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________________ ५७. ५८. ACC इत्थि-वेद ना उदय करी नैं, पंवेद भोगवै नांही। पुरुष-वेद ना उदय करी ने, न भोगवै स्त्री-वेद त्यांही ।। इम निश्च करि नैं इक जंतू, एक समय रै मांह्यो। एक वेद प्रतै वेदे अछ, ते स्त्री तथा पुरिस कहायो । स्त्री छै ते स्त्री-वेद उदय थयां थी, पुरुष प्रत वांछंतो। पुरुष छै ते पुरुष-वेद उदय थयां, स्त्री तणी वांछा करतो। ए बिहुं मांहो मांहै इम वांछ, स्त्री पुरुष प्रतै जाणी। अथवा पुरिस वांछे इत्थि प्रति, ए जिन वयण पिछाणी ।। देश पचीसमां अंक तणो ए, गुणचालीसमी ढालो। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति मालो।। ५७. इत्थिवेदस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेदेइ, पुरिसवेदस्स उदएणं नो इत्थिवेदं वेदेइ । ५८. एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेदेइ, तं जहा-इत्थिवेदं वा, पुरिसबेदं वा। ५६. इत्थी इथिवेदेणं उदिण्णणं पुरिसं पत्थेइ । पुरिसो पुरिसबेदेणं उदिण्णणं इत्थि पत्थेइ। ६०. दो वि ते अण्णमण्णं पत्थेति, तं जहा—इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थि। (श० २८०) ढाल : ४० पूर्वे परिचारण कही, परिचारण थी जाण । गर्भ हुवै मनु तिरि तणे, गर्भ प्रश्न हिव आण ।। उदक गर्भ भगवंत जी ! कालान्तर करि ताम । जल वर्षण हेतु जिको, पद्गल नो परिणाम ।। ते उदक-गर्भ इम काल थी, कितो काल हजास। जिन कहै इक समयो जघन, उत्कृष्टो षट् मास ।। १. परिचारणायां किल गर्भः स्यादिति गर्भप्रकरणम् । (वृ०-५० १३३) २, ३. उदगम्भे णं भंते ! उदगब्भे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा ! जहणणं एक समयं, उक्कोसेणं छम्मासा॥ (श०८१) २. तत्रोदकगर्भ:-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः । (वृ०-प० १३३) ४. अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशाखान्तेषु सन्ध्यारागमेघोत्पादादिलिंगो भवति। (वृ०-प० १३३) वत्तिकार कह्यो मगसिरे, पोष प्रमुख रै मांहि। अंत वैशाख विषै हुवै, संध्या-रागादि ताहि ।। *सूरिजन ! थी जिन-वच सुखदाई। (ध्रुपदं) ५. तिर्यंचणी गर्भ हे भगवंत जी ! तिर्यंचणी गर्भपणेह । काल थकी कितो काल हुवै ए, गर्भ विष रहै एह रे ।। श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतर्मुहर्त कहाइ। उत्कृष्टो ते आठ वर्ष लग, रहै गर्भ रै मांहि ॥ गर्भ मनुष्यणी नों हे भगवंत जी!, मणुस्सी गर्भपणेह । काल थकी ए किता काल लग, गर्भ विष रहै जेह ? श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतर्मुहर्त कहाय । उत्कृष्टो ते बार वर्ष लग, गर्भ विषै रहिवाय ।। ५.तिरिक्खजोणियगम्भे णं भंते ! तिरिक्खजोणियगब्भे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? ६. गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराई। (श० २०८२) ७. मणुस्सीगभे णं भंते ! मणुस्सीगब्भे त्ति कालओ केबच्चिर होइ? ८. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं। (श० २।८३) *लय-आधाकर्मी थानक मैं साधु रहै २५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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