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द्रव्य थी अंत सहित सिद्धी, क्षेत्र की पिग अंत सहित छे नभ प्रदेश लिखी । काल थी अंत-रहित आवी, भाव की पण अंत-रहित जे सिद्ध शिला भाखी। एम ए चिहुविध करि लहियै, सिद्ध क्षेत्र तमु नजीक मार्ट सिद्धी तसुं कहिये, तृतीय प्रश्नोत्तर ए जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जवर जानी ।। जिके पि खंधक तुझ पितो, जावत् किस अणते सिद्धे तिमज जाव संतो । द्रव्य थी एक सिद्ध संतो क्षेत्र की सिद्ध असं प्रदेशिक अति गुणवंतो तिके आकाश तणा हुंतो, असंख्यात प्रदेश ओगाह्या त फुल छे अंतो तास ओलखिये गुणवानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानो || काल की सिंघ इक वचनंती आदि सहित रु अंत-रहित छै तसुं फुन नहि अंतो । भाव थी सिद्ध भणी कहियै, ज्ञान तणा छे पजव अनंता इम दर्शन लहियै । जान बलि अगुरुलघु आछा, पजव अनंता अमल अनोपम क्षय निष्पन जाचा । तास फुन अंत नहीं जानी, ज्ञान-घटा उमटी, प्रगटी जिन छटा जबर जानी ॥
सोरठा
'इहां जाव' शब्द रे मांहि, चारित्र ना पज्जव कह्या । ते सिद्धां में नाहि, पांचू चारित्र मांहिलो ||
१. जयाचार्य के सामने जो आदर्श था उसमें सूत्र पाठ इस प्रकार था - 'भावओ णं सिद्धे अणंता नागपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा जाव अनंता अगरुयल हुय पज्जवा ।' इस जाव पद के द्वारा स्तवक में दो पाठ गृहीत हैं--'अनंता चरित्तपज्जवा, अनंता गरुयल हुयपज्जवा ।' किन्तु ये दोनों पाठ प्रासंगिक नहीं हैं। क्योंकि सिद्धों में न तो चारित्र है और न गुरुलघुपर्याय है। जयाचार्य को जाव पद रहित आदर्श उपलब्ध नहीं था । इसलिए उन्होंने जाव शब्द वाले पाठ को अशुद्ध नहीं बतलाया । अपेक्षा दृष्टि से उस पाठ में संगति बिठाने के लिए तेवीस सोरठों में एक लम्बी चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है— सिद्धों में चारित्र मोहकर्म का क्षायिक भाव है, उस अपेक्षा से यहां चारित्र के पत्रों का ग्रहण किया है। सिद्धों में गुरुलघुपर्वन का उल्लेख है, (शेष अग्रिम पृष्ठ पर
२१४ भगवती जोड़
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२७. सेत्तं खंदया ! दव्वओ सिद्धी सअंता, खेत्तओ सिद्धी अंता, कालओ सिद्धी अनंता, भावओ सिद्धी अनंता । ( श० २/४७ )
२८, २६. जे विय ते खंदया ! जाव कि अणते सिद्धे ? तं चेत्र जाव दव्वओ णं एगे सिद्धे सअंते ।
ओ सिद्धे अससेज्जएसिए, असवेजपा अस्थि पुण से अंते । कालओ णं सिद्धे सादीए, अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अंते । भावओ णं सिद्धे अनंता नाणपज्जवा, अनंता दंसणपज्जवा, अनंता अगरुयलहुय पज्जवा, नत्थि पुण से अंते ।
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