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________________ ४४. पूर्व नपा अनागत अनागत ग्रहस्य जे पुद्गल, ते ४५. पूर्व काल ग्रह्मा नहि पुद्गल, अनागत पूर्व काले नहि परिणमिया, अनागत ४६. ५४. ग्रहस्ये न प्रह्मा 1 ५५. तनु पुद्गल परिणाम से से देखा अर्थ हिव, ४७. हे भगवन! नारकी ने स्वं दूहा सास चयादिक होय । प्रश्न कर अवलोय ॥ परणम्या परणमस्ये नह नहि पूर्व काल पिछायो । पुद्गल-खंध ग्रह्मा आहऱ्या ते, तनु चय थया सुजाणो ? ॥ ४८. जहा परिणया तहा चियावि एवं चिया ५०. चिता-शरीर विधे चय पाम्या , उवचिया । उदीरिता वेदिता णिज्जिया, इस पाठ भलावण किया ॥ ४९. किणहि परत में पाठ सहु ए आख्या करि विस्तारो । वृत्तिकारक भर्मन करियो, सर्वत्र तुल्य विचारी ॥ उपथित ते इम जाणो । बलि चय थथा पिछाणो ।। कर्म उदै नवि आया । वेद कहाया ॥ ५२. देदिता - निज रस विपाक करिके, समय-समय प्रति वेदं । निर्माते चेतन ते कर्म दूर थयां नहि वेदे ॥ ५३. परिणम्याचिया उबचिया उदीर्या वेचा ने निर्जरिया इक इक पद में चिविध पुद्गल, ए अर्थ गाथा नुं धरिया ॥ वह प्रदेश शरीर विधे जे ५१. उदीरणा - ते स्वभाव थी तो करण विशेष करी उदं आणी तास * "हे भगवंत ! नरक जीवा रें, भेद हे रस तीव्र मंद कर Jain Education International दूहा पुद्गल ना अधिकार थी, आगल सूत्र अठार पूछे गोयम गणहरू, वीर प्रते सुविचार ॥ नांही । त्यांही ॥ ग्रहस्यै । परिणमस्य ॥ । पुद्गल कितं प्रकारें । मंद तीव्रता पारे' ? ।। *लय सयणां थइये जो रे १. मूलपाठ में शब्द है 'भिज्जति' । भिज्जंति का अर्थ है - भिन्नता होना । अपवर्तन और उद्वर्तन करण के द्वारा तीव्र रस वाले पुद्गल मन्द रस में परिवर्तित कर दिए जाते हैं और मन्द रस वाले तीव्र रस में परिवर्तित कर दिए जाते हैं। परिवर्तन के द्वारा अनुभाग रस में जो भिन्नता होती है, उसी की अपेक्षा से यहां भिज्जंति का अर्थ 'भेद लहै' किया गया है। रिया बाहारिज्जिसमाया पोग्गला गो परिणया, णो परिणमिस्संति । ( श० १११६ ) ४६. शरीरसंपर्क क्षण भवन्तीति तदर्शनार्थ प्राह चियादयो ( वृ० प० २४ ) ४०, ४६. राणं भंते! पुण्याहारिया पोगता चिया ? पुच्छा जहा परिणया तहा चियावि (०१०१७ ) एवं उयचिया उदीरिया, वेश्या, निजिना । ( श० १1१८ ) ४६. इह च पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते तत्र न संमोहः कार्यः, सर्वत्राभिधेयस्य तुल्यत्वात् । ( वृ० प० २४) २०. चिता" शरीरे चयं गताः 'उपचिता' पुन प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति । ( वृ० प० २४) ५१. उदीरितास्तु स्वभावतोऽनुदितान् पुद्गलानुदयप्राप्ते कर्म दलिके करण विशेषेण प्रक्षिप्य यान् वेदयते । (२०१० २४) प्रतिसमयमनुभूवमानाः अपरिसमाप्ताशेषानुभावा इति । (রto ২४) ५३. परिणय चिया उवचिया उदीरिया बेया य निज्जिण्णा । एक्वेक्कम्मि पदम्म पढव्हिा पोमना होति ॥ (०११ गीगाहा) ५२. 'वेदिता' स्पेन रविपाकेन For Private & Personal Use Only ५४. पुद्गलाधिकारादेवेमामष्टादशसूत्रीमाह ( वृ० प० २४) ५५, ५६. नेरइया णं भंते ! कइविहा पोन्गला भिज्जंति ? गोपमा ! कम्मदव्यवग्याण महिकिण्व दुविहा योग्यला भिज्जंति, तं जहा - अणू चेव, बादरा चेव । ( श० १११६ ) श० १, उ० १, दा० ४ ५६ www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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