SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education International सम्पादन का इतिवृत्त आगम साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है भगवती, जो विआहपण्णत्ति या व्याख्याप्रज्ञप्ति के नाम से भी पहचाना जाता है। यह एक बृहत्तम आकर ग्रन्थ है। आकार में यह सब आगमों से वृहत् है, उसी प्रकार इसका प्रतिपाद्य भी सर्वाधिक बहु-आयामी है। भगवती के व्याख्या-ग्रन्थों में वृत्ति, टब्बा, चूर्णि यन्त्र, जोड आदि कई उल्लेखनीय व्याख्याएं हैं । वृत्ति मुद्रित है और उसकी प्रतियां सुलभ हैं। टब्बा, चूर्णि और यन्त्र उपलब्ध हैं, पर मुद्रित नहीं है, इसलिए सहज सुलभ नहीं है। भगवती जोड की हस्तलिखित प्रतियां तेरापन्थ धर्मसंघ के भंडार में सुरक्षित है। भगवती जी के रचयिता है तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद जयाचा उन्होंने अपने जीवन में साहित्य की जो जल धारा बहाई र साहित्यकार ही वहा सकते हैं। उनकी साहित्यिक चेतना का मूल केन्द्र राजस्थानी भाषा रहा है। उन्होंने साढ़े तीन लाख पद्य परिमाण साहित्य का सृजन कर राजस्थानी साहित्य को समृद्ध ही नहीं बनाया, एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया । जयाचार्य की साहित्यिक कृतियों में 'भगवती जो सर्वाधिक बड़ी कृति है। भगवती सूत्र का राज स्थानी भाषा में पद्यानुवाद कोई सरल काम नहीं है, पर जयाचार्य ने उसे जिस सहजता से सम्पादित किया है, आश्चर्य का विषय है। लगभग सोलह हजार ग्रन्थाग्र वाले भगवती सूत्र को उन्होंने साठ हजार पद्यों में विश्लेषित कर भगवती सूत्र के मूल प्रतिपाद्य को तो सुबोध बनाया ही, यत्र-तत्र आलोच्य विषयों पर छोटीबड़ी समीक्षाएं लिखकर हर विषय को स्पष्ट और संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास किया। जिन तथ्यों के सम्बन्ध में वृत्तिकार के साथ उनकी सहमति नहीं थी, उसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया और असहमत पक्ष पर तर्क प्रस्तुत कर अपने मन्तव्य का प्रतिपादन किया है। कुल मिलाकर भगवती-जोड़ एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी तुलना में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं आ सकता । आचार्यवर के सान्निध्य में जयाचार्य के साहित्य पर काम करने की दृष्टि से गोष्ठियां चलीं। काम का विभाजन हुआ। अनेक साधु-साध्वियों और विद्वानों को कार्यभार सौंपा गया। मैं उस समय 'भगवती' का हिन्दी अनुवाद कर रही थी। इस दृष्टि से मुझे भगवती का काम सौंपा गया। क्या काम करना है? कैसे करना है ? इस सम्बन्ध में उस समय कुछ निर्णय नहीं हुआ। कुछ समय बाद आचार्यश्री ने कहा- "भगवतीजोड़ का सम्पादन करना है।" इस निर्देश के बाद मैंने एक दिन भगवती-जोड़ की हस्तलिखित प्रति देखी, काम दुरूह लगा। इस सम्बन्ध में आचार्यवर से निवेदन किया तो आपने कहा- यह काम तुम मेरे साथ बैठकर करना । मेरी समस्या समाप्त हो गई। द्वितीय ज्येष्ठ कृष्ण नवमी वि० सं० २०३७ को प्रवचन सम्पन्न होने के बाद 'भगवती-जोड़' का वाचन शुरू किया। उस दिन आचार्यश्री और युवाचार्य श्री दोनों का युगपत सान्निध्य प्राप्त हुआ । वाचन शुरू करने के साथ ही आचार्यवर ने चिन्तन दिया--जोड़ जिस रूप में है, उसी रूप में वह जनता के हाथों में पहुंचेगी तो अधिक उपयोगी नहीं हो सकेगी। जोड़ के सामने आगम और वृत्ति के उन स्थलों को, जिनके आधार पर जोड़ की गई है, उत कर दिया जाए तो जगत् में इसकी उपयोगिता बहुगुणित हो सकती है। अभी हम प्रथम शतक को इस रूप में प्रस्तुत कर देख लें कि यह काम कैसा होता है। आचार्यश्री का यह चिन्तन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy