________________
२७१.
मिथ्या उपदेशात्, उपकारी नहि बतिकै। आगल हिव अवदात, कहियै छै निश्छद्मता ।। अथवा पह ने जन्न, अप्रतिहत भित्त्यादि करि । ज्ञान दर्शन संपन्न, उत्तर तेहनों आखियै ।। आवरण अभाव थीज, अप्रतिहत ज्ञानी प्रभू । देखाड़त पहीज, कहियं छै ते सांभलो।।
२७०. स च मिथ्योपदेशित्वान्नोपकारी भवतीति निश्छद्मताप्रतिपादनायाऽस्याह
(वृ०-५०६) २७१. अथवा--कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं संपन्नम् ? अत्रोच्यते।
(वृ०-प०६) २७२. आवरणाभावाद्, एनमेवास्यऽऽवेदयन्नाह--
(वृ०-५०६)
२७२.
२७३.
*अपगत निवृत्त दूर गयो छै, छद्मस्थ भावज जासं । अथवा दूर गयो जसु आवरण, व्यावृत्त-छद्म विमासं ।।
सोरठा छद्म अभावज जास, उमनों ते रागादि नां । जीपण थकी प्रकारा, इह कारण थी हिव कहै ।।
२७३. वियदृछउमे
ध्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तछया।
(वृ०-प०६) २७४. छग्राभावश्चास्य रागादिजयाज्जात इत्यत आह
(वृ०-५०६)
* जीत निराकर छै प्रभजी, राग - द्वेषादि रूपं । शत्रु प्रते हणे तिण कारण, कहियै जिन' जग भुपं ।।
२७५. जिणे
जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनितिजिनः ।
(वृ०-५०६)
२७६.
रागादि जय पूर्वक ज्ञान
सोरठा जान, उपाय ते जीपण तणुं । सुध्यान, इह हेतु थी हिव कहै ।।
२७६. रागादिजयश्चास्य रागादिस्वरूपतज्जयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह
(वृ०-५०६)
२७७. जाणए--- जानाति छाद्मस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः ।
(वृ०-५०६)
२७७.. *जे छद्मस्थ संबंधी धुर चिहं ज्ञान छतां वर ध्यानी।
रागादिक जीपी लह्य केवल, ज्ञायक' जाण सुज्ञानी ।। *लय-बीस बिहरमाण १. सामान्यतः जिन शब्द वीतराग (राग-द्वेष के विजेता) का वाचक है। टीकाकार की
व्याख्या से इसी अर्थ को अभिव्यक्ति मिलती है और जयाचार्य ने भी अपनी 'जोड़' में टीका को ही अनूदित किया है। किन्तु सन्दर्भ की दृष्टि से यहां जिन शब्द वीतराग का नहीं, ज्ञानी का वाचक होना चाहिए। क्योंकि इससे आगे दो-दो शब्दों के युगलों की व्याख्या है। बुद्ध और बोधक, मुक्त और मोचक, तीर्ण और तारक---ये शब्द स्व और पर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार यहांजिन और ज्ञायक शब्द भी स्व और पर से अनुबंधित होने चाहिए। इन दोनों शब्दों को संयुक्त मानने से राग-द्वेष विजेता अर्थ की यहां संगति नहीं बैठती।
जिन शब्द का ज्ञानी अर्थ में प्रयोग असम्मत भी नहीं है। स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार के जिन की चर्चा है---तओ जिणा पण्णत्ता, तंजहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाजिणे, केवलणाणजिणे ।
ठाणं ३।५१२] अवधिज्ञान जिन, मनःपर्यवज्ञान जिन और केवलज्ञान जिन-उक्त संदर्भ के आधार पर जिणे शब्द ज्ञान और जाणए शब्द ज्ञायक का द्योतक होना
चाहिए। २. वृत्तिकार ने ज्ञायक शब्द की व्याख्या छानस्थिक ज्ञान के आधार पर करते हुए लिखा है-'जानाति छाझस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः' । (वृ०-५०६) किन्तु
३२ भगवती-जोड़
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org