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________________ २७८. सोरठा ज्ञायक इह वचनेह, निज स्वार्थ संपत्ति प्रवर । केवलज्ञान अछेह, तास उपायज आखियो ।। अधना बली तदर्थ, स्वार्थ संपत्ति पूर्वकं । संपादक पर अर्थ, चतुर विशेषण करि कहै ।। २७८. ज्ञायक इत्यनेनास्य स्वार्थसंपत्त्युपाय उक्तः । (बृ०-प०६) २७६. अधुना तु स्वार्थसंपत्तिपूर्वकं परार्थसंपादकत्वं विशेषणचतुष्टयेनाह (वृ०-प०६) २७६. २८०. *जीव अजीवादिक प्रति जाण्या, बुद्ध कह्या इण न्याय। तथा बोधए अन्य भणी पिण, तत्त्व प्रते ओलखाय ।। २८१. बाह्य अभ्यंतर ग्रंथ बंधन करि, मूकाणा महावीरं। मुत्ते पाठ कह्यो इण कारण, मुक्तवान् गुण - हीरं ।। २८०. बुद्धे बोहए 'बुद्धे' त्ति, बुद्धो जीवादितत्त्वं बुद्धवान् तथा 'बोहए' 'त्ति जीवादितत्त्वस्य परेषां बोधयिता। (वृ०-प०६) २८१. मुत्ते मुक्तो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनेनमुक्तत्वात् । (वृ०-प०६) २८२. मोयए तथा 'मोयए' त्ति परेषां कर्मबन्धनान्मोचयिता। (वृ०-५०६) २८२. तथा तेह मोयए अन्य तणा जे, कर्म-बंधन थकी मूकावण हारा, जयवंता दुखदाया। जिनराया। २८३. मुक्त अवस्था सोरठा २८३. मुक्त सिद्ध, तेह आश्रयी नै हिवै। प्रवर विशेषण ऋद्ध, कहियै छै ते सांभलो।। २८४. *वस्तु-समुह सर्व छै जेहना, ज्ञान विशेष करे। ज्ञायकपणे सर्व प्रति जाण, सर्वज्ञ सिद्ध कहेहं ।। २८३. अथ मुक्तावस्थामाश्रित्य विशेषणान्याह (वृ०-५०६) २८४. सव्वण्णू सव्वदरिसी सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया सर्वज्ञः । २८५. सामान्यरूपतया पुनः सर्वदर्शी । ज्ञायकत्वेन (वृ०-प०६) (वृ०-प०६) २८५. दर्शन ते सामान्य रूप करि, सर्व वस्तु ना सोयो। देखणहारा सिद्ध अछै ते, सर्वदर्शी अवलोयो।। वा०-अथवा भगवंत देह-मुक्त थाय तो पिण अन्य दर्शन मान्य मुक्त पुरुषवत् भविष्य जड़ता वाला नथी। सोरठा २८६. ए बे पद आख्यात, ते किहांइक दीसै नहीं। सिद्ध तणुं अवदात, बलि कहिये ते सांभलो ।। वा०-न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषवद्भविष्यज्जडत्वम्। __(वृ०-प०४) २८६. एतच्च पदद्वयं क्वचिन्न दृश्यत इति। (वृ०-प०६) २८७. *सर्व अवाधा रहितपणा थी, शिव कहितां दुख नाही। ____ अचल-स्वाभाविक प्रायोगिक ए, चलन हेतु ज्यां नाही ।। २८७. सिवमयलं 'शिव' सर्वाबाधारहितत्वाद् 'अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात्। (वृ०-प० ६) जयाचार्य ने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त करने वाले को ज्ञायक कहा है। अर्थ की दृष्टि से यह व्याख्या उचित प्रतीत होती है, क्योंकि ज्ञायक विशेषण से पहले अप्पडिहयवरणाणदसणधरे पाठ आ चुका है। अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवल दर्शन के वाचक हैं। ऐसी स्थिति में वृत्तिकार का अभिमत विचारणीय है। *लय-बीस बिहरमाण श०१, उ०१, ढा०१ ३३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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