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________________ १६. हे प्रभु ! वाऊकाय वायु में, अनेक सयसहस्र वारो। १६. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो मरि-मरि बलि-बलि तिहांज उपजै? हंता जिन वच सारो॥ उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति? हंता गोयमा ! (श०।६) २०. ते प्रभु ! स्यं मरै शस्त्रे फा, के अणफयँ मरंता। २०. से भंते ! कि पुढे उद्दाति ? अपुढे उद्दाति? जिन कहै-ते फश्य ज मरै छ, अणफयं न चवंता ।। गोयमा ! पुट्टै उद्दाति, नो अपुढे उद्दाति। (श० २०१०) २१. ते प्रभुजी ! स्यूं निज काया थी, निकल शरीर सहीतो। २१, २२. से भंते ! कि ससरीरी निक्खमइ? असरीरी अथवा शरीर रहित निकले छै? हिव जिन उत्तर वदीतो।। निक्खमइ? २२. किण हि प्रकारे निज काया थी, निकले सरीर सहीतो। गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी किण हि प्रकारे निज काया थी, निकल शरीर रहीतो। निक्खमइ। (श० २०११) २३. हे प्रभु ! ते किण अर्थे कहिय? तब भाखै जिनरायो। २३, २४. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय ससरीरी बाउकाय में च्यार शरीर छ, आहारक वर्जी ताह्यो।। निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! वाउया२४. औदारिक बैकिय छांडी ने, निकल वाऊकायो। यस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता,तं जहा-ओरालिए, तेजस कामण साथ लेई नै, परभव मांही जायो।। वेउम्बिए, तेथए, कम्मए। ओरालिय-वउवियाई विष्प जहाय तेयय-कम्मएहि निक्खमइ। (श०२११२) स्वाध्याय चल रहा था। तब मुनि हेमराजजी ने जो आगम के विशेषज्ञ थे, परामर्श दिया कि वृत्ति का यह अंश बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इसे संग्रहीत कर लेना चाहिए। तब मैंने पूरक व्याख्या के रूप में चार पद्य बनाए, वे इस प्रकार हैं १. कही वृत्ति में बात, उच्छ्वासादिक वायु नां । वायु रूप विख्यात, अन्य रूप अथवा हुवै ? २. जदि है वायू रूप, श्वास-वायु पिण श्वास लै । अन्य वायु तद्रूप, इम अनवस्था आवस्य ? ३. समाधान है खास, श्वास-वायु चेतन नहीं। लहै न श्वासोच्छ्वास, तो अनवस्था क्यूं हुवै ? ४. जीव मात्र जे जोय, आन-प्राण लै वायु नो। ते अति सूक्षम होय, वायुकायिक शरीर थी॥ यहां वृत्तिकार ने, यह जिज्ञासा व्यक्त की है-जिस प्रकार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक आदि जीव वायु का श्वासोच्छ्वास लेते हैं, वैसे ही वायुकायिक जीव भी अपने से विलक्षण द्रव्य का श्वासोच्छ्वास लेते हैं या वायु का ही लेते हैं ? यदि वायुकायिक जीव भी वायु का ही श्वासोच्छ्वास लें तो श्वास-वायु के जीवों को भी श्वासोच्छ्वास के लिए अन्य वायु की अपेक्षा होगी। इस प्रकार शृंखला आगे बढ़ती रही तो क्या अनवस्था दोष उत्पन्न नहीं हो जाएगा? इस प्रश्न के समाधान में स्वयं वृत्तिकार ने लिखा है--श्वास-वायु वायु होने पर भी सजीव नहीं होती-वायुकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय शरीर रूप नहीं होती। क्योंकि श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों का नाम है 'आनप्राण'। आनप्राण के पुद्गल औदारिक और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों के अनन्तगुण प्रदेश वाले और अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं । वायुकायिक जीवों के शरीर से अत्यन्त सूक्ष्म और निर्जीव होने के कारण श्वास-वायु के श्वासोच्छ्वास लेने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। इस दृष्टि से अनवस्था दोष की संभावना निर्मल है। श० २, उ०१, ढा० ३० १६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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