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________________ २५८. धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी * धर्म विष बर चातुरंत जे, चक्रवर्ती जिनराया। चक्रवती जिम वीर प्रभूजी, अतिसय करि सोभाया ।। २५६-२६२. त्रयः समुद्राश्चतुर्थश्च हिमवान् एते चत्वा रोऽन्ताः-पृथिव्यन्ताः एतेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च वरचातुरन्तचक्रवर्ती--- राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती। (वृ०-प०६) २६३. अथवा धर्म एव वरमितरचक्रापेक्ष या कपिलादिधर्मचक्रापेक्षया वा। (वल-प०६) वा–चतुरन्तं.-.-दानादिभेदेन चतुविभागम् । सोरठा २५६. त्रिण दिशि समुद्र अंत, चल हेमवन्त लग उत्तर।। ए चिहं महि पर्यंत, स्वामीपण ज चातुरंत ।। २६०. एहवो चको जेह, चातुरंत चक्रवति ते। वर प्रधान छै एह. अन्य नपति थी अति अधिक ।। २६१. धर्म विप वर धोर, धर्म - परूपक शेष में। अतिशय अधिक ज बीर, चातुरंत चक्रवति इम ।। २६२. अथवा धर्मज ताय, वर प्रधान छै जेहन । अन्य चक्र अपेक्षाय, कह्य धर्मबर ते भणी ।। अथवा धर्मज एह, वर प्रधान महावीर नुं । कपिलादिक न जेह, धर्म-चक्र नी पेक्षया ।। २६४. शिव मग ज्ञानादेह, भेदे करि विभाग चिहुं। निर्णय जेह विषेह, चातुरंत छै ते भणी ।। वाल-ज्ञान, दर्शण, चारित्र, तप अथवा दान, शील, तप, भावना ए च्यार मोक्ष मारग नों अंत कहिता निर्णय निश्चय छै जेहन विषे ते चतुरंत, तेहिज चातुरंत । आपणा तीर्थ नै विर्षे आदि में ए चिहुं शिव-मग परूपणा थकी। अथवा गति जे च्यार, नारकादि छै तेहनां। अंतकारक अवधार, चातुरंत छै ते भणी ।। जे फन चक्र संमील, भावे अरि छेदण थकी। तिण करि वर्तन शील, जेहन जे छै चक्रवति ।। २६७. क ह्या विशेषण एह, धर्मदेशकादिकपणुं । प्रकृष्ट ज्ञानादेह, योग करि हते कहै ।। *अप्रतिहत कटकुटी आदि करी, अथवा अविसंवादं । प्रवर ज्ञान दर्शण ते केवल, तसुं धारक आह्लादं ।। वा०-अप्रतिहत कहितां हणाई नहीं, खलावै नहीं, कट ते चटाई करी, अनै कुटी ते भींत प्रमुखे करी ते अप्रतिहत कहियै । अथवा अविसंवाद बाणी छै जेहनी इण कारण थकीज । अथका क्षायिकपणा थकी वर प्रधान केवलज्ञान, केवलदर्शन केवलज्ञान विशेष अवबोधात्मक, केवलदर्शन ते सामान्य अवबोधात्मक धारण कर जे ते अप्रति हतवरज्ञानदर्शनधरै कहियै । २६५. २६५. चतसृणां वा नरनारकादिगतीनामन्तकारित्वाच्चतुरन्तं तदेव चातुरन्तं। (वृ०-प०६) २६६. यच्चक्रं भावारातिच्छेदात् तेन वत्तितुं शीलं यस्य स (वृत्-प०६) २६७. एतच्च धर्मदेशकत्वादिविशेषणकदम्बकं प्रकृष्टज्ञाना दियोगे सति भवतीत्याह तथा। २६८. अप्पडियवरनाणदंसणधरे वा०-अप्रतिहते-कटकुट्यादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवलाख्ये विशेषसामान्यबोधात्मके धारयति यः स तथा। (वृ०-प०६) २६६. सोरठा छद्मवान पिण एह, प्रवर ज्ञान संपति सहित । के इयक लोक विषह, अंगीकार करिये अछ।। २६६. छद्मवानप्येवंविधसंवेदनसंपदुपेतः कैश्चिदभ्युपगम्यते । (वृ०-प०६) *लय-बीस बिहरमाण श० १, उ०१, ढा०१ ३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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