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________________ नवी १२६. किहां किंचित् अधिक गिण लीधां, इहां इतरा अधिक तज दीधा। समचै पाठ देखी सूत्र मांय, बुद्धिवंत मिलावै न्याय ।। १२७. पहिली नरक जीव श्रेणक नों, आयु सहस चउरासी बरस नों। नवमै ठाणे ठाणांग रै मांहि, त्यां पिण अधिक बरस गिण्या नांहि ।। १२८. गामै एक रात्रि नगर पंच, सीयाला ऊन्हाला में सुसंच। उवाई सूत्र पाठ में वाय, ते पिण अभिग्रहधारी नी अपेक्षाय ।। १२६. सर्व उपधि ले गोचरी जाणो, आचारंग दूजै श्रुतखंध वाणो। प्रथम अध्येन रै तीजै उदेश, ए पिण अभिग्रहधारी सुविशेष ।। १३०. इत्यादिक बहु सूत्र मांय, समचै पाठ कह्या जिनराय । पिण बुद्धिवंत न्याय विचारै, पूर्वापर अविरुद्ध धारै।। १३१. तिम कषायकुशील अपडिसेवी, आदि कथन ग्रहण वेला लेवी। विशुद्ध लेस्या पुलाकादि मांय, कथन अंत्य आराधक न्याय ।। १३२. पुलाक नियंठा नी स्थित्त, जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहुत्त । बकूस पडिसेवणा नी पिछाण, जघन्य स्थिति समय इक जाण ।। १३३. उत्कृष्टी बिहुँ नों जोड, देश ऊणी पूरव कोड। अशुभ भाव लेस्या अध्यवसाय, किम नाव ते स्थिति माय ।। १३४. कदे अशुभ भाव लेस्या आवै, शभ भाव लेस्या कदे पाये। ऐ तो पडिसेवी पहिछाण, वले स्थिति पिण अधिकी जाण ।। १३५. अपडिसेवी रा असुध अध्यवसाय, नावै तिण रो तो आश्चर्य नाय । पिण ए तोपडिसेवी सदोषी विशेष,तिण रै किम नावै अशभ भाव लेश ।। १३६. बकुस पडिसेवणा दोषसेवी, दंड नहि लेवै ज्यां लग बेवी। तिण नै पडिसेवी कहिवाय, त्यां लग तेहिज नियंठो जणाय ।। १३७. पडिसेवणाद्वार रै मांय, पडिसेवी कह्यो जिनराय । अपडिसेवी कहिजै नांहि, ए तो प्रत्यक्ष पाठ रै मांहि ।। १३८. दंड लेवा रै सन्मुख होय, सुध भाव लेस्या जद जोय । तिण वेला मरै तो आराधक, आलोयां विनां मूंआ विराधक।। १३६. सुभ भाव लेस्या इम थायो, म्हैं तो उन्मान सं मेल्यो न्यायो। वले अपर न्याय कोइ होय, केवलो वदै ते सत्य जोय ।। १४०. दोष सेवै अशुभ लेस्या भाव, छठे गुण ठाणे प्रमत्त प्रभाव। अशुभ योग वसे लब्धि फोडे, अशुभ भाव लेस्या नै जोडे ।। १४१. ठाम-ठाम सूत्रां में जाण, षट् लेस्या छठे गुणठाण। अशुभ जोग वर्ते तिणवार, अशुभ भाव लेस्या अवधार ।। १४२. प्रथम गुण ठाण असोच्चाधिकार, शुभ अध्यवसाय कह्या सार । शुभ परिणाम नैं विशुद्ध लेस, नवमै शतक इकतीसमुदेश ।। १४३. ईहा पोह विचारणा करतां, विभंग अनाण ऊपजतां । कियो अपोह नों अर्थ जान, बीजा पक्ष रहित धर्मध्यान ।। ७६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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