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________________ २८८. अरुज कह्या ते रोग रहित सिद्ध, तास निबंधन जोई। तन मन तणां अभाव थकी ए, इसा सिद्ध अवलोई ।। २८६. अनंत पदार्थ विषये वस्तु - ज्ञान स्वरूप पणेहं। द्रव्य अनंता जाणे, तिण सं सिद्ध अनन्त कहेह ।। २६०. अक्षय सादि अनंत स्थितिक थी, सिद्ध सदा अविनाश । अथवा अक्षत परिपूर्ण छ, चन्द्र मडल जिम जास ।। २६१. अन्य भणी अणपीडाकारी, दुख उपजावै नांही। एहवा सिद्ध हवै तिण कारण, अव्यावाध कहाई।। २६२. वलि संसार विष नहिं आवै', सिद्धि गति प्रशस्त नाम । स्थिर स्थानक छै त्यां जावा ना, अभिलाषी प्रभु ताम ।। वा०—सिद्ध-निष्ठितार्थ हुवे, जे गति नै विष ते सिद्धि गति । एतलै सकल ही अर्थ सिद्ध थया-नीपना, कोई कार्य करणो बाकी रह्यो नहीं, ते सिद्धि गति । तेहीज नामधेयं कहितां प्रशस्त नाम जेहनो ते, तथा ठाणंति कहितां अस्थिरपणा नु कारण कर्म, तेहना अभावे करि सदा अवस्थित ते स्थिरपण रहिवु हुवै ते स्थान, ए कर्म-मुक्त जीव एतलै सिद्ध नुं स्वरूप अथवा लोकाग्र नो स्वरूप। हिवै लोकाग्र भाग तो आकाश रूप छै तो तेह में शिवादि विशेषण घट नहीं तो पिण आधेय धर्म नों आधार मां अध्यारोप करवा थी ते विशेषण लोकाग्र ना घटाव्या २८८. अरुयं अरुजम् अविद्यमानरोगं तन्निबन्धनशरीमनसोरभावात्। (वृ०-प० ६, १०) २८६. अणतं अनन्तम् अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् । (वृ०-५०१०) २६०. अक्खयं अक्षयम् अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात् अक्षतं वा परिपूर्णत्वात्पौर्णमासीचन्द्रमण्डलबत् । (वृ०-५०१०) २६१. अब्बाबा अव्याबाधं परेषामपीडाकारित्वात् (वृ०-५०१०) २६२. 'अपुणरावत्तिय' ति कर्मबीजाभावाद् भवावताररहितं सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामे (वृ०-५० १०) वा०—सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धि : सा चासौ गम्यमानत्वाद् गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव नामधेयं--प्रशस्तं नाम यस्य तत्तथा, 'ठाणं' ति तिष्ठति-अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो भवति यत्र तत्स्थानं, क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूप लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याऽऽधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, संपाविउकामे त्ति यातुमनाः, न तु तत्प्राप्तः, तत्प्राप्तस्याकरणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणाऽसम्भवात्, प्राप्तुकाम इति च यदुच्यते तदुपचारात्। (वृ०-प० १०) जावा - मन, पिण ते स्थानक पाम्या नथी। ते स्थानक पाम्या पछी अकरणपणे करी वांछित अर्थ नै परूपणा नां अभाव थकी। ते माटै पामवा नां अभिलाषी इम कहिये । २६३. यावत् समोसरण है त्यां लग, भगवत्-वर्णक वारू । प्रथम उपांगे प्रभु तनु-वर्णक, कहिये इह विध चारू ।। २६३. 'जाव समोसरणं' ति ताबद्भगवद्वर्णको वाच्यो यावत्समवसरणं--समवसरण-वर्णक इति । (वृ०-५० १०) गीतक-छंद २६४. भुज मोचको जे रत्ननज विशेष फुन भंग कीट ही। नीली विकारज फुन मपी बलि भ्रमर-गण सुप्रहृष्ट ही ।। २६४, २६५. स च भगवद्वर्णक एवम्---"भुयमोयभिगनेल कज्जलपहट्ठभमरगणनिद्धनिकुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए" भुजमोचको---रत्नविशेषः १. अंगसूत्ताणि भाग २ में अपुणरावत्तयं पाठ नहीं है, वृत्ति में भी इस पाठ को कोष्ठकान्तर्गत लिया गया है। संभव है किसी वाचना में यह पाठ रहा हो। २. सिद्धि गति प्राप्त होने पर जीव अकरण हो जाता है। उस समय विवक्षित अर्थ की प्ररूपणा नहीं हो सकती। इसलिए अर्हत् को संप्राप्तुकामा कहा है। प्राप्तुकामासिद्धि गति पाने के इच्छुक, यह भी औपचारिक वचन है। क्योंकि वास्तव में तो अर्हत् केवली निरभिलाष ही होते हैं। ३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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