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संयमासंयमी
जीव तीन प्रकार के होते हैं-असंयमी, संयमासंयमी और संयमी । प्रस्तुत सूत्र में संयमासंयमी के विषय में कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है । वृत्तिकार ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है। जयाचार्य ने इस प्रश्न को उपस्थित कर उसका समाधान किया है। उनके अनुसार संयमासंयमी पांचवें गुणस्थान का अधिकारी होता है। वह छट्ठे और सातवें गुणस्थान के अधिकारी संयमी की श्रेणी में नहीं जा सकता। उसके पूर्व विरति नहीं है, अतः अविरति की दृष्टि से वह असंयमी की श्रेणी में जा सकता है—
सार ||
तिण अर्थ गौतम ! इम आख्या, आत्म पर उभयारंभा के भाख्या । के इ अणारंभा सुखकार, हि न्याय कहे जय संसारी ना किया दोय भेद, संजती असंजती सुवेद । संजता संजती कियो नांह्यो, हिवै श्रावक किण मांहे आयो ॥ संजती ना बे भेद सुतत्थ, प्रमत्त संजती नैं अप्रमत्त । प्रमत्त संजती छठो गुणठाणो, अप्रमत्त सातमा थी जाणो || यां में तो श्रावक नहीं आवै, पंचमे गुण श्रावक पावै । अविरत आश्री असंजती मांय इण रो जाणें समदृष्टि न्याय || सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया जगतार ॥ तीजो भेद कियो नाहि, ति अविरत आधी असंजती मांहि ॥ या सं
मुनि में छहों लेश्याओं का अस्तित्व
वृत्तिकार ने मुनि में कृष्ण, नील और कापोत- इन तीन अप्रशस्त भाव - लेश्याओं का निषेध किया है। जाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत की आलोचना की है और मुनि में अप्रास्त भाव-लेस्याओं का अस्तित्व सिद्ध किया है। उसमें भगवती के अतिरिक्त प्रज्ञापना, प्रज्ञापना वृत्ति, औपपातिक, दशवैकालिक आदि अनेक प्रत्थों का उपयोग किया है। एक सी सतरह (२०२४१४०) में की गई विस्तृत समीक्षा सूक्ष्म दृष्टि से
मननीय है ।
श्रमण और माहण
भगवती में श्रमण और माहण का एक साथ अनेक बार प्रयोग मिलता है। गर्भगत जीव के प्रकरण में तथारूप श्रमण और माहण का प्रयोग मिलता है। वृत्तिकार ने माहण का अर्थ स्थूल हिंसा आदि का त्याग करने वाला किया है।' जयाचार्य ने इस अर्थ को असंगत बतलाया है। इस प्रसंग में अनेक सूत्रों की चूर्णियों और टीकाओं में मिलने वाले आगम विरोधी प्रसंगों का उल्लेख किया है। श्रमण के साथ होने वाला माहण शब्द का प्रयोग मुनि के अर्थ में ही होता है। इस स्थापना की पुष्टि में जयाचार्य ने अनेक आगमों के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। इस प्रसंग में उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला है कि वृषि और वृत्ति आदि की आगम-विरोधी व्याख्या को प्रमाण नहीं माना जा सकता
१. भगवती जोड़ श० १३० १ ढा० ५।१४-१८
२. भगवती - वृत्ति पत्र ३३, कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यच्चोच्यते "पुव्वपडिवण्णओ पुण अन्नयरीए
उलेसाए" त्ति तद्द्द्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यम् ।
३. भगवती वृत्ति पत्र ८६,६०
'माहणस्स' त्तिमा हुन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद्यः स माहन अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्मणो देश विरतः तस्य वा ।
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