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जिन कहै-हंता, अस्थिर पलटै, पाषाणादिक ताय। अस्थिर-ऊंधा-सुंधा होवै, एम पलटवू थाय ।। अध्यात्म चितवन विषै तो, अस्थिर कम पिछाण। जीव-प्रदेश थकीज चल्यं ते, निर्जरिवू पलटाण।। स्थिर जे शिला प्रमुख नहि पलट, अध्यात्मे स्थिर जीव । कर्म क्षये पिण जीवपणु नहिं पलट एह सदीव ।।
अस्थिर-भंगुर स्वभाव तृणादि भाजै बे दल थाय । अध्यात्मे अस्थिर कर्म भाजे, चल्यो थको झड़ जाय ।।
१६. हंता गोयमा! अथिरे पलोदृइ,
'अथिरे' ति अस्थास्नु द्रव्यं लोष्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते।
(वृ०-प०१०२) २०. अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रति
समयचलनेनास्थिरत्वात् 'प्रलोटयति' बन्धोदयनिर्जरणादिपरिणामैः परिवर्तते ।
(वृ०-५०१०२) २१. नो थिरे पलोट्टइ।
'स्थिरं' शिलादि न प्रलोटयति, अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थितत्वात्, नासी 'प्रलोटयति' उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते।
(वृ०-५० १०२) २२. अथिरे भज्जइ, 'अस्थिर' भंगुरस्वभावं तृणादि भज्यते' विदलयति, अध्यात्मचिन्तायामस्थिर कर्म तद् ‘भज्यते व्यपैति ।
(वृ०-प० १०२) २३. नो थिरे भज्जइ।
'स्थिरम्' अभंगुरमय:-शलाकादि न भज्यते, अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः स च न भज्यते शाश्वतत्वादिति ।
(व-प०१०२) २४. सासए बालए, बालियत्तं असासयं ।।
'सासए बालए'त्ति बालको व्यवहारतः शिशुनिश्चयतोऽसंयतो जीवः स च शाश्वतो द्रव्यत्वात, 'बालियत्तं' ति व्यवहारतः शिशुत्वं निश्चयतस्त्वसंयतत्वं तच्चाशाश्वतं पर्यायत्वादिति।
(वृ०-५०१०२) २५. सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं। (श०११४४०)
एवं पंडितसूत्रमपि, नवरं पंडितो व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः, निश्चयतस्तु संयत इति। (वृ०-५० १०२)
स्थिर ते लोह--शलाका प्रमुख, अभंगुर नहि भंजाय। अध्यात्मे स्थिर जीव न भाजै, द्रव्य जीव पेक्षाय ।।
२४.
बाल सासत असजती नां, द्रव्य जीव अपेक्षाय । बालपणुं तो असासतूं छै, कदे पंडित को थाय ।।
२५. पंडित सासतूं संजति नु, द्रव्य जीव अपेक्षा जोड़।
पंडितपणुं असासतो कहिय, देश ऊणो पुब्ब कोड ।।
इतले द्रव्य जीव ते सासत, द्रव्य तणी पर्याय ।
आवै जावै भाव जीव ते, असासतूं इण न्याय ॥ २७. सेवं भंते अंक गुनोसम, अष्टवीसमी ढाल। भिवखु भारीमाल ऋपराय प्रसाद, 'जय-जश' संपति माल ।।
प्रथमशते नवमोद्देशकार्थः ।।१।६।।
२७. सेवं भंते ! सेवं भते ! ति जाव विहरइ।
(श० ११४४१)
ढाल : २६
१. अनन्तरोद्देशकेऽस्थिरं कर्मत्युक्तं, कर्मादिषु च कुतीथिका विप्रतिपद्यन्ते अतस्तद्विप्रतिपत्तिनिरासप्रतिपादनार्थः ।।
(वृ० १० १०२)
दूहा नवम उदेशक अंत में, अस्थिर कर्म विचार ।
कर्म विर्ष अन्यतीर्थी तेहन प्रश्न प्रकार ।। भूछे गोयम गणहरू (ध्रुपदं) २. अन्यतीर्थी प्रभु ! इम कहै, चलिवा लागो चल्यूं नहीं कहिणो रे।
जाव निर्जरिवा लागो तम, अनिर्जरयो कहै वयणो रे॥ *लय-इंद्र कहै नमिरराय ने
२. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-- एवं खलु चलमाणे अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे।
१८२ भगवती-जोड़
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