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बद्धाय प्रति
नैगम संग्रह सोय, बलि व्यवहार तणो धणी । विविध शंख अवलीय छै तीनं भणी ॥ ४३. ऋजुमूत्र सुविचार, वछै द्विविध शंख नै । धार, अभिमुख-नामज-गोत्र बलि ॥ तीन शब्द नय भाव, अभिमुखनामज गोत्र प्रति वछे छे धर न्याव, एहवूं आख्यो वृत्ति विषै इम वाय, यद्यपि ए त्रिण द्रव्य न वछे ताय, तो ए किम
पाठ में ॥
कार्य शंख तणेह, प्रथम काल ए ढुकडुं । कारण रूप कहेह, तिण सूं अभिमुख मानियो । तिम चवदम गुणठाण, अंत समय तेहने विषै । सिद्ध को जाण, ते पिण जाणै केवली ॥ द्वितीय शतक उदंत, प्रथम उद्देशक नैं विपं । प्रासुकभोजी संत, संध्या भव-विस्तार जिण ।। सिद्ध कहीजे तास, बुद्ध मुक्त कहीजे तसुं सह दुख क्षीण विमास प कहीजे होणहार ए सिद्ध, हुआ सरीखो नय उपचार प्रसिद्ध तेम दहा आपो भृगूपुत्र गुण-रयण, मूनी का
तेन ॥
तिके ॥
चवदम उत्तरक्षयण होणहार मुनिवर दमीश्वर तेनैं । अधिकार को मझार, ए होणहार मोटो मुनि ।।
उत्तरज्झयण
इम एपिण अवलोय, चरम समय चवदम गुणे ।
चारित गुरुलघु जोय, ते पिजा केवली ॥' (ज०स० )
४२.
४४.
४५.
४६.
४७.
४८.
४६.
५०.
५१.
५२. मृगापुत्र
५३.
५४.
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१. गुणस्थान में
* लय- सुगुरु की सीख हियं धरना रे
२१६ भगवती जोड़
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भाव नय । मान्यो इणे ||
लेखवी । वै ॥
*एतले द्रव्य थकी जोई, अंत सहित ए सिद्ध कहीजै इक वचने होई । क्षेत्र श्री अंत-सहित ख्यातं काल थकी जे अंत-रहित छै वसुधा अवदातं । भाव थी अंत-रहित भारी, तिमहि यावत् सिद्ध अंत नहि आखे जगतारी। तुयं प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जब रजानी ॥
तेहनें।
५४. सेत्तं खंदया ! दव्वओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अणते, भावओ सिद्धे अणते ।
(म० २०४८ )
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