाली, बेसै ए पिण न्हाल ।। से जहानामए कोइ पुरुष, एक पास पल्यंक तिष्ठेह। तं चेव जाव विकुर्वण इतरी, काल त्रिहं न करेह ।। २८. इम बिहं पास पल्यंक तणों पिण, कहिवो सूत्र विचार। बलि मुनि लब्धि फोडवै तेहनों, आगल छै अधिकार ।। हे प्रभु ! अणगार भावित-आतम, लब्धिधारी छै जेह । बाह्य पुद्गल अणलीधै साधु, समर्थ कहियै तेह ।। २६. २६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरि याइत्ता पभू ३८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. हय गज सिंघ व्याघ्र वृक चीतरो, अच्छ ते रींछ पिछाण । तरच्छ विशेष ए व्याघ्र तणो छै, वलि अष्टापद जाण ।। वाचनांतरे श्रृगालादिक, अभिजुंजित्तए ताय । तेह में प्रवेश करी व्यापरयुं, ते अभियोग कहाय ॥ विद्यादि समर्थपणां थी, पोतं प्रवेश करें तिण माहि व्यापार करवा समर्थ छै प्रभु ! जिन कहै समर्थ नांहि ॥ सोरठा विद्यादि समरथाय, बाह्य पुद्गल विण लियै । करणी नावे ताय, तिण सुं ए जिन वरजियो । * वाहिरला पुद्गल ग्रहण करीने, अश्वादिक में प्रवेश । विद्या समर्थपणां थी साधु, समर्थ छँ सुविशेष ।। ३५. हे प्रभु! अणगार भावित आतम, अश्वरूप अनुप्रवेश करीने समर्थ अनेक ३६. जिन कहे हंता समर्थ छे ते " है मांय । योजन जाय ? बलि गोयम पूछंत । के पर ऋद्धि श्री जंत ? पर ऋद्धि करि नहि जाय । इम आत्मा नीं क्रिया करि जावै, पर क्रिया थी न जवाय || स्यूं जायै निज समर्थाइ करि ३७. जिन कहै आत्म ऋतु करि जाये ३८. आत्मा नैं उद्यमे करि जावै, पर उद्यमे न जवाय । ऊर्ध्वपताक आकारे जावै, पड़ी पताक ही जाय ॥ ३६. हे प्रभु! तेहनैं स्यूं अणगार कहियै, के हय कहियै तास ? जिन भावं तसुं अणगार कहिये निश्च न कहिये आस ।। 1 ४०. वृतिकार का तत्व की ते निवे अश्वादिक में प्रवेश करी में गमन थकी ४१. इम जाव अष्टापद नां रूप लग, सर्व कहिवो ते प्रभु! स्यूं माई प्रमत्त विकुर्व के अमाई *लयनीकी सीखडी रे लहिय अणगार । अवधार | उदंत विकुर्वत ? ३०. एवं महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वापरासररूवं वा 'अच्छ' त्ति ऋक्षः 'तरच्छ' त्ति व्याघ्रविशेषः, 'परासर' त्ति सरभः । ( वृ० प० १६१) ३१, २२. इहान्यान्यपि शृगालादिपदानि वाचनान्तरे (२०१६१) दृश्यन्ते । अभए ? 'अभिजित' ति अभियोक्तुं विद्यादिसामयतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारवितुम् यच्च स्वस्वानुप्रवेशनेनाभियोजनम्। ( वृ० प० १९१ ) (00 3120€) गोट्ठे समट्ठे । २२. द्विवादिसाच्यातवान् विना न स्वादि तिकृत्वोच्यते । (०० १२१) ३४. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरिए पोग्गले परिया इत्ता पभू एवं महं आसरूवं वा थिरूवं वा सीहरूवं वा araरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? हंता पभू । (०२०२१०) ३५. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा पभू एवं महं आसरूवं वा अभाबमा जोबनाई गमितए ? ३६. हंता पभू । (०२३२२११) से भंते! कि आइडीए गच्छइ ? परिड्ढीए गच्छइ ? ३७. गोयमा ! आइड्ढीए गच्छइ, नो परिड्ढीए गच्छइ । ( २०२१२) एवं आयकम्मुणा नो परकम्मुणा ३८. आयप्पयोगेण नो परप्पयोगेण उस्सिओदयं वा गच्छइ पयोदयं वा गच्छइ । ( ० २।२११-२१५) ३६. से णं भंते! कि अणगारे ? आसे ? गोयमा ! अणगारे णं से, नो खलु से आसे । ( श० ३।२१६) ४०. अनगार एवासौ तत्त्वतोऽनगारस्यैवाश्वाद्यनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात् । (बु०० १९१) (२० २२१७) ४१. एवं जाव परासररूवं वा । से भंते! किं मायी विकुब्बइ ? अमायी विकुव्वइ ? श० ३, उ० ५ डा० ६७ ३८७ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. जिन कहै माई-प्रमत्त विकुवै, अमाई नहीं विकुर्वत । छ? गुणठाण करै ए कार्य, आगल नांहि करंत ।। ४३. वृत्ति विषै माई अभिजुजइ, पाठ इसो कहिवाय । माई नों अर्थ कषायवान ते, अभिजुजइ अभियोग कराय ।। ४४. अधिकृत वाचना विष दीसै छै, माई विकूव्वइ जाण। तेह विर्ष अभियोग तिको पिण, विकूर्वणा पहिछाण ।। ४५. विविध प्रकार तणों जे क्रिया, विक्रिया तास कहाय। विक्रिय - रूपपणां थी तेहने, विकुर्वणा कहिवाय ।। ४६. हे प्रभु ! जे माई लब्धि फोडण रो, स्थानक नांहि आलोय। बिना पडिकमियां काल करै ते, आभियोगिक सुर होय? ४२. गोयमा ! मायी विकुब्बइ, नो अमायी विकुब्वइ । (श० ३३२१८) ४३. 'माई अभिजुजइ' त्ति कषायवानभियुक्त इत्यर्थः । (वृ०-५० १६१) ४४. अधिकृतवाचनायां 'माई विउब्बई' त्ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं । (व०-प० १६१) ४५. विक्रियारूपत्वात्तस्येति । (वृ०-५० १६१) ४७. आभियोगिक ते आदेशकारी, सेवग - देवता हत। बारमा कल्प लग सेवग में, एक विष उपजत ।। ४८. विद्यादिक नों प्रजजवो बलि, लब्धि फोडवै कोय । सेवग - देव थावा नां कारण, वृत्ति विशेष सुजोय ।। ४६. प्रायश्चित्त सन्मुख थयां अमाई, आलोवी ते स्थान । अणाभियोगिक देवलोक विषै ए, उपजै इक में जान ।। ४६. मायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ, कहिं उबवज्जइ? गोयमा ! अण्णयरेसु आभियोगिएस देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। (श० ३।२१६) ४७. 'अण्णयरेसु' तिआभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्तीति कृत्वाऽन्यतरेष्वित्युक्तम्। (वृ०-५० १६१) ४८. करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावनाम् । (वृ०-५० १६१) ४६. अमायी णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ? गोयमा ! अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जइ। (श० ३।२२०) ५०. हे गोतम ! इम श्री जिन भाखै, छेहला प्रश्नज मांय । उत्तर स्थान गोयम नाम नायो, तिण सं छेहडै आय' ।। ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! कह्यो छै, श्री गोयम गणधार। हिवै उद्देशा नी संग्रहणी गाथा, संक्षेपे सुविचार ।। ५२. इत्थि असि नैं पताका जनोई, पालथी अनैं पल्यंक। अभियोग विकुर्वण माई, संग्रह - गाहा सुअंक ।। ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० ३।२२१) ५२. इत्थी असी पडागा, जण्णोवइए य होइ बोद्धये। पल्हस्थिय पलियंके, अभिओग विकुव्वणा मायी। (श० ३।२२१ संगहणी-गाहा) ५३. अंक पैतीसमुद्देश कह्य ए, सात साठमी ढाल । भिक्ख भारीमाल ऋषराय प्रसादै, 'जय-जश' गण गुणमाल ।। तृतीय शते पंचमोद्देशकार्थः ।।३।५।। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ३।२१२-२२० के सभी प्रश्नों के उत्तर में गौतम को सम्बोधित कर उत्तर दिया गया है। संभव है जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में 'गोयमा' शब्द नहीं था, इसीलिए उन्होंने ढा० ६७१५० में सब प्रश्नों के अन्त में 'गौतम' शब्द उल्लिखित होने की सूचना दी है। ३८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ६८ विकुर्वण अधिकार थी, संबंधित संवाद । छठ्ठ उद्देशे कहूं, सुणज्यो धर अहलाद ।। २. *हे प्रभ ! घर तजवै अणगार, पोता नां आगम अनुसार। उपशम आदि गुण करि सहितं, तेह थी भावित-आत्म सकहितं ।। ३. माई मिथ्यादष्टी जाण, कहिवो अन्यतीथि पहिछाण। बीरियलब्धी वैक्रिय - लद्धी, विभंग-नाणलद्धी सप्रसिद्धी। १. विकुर्वणाऽधिकारसंबद्ध एव षष्ठ उद्देशकः । (वृ०-५० १६१) २. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा 'अणगारे ण' मित्यादि अनगारो गृह्वासत्यागाद् भावि तात्मा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः । (वृ०-प० १६३) ३. मायी मिच्छदिली वीरियलद्धीए वेउब्धियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए मिथ्यादृष्टि रन्यतीथिकः। (वृ०-६० १६३) ४. वाणा रसिं नगरि समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइं जाणइ-पासइ? राजगृहे नगरे रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि । (वृ०-प० १६३) ४. वे वाणारसि नगरी जेह, नगर राजगह विषै छै तेह। पशु प्रमुख नां रूप विशेष, विभंग अवधि करि जाण देखै ? सोरठा बाणारसी रै माय, राजगृही नगरी तणां । जन बहु आया ताय, निज कार्य पशु प्रमुख ले ।। वाणारसी पहिछाण, नगरी विकूर्वतो छतो। राजगृही नां जाण, रूप तिके पिण विकुर्वे ।। जाण देखै तेह, इम गोतम पूछ्यै छत। हिव जिन उत्तर देह, चित्त लगाई सांभलो ।। ८. *हंता गोयम ! जाण देखै, तथाभाव प्रति स्यूं प्रभु पेखै ? अन्यथाभाव प्रतै अवलोय, जाण देखै छै ते सोय? १०. ६. जिन कहै तथाभाव प्रति त्यांही, वस्तू जाणे देख नाही। अन्यथाभाव ते विपरीत जाणी, ते प्रति जाण देखै अनाणी।। किण अर्थे प्रभ ! भाख्यो एह ? तथाभाव प्रति नहीं जाणेह । अन्यथाभावे जाण देखे? हिव जिन उत्तर दै सूविशेखै ।। ते अन्यतीर्थी नै एहवू होय, म्हैं राजगह नगर विकुयॊ जोय । अनैं वाणारसी ना रूप अनेक, जाणं देखू छु सुविशेख ।। ८.हंता जाणइ-पासइ। (श० ३।२२२) से भंते ! कि तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? ६. गोयमा ! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पास इ। (श०३।२२३) १०. से केणठेणं भंते? एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ पासइ ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? ११. गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए. समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणामि-पासामि। १२. सेस दसण-विवच्चासे भवइ । से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभाव जाणइ-पास। (श० ३।२२४) इम दर्शण नै वि विपरीत होय, कोइ विभंग अज्ञानी सोय । तिण अर्थे जाव अन्यथाभावो, जाण देखै ए प्रथम आलावो ।। *लय-इण पुर कंबल कोय न लेसी श०३, उ०६,ढा०६८ ३८६ Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा अन्य रूप कू जाण, अन्य भाव कर विकल्पित । दिशा-मूढ जिम माण, पूरव नै मानै पछिम ।। १४. *से से दसणे विवरीए विवच्चासे, किहांइक एहवं दीस जासे। तिहां देखण में विपरीत तास, खेत्र विपरजय कर विप्रयास ।। १३. अन्यदीयरूपाणामन्यदीयतया विकल्पितत्वात्, दिग् मोहादिव पूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति । (वृ०-५० १६३) १४. क्वचित् ‘से से दंसणे विवरीए विवच्चासे' ति दृश्यते तत्र च तस्य तद्दर्शनं विपरीतं क्षेत्रव्यत्ययेनेतिकृत्वा विपर्यासो-मिथ्येत्यर्थः। (वृ०-५० १६३) १५. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी भिच्छदिट्ठी १५. हिव दुजो आलावो कहिये, चित्त लगाई ने सांभलिय। हे भगवंत ! जिको अणगार, मायी मिथ्यादृष्टी धार ।। १६. जाव राजगृह विकुर्वी जेह, वाणारसी नै विष छै तेह। पशु प्रमुख नां रूप विशेखै, विभंग-अवधि करि जाण देखै? १७. हंता जाण देखे सोई, तं चेव जाव तास इम होइ। म्हैं वाणारसी विकुर्वी अनूप, जाणूं देखू राजगृह रूप ॥ १८. इप दर्शण नैज विष विपरीत, कोइक विभंग अज्ञानी संगीत। तिण अर्थे जाव अन्यथाभावो, जाण देख ए दूजो आलावो।। १३. हे प्रभ ! भावित-आत्म अणगार, माई मिथ्यादृष्टि धार । वीरियलब्धी- वैक्रिय-लद्धी, विभंग-अनाण-लद्धी प्रसिद्धी ।। २०. वाणारसी नगरी प्रति जोय, तथा राजगृह प्रति अवलोय। तथा बिह नै विचालै विशेष, विकुवै इक महाजनपद देश ।। २१. वाणारसी नगरी प्रति जोय, तथा राजगह प्रति अवलोय । तथा बिहं बिच जनपद देश, विहं जाण देखै पूछेस ? २२. हंता गोयम ! जाण देखै, तथाभाव प्रति स्यू प्रभु ! पेखे ।। अन्यथाभाव प्रतै ते जोय, जाणै देखै प्रश्न ए सोय? १६. जाव रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणा रसीए नयरीए रूवाइं जाणइ-पासइ? १७. हंता जाणइ-पासइ । (श० ३।२२५) त चेव जाव तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइजाणामि-पासामि। १८. सेस दसण-विवच्चासे भवति । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण इ-पास। (श०३१२२६, २२७) १६. अणगारे ण भते ! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरि यलद्धीए वेउव्वियलद्वीए विभंगनाणलद्धीए २०. बाणारसिं नरि, रायगिह च नगर, अंतरा एगं महं जणवयग्गं समोहए, २१. समोहणित्ता वाणासि नगरि रायगिहं च नगर अंतरा एगं महं जणवयग्गं जाणति-पासति ? २२.हंता जाणति-पासति। (श० ३।२२८) से भंते ! कि तहाभाव जाण इ-पासइ? अण्णहाभावं जाण इ-पासइ? २३. गोयमा ! नो तहाभाव जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण इ-पासइ। (श०३।२२६) २४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्च इ--नो तहाभाव जाणइ पासइ ? अण्ण हाभाव जाण इ-पासइ ? २५. गोयमा ! तस्स खलु एवं भवति--एस खलु वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, एस खलु अंतरा एगे महं जणवयग्गे, २६. नो खलु एस महं वीरियलद्धी उब्बियलद्धी विभंगनाण लद्धी इड्ढी २७. जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए २३. जिन कहै तथाभाव प्रति त्यांही, वस्तू जाण देखै नांही। अन्यथाभाव ते विपरीत जाणी, ते प्रति जाण देखै अनाणी।। २४. किण अर्थे प्रभ ! भाख्यो एह, तथाभाव प्रति नहि जाणह। अन्यथा भावे जाण देखै ? हिव जिन उत्तर दै सुविशेखै ।। २५. ते अन्यतीर्थी एहवं मानेह, वाणारसी निश्चै छै एह। निश्चै एह राजगृह न्हाल, इक महाजनपद एह विचाल ।। . लखार २६. ए वीर्य-लब्धि निश्चै नहि म्हारी, नहि मुझ वैक्रिय-लब्धि उदारी। विभंग-अनाण तणी पिण लद्धी, ते पिण नहिं छै म्हारी ऋद्धो ।। २७. कांति अनै जश हेतु सार, बल वीरिय नै पुरुषाकार। प्राक्रम लाधो पाम्यो उदारो, सन्मुख हुओ ते नहिं म्हारो।। ___ *लय-इण पुर कंबल कोइ य न लेसी ३६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ducation Intemational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. नवा विकुर्वे छै तीनेइ, तीनइ नै देखै तेही। पिण ते इम जाण मन मांहो, एह विकुर्वण म्है करि नाही ।। २६. स्वाभाविक छै एहवं मान, दिशा-मुढ ज्यूं ते पिण जाने। इम दर्शण नैज विषै विपरीत, कोइक विभंग-अज्ञानी संगीत ।। २८. सेस दंसण-विवच्चासे भवति । यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभावीकानीति । (वृ०-५० १६३) सोरठा 'विभंग-नाणी कोय, दिशा-मूढ जिम ते इस्यूं। सगला नै नहि कोय, एहवं इहां जणाय छै ।। जोवो शिव ऋपिराज, सप्त द्वीपोदधि देखिया। मोगर विभंग समाज, देख्यो पंचम कल्प लग। असोच्चा अधिकार, जाण देखै विभंग कर। उत्कृष्टो अवधार, असंख्यात जोजन लगे।। जाण्या जीब अजीव, वले पाखंडी जाणिया। खयोपशम भाव अतीव, पाछै सम्यक्त्व पामियो।। जो जाण विपरीत, तो सम्यक्त्व ए किम लहै ? वारू न्याय वदीत, उत्तम चित आलोचियै ।। भली विचारण तास, करतां छतांज एहने। तत्-आवरणी जास, खयोपशम थी विभंग है। बलि अनुयोगज द्वार, ज्ञानावरणी - कर्म नां। क्षय-उपशम थी सार, चिउं ज्ञान अज्ञान रु पूर्व श्रुत ।। तिण कारण विपरीत, ते तो अन्य दीसै अछ। क्षयोपशम भाव प्रतीत, ते तो उज्जल जीव छै ।। अवधि-ज्ञान नों सार, वलि विभंग - अन्नाण नों। दर्शण अवधि उदार, ते विपरीत हवैज किम? मोह-कर्म उदय थी होय, उदय-भाव सावज तिको। पिण क्षयोपशम थी जोय, विपरीतज ह्र किण विधै ? दर्शन विप विचार, विप्रयास आख्यो इहां। पिण दर्शण अवधि उदार, क्षय-उपशम नहि विपर्यय ।। दर्शण विषैज ओर, उदय भाव छै तेहनें। विप्रयास जे घोर, ते विपरीतपणो अछै ।। सात कर्म बंधाय, निद्रा प्रचला लेवतां । अशुभ योग तिण मांय, मोह - उदय थी बंध तसुं ।। द्रव्य निद्रा में ताय, अशुभ स्वप्न मोह कर्म थी। तेहथी पाप बंधाय, पिण द्रव्य निद्रा थी नहीं ।। दर्शणावरणी - कम, निद्रा तास उदय थकी। देखो एहनों मर्म, पहथी कर्म बंधै नथी।। श०३, उ०६, ढा०६८ ३६१ Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. एतो दवियो जीव तेही नहि बंधे पाप अतीव मोह कर्म नो योगोदी रं मांय वासुदेवी बल थी अघ न बंधाय, बल क्षयोपशम कर्म जिको अंतराय, तेहनां वीर्य - लद्धी थी पाय, ते बल थीणोदी पिण जाण, दर्शणावरणी कर्म बंध उदय थी। अर्ध बल । भाव छै । - क्षयोपशम थकी । उज्जल जीव इम ॥ थी । उदय ते तेही पण पहिछाण, कर्म तणो बंध है नयी ॥ थीणोदी रं मांय, मोह कर्म नां उदय सावज किरतब धाय, अघ न कर्ता तिम दर्शन में देख कर्म तगांज उदय जे विपरीत विशेख, ते आश्रयी ए चक्षू दर्शन होय, दर्शणावरणी कर्म क्षयोपशम थी जोय, ते तो उज्जल जीव दिशा- मूढ अवलोय, अवलीय पूरव ने जारी उदय भाव ए जोय, पिण क्षयोपशम-भाव पक्ष में रोग, बे चंदा देखे रोग प्रयोग, तिम विपरीत चक्षु रोग मिट जाय, तठा पर्छ देखे एहिं जुदा कहा रोग अने यल उदय-भाव छै रोग, चक्षु क्षयोपशम ए बिहुं जुदा प्रयोग, तिण विध ए पिण क्षयोपशम भाव, विभंग नों दर्शण विपरीतपणों कहाव, उदय-भाव कहिजै ते मार्ट इहां एम दाख्यो दर्शण विपरीतपणंज तेम पिण ए दो ते ने थी । खे ॥ थी। कथन ॥ नां । ॥ पछिम । नहि ॥ प्रमुख । जानवो ॥ तिको नेव ते । भाव छै । जाणवो ॥ अवधि । तसुं ॥ विषै । जूजुआ' ।। ( ज० स० ) जाण देखें | ५८. *तिण अर्थे यावत् सुविशेखे, अन्यथाभावे आख्यो तोजो एह आलावो, मुनि समदृष्टि तणो हिव भावो ॥ ५६. हे भदंत अणगार सुभावित, संजम तप करि आत्म साबित मायी- समदृष्टि' ते जोय, अमायी- समदृष्टि कहै कोय ।। * लय- इण पुर कंबल कोइ य न लेसी १. जयाचार्य के सामने 'मायी सम्मदिट्ठी' पाठ मुख्य रूप से रहा और वैकल्पिक रूप में 'अमायी सम्मदिट्ठी' पाठ भी रहा। उन्होंने सम्यग् दृष्टि के तीनों आलापकों में 'मायी' पाठ को स्वीकार किया। भगवती के पाठ शोधन के लिए प्रयुक्त आदर्शो में 'अमायी' पाठ ही मिला । प्रस्तुत आगम के अनेक स्थलो में 'अमायी' सम्मदिट्ठी' पाठ मिलता है। पूर्वापर अनुसन्धान की दृष्टि से अमावी सम्मदिट्ठी' पाठ ठौक लगता है, किन्तु प्रस्तुत प्रकरण नाना रूप-निर्माण (माया) से सम्बद्ध है, इस दृष्टि से 'मायी' पाठ की सम्भावना को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । ३६२ भगवती जोड ५८. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभाव जाणइ-पासइ । (०३।२३०) ५६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा अमायी सम्मदिट्ठी । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. वीरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए ६०. वीर्य लब्धि करि वैक्रिय लद्धी, अवधि ज्ञान लब्धि करि सिद्धी। लब्धि फोडी नै मुनिवर जेह, वैक्रिय-समुद्घात करि तेह ।। ६१. नगर राजगह विकुर्वेह, तेण रूप विकुर्वि जेह। वाणारसी नगरी नां रूप, जाण देखै अधिक अनप? ६२. हंता गोयम ! जाण देखें, तथाभाव प्रति स्यं प्रभ पेखै। अन्यथाभाव प्रत अवलोय, जाण देखे छै ते सोय ? जिन कहै तथाभाव प्रति जेह, वस्तु जाणं देखें तेह। अन्यथाभाव ते विपरीत त्यांही, ते प्रति जाणे देखै नांही। १४. किण अर्थे प्रभ! भाख्यो एह? तथाभाव प्रति ते जाणह। अन्यथाभावे जाण नाही, हिव जिन उत्तर भाखै त्यांही ।। ६५. ते मुनिवर नै एहवू होय, म्हैं राजगृह विकुर्यो जोय। एण रूप वाणारसी केरा, रूप जाणूं देखू छू घणरा।। ६१. रायगिह नगरं समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नय रीए रूबाइं जाणइ-पासइ? ६२.हंता जाणइ-पासइ। (श०३।२३१) से भंते ! कि तहाभावं जाणइ-पासइ ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? ६३. गोयमा ! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ। (श० ३।२३२) ६४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ. पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? ६५. