________________
१५८.
सुर जेह मध्यम परिषदा नां, तेडिया पिण जाइये । अणतेडिया पिण जाय छै, ए अल्प गौरव पाइयै ।। सुर अभ्यंतर परिषदा नां, मध्यमा नां सुर भणी। कार्य जेह भलाविय, शिर धरै आज्ञा तेह तणी।। बाह्य परषद तणां सुर, अणते डियाइज आविये। मध्यमा नां जे कहै ते, कार्य चित्त बसावियै ।। बलि प्रमुख अच्युत-इंद्र,परपद स्थिति संख्या छ जिका। सूत्र जीवाभिगम माहै, वक्तव्यता कहिये तिका ।।
१५६.
१५७. मध्यमा तुभयथाऽप्यागच्छति अल्पतरगौरवविषयत्वात्।
(वृ०-प० २०२) १५८. अभ्यन्तरया चादिष्टमर्थपदं तया सह प्रबध्नाति
ग्रन्थिबन्धं करोतीत्यर्थः। (वृ०-प० २०२) १५६. बाह्या त्वनाकारितैवागच्छति अल्पतमगौरवविषय
त्वात् तस्याश्चार्थपदं वर्णयत्येव। (वृ०प० २०२) १६०. एवमच्युतान्तानामिन्द्राणां प्रत्येक तिस्रः पर्षदो
भवन्ति, नामतो देवादिप्रमाणत: स्थितिमानतश्च क्वचित् किञ्चिद् भेदेन भेदवत्यस्ताश्च जीवाभिगमादवसेयाः।
(व०-प० २०२) १६१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ३।२८१)
१६०.
१६१. *सेव भंते ! सेवं भंते ! एम, पभणे गोयम धर बहु प्रेम ॥ १६२. तृतीय शतक नों दशम उद्देश, आख्यो तृतीय शतक सुविशेष ।। १६३. ढाल बहोत्तरमी सुविशाल, आखी सुखकर अधिक रसाल ।। १६४. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' सूख संपति अधिकाय ।।
१, २.
गीतक-छंद कह्य अभय देवे तृतिय शत नी वृत्ति नी रचना करी। वारू पुराणी वृत्ति प्रति आश्रयी म्हैं ए विधि वरी ।। तेहिज वृत्ति टवो सुदेखी सुख समझवा काजही। सद्गुरु प्रसादे प्रवर जोडज रची सखर समाज ही ।। नर शक्तिवंत छतोपि यान सुखाभिलाष करी भजे । आश्चर्य नांहि अशक्त नर सुख अर्थ यान प्रतै सझै ।। दृष्टांत ए वृत्तिकार दी● पुराणी वृत्ति वही। आश्रयी म्हैं ए वृत्ति कीधी इम तिण आख्य सही ।।
तृतीयशते दशमोद्देशकार्थः ।।३।१०।।
श्री पंचमांगस्य शतं तृतीयं, व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तिम् । शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं, पान्थः सुखायं किमु यो न शक्तः ।।
(वृ०-प० २०२)
*लय-बाबा किशनपुरी तो विण मंढिया उजडी पड़ी
०श ३, उ० १०, ढा०७२ ४१५
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org