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________________ ४८. हंता जिन कह्यां गोयम पूछ, स्यूं कहि बोलावीजै ? जिन कहै-सिद्ध कही बोलाविय, बुद्ध तत्व-जाण कहीजै । मुक्त कर्म थी मूकाणो कहिये, पाम्यो भवधि पारो। होणहार ते हुआ सरीखो, उपचार थी इम धारो।। ४६. ५०. परंपरा कर भवदधि केरूं, पार पाम्यं तसुं कहीजै। सिद्ध बुद्ध मुक्त निवृत्त अंतकृत, सहु-दुख-क्षीण बदीजै ।। ४८, ४६. हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छद। (०२१६) से णं भंते ! कि ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। मुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। पारगए ति बत्तव्वं सिया। ४६. 'पारगए' ति पारगत: संसारसागरस्य भाविनि भूत वदित्युपचारात् । ५०. परंपरगए त्ति वत्तव्वं सिया ! सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिबुडे अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति वत्तव्वं सिया। (श० २०१७) पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः । (वृ०-प०११२) ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसिना संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। (० २०१८) ५२. तए णं समणे भगवं महावीरे राय गिहाओ नगराओ गुण सिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० २।१६) ५३, ५४. इहानन्तरं संयतस्य संसारवृद्धिहानी उक्ते सिद्धत्वं चेति, अधुना तु तेषामन्येषां चार्थानां व्युत्पादनार्थ स्कन्दकचरितं विवक्षुरिदमाह- (वृ०-५० ११२) ५१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! इम कहि गोतम स्वामी। वीर वंदी नै विचरै, संजम तप कर आतम धामी ।। श्रमण भगवंत महावीर तिवार, राजगह गुणसिल सेतीविहार करी विचरे जनपद में, मुनिजनवंद समेती।। ५३. *एह अनंतर संजती नै, हानि वृद्धि भव नी कही। सिद्धपणं बलि आखियो छ, पूर्व पाठ विष सही।। ५४. हिवै तेहिज अर्थ बलि, अन्य अर्थ व्युत्पादन भणी। चरित्र खंधक मुनि तणों कहुँ, सरस बात सुहामणी ।। ५५. अंक इकवीस नुं देश कह्य, ए तीसमी ढाल रसालो। भिक्षु भारीमाल ऋषराय प्रसादे,'जय-जश'संपति मालो।। ढाल : ३१ दूहा तिण कालै नै तिण समै, कयंगला अभिधान। नगरी हुंती सुहामणी, वर्णन बहुविध जान ।। तिण कयंगला रै बाहिरै, ईशाणकण रै माय। छत्रपलास उद्यान थो, वर्णन तसं अधिकाय ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नाम नगरी होत्थावण्णओ। (श० २।२०) २. तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था---वण्णओ। (श०।२१) *लय-पूज मोटा भांजै टोटा + लय-थिर-थिर रे चेतन संजम १६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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