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणामि-पासामि। ६६. सेस सण-अविच्चासे भवति । ६६. दर्शण विर्षे ते नहीं विपरीत, जिम छै तिम देखें सुवदीत। जथातथ्य पिण तिमहिज भाखै, तिण कारण ते सम अभिलाखे ।। ६७. तिण अर्थे इम कह्यो वदीत, तथाभाव देखै समरीत। विण नहि छै तेहने अन्यभावो, ए मुनिवर नों प्रथम आलावो ।। ६८. बीजो आलावो पिण इमहीज, णवरं वाणारसी विकूर्वीज। __ एण रूप विकुवि विशेखै, रूप राजगृह नां जाण देखें। ६६. हिव तीजो आलावो कहिय, मायी समदृष्टी इम लहिये। बीरिय-लब्धी वैक्रिय - लद्धी, अवधिज्ञान लब्धि करि सिद्धी। ७०. नगर राजगह प्रति अवलोय, तथा बाणारसी नगरी जोय। तथा बिहं नै विचाल विशेप, विकूव इक महाजनपद देश।। ७१. नगर राजगृह प्रतं ते सोय, बाणारसी प्रत ने अवलोय। अवलोया तथा विहं विच जनपद देश, त्रिहं जाण देखै ? पूछेस ।। ७२. हंता गोयम ! जाण देखे, तथाभाव प्रति स्यं प्रभ ! पेच? अन्यथाभाव प्रत पहिछाणी, जाणं देखै ते वर नाणी? ६७. से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-तहाभाव जाणइ पासइ, नो अण्णहाभाव जाणइ-पासइ। ६८. बितिओ वि आलावगो एवं चेव नवरं वाणा रसीए समोहणा णेयब्धा । रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ-पासइ। (श० ३।२३३-२३६) ६६. अणगारेणं भंते ! भाविअप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरि यलद्धीए वे उब्धियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए ७० रायगिह नगर, वाणारसिं च नगरि, अंतरा एग महं जणवयग्गं समोहए, ७१. समोहणित्ता रायगिहं नगरं, वाणारसि च नरि, अंतरा एगं महं जणवयग्गं जाणइ-पासइ? ७२. हंता जाणइ-पासइ? (श०३१२३७) से भंते ! कि तहाभाव जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? ७३. गोयमा ! तहाभावं जाण इ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ। (श० ३।२३८) ७४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ पासइ? णो अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? ७५. गोयमा ! तस्स णं एवं भवति–नो खलु एस रायगिहे नगरे, नो खलु एस वाणारसी नगरी, नो खलु एस अंतरा एगे जणवयग्गे, ७६. एस खलु ममं वीरियलद्धी वेउब्बियलद्धी ओहिनाणलद्धी इड्ढी ७३. जिन कहै तथाभाव प्रति जेह, वस्तू जाण देखै तेह। अन्यथाभाव न जाणे न देखे, अवधिज्ञानी ए मनि तिण लेखे ।। ७४. किण अर्थे प्रभु ! कह्यो विशैखै, तथाभाव प्रति जाण देखें। अन्यथाभाव न जाणे न पेखै ? हिव जिन उत्तर दिये अशेषे ।। ७५. ते मुनिवर नै इम मानेह, नगर राजगह नहि छै एह। वाणारसी नगरी नहि एस, नहि बिच इक महाजनपद देश।। ७६. ए वीरिय - लब्धी छै म्हारी, बलि मुझ वैक्रिय-लब्धि उदारी। ___ अवधि-ज्ञान नी पिण मुझ लद्धी, ए सगली छे म्हारी ऋद्धी। श० ३, उ०६, ढा०६८ ३६३ Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ७७. कांति अने जश हेतु प्राक्रम लाधो पाम्यो ७८. नवा विमुखे पिण ते इम जाणै मन ७६. स्वभाविक नहि एहवूं सार यस वीरिय ने पुरुषाकार। उदारो, सन्मुख हुओ ते सहु म्हारो ।। सीनेई सीनूई मे देखें तेही । मांही, एह विकुर्वण म्है करि ताहि ॥ माने, दिशा- मूढ ज्यूं ते नहिं जाने। ते तसुं दर्शविषे सुविचार, अविपरीत ८०. तिण अर्थे इम कहिये सोय, तथाभाव दुर्व जाण सुविशेखै ॥ अन्यथाभाव न जाणै देखे, तीजो आलावो ८१. हे भदंत ! अणगारज भावित, संजम तप करि आत्म वसावित । बाहिर पुद्गल में नै अणलेई, इक महा ग्राम रूप विकुर्वेई ॥ ८२. नगर रूप यावत् सन्निवेस जाव शब्द में एह कहेस । निगम राजधानी ना रूप, बेड कवड़ प्रोणमुह तद्रूप ॥ ८३. पाटण आगर रूप पिछाणी, आश्रम संवाहा एता जाव शब्द में कहिये, सन्निवेस नों ८४. ए विकुर्वण तणी समर्थाई ? जिन कहै अर्थ बीजो आलावो णवरं एही, समर्थ वाहिर पुद्गल लेई || रूप सुजाणी । रूप सुलहिये ॥ समर्थ ए नांहीं । अणगार || अवलोय | J ८५. हे प्रभु ! भावित आत्म अणगार, केतला ग्राम रूप सुविचार | विकुर्वण करवा समर्थ ? दृष्टांत दे जिन कहे सदर्थ ॥ ८६. काम से जिम युवति युवान, हस्त करी ग्रहै हस्त पिछान । तिमहिज जाय विकुर्वण तास, काल विहं ने विषय विमास ।। विषय प । ८७. यावत् इम सन्निवेस नां रूप विकुर्वण नी शक्ति इसी पण किनही नभरिया, विषय मात्र विहं काल उचरिया ।। 55. थोडा रूप विकुर्वे सोम आलोयां थी आशयक होय । एह बात बहु ठामैं आखी, तिण अनुसारै इहां म्है दाखी ॥ ८. विकुर्वण नुं का अधिकार, विकुर्वण समर्थ सुर देव विशेष परूपण अर्थ, पूछे गोयम प्रश्न १०. हे प्रभु ! चमर असुरराजा नां, केतला आत्म-रक्षक चोट सहस्र चोगुणां देव, आत्म-रक्षक इता जिन सार | तदर्थ ॥ २२४ भगवती-जोड़ मझार । ६१. आत्म-रक्षक वर्णन सार, रायप्रश्रेणी सूत्र सर्व इंद्र नै सामानीक, चोगुणा आत्म-रक्षक कथीक ॥। कहाना | भेव ।। २. सेवं भंते ! छत्तीस नुं अंक, ए असमी ढाल सुभंक भव भारीमाल ऋपराय प्रसाद, 'जय जश' सुख संपति अहलाद । तृतीय पष्ठोदेकार्थः || ३|६|| ७७. जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे लद्धे पत्ते अभियागए। ७६. सेस दंसण- अविच्चासे भवइ । ८०. से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - तहाभावं जाणइपासइ, नो अण्णाभावं जाणइ-पास ( श० ३।२३६) ८१. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एवं महं गामरूवं वा ८२, ८३, नगरख्वं वा जाव सण्णिवेसरूवं वा विउब्वित्तए ? 'नगररूवं' वा इह यावत्करणादिदं दृश्यं निगम रूवं वा रायहाणिरूवं वा खेडरूवं वा कब्बडरूवं मंडवरूवं वा दोणमुख्वं वा पट्टणरूवं वा आगरख्वं वा आसम रूवं वा संवाहरूवं व' त्ति । ८४. नो सिमडे (५००० १२३) (४० २२४०) एवं विगो नवरं बाहिरए पो परि याइत्ता पभू । (०३२४१) ८५. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई पभू गामरुवाई विकुव्वित्तए ? ८६. गोयमा ! से जहानामए – जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेहेज्जा तं चैव जाव विकुव्विसु वा विकुब्वति वा विस्तथा । (०३२४२) (श० ३।२४३) ८७. एवं जाव सण्णिवेसरूवं वा । ८. विकुर्व्वणाधिकारात्तत्तत्समर्थदेव विशेष प्ररूपणाय सूत्राणि - (१०-१० १२३) ६०. चमरस्स णं भंते! असुरिदस्स असुररण्णो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि चउसट्ठीओ आयरक्खदेव साहस्सीओ पण्णत्ताओ । ६१. ते णं आयरक्खावण्णओ । ( श० ३।२४४ ) एवं सव्वेसि इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियव्वा । (श० ३।२४५) २. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( ० ३।२४६ ) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ६६ दूहा छठे उदेशै अंत में, आत्म - रक्षक बात। लोकपाल हिव इंद्र नां, कहिये तसं अवदात ।। नगर राजगृह नै विप, जाव करंता सेव । बोल्या गोयम गणहरू, अलगो करि अहमेव ।। हे प्रभु ! शक देवेद्र नै, देवराय नै देख। लोकपाल कितला कह्या, जिन कहै चिउं सपेख ।। १. षष्ठोद्देशके इन्द्राणामात्मरक्षा उक्ताः, अथ सप्तमोद्देशके तेषामेव लोकपालान् दर्शयितुमाह- (वृ०-प० १६४) २. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी ३. सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो कति लोगपाला पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा४. सोमे जमे वरुणे वेसमणे। (श० ३।२४७) एएसि णं भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कति विमाणा सोम जम तीजो वरुण, बली वैश्रमण सार । हे प्रभ ! आं च्यारा तणे, किता विमाण उदार? पण्णत्ता? ५. गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा--संझप्पभे वरसिठे सयंजले वग्गू। (श० ३।२४८) ६. कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो संझप्पभे नाम महाविमाणे पण्णत्ते ? ७. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जिन कहै च्यार विमाण छै, संझप्रभ वरशिष्ट। पुनः सयंजल नै वग्गु, ए च्यारूंइ वरिष्ट ।। *जिनेश्वर, देव-जिनेंद्र दाखंत, प्रश्न पूछ रे गोयम श्रमण महंत । (ध्रुपदं) ६. किहां प्रभु ! शक्र देवेंद्र नां, देवराजा नां जाण । सोम महाराजा तणों, संझप्रभ रे नामैं महा विमाण ।। ७. जिन कहै जंबुद्वीप नां, मेरु - गिरि थी माण। ___ दक्षिण दिशि मांहै अछ, सुणियै रे तास वखाण ।। ८. रत्नप्रभा पृथ्वी विपै, भूमिभाग बहु-सम-रमणीक । ते मेरु नै मध्य रह्यो, च्यारू रे दिशि विच ठीक ।। १. भूमि विष सहस्र जोजन रह्यो, पृथुलपणे पहिछान । तिहां गोथण आकारे अष्ट प्रदेश नां, रुचक नामा रे भूतल स्थान ।। १०. तेह थकी ऊंचा अछ, रवि शशि ग्रह-समुदाय । ___नक्षत्र तारारूप नै, बहु जोजन रे ऊंचो ताय । ११. जावत् पंच वडिसगा, जाव शब्द में एह। पाठ कह्या छै एतला, सुणिये रे श्रोता चित देह ।। १२. बहु जोजन नां सैकडां, बहु सहस्र जोजन जोड। बहु लक्ष नै बहु कोड ते, जोजन रे बहु कोडाकोड। ८. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमि भागाओ १०. उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणाई ११. जाव इह यावत्करणादिदं दृश्यम्। (वृ०-५० १६५) १२. बहूहि जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयण सयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ। (वृ०-५० १६५) १३. उड्ढं दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने। (वृ०-५० १६५) १३. ऊवं दूर इता अतिक्रमी, इहां सुधर्म देवलोग। लांबो पूरव पश्चिमै, चोडो रे दक्षिण उत्तर जोग। *लय-रावणराय आशा अधिकी अथाय श०३, उ० ७, ढा ६६ ३६५ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अर्द्ध - चंद्र संस्थान ते, अच्चिमाली किरण नी श्रेण । १४. अद्धचंदसंठाणसंठिए अच्चिमालिभास रासिवन्नाहे। भास-राशि तेज नां समूह नीं, आभा रे प्रभा सुवर्णण ।। (वृ०-५० १६५) १५. असंख कोडाकोड जोजन तणो, लांबो पहलो जोय । १५. असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं परिधि असंख कोडाकोड जोजन तणी,इहां सुधर्म रे कल्प अवलोय।। असंखेज्जाओ जोषणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं एत्थ णं सोहम्माणं देवाणं । (वृ०-प० १६५, १६६) १६. बत्तीस लक्ष विमाण छै, आख्या तेह विमाण । १६. बत्तीस विमाणावाससयसहस्साई भवन्तीति अक्खाया, सर्व रत्नमय छै अच्छा, यावत् रे प्रतिरूप पिछाण ।। ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा । १७. ते सौधर्मज कल्प नै, बह - मध्य देश - भाग। १७. तस्स णं सोहम्मकप्पस्स बहुभज्झदेसभाए। जाव शब्द में एतला, कहिये रे पाठ सुमाग ।। (वृ०-५० १६६) १८. वर विमाण तिहां शक्र नां, कह्या पंच अवतंस । १८. पंच बडेसया पण्णता, तं जहा--असोगवडेंसए, सत्त'अशोक सप्तपर्ण 'चंपक, 'न्य मध्य रे "सुधर्म अवडंस ।। बण्णव.सए, चंपयवडेंसए, च्यवडेंसए, मज्झे सोहम्मवडेंसए। (श० ३।२४६) १६. सुधर्मावतंसक महाविमान नै, पूर्व दिशि रै माय । १६. तस्स णं सोहम्मबडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरथिमे णं सूधर्म-कल्प विषै अछ, जोजन रे असंख उलंघाय ।। सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोयणाई वीइवइत्ता, २०. इहां शक देवंद्र नां, देवराजा नां जाण ।। २०. एत्थ णं सक्कस्स देबिंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो महाराय सोम लोकपाल नों, संझप्रभ रे महाविमाण ।। संझप्पभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते२१. साढा बार लाख जोजन तणो, लांबो पहुलो जेह । २१. अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, त्रिगुणी जाझी परिधि अछ, तिणरो विवरो रे आगल लेह ।। २२. गुणचालीस लक्ष योजन बलि, बावन सहस्र पिछाण । २२. उयालीसं जोयणसयसहस्साइं बावन्नं च सहस्साइं अट्ठ आठ सौ अडतालीस ऊपरै, किंचत् जाझी रे परिधि प्रमाण ।। य अडयाले जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। २३. जिका सर्याभ विमाण नी, वक्तव्यता कही पेख। २३. जा सूरियाभविमाणस्स वत्तव्वया सा अपरिसेसा भाणितिका सर्व भणवी इहां, जावत रे सभा अभिषेक ।। यव्वा जाव अभिसेओ, २४. णवरं इतो विशेष छ, सोम देव कहिवाय। २४. नवरं-सोमो देवो। (श० ३।२५०) हिवै सोम लोकपाल नी, रजधानी रे तिरछा लोक मांय ।। २५. संझप्रभ महाविमान नै, नीचे तिर्यग् लोक मांहि । २५. संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे, सपक्खिं, सपडिदिसि सपविख सपडिदिसिं, 'असंख-लक्ष रे योजन अवगाहि ।। असंखेज्जाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, २६. इहां शक देवेंद्र नां, देवराजा ना ताम । २६. एत्थ णं सक्कस्स देविदस्स देवरणो सोमस्स महारणो सोम महाराजा तणी, रजधानी रे सोमा नाम ।। सोमा नाम रायहाणी पण्णत्ता-- २७. एक लक्ष जोजन तणी, लांबी पहली जाण । २७. एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबुद्दीवण जंबूद्वीप प्रमाण छै, वैमानिक सूं रे अद्धं प्रमाण ।। माणा । बेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं नेयवं २८. वैमानिक सुधर्म विमान न, प्रासाद गढ द्वारादि। २८. वैमानिकानां सौधर्मविमानसत्कप्रासादप्राकारद्वारादीनां जसुं प्रमाण का तेहथी, इण नगरी नों रे अधं ससाधि ।। प्रमाणस्येह नगर्यामर्द्ध ज्ञातव्यं। (वृ०-५० १६६) यतनी २६. सुधर्म विमान प्राकार, ऊंचो तीनसौ जोजन सार। ते माटै एहन अवलोय, ऊंचो दोढसौ जोजन जोय ।। १. यहां अगसुत्ताणी भाग २ श० ३।२५१ में 'जोयणसहस्साई' पाठ है। उसके पाठान्तर में 'जोयण सयसहस्साई' पाठ लिया गया है। जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही पाठ रहा होगा, इसीलिए उन्होंने लाख योजन का उल्लेख किया है। ३९६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाद द्वारादिक जोय, सोधर्म विप अवलोय। तेहथी अर्ध प्रमाण प्रासाद, द्वारादिक नुं संवाद ।। ३१. *जाव उवागरियलेणं ते, जोजन सोल हजार। आयाम विखंभपणे क ह्य, कहिय रे हिव परिधि प्रकार ।। ३२. जोजन सहस्र पचास ते, पांचसौ सत्ताणं पेख। कायक विशेष ऊणी कही, दाखी रे परिधि सुविशेख ।। प्रबर तेह प्रासाद नों, च्यार परिपाटी श्रेण । इहां मूल एक प्रासाद छ, ऊंचो रे जोजन अढीसौ पवरेण ।। मूल प्रासाद सुधर्म तणं, पांचसौ जोजन मन्न । तेहथी अर्ध ऊंचापणे, ते माटै रे अढीसौ जोजन्न ।। ३१. जाव ओवारियलेणं सोलस जोयणसहस्साई आयाम विक्खंभेणं, ३२. पण्णासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताण उए जोयणसते किंचि विसेसूणे परिक्खेबेणं पण्णत्तं । ३३. पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयवाओ, ३४. ३६. ३७. यतनी ३५. ऊंचपण ए मूल प्रासाद, अढाईसौ जोजन अहलाद । तेहथी अर्ध-अर्ध हीन होय, हिव आगल कहियै सोय ।। मूल प्रासाद नुं सुप्रकार, परिवार भूत है च्यार । ते सवासौ जोजन कहिये, ए प्रथम परिपाटी लहिय ।। बलि च्यार तणों परिवार, सोले प्रासाद छै सुखकार । साढा बासठ जोजन जोय, ए वीजी परिपाटी होय ।। ३८. कह्य सोल न परिवारभूत, प्रासाद चोसठ सुभ सूत । सदाइकतीस जोजन सार, ए तीजी परिपाटी उदार ।। ३६. चोसठ प्रासाद नं परिवार, दोयसौ छप्पन सविचार । पनरै जोजन नै भाग पंच, जोजन नां आठां मांहिला संच ।। ४०. ए चिउं परिपाटी न्हाल, सर्व तीनसौ नैं इकताल। सुधर्म थी सहु अर्ध ऊंचास, अन्य सूत्र थकी कह्या तास ।। ४१. *सुधर्मादिक सभा जिके, राजधानी में नाय । ते तो उत्पत्ति स्थानक हुदै, तिण सूं भाख्यो रे सेसा नस्थिताय।। ४१. सेसा नत्थि। (श०३१२५१) सुधर्मादि सभा इह न सन्ति, उत्पत्तिस्थानेष्वेव तासां भावात् । (वृ०-५० १६६) ४२, ४३. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो इमे देवा आणा-उबवाय-वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा ४२. शक्र देवेंद्र देव राजा तणां, महाराय सोम एह। तसं आज्ञाकारी देवता, उववाय रे सेव करेह ।। ४३. वयण कहितां वचन ते, अनियोग पूर्वक आदेश । निर्देश उत्तर पूछयां तणो, एहनें विष रे रहै छै विशेष ।। ४४. सोमकाइया सोम नी जाति नां, सोम परिवार उदार । सोमदेवतकाइया, सोम सामानिक रे प्रमुख परिवार ।। ४४. सोमकाइया इवा, सोमदेवयकाइया इ वा 'सोमकाइय' त्ति सोमस्य कायो-निकायो येषामस्ति ते सोमकायिका:-सोमपरिवारभूताः 'सोमदेवयकाइय' त्ति सोमदेवता:-तत्सामानिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमदेवताकायिकाः सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः । (वृ०-प० १६६) "लय--रावण राय आशा अधिकी अथाय श०३, उ०७, ढा०६६ ३६७ Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५१ ५२. ५३. वचन शक नीं आज्ञा मानता, सेव निर्देश | तेहने विषै रहे अछे पूर्व आख्या रे ए तो देव विशेष ।। ५०. जंबूद्वीप पे मंदर ने दक्षिण दिशि ई मांय | ए आगल कहिसै ते, ऊपजै ते तो जाणें रे सोम महाराय || ग्रह-दंड ग्रह- मुसल हुवै, ग्रह - गर्जित वलि हुवै ग्रह-संघाडगा, ग्रह-अपसव्य रे हिवै अर्थ समुद्ध || * दंड नीं पर विछा लांबा, श्रेणि वृद्धि समाचरं । मंगलाविक तीन विना दंड ग्रह दंड उच्चरे ।। चिउंना, ग्रह- युद्ध । ५४. ५५. ५६. ५७. अग्निकुमार । बिज्जुकुमार सुरी सुरा, इमहिज इमहिज वाउकुमार छै, चंद्र सूर्य रे ग्रह नक्षत्र तार ॥ ५८. अन्य वलि तथा प्रकार नां, सगलाइ सुर सोम नामै लोकपाल नी, भक्ति रे सेव प्रयोजन होय । बले पक्षी छे तेहना, सोम सहाय नो कारक अछे सोग पक्षी रे ते माटे जोय ।। सोम तणी भार्य्या नीं परै, अत्यंत वस छं तास । तथा निवहै भार सोमनों, तिण सूं आख्यो रे तब्भारिया जास ।। तेह | करेह ॥ मुसल नीं पर नीचे ऊपर थेनि वृद्धि समाचरें। मंगलादिक तीन चिडं नां, ग्रह मूसल उच्चरे ॥ ग्रह नैं संचारवादिक, विधै घन नुं जाणियै । शव्द गर्जित अधिक, ग्रहगज्जित आणिये ॥ इक नक्षत्र विषैज बिहुं, दक्षिण दिश उत्तर करी । श्रेण सम जे रहै तेहनें, ग्रह युद्धज उच्चरी ॥ सिघोडा ना फल तण, आकार जे बहु ग्रह रहै । कहिये, जाण तसुं बहुश्रुत है || जावो, न्याय तेनुं इस ल पाछो, ग्रह अपसव्य तसुं कहै || * अभ्र बादला जे हुवै, बादल ਸ आकार । संध्या फूलं ते सही, गगने रे व्यंतर कृत नगराकार ।। ग्रह संघाटक ग्रहों व गमन करि नै जाय * लय -रावण राय आशा अधिकी अथाय +लय-पूज मोटा भांज टोटा ३६८ भगवती जोड़ ४५. विज्जुकुमारा, विज्जुकुमारी अमिकुमारा, अन्ि कुमारीओ बायकुमारा, बायकुमारीभो, चंद्रा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारारूवा ४६. जे यावण्णे तपगारा सब्वे ते तब्भत्तिया, 'तम्भत्तिय' ति तत्र - सोमे भक्तिः - सेवा बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिकाः । (१०-१० १२५) ४७. तप्पक्खिया, 'तप्पक्खिय' त्ति 'सोमपाक्षिकाः सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः । (बृ०१० १२६) ४८. तब्भारिया 'तब्भारिय' त्ति तद्भार्याः, तस्य सोमस्य भार्या इव भाव अत्यन्तं पश्यत्वात्पत्वाच्चेति तद्भाव तद्भारो वा येषां वोढव्यतयाऽस्ति ते तद्भारिकाः । ४६. सक्क्स्स देविदस्स देवरण्णो सोमस्स उत्रवाय वयण निद्दे से चिट्ठेति । ( वृ० प० १९६) महारण्णो आणा(०२०२५२) ५०. जंबुद्दीवे दी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं जाई इमाई समुन्नति तं जहा ५१. गहदंडा इ वा गहमुसला इवा, गहगज्जिया इवा, गहजुद्धा इवा, गहसिंघाडगा इवा, गहावसव्वा इवा, ५२. 'गहदंड' त्ति दण्डा इव दण्डा:-तियंगायताः श्रेणयः ग्रहाणां मंगलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डाः । (२०-० १९६) ५३. एवं ग्रहमुशलादीनि नवरमुद् वायताः श्रेणयः । ( वृ०म० १२६) गर्जितानि स्तनि ५४. 