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२५. ए मूलगो मिथ्यात मोह मांहि छै, मिथ्या विषैज वली । उवट्ठाएज्जा कहितां करें दृढ़, स्थिर करें पुष्ट रली ॥ २६. अन चौथा पंचम छठा जीवठाणा थी, पाछो बली ने पिछाण । मिथ्यात पार्म तास कहीजे, अवनकमेज्जा जाण । २७. ए मिथ्यात मोह उदय अपक्रम कह्यो, चारित्र मोह् हिव जोय । तास उदय थी अपक्रम मुनिनों, बालपंडित कोइ होय || ए संजम अपक्रम पाछो बल्यो, एतले पडियो देख संजम भांगी ने श्रावक हूवो, देश विरती ए देख ॥ २२. विविध विविध पचखाण भांगी कदा, दुविहं विविध फिर की। सर्व-विरत भागो ने तेह माहिल देश-देश है लोभ ३०. मोह उदय ना दोय आलावा नो आयो ए अधिकार ।
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हिव मोह उपशम नांवे आलावा कहिये तसुं विस्तार ।। ३१. ए मोह कर्म उपसम से जेह में, उवट्ठाए अपकरम ए बिहुं मांहि फेर किसूं छे ?, उत्तर तेहनों परम ।। ३२. जे उत्तम गुणठाणा मांहि छै, बलि तेहिज में जेह । उवट्ठाएज्जा कहितां करें दृढ़, बलि स्थिर पुष्ट करेह || ३३. अवक्कमेज्जा संजत सेतो पाछो बलने जोय वालपंडित पिण मोहनं उपसम ते अवलोय || ३४. एप्पा आलावा नो अर्थ धर्मसी कीधो ते का एह अपक्रम नों इज प्रश्न गौतम हिवै पूछे प्रेम धरेह || ३५. से भंते ! ते जीव तथा अथ अर्थो से शब्द परम । आत्म करी अपक्रमै के, अणआत्म करि अपकरम ? ३६. जिन कहै आरम करि अपक्रमैं, अणआरम करि नाहि हिव मोह कर्म वेदै ते प्रश्न पूछे गोयम ताहि ॥ ३७. मोहनी कर्म मिथ्या चारित्र मोह, वेदतो छतो हे स्वाम ! ते किम ए अपक्रमण हुवै, मोह वेदता छता ने ताम ? ||
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जिन भाखे अवक्रमण थकी पूर्व अपक्रमकारी जीव । जीवादि तत्व तथा अहिंसादिक, सुद्ध य वा करणी अतीव ।। ३९. एवं कहितां एक जिम जिनवर, रोच तिमहितं । शुद्ध भई अथवा शुद्ध करणी, अहिंसादि कार्य करत || ४०. हिवड़ा मोह उदय का जीव तेहिज, एनव तत्व जीवादि । जिन भारूपो तिम न रोचैन अथवा न करें कार्य अहिंसादि ॥ इम अपक्रमण मोह वेदन इम, आख्यो मोह अधिकार । कर्म अधिकार की हिव सामान्य कर्म तण विस्तार ||
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१२२ भगवती-जोड
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३५. से भंते! कि आयाए अवक्कमइ ? अणायाए अवक्कम ?
३६. गोयमा ! आयाए अवक्कमइ, नो अणायाए अवक्कमइ मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे । (१० १०१०७)
३७. से हमे भए?
मोहनीय कर्म मिथ्यात्वमोहनीयं चारित्रमोहनीयं वा वेदयन्, उदीर्णमोह इत्यर्थः । (बृ०-२० ६४) ३८-४१. गोयमा ! पुव्वि से एवं एवं रोयइ । इयाणि से एवं एवं नो रोयइ- एवं खलु एवं एवं (श० २१११८८ ) 'पूर्वम्' अपक्रमणात् प्राग् ' असो' अपक्रमणकारी जीवः एतद्' जीवादि अहिंसादि वा वस्तु एवं' यथा जिनैरुक्तं 'रोचते' श्रद्धत्ते करोति वा, 'इदानी' मोहनीयोदयकाले 'सः' जीवः एतत्' जीवादि अहिंसादि वा ' एवं ' यथा जिनैरुक्तं 'नो रोचते' न श्रद्धत्ते न करोति वा, 'एवं खनु' उक्तप्रकारेण एतद्' अपनम् 'एवं मोहनीयवेदने इत्यर्थः । मोहनीय कर्माधिकारात् सामान्यकर्म चिन्तयन्नाह ( वृ० प० ६४ )
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