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________________ ६. काय - भवस्थ हे भगवंतजी ! काय - भवस्थपणेहे। काल थकी किता काल लगै ए रहै, गर्भ नां तनु नै विषेहे ।। वा०-काय-भवस्थ किण नै कहिय ? काय ते माता ना उदर नै विषे रह्यो जे निज शरीर, भव कहितां जन्म ते काय-भव । तेहनै विषै रहै कायभवस्थ । ते काय भवस्थ इम एणे पर्याये करी। एतलै माता नां उदर नै विषै गर्भ नो शरीर तेहनै विष जीव कितो काल रहै ? १०. श्री जिन भाखै जघन्य थकी ए, अंतमहतं कहीव । उत्कृष्टो जे वर्ष चउवीसज रहै, गर्भ नां तनु विषै जीव ।। ६. कायभवत्थे णं भंते ! कायभवत्थे त्ति कालओ केवच्चिर होइ? वा....काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो-जन्म स कायभवस्तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्थः, स च कायभवस्थ इति, एतेन पर्यायेणेत्यर्थः । (वृ०-प० १३३) १०. गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीस संवच्छराई। (श० २०८४) ११. १२. ११, १२. स्त्रीकाये द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मि नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुर्विशतिवर्षाणि भवन्ति । (वृ०-प० १३३) इम सोरठा स्त्री नां उदर विषेह, गर्भ विष वर्ष बार रही। मरि निज तनु उपजेह, बार वर्ष बले ते रहै ।। इम चउबीसज वास, जे माता नां उदर में। गर्भ शरीरे जास, जीव रहै उत्कृष्ट थकी।। केइ कहै वर्ष वार, रही वली अन्य बीज करि। तेहिज शरीर मझार, उपजी द्वादश वर्ष स्थिति ।। १४. *मनुष्य पंचेंद्रिय तिर्यंच नै प्रभु, बीज ते वीर्य कहाय । अणविणठो जे योनि विर्ष छ, ते कितो काल रहिवाय? १५. जिन कहै अंतर्महतं जघन्य थी, उत्कृष्ट मुहर्त बार। तिहां लग सन्नी मनु तिरि उपजे, पछै सन्नी न ऊपजै लिगार ।। १६. एक जीव प्रभ! इक भव मांहै, केतला नो कहिवाय । पत्रपणे शीघ्र आवी उपजै, किता पिता तणो पुत्र थाय ? १७. श्री जिन भाखै जघन्य एक नों, तथा बे त्रिण नो सुत थाय। उत्कृष्ट पृथक्-सौ नों सुत है, एतले जनक पृथक्-सौ ताय ।। १३. केचिदाहु:--द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजेन तच्छरीरे उत्पद्यते, द्वादशवर्षस्थितिरिति । (वृ०-५० १३३) १४. मणुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते ! जोणि भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ ? १५. गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। (श०२।८५) १६. एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ? १७. गोयमा ! जहण्णेणं इक्कस्स वा दोण्ह वा तिण्ह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमा. गच्छंति। (श० २।८६) १८. सोरठा मनुष्य अनै तिर्यच, तसं वीर्य ते बीज छै। बार मुहतं लग संच, योनिभूत रह्य योनि में ।। पृथक - सौ नों जेह, बीज हीज वीरज तिको। गाय प्रमुख नी तेह, योनि विष पैलु रह्य ।। ते बीज-समुदाये ताय, एक जीव कोइ ऊपजै। तेह जीव कहिवाय, सर्व तणो सुत हतिको ।। ते माटे इम ख्यात, उत्कृष्ट पृथक्-सी तणो। पुत्र तेह विख्यात, पिता पृथक्-सौ इम हुवै ।। २०. १८. मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादश मुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति । (वृ०-प० १३४) १६. ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव। (वृ०-१० १३४) २०. तत्र च बीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां ___ बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवति। (वृ०-५० १३४) २१. अत उक्तम्-उक्कोसेणं 'सयपुहत्तस्से' त्यादि। (वृ०-प०१३४) . *लय-आधाकर्मो थानक में साधु रहै श०२,उ०५,ढा०४० २५३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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