'गहगज्जिय' त्ति ग्रहसञ्चालादौ तानि ग्रहगजितानि । ( वृ०० १२६) ५५. ग्रहयुद्धानि' ग्रह्योरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि । ( वृ० प० ११६) ५६. ग्रसिघाटकानि ग्रहाणां विघाटकलाकारेगावस्थानानि । ( वृ० प० १९६) ५७. हापसव्यानि ग्रहाणामसम्यगमनानि प्रतीपगमना नीत्यर्थः । (बु०० १९६) ५८. अब्भा इवा, अब्भरूक्खा इवा, संझा इवा, गंधव्वनगरा इवा, अभ्रात्मका वृक्षा अभ्रवृक्षाः 'गंधर्वनगराणि' आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिबिम्बानि । ( वृ० १०१९६ ) Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. रेखा सहित आकाश नै, तथा उद्योत सहीत। तारानी पर पडिवो हुई, उल का रे पात प्रतीत । ६०. दिशि दाह किणही इक दिशि, तल अंधकार तमीस ॥ बलि ऊपरी प्रकाश ह, महानगर रे बलतो तेह सरीस ॥ ६१. गाज बीज रज वृष्टि नै, शुक्ल पक्ष रै माय। पडवादिक जे दिन त्रिहुं, संध्या फूल रे ते यूप कहाय ।। ५६. उक्कापाया इ वा, 'उल्कापाता:' सरेखा सोद्द्योता वा तारकस्येव पाताः । (वृ०-५० १६६) ६०. दिसिदाहा इवा, 'दिग्दाहाः' अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पाः। (वृ०-प० १६६) ६१. गज्जिया इ वा, विज्जुया इ वा, पंसुवुट्ठी इ वा, जूवे इ वा, 'जूवय' त्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः सन्ध्याछेदा आब्रियन्ते ते यूपकाः। (वृ०-५० १६६) ६२. जक्खालित्तए त्ति वा, धूमिया इवा, महिया इवा, 'यक्षोद्दीप्तानि' आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि। (वृ०-प० १६६) ६२. वलै आकाश विष हुवै, व्यंतर जवखालित्तए तेह छै, धूयर रे कीधी आग। महिया माग ।। ६३. धूयर अंतर सोरठा धूसरवान, स्वेत वर्ण महिया कही। इतलो जाण, धंयर महिका में इहां ।। ६४. *रज ते चिहं दिशि नै विष, ते रजघात कहाय । ग्रहण चंद्र सूर्य तणो, ते जाणे रे सोम नामैं महाराय ।। ६५. चंद्र सूर्य नी पाखती, परिवेस कुंडालो भूर। शशि ऊपर दूजो चन्द्रमा, रवि ऊपर रे दीसै दूजो सूर ।। इंद्रधनुष गगने हुवै, इंद्रधनुष नां जाण । गगने खंड दीसै घणां, तिणनै कहिय रे उदक-मछ माण ।। बादल बिना ऊतावली, बीजल खिवै तिवार। कपिहसिय इण पाठ नों, अर्थ कीधो रे टीकाकार ।। ६३. धूमिकामहिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिका–धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः, महिका त्वापाण्डुरेति ।। (वृ०-५० १६६) ६४. रयुग्घाए त्ति वा, चंदोवरागा इ वा, सूरोवरागा इवा, 'रउग्घाय' त्ति दिशां रजस्वलत्वानि 'चंदोबरागा सूरो वरागा' चन्द्रसूर्यग्रहणानि। (व-प० १६६) ६५. चंदपरिवेसा इवा, सूरपरिवेसा इ वा, पडिचंदा इ वा, पडिसूरा इ वा, 'पडिचंद' त्ति द्वितीयचन्द्राः। (व०प० १६६) ६६. इंदधणू इ वा, उदगमच्छा इवा, 'उदगमच्छ' त्ति इन्द्रधनुःखण्डानि। (वृ०-प० १६६) ६७. कपिहसिया इवा, 'कविहसिय' त्ति अनभ्रे या विद्युत्सहसा तत् कपिहसितम्। (वृ०-५० १६६) ६८. अन्ये त्वाहुः–कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसद शस्य विकृतमुखस्य हसनम्। (वृ०-५० १६६) ६६. अमोहा इ वा, 'अमोह' त्ति अमोघा आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः 'आताम्राः' कृष्णाः श्यामा वा शक टोद्धिसंस्थिता दण्डा इति। (वृ०-५० १६६) ७०. पाईणवाया इ वा, पईणवाया इवा, जाव संवट्टयवाया इ वा, 'संवतकवाताः' तृणादिसंवर्तनस्वभावा इति । (वृ०-प० १६६) गगने वानर मुख जिसो, विकृत - मुखे हसंत। कपिहसिय इण पाठ नों, अन्य आचार्य रे अर्थ एम करंत ।। उदय अस्त समय रवि किरण थी,उत्पन्न लाल कृष्ण जोह । गाडा नी जे ओधि नै, संस्थाने रे दंड तेह अमोह ।। ६६. ७०. पुरव दिशि नों वायरो, पश्चिम दिशि नों वाव । जाव संवर्तक वायरो, तृणादिक रे संवर्तन स्वभाव ।। *लय-रावण राय आशा अधिकी अथाय श०३, उ०७, ढा०६६ ३६६ Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा जाव शब्द में जाण, पन्नवण सूवे धुर पदे । पेख्या पाठ पिछाण, कहियै तिण अनुसार थी। दक्षिण दिशि नों वाय, बलि उत्तर दिशि नों कह्यो। ऊंची दिशि नो ताय, बलि नीची दिशि नों पवन ।। तिरछी दिशि नों वाय, विदिशि तणो वायू वलि । वाउब्भामा ताय, अनवस्थित ए स्थिर नहीं।। वाउ-उक्कलिया जेह, उक्कलि नै पड़तो छतो। वाज वायू तेह, उदधि उत्कलिकावत् तिको ।। वायमंडलिया ताय, मंडल नै आकार जे। फुन उक्क्रलिया - वाय, रहि रहि नै वाजै तिको ।। ७२. दाहिणवाया इवा, उदीणवाया इवा, उड्ढवाया इवा, अहोवाया इवा, ७३. तिरियवाया इवा, विदिसीवाया इवा, बाउब्भामा इ वा, इह 'वातोद्भ्रामाः' अनवस्थितवाताः । (वृ०-१० १६६) ७४. वाउक्कलिया इवा, 'वातोत्कलिकाः' समुद्रोत्कलिकावत् । (वृ०-५० १६६) ७५. वायमंडलिया इ वा, उक्कलियावाया इवा, 'वातमंडलिका' वातोल्यः' 'उत्कलिकावाताः' उत्कलिकाभिर्ये वान्ति। (बृ०-५० १६६) ७६. मंडलियावाया इवा, गुंजावाया इवा, मण्डलिकावाता: मण्डलिकाभिर्ये वान्ति ‘गुजयाताः' गुञ्जन्तः सशब्द ये बान्ति । (वृ०-५० १६६) ७७. झंझावाया इवा, 'झञ्झावाताः' अशुभनिष्ठुराः। (वृ०प० १६६) ७८. गामादाहा इ वा, जाव सणि सदाहा इवा, अथानन्तरोक्तानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि दर्शयन्नाह (वृ०-५० १६६, १६७) ७६. पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, बलि मंडलिका - वाय, ए वातोली रूप जे। गुंजा - बाय कहाय, करतो गुंजारव शबद ।। झंझावायू ताय, अनिष्ट असुभज आकरा। ए सगलाइ वाय, जाव शब्द में आखिया ।। ७८. *ग्राम जाव सन्निवेस नों, दाह हवै अधिकाय। ग्रह दंडादिक जे कह्या, तेहन रे हिव फल कहुं प्राय ।। प्राण क्षय बल क्षीण हुवै, जण धण कुल क्षय होय । मनुष्य धन कुल क्षय हुवै, ग्रह दंडादिक नो रे ए फल जोय ।। कष्ट भूत आपद पडै, पापात्मिक अनार्य। तथा आगमन अनार्य तणो, ए सरिखा रे बलि अन्य कार्य ।। ८०. ८१. ए सहु शक्र देवेंद्र नां, देव राजानां ताहि। सोम महाराजा तणे, नहीं छै रे ए अणजाण्या ताहि ।। ८२. ते अणजाण्या नहीं तसं, उन्मान तणी अपेक्षाय । अणदेख्या नहीं तेहन, प्रत्यक्ष नी रे अपेक्षाय ताय ।। ८०. बसणभूया मणारिया ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्प्रकाराः-प्राणक्षयादितुल्याः 'व्यसनभूताः' आपद्रूपाः 'अनार्याः' पापात्मकाः । (वृ०-प० १९७) ८१.जे यावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो अण्णाया ८२. अदिट्ठा 'अण्णाय' त्ति अनुमानतः 'अदिट्ठ' त्ति प्रत्यक्षापेक्षया । (वृ०-प० १९७) ८३. असुया अमुया 'असुय' त्ति परवचनद्वारेण 'अमुय' त्ति अस्मृता मनोऽपेक्षया । (०-६० १६७) ८४. अविण्णाया, तेसि वा सोमकाझ्याणं देवाणं । (श० ३।२५३) 'अविण्णाय' त्ति अवध्यपेक्षयेति। (वृ०-प०१९७) ३. पर वचने द्वारे करी, अणसुणिया नहि कोय। अस्मति असमरण करि नहीं, मन नी रे अपेक्षाय जोय ।। ५४. आवशात अविज्ञातपणे नहीं सोम रै, अवधि तणो अपेक्षाय । तथा सोम नी जाति नां, तेहनै रे अजाण्यादि नाय ।। * लय-रावण राय आशा अधिकी अथाय ४०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८५. इतले इम कहिवाय, ग्रह-दंडादिक प्रमुख जे। जाण्या वतै ताय, बलि देख्या सुणिया जसु ।। स्मृता मन कर न्हाल, विज्ञाता अवधे करी। शक सोम दिग्पाल, सोमकाइया नै बलि ।। ८७. *शक देव राजा तणा, महाराय सोम ने सोय। ८७. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारपणो इमे ए आगल कहिस तिक, पुत्र-स्थानक रे विनयवंत जोय ॥ देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा'अहावच्च'--त्ति यथाऽपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्या देवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः। (वृ०-५० १६७) ८८. अंगारक वैतालिक, लोहिताक्ष शनि जान। ८८. इंगालए वियालए लोहियक्खे सण्णिच्चरे चंदे सूरे सुक्के चंद्र सूर्य शुक्र बुद्ध गुरु, वलि राहु रे ए पुत्र नै स्थान ।। बद्रे बससई राष्ट्र (श० ३१२५४) ८६. शक्र सुरिंद्र सुरराय ना, महाराय साम ना स्थित्ता ८९. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो सोमस्स महारणो इक पल्यतीजो भाग पल्यतणों, इक पल्योपम रे सुत-स्थानक नी ठित्त। सतिभागं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। अहावच्चाभिण्णा याणं देवाणं एग पलिओवमं ठिई पणत्ता। ६०. पल्य अधिकेरी स्थिति छ, चंद्र सूर्य नी जाण । ' ६०. एतेषु च यद्यपि चन्द्र सूर्ययोर्वर्षलक्षाद्यधिकं पल्योपमं अल्प अधिक माटै नां गिणी, वृत्ति माहै रे एहवी वाण ।। तथाऽप्याधिक्यस्याविवक्षितत्वादङ्गारकादीनां च ग्रहत्वेनपल्योपमस्यैव सद्भावात् पल्योपममित्युक्तमिति । (वृ०-५० १६७) ६१. एहवो महाऋद्धिवान छै, यावत् महाजमा। ११. एमहिड्ढीए जाब महाणुभागे सोमे महाराया। लोकपाल पूर्व दिशि तणों, सोम महाराजा रे तिणरो अति आघ ।। (श० ३।२५५) १२. अंक सैंतीस देश ए, गुणतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, वारू संपति रे 'जय-जश' मंगलमाल ।। शुक्र युद्धक, लोहिताश ६. शक्र ढाल : ७० दूहा किहां प्रभु ! शक सुरिद्र नां, सुर राजा नां जाण । जम महाराजा तेहनों, वरसिटू महाविमाण? जिन कहै-सोहम्म वडसके, महाविमान ते जोय । दक्षिण दिशि माहै अछ, सुधर्म - कल्पै सोय ।। असंख सहस्र जोजन गयां, शक्र सूरिंद्र नां जाण । जम महाराजा नों अछ, वरसिट्ठ महाविमाण ।। १. कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महा रणो वरसिठे नाम महाविमाणे पण्णत्ते? २. गोयमा ! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणे णं सोहम्मे कप्पे ३. असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई वीईवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरगणो जमस्स महारगणो वरसिट्ठे नामं महाविमाणे पण्णत्ते४. अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई-जहा सोमस्स विमाणं जोजन साढा बार लख, सोम विमान नी सोय । वक्तव्यता कही तिम इहां, जम नी कहिवी जोय ।। *लय-रावण राय आशा अधिकी अथाय तहा श०३, उ०७, ढा०६६, ७० ४०१ Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव अभिषेक स्थापना, राजधानी तिमहीज । जावत् पंक्ती ते चिउं, प्रासाद नी जिमहीज ।। शक सुरेंद्र सुरराय नां, जम महानृप नी सेव । आज्ञा वच निर्देश में, रहै एतला देव ।। जमकाइया जम जाति नां, जम परिवार सुसाधि । जम - देवत - काइया, जम-सामानिक आदि। प्रेतकाइया - व्यंतरा, प्रेत - देवतकाय। प्रेतसत्क जे सुर तणां, संबंधी कहिवाय ।। ५. जाव अभिसेओ। रायहाणी तहेव जाब पासायपंतीओ। (श० ३६२५६) ६. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा७. जमकाइया इवा, जमदेवयकाइया इवा, असुर देव देवी बलि, कंदर्प क्रीडाकार । नरकपाल सेवक सुरा, अन्य बलि तथा प्रकार ।। ते सह भक्ता जमपक्षी, वल्लभ भार्या जेम । जम नी आज्ञा सेव बच निर्देशे रहै प्रेम ।। ८. पेतकाइया इ वा पेतदेवयकाइया इ वा, 'पेयकाइय' त्ति 'प्रेतकायिकाः' व्यन्तर विशेषाः 'पेयदेवतकाइय' त्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः । (वृ०-५० १६८) ९. असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरयपाला, अभियोगा--जे यावण्णे तहप्पगारा १०. सब्वे ते तब्भत्तिगा, तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरष्णो जमस्स महारण्णो आणा-उववायवयण-निद्देसे चिट्ठति। (श० ३।२५७) *निसणे गोयमा ! जम महाराजा स्यूं नहीं छाना। बलि जमराय नां जमकायिका थकी अछाना ।। (ध्रुपदं) जंबुद्वीप नां मेरु-गिरि थी, दक्षिण दिशि रै मांह्यो। एह ऊपजै ते सह जाणे, जम नामैं महारायो।। डिबा कहितां विघन ऊपजै, डमर ते इक राजेराजकुमारादिक नों कीधो, उपद्रव अधिक अकाजे॥ १२. १३. कलह वचन नी राडि कहीज, बोला अर्थ विचारा। अव्यक्त अक्षर नी ध्वनि-समूहज, मच्छर परस्पर खारा ।। चक्रादि-व्यूह रहित महायुद्ध, व्यूह रच महासंग्रामो। महाशस्त्र खड्गादि पडै बलि, महापुरुष क्षय आमो।। ११. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणे णं जाई इमाई समुप्पज्जति, तं जहा१२. डिबा इवा, डमरा इ वा, डिम्बा-विघ्नाः 'डमर' ति एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः। (वृ०-प० १९८) १३. कलहा इ वा, बोला इ वा, खारा इवा, 'कलह' ति वचनराटयः 'बोल' त्ति अव्यक्ताक्षरध्वनि समूहाः 'खार' त्ति परम्स्परमत्सराः। (वृ०-प० १६८) १४. महाजुद्धा इवा, महासंगामा इ वा, महासत्थनिवडणा इवा, महापुरिसनिवडणा इ वा, 'महायुद्ध' ति महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणा: 'महासंगाम' त्ति सव्यवस्थचकादिब्यहरचनोपेतमहारणाः महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रयो महायुद्धादिकार्यभूताः । (वृ०-५० १६८) १५. महारहिरणिवडणा इवा, दुद्भूया इ वा, 'दुब्भूय' ति दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद् भूताः सत्त्वाः यूकामत्कुणोन्दुरतिड्डप्रभृतयो दुर्भूता ईतय इत्यर्थः। (वृ०-५० १६८) १६. कुलरोगा इवा, गामरोगा इ वा, मंडल रोगा इ वा, नगररोगा इवा, सीसवेयणा इवा, अच्छिवेयणा इवा, कण्णवेयणा इवा, नहवेयणा इ वा, दंतवेयणा इवा, १५. घणां रुधिर-लोही न पडिवू, धान्य मनुष्य प्रमुख नै। उपद्रव हेतू जू नै माकण, उंदर तीड उप्पनै ।। १६. कुल अरु ग्रामै रोग ऊपजै, देश नगर में रोगा। शिर चक्ष कर्ण दंत नख वेदन, उपजै अधिकी अजोगा। *लय-हठीला कानजी ! छल्ला म्हैं नहीं छोडूं, ४०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Person Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वावला जाणी । अधिक पिछाणी ॥ प्रहादिक उन्मत्त कारण, करे इंद्रग्रह सार्ग विकल, वेदन हुवै संग्रह लागो हुवे गहिलो महिज यक्षग्रहे पण उन्मत्त कारण, भूतग्रह १२. एकांतर-जुर आवै बसि बेहिया पुनः तेहिया' तायो। चतुराहिया' जुर आवै ते पिण, जाणें जम महारायो ॥ ग्रहकुमारो | धारो ॥ इम १७. १८. २०. २१. २५. २६. २२. हुवे अजीर्ण रोग पांडु बलि, हरस भगंदर हृदय-सूल शिर-सुल ऊपजै, योनी-सूल २३. पसवाडा मूल अपने उदरे ग्राम नगर अरु खेड कवड में, २४. द्रोणमुख मंडप' नै सन्निवेस में मरी २७. उद्वेग इष्ट विजोगे उपनों, कास कास श्लेष्म सहित कहीजे सास, सोस २८. २६. जरा करें बल होणज तनुं नै, दाह ते बले कक्ष दुर्गंध हवं अथवा वन-पत्र स में मारी पट्टण, आश्रम ऊपजे, ते श्लेष्म - १. एक दिन छोड़कर आने वाला ज्वर । २. दो दिन छोड़कर आने वाला ज्वर । ३. तीन दिन छोड़कर आने वाला ज्वर । ४. चार दिन छोड़कर आने वाला ज्वर । ५. मडंब ६. मारी रोग रोग नै वल-क्षय नर-क्षय धन-क्षय कुल-क्षय, अन्य बलि तेह सरीखा तेहन, जाणे शक सुद्रि तणो जम नामैं, महाराजा अणजाण्या इत्यादिक नहि है, अथवा जाणे महाराया जम ने सुत स्थानक, विनयवंत काल लिहू में पि लेखी पनर नाम अंबे अंबरिसे सामे, सबले ने उपस्द्र काल महाकाल असिपत्त, धणु कुंभ वैतरणी खरसर महाषोपे, ए परमधामिक जमराय नै पुत्र रहीतं । विपरीतं ॥ शरीरं । अति पीडं || ताह्यो । अथायो || कष्ट अनारज आयो । जम महारायो । नै जाणं । जसकाया || अपने । नोपर्ज ॥ संवाहो । जमनाहो ॥ ए हुआ। जे रुद्र जूआ || रुखालु । बालु ॥ पनर पहिचानं । तणै छै स्थानं ॥ नै १७. इंदग्गहा इवा, ( वृ० प० ११८ ) १८. खंदग्गहा इ वा, कुमारग्गहा इ वा जक्खग्गहा इवा, भूयग्गहा इवा, १६. एगाहिया इवा, बेहिया इवा, तेहिया इ वा, चाउत्थया इवा, इन्द्रग्रहादयः उन्मत्तताः । एकाहिकारविशेषाः । ( वृ० प० १६८) २०. उब्वेयगा इवा, कासा इवा, सासा इवा, सोसा इ वा, 'उब्यग' त्ति उद्वेगका इष्टवियोगादिजन्याः । (१०-१० १२८) २१. जरा इवा, दाहा इ वा, कच्छकोहा इ वा 'कन्डको तिगां शरीरावयवविशेषाणां वनमनाना वा कोथा: कृतित्वानि परितानि वा कक्षाकोथाः कक्षकोथा वा । ( वृ० प० १६८) २२. अजीरंगा इवा, पंडुरोगा इवा, अरिसा इवा, भगंदला इवा, हिययसूला इवा, मत्थयसूला इवा, जोणिसूला इवा, २३. पासा वा कुण्डलाइ वा गाममारी वा नगरमारी इ वा, खेडमारी इ वा, कब्बडमारी इवा, २४. दोमुहमा वा बारी दवा, पट्टणमारी हवा, आसममारी इ वा संवाहमारी इवा, सण्णिवेसमारी इवा, २५. पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणबभूया मणारिया जे यावण्णे तहप्पगारा २६. ते सवकस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो अण्णाया अदिट्ठा असुया अमुया अविण्णाया, तेसि वा जमका इयाणं देवाणं । (श० ३।२५८) २७. सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चा अभिष्णाया होत्या, तं जहा २८, २६. अंबे अंबरिसे चेव, सामे सबले त्ति यावरे । रुवरुद्दे काले य, महाकाले ति यावरे ॥ असिपत्ते धणू कुंभे, वालुए वैतरणी त्तिय । खरस्सरे महाघोसे, एते पण्णरसाहिया || (श० ३।२५६ संग्रहणी-वाहा) २६. एते मयाऽपत्यदेवाः पञ्चदश आख्याताः । ( वृ० प० १६८) श० ३, उ० ७, ढा० ७० ४०३ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. महारायो । कहिवायो || ३८. एहवो है महाऋद्धिवंत मोटो, जावत् जम तृतीय शतक नों सप्तमुद्दशो, देश थकी ए सित्तरमी ढाल कही, भिक्षु भारीमाल ऋषरायो । 'जय जय' सुख संपत्ति गण वृद्धि, दिन दिन अधिक मवायो । ३२. १. २. ३. ६. ७. शक्र तणां जम महाराजा नीं, स्थिति पल्योपम आखी । पल्य नां तीजा भाग सहित वलि, पुत्र-स्थान पल्य भाखी ॥ ८. ढाल : ७१ हा महाविमाण ? तै जोय । कहां प्रभु ! शक सुद्रि नो सुर राजा न जाण वरुण महाराजा तणों, सयंजल जिन कहै सोहम्मवडंसक, महाविमान पश्चिम दिशि मोहे अर्थ सुधर्मे कमे असं सहस्र जोजन गयां, शक्र सुरिंद्र वरुण महाराजा तणों, सयंजल सोय ॥ जाव जेम सोम नोंतिम इहां, विमाण नै पासाया नवरं फेर फेर शक सुरिंद्र सुरराय नां, महाराय वरुण नीं सेव । आज्ञा वच निर्देश में रहे एतला देव ॥ वरुणकाय वरुण जाति नां, देवतकाय । नागकुमार सुरा सुरी, उदधि थणित इम आय ॥ वरुण नां जाण । महाविमाण || अन्य वलि तथा प्रकार नां, भक्त पखी स्त्री जेम । वरुण आण सेवा वचन, निर्देशे रहै प्रेम ॥ ★ लय - कपूर हुवै अति ऊजलो रे ! *रे गोतम गुण तूं चित्त लगाय वरुण तीजा लोकपाल रे रे जाणपणे रे मांय || ( ध्रुपदं ) जंबूद्वीप नां मेरु थकी रे, दक्षिण दिशि रे मांय । ए आगल कहिसे जे ऊपजै रे, ते जाणै वरुण महाराय ॥ ४०४ भगवती जोड़ रजधानि । नामानि ॥ ३०. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरगो जमस्त महारण्णो सतिभागं पलिओदमं ठिई पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । ३१. एमहिड्डीए जाव महाणुभागे जमे महाराया । १. कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारष्णो सयंजने नाम महाविमा ? २. गोपगा! तस्स णं सोहम्मडेंसयस्स महाविनास पच्चत्थिमे णं सोहम्मे कप्पे एत्थ गं ३. असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बीईवइत्ता, सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारष्णो संयजले नाम महाविमाणे पण्णत्ते ४. जहा सोमस्स तहा विमाण रायधाणीओ भाणियव्वा जाव पासादवडेंसया, नवरं नाम नाणत्तं । (४० ३।