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बाहल्य मात्र एतले शरीर प्रमाणे चोड़ो अनै जाडो अनै आयाम ते लांबपण संख्येय योजन दंड प्रतै रचै, रची नै यथास्थूल वैक्रिय शरीर नां पुद्गल पूर्वे यह्या ते शातन करै, यथासूक्ष्म पुद्गल प्रतै ग्रहै यथोक्तम्-वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निसिरइ निसिरित्ता अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, अहासुहमे पोग्गले आइयत्ति ।।
इम तेजस, आहारक समुद्घात पिण वखाणवा। केवली-समुद्धाते करि केवली वेदनीयादि कर्म पुद्गल प्रतै शातन कर। ए सर्व समुद्घात नैं विष शरीर नै विष थकी जीव प्रदेशा नों निर्गम हुवै। सर्व नो मान अंतर्मुहर्त नो छ। णवरं एतलो विशेष छै---केवली समुद्घात आठ समय प्रमाण छ।
ए समुद्घात एकेंद्रिय विकलेंद्रिय नै पहिली तीन हुवै। वायुकाय नारकी नै पहिली च्यार हुवै। देव अनै पंचेंद्री तिर्यच नै पंच हुवै। मनुष्य सन्नी अनै जीव
पदे सात समुद्धात हुवै। ६. जावत् वेमानिक नैं भण, कपाय जे समुद्घातो।
अल्पबहुत्व कही छत्तीसमपद, त्यां लग कहि विख्यातो।। ७. हे प्रभु ! अणगार भावितआत्मा, जे केवली समुद्घातो।
जावत् शाश्वत काल अनागत, शिव सख रहै विख्यातो।। ८. समुद्धात पद इहां भलाव्यो, बीजा शतक नों एहो। समुद्घात नों उद्देशो ए वीजो, दाख्यो जिन-वचने हो ।।
द्वितीयशते द्वितीयोद्देशकार्थः ।।२।२।।
शरीराबहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमाया मतश्च संख्येययोजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथा. स्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति यथासूक्ष्मांश्चादत्ते। (वृ०-प० १२६, १३०) एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमद्घातेन तु समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, एतेषु च सर्वेष्वपि समुद्घातेषु शरीराज्जीवप्रदेशनिर्गमोऽस्ति, सर्वे चैतेऽन्तर्मुहूर्त्तमानाः, नवरं केवलिकोऽष्टसामयिकः एते चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामादितस्त्रयो, वायुनारकाणां चत्वारः, देवानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां च पञ्च, मनुष्याणां तु सप्तेति। (३०-प०१३०) ६. जाव-वेमाणियाणं । कसायसमुग्घाया, अप्पाबहुयं ।
७. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलीसमुग्धाए जाव-मासतं अणागयद्धं चिट्ठति? (श० २०७४)
सोरठा द्वितीय उद्देश पिछाण, समुद्घात वर्णन का। ते समुद्घात में जाण, मारणांतिक समुद्घात छै ।। ए समवहत जोय, केइ पृथ्वी में ऊपजै।
पृथ्वी नों अवलोय, उद्देशक तीजो हिवै।। ११. हे प्रभु ! केतली पृथ्वी परूपी, जिम जीवाभिगम मझारो।
नारक नों उद्देशक बीजो, जाणवं ते अधिकारो।।
६, १०. द्वितीयोद्देशके समुद्घाता: प्ररूपिताः, तेषु च मारणान्तिकसमुद्घातः, तेन च समवहताः केचित्पृथिवीपूत्पद्यन्त इतीह पृथिव्यः प्रतिपाद्यन्ते । (वृ०-५० १३०)
१०.
११. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! सत्त
पुडवीओ पष्णत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा सक्करप्पभा बालुयप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा तमप्पभा तमतमा।
जीवाभिगमे नेर इयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्यो। १२, १३. पुढवी ओग्गाहित्ता, निरया संठाणमेव बाहल्लं । विक्खंभ परिक्खेवो, वण्णो गंधो य फासो य ।।
(संगहणी-गाहा वृ०-प० १३०)
१२.
पुढवी कहितां कितरी पृथिवी प्ररूपी? प्रथम प्रश्न ए जाणो। पृथवी अवगाही – नरकावासा, केतली दूर पिछाणो ।। नरकाबासा नों संस्थान बलि स्यूं? नरक जाडपणुं जाणी? नरकावासा नो विकंभ परिधि, फून वर्णादिक पहिछाणी ।।
*लय-दया भगोती छै सुखदाई १. कुछ आदर्शों में जीवाभिगम के नारक नामक द्वितीय उद्देशक की अर्थ-सूचक संग्रह
गाथा दी है । जयाचार्य ने उसी आदर्श के आधार पर जोड़ की है।
२४४ भगवती-जोड़
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