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'ओगाढे' त्ति असंख्येयप्रदेशावगाढानि ।
'अप्पाबहु' त्ति सर्वस्तोकं चक्षुरवगाहतस्ततः श्रोत्रघ्राणेन्द्रिये कमेण संख्यातगुणे ततो रसनेन्द्रियं असंख्यगुणं ततः स्पर्शनं संख्येयगुणम् ।
'पुट्ठपविट्ठ' त्ति श्रोत्रादीनि चक्षूरहितानि स्पृष्टमर्थ प्रविष्टं च गृह णन्ति।
'ओगाढ़े' कहितां केतला आगासत्थिकाय नां प्रदेश नै अवगाह्या छै? पांचूंइ इंद्रियां आकाशास्तिकाय ना असंख्याता प्रदेश अवगाह्या छ । ___'अप्पाबहु' कहितां पांचू इंद्रियां आकाश-प्रदेश अवगाह्या तेहनी अल्प बहुत्व, ते इम-इहां वृत्तिकार का - सर्व थोड़ा आकाश प्रदेश अवगाही नै चक्षु इंद्रिय रही। तेहथी धोत्रेन्द्रिय घ्राणेंद्रिय अनुक्रमे करिक संख्यात गुणा अवगाह्या । तेहथी रसनेंद्रिय असंख्यात गुणा अवगाह्या । तेह थकी फर्शनेंद्रिय संख्यात गुणा अवगाह्या, इत्यादि जे पन्नवणा में कह्य ते खरूं।
स्पृष्ट अर्थ प्रत अनैं प्रविष्ट अर्थ प्रतै ग्रहण करै, ते इम-श्रोत्रंद्रिय फा शब्द प्रत सुण पिण अफा न सुण। अनैं चक्षुरिद्रिय फा रूप प्रत न देखें, अणफा प्रतै देखे । अन घ्राणेंद्रिय फा गंध प्रत सूधै। रसनेंद्रिय फर्ष्या रस प्रतै आस्वाद। स्पर्शन इंद्रिय फा स्पर्श प्रतै वेदै पिण अणफा प्रतै न संघ, न आस्वादै, न वेदै । इम थोत्रादिक विवर नै विष पैठा पुद्गल पिण कहिवा।।
विषय कहिता इंद्रिय नी विषय, इहां वृत्तिकार कह्य--पांच इंद्रिय नी विषय जघन्य अंगल नै असंख्यातमे भाग कही। अनै पन्नवणा १५ पदे केयक परत में पांचू इंद्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै असंख्यातमै भाग कही, अनै केयक परत में चक्षु इन्द्रिय नी विषय जघन्य आंगुल नै संख्यातमै भाग कही, ते घणी परतां देख निर्णय कीजो'।
उत्कृष्ट थी श्रोत्र नों बार योजन विषय, चक्षु नों साधिक लक्ष योजन विषय, शेष सब इन्द्रियां नो नो योजन।
'विसय' त्ति सर्वेषां जघन्यतोऽङ्गलस्यासंख्येयभागो विषयः ।
उत्कर्षतस्तु थोत्रस्य द्वादश योजनानि, चक्षुषः सातिरेकं लक्षं, शेषाणां च नव योजनानीति ।
१. भगवती की वृत्ति में पांचों इन्द्रियों के विषय जघन्यतः अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है। जयाचार्य ने इस विषय की समीक्षा करते हुए लिखा है--- प्रज्ञापना (पद १५) के कुछ आदर्शों में भी पांचों इन्द्रियों का विषय जघन्यतः अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है, किन्तु इसका निर्णय अनेक प्रतियां देखकर किया जाए। जयाचार्य द्वारा प्रदत्त इस सूचना के आधार पर यह पाठ समीक्षणीय है। हमने प्रज्ञापना के पाठ-शोधन में जिन आदर्शों का प्रयोग किया, उन सब में चक्षु का जघन्य विषय अंगुल का संख्येय भाग और शेप इन्द्रियों का असंख्येय भाग उपलब्ध है----"चक्खिंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जति भागओ।" मुनि पुण्यविजयजी ने भी यही पाठ स्वीकार किया है। उन्हें कुछ आदर्शों में 'असंखेज्जति' पाठ भी मिला है। यह सम्यक् नहीं है। इस टिप्पणी के साथ वह पाद-टिप्पणी में उद्धृत है। आवश्यक नियुक्ति के विवरण में मलयगिरि ने भी प्रज्ञापना के पाठ का अनुसरण किया हैचक्षुरिन्द्रियमपि जघन्यतोऽङ्ग लसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति
(आवश्यक-नियुक्ति पत्र २६) उन्होंने अपने प्रतिपाद्य की पुष्टि में विशेषावश्यक भाष्य को भी उद्धृत किया है
अवरमसंखेजंगलभागातो नयणवज्जाणं ॥ संखेज्जइभागातो नयणस्स मणस्स न विसयपरिमाणं । पोग्गलमित्तनिबंधाभावातो केवलस्सेव ।।
(विशेषावश्यक भाष्य ३४६, ३५०) इनके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवती की वृत्ति में पांचों इन्द्रियों का जघन्य विषय अंगुल का असंख्येय भाग बतलाया गया है, वह सम्मत नहीं है।
१. भगवती की वृत्ति का मुद्रित पाठ शुद्ध प्रतीत नहीं होता। जयाचार्य ने वृत्ति के पाठ को प्रामाणिक बताया है और उसकी पुष्टि प्रज्ञापना के (५१।१३) पाठ से की
जयाचार्य ने भगवती वृत्ति के जिस पाठ का अनुवाद किया है, प्रज्ञापना में उसका संवादी पाठ मिलता है। इससे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि मुद्रित पाठ शुद्ध नहीं है। प्रस्तुत पाठ इस प्रकार होना चाहिएसर्वस्तोक चक्षुरवगाहतस्ततः थोत्रघ्राणेन्द्रिये क्रमेण संख्यातगुणे ततो रसनेन्द्रियं असंख्येयगुणं ततः स्पर्शन संख्येयगुणम्। हमने वृत्ति का यही पाठ अनुवाद के सन्दर्भ में उद्धृत किया है।
श०२, उ०४, ढा०३६ २४७
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