२६०) ( ० २०२६१) ५. सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो इमे देवा आणा उववाय वयण - निद्देसे चिट्ठति तं जहा-६. वरुणकाइया इवा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा कुमारी उदहिकुमारा, उदहिकुमारीओ वणिकुमारा, धणियकुमारीबी ७. जे यावणे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तम्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण आणा उबवाय वयण- निद्देसे चिट्ठति । (०३/२६२) ८. जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं जाई इमाई समुप्पज्जंति, तं जहा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. घणी नावली वर्षा हुवे हलवे सुवृष्टि दुवृष्टि हुवै, वरुण ओवाहा उदक थोडो वहै. पवाहा ग्राम तांणीं जाय एहवा वाला धान्य प्रमुख बहु नीपजै, तिणरो हेतु सुवृष्टि कहाय । धान्य प्रमुख नहि नीपजै, तिणरो हेतु दुवृष्टि ताय ॥ उदया गिरतट आद थी, उदक नीकलिं तेह उदपीडा तलाब प्रमुख विषै, जल नुं समूह छै जेह ॥ वर्षा जाणपणे याकुमार ना इंद्रनों, नाम लोकपाल तेहनों अछे, अंजन जावत ताणं सन्निवेस में, वाहला प्राण ते बल नां क्षय भणी, जल नां जाव वरुण महाराय नैं, अणजाण्या तथा वरुणकाइया तणें, जाणपणा में शक सुरिंद्र सुरराय नां, महाराय वरुण जावत् सुत-स्थानक अछे, विनयवंत ने बहुल अधिक नागकुमार न इंद्रनों, परण लोकपाल तेहून भलो संखपाल होय । जोय ॥ एहवा भेद नहि पेख । अनेक ॥ कोय | जोय || जाण । पहिछाण ॥ में जान । कर्कोटक नामै गिरि, लवणसमुद्र ईशाण कूण में ओपतो, आवासभूत अनुवेलंधर नागराजा तणों, ते गिरि तेहनां वासी देवता, कर्कोटक सुभ तिमज अग्निकणे अछे, विद्युतप्रभ आवासभूत गिरि तिहां, कर्दम नामै नागराज || पिछान ॥ आवासभूत । सूत ॥ समाज | वहंत । वहुत ॥ वेलंय विचार। नाम उदार ॥ नाम कहिवाय सुखदाय ॥ पुंड पलास मोये जये, उदधिमुख अयंपुल ताहि । कातरिक ए प्रसिद्ध नहीं, एम का वृत्ति मांहि ॥ शक सुरिंद्र सुरराय ने महाराय वरुण स्थिति जान । देश ऊणी बे पल्य तणी, एक पल्य सुत-स्थान ॥ ६. अइवासा इवा, मंदवासा इवा, सुबुट्ठी इ वा दुवुट्ठी इवा, 'अतिवाद' ति विगवगामीत्यर्थः 'मंदवास' त्ति शनैर्वर्षणानि । ( वृ० प० १६६ ) १०. 'सुघुट्ठि' त्ति धान्यादिनिष्पत्तिहेतुः 'दुबुट्ठि' त्ति धान्याद्य निष्पत्तिहेतुः । (१००० १२९) ११. उदव्भेदा इ वा, उदप्पीला इवा, 'उदय' ति उदकोमेदाः गिरितटादिभ्यो जलोद्भवाः 'उदप्पील' त्ति उदकोत्पीला:- तडागादिषु जलसमूहाः । (१०-१० १९९) १२. ओवाहा इ वा पवाहा इ वा, गामवाहा इवा, 'उद्वाह' त्ति अपकृष्टान्यान्युदकनानि ताजेव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः । ( वृ०-१० १६९) १३. जाव सणिवेसवाहा इवा, पाणक्कखया, १४. जाव वरुणस्स महारष्णो अण्णाया अदिट्ठा असुया अमुया अविण्णाया, तेसि वा वरुणकाइयाणं देवाणं । ( ० ३४२६३) १५. सक्कस्स णं देविदस्त देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो इमे देवा अहायच्चाभिगाया था जहा १६, १७. कक्कोडए 7 १८. कद्दमए 1 'फक्कड' ति कर्कोटकाभिधानोऽनुरेधरनागराजावासभूतः पर्वतो लगसमुद्र ऐशान्यां दिश्यस्ति तजिवासी नागराजः कर्कोटकः । ( वृ० प० १६६ ) 'कदम' त्ति आग्नेय्यां तथैव मको नाम नागराजः । विद्युत्प्रभपर्वतस्तत्र कर्द( वृ०म० १२२) १९. अंजणे अंज' लिम्बाभिधानवकुमारराजस्य लोकपा लोऽञ्जनाभिधानः । (यू००१० १४४) २०. संखवालए 'सखवालए' त्ति धरणाभिधाननागराजस्य लोकपालः शंखपालको नाम | ( १०-१० १२९) २१. पुंडे पलासे भीए जए दहमुहे अपने कारिए । ( ० २०२६४) शेषास्तु पुण्ड्रादयोऽतीता इति । ( वृ० प० १६६ ) २२. सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महा रण्णो देसूणाई दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । श० ३, उ० ७, ढा० ७१ ४०५ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. महाराय । २ मांय ॥ नां जाण । महाविमाण ? विमान तैं जोय । सोब एवो महाऋद्धिवंत छै, जाव वरुण लोकपाल ए तीसरो, पश्चिम दिशि किहां प्रभु ! शक सुरिंद्र नां, सुरराजा बेसमण महाराजा तणों, वन् जिन कहै सोहम्मवडंसक, महा उत्तर दिशि मां अछे सुधर्म कल्पे सोन तणां विमान नीं राजधानी नीं बात | जिम कही तिम इहां जाणवी, जाव प्रासादविरुवा ।। शक सुरिद्र सुरराय नां देव कुबेर नी सेव आशा बच निर्देश में रहे एतला देव || तेह कुबेर नीं जाति नां व सामानिक परिवार सुवन्नकुमार सुरा सुरी, इमहिज दिशाकुमार || द्वीपकुमार देवी देवता, व्यंतर सुर मुरी जाण अन्य वलि तथा प्रकार ना, भक्ति जाव रहे आण || । जंबूद्वीप मे की, दक्षिण दिशि रं मांय । ए आगल कहिसे जे ऊपजै, ते जाणं कुबेर महाराय ॥ लोह तणां आगर हुवै, तरुआ नां आगर जोय । तांबा नां आगर वलि, सीसा नां आगर सोय ॥ हिरण तणां आगर हुवै, सुवर्ण आगर रत्न - आगर रलियामणा, वज्र-आगर सार । श्रीकार ॥ जिन जन्मादिक में विये, गगन थकी हुवे ताय । द्रव्य वृष्टि तसुं सूत्र में, वनुधारा कहियाय || हिरण भी अल्प वर्षा हु अन्य आचार्य हिरण नें सुवर्ण भी वर्षा हुवै, रत्न वर्षा सुविचार | वज्र ती अल्प वर्षा हुवै, आभरण वर्षा पान फूल फल बीज नीं, गूंथ्या फूल नीं वर्ण तेह चंदन तण वर्षा होवे तिण उदार ॥ , चूर्ण से गंध द्रव्यनीं कोष्ठा ते वस्त्र तेह कपड़ा वणी, वर्षा होव ते रूपा भी वर्षा देख घडयो सोनो कहे देख ॥ हिरण नी बहु वृष्टि हु, सुवर्ण-वृष्टि रत्न वज्र आभरण तणीं, वृष्टी हुवै ४०६ भगवती-जोड़ माल । काल || गंध । मंद ॥ थाय । सवाय || २२. एमडीएजाय महाणुभागे वरुणे महाराया। (श० ३।२६५) २४. कहि णं भंते! सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो वग्गू नाम महाविमाणे पण्णत्ते ? २५. गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरे णं २६. जहा सोमरस विमान-रावावित्तव्यवाहा जाव पासादवडेंसया । ( ० २०२६६) २७. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा आणा उबवाय पनि चिति तं हा २८, २९. वेसमणकाइया इवा, वेसमणदेवयकाइया इवा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ दीवकुमारा, दीवकुमारीओ दिसाकुमारा, दिसाकुमारीओ वाणमंतरा वाणमंतरीओ-जे यावण्णे तहप्पगारा सब्बे ते तब्भत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारष्णो आणा उववाय वयण निसे चिट्ठति । ( श० ३।२६७) ३०. जंबुद्दीवे दी मंदररस पव्वयस्स दाहिणे णं जाई इमाई समुप्पज्जेति तं जहा - ३१. अयागरा इ वा, तज्यागरा इवा, तंबागरा इवा, सीसागरा इवा, ३२. हिरण्णागरा इवा, सुवण्णागरा इ वा, रयणागरा इवा, वइरागरा इवा, ३३. वसुहारा इवा, 'वारा'ति तीकरजन्मादाचाकाशादृद्रव्य दृष्टिः । ( वृ० प० २०० ) २४. बा हिरण्यं रूप्यं घटित सुवर्णमित्यन्ये । ( वृ० प० २०० ) ३५. सुवण्णवासा इवा, रयणवासा इ वा वइरवासा इवा, आभरणवासा इवा, ३६. पत्तवासा इवा, पुप्फवासा इवा, फलवासा इवा, बीयवासा इवा, मल्लवासा इवा, वण्णवासा इवा, माल्यं तु प्रथितपुष्पाणि वर्ण:- चन्दनं । ( वृ० प० २०० ) ३७. चुण्णवासा इवा, गंधवासा इवा, वत्थवासा इवा, चूर्णो गन्धद्रव्यसम्बन्धी गन्धाः - कोष्टपुटपाकाः । ( वृ०-१०२००) २८. हरयाणा, मावा, आभरणी वा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. m ३६. पत्तवुट्ठी इ वा, पुप्फबुट्ठी इ वा, फलवुट्ठी इ वा, वीय बुट्ठी इ बा, मल्लवुट्ठी इ वा, वण्ण वुट्ठी इ वा, ४०. चुण्ण बुट्ठी इ वा, गंधवुट्ठी इ वा, वत्थवुट्ठी इ वा. ४०. पत्र फल फल वीज नों, गॅथ्या फूल नी माल। वर्ण तेह चंदन तणी, वृष्टी अधिक निहाल ।। चर्ण ते गंध द्रव्य नीं, कोप्टपुडादि गंध । वस्त्र तेह कपडा तणो, वृष्टी अधिक प्रबंध ।। चीर-वृष्टि किणहि परत में, चीर वहुमूल्य ताय । वत्थ पाठ अल्प मूल्य ते, पिण नहीं छै वृत्ति माय ।। भाजन नी वृष्टि हुवै, खीर वृष्टि पिण थाय । अल्प तास वर्षा कही, वृष्टि महा कहिवाय ।। ४३. बलि सुकाल दुकाल ह्व, वस्तु अल्प-मूल्य होय । वलि वस्तु महामूल्य ह, जाणे वेसमण सोय ।। सभिक्ष भिक्षा सोहरी मिलै, दुर्भिक्ष दुर्लभ तेह। क्रय विक्रय व्यापार नों, तास कुबेर जाणेह ।। ४५. सन्निधि संचय घतादिक तणों, धान्य न संचय जान । संचय लक्षादि द्रव्य नों, ते निधे संचय मान ।। निधान ते भूमि रह्या, बहु द्रव्य संचय सोय। ते निधान के हवा अछ, सांभलज्यो सहु कोय ।। ४२. भायणवुट्ठी इ वा, खीरवुट्ठी इ वा, वर्षोऽल्पतरो वृष्टिस्तु महतीति वर्षवृष्ट्योर्भेदः । (वृ०-५०२००) ४३. सुकाला इ वा, दुक्काला इ वा, अप्पग्घा इ वा, महग्धा इवा, ४४. सुभिक्खा इ वा, दुब्भिक्खा इ वा, कयविक्कया इवा, 'सुभिक्खाइ व' ति सुकाले दुष्काले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धयः दुभिक्षास्तूक्तविपरीताः। (वृ०-प० २००) ४५. सण्णि ही इ वा, सण्णिचया इ वा, निही इ वा, 'संनिहि' त्ति घृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचय' त्ति धान्यसञ्चयाः 'निहींइव' ति लक्षादिप्रमाण द्रव्यस्थापनानि। (वृ०-प० २००) ४६. निहाणाइ वा 'निहाणाई व त्ति भूमिगतसहस्रादिसंख्यद्रव्यस्य संचया: कि विधानि? इत्याह (वृ०-प० २००) ४७. चिरपोराणाइ वा, 'चिरपोराणाई' ति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि। (वृ०-प० २००) ४८. पहीणसामियाइ वा 'पहीणसामियाई' ति स्वल्पीभूतस्वामिकानि । (वृ०-प० २००) ४६. पहीणसेतुयाइ वा, 'पहीणसे उयाई' ति प्रहीणाः---अल्पीभूताः सेक्तार:सेचक:-धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा। (वृ०-५० २००) ५०. पहीणमग्गाइ वा, ४७. चिर पोराणाई कह्या, घणां काल नां जेह। थाप्या ते जना थया, तेहिज हिवै कहेह ।। ४८. पहीणसामियाइं वली, धन नां स्वामी जाण । स्वल्पीभूत थया अछ, त्यां ने जाणे कुबेर सुजाण ।। ४१. पहीणसे उयाई बली, धन ना घालण हार। सेवग तेह रह्या नहीं, अल्पीभूत अपार ।। ५०. पहीण मग्गाई वली, मारग पिण थया हीन। अल्पीभूत थया तिकै, जाणे कुबेर सुचीन । पहीणगोत्ताकार कह्या, धन नां स्वामी कथीन । मनुष्य तणा जे गोत्र नां, घर नों थयो प्रक्षीन ।। ५१. ५१. पहीणगोत्तागाराइ वा, 'पहीणगोत्तागाराई' ति प्रहीणं-विरलीभूतमानुषं गोत्रागारं-तत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि तथा। __ (वृ०-५० २००) श०३, उ०७, ढा०७१ ४०७ Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छपण सामियाइं कह्या, धन नां स्वामी जेह। यथा बिच्छेद अत्यंत ही, निःसत्ताक ते लेह ।। ५२. उच्छण्णसामियाइ वा, 'उच्छिन्नसामियाई' ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि । (वृ०-प० २००) ५३. उच्छण्णसेतुयाइ वा, ५४. उच्छण्णगोत्तागारा इ वा उच्छण्णसेउयाई वली, धन ना घालणहार। ते पिण उच्छेद पाम्या अछ, ते सेवग न रह्या लिगार ।। उच्छण्णगोत्ताकारा कह्या, धन नां स्वामी वेद । मनुष्य तणा जे गोत्र नां, घर नों थयो विच्छेद ।। सिंघोडा ने आकारे स्थान छ, विक चउक चिउं पंथ । चच्चर ते बहु पंथ नै, गाडी धन नी ग्रंथ ।। बले चतुर्मुख स्थानके, महापंथ में जान। नगर तणां खाला विर्ष, जल नीकलवा ने स्थान ।। ५५. सिंघाडग तिग-च उक्क-चच्चर वलै मसाण-घर नां विषै, गिरि ऊपर घर जान। कंदर गुफा घर नै विर्ष, शांति-कर्म नों स्थान ।। शैल पाषाणघर ढांकियो, आस्थान मंडप जोय । तथा बैसवा नां घर विषै, गाड्यो धन अवलोय ।। ५६. चउम्मुह-महापह-पहेसु वा, नगरनिद्धमणेसु वा, 'नगरनिर्द्धमनेषु' नगर-जलनिर्गमनेषु । (वृ०-५० २००) ५७, ५८. सुसाण-गिरि - कन्दर-संति - सेलोवट्ठाण-भवण - गिहेसु संनिक्खित्ताई चिट्ठति, गृहशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् श्मशानगृहं-पितृवनगृह गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं कन्दरगृहं-गुहा शातिगृहशांतिकर्मस्थानं, शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं उप स्थानगृहं-आस्थानमण्डपः। (वृ०-प० २००) ५६. भवनगृह-कुटुम्बिवसनगृहमिति। (वृ०-५० २००) ६०. न ताई सक्कस्स देविंदस्स देवरणो बेसमणस्स महा रण्णो अण्णायाइं अदिट्ठाई ६१. असुयाई अमुयाई कुटंब बसिवा नां घर भणी, भवनघर कहिवाय । इहां स्थानक धन गाडियो, जाण बेसमण राय ।। तास अजाणपणे नहीं, अनुमान नी अपेक्षाय । प्रत्यक्ष नी अपेक्षा करी, अणदीठा नहिं ताय ।। पर वचने द्वारे करी, अणसुणिया नहि कोय । असमरवै करी नहीं, मन नी अपेक्षा जोय ।। अविज्ञातपण नहीं, अवधि तणी अपेक्षाय। तथा वेसमण जाति नां, तेहनै छाना नाय ।। शक सुरिन्द्र तणो अछ, महाराय कुबेर नै सोय । पुत्र-स्थानक ए देवता, विनयवंत अति होय ।। पूर्णभद्र नामै भलो, माणिभद्र महिमान । सालिभद्र सुखकारियो, सुमनभद्र सुख-स्थान ।। चक्ररक्ष चारू घणो, पूर्णरक्ष प्रसिद्ध। सर्वाण नै सर्वजश कह्यो, सर्व काम समृद्ध ।। अमोह देव असंग वलि, शक्र सुरिन्द्र नां हेव । वेसमण महाराय रे, पुत्र-स्थान ए देव ।। स्थिति वेसमण राय नीं, दोय पल्योपम जान । पुत्र-स्थानक ते देव नीं, एक पल्योपम मान । ६२. अविण्णायाई तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं । (श० ३।२६८) ६३. सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो देसमणस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा६४. पुण्णभद्दे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे ६५. चक्क रक्खे पुण्ण रक्खे सवाणे सव्वजसे सब्वकाये समिद्धे ६६. अमोहे असंगे। (श० ३।२६६) ६७. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो दो पलिओवमाई ठिई पण्णता। अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। ४०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. एमहिड्ढीए जाव महाणुभागे वेसमणे महाराया। (श० ३।२७०) सेवं भंते ! तेवं भंते ! ति। (श० ३।२७१) एहवो महाऋद्धिवान छै, जाव कुबेर महाराय। सेवं भंते ! सेवं भंते ! कहै, गोयम हरष सवाय ।। अर्थ अंक पैंतीस नों, एकोतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' गण गुणमाल ।। तृततीयशते सप्तमोद्देशकार्थः ।।३।७।। ढाल : ७२ १. देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोद्देशकः ।(वृ०-५० २०१) २. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी सप्तम उद्देशै कही, देव वारता देख । अष्टम उद्देशा विषै, तेहिज बात विशेख ।। नगर राजगह नै विर्ष, यावत् करता सेव । बोल्या गोयम गणहरू, अलगो करि अहमेव ।। *जिन वाण भली, दूध मांहै जाणे शाकर मिली। जिन वाण भली, तीर्थ चिहुं केशर-क्यारी खिली। जिन वाण भली, च्यार तीर्थ हद रंगरली।। (ध्रुपदं) ३. हे प्रभु ! असुर कुमार ने जाण, देव किता कहियै अगवाण ? ४. अधिपति स्वामीपणे थइ सोय, जाव किता विचरै सुर जोय? ५. श्री जिन कहै दश देव सोहंत, अधिपतिपणे यावत् विचरंत ।। चमर असुर इंद्र असुर नों राय, सोम जम वरुण बेसमण ताय ।। ७. बली वेरोचन-इंद्र विशिष्ट, सोम जम वरुण वेसमण इष्ट' ।। ३, ४. असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेबच्चं जाव विहरंति? ५. गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा६. चमरे असुरिदे असुरराया, सोमे, जमे, वरुणे, बेसमणे, ७. बली वइरोयणिदे वइरोयणराया, सोमे, जमे, बेसमणे, वरुणे। (श० ३।२७२) ८, ६. नागकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवच्च जाव विहरंति? १०. गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा११. धरणे णं नागकुमारिदे नागकुमार राया, १२. कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले, हे प्रभु ! नागकुमार ने जाण, देव किता कहिये अगवाण? ६. अधिपति स्वामीपणे थइ सोय, जाव किता विचरै सूर जोय? १०. श्री जिन कहै दश देव सोहंत, अधिपतिपणे यावत् विचरंत ।। ११. धरण है नागकुमार नों इंद, दक्षिण दिशि नों एह दीपंद ।। १२. काल वाल कोलवाल नीहाल, शेलवाल नै बलि शंखवाल ।। *लय-बाबा किशनपुरी तो विण मंढिया उजड़ी पड़ी १. प्रस्तुत पद्य के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का पाठ उद्धृत है, पर प्रस्तुत पद्य के साथ उसका मेल नहीं है। जयाचार्य ने भगवती के आदर्शों के पाट का अनुवाद किया है। वृत्तिकार ने भी आदर्शगत पाठ की व्याख्या की है। अंगसुत्ताणि का पाठ वृत्तिकार द्वारा पाठान्तर रूप में उल्लिखित है। जयाचार्य ने भी इस पाठान्तर का संकेत किया है। ढा० ७२ गा० ५४-५६ और उसके सामने का वृत्ति-पाठ। भगवती वृत्ति का पाठान्तर तथा स्थानांग ४/१२२ का पाठ परस्पर संवादी है। इस दृष्टि से भगवती का मूल पाठ वही स्वीकृत है और प्रस्तुत प्रकरण में वही पाठ उद्धृत किया गया है। श० ३, उ०७, ८, ढा०७१, ७२ ४०६ Jain Education Intemational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. भूतानंद नागकुमार नों इंद, उत्तर दिशि नौ ए ओपंद ॥ १४. कालवाल कोलवाल सेलवाल, शंखवाल ए चिरं लोकपाल || १५. जिम ए नागकुमार की बात, आगल इम कहिये १६. सुवर्णकुमार अवदात || है १७. उत्तर बेमुदालि निहाल, चिउं १५. चित्र विचित्र चित्रपक्ष जोय, विचितपक्ष चि १२. विज्जुकुमारन द वे शोभंत, दक्षिण दिशिनों ए होय ॥ हरिकंत ।। २०. उत्तर दिशि नों हरिसह न्हाल, इक इक में चिरं चिरं लोकपाल ॥ २१. प्रभ सुप्रभ प्रभवंत पेख, सुप्रभवंत का सुविशेष। २२. अग्निकुमार न इंद्र वे जाण, अग्निसीह अग्निमाणव पिछाण ।। २३. लोकपाल ते ने तेहसीह, तेउकंत तेउप्रभ अवीह ॥ २४. द्वीपकुमार ना इंद्र वे दिट्ट दक्षिणपूर्ण उत्तर विशिद्ध || २५. लोकपाल रूय नैं रूयंस, रूयकंत रूयप्रभ सुवंस ।। २६. उदधिकुमार ना वे इंद लभ, जलकंत दक्षिण उत्तर जनप्रभः ॥ २७. लोकपाल जल जलरुय जाण, जलकंत ने जलप्रभ वखाण || दिशाकुमार ने इंद्र वे सृजन्न, अभियगइ ने अभियवाहन । लोकपाल तुरियगइ खिप्रगत्त, सीहगति सीविक्रम उच्चत्त ।। २०. बाउकुमार ना इंद छे दोष, बेलंव ने पभंजण जोय || ३१. लोकपाल काल नैं कालमेह, महाकाल अंजन रिट्ठ जेह || ३२. 'पंच नाम आख्या इह ठाम, ते वीजा रा दीसै वे नाम || ३३. चोथे ठाणे बाउ-दिगवाल, तिहां कालमेघ नको ते न्हाल ॥ काल अने महाकालज ताम, अंजन रिट्ठ कह्या चिहुं नाम' || (ज० स० ) २८. २६. ३४. ३५. थणियकुमार ना इंद्र बे पोप, दक्षिण घोष उत्तर महाघोष || ३६. लोकपाल आवत बेयावत्त, नंद्यावर्त महानंद्यावर्त्त ॥ कहिवो भेव । ३७. दस-दस ए सहु स्वामी देव, जेम असुर तिम दीय, दक्षिण इक इक ने चिचि वेणुदेव सुहोय || लोकपाल || वा०- -सो का चिप्प ते रूज तु का आ ए दश अक्षरे करी भवनपति नां दक्षिण दिशि नां इंद्र नां प्रथम लोकपाल नां नाम तेह्नों प्रथम प्रथम अक्षर । ४०. ३८. सोकहितां सोम नामै लोकपाल, असुर दक्षिण दिशि चमर नं न्हाल ॥ का कहितां कालवाल लोकपाल, नागकुमार इंद धरण नुं भात ॥ चिकहितां चित्र लोकपाल जोय, सुवर्ण वेणुदेव नुं होय ।। ४१. प्प कहितां प्रभ लोकपाल जेह, विजुकुमार हरिकंत नुं एह ॥ ४२. ते कहितां ते लोकपाल देख अग्निकुमार अग्निसोह नुं पेख ॥ ४३. रूकहितां रूय लोकपाल नुं नाम द्वीपकुमार पूर्ण नुं ताम || कहितां जल नामै लोकपाल, उदधिकुमार जलकंत नुं न्हाल || ४५. तुकहितां तुरिय गइ लोकपाल दिशाकुमार अमितगति नुं न्हाल || ४१० भगवती-जोड़ , ४४. १२. नागकुमारिदाकुमार १४. कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले । ( श ३।