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१४. छै प्रभु ! तिरछो गमन-विषय तसं ? जिन कहै हंता जाणी।
हे प्रभु ! कितरो असुर तणो, तिरिच्छ-गति-विषय पिछाणी?
१४. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरिय गति
विसए पण्णत्ते? हंता अत्थि।
(श० ३८५) केवतियण्णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गति
विसए पण्णत्ते? १५. गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव-समुद्दा, नंदिस्सरवरं पुण दीवं गया य गमिस्संति य ।
(श० ३८६)
१५. जिन कहै जाव असंख द्वीपोदधि, विषय - मात्र ए जाणी।
द्वीप नंदीस्वर गया जायस्यै, हिव तसं न्याय पिछाणी ।।
१६. असर दक्षिण नां उत्तर कानी, द्वीप नंदीस्वर जावै।
उत्तर नां पिण दक्षिण कानी, नंदीस्वर लग धावै ।। १७. किण कारण प्रभु ! असुर नंदीस्वर, द्वीप गया नै जासी?
जिन कहै अरिहंत भगवंत केरा, जन्म - महोत्सव रासी ।।
१८. दीक्षा-महोत्सव केवल-महोत्सव, महिमा वलि निरवाणं ।
असुर नंदीस्वर गया जायस्यै, इम निश्चै कर जाणं ।।
१६.छै प्रभु ! ऊर्ध्व गति-विषय तेहनों? जिन कहै हंता जाणी।
हे प्रभु ! कितरो असुर देव नों, ऊर्ध्व-गति-विषय ठाणी ?
२०. जिन कहै यावत् अचू-कल्प लग, सुधर्म गया रु जासी।
किस कारण प्रभु ! गया सधर्मे, बलि जास्यै सखरासी?
२१. जिन कहै असुर वैमानिक सुर रै, भव - प्रत्यय जे वैरो।
क्रोध करी महारूप विकुर्वे, तास डरावण केरो।। २२. तथा भोग पर - देवी संगे, आत्म - रक्षक नै तपावै।
रत्न लघ ले एकांते जावै, मोटा रत्न गोपवणी नावै ।।
१७. कि पत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवर
दीवं गया य गमिस्संति य? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो, एएसि णं जम्मण
महेसु वा, १८. निक्खमणमहेसु वा, नाणुप्पायमहिमासु वा, परिनिव्वा
णमहिमासु वा-एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदिस्स
रवर दीवं गया य गमिस्संति य। (श० ३८७) १६. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढे गतिविसए? हंता अत्थि।
(श०३८८) केवतियण्णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढं गति
विसए? २०. गोयमा ! जाव अच्चुतो कप्पो, सोहम्म पुण कप्पं गया य गमिस्संति य।
(श०३६) कि पत्तियणं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं
गया य गमिस्संति य? २१, २२. गोयमा! तेसि णं देवाणं भवपच्चइए बेराणुबंधे,
ते ण देवा विकूधमाणा परियारेमाणा वा आयरक्खे देो वित्तासेंति अहालहुसगाई रयणाई गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति।
(श०३।६०) 'विउव्वेमाणा 'व' ति संरम्भेण महक्रियशरीरं कुर्वन्तः परियारेमाणा व'त्ति परिचारयन्तः परकीय
देवीनां भोग कर्तुकामा इत्यर्थः। (वृ०-५० १७४) २३. अस्थि णं भंते! तेसि देवाणं अहालहसगाई रयणाई? हंता अत्थि।
(श० ३।६१) २४. से कहमिदाणि पकरेंति ?
अथ किमिदानी रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिका रत्नादातणामिति ।
(वृत-प० १७४) २५. तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति। (श० ३।६२)
तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्महतमुत्कृष्टतः षण्मासान् यावत्। (वृत-प०१७४)
२३. छै प्रभ ते वैमानिक मर नै, नान्हा रत्न सयोग्य ?
श्री जिन भाखै हंता अत्थि, छै लघु रत्न प्रयोग्य ।। २४. रत्न लेइ एकांत गया पछै, वैमानिक सुर सोय।
रत्न तणां जे लेणहार ने, कवण करै अवलोय ?
२५. जिन कहै तेह असुर नां तनु नै, हण
जघन्य अंतर्मुहूत्तं उत्कृष्टो, छ
पीड उपजावै। मासे दुख पावै ।।
श०३, उ०२, ढा०५६ ३४३
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