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________________ ३६. m ३६. पत्तवुट्ठी इ वा, पुप्फबुट्ठी इ वा, फलवुट्ठी इ वा, वीय बुट्ठी इ बा, मल्लवुट्ठी इ वा, वण्ण वुट्ठी इ वा, ४०. चुण्ण बुट्ठी इ वा, गंधवुट्ठी इ वा, वत्थवुट्ठी इ वा. ४०. पत्र फल फल वीज नों, गॅथ्या फूल नी माल। वर्ण तेह चंदन तणी, वृष्टी अधिक निहाल ।। चर्ण ते गंध द्रव्य नीं, कोप्टपुडादि गंध । वस्त्र तेह कपडा तणो, वृष्टी अधिक प्रबंध ।। चीर-वृष्टि किणहि परत में, चीर वहुमूल्य ताय । वत्थ पाठ अल्प मूल्य ते, पिण नहीं छै वृत्ति माय ।। भाजन नी वृष्टि हुवै, खीर वृष्टि पिण थाय । अल्प तास वर्षा कही, वृष्टि महा कहिवाय ।। ४३. बलि सुकाल दुकाल ह्व, वस्तु अल्प-मूल्य होय । वलि वस्तु महामूल्य ह, जाणे वेसमण सोय ।। सभिक्ष भिक्षा सोहरी मिलै, दुर्भिक्ष दुर्लभ तेह। क्रय विक्रय व्यापार नों, तास कुबेर जाणेह ।। ४५. सन्निधि संचय घतादिक तणों, धान्य न संचय जान । संचय लक्षादि द्रव्य नों, ते निधे संचय मान ।। निधान ते भूमि रह्या, बहु द्रव्य संचय सोय। ते निधान के हवा अछ, सांभलज्यो सहु कोय ।। ४२. भायणवुट्ठी इ वा, खीरवुट्ठी इ वा, वर्षोऽल्पतरो वृष्टिस्तु महतीति वर्षवृष्ट्योर्भेदः । (वृ०-५०२००) ४३. सुकाला इ वा, दुक्काला इ वा, अप्पग्घा इ वा, महग्धा इवा, ४४. सुभिक्खा इ वा, दुब्भिक्खा इ वा, कयविक्कया इवा, 'सुभिक्खाइ व' ति सुकाले दुष्काले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धयः दुभिक्षास्तूक्तविपरीताः। (वृ०-प० २००) ४५. सण्णि ही इ वा, सण्णिचया इ वा, निही इ वा, 'संनिहि' त्ति घृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचय' त्ति धान्यसञ्चयाः 'निहींइव' ति लक्षादिप्रमाण द्रव्यस्थापनानि। (वृ०-प० २००) ४६. निहाणाइ वा 'निहाणाई व त्ति भूमिगतसहस्रादिसंख्यद्रव्यस्य संचया: कि विधानि? इत्याह (वृ०-प० २००) ४७. चिरपोराणाइ वा, 'चिरपोराणाई' ति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि। (वृ०-प० २००) ४८. पहीणसामियाइ वा 'पहीणसामियाई' ति स्वल्पीभूतस्वामिकानि । (वृ०-प० २००) ४६. पहीणसेतुयाइ वा, 'पहीणसे उयाई' ति प्रहीणाः---अल्पीभूताः सेक्तार:सेचक:-धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा। (वृ०-५० २००) ५०. पहीणमग्गाइ वा, ४७. चिर पोराणाई कह्या, घणां काल नां जेह। थाप्या ते जना थया, तेहिज हिवै कहेह ।। ४८. पहीणसामियाइं वली, धन नां स्वामी जाण । स्वल्पीभूत थया अछ, त्यां ने जाणे कुबेर सुजाण ।। ४१. पहीणसे उयाई बली, धन ना घालण हार। सेवग तेह रह्या नहीं, अल्पीभूत अपार ।। ५०. पहीण मग्गाई वली, मारग पिण थया हीन। अल्पीभूत थया तिकै, जाणे कुबेर सुचीन । पहीणगोत्ताकार कह्या, धन नां स्वामी कथीन । मनुष्य तणा जे गोत्र नां, घर नों थयो प्रक्षीन ।। ५१. ५१. पहीणगोत्तागाराइ वा, 'पहीणगोत्तागाराई' ति प्रहीणं-विरलीभूतमानुषं गोत्रागारं-तत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि तथा। __ (वृ०-५० २००) श०३, उ०७, ढा०७१ ४०७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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