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________________ ४८. एकार्था वैते। ४८. जुओ - जुओं अर्थ एह, पूर्वे भाख्या शब्द नों। वलि एकार्थपणेह, जाव शब्द में ए कह्या॥ (वृ०-६० १३२) ४६, ५०. दस दिसाओ उज्जोएमाणे पभासेमाणे पासाइए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरुवे। वा०-'पासाइए' द्रष्ट्रणां चित्तप्रसादजनक: 'दरिसणिज्जे' यं पश्यच्चक्षुर्न थाम्यति 'अभिरूबे' मनोज्ञरूप: 'पडिरूवे' त्ति द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्य स तथेति । (वृ०-प० १३२, १३३) ५१. से णं तत्थ अण्णे देवे, अण्णेसि देवाणं देवीओ अभि जुंजिय-अभिमुंजिय परियारेइ, वा०-'से णं' ति असौ निग्रंथदेवः 'तत्र' देवलोके 'नो' नैव 'अण्णे' ति अन्यान् आत्मव्यतिरिक्तान् 'देवान्' सुरान् । तथा नो अन्येषां देवानां सम्बन्धिनीर्देवीः 'अभिजुंजिय' त्ति 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति' परिभुक्ते। (वृ०-५० १३२) ४६. *दस दिश में उद्योत करतो, उद्योत तेह प्रकाशो। बलि दस दिश में शोभ रह्यो सुर, ए निग्रंथ जीव विमासो।। ५०. जाव पडिरूवे प्रतिरूप सुर, जाव शब्द में जाणी। पासाइए दरिसणिज्जे कह्यो छै, फुन अभिरूप पिछाणी ।। वाo.-पासाइए--देखणहार नों चित्त प्रसन्न करणहार, दरिसणिज्जे-जे प्रत देखता छतां चक्षु खेद न पामै, अभिरूवे-मनोज्ञ रूप छ, पडिरूवे-देखणहार देखणहार प्रतिरूप छै जेहन, एतल जोइवा जोग्य छै। ५१. तेह निग्रंथ तिहां अन्य देवे, अन्य सुर नी देवी प्रति त्यांही। आलिगी-आलिंगी वश करि-करि, परिचारणा करि ज्यांही।। वा.....'सेणं तत्थ कहितां' ते तिहां अण्णे देवे कहितां अन्य देव प्रतै, अण्णेसि देवाणं देवीओ कहिता अनैरा देव नी देवी प्रतै, अभिजुजिय-अभिजुजिय कहितां वश करी-करी तथा आलिंगी-आलिंगी, परिचारणा करै-भोगवै ए प्रथम अर्थ । ___इहां अनैरा देव प्रति भोगवं एहबू अर्थ कीध केई कहै—ए पश्चिम द्वारीपर्यु हुवै । पिण ए निग्रंथ न जीव इसो महद्धिक देवता एहवं करिवा अयोग्य कार्य किम करै? ते माटै अन्य देव थी पश्चिमद्वारी बिना मुखादिक नी कुचेष्टा रूप परिचारणा कर, इम हुवै ते पिण ज्ञानी जाण । अथवा 'सेणं--ते निग्रंथ न जीव तेहिज 'तत्थ'--तिहां देवलोक नै विष 'अण्णे देवे'-अन्य देव छ तिको 'अण्णे देवाणं देवीओ'-अनेरा देव नी देवी प्रत बश करी तथा आलिंगी भोगवै ए दूजो अर्थ । जद कोई पूछै निग्रंथ ना जीव नै अन्य देव किम कह्यो? तेहनों उत्तर-जे अनेरा देव नी देवी प्रति भोगव ते देवता नी अपेक्षाय ए निग्रंथ नुं जीव अन्य देव छ । ते अनेरा देवता नी देवी प्रतै भोगबै, एहवू अर्थ हुवे ते पिण ज्ञानी जाण । निज पोतानी देवी प्रत पिण, आलिगी-आलिंगी तेहो। वश करी-करी भोगवे, जीव निग्रंथ न जेहो।। ५३. आपणपैज निजात्म प्रतै ते, इत्थि पुरुष नों रूपो। विकुर्वी-विकुर्वी भोगवै नांही, सुर वर तेह अनूपो।। वाल-अथ यहां कह्यो आपको रूप विकुर्वी ने आप परिचारणा नहीं कर-एहनों ए परमार्थ-एक समय बे वेद नहीं वेदै, तिण आधी कह्यो छै बाकी तो आपको रूप विकुर्वी नै परिचारणा कर छ। इक पिण जीव जे एक समय में, एकज वेद वेदंतो। इत्थि-वेद प्रतै अथवा ते, परिस वेद - प्रति मंतो।। जेह समय विष इत्थि-वेद प्रति, वेदै भोगवै ज्यांही। तेह समय विर्ष पुरुष-वेद प्रति, वेदै भोगवै नांही ।। जेह सभय विष पुरुष-वेद प्रति, वेदै भोगवं जेहो। तेह समय विप इत्थि-वेद प्रति, वेदै भोगवै न तेहो।। *लय-दया भगोती छ सुखदाई भ ५२, ५३. अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुजिय-अभिमुंजिय परियारेइ, नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्बिय-विउब्विय परियारेइ। ५४. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेदेइ, तं जहा-इत्थिवेदं वा, पुरिसवेदं वा। ५५, ५६. जं समयं इत्थिवेदं वेदेइ नो तं समयं पुरिसवेदं वेदेइ। जं समयं पुरिसवेद वेदेइ नो तं समयं इत्थिवेदं वेदेइ। श०२, उ०५, ढा०३६ २५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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