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१६. *संठाण बाहल्य पृथक् पोहलपण, जाव किण करि फर्यो अलोगो। अर्थ ए दूजा शतक नों चउथो इंद्रियोइसक ' मा शासक
सूयोगा। ॥द्वितीयशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।२।४।।
भुक्त।
सोरठा २०. इंद्रिय नों अधिकार, चउथै उद्देशै कह्यो। २०, अनन्तरमिन्द्रियाण्युक्तानि, तद्वशाच्च परिचारणा स्याते बस थी परिचार, तास निरूपण पंचमे ।। दिति तन्निरूपणाय पञ्चमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् ।
(वृ०-प० १३१) २१. *हे प्रभु ! अन्यतीर्थी इम आखै, इम निश्चै निग्रंथो। २१,२२. अण्ण उत्थिया णं भंते ! एबमाइक्खंति भासंति
काल किये छतै देव थई नैं, निज आतम करि मंतो।। पण्णवंति परवेति-एवं खलु नियंठे कालगए समाणे २२. ते निग्रंथ नुं जीव देवता, अन्य देव प्रति त्यांही।
देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अण्णे देवे, नो अण्णेसि ___ अन्य देव नी देवी प्रति वश करि, आलिंगी भोगवै नांही ।। देवाणं देवीओ अभिमुंजिय-अभिमुंजिय परियारेइ,
'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति परि
(वृ०-प०१३२) २३. आत्म संबंधि पोता नी देवी, तेह प्रत पिण त्यांही। २३. नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुजिय-अभिमुंजिय वश करि-करि आलिंगि-आलिगि, ते सुर भोगवै नांही ।।
परियारेइ, २४. निज आतम करि ते सुर पोते, स्त्री पुरुष रूपपणेहो। २४. अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउब्बिय परियारेइ । _ विकूर्वी - विकुर्वी भोग भोगवे, निग्रंथ सुर थयु तेहो।। २५. इक पिण जीवज एक समय में, दोय वेद वेदंतो।
२५. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहाइत्थि-वेद फुन पुरुष-वेद प्रत, इम तसं वेदवू हुतो।। इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च । २६. इम परउत्थिक तणी वारता, सर्व जाणवी सोयो। २६. एवं परउत्थियवत्तव्वया णेयब्बा जाव इत्थिवेदं च, जावत् इत्थि-वेद प्रतै फुन, पुरुष-वेद प्रति जोयो।। पुरिसवेदं च।
(श० २।७६) २७. ते किम? ए प्रभु ! गोयम पूछ, तब भाखै जिनरायो।
२७, २८. से कहमेयं भंते ! एवं? जे माटै ते अन्यतीथिका, एम कहै छै ताह्यो।
गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव २८. जाव स्त्री-वेद वेद प्रतै, फून ए बिहं वेद कहायो।
इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च। इण प्रकार कर एक जीव ते, वेदै समय इक मांह्यो।। २६. जे पाखंडी ते इम भाखै, हे गोतम ! सुणवायो। २६. जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु ।
ते अन्यतीर्थी मिथ्या-खोटं, इम वचन वदै छै ताह्यो। वा०--अन्यतीर्थी नों मिथ्यापणो ते इम-पुरुष छ तिको स्त्री रूप कीधे छते वा...मिथ्यात्वं चैषामेवं-स्त्रीरूपकरणेऽपि तस्य पिण ते देव नै पुरुषपणां मारी पुरुष वेद नों हीज एक समय में विष उदय छ, पिण
देवस्य पुरुषत्वात् पुरुषवेदस्यैवैकत्र समये उदयो न स्त्रीस्त्री-वेद नों उदय नथी । अथवा वेद पलट्य छते एतले स्त्री, पुरुष नों रूप कीधे छते
वेदस्य, स्त्रीवेदपरिवृत्त्या वा स्त्रीवेदस्यैव न पुरुषस्त्री-वेद नों हीज उदय छै पिण पुरुष-वेद नों उदय नथी, माहोमाहि विरुद्ध
वेदोदयः, परस्परविरुद्धत्वादिति। (वृ०-प० १३२) भाव थी। ३०.हूं पिण गोतम ! एम कहूं छु, सामान्य थी सुविचारो। ३०, ३१. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि पण्ण
बलि विशेष थकी इम भाखू, पन्नवू हेतु करि सारो॥ वेमि परूवेमि–एवं खलु णियंठे कालगए समाणे अण्ण३१. एम परूपू भेद कहिवा थी, इम निश्चै निग्रंथो ।
यरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति-- काल किये इक देवलोक में, देवपणे उपज हंतो।। *लय—दया भगोती छ सुखदाई
श०२, उ०५, ढा०३६ २४६
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