२७३ ) १५. जहा नागकुमारिदाणं एताए वत्तब्वयाए नीयं एवं इमाणं नेयव्वं--- १६. १७. सुवण्णकुमाराणं- वेणुदेवे, वेणुदाली, १८. चित्ते, विचित्ते, चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे। १६, २०. विज्जुकुमाराणं-हरिकंत-हरिस्सह २१. पप-भत- पता। २२. अग्गिकुमाराणं-- अग्गिसिह-अग्गिमाणव २३. तेउ-तेउसिह ते कंत ते उप्पभा । २४. दीवकुमाराणं पुष्ण-विसिङ २५. रूय रूयंस रूयकंत रूयप्पभा । २६. उदहीकुमाराणं - जलकंत जलप्पभ२७. जल - जलरुय जलकंत जलप्पभा । २८. दिसाकुमाराणं- अमितगति अमितवाहण २६. यति वितिसहमति-सीविडी ३०. वाउकुमाराणं वेलंब - पभंजण३१. काल महाकाल-अ - अंजण-रिट्ठा । ३५. जियकुमाराणं घोस-महापोस २६. आनंदिवासानंद ३७. एवं भाणियब्वं जहा असुरकुमारा । ( श० ३१२७४ ) ३८-४३. सोमे य महाकाले चित्त प्पभ तेउ तह रुए चेव । ( वृ० प० २०१ ) ४४-४७. जल तह तुरियगई य काले आउत्त पढमा उ ।। ( वृ०-५० २०१) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. का कहितां काल नामैं लोकपाल, बाउकुमार वेलंब न भाल ।। ४७. आ कहितां आवर्त ए लोकपाल, थणियकुमार घोष नु न्हाल ।। ४८. दक्षिण दिशि ना ए दश इंद, लोकपाल धुर अक्षर प्रबंध ।। ४८. अनेनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्राणां प्रथमलोक पालनामानि सूचितानि। (वृ०-प० २०१) ४६. वाचनांतर विर्ष कहाय, ए दश नामा नी गाथा ताय ।। ४६. वाचनान्तरे त्वेतान्येव गाथायाम्। (वृत-प० २०१) ५०. दश भवनपति ना इंद्र है वीस, लोकपाल तसं असी जगीस ।। ५१. वृत्तिकार कही इम वाय, पुस्तकांतर आगल कहाय ।। ५१. इह च पुस्तकान्तरेऽयमर्थो दृश्यते-- (वृ०-प० २०१) ५२. इक-इक इंद्र तण अधिकार, लोकपाल च्यार च्यार उदार ।। ५३. चमरादिक दश इंद्र नां देख, लोकपाल दक्षिण नां पेख ।। ५४. लोकपाल चिउं चिउं नां ताय, नाम दक्षिण दिशि तेह कहाय ।। ___५४-५६. दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु प्रतिसूत्र यौ तृतीयचतुर्थी ५५. उत्तर नां लोकपाल नां नाम, तीजा मैं ठामैं चोथो ताम ।। तावौदीच्येषु चतुर्थतृतीयाविति। वृ०-५० २०१) ५६. चोथा नै ठामैं तीजो नाम, एह विशेष का अभिराम ।। ५७. पिसाच कुमारादि पृच्छेव, जिन कहै स्वामीपणे बे देव ॥ ५७. पिसायकुमा राणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति? गोयमा ! दो देवा आहेबच्चं जाब विहरंति, तं जहा--- ५८. काल अनै महाकाल सुजाण, पिसाच नां ए इंद्र पिछाण ।। ५८-६१. काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य । ५६. भूत - निकाय नां छै इंद दोय, सरूप नै प्रतिरूप सजोय ।। अमरवई माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ ६०. जक्ष नै बे इंद्र पूर्णभद्र, अमर देवपति फुन माणभद्र ।। (श० ३।२७५ संगहणी-गाहा) ६१. राखस नै बे इंद्र विशेष, भीम अनै महाभीम संपेख ।। ६२. किनर-निकाय नां बे इंद्र सार, किंनर नैं किंपुरुष उदार ।। ६२-६५. किन्नर-किपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । ६३. किंपुरुष - निकाय नां इंद्र दोय, सत्यपुरुष महापुरुप सुजोय ।। अइकाय - महाकाए, ६४. महोरग - निकाय नां बे इंद, अतिकाय महाकाय अमंद ।। गीयरई चेव गीयजसे ।। गंधर्व-निकाय नां बे इंद्र जाण, गीतरति गीतजश पिछाण ।। (श० ३।२७५ संगहणी-गाहा) ६६. दक्षिण उत्तर नां ए कथिद, वाणव्यंतर ना सोल इंद।। ६६. एते वाणमंतराणं देवाणं । (श० ३।२७५) ६७. अणपन्नी पणपन्नी आद, छोटी ऋद्धि अठ अर्थ संवाद ।। ६८. पन्नवणा दूजा पद रै मांय, अणपन्नी प्रमुख अठ ताय ।। इक - इक नां वे - बे इंद दीस, एवं व्यंतर नां बत्तीस ।। ७०. जोतिषी नां अधिपति सर दोय, चंद्र अनै सुर्य अवलोय।। ७०, जोइसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति तं जहा-चंदे य, सूरे य। (श० ३।२७६) ७१. सधर्म ईशाण विर्ष भगवंत, के अधिपति यावत विचरंत? ७१. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति? ७२. श्री जिन इम भाखै दश देव, यावत् विचरै छै स्वयमेव ।। ७२. गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाब विहरंति तं जहा७३. शक सरेंद्र सरां नों राय, सोम जम वरुण वेसमण ताय ।। ७३. सक्के देविदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, बेसमणे । ७४. बलि ईशाण सुरिंद्र पिछाण, सोम जम वरुण बेसमण जाण।। ७४. ईसाणे देविदे देवराया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे। ७५. सुधर्म ईशाण विष कही एह, सगला कल्प विष इम लेह ।। ७५. एसा बत्तव्वया सम्बेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियब्वा। जे य इंदा ते य भाणियवा। (श० ३।२७७) सौधर्मशानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासभूतेषु भणितव्या। (वृ०-५० २०१) श०३, उ०८, ढा०७२ ४११ Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वृत्ति विका सनतकुमार, प्रमुख युगम ७७. पूर्व इंद्र तणी अपेक्षाय, उत्तर इंद्र ७८. दक्षिण उत्तर नो लोकपाल तीजा ने ठामै ७६. चोथा नं ठामैं तोजो ताय, बहुश्रुत तास ८०. प्यार कल्प खेहला इंद दोष, विमानिक नां ८१. सेवं भंते ! सेवं भंत !, इम भाखे गोतम घर खंत ॥ टीका ८२. पुस्तकांतर मांय, तेनों प्रथम बतायो व्याय ॥ ८३. बनि सूत्र नों हेतु जे सांभलज्यो भवियण ! घर नेह ॥ ८४. ठाणांग रै चउ ठाण, प्रथम उड़े से कही दम वाण ॥ ८५. चमर असुरिन्द्र नाचि लोकपाल, सोम जम वरुण बेसमण म्हाल ॥ ८६. एवं बली नैं पिण है च्यार, सोम जम वेसमण वरुण सार ॥ ८७. नागि धरण ने चिरं लोकपाल, कालवाल ने दूजो कोलवाल || ८८. सेलवाल चोथो संखवाल, दक्षिण दिशि नो एह निहाल | नागद्र भूतानंद ने प्यार कालवाल कोलवाल उदार ॥ ६०. तोजो शंखवाल चउथो सेलवाल, उत्तर दिशि नां ए चिउं भाल ॥ प्रत्यक्ष | सुप्रभ सुधार ।। १. सुवन्न इंद्र वेणुदेव नैं प्यार चित्र अर्न यति विचित्र उदार ।। ६२. चित्रपक्ष चउथो विचित्रपक्ष, दक्षिण दिशि नां एह सुदक्ष ॥ १३. सुवन्न इंद्र वेणुदास ने प्यार चित्र अनै विचित्र प्रकार ॥ २४. विचित्रपक्ष चउथो चित्रपक्ष उत्तर दिशि नए ५. विज्जु -इंद्र हरिकंत नैं च्यार, प्रभ अनैं ९६. प्रभकंत ने सुप्रभकत, दक्षिण दिशि मां ए युतिमंत ।। ६७. विज्जु - इंद्र हरिसह नैं प्यार, प्रभ अनं सुप्रभ प्रकार || सुप्रभवंत अने प्रभकंत दिशि उत्तर न ए दीपंत ॥ २९. अग्नि-इंद्र अग्निसीह में प्यार ते अने तेउसीह १००. ते उकंत चउथो ते उप्रभ, दक्षिण दिशि नां एह प्यार, ते अन ते सोह तेउकंत उत्तर दिशि नां ए पुग्यवंत ॥ च्यार रूय अनैं रूयंस रूपप्रभ, दक्षिण दिशि नां एह सुलभ । विशिष्ट ने च्यार, रूय अन रूयंस चटयो रूपमंत उत्तर दिशि नां ए १०७. उदधिद्र जलकंत ने प्यार, जल में पति जलस्य विचार ।। सुलभ ।। उदार ॥ १०१. अग्नि-इंद्र अग्निमाण १०२. प्रभ चो उदार ।। १०२. द्वीप- इंद्र पूर्ण १०४. रूपकंत १०५ द्वीप - इंद्र १०६. रूयप्रभ चो मुरलोके सार ॥ तणां दिग्राय ॥ चडयो म्हाल ॥ * , विचारै न्याय || इस दस होय || प्रकार || ओपंत ।। प्रकार ॥ १०८. जलत में चडवो जलप्रभ, दक्षिण दिशि नो एह सुलभ ॥ बलि जलरूप उदार ॥ दिशि न ए पुग्यवंत ॥ १०६. उदधि इंद्र जलप्रभ ने च्यार, जल नें ११०. जलप्रभ ने उधो जलकंत, दक्षिण १११. दिशा-इंद्र अभिवगइ च्यार, तुरियगति ४१२ भगवती-जोड़ विप्रगति उदार ॥ ७६. सनत्कुमारादन्द्रमेषु । ७७-७१. पूर्वेन्द्रापेोत्तरेसम्बन्ध (१००१०२०१) लोकपालानां तृतीयचतुर्थयोर्व्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः । ( वृ० प० २०१ ) ८० दन्द्रा वाच्या, अन्तिमे देवलोकचतुष्टये शक्रादयो इन्द्रयभावादिति । ८१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( वृ०-५० २०१) (श० ३।२७८) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२. सीहगति नैं सोहविक्रमगति, दक्षिण दिशि नां एह उप्पति ॥ ११३. दिशा-इंद्र अमियवाहन प्यार, तुरियगति खिप्रगति सुधार ॥ ११४. सीह विक्रमगति नैं सीहगति, उत्तर दिशि ना एह उन्नति ।। ११५. वाउ- इंद्र बेलंब नैं प्यार, काल अने महाकाल उदार ।। ११६. अंजन नै चउथो रिठ जाण, दक्षिण दिशि ना एह पिछाण ॥ ११७. बाउ-द्र प्रभंजन ने प्यार काल अने महाकाल विचार || ११८. रिष्ट चोथो अंजन कहिवाय उत्तर दिशि ना ए सुखदाय ॥ ११६. थणित इंद्र घोष ने च्यार, आवत्तं वेयावर्त्त विचार ॥ १२०. नंदियावर्त्त महानंदियावत्त, दक्षिण दिशि नां एह उचत्त ।। १२१. पणित इंद्र महाषोप नं प्यार, आवर्त बेयावर्त उदार ॥ १२२. महानंदियावर्त्त नंदियावत्त, उत्तर दिशि नां एह पवित्त ॥ १२३. शक्र - सुरिन्द्र चिउं लोकपाल, सोम जम वरुण वेसमण न्हाल ॥ १२४. ईशा ने चिसोकपाल, सोम जम वेसमण वरण भात || १२५. इस इक इक जे इंद्र अंतर जाण, जाय अन्य तांई पहिचान || १२६. शक नां लोकपाल नुं नाम तिमहिज तीजे पंचम ताम || १२७. सप्तम दशम इंद्र लोकपाल, एक सरीखूं नाम निहाल || १२८. ईशानेंद्र लोकपास में नाम, चोबे छठे अष्टम नुं ताम ॥ १२९. अच्युत तणां लोकपाल, एहना नाम सरीखा न्हाल || १३०. ठाणांगे ए आखी वाय, पुस्तकांतरे भगवती १३१. एक सरीवो जेह, बहुति न्याय विचार तेह ॥ १३२. अथवा चथै शतक निहाल, ईशाणेंद्र नां जे लोकपाल || १३३. सोम जम वेसमण वरुण ताय, तसुं स्थिति गाथा' तिहां कहिवाय ॥ १३४.पण जे कल्पं ताम, तीजा लोकपाल नं नाम ॥ १३५. समण को ताय, वरुण नाम बोयो कहियाय || १३६. स्थिति पिण वेसमण थी सुविशेख, वरुण तणी अधिकी ते देख || १३७. तिण सूं पुस्तकांतर मांय, बहुश्रुत तास विचारै न्याय || १३. पुस्तक ते बहु परत मशार, ए अंतर देयो वृत्तिकार ।। १३६. पुस्तक अंतर आस्यूँ तास मे बहुत म्याय विभास ॥ बहुश्रुत १४० अंक अती सणुं अवधार, आख्यो अर्थ रूप अधिकार ॥ मांय ॥ तृतीयशते अष्टमोद्देश कार्थः ॥ ८॥ १४१. दूहा अवधि छते पिण सुर तणें, छं इंद्रिय ते मार्ट इंद्रिय विषय नवम उद्देश १. आदि दुय तिभागूणा पलिया धणयस्स होंति दो चेव । दो सतिभागा बरु पलियमहायण्ण देवाणं ॥ उपयोग | प्रयोग | ( श० ४१५ संग्रहणी - गाहा ) १४१. देवानां चावधिज्ञानसद्भावेणीन्द्रियपयोग यस्तीत्यत इन्द्रियविषयं निरूपयन्नवमोकमा ( वृ० प० २०१) श०३, उ० ८, ६, ढा० ७३ ४१३ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२. १४३. १४४. १४५. १४६. १४७. १४८. १४६. १५०. १५१ १५२. १५३. १५४. १५५. १५६. नगर राजगृह जाव इम, वोल्या गोतम स्वाम । कतिविध प्रभु ! इंद्रिय विषय पुद्गल नुं परिणाम || थी जिन भा पंचविध इंद्रिय विषय कहे। श्रोत इंद्रिय नीं विषय धुर, घर जिम जीवाभिगमेह ॥ जोतिष उद्देशक अरथ, सर्व आयो तीजा शतक नों नवम जाणवो उद्देशक जेह । एह ॥ तृतीयशते नवमोदेकार्थः ||३२|| इंद्रिय विषय कही इहां, विषयवंत देव त अधिकार हिव सांभलिये नगर राजगृह जाव इम, बोल्या चमर असुर इंद्र नैं प्रभु ! किती जिन भाखे त्रिण परिषदा, समिया इम अनुक्रम यावत् अच्युत कल्प सर्गे कहियाय || ताम ? जाय । *प्रकृति स्थिर उत्तमपणे वर वच करी निज स्वाम ने । उपसमा कोप समिता, उद्धतवंत नहीं मनं ॥ है। देव | तसुं भव ॥ तथाविध मोटापणं नहि, कोप थोडूं जेहनूं । एह दूजी परिषदा छे, नाम चंडा तेहनूं ॥ स्वभाव कर मोटापणं नहि, कोपादिक नां स्थान ए नाम जाया तास कहिये, अधिक अवगुणवान ए ॥ एह क्रम अभ्यंतरा, मध्यमा वाह्या भाविये । अभ्यंतर महद्धिक ते माटै, स्वाम तेड्या आवियै ॥ गोयम स्वाम परपदा चंडा अभ्यंतरा जे परिषदा नां, सुर सहस्र चउवीस ही । अठवीस सहस्रज मध्यमानां बाह्य सहस्र बटीस ही ॥ * लय-पूज मोटा भांज टोटा परिपदाभ्यंतर सुरी, साढा तीन सय पहिछाणिये । सय तीन मध्य, बाह्य अमरी अढी सय बलि आणियै ॥ परिपदाभ्यंतर सुर स्थिति वर, अढी पल्योपम तणीं । स्थिति मध्यमा सुर दो पल नी, दो पल्य बाहिर भणीं ॥ परिषदाभ्यंतर स्थिति सूरी नीं दो पस्योपन कही। इक पल्य आखी मध्यमा नीं, अर्ध पल्यज वाह्य ही ॥ कार्य ऊपनां तास तेडे, समीपै जाइयं । स्वाम तेहने कार्य पूछी, करे कुडव वयावियं ॥ जद ४१४ भगवती-जोड़ १४२. रायगिहे जाव एवं क्यासी-कइविहे णं भंते ! इंदियविसए पण्णत्ते ? १४३, १४४. गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं जहासोतिदिगिए विदियविस पाणिदियविसए, रसिदियविसए फासिदियविसए । जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयत्रो अपरिसेसो । (070 2120€) १४५. प्राद्राक्ानि सताच देवा इति वक्त व्यताप्रतिवद्धो दशम उद्देशकः । १४६. रायगिहे जाव एवं क्यासी अरिस्स असुररणो ( वृ०० २०२) चमरस्स णं भंते ! परिसाओ पाओ ? १४७. गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहासमिया, चंडा, जाया । एवं जहाणुपुब्बीए जाव अच्चुओ कप्पो । ( श० ३1२८० ) १४८. 'समिय' ति समिका उत्तमत्वेन स्थिर प्रकृतितया समवती, स्वप्रभोर्वा कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपादेयवचनतयेति शमिका शमिता वा अनुद्धता । ( वृ० प० २०२ ) १४१.ति तथाविधमहत्त्वाभावेनेोपादिभाया चचंडा । (०.०१० २०२) १५०. 'जाय' त्ति प्रकृतिमहत्त्ववर्जितत्वेनास्थानकोपादीनां जातत्वाज्जाता । (०० २०२) १५१. एपाच क्रमेणाभ्यन्तरा मध्यमा वाह्या चेति, तत्रा भ्यन्तरा समुत्पन्नप्रयोजनेन प्रभुणा गौरवार्हत्वादाकारितैव पार्श्वे समागच्छति । ( वृ० प० २०२ ) १५२. चतुविशतिदेवानां सहस्राणि द्वितीयाया मष्टाविंशतिः तृतीयायां द्वादिति । ( वृ० प० २०२ ) १५२ तथा देवतानि क्रमेणादानि त्रीसि इति । ( वृ०म० १०२) १५४. तथा तद्देवानामायुः क्रमेणार्द्धतृतीयानि पल्योपमानि द्वे सार्द्धं चेति । (१०-१० २०२) १५५. देवीनां तु सार्द्धमेकं तदर्द्ध चेति । (१०२० २०२) १५६. तां चासो अर्थपदं पृच्छति । (१०-१० २०२) Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८. सुर जेह मध्यम परिषदा नां, तेडिया पिण जाइये । अणतेडिया पिण जाय छै, ए अल्प गौरव पाइयै ।। सुर अभ्यंतर परिषदा नां, मध्यमा नां सुर भणी। कार्य जेह भलाविय, शिर धरै आज्ञा तेह तणी।। बाह्य परषद तणां सुर, अणते डियाइज आविये। मध्यमा नां जे कहै ते, कार्य चित्त बसावियै ।। बलि प्रमुख अच्युत-इंद्र,परपद स्थिति संख्या छ जिका। सूत्र जीवाभिगम माहै, वक्तव्यता कहिये तिका ।। १५६. १५७. मध्यमा तुभयथाऽप्यागच्छति अल्पतरगौरवविषयत्वात्। (वृ०-प० २०२) १५८. अभ्यन्तरया चादिष्टमर्थपदं तया सह प्रबध्नाति ग्रन्थिबन्धं करोतीत्यर्थः। (वृ०-प० २०२) १५६. बाह्या त्वनाकारितैवागच्छति अल्पतमगौरवविषय त्वात् तस्याश्चार्थपदं वर्णयत्येव। (वृ०प० २०२) १६०. एवमच्युतान्तानामिन्द्राणां प्रत्येक तिस्रः पर्षदो भवन्ति, नामतो देवादिप्रमाणत: स्थितिमानतश्च क्वचित् किञ्चिद् भेदेन भेदवत्यस्ताश्च जीवाभिगमादवसेयाः। (व०-प० २०२) १६१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ३।२८१) १६०. १६१. *सेव भंते ! सेवं भंते ! एम, पभणे गोयम धर बहु प्रेम ॥ १६२. तृतीय शतक नों दशम उद्देश, आख्यो तृतीय शतक सुविशेष ।। १६३. ढाल बहोत्तरमी सुविशाल, आखी सुखकर अधिक रसाल ।। १६४. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' सूख संपति अधिकाय ।। १, २. गीतक-छंद कह्य अभय देवे तृतिय शत नी वृत्ति नी रचना करी। वारू पुराणी वृत्ति प्रति आश्रयी म्हैं ए विधि वरी ।। तेहिज वृत्ति टवो सुदेखी सुख समझवा काजही। सद्गुरु प्रसादे प्रवर जोडज रची सखर समाज ही ।। नर शक्तिवंत छतोपि यान सुखाभिलाष करी भजे । आश्चर्य नांहि अशक्त नर सुख अर्थ यान प्रतै सझै ।। दृष्टांत ए वृत्तिकार दी● पुराणी वृत्ति वही। आश्रयी म्हैं ए वृत्ति कीधी इम तिण आख्य सही ।। तृतीयशते दशमोद्देशकार्थः ।।३।१०।। श्री पंचमांगस्य शतं तृतीयं, व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तिम् । शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं, पान्थः सुखायं किमु यो न शक्तः ।। (वृ०-प० २०२) *लय-बाबा किशनपुरी तो विण मंढिया उजडी पड़ी ०श ३, उ० १०, ढा०७२ ४१५ Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतक ढाल : ७३ दहा तीजा शतक विषै कह्यो, प्राये सुर अधिकार । ते भणी बहलपणे करो, बलि तेहिज सुविचार ।। च्यार उद्देश विमान नां, राजधानी नां च्यार। नेरइया ने लेस्या तणां, चउथ शते दश सार ।। १. तृतीयशते प्रायेण देवाधिकार उक्तोऽतस्तदधिकारवदेव चतुर्थं शतं। (वृ०-प० २०३) २. चत्तारि विमाणेहि, चत्तारि य होंति रायहाणीहिं। ने रइए लेस्साहि य, दस उद्देसा चउत्थसए । (श० ४ संगहणी-गाहा) ३. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी नगर राजगह नै विषै, जावत् गोतम स्वाम। वे कर जोडी वीर ने, इम बोल्या गुणधाम ।। ___ *श्री जिन-बयण-रयण अमृत समा रे। (ध्रुपदं) ४. ईशाण-सर-इंद सुरराजा तणे रे, हे प्रभु ! किता कह्या दिगपाल रे? जिन कहै लोकपाल तमुं च्यार छै रे,सोम जम कुबेर वरुण विशाल रे।। ५. हे प्रभु ! लोकपाल यां चिउं तणे, कितला आख्या छै पवर विमान। श्री जिन भाई च्यार विमाण छै, समन सर्वतोभद्र पिछान ।। ६. वल्गु सुवल्गु ए च्यारूं कह्या, पूछ बलि गोयम सीस सुजान। किहां प्रभु ! ईशाण सुरराजा तणां, सोम महानप नै सुमन विमान ? ४. ईसाणस्स णं भंते ! देविदस्स देवरण्णो कई लोगपाला पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहासोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे। (श० ४११) ५. एएसि णं भंते ! लोगपालाणं कइ विमाणा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा--सुमणे, सव्वओभद्दे, ६. वग्गू, सुवग्गू। (श० ४।२) कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते? ७. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे नामं कप्पे पण्णत्ते। ८. तत्थ णं जाव पंच बडेंसया पण्णता, तं जहा-अंक वडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणबडेंसए, जायरूववडेंसए, मज्झे ईसाणवडेंसए। (श० ४।३) ९. तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरथिमे णं तिरियमसंखेज्जाइं जोयणसहस्साई बीईवइत्ता, एत्थ णं ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारपणो सुमणे नाम महाविमाणे पण्णत्ते। ७. श्री जिन भाखै जंबुदीप नां, मेरु थी उत्तर दिशि रै माय। रत्नप्रभा ए पृथ्वी नै विषै, जाव ईशाणकल्प में ताय ।। ८. तिहां यावत अवतंसक पंच विमान छ, अंक-अवतंसक फलिहवडस। रत्न वलि जातरूप-अवतंसक, बिच में ईशाण नाम अवतंस ।। ६. ईशाण-अवतंसक महाविमान नै, पूर्व दिशि तिरछो पहिछाण । असंख जोजन नां सहस्र अतिक्रमी, तिहां सोम महानृप नुं सुमन विमाण।। *लय-धिन-धिन संत मुनीश्वर मोटका रे श०४, उ१, ढा० ७३ ४१७ Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. साढा द्वादश लख योजन नुं का, तीजे शतके जिम शक्र विचार | तेम ईशाण इंद्र नं जाणवूं, जाव अच्चणिया सर्व निहार ॥ ११. सिद्धायन जिन प्रतिमादिक अचिवं अभिनव उत्पन्न सोग करेह । राज बैसतां इह विध सापर्व, संसार नां मंगलीक हेते नेह ॥ १२. च्यारूई लोकपाल छै तेहनां, विमाण विमाण विषै उद्देश । विमाण नां विहं उद्देश कहेश || सोम जम नो आयू पहिछाण । एक पल्योपम ने बलि ऊपर, भाग तीजो ऊणो पत्य जाण ।। १४. धनिंद नीं दोय पल्य स्थिति कही, वरुण नीं बे पल्य तीजो भाग । पुत्र स्थानक सुर नीं स्थिति पल्य तणी, ए च्यारूं उद्देशा कह्या सुमाग || चतुर्थशते प्रथमचतुर्णामुद्देशकानामर्थः ।।४।१४।। शनां लोकपाल तेहनी परे, १३. वरं ए स्थिति विषे नानापणूं १५. च्यार उद्देशा रजधानी विषं यावत् एहवो महद्धिक सुविशेष । जावत् वरुण नामैं महाराय छै, ए चउथा शतक नां आठ उद्देश || पंचमत्प्रभृति अष्टमान्तोद्देशकार्यः ॥४५॥ चतुर्थ दूहा कही देव वक्तव्यता, तसु वैश्यि तनु जाण । ते साधर्म्य थकी हिवै, नरक प्रश्न पहिछाण ॥ १७. * हे प्रभु ! नेरइयो नरके ऊपजै, अनेरियो नरक विषै उपजंत ? जिन कहे नेरइयो नरके अपने अनेरइयो नरक विधे नहि जंत ॥ १६. १८. नरक आयू उदय आयो, प्रथम समय तसुं वेदवा नुं काल ऋजुसूत्र नये नेश्यि जिम व अग्नि पालन बले, वचन ऋजुसूत्र नय नरक उत्पत्ति समय इम ए नेरियो कहिये २०. *पन्नवणा सतरम पद लेस्या तणों, तीजं उद्देशे कहाइक द्वितीय उद्देश नों पाठ छे, वृत्ति विधं ते १६. २२. भाख्यं ताय । अपपाठ कहाय ।। २१. जावत् प्रभु ! कितला ज्ञान विषै हुवै, कृष्णादिक लेस्या हिव जिन भास | लेस्या पट वे त्रिण च्यारूं ज्ञान में, त्यां लग अंक ए गुणपच्चास || चतुर्वशते नवमोशकार्थः ॥४०॥ ४१८ *लय + लय-पूज मोटा भांज टोटका रे । भगवती जोड -धिन धिन संत मुनीश्वर मोटका रे । पिछाणिये । जानिये ॥ - हा लेस्यानां अधिकार थी, ते लेस्थावंत नुं जाण । दशमा उद्देशक तणुं, आदि सूत्र पहिछाण ॥ इसुं । तसुं ॥ १०. अद्धते रसजोयणसयसहस्साई जहा सक्कस्स वत्तव्वया तइयसए तहा ईसाणस्स वि जाव अच्चणिया समत्ता । (TO VIV) ११. सिद्धायतने जिनप्रतिमाद्यर्चनमभिनवोत्पन्नस्य सोमाख्यलोकपालस्येति । ( वृ० प० २०३ ) १२. चउण्ह वि लोगपालाणं विमाणे विमाणे उद्देसओ, चऊसु विविमा तार उसा अपरिसा १३, १४. नवरं ठिईए नाणत्तं आदि दुय तिभागूणा, पलिया धणयस्स होंति दो चेव । दो सतिभागा भरणे, पतियमहावन्चदेवा ॥ ( श० ४१५ संग्रहणी - गाहा ) १५. रायहाणीसु विचत्तारि उद्देमा भाणियव्वा जाव एमहिड्ढीए जाव वरुणे महाराया । ( श० ४१६) १६. अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ताऽथ वैक्रियशरीरसाधर्म्यान्नाकवक्तव्यताप्रतिबद्धी नमक उच्यते । ( वृ० प० २०४ ) १७. इए भने उपज ? अनेरए नेरइए उववज्जइ ? १८. यस्मान्नारकादिभवोपग्राहकमायुरेवातो नारकाद्यायु:प्रथमसमय संवेदनकाल एवं नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन । (२०-१० २०४) १६. पलालं न दहत्यग्निः । ( वृ० प० २०५) उसो भागि क्वचिद् द्वितीय इति दृश्यते स चापपाठ इति । २१. जाव नाणाई | (१०-१० २०४, २०५) (ROVI७) 'जाव नाणाई' ति, अयमुद्देशको ज्ञानाधिकारावसानोऽ ध्येतव्यः स चायम् कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे कयरेसु णा होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा गाणे होया । (१०-१० २०५) २०. एलेस्साए त २२. लेस्याधिकारात्तद्वत एव दशमोद्देशकस्येदमादिसूत्र - ( वृ० प० २०३ ) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. * कहितां ते णूणं निश्चे करी, हे भगवंत ! लेस्या कृष्ण विद्रूप | नील- लेस्या प्रतै पामी करी, पा ते नील-लेस्या नां रूप ॥ २४. ते वर्ण पिण पामै नील लेस्या तणां लेस्या पद नों चउथो उद्देश जाव परिणाम वण्ण रस गंध नों, इहां गाथा नो कहियै अर्थ विशेष || २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१ ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. सोरठा भगवती वृत्ति मझार, ते गंधपणे ते रसपणे ते फर्श पण बलि धार, भुज्जो - भुज्जो प्रभु ! परिण मैं ।। जिन कहै हंता जाण, कृष्ण-लेश्या द्रव्य नील प्रति । पामी ने पहिलाण, ते रूपपणे जे परिणमै ॥ इहां भावार्थ एह, जीव कृष्ण परिणत जदा । नील-सेश्य जोग्य जेह, द्रव्य प्रति ग्रहण करी मरे ॥ तिण काले सुविचार, नील-लेश्या परिणत तको । उपजै छै अवधार, अन्य स्थान सूत्रे इसुं ॥ जे लेश्या नां ताय, द्रव्य प्रति ग्रहण करी मरै । ते लेश्या रं मांय, उपजै छै ए वचन थी ॥ मार्ट अवलोय, कारण तेहिज कार्य हुवै। कृष्ण लेश्य द्रव्य सोय, नील वेश्य पानी कायो । ते कृष्ण नील संवेद, ए दोनूं लेस्या तणां । हां का छे भेद, ते उपचार की अच्छे | प्रभु ! किण अर्थ ख्यात, कृष्ण-लेश्य जे नील प्रति । पामी तेह विख्यात, ते रूपपर्ण जाय परिणमे ? जिन कहै से जहानाम, दूध तक प्रति पाम नै । तथा निमल वत्थ पाम, रंग मजीठादिक प्रतं ॥ ते रूप स्वभाववणे, ते वर्ण गंध रस पर्शपणे । बार-बार परिणमेह, तिण अर्थ इम आखियो । कृष्ण - लेश्य जे ताम, नील- लेश्य जोग्य द्रव्य प्रतै । पामी नै तिण ठाम, ते रूपपण जाव परिणमै || इम इण अभिलावेण नील-लेश्य कापोत प्रति । काऊ तेजपणे तेज़ पद्म प्रते लहे ॥ पद्म शुक्ल प्रतिपाम, ते रूपपण जाव परिण में । इम कहिवु अभिराम, हिव उद्देशक छै तिको || किता लगे कहिवाय, जाव परिणाम वर्णादिके । द्वार गाथा रे मांय, तठा तांइ कहिवुं तिको । * लय-धिन धिन संत मुनीश्वर मोटका रे २३, २४. से नूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए ताफासता भुज्जो परिणमति । एवं चत्वो उसओ पण्णवणाए चेव लेस्सापदे नेयव्वो जावपरिणाम-रस-गंध-युद्ध अपसत्य-संहिलिहा गइ परिणाम-पएसोगाह-वग्गणाठाणमप्पबहु || (श० ४८ संग्रहणी - गाहा ) २५. तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? ( वृ० प० २०५ ) २६. हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेस पप्प तारूवत्ताए ५ भुज्जो भुज्जो परिणमति । ( वृ० प० २०५) २७, २८. अयमस्य भावार्थः यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जीवो नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा कालं करोति तदा नीललेश्यापरिणत उत्पद्यते । ( वृ० प० २०५ ) २२. जसा दवाई परिवाइता कार्य करे सल्लेसे उववज्जइ' त्ति वचनात् । (१०० २०५) ३०. अतः कारणमेव कार्यं भवति, 'कण्हलेसा नीललेसं पप्पे' त्यादि । ( वृ० प० २०५ ) ३१. कृष्णनीललेश्ययोर्भेदपरमुपचारादुक्तमिति । (१०-१० २०५) ३२. से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ किण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए ५ भुज्जो भुज्जो परिणमइ ? ( वृ० प०२०५ ) ३३, ३४. गोयमा ! से जहानामए-खीरे दूसि पप्प [तक्रमित्यर्थः] सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारूवत्ताए भुज्जो भुग्जो परिणम । ( वृ० प० २०५) ३५. से एएणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ कण्हलेसा इत्यादि । ( वृ० प० २०५ ) २६-३. पेन नीनलेल्या कापोती कापोती तेजसी तैजसी पद्मा पद्मा शुक्लां प्राप्य तद्रूपत्वादीनां परिणमतीति वाच्यं, अथ कियद्दूरमयमुद्देशको वाच्यः ? इत्याह-- 'जावे' त्यादि 'परिणामे' त्यादि द्वारगाथोक्तद्वारपरिसमाप्ति यावदित्यर्थः । ( वृ० प० २०५ ) श०४, उ० १०, ढा० ७३ ४१६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव गाथा नों अर्थ, लिखियै छै ते सांभलो। ३६. तत्र परिणामो दर्शित एव । (वृ०-प०२०५) धर परिणाम तदर्थ, प्रथम देखाइयोईज ते ।। ४०. कृष्ण लेश्यादि पिछाण, नील लेश्यादिक प्रति ल है। मनु तिरि भव ए जाण, पन्नवण-टीका में इसो।। ४१. *वर्ण रस जुआ-जुआ लेश्या तणां, गंध धुरली तीन दुर्गध। ४१. 'वन्न' त्ति कृष्णादिलेश्यानां वर्णों वाच्यः... 'गंध' ति द्रव्य-लेस्या - ए अधिकार छै, तेजु पद्म नै शुक्ल सुगंध ।। लेश्यानां गंधो वाच्यः, तत्राद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः अन्त्यास्तु तदितराः। (वृ०-प० २०५) ४२. अविशुद्ध तीनूं विशुद्ध त्रिण कही, तीनूं अपसत्थ ते अशुभ पिछाण। ४२. 'सुद्ध' त्ति अन्त्या: शुद्धा आद्यास्त्वितराः, 'अप्पसत्थ' तेजु पद्म नै शुक्ल ए विहुं, प्रशस्त द्रव्य भाव बिहं जाण ॥ त्ति आधा अप्रशस्ता अन्त्यास्तु प्रशस्ता.। (वृ०-प० २०५, २०६) ४३. धरली तीन लेस्या संक्लिष्ट छ, अध्यवसाय अशुभ ए भाव। ४३. 'संकिलिट्ठ' त्ति आद्याः संक्लिष्टा अन्त्यास्त्वितराः। अंत नी तीनूं असंक्लिष्ट छै, शुभ अध्यवसाय भाव इण न्याव ।। (वृ०-प० २०६) ४४. शीत नै रुक्ष फर्शवंत धुर विहं, स्निग्ध नै उष्ण अंत विहु जोय। ४४. 'उण्ह' त्ति अन्त्या उष्णाः, स्निग्धाश्च आद्यास्तु शीता आदि विहं लेस्या दुर्गतिगामनी, अंत विहं सुगतिगामनी होय ।। रूक्षाश्च ‘गति' ति आद्या दुर्गतिहेतवोऽन्त्यास्तु सुगतिहेतवः । _ (वृ०-प० २०६) ४५. परिणाम ते छहूंइ लेस्या तणां, विविध जघन्य मझम उत्कृष्ट। ४५. 'परिणाम' त्ति लेश्यानां कतिविधः परिणामः? इति नवविध सत्तावीस भेदे करी, तरतमपणां थी ए पिण इष्ट ।। वाच्य, तत्रासौ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदातनिधा उत्पातादिभेदाद्वा विधेति। (वृ०-५०२०६) ४६. इक्यासी भेदे परिणामै परिणमै, बे सय नै तयांली भेदे देख। अथवा वह भेदे परिणामै करी, परिणमै लेस्या छहूं संपेख ।। ४७. प्रदेश अनंता छहं लेस्या तणां, अवगाह्या असंख्यात प्रदेश। ४७. 'पएस' त्ति आसां प्रदेशा वाच्यास्तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदे शिका एता इति 'ओगाह' त्ति अवगाहना आसां वाच्या वर्गणा कही अनंती छहूं तणी, असंख स्थानक छहूं नां सुविशेष ।। तत्रता असंख्यातप्रदेशावगाढा: 'बग्गण' ति वर्गणा आसा वाच्याः, तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः ताश्चानन्ता औदारिकादिवर्गणावत्, 'ठाण' त्ति तारतम्येन बिचित्राध्यवसायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवन्दानि तानि चासंख्येयानि अध्यवसायस्थानानामसंख्यातत्वादिति। (वृ०-प०२०६) ४८. स्थानक नीं अल्पाबहुत कही अछ, पन्नवण बहु विस्तार सुन्याव। ४८. 'अप्पबहु' ति लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यं । तेहथी संक्षेपे आख्यो छै इहां, देख्यो इहां गाथा नों प्रस्ताव ।। (वृ०-प० २०६) ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! कही, गोतम गणहर महा सुविनीत। ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० ४।६) अति आदर देव गुरु रा वचन नै, दशमों उद्देश कह्यो धर प्रीत ।। ५०. शतक चउथो ए संपूर्ण थयो, आखी ए तिहोत्तरमी ढाल । भिक्षु-पट भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' संपति मंगलमाल ।। गीतक-छंद कह वृत्तिकारे तुर्य शत, स्वयमेव सहज सुवोध ही। १. स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये, कितलीक व्याख्या रची, पय स्वादिष्ट स्वाभाविक मही। व्याख्या मया काचिदियं विधा। सकरा-मिश्रण युक्त स्यूं नहिं ? अपितु युक्त विकास ही। दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वभावात्, तिमहीज ए म्हैं जोड कीधी, अल्प - धी तसुं अर्थ ही। क्षेपो न युक्तः किमु शर्करायाः? चतुर्थशते दशमोद्देशकार्थः ।।४।१०॥ (वृ०-५० २०६) *लय-धिन-धिन संत मुनीश्वर मोटका रे। १. ४२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • • • परिशिष्ट पारिभाषिक शब्दानुक्रम विशेष नामानुक्रम शुद्धिपत्रक Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगार -- साधु के भोजन का एक दोष-खाद्य की प्रशंसा करते भोजन करना हुए अंतक्रिया - मोक्ष पारिभाषिक शब्दानुक्रम अंत-प्रान्त - बचा खुचा बासी भोजन अंत दो समय से अड़तालीस मिनिट का मध्यवर्ती समय अंतेवासी - शिष्य अकरणवीर्य-लब्धि रूप शक्ति अकषायी - कषायमुक्त आत्मा अकाम निर्जरा मोक्ष के लक्ष्य बिना की गई तपस्या से होने अनर्थदण्ड -- निष्प्रयोजन की जाने वाली हिंसा वाला कर्मक्षय अगुरुलघु - जिसमें हल्कापन और भारीपन न हो, जैसे आकाश अनशन - निराहार रहना, यह सावधिक और निरवधिक दोनों प्रकार से होता है। अनाचार - दोष सेवन अचरिम (अचर्म ) -- जिसकी जन्म-परम्परा का कभी अन्त अनानुपूर्वी — व्युत्क्रम, जिसमें किसी प्रकार का क्रम न हो नहीं होता अनिहारिम -- ऐसे स्थान में अनशन करना, जिससे शव को बाहर न निकालना पड़े अचित्त - निर्जीव अल-व-रहित अनुभाग (कर्म) – जिनका वेदन फलदान के रूप में निश्चित अजीव - चेतना शून्य पदार्थ है अजोगी - जिसके मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति नहीं अनुभाग बन्ध-- तीव्र, मन्द आदि रस रूप में कर्मों का होती विपाक अज्ञान - मिथ्या दृष्टि युक्त ज्ञान अट्ठमभक्त (अष्टम भक्त ) - तीन दिन का उपवास के समय अणिदिय- इन्द्रिय रहित अतिचार - स्वीकृत साधना का अतिक्रमण अदत्त - चोरी अद्धाकाल - समय अधर्मास्तिकाय स्थिति सहायक तत्त्व अध्यवसाय – सूक्ष्म विचार अनंतकाय - एक शरीर में रहने वाले अनंत जीव अनंत संसार - जिस जीव को अन्तहीन काल तक संसार में परिभ्रमण करना है। अट्ठिय कल्पी ——–देखें अस्थितकल्पिक अढ़ाई द्वीप जम्बूद्वीप, धातकी खंड और अर्ध पुष्करद्वीप अणगार -- गृहत्यागी मुनि अणागार (उपयोग दर्शन सामान्यग्राही अवबोध अणागारोवउत्त-- सामान्य अवबोध करने वाला अणाभियोगिक उच्च कोटि के देव अगाभोग अनुपयोग, आकस्मिक रूप से - अणारंभा (अणारंभी ) — अहिंसक, हिंसा न करने वाला अणाहारिक जीव जिस समय आहार ग्रहण नहीं करता, जैसे मृत्यु के बाद अन्तराल गति में होने वाली वक्र गति अनुयोग - व्याख्या अनेषणीक मुनि के लिए अकल्पनीय अन्यतीर्थी- अन्य मतावलम्बी अप (का) के जीव अपक्रमण सम्यक्त्व आदि उत्तम गुणों से हीन होना अपच्चकखाणिया-अव्रत से होने वाला कर्मबन्ध अपडिकम्मा- प्रायोपगमन नामक अनशन, जिसमें शरीर की सार-संभाल नहीं की जाती अपडिसेवी - दोष का सेवन न करने वाला मुनि अपर्याप्त - जिस जन्म में जितनी पर्याप्तियां प्राप्त करनी हों, वे जब तक प्राप्त न हुई हों अपवर्तनकरण - जीव का वह प्रयत्न जिससे कर्मों की स्थिति में ह्रास होता है परिशिष्ट ४२३. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय दर्शन अवसर्पिणी काल -- काल चक्र का एक विभाग, जो क्रमशः हीयमान होता है अविग्रहगति गति एक भय से दूसरे भव में जाते समय एक ही समय लगे, वह गति 7 अविग्रहगतिया -- अविग्रहगति से जाने वाले जीव अविरति आन्तरिक तृष्णा, प्रत्याख्यान का अभाव अभासक नहीं बोलने वाला अभिगमण -- गुरु के सम्मुख उपस्थित होने की औपचारिक अविरति सम्यक् दृष्टि- चतुर्थ गुणस्थान में होने वाली दृष्टि विधि तथा चतुर्थ गुणस्थान का अधिकारी व्यक्ति अपवाद - विशेष विधान, सामान्य नियम में होने वाली छूट अपाय — निर्णयात्मक ज्ञान अप्रमत्त (संजती ) - सातवें गुणस्थान का मुनि अप्रासुक (अफासु )- अनभिलषणीय, सचित्त अभवसिद्धिय (अभव्य ) जिस जीय में मोक्ष जाने की योग्यता न हो अभिग्रह - विशेष संकल्प अभिग्रहधारी - विशेष प्रतिज्ञा धारण करने वाला अभिमुखनामजगोत्त--- जिस गति के आयुष्य का बन्धन किया हो उसमें अन्तर्मुहूर्त्त बाद उत्पन्न होने वाला जीव अभिविधि- वह मर्यादा जिसमें विभाजक सीमा रेखा भी साथ आ जाती है। अभ्याख्यान - दोषारोपण करना अभ्युपगम वेदना स्वीकृत वेदना, लुंचन, तपस्या आदि करने से होने वाली वेदना अमायी - अकषायी अयोगकेवली - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध असंजती-संयम रहित करने वाला केवली अरति परिसह-संयम के प्रति होने वाली वितृष्णा से विच लित नहीं होना अरिहंत चैत्य - छद्मस्थ तीर्थकर अरूपी -अमूर्त तत्व जिसमें वर्ण, रस, गन्ध स्पर्श न हो अर्थदण्ड-प्रयोजनवश की जाने वाली हिंसा अर्थागम - तीर्थकरों की मुक्त वाणी -- अमेथी-चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव और मुक्त जीव अलोक आकाश का वह भाग जिसमें केवल आकाश ही होता है अव्यवहार राशि - निगोद के जीव, जो निगोद को छोड़ दूसरी गति में कभी उत्पन्न न हुए हों अवती- व्रत या प्रत्याख्यान से सर्वथा रहित व्यक्ति अशुभ जोग— मन, वचन और शरीर की प्रवृति अशुभ लेश्या - आत्मा के अशुभ परिणाम अशुभ 'लेसी- -अशुभ परिणामों वाला व्यक्ति अन्याना नरकभूमियों में वर्तमान में जितने जीव हैं उनमें न कोई निकले और न कोई नया उत्पन्न हो, अर्थात् वहां जितने जीव हैं उतने ही बने रहें, वह काल उन नारक जीवों की अपेक्षा अशून्यकाल है। अरा (आरा ) - काल चक्र का एक विभाग अरिहंत (अरहंत, अर्हत ) - सर्वातिशय सम्पन्न, धर्मतीर्थ के असन्निभूत—मिथ्यात्वी प्रवर्तक अवगाहणा-- शरीर परिमाण अवग्रह - इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह-आज्ञा अवधि (ज्ञान) - अवधानं अवधिः - चैतसिक एकाग्रता से प्राप्य, मूर्त पदार्थों को साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान अवधि दर्शन - मानसिक एकाग्रता से प्राप्य मूर्त पदार्थों को ४२४ भगवती जोड़ असंवुडो - असंवृत, जिसके आश्रव द्वार अवरुद्ध नहीं हुए हैं असंसार - मुक्त जीव असणभूत-अपर्याप्त असन्नि मनरहित जीव असातावेदनी - कष्ट की अनुभूति कराने वाला कर्म अस्थिर असासत अशाश्वत, असूझतो मुनि के लिए अकल्पनीय पदार्थ असेच गुणस्थान की प्राप्ति अस्तिकाय — प्रदेशों का समूह अस्थितकल्पिक - मध्यवर्ती तीर्थकरों के शिष्य, जिनके लिए पाकल्प आदि छह ऐच्छिक होते हैं अहिकरणिया (अहिगरणि) - शस्त्र के निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध - अहिगरण - पाशबन्धन का निर्माण करने से होने वाला कर्मबन्ध आउली - विस्तार आगम - जैन शास्त्र आगार - छूट Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगासत्थिकाय - आश्रय देने वाला तत्त्व आचार-आचरण आजीवन हमादाय आतापना - सूर्य के सामने खड़ा होकर, बैठकर या लेटकर ताप लेना आत्मांगुल - जिस समय जो मनुष्य हों, उनके अंगुल का प्रमाण आत्मारंभा अपने द्वारा अपनी हिसा करने वाला आदानभण्ड निक्षेपणा— पांच समितियों में चौथी समिति आदेय-ग्राह्य आधाकर्मी मुनि के निमित्त बनाया हुआ भोजन, मकान आदि आनुपूर्वी - अनुक्रम आबाधा -- कर्म बन्धन के बाद एक निश्चित समय तक उसके आयु - आयुष्य आयुक्षय मनुष्य आदि की पर्याय के निमित्तभूत आयुष्य कर्म के दुमलों का निर्जरण आयोग अधिक ब्याज पर धन देना आरंभिया - हिंसा से होने वाला कर्मबन्ध आराधक मोक्ष का साधक आर्जव ऋजुता आर्त्तध्यान-प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में होने वाला अशुभ ध्यान आवलिका - सूक्ष्म काल परिमाण आवनिकाय पक्तिबद्ध उदय का अभाव अभियोगिक निम्न श्रेणी के देव आभोग - उपयोग, जागरूकता उत्तरगुण- तपस्या आदि अनुष्ठान आयंबिल - एक प्रकार का तप, जिसमें एक बार एक ही उत्तर वैक्रिय - वैक्रिय लब्धि के द्वारा निर्मित शरीर अन्न का भोजन किया जाता है। उत्पाद - उत्पन्न होना आयाम --- लम्बाई उत्सर्ग --- सामान्य विधान आवश्यक सामायिकादि छह आवश्यक, प्रतिक्रमण आवीचीमरण-प्रतिक्षण होने वाला आयुष्य का क्षय आश्रव (द्वार ) कर्म ग्रहण करने वाले आत्म परिणाम आहारक शरीर पूर्वी केवलज्ञानी के पास जाने के लिए जिस शरीर का निर्माण करता है वह शरीर आहारक समुद्घात- आहारक लब्धि का प्रयोग आहार पर्या ( पर्याप्त ) - जन्म के प्रथम समय में निष्पन्न पौद्गलिक द्रव्यों के ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग की शक्ति जिसे ओज आहार कहा जाता है। आहारीक (लब्धि ) - शरीर विशेष के निर्माण की शक्ति इंगित मरण वह अनशन, जिसमें दूसरे व्यक्ति के द्वारा शरीर का परिकर्म नहीं करवाया जाता इरियावहि वीतराग के होनेवाला द्विसायिक कर्मबन्ध ईति उपद्रव ईवा ( समिति ) संपयी की संयमपूर्वक होने वाली गति ईषत्प्राग्भारा - सिद्धशिला नामक मुक्त जीवों का आवास स्थान हायपरान्त होने वाला मुखी ज्ञान उच्छेद अंगुल ( उत्सेधांगुल) - पांचवा आरा आधा बीत जाने पर जो मनुष्य होंगे, उनके आंगुल का प्रमाण उट्ठाण — उठना उदय ( उदयभाव ) - कर्मों के अनुभव की अवस्था उदीरणा (उदीरित) भविष्य मे उदय में आने वाले कर्मों को अपवर्तनकरण के द्वारा समय से पहले उदय में ले आना उद्वर्तन करण- - जीव का वप प्रयत्न, जिससे कर्मों की स्थिति और रस में वृद्धि होती है। उपओग-चेतना का व्यापार उपक्रमिकी वेदना- किसी निमित्त या कर्मों के उदय से होने वाली वेदना उपधि---मुनि के उपकरण उपवास एक दिन के लिए आहार परिहार उपशमचरण - मोहकर्म के उपशम से प्राप्त होने वाला चारित्र उपशम भाव- -मोह कर्म के वेदन का अभाव उपसम