SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४. १८५. तेहिज प्रकृष्ट दोष जे, जीव प्रदूषण तेह। कांक्षा-प्रदोष' तसं कह्य', तास विषय पभणेह ।। जीव अहो भगवंत जी, कांक्षा मोहनी कर्म । कोध इत्यादिक अर्थ, निर्णय तृतीय सुपर्म ।। चतुर्थ कर्म-प्रकृति नं, कितली पुढवी ख्यात। इत्यादिक जे अर्थ नु, निर्णय पंचम आत ।। १८६. १८४. स एव प्रकृष्टो दोषो-जीवदूषणं कांक्षाप्रदोषस्तद्विष यस्तृतीयः। १८५. 'जीवेन भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म कृतमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः ३, (वृ०-प०६) १८६. प्रकृतयः-कर्मभेदाश्चतुर्थोद्देशकस्यार्थः, कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः? इत्यादिश्चासौ ४, 'पुढवीओ' त्ति रत्नप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमे वाच्याः । (वृ०-५०६) १८७. 'जावते' त्ति यावच्छब्दोपलक्षितः षष्ठः 'यावतो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ ६, १८७. जावते प्रभु जेतला, अवकाशांतर ऊगतो रवि प्रमुख ही, पप्ट मुद्देश थीज । कहीज॥ १८८. नारक हे भगवंत जी! नरक विषेज निहाल । ऊपजता इत्यादि जे, सप्तमद्देशक भाल ।। १८८. 'नेरइए' त्ति नै रयिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः 'नरयिको भदन्त ! निरये उत्पद्यमान' इत्यादि च तत्सूत्रं ७ । १८६ अष्टम एकांत बाल नु, जीव गुरु किम होय। चलणादि अन्य तीर्थ मत, दशम उद्देशे जोय ।। १८६. 'बाले' त्ति बालशब्दोपलक्षितोऽष्टमः एकान्तबालो भदन्त ! मनुष्य इत्यादिसूत्रश्चासौ ८, 'गुरुए' त्ति गुरुकविषयो नवमः कथं भदन्त ! जीवा गुरुकत्वमागच्छन्ति ? 'चलणाओ' त्ति बहुवचननिशाच्चलनाद्यादशमोद्देशकस्याः । (वृ०-५०६) वा०.-'अन्ययूथिका भदन्त ! एवमाख्यान्ति-चलद् अचलितमित्यादीति' प्रथमशतोद्देशकसंग्रहणिगाथार्थः तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमंगलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मंगलमाह (वृ०-५०६) १६०. नमो सुयस्स (श०१३) वा०---चलमाणे अचलिए चलवा लागो तेहनै चलियो न कहिणो इत्यादिक अन्यतीथिक नां मत नी वक्तव्यता गौतम पूछ दशमा उद्देशा नै विषै-ए प्रथम शतक ना दश उद्देशां नी संग्रहणी गाथा नों अर्थ कह्यो ते इम शास्त्र उद्देश ने विष मंगलादि कार्य कीधो तो पिण प्रथम शतक नां आदि नै विष विशेष थी मंगल कहै छ१६०. नमोश्रुत ते भावथुत, चरणयुक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ।। वा०-इहाँ कोई कहै श्रुतज्ञान नै नमस्कार कीधै तेहनै विर्ष भाव लिपि पिण आय गई, तो पूर्वे भाव लिपि नै नमस्कार कीधो तेहनों स्यू कारण ? 'नमो बंभीए लिवीए' अनै 'नमो सुयस्स' ए बे पद किम कह्या? तेहनों उत्तर-दशवैकालिक अध्येन ८।४० में कह्यो 'कुम्मोव्व अल्लीणपलीण गुत्तो'--काछवा नी पर आल्लीण ते ईषत् गुप्त , प्रलीन ते प्रकृष्टलीन—घणुं गुप्त । इहां बे पद कह्या । तथा दशकालिक अध्ययन ४ कह्यो-पृथ्वीकाय ऊपर 'न आलिहेज्जा' कहिता थोड़ो सो अथवा एक बार लिख नहीं, 'न विलिहेज्जा' कहितां बहु बार लिखै १. जीव को दूषित करने वाला प्रकृष्ट दोष कांक्षा-प्रदोष है। २. नमो बंभीए लिवीए और नमो सुयस्स-इन दोनों पाठों का जयाचार्य ने अपनी ताकिक बुद्धि से समन्वय किया है। उनके अनुसार लिपि और श्रुत दोनों ही भावश्रुत हैं। 'ब्राह्मी लिपि' शब्द देशतः भावभुत और श्रुत शब्द से सर्वतः भावश्रुत का ज्ञापक है। यहां प्रश्न उठ सकता है कि ब्राह्मी लिपि और श्रुत दोनों ही भावश्रुत के प्रतीक हैं, तो फिर दो पृथक् सूत्र बनाए ही क्यों? इस प्रश्न के समाधान में दोनों शब्दों की सार्थकता ज्ञापित करने के लिए जयाचार्य ने दशवकालिक, उत्तराध्ययन वृहत्कल्प आदि आगमों के अनेक उद्धरण काम में लिये हैं । (देखें १२१६० की वात्तिका) २२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003617
Book TitleBhagavati Jod 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages474
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy