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________________ ६२. जिनशासन नो जेह, अर्थ उपदेश वांछह । आछेलाल । तसं अर्थ उपदेश देविय' ।। वा०-सूत्रार्थ ना जाण, औदार्यादि गुण युक्त, गच्छ नै विष मेढीभूत, गच्छ नी चिंता वा-सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य। करी विप्र मुक्त, अर्थ नां दायक एहवा आचार्य । गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरिओ॥ (वृ०-५०३) १३. अथवा ज्ञानादि आचार, पच प्रकार विचार, नीकेलाल । १३. अथवा आचारो-ज्ञानाचारादिः पञ्चधा। आ मर्यादा करी धरै ।। (वृ०-५० ३) बा......'ज्ञानाचार 'दर्शनाचार 'चारित्राचार तपाचार वीर्याचार ए पांच आचार मर्यादा करि के सेवै। १४. अथवा आचार विहार, तेह विषै सुविचार। प्यारेलाल। ६४-६६. आ-..मर्यादया वा चारो-विहार: आचारस्तत्र निपुण, चतुर गुण आदरै॥ साधवः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः, ६५ ते पंच आचार उदार, पोते आचरवा थी सार। आह चपरूपवा थी पिछाणियै ।। "पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता। ६६. देखाङवा थी देख, निपूण घणां विशेष । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥" एहवा आचारज जाणिय ।। ६७. तथा आ ईपत् ऊणो ताय, चार - कल्प कहिवाय। ६७-१००. अथवा आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चारातेह आचारा जाणिय ।। हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः। युक्ता१८. युक्त अयुक्त विभाग, तास निरूपण माग। युक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या अतस्तेभ्यः । निपूण,विनेया शिष्यमाणिय।। १६. एहवा सुविनीत सीस विषेह, शास्त्रार्थ वर देह । सुद्ध उपदेश देवे करी॥ १००. इण हेतु थी ताय, आचार्य । कहिवाय। तसुं नमस्कार थावो वरी॥ बा०---आ कहितां ईषत् ऊणो अपरिपूर्ण, चार कहितां कल्प ते आचारा-शिष्य । इण कारण थकी ते शिष्य नै विष यथावत् शास्त्र नां अर्थ नै उपदेशकपणे करी ते आचार्य कहिये। एतले सर्व सावज्ज रा त्यागी छै तो पिण प्रमत्त गुणठाण चूकवा रो ठिकाणो, कल्प-आचार में खामी पडै तिण सूं ऊणो चार–कल्प कह्यो ते साधु नै सुद्ध उपदेश देवे करी सावधान करै ते आचार्य कहिये। गीतक-छंद वर पंच जे आचार नां उपदेश ना दायक गणी। उपकारिका छै ते भणी ए नमण योग्या गण-धणी।। १०१. नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् (वृ०-५०४) १०२. नमो उवज्झायाणं । (श०१/१) दूहा १०२. नमस्कार थावो बली, उपाध्याय ने सार । एह शब्द नों अर्थ इम, आगल कहूं उदार ।। १. जिन प्रवचन के अर्थ का उपदेश देने के कारण उपदेश सुनने के इच्छुक शिष्यों द्वारा आ-गुरु के प्रति उचित विनय रूप से, चर्यन्ते-सेवा की जाती है जिनकी, वे आचार्य होते हैं। श० १, उ० १, ढा० १ १३. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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