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________________ उच्छपण सामियाइं कह्या, धन नां स्वामी जेह। यथा बिच्छेद अत्यंत ही, निःसत्ताक ते लेह ।। ५२. उच्छण्णसामियाइ वा, 'उच्छिन्नसामियाई' ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि । (वृ०-प० २००) ५३. उच्छण्णसेतुयाइ वा, ५४. उच्छण्णगोत्तागारा इ वा उच्छण्णसेउयाई वली, धन ना घालणहार। ते पिण उच्छेद पाम्या अछ, ते सेवग न रह्या लिगार ।। उच्छण्णगोत्ताकारा कह्या, धन नां स्वामी वेद । मनुष्य तणा जे गोत्र नां, घर नों थयो विच्छेद ।। सिंघोडा ने आकारे स्थान छ, विक चउक चिउं पंथ । चच्चर ते बहु पंथ नै, गाडी धन नी ग्रंथ ।। बले चतुर्मुख स्थानके, महापंथ में जान। नगर तणां खाला विर्ष, जल नीकलवा ने स्थान ।। ५५. सिंघाडग तिग-च उक्क-चच्चर वलै मसाण-घर नां विषै, गिरि ऊपर घर जान। कंदर गुफा घर नै विर्ष, शांति-कर्म नों स्थान ।। शैल पाषाणघर ढांकियो, आस्थान मंडप जोय । तथा बैसवा नां घर विषै, गाड्यो धन अवलोय ।। ५६. चउम्मुह-महापह-पहेसु वा, नगरनिद्धमणेसु वा, 'नगरनिर्द्धमनेषु' नगर-जलनिर्गमनेषु । (वृ०-५० २००) ५७, ५८. सुसाण-गिरि - कन्दर-संति - सेलोवट्ठाण-भवण - गिहेसु संनिक्खित्ताई चिट्ठति, गृहशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् श्मशानगृहं-पितृवनगृह गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं कन्दरगृहं-गुहा शातिगृहशांतिकर्मस्थानं, शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं उप स्थानगृहं-आस्थानमण्डपः। (वृ०-प० २००) ५६. भवनगृह-कुटुम्बिवसनगृहमिति। (वृ०-५० २००) ६०. न ताई सक्कस्स देविंदस्स देवरणो बेसमणस्स महा रण्णो अण्णायाइं अदिट्ठाई ६१. असुयाई अमुयाई कुटंब बसिवा नां घर भणी, भवनघर कहिवाय । इहां स्थानक धन गाडियो, जाण बेसमण राय ।। तास अजाणपणे नहीं, अनुमान नी अपेक्षाय । प्रत्यक्ष नी अपेक्षा करी, अणदीठा नहिं ताय ।। पर वचने द्वारे करी, अणसुणिया नहि कोय । असमरवै करी नहीं, मन नी अपेक्षा जोय ।। अविज्ञातपण नहीं, अवधि तणी अपेक्षाय। तथा वेसमण जाति नां, तेहनै छाना नाय ।। शक सुरिन्द्र तणो अछ, महाराय कुबेर नै सोय । पुत्र-स्थानक ए देवता, विनयवंत अति होय ।। पूर्णभद्र नामै भलो, माणिभद्र महिमान । सालिभद्र सुखकारियो, सुमनभद्र सुख-स्थान ।। चक्ररक्ष चारू घणो, पूर्णरक्ष प्रसिद्ध। सर्वाण नै सर्वजश कह्यो, सर्व काम समृद्ध ।। अमोह देव असंग वलि, शक्र सुरिन्द्र नां हेव । वेसमण महाराय रे, पुत्र-स्थान ए देव ।। स्थिति वेसमण राय नीं, दोय पल्योपम जान । पुत्र-स्थानक ते देव नीं, एक पल्योपम मान । ६२. अविण्णायाई तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं । (श० ३।२६८) ६३. सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो देसमणस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा६४. पुण्णभद्दे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे ६५. चक्क रक्खे पुण्ण रक्खे सवाणे सव्वजसे सब्वकाये समिद्धे ६६. अमोहे असंगे। (श० ३।२६६) ६७. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो दो पलिओवमाई ठिई पण्णता। अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। ४०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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