श्रेणी - आठवें गुणस्थान से आगे आरोहण करने के लिए ली जाने वाली एक श्रेणी, जिसमें मोहकर्म का उपशमन होता है। उपशम सम्यक्त्व --दर्शन मोह कर्म के उपशम से प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व उपशांत मोह - ग्यारहवें गुणस्थान का मुनि, जिसका, मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया हो परिशिष्ट ४२५ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपादेय - ग्रहण करने योग्य उपाध्याय - शासन व्यवस्था के सात पदों में एक पद, द्वाद शांगी का प्रवाचक उप्पन्नपक्खस्स - उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से उभयारम्भा -- स्व और पर दोनों के लिए हिंसा करने वाला उवसग्ग- उपसर्ग, साधना मार्ग में देव, मनुष्य आदि द्वारा दिए जाने वाले कष्ट ऊणी— न्यून, कम ऊणोदरी --- आहार, उपकरण, कषाय आदि की अल्पता वाले मनुष्य जो सरल और बुद्धिमान होते हैं। ऋजुसूत्रनय ---- केवल वर्तमान को ग्रहण करने वाला अभिमत एकभविक - जीव को अगले जन्म में जिस गति में उत्पन्न होना है उससे पहले भव में उस अपेक्षा से वह एकभविक कहलाता है। एकांत बाल- अज्ञानी, मिथ्यात्वी एवंभूत - जिस समय जो तत्त्व जैसा होता है, उसे उसी रूप में स्वीकृत करने वाला अभिमत एषणा- शुद्ध आहार की गवेषणा एपीक मुनि के लिए कल्पनीय ओधिक सर्वसाधाणर ओज आहार -- जन्म के प्रथम समय में लिया जाने वाला आहार ऋजुजड़ - प्रथम तीर्थ कर के समय होने वाले मनुष्य जो और अविकसित होते हैं ऋजुप्रज्ञावंत - मध्यवर्ती बावीस तीर्थकरों के समय होने कषाय-रागद्वेष से रंजित परिणाम सेवाकार्य में नियुक्त मुनि औदारिक-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न तिर्यञ्च और मनुष्य का शरीर करण- उत्तरगुण करण- जीव का विशेष प्रयत्न कर्म (कम्म ) - आत्मा की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट पुद्गल समूह कर्मदलिक - कर्म वर्गणा कर्म-प्रकृति- कर्म परमाणुओं की स्वभाव-संरचना कलुस समावन्न - जिसकी बुद्धि का विपर्यय हो गया हो कल्प- - आचार की मर्यादा कल्पातीत आत्मानुशासित, जो सब प्रकार के कल्पबाह्य मर्यादाओं से मुक्त हैं कवल आहार -ग्रास रूप में किया जाने वाला आहार, यह मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है कषाय-कुशील निर्य के पांच भेदों में एक जिसका आचार कषाय से कुत्सित होता है कपाय- समुद्घात – कषाय संवलित आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना काइया - शरीर की प्रवृत्ति से होने वाला कर्म बन्ध काउस्सग - शरीर की सार-सम्भाल छोड़ना कापोत - अशुभ लेश्या का एक प्रकार काय गुप्त शरीर का संवरण करने वाला काय भवस्थ माता के गर्भ में स्थित अपने ही शरीर में उत्पन्न जीव -- कुडव - बड़प्पन कुत्रिकापणीन पृथ्वि और पाताल लोक की सभी वस्तुएं जहां उपलब्ध हों, वह दूकान कृष्ण लेश्या - अशुभ लेश्या का एक प्रकार कंखपओसे – प्रथम शतक के तीसरे उद्देशक का नाम, जिसमें केवल ज्ञान - मूर्त-अमूर्त सब पदार्थों का साक्षात् कराने अन्य मत की वांछा का विवेचन है। वाला अतीन्द्रिय ज्ञान कंखामोहणी मोहनीय कर्म की एक प्रकृति जिसके उदय 1 से अन्य मत की अयथार्थ बातें भी अच्छे रूप में दिखाई देती है कंदपिक—कुतूहलकारी कडाइ स्थविरकृतयोगी तपस्वियों को प्रत्युपेक्षणा आदि ४२६ भगवती-जोड़ काय समित- शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला कार्मण (शरीर ) - कर्म शरीर, सूक्ष्म शरीर काल समय किव्विसिय अवर्णवादी केवल दर्शन-मूर्त अमूर्त सव पदार्थों का साक्षात् कराने वाला अतीन्द्रिय दर्शन केवली (केवल ज्ञानी ) - सर्वज्ञ केवली समुद्घात - केवली के वेदनीय और आयुष्य कर्म के समीकरण के लिए होने वाला समुद्घात Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया--कर्मबन्धन की की निमित्तभूत प्रवृत्ति चउरंस--चतुष्कोण चरिद्री-चार इन्द्रिय वाले जीव क्षमा-हर परिस्थिति को सहने की क्षमता चक्रवर्ती-छः खण्डों का सम्राट क्षयोपशम-कर्मों के विलय से होने वाली आत्मा की चक्षुइंद्री-आंख उज्ज्वलता या हल्कापन चक्षु दर्शन--आंख द्वारा होने वाला सामान्य अवबोध क्षयोपशम भाव-कर्मों के विलय से होने वाली आत्मा की चरण-मूल गुण, चारित्र अवस्था चरणकरणानुयोग–संयम के मूल और उत्तर गुणों की क्षयोपशम सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त व्याख्या करने वाले आगम आचारांग आदि होने वाला सम्यक्त्व चरमशरीरी-उसी भव में मुक्त होने वाला जीव क्षायिक चारित्र-मोहनीय कर्म के सर्वथा विलय से प्राप्त चरित्त धर्म-आचरण-प्रधान धर्म होने वाला चारित्र चरित्र (चारित्र)-आचरण क्षीण मोह-वीतराग चरिम-जिसके जन्म-मरण की परम्परा का अन्त निश्चित क्षेत्र-आकाश क्षेम-प्राप्त की सुरक्षा चारित्त सामायिक-सामायिक का एक भेद चारित्र मोहनीय--चारित्र को विकृत बनाने वाला या उसका गणधर-तीर्थकरों के प्रधान शिष्य निरोध करने वाला मोहकर्म गणपति-आचार्य चारित्रावरणी-चारित्रमोहनीय गणितानुयोग---गणित की व्याख्या करने वाला आगम चन्द्र- चैत्य-उद्यान प्रज्ञप्ति आदि चोथ-भक्त-उपवास गति–एक जन्म-स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को प्राप्त च्यार जाम-चार महाव्रत करना गिलाण-रुग्ण छट्ठाणवडिया--गुणों की न्यूनाधिकता के आधार पर एक गीतार्थ-बहुश्रुत वस्तु या व्यक्ति का दूसरे वस्तु या व्यक्ति से छह स्थानकों गुणठाण-आत्मा की कमिक विशुद्धि की भूमिका में विभाजन। वे छह स्थानक हैं—संख्यात भाग, असंख्यात गुणरत्न संवत्सर-एक प्रकार का विशिष्ट तप भाग, अनंतभाग, संख्यात गुण, असंख्यातगुण और अनंतगुत्तिदिय-इन्द्रियों पर संवरण करने वाला गुण हीन या अधिक गुप्ति-मन, वचन और काया का संवरण छठभक्त-दो दिन का उपवास गुरुलघु-हल्का और भारी--इन दोनों धर्मों से युक्त पुद्गल छन-चार घाती कर्मों का उदय का एक परिणमन छद्मस्थ-अपूर्णज्ञानी, असर्वज्ञ गोचरी-सामुदानिक भिक्षाचर्या छद्मस्थ-तीर्थकर—केवलज्ञान की साधना करने वाले अर्हत् गोत्र---जीव को ऊंची या नीची दष्टि से देखे जाने में हेतुभूत छेदोपस्थापनी-चारित्र का एक प्रकार, पांच महाव्रत, पांच कर्म पुद्गल समिति और तीन गुप्ति—इस विभागात्मक रूप में ग्रैवेयक-वैमानिक देव, जो लोकपूरुष की ग्रीवा के स्थान में स्वीकार किया जाने वाला संयम रहते हैं जघन-जघन्य चउट्ठाणवडिया-गुणों की न्यूनाधिकता के आधार पर चार जयणा-संयम के प्रति जागरूकता स्थानकों में विभाजन । बे चार स्थानक हैं—संख्यात जाझी-अधिक भाग, असंख्यात भाग, संख्यात गुण और असंख्यात गुण जाणक शरीर-ज्ञाता का शरीर हीन या अधिक जिन-अर्हत्, सर्वज्ञ चउदसपुवी-चौदह पूर्वो का ज्ञाता जिनकल्प-अर्हत् के समान आचार परिशिष्ट ४२७ Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्पिक- - विशेष साधना के लिए संघ से अलग रहकर साधना करने वाले मुनि जीवठाण - गुणस्थान, आत्मा की क्रमिक विशुद्धि की भूमिका थीणोदी- दर्शनावरणीय कर्म के प्रबल उदय से आने वाली जीवास्तिका (जीवास्ति) जीव सघन निद्रा, जिसमें व्यक्ति किसी के साथ लड़ाई कर, उसे मारकर पुनः सो जाता है, पर उसे यह सब ज्ञात नहीं होता जुगंतर बैल के कंधों पर रखे जाने वाले जुए जितना या शरीर प्रमाण भूभाग थोत्र सात उच्छ्वास जितना कालमान जुगलिया - यौगलिक युग के मनुष्य, जो युगल रूप में उत्पन्न होते हैं जोग (योग) - अप्राप्त की प्राप्ति जोग - मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति ज्योतिपी-देवों की एक जाति झूसर- जुआ, जो बैल के कन्धों पर रखा जाता है ठियकल्प ठियकल्पी । गवरं (नवरं ) भिन्नता-सूचक अध्यय तदुभयागम -- सूत्र - आगम और अर्थ आगम का समन्वित रूप दुर्लभ बोध - जिस जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति बहुत तप कर्म शरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तावतीसग— इन्द्र के गुरु स्थानीय या मित्र स्थानीय देव तिरिक्ध (नियं) पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृल, जलव निगोद आदि के जीव, ये एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पांच इंद्रिय वाले जीवों तक होते हैं। मुश्किल से हो दुवालस भक्त देश-वस्तु का काल्पनिक अंश देशव्रती - श्रावक देशसंवती- श्रावक तीर्थ प्रवचन, साधु, साध्वी श्रावक और श्राविका रूप देसूण-कुछ कम } देखें स्थितकल्पिक चतुविध धर्मसंघ तीर्थंकर - अर्हत्, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थान्तरीय-अन्यतीर्थिक तेइंद्री - तीन इन्द्रिय वाले जीव ते उकाय अग्नि के जीव तेजसशरीर तेजोमय शरीर, जो पाचन और कांति में सहायक है तेजुलब्धि-- तेजोलेश्या तेजोलेश्या - तपोविशेष से उपलब्ध अनुग्रह और निग्रह में सक्षम तेजोमय शक्ति श्रंस त्रिकोण त्रस सोद्देश्य गमन करने की क्षमता रखने वाले जीव त्रिकरण करना, करवाना और अनुमोदन करना अथवा ४२८ भगवती जोड़ मन, वचन और काया दंडक - जहां प्राणी अपने कृत कर्मों का दंड भोगते हैं, वे नरक आदि चौबीस स्थानों में विभक्त हैं। दर्शन सामान्य अवबोध दर्शन प्रतिमा -- श्रावक की ग्यारह भूमिकाओं में से पहली का नाम दर्शन प्रतिमा है। दर्शन मोहनीय दृष्टि को विपरीत करने वाला मोह कर्म दर्शनावरणीय (कर्म) - दर्शन - सामान्य अवबोध में बाधा पहुंचाने वाला कर्म दशम भक्त- -चार दिन का उपवास दात - एक बार में अविच्छिन्न रूप से प्राप्त होने वाला भोजन या पानी -- -पांच दिन का उपवास द्रव्य - मूल वस्तु द्रव्यनय - नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय द्रव्य निक्षेप जो पर्याय अतीत हो गई या भविष्य में होगी उस अपेक्षा से वर्तमान में उसका उस पर्याय के द्वारा कथन करना अथवा अनुपयुक्त अवस्था की क्रिया द्रव्य मंगल- -लौकिक मंगल, जैसे- मंगल दीप जलाना द्रव्य श्रुत - पुस्तकारूढ़ शास्त्र आदि द्रव्य हिंसा-साधना के प्रति पूर्ण जागरूक संयमी द्वारा अप्रत्याशित रूप से होने वाला प्राणवध द्रव्यानुयोग -- तत्त्ववाद का निरूपण करने वाले आगम भगवती आदि द्रव्यार्थिक नय - नैगम, संग्रह और व्यवहार नय द्रव्यास्तिकाय - वह द्रव्य, जिसके प्रदेशों का प्रचय होता है, तिर्यक् सामान्य Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्येन्द्रिय- इन्द्रियों की बाह्य और भीतरी संरचना तथा उनकी पौगलिक क्षमता द्वादशांग आयारो आदि जैन आगम धर्म-आत्मशुद्धि का साधन धर्मकथानुयोग - कथाओं के माध्यम से धर्म की व्याख्या करने वाले आगम ज्ञाताधर्मकथा आदि धर्मास्तिकाय - गति सहायक तत्त्व धारणा निर्णयात्मक ज्ञान का स्थिरीकर धूम - साधु के भोजन का एक दोष, खाद्य की निन्दा करते हुए भोजन करना नयः - अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश का सापेक्ष पंडितपणु-साधुत्व ग्रहण करने वाला अभिमत नाणत्त विविधता नाम - चारों गतियों में भांति-भांति की अवस्थाओं को प्राप्त करने में हेतुभूत कर्मपुद्गल नाम निक्षेप-- किसी भी व्यक्ति या पदार्थ का गुण निरपेक्ष नरक --चार गतियों में एक गति, जहां नारक जीव रहते पंडितवीर्य-संयमी पुरुषों की शक्ति पक्ष-पन्द्रह दिन का समय निगमन वच -- उपसंहार विशेष निगोद–अनन्तावि वनस्पति जीन पछेवड़ी प्रच्छादनगडी, साधुओं का उत्तरीय पडवादिक प्रतिपदा ( एकम) आदि पडिकमण अतिचारों की आलोचना के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान नामकरण पडिमाधारी श्रावक ग्यारह उपासक प्रतिमाओं को वहन करने वाला श्रावक निकाचन-कर्मों का प्रगाढ़ बंधन निकाचित-निधत्त - घनीभूत किए हुए कर्म पुद्गलों को पडिलेहण - वस्त्र पात्र आदि को शास्त्रोक्त विधि से देखना और अधिक सघन करना पडिसेवी-दोष का सेवन करने वाला पद्मश्या-थलेश्या का एक प्रकार परउत्थिक—परतीर्थिक, अन्य मतावलम्बी करना निदान ( नियाणा ) -- पौद्गलिक सुख की आकांक्षा से साधना के फलादान रूप में किया जाने वाला संकल्प निधत्त - बिखरे हुए कर्म पुद्गलों को घनीभूत करना निपठो निर्वन्ध मुनि नियमा निश्चित रूप से निरतिचार-दोष रहित निरवद पाप र निग्रंथ-प्रवचन - अर्हतों की वाणी निर्ग्रन्थ- वीतराग निर्जरा निहारिम- उपाश्रय या ऐसे ही किसी स्थान में अनशन करना जहां से शव को बाहर निकालना पड़े नूम माया नेगम-भेद और अनेद दोनों को ग्रहण करने वाला अभि मन नेरइय-नरक के जीव नोइंदियमन निज्जर - आत्म-प्रदेशों से बंधे हुए कर्मों को आत्मा से दूर पर-परिवाद - दूसरों की निंदा पओग (पओगसा ) - प्रयत्नजन्य पंचक-पांच क्रूर ग्रहों की संज्ञा पंचजाम - पांच महाव्रत पंडित - संयमी -रहित - तपस्या और उससे होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता निश्चय नय - तात्विक अर्थ का कथन करने वाला अभिमत पंडित मरण - ज्ञानी या संयमी का समाधिपूर्ण मरण परम अवधि-- चरम कोटि का अवधि ज्ञान परमाणु - पुद्गल की सर्व सूक्ष्म इकाई परमेष्ठि- अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनिकहलाते हैं पंच परमे परहृत्थपारितावणिया — दूसरे के हाथ से स्वयं या दूसरे को कष्ट पहुंचाना परारंभा - दूसरे की हिंसा करने वाला परिग्रह-पदार्थ-संग्रह, पदार्थ के प्रति होने वाला ममत्र परिचारणा-संभोग परिठावणिया समिति - साधुओं की मल विसर्जन की क्रिया परिणामिय भाव-काल-परिणमन से होने वाली जीवअजीव आदि की अवस्था परितावणिया (परितापना ) जीव को बांधकर परितापना परिशिष्ट ४२६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देने से होने वाला कर्मबंध परित्तकाय - एक से लेकर असंख्य जीवों का आश्रय परित संसार भव-भ्रमण को सीमित कर देना परिती- -सीमित परिषह - साधना में सहज रूप से प्राप्त होने वाली अनुकूल पैशुन्य — चुगली और प्रतिकूल परिस्थितियां पोसह (पोसा) – पौषध, श्रावक का ग्यारहवां व्रत परिहार- विशुद्ध - विशिष्ट तपस्या प्रधान चारित्र की पोहरसी - काल का एक मान -प्रमाण प्रक्षेप - कवल आहार का एक प्रकार आराधना करने वाले मुनि पर्याप्त जिस जन्म में जितनी पर्याप्तियां प्राप्त करनी हों, उन्हें प्राप्त करने वाला जीव - पर्याप्ति- - जन्म के प्रारम्भ में प्राप्त की जाने वाली पौद्गलिक शक्ति पर्याय-पदार्थों की विविध अवस्थाएं पर्यायास्तिक नय - ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत ये चार नय पल्य (पल्योपम ) – उपमा के द्वारा निर्धारित कालमान पहूलो चौड़ा पाउसिया — द्वेष भावना - दुष्ट अध्यवसायों से होने वाला कर्मबंध पाओवगमन - अनशन का एक प्रकार, जिसमें शरीर की सार-संभाल का सर्वथा परिहार होता है। पाखण्ड परिचय - साध्य से प्रतिकूल दिशागामी व्यक्तियों से संपर्क पूर्वानुपूर्वी - प्रारम्भ में होने वाला क्रम पृथक् ( प्रत्येक ) – दो से नौ तक की संख्या पृथ्वीकाय - मिट्टी के जीव पेज्ज बंध- राग का बंधन -सराग तप पूर्वधर पूर्वो का ज्ञान धारण करने वाला मुनि पूर्व संयम - सराग संयम ४३० भगवती-जोड़ प्रचला -- वह निद्रा, जो खड़े रहने पर भी आती है प्रतिमाकल्पिक - अभिग्रह विशेष धारण करने वाला मुनि प्रत्यक्ष प्रमाण - किसी माध्यम के बिना होने वाला ज्ञान प्रत्येक बुद्ध - किसी निमित्त विशेष से प्रतिबोध पाने वाला प्रदेश (परदेश) - पदार्थ से सम्बद्ध परमाणु जितना सूक्ष्म विभाग प्रदेश कर्म -- आत्म- प्रदेशों में जिनका वेदन निश्चित है प्रदेश बंध- आत्मा का कर्मों के साथ एकीभाव प्रमत्त ( गुणठाण ) - छट्ठा गुणस्थान, जहां पूर्ण संयम होने पर भी प्रमाद रहता है। प्रमत्त (संजी) छट्ठे गुणस्थान का मुनि प्रमाण -- यथार्थ ज्ञान प्रमाणांगुल भगवान् ऋषभ, भरत आदि के अंगुल का प्रमाण - पाणाइवाय-- प्राणातिपात प्राण-वियोजन पाथड़ा नरकभूमियों के मध्यवर्ती प्रस्तर, जहां नारक जीवों का आवास होता है पाथा - प्रस्थक, एक पाव पदार्थ मापने का पात्र पाप-हिया, असत्य आदि अवृत्ति या उसके द्वारा होने का ( प्रायुक) — अभिलयशीय, अत्ति वाला बंधन पारणा तपस्या का समापन पिविशुद्धा पुण्य- शुभ कर्म पुद्गल पुद्गलास्तिकाय - मूर्त पदार्थ पुरुष वेद-पुरुष की स्त्री के प्रति अभिलाषा पुलाक- संयम को असार करने वाला निर्ग्रन्थ पूर्व-दृष्टिवाद अंग के चौथे विभाग में रहने वाला विशाल शान, चौदह पूर्व पूर्व तप प्रमाद -जागरूकता का अभाव प्रयोग सामान्य ऋण के रूप में धन देना प्राणपर्याप्ति की अपेक्षा रखने वाली जीवनी शक्ति बद्धायु — जीव को अगले भव में जिस गति में उत्पन्न होना है, उसका आयुष्य बांध लेने पर वह बद्धायु कहलाता है। बन्ध --- कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध बलिकर्म - स्नान - काल में होने वाली एक विशेष क्रिया बहुश्रुत -- जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय वस्तु को तथा उत्कृष्टतः असम्पूर्ण दस पूर्वो को जानने वाला मुनि बादर - स्थूल बाल- असंयमी बाल पंडित - संयमासंयमी, श्रावक बालपंडित वीर्य श्रावक का वीर्य Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालपणुं-मिथ्यात्व मनपर्यवज्ञानी-मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त करने वाला मुनि बालमरण---असंयमी का मरण मन-समित-मन का सम्यक् प्रयोग करने वाला मुनि बाल वीर्य-असंयमी का वीर्य मनोगुप्त-मन को गुप्त करने वाला मुनि बुद्धबोधित-तीर्थकरों द्वारा बोधि प्राप्त करने वाला मरणांतिकी (समुद्घात)--मृत्यु के समय होने वाला समुद्बेइन्द्री—दो इन्द्रिय वाले जीव घात महाव्रत-हिंसा, असत्य आदि का सम्पूर्ण परित्याग भजना-वैकल्पिक रूप से माया-मायाकषाय के निमित्त से लगने वाला कर्म भत्तपचखान--आहार परित्याग माया मोसा--माया युक्त मृषा भवक्षय-वर्तमान भव का सर्वथा विनाश मायी-कषाय युक्त भवधारिणी-देव, नरक आदि चार गतियों में प्राप्त होने मार्दव-कोमलता वाला सहज शरीर मासखमण-एक मास का निरन्तर उपवास भवनपति-असुर आदि अधोलोक में रहने वाले देव मासद्ध-पन्द्रह दिन का समय भवसिद्धिय-मोक्षगमन योग्य भव्य जीव मिच्छा दंसण सल्य-अठारहवां पाप भविक-शरीर.....