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________________ इहां पन्नवणा नां अर्थ में कह्यो ते लिखिये छ—-इहां कोइ कहै जे आगमांतरे चक्षु विषय धणों दीसै छै। जे भणी पुष्कराद्ध द्वीप नां मानुषोत्तर समीपवर्ती मनुष्य उत्कृष्ट दिवसई एकवीस लाख चउत्तीस हजार पांच सौ सैतीस प्रमाणांगुले निष्पन्न योजन थकी सुर्य ऊगतो आथमतो देखै छ। ते माटे इहां साधिक लक्ष योजन नों चक्षु विषय कह्यो ते किम घटै ? तत्रोत्तरं-एह सूर्य अतिप्रकाश्य थाई ते मार्ट अधिक विषय दीस छ, पिण अप्रकाश्य वस्तु ते लक्ष योजन उपरांत न दीस। इहां अप्रकाश्य वस्तु आश्रयी नै विषय कह्यो छ। अनै प्रकाश्य वस्तु नों विषय तो अधिक पिण होइ तेहनों दोष नहीं। इहां एह इंद्रिय विषय प्रमाण आत्मांगुले जाणवू, पिण उत्सेधांगुले न कहिवू । इहां कोइ कहै छ जे जो शरीरप्रमाण उत्सेधांगुल को छ तो शरीर प्रतिबद्ध जे इंद्रिय तेहनों विषय उत्सेधांगुले ज कहीई, पिण आत्मांगुलै न कहिइं? तत्रोत्तरं-शरीर जे उत्सेधांगुले कह्या छ पिण इंद्रिय-विषय न जाणवो। जो उत्सेधांगुल इंद्रिय-विषय कहीइं तो पांच सौ धनुष ना मनुष्य नै विषय व्यवहार न पोहच, यथा जे भरत चक्रवर्ती ने आत्मांगुल ते प्रमाणांगुल कह्य। ते प्रमाणांगुल ए का, ते प्रमाणांगुल एक सहस्र उत्सेधांगुल थाइ। तिहां भरत नी अयोध्या नगरी तथा स्कंधावार ते आत्मांगुल बार योजन प्रमाण कह्या ते उत्सेधांगुले तो अनेक सहस्र गम योजन थाइ। तिहां विजय ढक्का भेरी प्रमुख नों शब्द सर्व नैई किम संभलाइ ? अन ते शब्द तो समग्र नगर तथा समग्र स्कंधावार व्यापी सिद्धांत कह्य छ, ते व्यवहार न पोहचै ते माट इहां इंद्रिय नों विषय ते आत्मांगुलज जाणवो। 'अणगारे' कहितां हे भगवंत ! भावितात्म अणगार मारणांतिक समुद्घात समवहत नां जे छहला शैलेशी काल नां अंत्य समय नां जे निर्जा पुद्गल अति सूक्ष्म ते पुद्गल सर्व लोक प्रतै अवगाही नै ब्यापी नै रह्या छ। छद्मस्थ-केवलज्ञान-रहित तथा विशिष्ट अवधि ज्ञानादि पिण रहित ते । हे भगवन् ! ते निर्जऱ्या पुद्गल नु अन्यत्व परस्पर भिन्नपणुं अर्थात् ए पुद्गल एहना अन ए पुद्गल अनैरा नां इम जाण ? देखै ? हे गोतम ! ए अर्थ समर्थ नहीं। इहां मरण नै अंत हवं ते माटै मारणांतिक कही, पिण ए केवली समुद्घात जाणवी । केवली नै मारणांतिक समुद्घात न हुवै, मारणांतिक समुद्घात छद्मस्थ नै ईज हुवे ते माटे । आहारे कहितां ते चरम निर्जऱ्या पुद्गल प्रतै नरकादिक न जाण न देखै अनै आहरै तो छ, इत्यादि घणों विस्तार छ। हिवै केतला लगै ए उद्देशो कहिवो ते कहै छ-जाव अलोको कहितां यावत् अलोक सूत्र नो अंत ते इम-अलोगेणं भंते किण्णा फुडे काहि काएहि फुडे ? गोयमा ! नो धम्मत्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासस्थिकाएणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासत्थिकायस्स पएसेहि फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धा समएणं फुडे। एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अणंतेहि अगुरुलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागणेति।। अलोक छै तिको धर्मास्तिकायादि अलोक में नहीं, ते माट। जे अलोकांत नै लोकांत फज छ ते फर्शवू इहां न लेखव्यू, इहां फर्शवू नाम व्याप्तपणां नों छै। जे अलोक धर्मास्तिकायादिके करी व्याप्त नथी ते माटै इहां स्पृष्ट नाम व्याप्तपणां नो छ। अनै आकाशास्तिकाय काय नां देश प्रदेश करी स्पृष्ट कहितां व्याप्त छै, ते आकाशास्तिकाय नां देश प्रदेश अलोक नै विष छै ते माट। अनै एक अजीव द्रव्य नों देश ते आकाशास्तिकाय द्रव्य नां देशपणां थकी ते अलोक नै स्पृष्टव्याप्त छ। 'अणगारे' ति अनगारस्य समुद्घातगतस्य ये निर्जरापुद्गलास्तान्न छद्मस्थो मनुष्यः पश्यतीति। 'आहारे' ति निर्जरापुद्गलान्नारकादयो न जानन्ति न पश्यन्ति आहारयन्ति चेत्येवमादि बहु वाच्यम् । अथ किमन्तोऽयमुद्देशकः? इत्याह-यावदलोकः' अलोकसूत्रान्तः, तच्चेदम् - नालोको धर्मास्तिकायादिना पृथिव्यादिकार्यः समयेन च स्पृष्टो--व्याप्तः, तेषां तत्रासत्त्वात्, आकाशास्तिकायदेशादिभिश्च स्पृष्टः, तेषां तत्र सत्त्वात्, एकश्चासावजीव द्रव्यदेशः, आकाशद्रव्यदेशत्वात्तस्येति । (वृ०-५० १३१) २४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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