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________________ १३६. सतरम शत विख्यात, उद्देश धुर श्रावक भणी। संजतासंजती ख्यात, बालपंडित वलि आखियो।' (ज० स०) १४०. *असंजती रै चउ क्रिया, अधिको ए अपचक्खाण । मिच्छदिट्टी समामिच्छदिट्टी, पंच - पंच पहिछाण ।। १४१. मनुष्य नेरइया नी परै, पिण इतलो फेर विचार । महा-तनु बहु द्रव्य आहार ल, आहच्च-कदाचित आहार ।। १४२. अल्प-तनु अल्प द्रव्य आहार लै, अभिक्खणं बार-बार । शेष नारकी नीं परै, जाव वेदना विचार' । १४३. वृत्तिकार का नारकी, महा-तनु अभिक्खणं आहार। मनुष्य सूत्रे महा-तनु, आहच्च आहार प्रकार ।। १४४. महा - तनु देवकुर्वादिक, कदाचित् ले आहार । कवल आहार अपेक्षया, अट्ठम भक्त उदार ।। १४५. अल्प-तन मनुष्य अभिवखणं, अल्प द्रव्य देखो बाल । बलि समुच्छिम निरंतर लिय, बार - बार ते न्हाल ।। १४६. पूर्व ऊपनां मनुष्य ते, सुद्ध वर्णादिक गम्म । तरुणपणे क्रांति अति हुवै, तथा समुच्छिम पेक्षा प्रथम्म ।। १४७. पूर्व ऊपना मनुष्य रे, तसु पुद्गल समुच्छिम । पछै ऊपना तेहनी, अपेक्षाय अवगम्म ।। १४८. हे भदंत ! सर्व मनुष्य ते छै सम - किरियावंत । जिन कहै-अर्थ समर्थ नहीं, किण अर्थे ? गोयम पूछंत ।। १४६. जिन कहै-मनुष्य त्रिविध कह्या, समदृष्टि पहिछाण । मिथ्यादृष्टि मनुष्य बलि, सममिच्छदिट्ठी जाण ।। १४०. असंजयाणं चत्तारि । मिच्छदिट्ठीणं पंच । सम्मामिच्छदिट्ठीणं पंच। (श० १।८५) १४१, १४२. मणुस्सा जहा णेरड्या नाणत्तं जे महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति आहच्च आहारेति । जे अप्पसरीरा ते अप्पतराए पोग्गले आहारैति अभिक्खणं आहारेति, सेसं जहा नेरइयाणं जाब वेयणा। (श०१८६-६५) १४३-१४६. 'अभिक्खणं आहारती' त्यधीतम्, इह तु आहच्चे' त्यधीयते, महाशरीरा हि देवकुर्बादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' त्ति-वचनात्, अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्प च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूच्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसम्भवाच्च, यच्चेह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादि तत्तारुण्यात् संमूच्छिमापेक्षया वेति। __(वृ०-५० ४४, ४५) १४८, १४६. मणुस्सा णं भंते ! सब्बे समकिरिया ? गोयमा ! नो इणठे समठे। से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-मणुस्सा नो मब्वे समकिरिया ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी । (श०१६६, ६७) १५० ,१५१. तत्थ णं जे ते सम्म दिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजया, अस्संजया, संजयासंजया। तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सरागसंजया य, बीत रागसंजया य। तत्थ णं जे ते बीत रागसंजया, ते णं अकिरिया। १५०. समदृष्टि त्रिविध कह्या, सजती नवगुण' इष्ट । संजतासंजती पंचम, असंजती समदृष्ट । १५१. सजती ते द्विविध कह्या, सराग नै वीतराग। वीतराग रै नहि क्रिया, आरंभियादि न लाग ।। *लय-हाथ जोडी विनती करूं १. मनुष्य पंचेन्द्रिय के आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या और वेदना के संबंध में प्रतियों में संक्षिप्त पाठ है। वहां 'सेसं जहा नेरइयाण जाव वेयणा' कहकर समग्र वर्णन को संक्षिप्त कर दिया है। उस संक्षिप्त पाठ के आधार पर जोड़ की गई है । अंगसुत्ताणि भाग २ में जाव की पूर्ति कर पूरा पाठ लिया गया है। २. गुणस्थान-संयती में छठे गुणस्थान से लेकर १४वें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। ६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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