भविष्य में ज्ञाता होगा, पर वह वर्तमान में मिच्छादिट्ठ-मिथ्यात्वी विवक्षित तत्त्व को नहीं जानता है उसका शरीर मिच्छामि दुक्कडं--प्रायश्चित्त का एक प्रकार भव्य---मोक्षगामी जीव मिथ्यात्व (त)-दृष्टिकोण का विपर्यास भाजन-पात्र मिथ्यादर्शन-दृष्टि का मिथ्यात्व, विपरीत दृष्टिकोण भाव-अवस्था मिथ्यादर्शन (क्रिया)--मिथ्यात्व के निमित्त से होने वाला भाव नय-पर्यायाथिक नय-शब्द, समभिरूढऔर एवंभूत- बन्धन नय ये तीन नय मिथ्यादर्शन सल्ल-अठारहवां पाप भाव मंगल-लोकोत्तर मंगल, नमस्कार महामंत्र आदि मिथकाल----सात नरक भूमियों में से एक जीव वहां से भाव लेश्या-अध्यवसाय विशेष निकलकर पुनः वहां उत्पन्न होता है तब तक पूर्ववर्ती भावश्रुत-शास्त्र आदि के द्वारा होने वाला ज्ञान अधिकांश जीव वहां से निकल जाते हैं पर कुछ बच जाते भाव हिंसा-आत्मा की प्रमाद और कषाय युक्त प्रवृत्ति भावितात्मा-तपस्या और संयम से आत्मा को भावित करने मिथ दृष्टि-सम्यक्मिथ्यावृष्टि वाला मुनि मुक्ति---सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा की भावेन्द्रिय-इन्द्रियों की उपलब्धि और उनका व्यापार अवस्था भाषा समित-बोलने में विवेक रखने वाला मुनि मुखवस्त्रिका—मुख्य वस्त्र भासक--बोलने वाला मुहूर्त-४८ मिनिट का कालमान भिक्खू पडिमा—साधु द्वारा स्वीकृत प्रतिज्ञा विशेष मूल गुण-साधना के मूलभूत गुण, पांच महाव्रत भेद-समावन्न-मति भंग, किंकर्तव्यविमूढ़ मोक्ष-सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर आत्मा का अपने स्वरूप में अवस्थान मडाई-निर्ग्रन्थ--अचित्त भोजी, याचित भोजी मोहनीय----आत्मा में मूढ़ता पैदा करने वाला कर्म मति-अज्ञान-मिथ्यादृष्टि का इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान यथालंदकल्पिक-हाथ की रेखा सुखे उतने समय भी प्रमाद मति-ज्ञान-सम्यक् दृष्टि का इन्द्रिय और मन के द्वारा होने नहीं करने वाले मुनि वाला ज्ञान मन जोगी-मन की प्रवृत्ति करने वाला रति-अरति-असंयम में अनुराग और संयम से वितृष्णा मनपज्जव-संज्ञी जीवों के मानसिक भावों को जानने वाला रसघात--तीव्र रस से बंधे हुए कर्मों को मन्द रस वाले बना अतीन्द्रिय ज्ञान देना परिशिष्ट ४३१ Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-मनोवृत्ति, पुद्गल द्रव्य के सहयोग से होने वाला वैक्रिय-शरीर-देव और नारक भव में सहज प्राप्त होने जीव का संक्लिष्ट तथा असंक्लिष्ट विचार वाला शरीर लोच-जैन मुनि के आचार का एक अंग, हाथों से केश वैक्रिय-समुद्घात-वैक्रिय लब्धि का प्रयोग उखाड़ना वैमानिक-ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले देव वकुश-संयम में अतिचार के धब्बे लगाने वाला निग्रन्थ व्यंतर-भूत, पिशाच, यक्ष आदि निम्न श्रेणी के देव वक्रजड़--अन्तिम तीर्थकर के समय होने वाले व्यक्ति, जो व्यवहार नय-लोक प्रसिद्ध अर्थ का संवादी अभिमत मायावी और अविकसित होते हैं व्रत (प्रतिमा)--श्रावक की दूसरी प्रतिमा वच जोगी-वचन का प्रयोग करने वाला वचन गुप्त-वाणी का संयम करने वाला शंका-लक्ष्य और उसकी पूर्ति के साधनों में संदेह बचन-समित-वाणी की सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला शब्दनय—शब्दग्राही अभिमत वनऋषभ नाराच संघयण---सर्वाधिक सुदृढ़ अस्थियों को शरीर-जो सुख-दुख की अनुभूति का साधन है संरचना शरीर पर्याय (पर्याप्ति)-शरीर का निर्माण बट्ट-गोल शुक्ल ध्यान-आत्मा की समाधि अवस्था, निर्विकल्प समाधि वर्गणा–सजातीय पुद्गल-समूह की स्थिति वाउकाय-वायु के जीव शुक्ल पक्षी-अर्ध पुद्गल परावर्तन काल की निश्चित सीमा विउसग्ग-शरीर के प्रति निस्पृहता, शरीर की प्रवृत्ति का में मुक्त होने वाला जीव परित्याग शुभ लेश्या-शुभ अध्यवसाय विशेष विगम-विनाश शुभ लेसी-शुभ लेश्या वाला जीव विगयपक्खस्स–विनाश की अपेक्षा से शून्यकाल-सातों नरक भूमियों में से एक जीव वहां से विग्रह-गति-एक भव से दूसरे भव में जाते समय होने निकलकर पुनः वहां उत्पन्न होता है तब तक पूर्ववर्ती सब वाली वह वक्र गति जिसमें दो, तीन या चार समय जीव वहां से निकल जाते हैं—एक भी जीव शेष नहीं लगता है रहता वह काल शून्यकाल है विग्रह-गतिया-विग्रह गति से जाने वाले जीव वितिगिच्छा-लक्ष्य-सिद्धि में सन्देह करना श्रद्धा-घनीभूत इच्छा विपाक---कर्मों का फल श्रमणोपासक-श्रमणों को उपासना करने वाला विभंग अनाण-मिथ्यात्व अवस्था में होने वाला अतीन्द्रिय थावक-अणुव्रतों का पालन करने वाला गृहस्थ ज्ञान श्रुतकेवली- चतुर्दश पूर्वधर मुनि वियट्टभोइ-निरन्तर आहार करने वाला श्रुत ज्ञान-शास्त्र आदि के माध्यम से होने वाला ज्ञान विराधक--- स्वीकृत आचार का भंग करने वाला श्रुत देवत-श्रुत ज्ञान के अधिष्ठित देव वीतराग--- राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त (चेतना) आत्मा श्रुतधर्म-आचारांगादि श्रुत की आराधना वीर्य-शक्ति श्रुति-अज्ञान-मिथ्यात्वी का ध्रुतज्ञान वीर्य-अंत राय–वीर्य का अवरोधक कर्म वीर्य लब्धि...वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाली सइंदिय-इन्द्रिय सहित शक्ति संक्रमण (संकम)-कर्म प्रकृतियों का परस्पर मेल होना वेद-पुरुष को स्त्री के प्रति, स्त्री को पुरुष के प्रति और संग्रह (नय)-वस्तु का अभेदपरक निरूपण करने वाला नपुंसक की दोनों के प्रति होने वाली अभिलाषा अभिमत वेदनीय कर्म-सुख-दुख के वेदन में हेतुभूत कर्म पुद्गल संघयण--अस्थियों की संरचना वेदनी-समुद्घात-बेदना-जनित तीव्र व्याकुलता से होने संचय-धान्य आदि अधिक समय टिकने वाले खाद्य पदार्थों वाला समुद्घात का संग्रह वैत्रिय-लब्धि-विक्रिया--विविध रूप निर्माण की शक्ति संजतासंजती-श्रावक ४३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजती (संयती)-मुनि सराग संजती-छद्मस्थ मुनि संज्ञा-आसक्ति विशेष सराग संजम---रागयुक्त संयम संपराय—सकषायी जीवों के होने वाला वेदनीय कर्म का सरागी--रागयुक्त चेतना वाला व्यक्ति, कषायवान् बन्ध सर्वज्ञ-केवली संप्रदाय--परम्परा सर्वविरत–तीन करण तीन योग से सावध योग का प्रत्यासंलेखणा-अनशन का पूर्वाभ्यास ख्यान संवर-कर्म निरोध करने वाले आत्म परिणाम सलेसी-तेरहवें गुणस्थान तक के जीव संवेग-मुमुक्षा सहत्थपारितावणिया--अपने हाथ से स्वयं को या दूसरे को संस्थान-(संठाण)---आकार ___ कष्ट पहुंचाना सकरणवीर्य-क्रियात्मक शक्ति सहसंबुद्ध-देखें स्वयंवुद्ध सकषाइ-राग-द्वेष युक्त जीव सहित—प्रयत्नशील सचित्त-जीवसहित सागर-उपमा के द्वारा निर्धारित कालमान सचित्त द्रव्य-जीव सहित पदार्थ सागार (उपयोग)--ज्ञान सजोगी-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति करने वाला सागारोवउत्त—जिसकी ज्ञान चेतना जागृत हो जीव साठभक्त--तीस दिन का तप सझाय-स्वाध्याय, मर्यादापूर्वक अध्ययन सातवेदनी-सुख की अनुभूति देने वाला कर्म सण्णि-समनस्क,सम्यक्त्वी सातिचार–सदोष सण्णिभूत-पर्याप्त सामानिक-इन्द्र के समान ऋद्धि वाले देव सन्निधि-घी आदि अधिक समय न टिकने वाले खाद्य सामायिक-आवश्यक सूत्र का एक विभाग पदार्थों का संग्रह सामायिक चारित्र--सब प्रकार की सपाप प्रवृत्तियों का सप्पडिकम्म–सपरिकर्म, वह अनुष्ठान जिसमें शरीर की परित्याग । सार-संभाल की जाती है सामायिक प्रतिमा--समता और व्रताराधना का विशेष समचउरंससठाण (समचतुरस्र संस्थान)-ऐसा संस्थान प्रयोग जिसके चारों कोण सम हों सावज्ज-पापसहित समदृष्टि-सम्यक्त्वी सास्वादन-उपशम सम्यक्त्व से गिरते समय मिथ्यात्व का समभिरूढ--पर्यायवाची शब्दों में निरुक्त के भेद से अर्थभेद स्पर्श करने से पहले अन्तरालवर्ती सम्यक्त्व का स्वीकार करने वाले नय का अभिमत साहरण-गर्भस्थ जीव का स्थानान्तरण समवसरण-तीर्थकरों का प्रवचन मंडप सिद्ध-मुक्त जीव, जिसके सब प्रयोजन सिद्ध हो गये हों समाचारी--संघीय जीवन की विशेष चर्या सुभ जोग-मन, वचन और शरीर की सत्प्रवृत्ति समामिथ्या (मिच्छा) दृष्टि-थावक सुलभबोधि—जिस जीव को सम्यक्त्व सुलभ हो समुच्छिन्नक्रिय-शुक्ल ध्यान का एक प्रकार सुसम दुस्समा—अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा समुदाणिक (सामुदानिक) भिक्षा-ऊंच-नीच के भेदभाव सूक्ष्मसम्पराय-दसवें गुणस्थान का चारित्र बिना अनेक घरों से की जाने वाली भिक्षा सूझतो—मुनि के लिए कल्पनीय समुद्घात–तीव्र वेदना आदि में एक रस होने के कारण सूत्रागम-गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित आगम आत्म प्रदेशों में होने वाला एक प्रकार का विस्फोट सेज्या-मकान समुच्छिम-जन्म का एक प्रकार, गर्भ और उपपात के स्कन्ध--अखण्ड वस्तु या परमाणुओं का एकीभाव बिना एक विशेष पर्यावरण के कारण होने वाला जन्म स्त्रीवेद-पुरुष के प्रति स्त्री की अभिलाषा समुच्छिम विकलेंद्री-दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले स्थविर–संयम में स्थिर करने वाले मुनि । ये कई प्रकार जीव सम्यक् दर्शन–सही दृष्टिकोण के होते हैं-प्रव्रज्या स्थविर, श्रुत स्थविर, जाति स्थविर सराग-तप-छद्मस्थ का तप आदि परिशिष्ट ४३३ Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरकल्प-संघबद्ध साधना करने वाले मुनियों का आचार स्नातक-केवल ज्ञान प्राप्त करने वाला निर्ग्रन्थ स्थविरकल्पिक-संघबद्ध साधना करने वाले मुनि स्नेह-सूक्ष्म अप्काय स्थावर-सलक्ष्य गमनागमन नहीं कर सकने वाला प्राणी स्नेहकाय-स्निग्धता स्याद्वाद-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सापेक्ष प्रतिपादन की स्थितकल्पिक-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य. पद्धति जिनके लिए आचेलक्य आदि दसों कल्प अनिवार्य होते स्वयंबुद्ध-किसी निमित्त या उपदेश के बिना स्वयं बोधि हैं (देखें ठाणं पृ०७०२) प्राप्त करने वाला स्थितिघात-कर्मों की स्थिति का अल्पीकरण हरस-अर्स, बवासीर स्थितिबंध-कर्मों का आत्मा के साथ बंधे रहने का काल- हुंडक-सबसे निम्न कोटि का संस्थान मान हेय-छोड़ने योग्य ४३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष नामानुक्रम व्यक्ति नाम अइमुत्ता ७४ अग्निभूति ३१३, ३१६-३२० अजिय २८७ अर्णत २८७ अभय कुमार २५८ अभय देव २०५, ४१५ अभिनंदन २८७ अम्मड २५६ अर २५८,२८७ अरिष्टनेमि २८० कपिल ३१ कामदेव २८० कालासवेसी पुत्र (काला) १७७-१८० कालिक पुत्र २७३ कासव २७३ कुंथु २५८,२८७ कुरुदत्त-पुत्र ३२३, ३४१ कृष्ण २५८,२८० केसी श्रमण २७२ कोणिक २७० आणंद २५७,२६३,२८१ आणंदरक्षित २७३ आदीश्वर २०० आपातचिलाती २७० खंधक १६५, १८६, १६४-१६७, २०१, २०३-२०७, २०६, २१०, २१७, २२०-२२२, २२४-२२८, २३०, २३२२३६,२३८,२४०-२४२, २८० इन्द्रभूति (ती) ३७,४१, २०३, २७४ उदक २७८,२८१,२८४,२८८ उदाई राजा २८० उसभ (ऋपभ) १८-२०, २३, ४२, २००,२८७,२६३ ऋषभदत्त २८२ ऋषि राय (ऋष राय) ५,३७, ४२, ६७, ७७, ८२, ६५, ६७, १००, १०२, १०५, ११०, ११६, १२३, १२५, १४१, १४४, १४७, १५१, १५४, १५५, १६३, १६५, १७२, १७५,१८०,१८२, १८७, १६४, २०३, २०७, २०६, २१७.२२२, २२५, २३२, २४२, २५२, २५५, २६४, २६८,२७६, २६६,३०४, ३१२,३१६, ३२०, ३२४, ३२८, ३३०, ३३३, ३३५, ३३७, ३४१, ३४५, ३४७, ३५२, ३५५, ३५६, ३५६, ३६२, ३६४, ३७३, ३८१,३८४,३८८, ३६४,४०१, ४०६,४२१ गजसुखमाल २६३ गद्दमालि १६५, २०४ गोतम (गौतम, गोयम) ६, २२, ३८-४५, ४७,५०, ५१, ५५, ५८, ५६, ६१-६४, ६७-६६, ७५, ७७-७६, ८२८४, ८६-६०, ६२, ६५, ६७-१०१, १०३, १०५-१०८, ११०, ११६, १२०, १२२-१२७, १३५, १३८, १३६, १४२-१४४, १४७, १४६, १५०, १५२, १५४-१५८, १६१, १६४-१७२, १७५, १७६, १८०, १८२, १८४, १८५, १८७,१८६,१६०,१६२,१६४,१६६,२०३-२०७, २४१, २४२, २४५, २४८, २४६, २५४, २५५, २७४२७८, २८०, २८१, २८३, २८४, २८७, २८८, २६३, २६६, २६६,३०५, ३०८, ३१०, ३१३-३१८,३२०, ३२२-३२५, ३२६, ३३७, ३४०, ३४२, ३४५, ३४६, ३५५-३५७, ३६१, ३७२-३७४, ३८१, ३८२, ३८४, ३८५, ३८७-३६०, ३६३-३६५, ४०२, ४०४, ४०६, ४१२,४१५, ४१७,४२० गोशालक (गोसाला) १००, २८१ विशेष नामानुक्रम ४३५ Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रभ २८७ पंडु २५८ चेलणा २५, ३६ पार्श्व (पार्श्वजिन, पार्श्वनाथ, पास) ११३, ११७, २६४, २६६, २७१, २७५, २७६, २८०,२८७, २६० जंबू ६,२३,२४,२२८, २८० पार्श्व चंदसूरि १६० जमाली ४८, २६६ पिंगल १६६, १६७,२०६, २१० जयंति २८० पुष्पदंत २८७ जयघोषमुनि २८५ पूरण गाथापति ३४६, ३४७ जय-जश (जय) ५,३७,४२,५५,६७-६६, ७७, ८२, ९५, पेढ़ाल पुत्र २८१, २८४, २८८ १७, १००, १०२, १०५, ११०, ११६, ११६, १२३, प्रदेशिनृप २७० १२५, १४१, १४४, १४७, १५१, १५४, १५५, १६३, । बाहुबल २६३ १६५, १७२, १७५, १८०, १८२, १८७,१६४, २०३, २०७, २०६, २१७, २२२, २२५, २३२, २४२, २५२, ब्राह्मी २०, २६३ २५५, २६४, २६८, २७६, २६६, ३०४, ३१२, ३१६, ३२०, ३२४, ३२८, ३३०, ३३३, ३३५, ३३७, ३४१, भरत २४८, २५४, २५८, २६३, ३५०, ३५४ ३४५, ३४७, ३५२, ३५५, ३५६, ३५६, ३६२, ३६४, भारीमाल ३, ५,३७, ४२,५५, ६७, ७७, ८२,६५, ६७, ३७३,३८१,३८४,३८८,३६४,४०१, ४०६, ४२१ १००, १०२, १०५, ११०, ११६, १२३, १२५, १४१, १४४, १४७,१५१,१५४,१५५, १६३, १६५, १७२, तामली ३२६, ३२६-३३४, ३४६ १७५, १८०, १८२, १८७, १६४, २०३, २०७, २०६, तीसक ३२१, ३२२, ३४१ २१७, २२२, २२५, २३२, २४२, २५२, २५५, २६४, २६८, २७६, २६६, ३०४,३१२, ३१६, ३२०, ३२४, थावच्चापुत्र २६० ३२८, ३३०, ३३३, ३३५, ३३७, ३४१, ३४५, ३४७, ३५२, ३५५, ३५६, ३५६, ३६२, ३६४,३७३, ३८१, देवानंदा २६६, २८०,२८२ ३८४,३८८, ३६४, ४०१, ४०६, ४२१ दोलतरामजी २०७ भिक्षु (क्षु) ३, ५,३७, ४२, ५५, ६७, ७७, ८२, ६५, ६७, द्रोपदी (द्रुपद सुता) २५८, २७० १००, १०२, १०५, ११०, ११६, १२३, १२५, १४१, १४४, १४७, १५१, १५४, १५५, १६३, १६५, १७२, धम्म २८७ १७५, १८०,१८२, १८७, १६४, २०३, २०७, २०६, धर्मघोष ७४ २१७,२२२, २२५, २३२, २४२, २५२, २५५, २६४, धर्मसी (सीह) १६, १०७,११०,११८, १२१, १२२, १४६, २६८, २७६, २६६, ३०४, ३१२, ३१६, ३२०, ३२४, १४८, १६३, २६८, २७०, ३४८, ३५६, ३६४, ३६७, ३२८,३३०, ३३३,३३५, ३३७, ३४१, ३४५, ३४७, ३७० ३५२, ३५५, ३५६, ३५६, ३६२, ३६४, ३७३, ३८१, धारणी २५८ ३८४,३८८, ३६४,४०१,४०६, ४२१ भृगपुत्र २१६ नंदण २८० नमि २८७ मंडिपुत्र (मंडियपुत्र) ३६२-३६५, ३६८-३७२ नागश्री ७४ मरुदेवी माता २६३ नाभेय १६ मल्लि ११३, ११५,२६६,२८७ नारद २५८ महावीर (वीर) ५, ६, २३-२६, ३०, ३१, ३३, ३५-३८, नप (नृपति इन्दु) ३, ५५, ४२, ४३, ४५, ५०, ५५, ५६, ६०, ६७,६८,७७, ७८, नेमि २८७ ८०,८४, ६५, ६८, १०६, १०८, ११७, १२४, १४४, ४३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५, १४७, १५०, १५१, १५५, १६५, १६६, १७०, शिव ऋषिराज ३६१ १७२, १७५, १८०, १९४-१९६, १९६, २००, २०२, शीलांकाचार्य २६२, २६३, २८४, २८६ २०३, २०५-२१०, २१७, २२०, २२२, २२३, २२५, श्रेणिक २५, ३६, ७६ २२७-२२६, २३६-२४२, २५५, २७४, २७५, २८०, २८२, २६०, ३१३, ३१६-३१८, ३२२, ३२४, ३२५, संख २८० ३३७, ३४२, ३४६, ३५०, ३५६, ३५७, ३६०, ३६२, संति २८७ संभव २८७ मागध १६६, १६७, २०६, २१० सकडालपुत्र २८१ मुणिसुव्वय २८७ सनतकुमार (चक्रवर्ती) २६३, ३४०, ३६५ मृगा पुत्र (पूत) २१६, ३४० सर्वानुभूति २२०, २८१ मगावती २८० ससि २८७ मेघकुमार २७६ सीयल २८७ मेहिल २७३ सीहो ७४ मोगर ३६१ सुंदरी २६३ मोरिज पुत्र (मोर्यपुत्र) ३२६, ३२६, ३३१, ३३३ सुखदेव २६० सुदर्शणसेठ २८० रहनेम ७४ सुधर्म (सुधर्मा, सुधर्मा स्वामी) ५, ६, २३, २४, ४७, २२८, राजऋषि २८३ २८० राजीमती ७४ सुनक्षत्र २२० रेवती २६१ सुपास २८७ रोह १४५-१४७,२८० सुप्पभ २८७ सुबाहु ३४० वद्धमाण (वर्धमान) २६, ३०, ३७, ८३, १६६, १६८, सुभद्रा २६८ २३६,२८७, ३१३ सुमति २८७ वर्णनाग नत्तुओ २६६ सुविध २८७ वायुभूति ३१६-३१६, ३२२, ३२४ सेज्जंस २८७ वासुदेव ८४, ३६२ सोमल २६० वासुपुज्ज २८७ विजयघोष मुनि २८५ हेमविमल सूरि २६१ विमल २८७ विशाला १९६ नगर नाम अयोध्या २४८ आमलकप्पा २८२ कयंगला १६४, १६५, १९८-२००,२०२, २०३, २२७ कोसंबी २८० एरवत २० गोल-देश ३७८ विशेष नामानुक्रम ४३७ Jain Education Intemational Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पा २५ (देश) २०४ जंबुद्वीप २६६, ३०२, ३०५, ३११, ३१२, ३१५, ३१६, ३१८-३२०, ३२२-३२४, ३२६, ३३१, ३४६, ३५०, ३५४, ३७३, ३८५, ३६५, ३६६, ३६८, ४०४, ४०६, ४१७ ढंकण ३४४ तामलिप्ती ३२६-३२८, ३३०-३३२, ३३४ तुंगिया २५५, २५७, २५, २६३, २६४, २६७, २७१, २७३, २७५, २७७, २८३ पल्हव (देश) ३४४ पुखराज (देश) २०५ पुलिंद २४४ बबर (देश) ३४४ बिभेल सन्निवेश ३४६ अंतगड २५८, २८० तवा २०० अनुयोगवार (द्वार) १२, २१५, २०६, २०२३११ भरतक्षेत्र १६, २०, १४६, ३२६, ३३१, ३३४, ३४६ उत्तराध्येन (ध्ययन) २३, २८, ७२ १६० १७५, २१६, २७८, २८३, २८५-२८७, २३०, ३४१ उप-वृत्ति २५६ उपासगदसा (दशा) २८०, २८१, २६० ४३८ भगवती जोड़ मगध ( मागध) ४६, ५१, १६६ महाविदेह १९२२४९. ३४१ मोया नगरी ३१३३. २४ राजगृह २१, २४, २५, ३५, ३६, ८३, १८६, १४, २३६, २५५, २७४, २७५, २८०, २९४, २९५, ३१३, ३२४, ३४२, ३६२, ३८२, ३८६, ३६०, ३६३, ३६५, ४०६, ४१४, ४१७ लाडणूं १८७ वाणारसी नगरी ३८६, ३६०, ३६३ वाणिया ग्राम २८० सबर (देश) ३४४ सावत्थी १६५-१६८, २००, २०१, २०३, २०४, २०६, २१०, २८० सुंसुमारपुर ३४७, ३५०, ३५५ सुजानगढ़ (सुजान ८२, १०५ ग्रन्थ नाम उववाई ( उवाई) २५, ३४, ७६, २२१, २५५, २५६, २८२, २६०, २६३ आचारांग ( रंग ) ४, २३, २६,७६, ११६, १५६, १६०, ऋषि मंडल २९३ २७६, २८६-२६१ कर्मग्रंथ १४० आचारांग चूर्णि २६३ आचारांग टब्बा १६०, २३१ चंदपण्णत्ति (न्न ) ४ आचारांग वृत्ति १५६, २६०, २६१, २६३ आवश्यक नियुक्ति १६०, २६३ जंबूद्वीपपण्णत्ती २५८,२७० जीवाभिगम ५, २४४, २६८, २६६, ३०३, ३०५, ३७३, ४१४, ४१५ २२२२५६ ज्ञाता (छट्ठा अंग ) ४, २३, २४, ११३, २५८, २६८२७०, २७६, २८० Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणांग (ठाणं)७४, ७६, १६१, १६२, २७८, २७६, २८७- २८६, २६३, ३०४, ३६५, ४१२, ४१३ ठाणांग टब्बा २८७ ठाणांग टीका २६३ ११५, ११६, १५६, १६१, १६३, २१३, २५८, २६६, २८०-२८२, २८४, २८७, २८६-२६१, २६३, ३१२, ३४१, ४१३ भगवती-यंत्र (धर्मसी) १६३, २६० भगवती वृत्ति ७२, १५६, २६२, २८४, ४१६ दशवकालिक २२, ७५, १५८ दशाश्रुतखंध २२८, २३०, २७८ दीपिका (हर्ष कुशलकृत) २६१ राय प्रश्रेणी (द्वितीय उपंग) २७०, २७८, २८२, २८८, २६०, ३२४, ३३२, ३६४ राय प्रश्रेणी वृत्ति १५८, १६६, २५६, २६० नंदी ११३ निरियावलिया (निरावलिया) २७७, २८० निशीथ (नशीथ) ७२, ७३, निशीथ चूणि १६०, २६१-२६३ ववहार वृत्ति (व्यवहार) १६०, २६१, २६२ विन्हिदसा २८० विपाक ३४० विवाह पण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) ३, ५-७, २०, २१, २४, २८४ पन्नवणा ५६, ६३, ७१-७३, ८६,६५, १८,११३, १२०, १८७, १६०, २४३, २४६-२४८, २६३, २६७, २६६, ३०४,४००, ४११,४१८,४२० पन्नवणा वृत्ति ७२, ४२०, पुष्फिया उपंग २६०, ३४० समवायांग २०,११३, २६३ सूयगडो (सूत्रकृतांग) ४, १५६, १६१, २५८, २६३, २७७ २७६, २८१,२८३, २८४,२८६,२८८,२६० सूयगडो टब्बा २८३ सूयगडो-टीका (शीलांकाचार्य कृत) २८३, २८४, २८८ सूयगडो-दीपिका (दीपका) २६१, २६३, २८५ सूयगडो-वृत्ति २६३ बृहत्कल्प २३, ११६, २६२ बृहत्कल्प चूणि १६०, २६२ बृहत्कल्प वृत्ति १६०, २६२ भगवइ जोड़३ हुंडी (लंका की) १६३, २६० भगवती [६] (पंचमांग) ३,४,७,२१,४७,७१, ७३, ७४, हेमी नाम माला २८७ विशेष नामानक्रम ४३४ Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध शद्धि-पत्रक प्रस्तावना परिण माय परिणमाय अशुद्ध १२० १० तस्यव तस्यैव टूकडा ढूंकडा १३१ ६३ माणोवउत्त माणोबउत्ते शत्रु योग शुभयोग १३१ ७६ मायोवउत्त मायोवउत्ते पूर्व विरति पूर्ण विरति १३२ ८० लाभोवउत्ते लोभोथ उत्ते १३६ १२४ प्रसंए प्रसंग भगवती-जोड़ १४० १२६ वृ० वेउविए वेउविए पृ० गाथा अशुद्ध शुद्ध २०७ श.? श.२ २१ १७६ वृ० प्रतिपादयितम् प्रतिपादयितुम् २१६ ५४ जब रजानी जबर जानी ३३ २८५ वा०-वृ० (वृ०-प०४) (वृ०-प०६) २२६ । गोपर्व ३७ ३१० वा० पावाणां पावाणं २३४ १९७० यथेतिः यथेति ३७ २ वृ० संघ २४४ ११ पा० धूमप्पभा धूमप्पभा ३८ ध्रुपद तहती को तहतीको २५१ ४६ व० द्रष्टुणां द्रष्टणां तेक हिवाय ते कहिवाय २७२ ६१ वृ० तद्वयवदान तद्व्यवदान ५५ १६७ वृ० विषयश्चछेदः विषयच्छेदः २८६ ४४ वा० अभ्याख्यन अभ्याख्यान ६५ १३३ पा० की सत्ताए कीसत्ताए ३३८ १२ अखिया आखिया ६८ ६पा० जीव ३४१ ५७ पा० छठ्ठट्ठमासो छठ्ठठ्ठममासो ७८ १४ वृ० (वृ०-५० ३४,४५) (वृ०-प० ३४, ३५) ३७७ कंदर कंद ७८ १६३० सप्तकान्वंतत्तित्वात् सप्तकान्तर्वत्तित्वात् ३६६ १७ पा० बहुभज्जदेसभाए। वहुमज्जदेसभाए ८४ २१ वृ० दंडगाकद्वयम् दंडकद्वयम् ४०२ १३ वृ० परम्स्पर परस्पर गोपव संघ जीवा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- _