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________________ वलि अन्य आचार्य कहै वाणी,घोर-आत्म-निरपेक्ष पिछाणी॥ अन्य जन दुरनुचर घोर, मूल गुणादि सुजोर ॥ ५३. अन्ये त्वात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः। (वृ०-५० १२) ५४. घोरगुणे घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-मूलगुणादयो यस्य सः । (वृ०-प० १२) एहवा घोर गुणे करि सहीतं, ऐ तो गौतम स्वाम वदोतं ।। घोर तप करि आतम धामी, तिण सं घोर तपस्वी स्वामी।। ५६. घोरतवस्सी घोरैस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः। (वृ०-प० १२) अल्प सत्व जीव नै ताहि, घोर दुरनुचर कहिवाहि ।। ५७-५६. घोरबंभचेरवासी एहवा ब्रह्मचर्य नै विषेह, जसं वसिवा न शील सुलेह ।। घोर-दारुणमल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद्ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं तिण सं घोरबंभचेरवासी, एहवा इंद्रभूति सुख-रासी।। शीलं यस्य सः। (वृ०-५० १२) ६०. संस्कार स्नानादि तज्यू धीरं,तिण सं उच्छुढ-उज्झित शरीरं ।। ६०. उच्छूढसरीरे उच्छूढम् उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन ततसंस्कारत्यागात्सः। (वृ०-६० १२) ६१. बहु योजन क्षेत्र रै मांहि, वस्तु दहन समर्थ कहिवाइ॥ ६१-६३. संखित्तविउलतेयलेस्से ६२. एहवी विपुल तेजोलेश्या ज्वाला, विशिष्ट तप करि ऊपनी विशाला।। संक्षिप्ता-शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुला विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थ६३. ते संक्षेपी तनु अंतर कीनी, आ तो ह्रस्वपण करि लीनी ।। त्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य सः । (वृ०-प० १२) ६४. ज्यांरै च उदश पूर्व कहीजै, पोत होज रचित सलहीजै ।। ६४, ६५. चोद्दसपुब्बी ६५. च उदशपुवी इण वचनेह, श्रुतकेवली पिण कहेह ।। चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह । सोरठा च उदश पुरव धार, अवधि मनपज्जब रहित पिण । ६६. स च अवधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आहहुवै कोई अणगार, इण कारण थी हिव कहै ।। (वृ०-५० १२) ६७. वर केवल वरजी वदीतो, स्वामी च्यार ज्ञान करि सहीतो।। ६७. चउनाणोवगए केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः । सोरठा (वृ०-५० १२) ६८. कह्या विशेषण बेह, तेह युक्त पिण कोइक मुनि। ६८, ६६. उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्त समग्रश्रुतसमग्र श्रत विषयेह, व्यापक ज्ञानी नहि हवै।। विषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानकचउद पूर्व ना जाण, छट्ठाण व डिया' है अछ । पतितत्वेन श्रवणादित्यत आह- (०-प०१२) तिण कारण पहिछाण, आगल कहियै छै हिवे ।। *लय-ज्यारं सोभ केसरिया साड़ी १. छट्ठाणवडिया का अर्थ है—गुणों की न्यूनाधिकता से छह स्थानकों में विभाजन। यहां चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ज्ञान में रहने वाले अन्तर का संकेत है। वे छह स्थानक ये हैं-संख्यात-भाग, असंख्यात-भाग, अनन्त-भाग, संख्यात-गुण, असंख्यात-गुण और अनन्त-गुण हीन या अधिक । श०१, उ०१, ढा०२ ४१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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