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३४,३५. से णं भंते ! किं ति वत्तव्वं सिया ?
गोयमा! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवे त्ति बत्तब्वं सिया । सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। विण्णु त्ति बत्तब्बं सिया । वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।
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३४. 'हे प्रभु ! ते निग्रंथ जीव नें, किम कहि वोलावीजै?
जिन कहै-प्राण कही बोलावियै, बलि तसं भूत कहीजै । ३५. जीव इसो कहिन वोलाविये, बलि तसं सत्त कहीजै ।
विज्ञ कही बोलावियै तेहन, वलि तसं वेद वदीजै ।। इक-इक नाम जूइ जूइ पूछा, पूर्वे पूछी एहो।
छहं नामे समकाल बोलाविय, प्रश्न हिवै ते जेहो।। ३७. प्राण भूत जीव सत्त विज्ञ वेद, बोलावियै समकालो।
उस्सासादिक राहुं धर्म करि, युगपत वांछा न्हालो ।। तिण काले प्राण भूत प्रमुख जे, बांछयो नहिं इम एको। सर्व धर्म समकाले वांछा, तिण संजओ प्रश्न सुविशेखो।
३७. पाणे भूए जीवे सत्ते विष्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।
(श०२।१४) ३८. यदा तूच्छ्वासादिधमर्युगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो
भूतो जीव: सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात्।
(वृ०-५०११२) ३६, ४०. अथवा निगमनवाक्यमेवेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति।
(वृ०-५० ११२)
३६. अथवा ए छहुं फेर कह्या ते, निगमन वाक्य कहायो।
सगलां री फिर चोटी बांध करि, नाम छहं फिर आयो ।। ४०. पिण युगपत पक्ष करी नहि कहिवा, ए छहं नाम पिछाणी।
ए विहं अर्थ कह्या टीका में, तिण अनुसारे जाणी ।। किण अर्थ प्राण जाव वेद ? जिन कहै-आण रु प्राणो। उस्सास ने निस्सास लिये छै, ते भणो प्राण पिछाणो।।
४२. जे भणी हुवो हुवै नै होस्यै, ते भणी भूत थूणीजै।
प्राण धरै आय कर्म भोगवै, ते भणी जीव भणीजै ।।
४३. सक्त-आसक्त शुभाशुभ कर्म, सत्त कहीजै ताह्यो।
तथा संदर - असुंदर चेष्टा-सक्त समर्थ ते मांह्यो। ४४. अथवा शुभाशुभ कर्म करी नै, सक्त संबद्ध कहायो।
इण न्याय सक्त कहीजै तेहन, अर्थ त्रिहं वत्ति माह्यो।।
४१. से केणठेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव बेदे त्ति वत्तव्वं
सिया? गोयमा ! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ बा, उस्ससइ वा,
नीसस इ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। ४२. जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भए त्ति वत्तव्वं
सिया। जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्म
उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। ४३, ४४. जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहि तम्हा सत्ते त्ति
वत्तब्बं सिया। सक्तः—आसक्तः शक्तो वा–समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु, अथवा सक्तः-संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति ।
(वृ०-प० ११२) ४५. जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु
त्ति वत्तव्वं सिया । जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तव्यं सिया। से तेणट्टेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदे त्ति वत्तवं सिया।
(श० २०१५) ४६. अनन्तरोक्तस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह- (वृ०-५० ११२)
रस पांचं जाण्या ते माट, विज्ञ नाम इम थुणियै । सुख-दुख वेदै वेद क ह्यो तसं, तिण अर्थे प्राणादिक भणिय ।।
४६. *कहा पूर्वे भ्रष्ट संयत, वृद्धि तसु संसार नीं।
तेहथी विपरीत पृच्छा, हिव सुणो अणगार नीं।। ४७. 'हे प्रभु ! प्रासुकभोजी निग्रंथ, रंध्यो भव न विस्तारो।
जाव निठाड्यो भव नुं करिवं, ते बलि नावै संसारो? + लय-थिर-थिर रे चेतन संजम *लय—पूज मोटा भांज टोटा
४७. मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्ध भवे, निरुद्ध भवपवंचे जाव
निट्ठियट्ठकरणिज्जे नो पुणरवि इत्थत्थं हब्वमागच्छद?
श०२, उ०१, ढा०३० १६३
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