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३१ चारित्रावर्णी कर्म, खायक-निष्पन्न त्यां अछ।
नहि अघ रोकण धर्म, पिण स्थिरता गुण तो सही।। ३२. चारित्रावर्णी कर्म, खायक-निपन्न नां गयो।
तिण सू ए गुण पर्म, लाधै छै सिद्धां मझे।। वलि जाव शब्द रै मांहि, गुरुलघु ना पजवा कह्या।
ए सिद्धां में नाहि, शरीर रहित छै ते भणी ।। ३४. गुरुलघु पजबा ताय, जाव शब्द में आविया।
संलग्न पाठ जणाय, पिण लाभ ते लीजिये ।। संलग्न शब्द अनेक, देखी न्याय मिलावियै । लाभ ते छै लेख, नहिं लाभ ते टालिये ।। तथा अजोगी ठाण, तास चरम समय विर्ष ।
क्षायिक चारित्र जाण, वलि तनु तीन अछै तिहां ।। ३७. होणहार ए सिद्ध, हुवा जिसो उपचार थी।
ते इहां सिद्ध समृद्ध, कह्यो नजीकपणा थकी।। क्षायिक चारित्र तास, ते चारित्र ना पर्यव तिहां। गुरुलघु पर्यव विमास, औदारिक तैजस तणा।। जिम अनुयोगजद्वार, जाणक-भविक-शरीर थी। व्यतिरिक्त ते सुविचार, द्रव्य शंख त्रिणविध कह्यो।। एक-भविक धुर भेद, शंख थकी जे प्रथम भव । द्वितिय बद्धायु वेद, शंखायू बंध्यां पछे ।। अभिमुखनामज गोत, जघन्य समय इक अंत जे। उत्कृष्टो इम होत, अंतर्महत चरम जे ॥
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वह या तो पाठ की संलग्नता के कारण है अथवा चौदहवें गणस्थान के जीवों को सिद्ध माना गया है। क्योंकि वे तत्काल सिद्ध होने वाले हैं। चौदहवें गुणस्थान में जीव सशरीरी होता है, अतः वहां चारित्र और गुरुलघुत्व दोनों घटित हो जाते हैं।
मैंने जब पहली बार भगवती की जोड़ पढ़ी, तब मेरे पास जो भगवती सूत्र के मूल पाठ की प्रति थी, उसमें जाव पद नहीं था।(देखें अंगसुत्ताणि भाग २, श०२।४८) भगवती की जोड़ के सामूहिक स्वाध्याय में मंत्री मुनि मगनलालजी भी उपस्थित थे। उन्होंने कहा- यदि जयाचार्य को यह प्रति उपलब्ध होती तो उन्हें ये तेवीस सोरठे नहीं लिखने पड़ते। अब हमारे सामने यह प्रति है, इसलिए आपको इस विषय पर एक टिप्पणी कर देनी चाहिए। मंत्री मुनि का कथन स्वीकार कर मैंने दो सोरठों में उक्त विषय पर टिप्पणी की
किण ही प्रती मझार, जाब शब्द लाभ नहीं। ज्ञान, दर्शन, अवधार, अगुरुलघु पजवा कह्या ॥१॥ किण ही प्रती मझार, जाव शब्द है तेहथी।
न्याय निमल निरधार, जयगणपति इम मेलव्यू ॥२॥ यह घटना सं० १९६४, बीकानेर की है।
श०२, उ०१, ढा० ३४, २१५
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