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* बधिवंत ज्ञान नयन करि देखो। (ध्रुपदं) ४. किता प्रभु ! समुद्घात परूप्या? श्री जिन भाखै सातो जी।
वेदना - समुद्घात धुर कहियै, पद समुद्घात विख्यातो जी।।
४. कइ णं भंते ! समुग्घाया पण्णता? गोयमा! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-१. वेदणासमुग्धाए २. कसायसमुग्धाए ३. मारणंतियसमुग्घाए ४. वेउब्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्धाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। वा०—'समुग्घाए' त्यादि, हननानि-घाताः सम् - एकीभावे उत्-प्राबल्येन ततश्चकीभावेन प्राबल्येन च घाताः समुद्घाताः, अथ केन सहकीभावः ? उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः, अथ प्राबल्येन घाताः कथम् ? उच्यते, यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशः सह श्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, अतः प्राबल्येन पाता इति। (वृ०-प०१२६)
वा०-समुद्घात शब्द नों अर्थ कहै छै-सम-एकीभाव उत्-प्रबलता अनै घात-हनन अर्थात् एकमेक थवा पूर्वक प्रबलता बड़े हनन ते समुद्घात । तेहर्नु सविस्तार विवेचन आ छै-जेम कोइ एक जीव बेदना-समुद्घात वालो होय तोते वेदना नां अनुभव ज्ञान नी साथे एकमेक थइ जाय छ, तेम थया सिवाय ते वेदनासमुद्घात वालो बनी शकतो नथी। एकमेक थयां पछी आत्मा साथे संबद्ध थयेला वेदनीय कर्म नां पुद्गलो ऊपर ते जीव प्रबलतापूर्वक प्रहार करै छ, मार हनन चलावै छ, अर्थात् जे वेदनीय कर्म कालांतरे वेदवा योग्य छै तेहनै उदीरणा-करण द्वारा खेंची उदय मां न्हाखी तेनै आत्मा थी सर्वथा जुदं करी न्हाखै छै। आ प्रकार नुं स्वरूप वेदनी-समुद्घात बाला D के वेदनीय समुद्घात - होय छ । एज रीते बीजा समुद्घातो माटै पिण जाणवू । तात्पर्य ए के जे समुद्घात मां आतमा वर्ततो होय तेनां अनुभव-ज्ञान साथे एकमेक थइ ते संबंधी को नै आत्मा थी सर्वथा जुदा करै छ, ए स्वरूप सामान्य समुद्घात नो हुवै।
स्थूल दृष्टिए जेम कोइ एक पक्षी होय अन तेहनी पांखो ऊपरे खूब धूल चढ़ी गइ होय, त्यारे ते पक्षी पोता नी पांखो नैं पहोली करी तेहनां ऊपरली धूल खंखेरी न्हाखै छै । तेम आत्मा पोता ऊपर चढेल कर्म नां अणुओ नै खखेरवा आ समुद्घात
नाम नी किरिया करै छ। ५. छद्मस्थ में समुद्घात कही छै, पन्नवणा सूत्र मझारो। तेह पाठ वर्जी नै भणवो, पट-तीसम पद सारो।। वा०—'कइ णं भंते छाउमत्थिया समूग्धाया पण्णत्ता?' इत्यादि सूत्र वर्जी नै 'समुग्घायपयंति' पन्नवणा नों छत्तीसमो समुद्घात-पद जाणवो कहिवो, ते लेश थी देखाडै छ । कइ णं भते समुग्घाया पणत्ता? गोयमा ! सत्त समुग्धाया पणत्ता। तं जहा—वेयणासमुग्धाए इत्यादि इह संग्रहणी
वेयण कसाय मरणे वे उब्विय तेयए य आहारे ।
केवलिए चेव भवे जीवमणुस्साण सत्तेव ।। जीव-पद नै विर्ष अनै मनुष्य-पद नै विष सातूंइ समुद्घात कहिवी। नारकादिक नै विष यथायोग्य कहिवी। तिहां वेदना-समुद्धाते करी जीव वेदनीय कर्म-पुद्गल नों शातन करै-अलगा करै। कषाय समुद्घाते करी कषाय-पुद्गल नों शातन करै। मारणांतिक-समुद्घाते करी आयु-कर्म-पुद्गल नौं शातन करै। वैक्रिय-समुद्घाते करी जीव प्रदेशां प्रतै शरीर थकी बाहिर काढी शरीर-विष्कंभ
५. छाउमत्थियसमुग्घायवज्ज समुग्धायपदं नेयब्बं ।
(श० २१७४)
जीवपदे मनुष्यपदे च सप्त वाच्याः, नारकादिषु तु यथायोगमित्यर्थः, तत्र वेदनासमुद्घातेन समुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलानां शातं करोति, कषायसमुद्घातेन कषायपुद्गलानां मारणान्तिकसमुद्घातेनायुःकर्मपुद्गलानां वैकुर्विकसमुद्घातेन समुद्धतो जीवः प्रदेशान्
* लय- दया भगोती छै सुखदाई १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २१७४ में “छाउमत्थियसमुग्धायवज्ज समुग्घायपदं नेयब्वं'
इतना पाठ है। इस सूत्र के पाद-टिप्पण में अन्य आदर्शों में उपलब्ध पाठ को उद्धृत किया गया है, पर उसे मूल में नहीं रखा गया है। जयाचार्य ने उस पाठ के आधार पर जोड की है, इसलिए जोड के समानान्तर वह पाठान्तर उद्धृत किया गया है ।
श०२, उ०२, ढा० ३६ २४३
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