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________________ ६२. स्थविरां प्रत तब श्रावक बोल्या, अनाश्रव-फल संजम जोय। तप-फल बोदाण तो किण कारण, देवलोक उपज होय? ६३. संयम सू आवता कर्म रोके, तप सूं पूर्व कर्म खपाय। स्वर्ग तणां कारण नहिं दोन, तिण सं निःकारणे स्वर्ग जाय ।। ६४. तिहां कालिक-पुत्र स्थविर कहै आर्यो ! पूर्व-तप सूं स्वर्ग मांहि जायो। वीतराग - तप नी अपेक्षाए, पूर्व सराग-तप कहिवायो।। ६५. तिहां मेहिल नामै स्थविर कहै आर्यो ! पूर्व-संजम करि सुर थाय। वीतराग - संजम री अपेक्षा, पूर्व सराग - संयम आय ।। ६६. तिहां आणंदरक्षित नाम स्थविर जे, श्रावका नैं कहै इम वाय। हे आर्यो ! जे कर्मपणे करि सुर ह तथा कर्म शेष रह्यां थाय ।। ६२. तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी-जइ णं भंते ! संजमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले। किपत्तियं णं भंते ! देवा देवलोएसु उववज्जति ? (श० २।१०१) ६३. निष्कारणमेव देवा देवलोकेषुत्पद्यन्ते तपः संयमयोरुक्त नीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः। (वृत-प० १३८) ६४. तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी-पुब्बतवेणं अज्जो !देवा देवलोएसु उववज्जति। पूर्वतप:--सरागावस्थाभावि तपस्या, वीतरागावस्थाsपेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात्।। (वृ०प० १३८) ६५. तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी---- पुव्वसंजमेणं अज्जो ! देवा देवलोएसु उववति । ६६. तत्थ णं आणंदरक्खिए नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी-कम्मियाए अज्जो! देवा देवलोएस उवव ज्जति। ६७. तत्थ णं कासवे नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति । ६८. पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववज्जति । ६६. सच्चे णं एस अट्ठ, नो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए । (श० २११०२) ७०. तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवतेहि इमाइं एयारू वाई वागरणाई वागरिया समाणा हट्ठतुट्ठा ७१. थेरे भगवंते वंदंति नमसंति, पसिणाई पुच्छंति, अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता ७२ उठाए उठेति उठेत्ता थेरे भगवंते तिक्खुत्तो वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता ७३. थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुप्फवतियाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति । जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया। (श० २११०३) ७४. तए णं ते थेरा अण्णया कयाई तुंगियाओ नयरीओ पुप्फवतियाओ चेइयाओ पडिनिग्गच्छंति, बहिया जणवयविहारं विहरंति। (श० २।१०४) . ६७. कासव स्थविर कहै हे आर्यों! संग-भाव करी सुर थाय। संयम-युक्त पिण द्रव्यादि ऊपर, संग करतां मुक्ति नहिं जाय ।। ६८. सराग-तपसा सराग-संजम कर, कर्म करी संग कर ताह्यो। देवलोक देवजन विष आर्यो ! सुरपणे ऊपजै जायो।। ६६. सत्य अर्थ ए च्यारूइ आख्या, निज अभिप्राय थी कह्या नांह्यो। अभिमान बुद्धि थकी अम्है न कह्या, परमार्थ थी कहिवायो ।। ७०. तिण अवसर ते श्रावक बहुला, स्थविर भगवंते एहो। एहवे रूपे वर अर्थ प्रश्न ना, कह्या छता हरहो।। ७१. तुष्टमान थइ स्थविर भणी ते, वंदी करी नमस्कार। प्रश्न पूछे प्रश्न प्रति पूछी नै, अर्थ ग्रहै अर्थ ग्रही सार।। ७२. ऊभा थायवै करी ऊठ ऊठी, स्थविर भगवंत नै तिणवार। वंदै वचन स्तुति नमस्कार कर, वंदी करी नमस्कार ।। ७३. स्थविर भगवंत समीप थकी जे, पुप्फवती सखदाय। चैत्य थकी निकलै निकली ने, आया जिण दिशि जाय ।। ... ७४. ताम स्थविर अन्यदा तुंगिया थी, पुप्फवति चैत्य थी जेह। नीकलै नीकली बाहिर जनपद, विहार करी विचरेह ।। १. 'उठाए....पडिनिक्खमति' अंगसुत्ताणि भाग २ श०२।१०३ में यह पाठ नहीं है। जयाचार्य ने इसकी जोड़ की है। अंगसूत्ताणि में यह पाठान्तर के रूप में स्वीकृत किया गया है। श०२, उ०५, ढा०४३ २७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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