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१५२. सराग संजती द्विविधा, प्रमत्त नै अप्रमत्त ।
अप्रमत्त ने इक क्रिया, मायावत्तिया तत्थ ।। १५३. प्रमत्त संजत नैं वे क्रिया, आरंभिया नै माय'।
संजतास जत त्रिण क्रिया, परिग्रह नी अधिकाय ।। १५४. असजति रै चउ क्रिया, अधिकी अपचक्खाण।
मिच्छदिट्टी सममिच्छदिट्टी, पंच - पंच पहिछाण ।
१५२-१५४, तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता,
तं जहा---पमत्तसंजया य, अप्पमत्तसंजया य । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया, तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जइ । तत्थ ण जे ते पमत्तसंजया, तेसि गं दो किरियाओ कज्जति, तं जहा--आरंभिया य, मायावत्तिया य। तत्थ णं जे ते संजयासंजया, तेसि णं आइल्लाओ तिणि किरियाओ कज्जति, तं जहाआरंभिया, पारिगहिया, मायावत्तिया। असंजयाण चत्तारि किरियाओ कज्जति–आरंभिया पारिगहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चखाणकिरिया। मिच्छदिट्ठीणं पंच-आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया,अप्पच्चक्खाण किरिया, मिच्छादसणवत्तिया।
सम्मामिच्छदिट्ठीणं पंच। (श० ११६७) १५५, १५६. धाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुर
कुमारा, नवरं—यणाए णाणत्तं-मायि मिच्छदिट्ठीउववन्नगा य अपवेयण तरा, अमायिसम्म दिट्ठिउववन्नगा य महावेयणतरा भाणिय व्वा जोतिसवेमाणिया।
(श० १११००)
१५५. व्यंतर असुर तणी परै, इम जोतिषि विमाण।
नवरं इतो विशेष है, वेदना में पहिछाण ।। १५६. माई मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अल्प - वेदनवंत ।
अमाई समदृष्टि ऊपनां, महा - वेदन वेदंत ।।
१५७. असुर विषै महा वेदना, सण्णिभत नै ताय ।
चरण विराधन थी तिकै, मानसीक दुख पाय ।। १५८. तिम इहां पिण संभवै, सम्यक्त्व चरण विराध ।
जोतिपि नै वैमानिक मझे, ऊपनो चित असमाध ।। आगम ना अनुसार थी, जोतिषि वैमानीक ।
असन्नी तिहां नहिं ऊपजै, णवरं पाठ तहतीक ।। १६०.
माई - मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अल्प वेदन सुभ तास । अमाई - समदृष्टि रै, महासुभ वेदन जास।
१५६, १६०. ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वसझिनो नोत्पद्यन्तेऽतो
वेदनापदे तेष्वधीयते 'दुविहा जोतिसिया----मायिमिच्छदिट्ठी उबवन्नगा ये' त्यादि, तत्र मायि मिथ्यादृष्टयोऽल्पवेदना इतरे च महावेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति ।
(व०-प०४५)
१. मायावत्तिया। २. इसके बाद मनुष्यों के आयुष्य और उत्पत्ति के संबंध में प्रश्न है, पर टिप्पण संख्या ६२ में सांकेतिक पाठ 'सेस जहा नेरइयाणं जाव वेयणा' में उक्त प्रश्नों का समर्पण कर आयुष्य और उत्पत्ति के पाठ को पृथक् रूप से उल्लिखित नहीं किया। किन्तु उक्त संक्षिप्त पाठ के बाद क्रिया का पाठ अलग लिया है, क्योंकि क्रिया-सूत्र में नै रयिक के आलापक से कुछ भिन्नता है। आयुष्य और उत्पत्ति के संबंध में भिन्नता तो नहीं है, पर यह पाठ क्रिया के बाद है और संक्षिप्त पाठ में 'जाव वेयणा' कहा गया है। वेयणा तक क्रिया, आयुष्य और उत्पत्ति ये तीनों नहीं आते हैं, इसलिए यहां इनका स्वतंत्र उल्लेख होना चाहिए था, पर टीकाकार इस संबंध में मौन है। जयाचार्य ने भी अपनी जोड़ में इसी क्रम को अपनाया है। अंगसुत्ताणि भाग-२ में पूरा पाठ लिया गया है, इसलिए उसके शतक १ सूत्र १८, ६६ की जोड़ अनुपलब्ध है। देखें---अंगसुत्ताणि भाग-२, पृ०२२, टिप्पण संख्या २। ३. वैमानिक देवता
श०१,उ०२, ढा०७६३
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