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________________ ११५. कषाय कुशील अपडिसेवी आख्यो, इहां आद्य कथन ए भाख्यो। कषायकुशीलपणो ग्रहै सार, तिण वेला अपडिसेवी उदार ।। ११६. दीक्षा लेतां कषायकुशील, ते बेला अपडिसेवी सुशील । तथा अपर नियंठा आवै, तिण वेला पिण अपडिसेवी भाव।। ११७. बीज कषायकुशील रै माय, षट् समूद्घात पिण पाय । पंच शरीर, छ लेश्यावंत, संजमासंजम में ते आवंत ।। ११८. पुलाक बकुश पडिसेवणा मांय, मनपर्यव ज्ञान न पाय । कषायकुशील माहै मनपर्याय, मनपर्यवज्ञानी गोयम खलाय ।। ११६. पुलाक बकुश पडिसेवण मांहि, चवदै पूर्व पावै नांहि। कषायकूशील पूर्व चवदै पाय, दशवकालिक का ते खलाय' ।। १२०. इम कषायकुशील खलाय, ग्रहण वेला अपडिसेवी थाय । तिम पुलाक प्रमुख त्रिहुं माय, सुद्ध लेश्या अंत अपेक्षाय ।। १२१. गति सूत्र नी विचित्र जाणो, तिण में भ्रम कोई मति आणो। पूर्वापर अविरुद्ध तत्त, सुद्ध न्याय मेले बहुश्रुत्त ।। १२२. शतक पणवीसमें पंचमंग, सातमै उद्देशै पाठ सूचंग। जघन अंतर छेदोपस्थापनीक, वेसठ सहस वर्ष नो तहतीक ।। १२३. छठा पहिला दूजा आरां रा, त्रेसठ सहस वरस तीनां रा। तीजे आरै जन्म जिन तास, तीन वरस साढा अठ मास ।। १२४. तीस वरस रहै ग्रहवास, पछै चारित्र लेवै हुलास । बारै वरस अनै पख तेर, छद्मस्थपणे मुनि मेर । १२५. पछै केवल तीर्थ थाप, छेदोपस्थापनीक आपै। इतला अधिक बरस नहिं गुणिया, रेसठ सहंस वरस इज थुणिया ।। १. निर्ग्रन्थ के छह प्रकार हैं-पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना-कुशील, कषाय-कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील, दृष्टिवाद (चौदह पूर्व) का ज्ञाता नहीं होता, किन्तु कषाय-कुशील मुनि को दृष्टिवाद का अधिकारी माना गया है। दशवकालिक में इस सन्दर्भ में एक पद्य आता है--- आयारपन्नत्तिधरं दिठिवायमहिज्जगं । वइविक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी।।८।४६ यहां जयाचार्य ने टब्बे के आधार पर इस पद्य का अर्थ करते हुए भगवती की जोड़ तथा अन्यत्र भी लिखा है-- चौदह पूर्वधर कषाय कुशील स्खलित हो सकता है। यह अर्थ असम्मत नहीं है, किन्तु वाक्य-शुद्धि अध्ययन के सन्दर्भ को देखते हुए यहां यह अर्थ चिन्तनीय प्रतीत होता है। अगस्त्यसिह कृत दशवकालिक की चणि के आधार पर उक्त पद्य का अर्थ इस प्रकार है वाक्य-रचना के नियमों को तथा प्रज्ञापन की पद्धति को जानने वाला और नयवाद का अभिज्ञ मुनि बोलने में स्खलित हुआ है (उसने वचन, लिंग और वर्ण का विपर्यास किया है), यह जानकर भी मुनि उसका उपहास न करे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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