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३२. महिड्ढिएसु जाव महाणुभोगेसु
३३. दूरगतीसु चिरठितीएसु।
वा०-देवलोएसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति। देवलोक ते देवजन मध्ये देवपण
ऊपजै । ते देवलोक कहितां देवजन केहवा छ ? इहां प्रथम देवजन नुं विशेषण कहै छ। ३२. महिड्ढिएस महाऋद्धिवंता, जसं परिवारादि रिद्धो।
जावत् महा अनुभाग अमर-जन, महा शक्तवंत समद्धो।। ३३. दूरंगतिसु ऊर्ध्व देव गति, चिर स्थितिवंता तेहो।
एहवा अमर-जन देवलोक छ, तेह विष उपजेहो।। एहवा अमर-जन देवलोक छ, तेह विर्षे सूविचारी।
ते निग्रंथ - जीव काल करि, देव हुवै अति भारी ।। ३५. महिढिए कहितां महा ऋद्धिवतो, जसं परिवारादि ऋद्धो।
जाव दशं दिश उद्योत करतो, ते सुर अधिक समद्धो।।
३४. से णं तत्थ देवे भवइ
३५. महिड्ढिए जाव दस दिसाओ उज्जोएमाणे
सोरठा इहां जाव शब्द रै माय, पाठ कह्या तसं अर्थ इम।
महाद्युति कांति सुहाय, महाबल महायश महासुखी। ३७. महाअनुभाग सुशक्त, सोभित हार हिया विषै।
कडा बहिरखा युक्त, तिण करि स्तंभित उभय भुज ।। ३८. अंगद कहितां देख, वाह नां आभरण नों।
आख्यो एह विशेख, कंडल आभरण कान नां ।। कंडल करिक मृष्ट, गल-स्थले रेखा पडै । कर्णपीठ धर श्रिष्ठ, कर्णाभरणज एह फून ।।
३६. 'महिड्ढिए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-महज्जुइए
महाबले महायसे महासोक्खे। (वृ०-५० १३२) ३७. महाणुभागे हारविराइयवच्छे कडयतुडियथंभियभुए
त्रुटिका-बाहुरक्षिका। (वृ०-५० १३२) ३८. अंगदानि—बाह्वाभरण विशेषान् कुण्डलानि–कर्णाभरणविशेषान् ।
(वृ०-प० १३२) ३६. मृष्टगण्डानि-उल्लिखितकपोलानि, कर्णपीठानिकर्णाभरणविशेषान् धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा।
(वृ०-प०१३२) ४०. 'विचित्तहत्थाभरणे विचित्तमालामउलिमउडे'
(वृ०-प०१३२)
३६.
४०. हस्ताभरण विचित्त, विचित्र माला पुष्प नी।
मस्तक विष पवित्त, मुकुट विराजै जेहने ।। ४१. कल्याणकारी मान, माल्य प्रवर उत्तम भली।
बलि विलेपन जान, धरणहार छै तेहनो।। देदीप्यमान शरीर, फून प्रलंब वनमाल धर । दिव्य वर्ण करि हीर, करै उद्योतज दश दिशा ।। दिव्य गंध करि देख, दिव्य रस दिव्य फर्श करि। दिव्य संघयण विशेख, पुद्गल शक्ती रूप ए।। दिव्य संस्थान करेह, दिव्य ऋद्धि परिवार करि । दिव्य युति करि जेह, वंछित-अर्थ-संयोग ए॥ दिव्य प्रभा दीपंत, ते यानादि विमान करि। फुन दिव्य छाया हुंत, ए उत्तम शोभा करी।। दिव्य अचि सुविशाल, रत्नादिक तन में रहा।
तास तेज जे ज्वाल, तिण करिनै उद्योत अति ।। ४७. दिव्य तेज करि तेह, एह किरण तनु नी कही।
दिव्य लेश फुन जेह, शरीर नै वर्णे करी॥
४४. ऋद्धि:-परिवारादिका, युतिः–इष्टार्थसंयोगः ।
(वृ०-प० १३२) ४५. प्रभा-यानादिदीप्तिः, छाया-शोभा।
(वृ०-५० १३२) ४६. अच्चि:-शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला, तेजः-शरीराचिः ।
(वृ०-प० १३२) ४७. लेश्या-देहवर्णः।
(वृ०-प० १३२)
२५० भगवती-जोड़
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