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________________ ४२. हे प्रभु ! जे नरक तिरि मन सुर ने, कीधा जे कर्म पाप। भोगवियां विण छुटवो नहीं छै ? हंता कहै जिन आप ॥ ४३. गोयम पूछ किण अर्थ कह्य ए? जिन कहै कर्म बे प्रकार । प्रदेश कर्म वेदै छै नियमा, अनुभाग भजना धार।। अनुभाग को बेदै को न वेदै, क्षयोपशम-सम्यक्त्ववंत । दर्शण-मोह अनुभाग न वेदै, प्रदेशपणे वेदंत ।। ४२. से नूणं भंते ! नेरझ्यस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो? हता गोयमा ! नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पाये कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो। (श०१२१८६) ४३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयस्स वा जाव मोक्खो ? एवं खलु मए गोयमा! दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा—पदेसकम्मे य अणुभागकम्मे य। तत्थ णं ज णं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ । तत्थ णं जं णं अणुभागकम्म तं अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं णो बेदेइ। ४४. अनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति। (वृ०-५० ६५) ४५. इह च द्विविधेऽपि कर्मणि वेदयितव्ये प्रकारद्वयमस्ति, तच्चाहतैव ज्ञायते इति दर्शयन्नाह- (वृ०-५० ६५) ४६. णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया सामान्येनावगतम् एतद् वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम् 'अर्हता' जिनेन 'सुयं' ति 'स्मृतं' तत्र स्मृतमिव स्मृतं । (वृ०-प०६५) ४७. इमं कम्मं अयं जीवे अब्भोवगमियाए वेदणाए वेदेस्सइ, प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुञ्चनादीनामंगीकारः। (वृ०-प०६५) ४८. इमं कम्म अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेदेस्सइ। कर्म वेदण रा प्रकार दोय ए, जाणे श्री जिन आप। ते अधिकार कहै हिव आगल, सांभल ज्यो चुपचाप ।। ४६. वेदना दोय प्रकार सामान्यपणे जाण्यो अरिहंत । स्मृत नी परै स्मृत कहियै विविध प्रकार जानंत ।। ४७. ए कर्म ए जीव अभ्युपगम वेदना करि वेदस्य आम। ब्रह्मचर्य भूमि-सयन लोचादिक, अंगीकार करि ताम ।। ४८. ए कर्म ए जीव उपक्रमिकी वेदना करि वेदस्यै सोय । ताव रोगादि कर्म उदय आव्यां, उदीरणा बलि जोय ।। ४६. जिम कर्म बंध्या ते अणअतिक्रमवै, जिण देश काल विषैज। जिम कर्म ते भगवंत दीठो तिम वेदस्य ए निश्चैज।। तिण अर्थे नरकादि किया कर्म, वेद्यां विण न मूकाय। कर्म पुद्गल रा अधिकार थी हिव, परमाणु आदि कहाय ।। ४६. अहाकम्म, अहानिकरणं जहा जहा तं भगवया दिलैं तहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति । ५०. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा, जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो। (श० १११६०) ५१. अंक चवद देश ढाल चवदमी, भिक्ष भारीमाल ऋषिराय। 'जय-जश' सुख संपति गण-वृद्धि, परम पूज्य सुपसाय ।। श०१,उ०४, ढा०१४,१५ १२३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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