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________________ १०३. १०४. १०५. १०६. १०७. १०८. १०६. ११०. १११. ११२. सोरठा उप जे समीप आय, करै ते उपाध्याय कहिवाय, धातु वा० -उप कहितां जेहनें समीप आवी ने अधीयते कहितां पढिये ते उपाध्याय । इङ् धातु अध्ययन नें विषै छै ते माटै। वा० अध्ययन जेह थकी। 'इङ् अध्ययन' में || उप जे समीप आय, जाणें अधिकज जे थकी । ते उपाध्याय कहिवाय, धातु 'इण् गति' अर्थ में ॥ -गति अर्थ नैं विषै जे धातु ज्ञानार्थ हुवै। उप जे समीप आय, स्मरण करैज जेह थको । ते उपाध्याय कहिवाय, धातु 'इक् स्मरण' दिषै ॥ सूत्र थकी सुविचार, श्री जिन प्रवचन जे थकी चितवियै जे द्वादशांग जिन ते उपदि सार, स्मरण अर्थ विषै तिको ।। ख्यात, गणधर देवे सुजात, उपाध्याय छै जे गंधिया भणी ॥ प्रवर " उपाधि समीप आय लाभ जसुं उपाधानं— उपाधि नाम संनिधि नों छँ, संनिधि नों अर्थ समीपवाची है । सोप तम् समीप करि होय, उपाध्याय कहिये तसु' ॥ वा० ते उपाधि - समीकरी अथवा उपाधि - समीप नै विषै आय-सूत्र नो लाभ जेने ते उपाध्याय कहियै । प्रस्ताव अथवा उपाधि जोय, नाम विशेषण नो इहां । थी अवलोय, सोभनीक वस्तु जिका ॥ वर्णन योग्य तेनों आप सुलाभ जे। जे थकी सुप्रयोग, उपाध्याय कहिये तम् ॥ प्रशस्त वा०- -इहां उपाधि नाम विशेषण नों को प्रस्ताव थकी सोभन ते वर्णन योग्य पदार्थ तेहनुं आय कहितां लाभ जे उपाधि थकी हुई ते माटै तेहने उपाध्याय कहिये। अथवा ३ उपाधिहीज, संनिधि समीप हीज छे । आय इष्टफल चीज, देव-जनित करि जाणवू ।। वह आप इष्टफल तेह तेहनों समूह इक हेतुपणेह, उपाध्याय कहिये जेहने Jain Education International तसुं ॥ १. 'उपाधानं उपाधिः सन्निधिः सामीप्यम्' जिनके सामीप्य से आय -- श्रुत का लाभ होता है, वे उपाध्याय होते हैं । २. उपाधीनां विशेषणानां आयः लाभः -- जिनसे अच्छी-अच्छी उपाधियों का लाभ मिलता है वे उपाध्याय हैं। ३. उपाधिरेव आयम् - उपाध्यायः, उपाधि - जिनका सान्निध्य ही आय - इष्टफल है, वे उपाध्याय कहलाते हैं । देवजनित अनेक इष्टफलों का समूह भी एक आय शब्द से कहा गया है। १४ भगवती-जोड़ १०३. उप- समीपमागत्याधीयते 'इङ् अध्ययने' इति वचनात् पठ्यते । ( वृ० प० ४) १०४. 'इण् गता' वितिवचानाद्वा अधि-आधिक्येन गम्यते । (००४) १०५, १०६. 'इक् स्मरणे' इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः । ( वृ००४) १०७. ओ ओहिओ हे। तं उवइति जम्हा, उवज्झाया तेण वुच्चति ॥ (१०-१० ४) १०. अथवा उपाधानमुपाधिः संनिधिस्तेनोपाधिना उपाधी वा आयो लाभः श्रुतस्य । (१०-१०४) १०६, ११०. येषामुपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो लाभो येभ्यः । (बु०प०४) १११, ११२. अथवा उपाधिरेव संनिधिरेव आयम् - इष्टफलं दैवजनितत्वेन अयानाम् - इष्टफलानां समूहस्तयेषाम् ॥ ( वृ० प० ४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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