________________
१३. बालवीर्यपणे अपक्रम मिथ्यात्व उदय प्रथम गुणठाण ।
पंडितवीर्यपणे नहीं अपक्रम, त्यां नहीं मिथ्या अनाण ।। १४. कोइ वालपंडितवीर्यपणै, अपक्रम श्रावक होय ।
ए चारित्र मोहनी उदय करो छ, समचै मोह प्रश्न सोय ।।
१५. वाचनांतरे बाल वीर्यपणे, पंडितवीर्यपणे नाय ।
बालपंडितवीर्यपणे नहीं छै, ए मिथ्यात्व उदय कहाय ।।
१६. उदय-विपक्ष उपशांत तणां हिव, स्तर बे अवलोय।
उदय तणां जिम दोय आलावा, तिम उपशम नां दोय ।। णवर' मोह-उवशम उवट्ठाए ज्जा, पंडितवीर्य रहंत । अपक्रमै बालपंडित दीर्यपण, इहां वृत्तिकार कहंत ।। मोह-उवशम उवाय पंडितवीर्य, उपशांत मोहे होय । पंडितवीर्य ईज तिहां कहियै, अपर न होवै दोय ।।
१३, १४. गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा। नो
पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा । सिय बालपंडियबीरियत्ताए अवक्कमेज्जा।
(श० ११८०) मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् संयमाद्देशसंयमाद्वा अपक्रामेत मिथ्यादृष्टिर्भवेदिति। कदाचिच्चारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपण्डितवीर्येण देशविरतो भवेदिति ।
_ (वृ०-प० ६४) १५. वाचनान्तरे त्वेवम् --'बालवीरियत्ताए नो पंडियवीरि
यत्ताए नो बालपंडियवीरियत्ताए' त्ति, तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्य-द्वयनिषेध
इति। १६, १७. जहा उदिण्णणं दो आलावगा तहा उवसंतेण वि
दो आलावगा भाणियब्वा, नवरं उबट्ठाएज्जा पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा बालपंडियबीरियत्ताए।
(श० १११८१-१८६) १८. मोहनीयेनोपशान्तेन सतोपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण,
उपशान्तमोहावस्थायां पण्डितवीर्यस्यैव भावादितरयोश्चाभावात्।
(व०-प०६४) १६. वृद्धस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातं-मोहनीये
नोपशान्तेन सता न मिथ्यादृष्टिर्जायते, साधुः श्रावको वा भवतीति।
(वृ०-५०६४) २०, २१. मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद्वालपण्डित
वीर्येणापक्रामन् देशसंयतो भवति, देशतस्तस्य मोहापशमसद्भावात्, न तु मिथ्यादृष्टिः, मोहोदय एव तस्य भावात्, मोहोपशमस्य चेहाधिकृतत्वादिति ।
(वृ०-५०६४)
१६. वृद्ध-व्याख्या किणहि वाचना आश्री, मोह उपशम करि जोय ।
मिथ्यादृष्टि ते नवि होवै, साधू वा श्रावक होय ।।
२०. मोह-उपशम करिकै अपक्रमै, वालपंडितपणे जोय ।
संजतपणां थी पाछो वली नै, देशसंजती होय ।। देश थकी तिण रै मोह उपशम छ, पिण मिथ्यादृष्टि नाय। मोह ना उदय थकीज होवै ते, इहां उपशम अभिप्राय ।।
२२. ए सर्व अर्थ आख्यो टीका ढूं, उवट्ठाएज्जा आद ।
ए च्यारूं आलावा नौं अर्थ धर्मसी, कीधू धर अहलाद ।। २३. धुर बे आलावा मोह कर्म उदय, कर्ता कहिये तास ।
प्रथम आलावै उवठ्ठाएज्जा, अपक्रम बीजो विमास ।। २४. ए विहं मध्ये फेर किसू छै ?, इति प्रश्ने पहिछाण।
हिवं उत्तर एहनों कहिये छ, सांभलज्यो सुविहाण ।।
१. अंगसुत्ताणि (भाग २) में यत्र तत्र जाव की पूर्ति कर संक्षिप्त पाठ को विस्तृत किया गया है। भगवती की जोड़ संक्षिप्त पाठों के आधार पर की गई है। इसलिए अंगसुत्ताणि के सूत्रों की संख्या के साथ जोड़ का क्रम नहीं बैठता। प्रथम शतक के सूत्र १८१ से १८६ तक का विवरण जोड़ में दो आलापक के संकेत से पूरा किया गया है। आगे भी यत्र तत्र इसी क्रम से जोड़ की रचना हुई है।
श०१, उ०४, ढा०१४ १२१
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org