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________________ दूहा ७५. तेणं कालेणं तेण समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था--- सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। (श० २।१०५) तिण काले नैं तिण समय, नगर राजगृह जान। जाव परिषदा पडिगता, जिन वंदी निज स्थान ।। *हो म्हारा तिरण तारण महावीर प्रभु नां शिष्य इंद्रभूती अणगारं ।। (ध्रुपदं) ७६. तिण कालै तिण समय विषै, जे वीर तणां सुविशेष। जेष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूती ते, जाव संखित्त-विपुल तेय-लेश ।। ७७. अंतर-रहित करै तप छठ-छठ, संजम तप करि सोय । जावत् आत्मा भावत विचरै, हिव छठ्ठ पारण जोय ।। ७८. पहिली पोहरसी सझाय कीधी, बीजी पोहरसी ध्यानज ध्याया। तीज पोहर काय मन अचपलता, असंभ्रांतपणे मुनिराया।। ७९. मुख-वस्त्रिका पडिले है पडिलेही, भाजन वस्त्र पडिलेही। भाजन पंजै भाजन प्रति पूंजी, भाजन ग्रहण करेही ।। ७६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जाव संखित्तवि पुलतेयलेस्से ७७. छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० २०१०६) तए णं भगव गोयमे ! छट्ठक्खमणपारणगंसि ७८. पढमाए पोरिमीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसं भंते ७६. मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाई पडिले हेइ, पडिलेहेत्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भाय णाई उन्गाहेइ उग्गाहेत्ता ८०. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी८१. इच्छामि णं भंते ! तुभेहि अब्भणुण्णाए समाणे छट्ठक्ख मणपारणगंसि रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। ८०. जिहां प्रभु तिहां आवै, आवी नै स्वाम प्रतै सुखदाय। वंदै वंदी नमस्कार करीन, इम बोल मुनिराय ।। ८१. वांछू हे पूज्य ! तुम्हारी आज्ञा थी, छठ पारण राजगृह माय । ऊंच-नीच मज्झम कुल बहु घर नी, भिक्षाचरी अटन कराय ।। ८२. सोरठा बह घर भिक्षा लेह, समुदाणिक भिक्षा भणी। भिक्खायरियाए जेह, भिक्षा वर आचर करी ।। ८३. हे देवानुप्रिया ! जिम सुख तिम कर, जेज न कीजै लिगार । ताम गोतम भगवंत प्रभु नी, आज्ञा थयै छतै सार ।। ८४. श्रमण भगवंत महावीर कनां थी, गुणसिल चैत्य थी ज्यांही। नीकलै त्वरितपणों न काया नों, मन नी चपलता नाही। ८५. असंभ्रांत थका चाल्या गोतमजी, जुगंतर झूसर प्रमाण । भूमि प्रते देखै दृष्टि करी नै, आगल ई सोधता जान ।। ८२. गृहेषु समुदानं-भक्ष गृहसमुदान तस्मै गृहसमुदानाय 'भिक्खायरियाए' ति भिक्षासमाचारेण । (वृ०-५० १४०) ८३. अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। (श० २।१०७) तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणु प्रणाए समाणे ८४,८५. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुण सिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहमाणे-सोहेमाणे 'अतुरियं' ति कायिकत्वरारहितम् 'अचवलं' ति मानसचापल्यरहितम्। (वृ०-प० १४०) वा०...'जुगंतरपलोयणाए' त्ति युग-यपस्तत्प्रमाणम्, अन्तरं-स्वदेहस्य दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या । (व०-प० १४०) वा०-'जुगंतर पलोयणाए दिट्ठीए' जुग कहितां झूसरो तेह प्रमाण, अंतर कहितां आपणा देह रूप देश नै जे भूमिका नै विष दृष्टि पड़े ते दृष्टिपात देश नै विचाल, पलोयणाए कहितां देखै एहवी दृष्टि करि । लय हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी २७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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