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________________ ४१. वृत्तिकार कह्यताहि, बलिकर्म ते गृह देवता। तसं पूजा करि ताहि, इहां कुल देवी संभवै ।। स्नान विशेषण सोय, वा पूजी गृह देवता। उभय अर्थ अवलोय, सत्य सर्वज्ञ वदै तिको'। (ज० स०) ४३, ४४. कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता कौतुकानि–मषीतिलकादीनि, मंगलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतदुर्वांकुरादीनि। (वृ०-प० १३७) हिव श्रावक तुंगिया तणा, स्नान बलिकर्म कीध । बलि कोतुक कीधा तिणे, तिलकादि सूप्रसीध ।। मंगलीक नै अर्थ बलि, सरसव दही अक्षत। द्रोब अंकूरादिक ग्रहै, वृत्तिकार ए कृत ।। ४५. जिम ए मग लोकीक है, सावज्ज कारज जाण । बलिकम्मे पिण इमज है, न्याय हिया में आण ।। दुःसुपनादिक टालिवा, करिवा योग्य अवश्य । ते कार्य मंगलीक करी, लोकिक मग ए रहस्य ।। वा०—सुद्धप्पावेसाइति । सुद्धप्पा कहितां शुद्ध आत्मा ते महान आत्मा, वेसाई कहितां जोग्य वेस । अथवा सुद्धप्पावेसाई कहितां राजादिक नी सभा नैं विर्ष प्रवेश करवा जोग्य प्रवर मंगलीक वस्त्र पहिर्या । ४६. दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वात् । (वृ०-५० १३७) वा०—'सुद्धप्पावेसाई' त्ति शुद्धात्मनां वैष्याणिवेषोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि चराजादिसभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि । (वृ०-५० १३७) ४७. सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया ४७. नपति प्रमुख नी जे सभा, प्रवेश योग्य' पिछाण । शुद्ध वस्त्र मंगलीक वर, पहिरचा उत्तम जाण ।। ४८. वस्त्र पवर बहु पहिरिया, ए प्रथम पाठ अर्थ पेख। पवर हुवै जिम पहिरिया, द्वितीय पाठ अर्थ देख ।। ४६. अल्प भार अरु मोल बहु, अलंकृत करि देह। निज-निज घर सूं नीकल्या, थया एकठा तेह ।। पग विहारचारी थका, तुगिया नै मध्य होय । पुप्फवती जिहां चैत्य है, तिहां आया अवलोय ।। ४८. 'वत्थाई पवराई परिहिय' ति क्वचित्दृश्यते, क्वचिच्च 'वत्थाई पवरपरिहिय' ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथाभवत्येवं परिहिताः प्रवरपरिहिताः। (वृ-प०१३७) ४६. अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा सरहि-सएहि गिहेहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, ५०. पायविहायचारेणं तुंगियाए नयरीए मझमज्झेणं निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता जेणेव पुष्फवतिए चेइए तेणेव उवागच्छंति, ५०. *हो म्हारा तिरण तारण जिन राज पार्श्वना स्थविर संतानिया सारं। (ध्रुपदं) ५१. स्थविर भगवंत - पंच प्रकारे, अभिगमण साचवंत। सचित द्रव्य नै अलगा मेल्या, पुष्पादि जेह तजंत ।। ५१. थेरे भगवते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति, तं जहा–सच्चित्ताणं दव्याणं विओसरणयाए सच्चित्ताणं त्ति पुष्पताम्बूलादीनां। (व०-५० १३७) लय-हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी श०२, उ०५, ढा ४३ २७१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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