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________________ *वायु बलि बलि वायु में उपज, का तेहथी हिवै। २५. वायुकायस्य पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम्, अथ भव-चक्र भमवो कोइक मुनि नों, प्रश्न गोयम पूछवे ? कस्यचिन्मुनेरपि संसारचक्रापेक्षया पुन: पुनस्तत्रैवो त्पत्तिः स्यादिति दर्शयन्नाह- (वृ०-५० १११) २६. +हे प्रभु ! 'प्रासुक-भोजी निग्रंथ, चरमशरीरी नांह्यो। २६. मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवभव नु विस्तार रुध्यो नहीं, जेणे संसार हीण न पायो।। पवंचे, नो पहीणसंसारे, २७. संसार भोगववा योग्य कर्म नं, तातो न तुटो तासो। २७. नो पहीणसंसारबेयणिज्जे, नो वोच्छिण्णसंसारे, बार-बार भव-भव में भभिव, विच्छेद हुवो नहिं जासो।। २८. भव-भव वेदवा योग्य कर्म नों, पिण न हुवो विच्छेदो। २८.नो वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियठे, नो निट्ठि नीठो नहीं प्रयोजन, बलि करणीय कार्य संवेदो।। यठक रणिज्जे २६. इत्थत्थं कहितां ए भव-भ्रमण, वलि संसार में पावै ? २६. पुणरवि इत्थत्थं हब्बमागच्छद? 'इत्थत्त' पाठांतर एणे प्रकारे, मनुष्य प्रमुख गति आवै ।। 'इत्थत्थं' ति 'इत्यर्थम्' एनमर्थम्—अनेकशस्तिर्यङ्नर नाकिनारकगतिगमनलक्षणम् । 'इत्थत्त' मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं मनुष्यादित्वमिति भावः। (वृ०-प०१११) ३०. वत्तिकार क ह्य कषाय उदय थी, ए चारित्र नां पडिवाई। ३०. कपायोदयात्प्रतिपतितच रणानां चारित्रवतां संसारउपशांत कषाई छट्ठ आवी, भ्रष्ट होय निगोद में जाई ।। सागरपरिभ्रमणं, यदाहजइ उवसंतकसाओ लहइ अणंतं पुणोवि पडिवायं । (वृ०-प० १११) ३१. तिण सं गोतम पूछयो प्रासुक-भोजि रूलै संसार मझारो? ३१.हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे...पुणरवि इत्थत्थं हब्वजिन कहै हता मडाई-निग्रंथ, भ्रमण करै संसारो।। मागच्छा। (श०२।१३) ३२. *संसार-चक्र अवाप्त जे मुनि, जीव छै स्यूं ए भणी। ३२, ३३. स च संसारचक्रगतो मुनिजीवः प्राणादिना नामप्राण प्रमुख षट् नाम करि, बोलाविय इम संथुणी ।। षट्केन कालभेदेन युगपच्च वाच्यः स्यादिति बिभणिषुः प्रश्नयन्नाहकाल नै भेदे करी, अथवा छहं समकाल ही। (वृ०-५० १११) बोलावियै हिव प्रश्न एहवा, सांभलो सुविशाल ही ।। *लय--पूज मोटा भांज टोटा 'लय-थिर-थिर रे चेतन संजम १. वृत्तिकार ने मडाई का संस्कृत रूप मृतादी किया है। जयाचार्य ने अपनी व्याख्या में उसी को आधार माना है। मुनि सचित्त भोजन का परिहार करता है-वह अचित्त-भोजी होता है। उस अचित्त शब्द को ध्यान में रखकर ही वृत्तिकार ने मतादी का अर्थ प्रासुक-भोजी किया है, किंतु पंडित बेचरदासजी दोशी ने इस शब्द का एक नया अर्थ प्रस्तुत किया है। वह बहुत महत्त्वपूर्ण और विमर्श योग्य है। उनके अनुसार मृतादी का अर्थ है याचित-भोजी। संस्कृत में मृत और याचित दोनों शब्द एकार्थक हैं। मृतं तु याचितं [देखें अभिधान चिन्तामणि ३१५३०] उत्तराध्ययन से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। वहां मुनि द्वारा ग्राह्य वस्तुओं की चर्चा करते हुए कहा गया है-सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं (उ० २।२८) मृतादी का याचित-भोजी अर्थ संगत भी है और समुचित भी, इस दृष्टि से पंडित बेचरदासजी की प्रस्तुति को स्वाभाविक और अर्थ के अधिक निकट माना जा सकता है। १६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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