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________________ नहीं । इहां पिण वे पद कह्या। तथा उत्तराध्येन अ० ११२१ 'आलवंते लवंते वा न निसिएज्ज कयाइवि' गुरुइं आलवते कहितां एक बार बोलाव्यो वा-अथवा लवते वा कहितां बार बार बोलाव्यो तो शिष्य बैठो रहै नहीं। इहां पिण बे पद कह्या। तथा उत्तराध्येन अ० १११५ 'नासीले न विसीले' नासीले कहितां सर्वथा चारित्र नीं विराधना नथी, विसीले कहितां देश थकी चारित्र नी विराधना नथी। इहा पिण देश अनै सर्व ए बे पद कह्या । तथा बृहत्कल्प उ०३ बोल २१ अंतघर नै विष साधु नै न कल्पै निदाइत्तए वा कहितां थोड़ी नींद लेवी, पयला इत्तए वा कहितां विशेष ऊंघवो। इहां पिण बे पद कह्या । इत्यादिक अनेक ठांमें बे-बे पद कह्या । तिम इहां पिण बे पद जाणवा। लिपि शब्द भाव लिपि ते देश थकी श्रुत ज्ञान। अनै नमो सुयस्स ते सर्वश्रुत ज्ञान कह्यो तथा लिपि ना कर्ता ऋषभदेव नै लिपिक कहिये । ते चारित्रयुक्त प्रथम जिन नै नमस्कार। इहां वृत्तिकार का अरिहंत पिण तीर्थ नै नमस्कार कर ते अर्थ सूत्र सूं मिलतो नथी। वलि जे कहै छद्मस्थ तीर्थकर साधु नै नमस्कार नथी करै तो केवल उपना पछ तीर्थ नै नमस्कार किम करै । तथा आचारांग श्रु०२ अ०१५३२ में सिद्धां नै नमस्कार करी महावीर स्वामी दीक्षा लीधी एह कह्य, पिण तीर्थ नै नमस्कार करी दीक्षा लीधी एहवं नथी कह्य । छदमस्थपणे दीक्षा लेतां तथा लियां पछै सिद्धां ने नमस्कार कर पण तीर्थ नै न करै, तिमहीज केवल ऊपनां पछै सिद्धां नै नमस्कार करै पिण तीर्थ नै न कर, न्याय विचारी जोइज्यो।' इम प्रथम शतक ना दश उद्देशां नै विष कहिवा योग्य जे अर्थ ते लेश थकी पूर्वे देखाड यो हिवै 'यथोद्देशं निर्देशः' इण न्याय आश्रयी नै पहिला प्रथम उद्देशक नां अर्थ विस्तार थकी कहिवा प्रथम उद्देशकार्थ विस्तार नै गुरु परंपरागत संबंध देखाड़ते छते भगवान् सुधर्म स्वामी जंबू स्वामी प्रति इम कहै छै---'तेणं कालेणं तेणं समएण' इत्यादि । अथ किण प्रकार करिकै इम जाणिय-सुधर्म स्वामी जंबू स्वामी ने लक्ष्य करी नै ए ग्रन्थ नी रचना कीधी? सुधर्म स्वामी नी वाचना नों अनुवर्तीज ए ग्रन्थ छै, ते माटै । कह्यो पिण छै तीर्थ गणधर सुधर्मा थी ज चाल्यो, शेष गणधरों नी परम्परा नथी चाली। सुधर्म स्वामी रै जंवू स्वामीहीज प्रधान शिष्य, इण कारण थकी ते जंवू प्रति आश्रयी नै ए वाचना नी प्रवृत्ति करी। तथा छठा अंग नै विर्ष एहवो उपोद्घात एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः प्राग्दशितः, ततश्च यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्यादित: प्रथमोद्देशकार्थप्रपञ्चो वाच्यः, तस्य च गुरुपर्वक्रमलक्षणं सम्बन्धमुपदर्शयन् भगवान् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाथित्येदमाह । अथ कथमिदमवसीयते-यदुत सुधर्मस्वामीजम्बूस्वामिनमभि सम्बन्धग्रन्थमुक्तवानिति ? उच्यते, सुधर्मस्वामिवाचनाया एवानुवृत्तत्वात्, आहच'तित्थं च सुहम्माओ निरवच्चा गणहरा सेसा' सुधर्मस्वामिनश्च जम्बूस्वाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्यय वाचना प्रवृत्तेति, तथा षष्ठांगे उपोद्घात एवं दृश्यतेयथा किल मुधर्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह-"जइ १. वृत्तिकार ने इस संदर्भ में एक प्रश्न उठाया है—मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार होता है। श्रुत इष्ट देवता नहीं है, इस स्थिति में उसे नमस्कार क्यों? वृत्तिकार के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-श्रुत इष्ट देवता ही है, क्योंकि अर्हतों ने भी उसे नमस्कार किया है सिद्धों की भांति । अर्हत् श्रुत को नमस्कार करते हैं, इस तथ्य की पुष्टि 'नमस्तीर्थाय' इस वाक्य से होती है। यहां तीर्थ का अर्थ श्रुत है, क्योंकि वह संसार-सागर से पार पहुंचने का असाधारण कारण है। श्रुत का आधार होने से ही संघ को तीर्थ शब्द से अभिहित किया गया है। अर्हत् मंगल के लिए सिद्धों को नमस्कार करते ही हैं । इस प्रकार वृत्तिकार ने श्रुत को इष्ट देवता के रूप में प्रमाणित किया है और अर्हत् के द्वारा भी तीर्थ को नमस्कार करवाया है। जयाचार्य वृत्तिकार के इस मत से अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। श०१, उ० १, ढा० १ २३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
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