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________________ गोयमजी! हो वीर प्रभु इम वागरे, वागरै अमृत वाण । (ध्रुपदं) एकांत बाल मनुष्य तिको, नरक आयु पकरंत । निर्यच मनुष्य ने देव नु, आउखो ते बांधत ।। नरक आउखो बांधी करी, नरक विषै उपजंत । तिरि मणु देव आयु करि, तिरि मणु सुरपण हुंत ।। प्र० ! एकांत पंडित संजती, स्यू नरक आयु पकरंत ? यावत् सुर आयु करी, देवलोके उपजंत ? गो० ! एकांत पंडित मनुष्य ते, कदाच आयु पकरत । कदाच आयु बांधे नहीं, जो बांधै तो देवायु बंधंत ।। प्र०! किण अर्थे सुर बंध कह्य ? तब भाखै जिन भाण। गो० ! एकांत पंडित मनुष्य नै, निकेवल बे गति जाण ।। अंतक्रिया शिवपद लहै, अथवा कल्प उपपात । कल्प शब्द सामान्य थी, वैमानिक विख्यात ।। ४. गोयमा ! एगंतबाले णं मणुस्से नेरइया उयं पि पकरेति, तिरिया उयं वि पकरेति, मणुस्साउयं पि पकरेति, देवा उयं पि पकरेति, ५. नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, मणुस्साउयं किच्चा मणुस्सेसु उववज्जति, देवा उयं किच्चा देवलोगेसु उबवज्जति। (श० ११३५६) ६, ७. एगंतपंडिए णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउयं पकरेति ? जाब देवाउयं किच्चा देवलोएसु उववज्जति ? गोयमा ! एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेति, सिय णो पकरेति, जइ पकरेति...देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति। (श० ११३६०) ८, ६. से केणठेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उबवज्जति ? गोयमा! एगंतपंडियस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गतीओ पण्णायंति, तं जहा-अंतकिरिया चेव, कप्पोबवत्तिया चेव। (श० ११३६१) ६. कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽ वासाभिधायक इति। (वृ०-६० ६१) १०. बालपंडिए णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति ? ११. गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से णो नेरइयाउयं पकरेति... देवाउयं किच्चा देवेसु उबवज्जति। (श० १।३६२) १२-१४. से केणठेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उवव ज्जति ? गोयमा ! बालपंडिए ण मणुस्से तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरिय धम्मियं सुबयणं सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ, प्र० ! बाल-पंडित मण थावक, स्यं नरक आयू पकरंत ? जाव देवायु बांधी करी, देव विष उपजंत? गो० ! नरक तिर्यंच मनुष्य तणु, आउखो नहीं बांधत । जाव देवायु बांधी करी, देव विषै उपजत ।। प्र०! किण अर्थे जाव सुर तणु, आयु बांधी सुर थाय? वीर कहै सुण गोयमा ! बाल-पंडित ने न्याय ।। गो०! तथारूप श्रमण माहण कन, इक पिण आर्य उत्तम्म। धर्म संबंधी भला वचन नै, सुण दिलधारी निसम्म ।। गो०! देश ते स्थूल हिंसादिक थकी, निवर्यो विरति विचार। देश स्थावर हिंसा थकी निवयों नहीं तिणवार ।। देश ते स्थल हिंसादिक तणां, कीधा तिण पचखाण। देश स्थावर हिंसादिक तणां, त्याग न कीधा जाण ॥ १४. १५. देसं पच्चक्खाइ, देसं णो पच्चक्खाइ। एकान्त बालत्व की दृष्टि से सभी एकान्त बाल समान हैं, फिर भी वे महाआरंभ, उन्मार्ग-देशना, कषाय की अल्पता और अकाम निर्जरा आदि अपने-अपने हेतुओं के कारण क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति का आयुष्य बांधते हैं। अविरत-सम्यक्दृष्टि एकान्त बाल है, इसलिए उसके भी उपर्युक्त चारों गतियों में आयुष्य का बंध होना चाहिए, किन्तु वह केवल देवगति का ही आयुष्य बांधता है; क्योंकि भगवती शतक ३०।२६ में कहा है-क्रियावादी-सम्यग्दृष्टि मनुष्य केवल एक वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधता है। १६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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