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________________ ५२. अचित्त द्रव्य वस्त्रादिक अणतजिर्व, छत्रपानही शस्त्रादि छोडे । इक पट वस्त्रे उत्तरासंग कीधो, देख्यै छतै बिहु कर जोड़े || ५३. चंचल मन ने एकस्व कीधो स्थविर भगवंत पे आया। जीमणा कर थी प्रारंभी प्रदक्षिण, करें तीन बार हुलसाया || ५४. जाव करै त्रिहुं जोग थी सेवा स्थविर भगवंत तिवार । ते श्रमणोपासक हवी मोटी परपद में प्यार याम धर्म कहे सार ॥ , ५५. केसी श्रमण जिम वाण प्रकासी, जाव पाली श्रावक नों धर्म । आज्ञाए करो आराधक होवे, जाव धर्म का पर्म ॥ ५६. तिण अवसर ते बहुला श्रावक, ते स्थविर भगवंत रे पाह्यो । धर्म सुणी फुन हृदय धरी ने पाया हरष संतोष सवायो || ५७. जाव हियो विकस्यो छे तेहनं तीन सुविचार | दक्षिण कर थी प्रारंभी प्रदिक्षण, करं तिवार ।। ५८. जाव करै त्रिहुं जोग थी सेवा, अवलोय | 1 हे भगवंत संजम नों स्यूं फल ? ५६. तब स्थविर भगवंत कहै श्रावका ने, नवा इम बोल्या स्वामी! तपनो फल स्यूं होय ? अहो आर्य संजम फल सोय । कर्म अणउपजाय ते अनाश्रवपणो संवर होय || , ६०. तपनं फल बोदा को है, पूर्व कर्म रूप वन गहन प्रत जे लूणं ६१. अथवा जेह पूर्वलो तास शोधन ते अलगा बार करीने कीधो, कचरो करिखूं, आत्म Jain Education International अवलोय | छेदवूं होय ॥ कृत कर्म रूप प्रति शुद्ध जेह | करेह || १. पांच अभिगमों में एक है 'अचित्ताणं अविउसरणाए' टीकाकार ने इस पाठ की व्याख्या करते हुए लिखा है— अचित्ताणं ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् अविसरणपाए त्ति अत्यागेन' जयाचार्य ने इस व्याख्या के अनुरूप जोड़ करके आगे लिखा है— 'छत्र पानही शस्त्रादि छोडे' यह अर्थ न तो मूल पाठ से निकलता है और न टीका के आधार पर ही संभव है यहां जयाचार्य ने अपनी स्वतन्त्र मनीषा से यह रहस्य निकाला है | आगम- सम्पादन के समय हमारे सामने यह पाठ आया था। उस समय एक चिन्तन आया कि अचित्त द्रव्यों को नहीं छोड़ना अभिगम कैसे हो सकता है ? यदि इस पाठ के स्थान पर अचित्ताणं अ (च) विउसरणयाए पाठ हो तो छत्र, जूते, शस्त्र आदि के छोड़ने की बात सम्मत हो सकती है। जयाचार्य कृत उक्त जोड़ से भी यह तथ्य पुष्ट होता है। २७२ भगवती जोड़ ५२. अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए, एकसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गणं । 'अचित्ताणं' ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् अविउसरणयाए ति अत्यागेन । (२०-२० १३७) ५३. मणसो एगत्तीकरणेणं जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उपागच्छतावित आया-पाह करेंति करेत्ता ५४. जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । (श० २२६७ ) तणं तेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महत्वपरिसाए पाउना धम्मं परिकति ५५. जहा केसिसारस जान समगोवासिवत्ताए आणाए आराहए भवंति जाव धम्मो कहिओ । ( श० २1१८ ) " ५६. तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवताणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा ५७. जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिणपाहि करेति ५८. करेत्ता एवं वयासी संजमेणं भंते ! किंफले ? तवे फिले? ( श० २/६९ ) ५६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं व्यासीसंजमेणं अशो! अगले 'अफ' त्ति न आश्रवः अनाश्रवः, अनाश्रवो-नव कम्मनुपादानं फलमस्येत्वनाचफल- संयमः ॥ ( वृ० प० १३८) (०२०१००) ६०. तवे वोदाणफले व्यवदा पूर्ववनगनस्य सवनम् । ( वृ० प० १३८ ) ६१. प्राक्कृतकर्म्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य तद्वयवदानफलं तप इति । (बु०-१० १२० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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