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________________ १८. संस्थान इंद्रिय पंच तणों धुर, वाइल्य जाडापणं जेहो। १८. संठाणं बाहल्लं पोहत्तं जाव अलोगे। (श०२२७७) पोहल चोडापण तास जाणव, जाव अलोक ल गेहो।। वा...-तिहां संस्थान श्रोत्रादि इंद्रि य न कहि । ते इम-श्रोतेंद्री न संस्थान वा०-तत्र संस्थान थोत्रादीन्द्रियाणां वाच्यं, तच्चेदकदंब वनस्पती नां फूल नै आकारे । चक्षु इंद्रिय नु सस्थान मसूरक चन्द्र नै आकारे थोत्रेन्द्रियं कदम्बपुष्पसंस्थित, चक्षुरिन्द्रियं मसूरकचन्द्रछ.-मसूर ते आसन विशेष (गाल मसूरीयो इति लोक भाषा) चन्द्र कहिता संस्थित, मसूरकम्-आसनविशेषश्चन्द्रः- शशी, चन्द्रमा । अथवा मसूरचन्द्र ते धान्य विशेष, तेहना अर्द्ध एतले मसूर नी दाल नै अथवा मसूरकचन्द्रो-धान्यविशेषदलं, घ्राणेन्द्रियमतिआकार वृत्त-गोल । घ्राणेंद्रिय नुं संस्थान अतिमुक्तक चंद्र ते फूल-विशेष नो दल, मुक्तकचन्द्र कसंस्थितम्, अतिमुक्तचन्द्र क:-पुष्पवितेहन आकारे अनै पन्नवणा ना अर्थ में का ते अतिमुक्तक वृक्ष नां फूल नै तथा शेषदलं, रसनेन्द्रियं क्षुरप्रसंस्थितं स्पर्शनेन्द्रियं नानाचन्द्रमा नै संस्थान संस्थित छ । रसनेंद्रिय न संस्थान क्षुरप्र ते पाछणा नै आकारे। कारम् । स्पर्शनेंद्रिय नुं संस्थान नाना आकार ते अनेक आकारे। ____ 'बाहल्ल' कहिता इंद्रिय नु बाहल्य ते जाडपणुं कहि । सर्व इंद्रिय नों अंगुल 'बाहल्लं' ति इन्द्रियाणां वाहल्यं वाच्यं, तच्चेदं—सर्वानों असंख्यातमो भाग बाहल्य छ। ण्यंगुलासंख्येयभागबाहल्यानि। जो स्पर्शन इंद्रिय नु जाडपणु अंगुल नै असंख्यातमें भाग छै, तो खड्ग, छूरी आदि करिकै हणिय छते शरीर नै अंतर-मांहि किम वेदना भोगवै ? तेहनों उत्तर-स्पर्श इंद्रिय नों विषय शीत आदि स्पर्श हुई, जिम चक्षु इंद्रिय नों विषय रूप, घ्राणेंद्रिय नों विषय गंध, जिह्वा-इंद्रिय नों विषय रस, थोत्रंद्रिय नों विषय शब्द अनै छुरी आदि करि हणिय छते अंतः शरीर नै विर्ष शीतादि स्पर्श नों अनुभव नहीं हुवे । केवल दुख रूप वेदन नों हीज अनुभव हुवे। अनै ते दुख रूप वेदना नो अनुभव तो आत्मा समस्त शरीर करिके करै, केवल स्पशेंद्रिय थीज नहीं करै ज्वरादि वेदनवत् । ते मार्ट स्पशेंद्री नी नान्ही अवगाहणा छै ते दोष नहीं। अथ शीतल पाणी आदि पीधे छते अन्तर-मांहि शीत आदि स्पर्श पिण भोगविय, ते कारण थकी किम स्पर्श इंद्रिय नें अंगुल नै असंख्यातमे भाग जाडपणो मिलै ? तेहन पिण उत्तर-इहां स्पर्श इंद्रिय सर्व शरीर में विषै पिण प्रदेश पर्यंतत्ति छै । अभ्यंतर पिण शुशिर-पोलाड नै ऊरि स्पर्श इंद्रिय नां भाव थी दोष नथी।' (ज०स०) - 'पोहत्तं' कहिता पोहलपणों ते चोडापणों । इम श्रोत्र, चक्षु, घ्राण नों अंगुल नों असंख्यातमो भाग पोहलपणो। जिह्वेद्रिय नुं प्रत्येक अंगुल न पोहलपणों । ते 'पोहत्तं' ति पृथुत्वं, तच्चेदं-थोत्रचक्षुर्घाणानामंगुआत्मांगुले जाणव । स्पर्शन इंद्रिय शरीर प्रमाण पोहलपणुं । तेहनों मान उत्से लासंख्येयभागो, जिह्वेन्द्रियस्यांगुलपृथक्त्वं स्पर्शनेन्द्रि यस्य च शरीरमानम्। धांगुल करिक। 'कइपएस' कहिता इंद्रिय केतले प्रदेशे नीपनी? पांचंइ इंद्रिय अनंत प्रदेश 'कइपएस' त्ति अनन्तप्रदेशनिष्पन्नानि पञ्चापि । करी नीपनी छ। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० २१७७वें सूत्र के अन्त में 'पद्धमिल्लो इंदिय उद्देसो नेयवो जाव' कहकर अगले सूत्र में अलोक सम्बन्धित प्रश्न उपस्थित किया है। भगवती की जोड़ में इन्द्रियों के संस्थान आदि की सूचना देकर जाव शब्द के द्वारा अलोक सम्बन्धी प्रसग की सूचना दी गई है। उसके बाद वातिका में पूर्व सूचित सब पहलुओं को विस्तार से बताकर 'अलोगे णं भते किण्णा फुडे ? कतिहि वा काएहि फुडे ?' पाठ दिया है, किन्तु उस पर जोड़ नहीं लिखी गई है । इसलिए श० २१७८वें सूत्र की जोड उपलब्ध नहीं होती। श० २।७७ के पाद-टिप्पण में लिखा है कि 'अतोऽग्रे सर्वादर्शेषु संठाणं बाहल्लं पोहत्तं जाव अलोगे इति पाठोऽस्ति' जयाचार्य ने इसी पाठ के आधार पर जोड़ लिखकर यावत् शब्द से संग्राह्य शेष अर्थों को वात्तिका में निबद्ध किया है। २४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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